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0॥8 ?7१६9$, 6088/(॥70॥ [9॥0£ 923]
॥ श्रीहरि: ॥ 437
( सचित्र, हिन्दी-अनुवादसहित )
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुद्च सरबा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रशय्रणं_त्वमेव
त्वमेत सर्व सम देवदेव॥।
गीताप्रेस, गोरखपुर
सं० २०७५ दसवाँ पुनर्मुद्रण ३,०००
कुल मुद्रण. ३५,५००
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॥ श्रीहरि: ॥
पुराण भारतीय संस्कृतिकी अमूल्य निधि है। यह एक ऐसा विश्वकोश है, जिसमें धार्मिक,
आर्थिक, नैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक आदि सभी विषय अति सरल एवं
सुगम भाषामें वर्णित हैं। वेदोंमें वर्णित विषयोंका रहस्य पुराणोंमें रोचक उपाख्यानोंके द्वारा प्रस्तुत किया
गया है। इसीलिये इतिहास-पुराणोंके द्वारा वेदोपबृंहणका विधान किया गया है। पुराणोंके परिज्ञानके
बिना वेद, वेदाड़ एवं उपनिषदोंका ज्ञाता भी ज्ञानवान् नहीं माना गया है। इससे पुराण-सम्बन्धी ज्ञानकी
आवश्यकता और महत्ता परिलक्षित होती है।
महापुराणोंकी सूचीमें पंद्रहवें पुराणके रूपमें परिगणित कूर्मपुराणका विशेष महत्त्व है। सर्वप्रथम
भगवान् विष्णुने कूर्म अवतार धारण करके इस पुराणको राजा इन्द्रद्य्नको सुनाया था, पुनः भगवान्
कूर्मने उसी कथानकको समुद्र-मन्थनके समय इन्द्रादि देवताओं तथा नारदादि ऋषिगणोंसे कहा।
तीसरी बार नैमिषारण्यके द्वादशवर्षीय महासत्रके अवसरपर रोमहर्षण सूतके द्वारा इस पवित्र पुराणको
सुननेका सौभाग्य अट्ठासी हजार ऋषियोंको प्राप्त हुआ। भगवान् कूर्मके द्वारा कथित होनेके कारण
ही इस पुराणका नाम कूर्मपुराण विख्यात हुआ।
रोमहर्षण सूत तथा शौनकादि ऋषियोंके संवादके रूपमें आरम्भ होनेवाले इस पुराणमें सर्वप्रथम
सूतजीने पुराण-लक्षण एवं अठारह महापुराणों तथा उपपुराणोंके नामोंका परिगणन करते हुए
भगवान्के कूर्मावतारकी कथाका सरस विवेचन किया है। कूर्मावतारके ही प्रसंगमें लक्ष्मीकी उत्पत्ति और
माहात्म्य, लक्ष्मी तथा इन्द्रद्युम्नका वृत्तान्त, इन्द्रद्युम्नके द्वारा भगवान् विष्णुकी स्तुति, वर्ण, आश्रम और
उनके कर्तव्यका वर्णन तथा परब्रह्मके रूपमें शिवतत्त्वका प्रतिपादन किया गया है। तदनन्तर
सृष्टिवर्णन, कल्प, मन्वन्तर तथा युगोंकी काल-गणना, वराहावतारकी कथा, शिवपार्वती-चरित्र, योगशास्त्र,
वामनावतारकी कथा, सूर्य-चन्द्रवंशवर्णन, अनसूयाकी संतति-वर्णन तथा यदुवंशके वर्णनमें भगवान्
श्रीकृष्णके मंगलमय चरित्रका सुन्दर निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें श्रीकृष्णके द्वारा
शिवकी तपस्या तथा उनकी कृपासे साम्बनामक पुत्रकी प्राप्ति, लिड्रमाहात्म्य, चारों युगोंका स्वभाव
तथा युगधर्म-वर्णन, मोक्षके साधन, ग्रह-नक्षत्रोंका वर्णन, तीर्थ-माहात्म्य, विष्णु-माहात्म्य, वैवस्वत
मन्वन्तरके २८ द्वापरयुगोंके २८ व्यासोंका उल्लेख, शिवके अवतारोंका वर्णन, भावी मन्वन्तरोंके नाम,
ईश्वरगीता, व्यासगीता तथा कूर्मपुराणके फलश्रुतिकी सरस प्रस्तुति है। हिन्दूधर्मके तीन मुख्य
सम्प्रदायों--वैष्णव, शैव एवं शाक्तके अद्भुत समन्वयके साथ इस पुराणमें त्रिदेवोंकी एकता, शक्ति-
शक्तिमानमें अभेद तथा विष्णु एवं शिवमें परमैक्यका सुन्दर प्रतिपादन किया गया है।
“कल्याण ' वर्ष ७१के विशेषाड्डूके रूपमें पूर्व प्रकाशित इस पुराणके विषय-वस्तुकी उपयोगिता
एवं पाठकोंके आग्रहको दृष्टिगत रखते हुए अब इसको पुराणके रूपमें सानुवाद प्रस्तुत करते हुए
हमें अपार हर्ष हो रहा है। आशा है, प्रेमी पाठक गीताप्रेससे प्रकाशित अन्य पुराणोंकी भाँति इस
पुराणको भी अपने अध्ययन-मनन तथा संग्रहका विषय बनाकर हमारे श्रमको सार्थक करेंगे।
- प्रकाशक
विषय
8 है ६
१- सूतजीकी उत्पत्ति, उनके रोमहर्षण नाम
पड़नेका कारण, पुराणों तथा उपपुराणोंका
नाम-परिगणन, समुद्र-मन्थनसे उत्पन्न
विष्णुमायाका वर्णन, इन्द्रद्यम्का आख्यान
और कूर्मपुराणकी महिमा ...................-
२- विष्णुके नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव,
रुद्र तथा लक्ष्मीका प्राकट्य, ब्रह्माद्वारा नौ
मानस पुत्रों तथा चार वर्णोंकी सृष्टि, वेदज्ञानकी
महिमा, ब्रह्म-सृष्टिका वर्णन, वर्ण और आश्रमों-
के सामान्य तथा विशेष धर्म, गृहस्थाश्रमका
माहात्म्य, चतुर्विध पुरुषार्थोमें धर्मकी महिमा,
आश्रमोंका द्वैविध्य, त्रिदेवोंका पूजन, त्रिपुण्ड,
तिलक तथा भस्म-धारणकी महिमा .......
३- आश्रमधर्मका वर्णन, संन्यास ग्रहण करनेका
क्रम, ब्रह्मापणका लक्षण तथा निष्काम-
कर्मयोगकी महिमा .................----०-०-०--
४- सांख्य-सिद्धान्तके अनुसार ब्रह्माण्डकी सृष्टिका
क्रम, पश्चजीकरण-प्रक्रिया तथा परमेश्वरके
विविध नामोंका निरूपण ...................
५- ब्रह्माजीकी आयुका वर्णन, युग, मन्वन्तर
तथा कल्प आदि कालकी गणना, प्राकृत
प्रलय॒ तथा कालकी महिमाका वर्णन...
६- 'नारायण” नामका निर्वचन, वराहरूपधारी
नारायणद्वारा पृथ्वीका उद्धार, सनकादि
ऋषियोंद्वारा वराहकी स्तुति ...................
७- नौ प्रकारकी सृष्टि, ब्रह्माजीके मानस पुत्रोंका
आविर्भाव, ब्रह्माजीके चारों मुखोंसे चारों
वेदोंकी उत्पत्ति इत्यादिका वर्णन .........
८- सृष्टि-वर्णनमें ब्रह्माजीसे मनु और शतरूपाका
प्रादुर्भाव, स्वायम्भुव मनुके वंशका वर्णन,
दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंका वर्णन तथा
॥ श्रीहरि: ॥
विषय-सूच्ची
( पूर्वविभाग )
पृष्ठ-संख्या
४6
अध्याय विषय
उनका विवाह, धर्म तथा अधर्मकी
संतानोंका विवरण ..............................
९-शेषशायी नारायणकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
तथा उसी कमलसे ब्रह्माका प्राकट्य, विष्णु-
मायाद्वारा ब्रह्माका मोहित होकर विष्णुसे
विवाद करना, भगवान् शंकरका प्राकट्य,
विष्ण॒द्वारा ब्रह्माको शिवका माहात्म्य बताना,
ब्रह्माद्वारा शिवकी स्तुति तथा शिव और
विष्णुके एकत्वका प्रतिपादन ................
१०-विष्णुद्दारा मधु तथा कैटभका वध,
नाभिकमलसे ब्रह्माकी उत्पत्ति तथा उनके
द्वारा सनकादिकी सृष्टि, ब्रह्मासे रुद्रकी उत्पत्ति,
रुद्रकी अष्टमूर्तियों, आठ नामों तथा आठ
पत्नियोंका वर्णन, रुद्रके द्वारा अनेक रुद्रोंकी
उत्पत्ति तथा पुनः वैराग्य ग्रहण करना,
ब्रह्मद्वारा रुद्रकी स्तुति तथा माहात्म्य-वर्णन,
रुद्रद्वारा ब्रह्माको ज्ञानकी प्राप्ति, महादेवका
त्रिमूर्ततिव और ब्रह्माद्वा/ अनेक
प्रकारकी सृष्टि .............................- «०
११- सती और पार्वतीका आविर्भाव, देवी-माहात्म्य,
हैमवती-माहात्म्य, देवीका अष्टोत्तरसहर्ननाम-
स्तोत्र, हिमवानूद्वारा देवीकी स्तुति एवं
हिमवान्को देवीद्वारा उपदेश, देवीसहस्ननाम-
स्तोत्र-जपका माहात्म्य .........................
१२- महर्षि भृगु, मरीचि, पुलस्त्य तथा अत्रि
आदिद्वारा दक्ष-कन्याओंसे उत्पन्न संतान-
परम्पराका वर्णन, उनचास अग्रनियों, पितरों
तथा गड्ाके प्रादुर्भावका वर्णन..............
१३-स्वायम्भुव मनुके वंशका वर्णन, चाक्षुष मनुकी
उत्पत्ति, महाराज पृथुका आख्यान, पृथुका
वंश-वर्णन, पृथुके पौत्र 'सुशील 'का रोचक
पृष्ठ-संख्या
विषय
आख्यान, सुशीलको हिमालयके ' धर्मपद'
नामक वनमें महापाशुपत श्वेताश्वतर मुनिके
दर्शन तथा उनसे पाशुपत-ब्रतका ग्रहण,
दक्षके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा पुनः दक्ष
प्रजापतिके रूपमें आविर्भावकी कथा, दक्षद्वारा
शंकरका अपमान, सतीद्वारा देह-त्याग तथा
शंकरका दक्षको शाप...................-------
१४- हरिद्वारमें दक्षद्वारा यज्षका आयोजन, यज्ञमें
शंकरका भाग न देखकर महर्षि दधीचद्वारा
दक्षकी भर्त्सना तथा यक्ञमें भाग लेनेवाले
ब्राह्मणोंको शाप, देवी पार्वतीके कहनेपर
शंकरद्वारा रुद्रों, भद्रकाली तथा वीरभद्रको
प्रकट करना, वीरभद्रादिद्वारा दक्षके
यज्ञका विध्वंस, शंकर-पार्वतीका यज्ञस्थलमें
प्राकटय, भयभीत दक्षद्वारा शंकर तथा
पार्वतीकी स्तुति और वर प्राप्त करना,
ब्रह्माद्वारा दक्षको उपदेश और शिव-विष्णुके
एकत्वका प्रतिपादन तथा दक्षद्वारा शिवकी
शरण ग्रहण करना.....................---------
१५-दक्ष-कन्याओंकी संतति, नृसिंहावतार, हिरण्य-
कशिपु एवं हिरण्याक्ष-वधका वर्णन, पृथ्वीका
उद्धार, प्रह्मद-चरित, गौतमद्वारा दार्वननिवासी
मुनियोंको शाप, अन्धकके साथ महादेवका
युद्ध एवं महादेवद्वारा अपने स्वरूपका उपदेश,
अन्धकद्वारा महादेवकी स्तुति तथा महादेव
(शंकर)-द्वारा अन्धकको गाणपत्य-पदकी
प्राप्ति, अन्धकद्वारा देवीकी स्तुति और देवीद्वारा
अन्धकको पुत्र-रूपमें ग्रहण करना तथा
विष्णुद्वारा उत्पन्न माताओंसे अपनी तीनों
मूर्तियोंका प्रतिपादन ..........................--
१६- सनत्कुमारद्वारा आत्मज्ञान प्रातकर प्रह्माद-
पुत्र विरेचनका योगमें संलग्न होना, विरोचन-
पुत्र बलिद्वारा देवतवाओंको पराजित करना,
देवमाता अदितिका दुःखी होना तथा विष्णुसे
प्रार्थनाकर पुत्ररूपमें उनके उत्पन्न होनेका
पृष्ठ-संख्या
९१
वर प्राप्त करना, अदितिके गर्भमें विष्णुका
प्रवेश, विष्णुका वामनरूपमें आविर्भाव,
बलिके यज्ञमें वामनका प्रवेश तथा तीन
पग भूमिकी याचना, तीसरे पगसे नापते
समय ब्रह्माण्ड-भेदन, गड्ाकी उत्पत्ति तथा
भक्तिका वर प्रातकर बलि आदिका
पातालमें प्रवेश ................---०००००००००००००-
१७-बलिपुत्र बाणासुरका वृत्तान्त, दक्ष प्रजापतिकी
दनु, सुरसा आदि कन्याओंकी संतानोंका
बर्णन: का व 8 मेज तब 0000 70076
१८-महर्षि कश्यप तथा पुलस्त्य आदि ऋषियोंके
वंशका वर्णन, रावण तथा कुम्भकर्ण आदिकी
उत्पत्ति, वसिष्ठके वंश-वर्णनमें व्यास, शुकदेव
आदिकी उत्पत्तिकी कथा, भगवान् शंकरका
ही शुकदेवके रूपमें आविर्भूत होना.......
१९- सूर्यवंश-वर्णनमें वैवस्वत मनुकी संतानोंका
वर्णन, युवनाश्रको गौतमका उपदेश,
महातपस्वी राजा वसुमनाकी कथा, वसुमनाके
अश्वमेध-यज्ञमें ऋषियों तथा देवताओंका
आगमन, ऋषियोंद्वारा तपस्याकी आज्ञा प्रातकर
वसुमनाका हिमालयमें जाकर तप करना
और अन्तमें उसे शिवपदकी प्राप्ति.........
२०- इक्ष्वाकु-वंश-वर्णनके प्रसंगमें श्रीराम-कथाका
प्रतिपादन, श्रीरामद्वारा सेतु-बन्धन और
रामेश्वर-लिंगकी स्थापना, शंकर-पार्वतीका
प्रकट होकर रामेश्वर-लिंगके माहात्म्यको
बतलाना, श्रीरामको लव-कुश पुत्रोंकी प्राप्त
तथा इशक्ष्वाकु-वंशके अन्तिम राजाओंका
१०४ | २१-चन्द्रवंशके राजाओंका वृत्तान्त, यदुबंश-वर्णनमें
कार्तवीर्यार्जुनके पाँच पुत्रोंका आख्यान, परम
विष्णुभक्त राजा जयध्वजकी कथा, विदेह
दानवका पराक्रम तथा जयध्वजद्दारा विष्णुके
अनुग्रहसे उसका वध, विश्वामित्रद्वारा विष्णुकी
आराधनाका जयध्वजको उपदेश करना और
विषय
जयध्वजको विष्णुका दर्शन ..................
२२- जयध्वजके वंश-वर्णनमें राजा दुर्जयका
आख्यान, महामुनि कण्दद्वारा दुर्जयको
वाराणसीके विश्वेश्वर-लिंगका माहात्म्य
बतलाना, दुर्जयका वाराणसी जाकर पाप-
मुक्त होना तथा सहस्नजितू-वंशका वर्णन.
२३- यदुवंश-वर्णनमें क्रोष्टवंशी राजाओंका वृत्तान्त,
राजा नवरथकी कथा, सात्त्वतवंश-वर्णनमें
अक्रूरकी उत्पत्ति, राजा आनकदुन्दुभिका
आख्यान, कंस एवं वसुदेव-देवकीकी
उत्पत्ति, वसुदेवका वंश-वर्णन, देवकीके
अन्य पुत्रोंकी उत्पत्ति, रोहिणीसे संकर्षण-
बलराम तथा देवकीसे श्रीकृष्णका आविर्भाव,
वासुदेव कृष्णका वंश-वर्णन ................
२४-पुत्र-प्राप्तिके लिये तपस्या करने-हेतु भगवान्
श्रीकृष्मका महामुनि उपमन्युके आश्रममें
जाना, महामुनि उपमन्युद्वारा उन्हें पाशुपत-
योग प्रदान करना, तपस्यामें निरत कृष्णको
शिव-पार्वतीका दर्शन और श्रीकृष्णद्वारा
उनकी स्तुति करना, शिवद्ठारा पुत्रप्राप्तिका
वर देना तथा माता पार्वतीद्वारा अनेक वर
देना और शिवके साथ अश्रीकृष्णका
कैलास-गमन .........................-----------
२५-श्रीकृष्णका कैलास पर्वतपर विहार करना,
श्रीकृष्णको द्वारका बुलानेके लिये गरुड़का
कैलासपर जाना, श्रीकृष्णका द्वारका-आगमन,
द्वारकामें श्रीकृष्णका स्वागत तथा उनका
दर्शन करनेके लिये देवताओं तथा मार्कण्डेय
आदि मुनियोंका आना, कृष्णके द्वारा महर्षि
मार्कण्डेयको शिव-तत्त्व तथा लिड्र-तत्त्वका
माहात्म्य बतलाना तथा स्वयं शिवका
पूजन करना, ब्रह्मा-विष्णुद्दारा शिवके
महालिड्रका दर्शन तथा लिड्स्तुति,
लिड्डभार्चनका प्रवर्तन...................-----५---
२६-श्रीकृष्णको महेश्वरकी कृपासे साम्ब नामक
[६]
पृष्ठ-संख्या
१४७
१५०
१५६
१६४
अध्याय विषय
पुत्रकी प्राप्ति, कंसादिका वध, भृगु आदि
महर्षियोंका द्वारकामें आना, भुगु आदि मुनियोंसे
श्रीकृष्णद्वारा स्वधामगमनकी बात बताना,
शिवसे द्वेष करनेवालोंको नरककी प्राप्तिका
वर्णन तथा शिवकोी महिमा बताना, नारायणका
अपने कुलका संहारकर स्वधामगमन तथा
वंश-वर्णनका उपसंहार ........................
२७-व्यासदेवद्वारा अर्जुनको सत्ययुगादि चारों युगोंके
धर्मोका उपदेश, व्यासद्वारा एक वेद-संहिताका
चतुर्धा विभाजन, चारों युगोंमें चतुष्पाद धर्मकी
विभिन्न स्थितिका निदर्शन तथा कलियुगमें
धर्मके हासका प्रतिपादन ...................-
२८-कलियुगके धर्मोका वर्णन, कलियुमगमें
शिवपूजनकी विशेष महिमाका ख्यापन,
व्यासकृत शिवस्तुति, व्यासप्रेरित अर्जुनका
शिवपुरीमें जाना और व्यासद्वारा शिवभक्त
अर्जुनकी महिमा ...................--------०--
२९-व्यासजीका वाराणसी-गमन, व्याससे जैमिनि
आदि ऋषियोंका धर्मसम्बन्धी प्रश्न, व्यासका
उन्हें शिव-पार्वती-संवाद बताना, अविमुन्तक्षेत्र
वाराणसीका माहात्म्य, वाराणसी-सेवनका
३०-वाराणसीके ओंकारेश्वर और कृत्तिवासेश्वर
लिड्रोंका माहात्म्य, शंकरके कृत्तिवासा नाम
पड़नेका वृत्तान्त .....................------------
३१-वाराणसीके कपर्दीश्वर लिड्भका माहात्म्य,
पिशाचमोचन-कुण्डमें स्नान करनेकी महिमा,
वहाँ स्नान करनेसे पिशाचयोनिसे मुक्ति
प्राप्त करनेका आख्यान, शंकुकर्णकी कथा
तथा शंकुकर्णकृत ब्रह्मपार-स्तव ............
३२-व्यासजीद्वारा वाराणसीके मध्यमेश्वर महादेव
तथा मन्दाकिनीकी महिमाका वर्णन........
३३-वाराणसी-माहात्म्यके प्रसंगमें व्यासजीका
शिष्योंक साथ विभिन्न तीर्थोमें गमन,
ब्रह्मतीर्थका आख्यान, व्यासजीद्वारा विश्वेश्वर
पृष्ठ-संख्या
१७२
अध्याय विषय
लिड्रका पूजन तथा वहाँ रहते हुए शिवाराधना,
एक दिन भिक्षा न मिलनेपर क्रोधाविष्ट
व्यासजीका वाराणसीके निवासियोंको शाप
देनेके लिये उद्यत होना, उसी समय देवी
पार्वतीका प्रकट होना, देवीका व्यासको
वाराणसी त्यागनेकी आज्ञा, पुन: स्तुतिसे
प्रसन्न देवीके द्वारा चतुर्दशी तथा अष्टमीको
वहाँ (वाराणसीमें) रहनेकी अनुमति देना
३४-प्रयागका माहात्म्य, मार्कण्डेय-युधिष्ठिर-संवाद,
प्रयागमें संगम-स्नानका फल ................
३५-प्रयाग-माहात्म्य, प्रयागके विभिन्न तीर्थोंकी
महिमा, त्रिपथगा गड़ाका माहात्म्य,
गड़ास्नानका फल ...................---०----०--
३६-प्रयाग-माहात्म्य, माघमासमें संगमस्नानका
फल, त्रिमाघीकी महिमा, प्रयागमें प्राण-
त्याग करनेका फल ....................-------
३७-प्रयाग-माहात्म्य, यमुनाकी महिमा, यमुनाके
तटवर्ती तीर्थोका वर्णन, गड़ामें सभी
तीर्थोकी स्थिति, मार्कण्डेय-युधिष्ठटिर-
संवादकी समाप्ति.........................------
३८-भुवनकोश-वर्णनमें राजा प्रियत्रतके वंशका
वर्णन, प्रियब्रतके पुत्र राजा अग्नीध्रके वंशका
वर्णन, जम्बू आदि सात द्वीपोंका तथा वर्षोंका
वर्णन, जम्बूद्दीपके नो वर्षोमें राजा अग्नीध्रके
नाभि, क्पिरुष आदि नौ पुत्रेंका आधिपत्य....
३९- भू! आदि सात लोकोंका वर्णन, ग्रह-
नक्षत्रोंकी स्थितिका वर्णन तथा उनका परिमाप,
सूर्ययथका वर्णन, पूर्व आदि दिशाओंमें
स्थित इन्द्रादि देवोंकी अमरावती आदि
पुरियोंका नाम-निर्देश, सूर्यकी महिमा.....
४०-सूर्य-रथ तथा द्वादश आदित्योंके नाम, सूर्य-
रथके अधिष्ठातू देवता आदिका वर्णन,
सूर्यकी महिमा .................................-
४१-सूर्यकी प्रधान सात रश्मियोंके नाम, इनके
द्वारा ग्रहोंका आप्यायन, सूर्यकी अन्य हजारों
[७]
पृष्ठ-संख्या
१९९
२१२
अध्याय विषय
नाडियोंका वर्णन तथा उनका कार्य, बारह
महीनोंके बारह सूर्योके नाम तथा छ: ऋतुओंमें
उनका वर्ण, आठ ग्रहोंका वर्णन, सोमके
रथका वर्णन, देवोंद्वारा चन्द्रकलाओंका
पान करना, पितरोंद्वारा अमावस्याको
चन्द्रमाकी कलाका पान, बुध आदि ग्रहोंके
रथका वर्णन ....................-......----------
४२-मह: आदि सात लोकों तथा सात पातालोंका
और वहाँके निवासियोंका वर्णन, वैष्णवी
तथा शाम्भवी शक्तियोंका वर्णन.............
४३-सात महाद्वीपों और सात महासागरोंका परिमाण,
जम्बूद्दीप तथा मेरुपर्वतकी स्थिति, भारत
तथा किंपुरुष आदि वर्षोका वर्णन, वर्षपर्वतोंकी
स्थिति, जम्बूद्वीपके नाम पड़नेका कारण,
जम्बूद्वीपके नदी एवं पर्वतोंका और वहाँके
निवासियोंका वर्णन ...........................-
४४-ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि
देवताओंकी पुरियोंका तथा वहाँके निवासियोंका
वर्णन, गड़्ाकी चार धाराओं और आठ
मर्यादापर्वतोंका वर्णन .........................-
४५-केतुमाल, भद्राश्व, रम्यकवर्ष तथा वहाँके
निवासियोंका वर्णन, हरिवर्षमें स्थित विष्णुके
विमानका वर्णन, जम्बूद्वीपके वर्णनमें भारत-
वर्षके कुलपर्वतों, महानदियों, जनपदों और
वहाँके निवासियोंका वर्णन, भारतवर्षमें चार
युगोंकी स्थितिका प्रतिपादन ..................
४६-विभिन्न पर्वतोंपर स्थित देवताओंके पुरोंका
वर्णन तथा वहाँके निवासियों, नदियों, सरोवरों
और भवतनोंका वर्णन, जम्बूद्वीपके वर्णनका
उपधसहारे 3३:४2७०४४7००००४४४००४३४४७७:०७ ०४४३६
४७-प्लक्ष आदि महाद्वीपों, वहाँके पर्वतों, नदियों
तथा निवासियोंका वर्णन, श्वेतद्वीपमें स्थित
नारायणपुरका वर्णन, वहाँ वैकुण्ठमें रहनेवाले
लक्ष्मीपति शेषशायी नारायणकी महिमाका
पृष्ठ-संख्या
विषय
४८-पुष्करद्वीपकी स्थिति तथा विस्तारका वर्णन,
संक्षेपमें अव्यक्तसे सृष्टिका प्रतिपादन ......
४९-स्वारोचिषसे वैवस्वत मन्वन्तरतकके देवता,
सप्तर्षि, इन्द्र आदिका वर्णन, नारायणठद्ठारा
ही विभिन्न मन्वन्तरोंमें सृष्टि आदिका
प्रतिपादन, भगवान् विष्णुकी चार मूर्तियोंका
विवेचन, विष्णुका माहात्म्य..................
५०-अट्टाईसव्यासोंका वर्णन, अट्ठदाईसवें
कृष्णद्वैपायन-द्वारा वेदसंहिताका विभाजन
तथा पुराणेतिहासकी रचना, वेदकी
शाखाओंका विस्तार तथा विष्णुके
माहात्म्यका कथन .........................-....
५१-कलियुगमें महादेवके अवतारों तथा उनके
शिष्योंका वर्णन, भविष्यमें होनेवाले सात
मन्वन्तरोंका नाम-परिंगणन, कूर्मपुराणके
पूर्वविभागका उपसंहार ...................-----
( उपरिविभाग )
१- ईश्वर (शिव) तथा ऋषियोंके संवादमें
ईश्वरगीताका उपक्रम ...........................
२- आत्मतत्त्वके स्वरूपका निरूपण, सांख्य
एवं योगके ज्ञानका अभेद, आत्मसाक्षात्कारके
साधनोंका वर्णन......................----------
३-अव्यक्त शिवतत्त्वसे सृष्टिका कथन, परमात्माके
स्वरूपका वर्णन तथा प्रधान, पुरुष एवं
महदादि तत्त्वोंसे सृष्टिका क्रम-वर्णन,
शिवस्वरूपका निरूपण...................---«-
४-शिव-भक्तिका माहात्म्य, शिवोपासनाकी
सुगमता, ज्ञानरूप शिवस्वरूपका वर्णन,
शिवकी तीन प्रकारकी शक्तियोंका प्रतिपादन,
शिवके परम तत्त्वका निरूपण...............
५-ऋषियोंको दिव्य नृत्य करते हुए भगवान्
शंकरका आकाशमें दर्शन, मुनियोंद्वारा
महेश्वरकी भावपूर्ण स्तुति करना...........
६-ईश्वर (शंकर)-द्वारा ऋषिगणोंको अपना
सर्वव्यापी स्वरूप बतलाना तथा अपनी
[८]
पृष्ठ-संख्या
२६७
२३७०
अध्याय विषय
भगवत्ताका और इस ज्ञानसे मुक्तिकी प्राप्तिका
निरूपण करना ......................--.---५००--
७-ईश्वर (शंकर)-द्वारा अपनी विभूतियोंका
वर्णन तथा प्रकृति, महत् आदि चौबीस
तत्त्वों, तीन गुणों एवं पशु, पाश और
पशुपति आदिका विवेचन ....................
८-महेश्वरका अद्वितीय परमेश्वरके रूपमें
निरूपण, सांख्य-सिद्धान्तसे तत्त्वोंका सृष्टिक्रम,
महेश्वरके छ: अड्भ, महेश्वरके स्वरूपके
ज्ञासे परमपदकी प्राप्ति .......................
९- महादेवके विश्वरूपत्वका वर्णन तथा ईश्वर-
सम्बन्धी ज्ञानका प्रतिपादन ...................
१०-ईश्वरद्वारा परम तत्व तथा परम ज्ञानके
स्वरूपका निरूपण और उसकी प्राप्तिके
साधनका वर्णन .............................---
११-योगकी महिमा, अष्टाड्रयोग, यम, नियम
आदि योगसाधनोंका लक्षण, प्राणायामका
विशेष प्रतिपादन, ध्यानके विविध प्रकार,
पाशुपत-योगका वर्णन, वाराणसीमें प्राण-
त्यागकी महिमा, शिव-आराधनकी विधि,
शिव और विष्णुके अभेदका प्रतिपादन,
शिवज्ञान-योगकी परम्पराका वर्णन, ईश्वर-
गीताकी फलश्रुति तथा उपसंहार ...........
१२-ब्रह्मचारीका धर्म, यज्ञोपवीत आदिके सम्बन्धमें
विविध विवरण, अभिवादनकी विधि, माता-
पिता एवं गुरुकी महिमा, ब्रह्मचारीके
सदाचारका वर्णन ............................--
१३-ब्रह्मचारीके नित्यकर्मकी विधि, आचमनका
विधान, हाथोंमें स्थित तीर्थ, उच्छिष्ट होनेपर
पृष्ठ-संख्या
शुद्धिकी प्रक्रिया, मूत्र-पुरीषोत्स्गके नियम ३०४
१४-ब्रह्मचारीके आचारका वर्णन, गुरुसे
अध्ययन आदिकी विधि, ब्रह्मचारीका
धर्म, गुरु तथा गुरु-पत्नीके साथ
व्यवहारका वर्णन, वेदाध्ययन और
गायत्रीकी महिमा, अनध्यायोंका वर्णन,
अध्याय विषय पृष्ठ-संख्या
ब्रह्मचारी- धर्मका उपसंहार ....................
१५-गृहस्थधर्म तथा गृहस्थके सदाचारका वर्णन,
धर्माचरण एवं सत्यधर्मकी महिमा .........
१६-सदाचारका वर्णन....................-....-------
१७-भक्ष्य एवं अभक्ष्य-पदार्थोका वर्णन ........
१८-गृहस्थके नित्यकर्मोंका वर्णन, प्रात:स्नानकी
महिमा, छ: प्रकारके स्नान, संध्योपासनकी
महिमा तथा संध्योपासनविधि, सूर्योपस्थानका
माहात्म्य, सूर्यहदयस्तोत्र, अग्निहोत्रकी विधि,
तर्पणकी विधि, नित्य किये जानेवाले पञ्च-
महायज्ञोंकी महिमा तथा उनका विधान...
१९-भोजन-विधि, ग्रहणकालमें भोजनका निषेध,
शयन-विधि, गृहस्थके नित्यकर्मोके
अनुष्ठानका महत्त्व .............................-
२०-श्राद्धद-प्रकरण-- श्राद्धके प्रशस्त दिन, विभिन्न
तिथियों, नक्षत्रों और वारोंमें किये जानेवाले
श्राद्धोंका विभिन्न फल, श्राद्धके आठ भेद,
श्राद्धके लिये प्रशस्त स्थान, श्राद्धमें विहित
तथा निषिद्ध पदार्थ .............................
२१-श्राद्धद-प्रकरणमें निमन्त्रणके योग्य पंक्तिपावन
ब्राह्मणों तथा त्याज्य पंक्ति-दूषकोंके लक्षण ३५५
२२-श्राद्ध-प्रकरणमें ब्राह्मण निमन्त्रित करनेकी
विधि, निमन्त्रित ब्राह्मणके कर्तव्य, श्राद्ध-
विधि, श्राद्धमें प्रशस्त पात्र, पितरोंकी प्रार्थना,
श्राद्धँऊं दिन निषिद्ध कर्म, वृद्धिश्राद्धका
विधान, श्राद्ध-प्रकरणका उपसंहार .........
२३-आशौच-प्रकरणमें जननाशौच और मरणाशौचकी
क्रिया-विधि, शुद्धि-विधान, सपिण्डता,
सद्यःशौच, अन्त्येष्टि-संस्कार, सपिण्डीकरण-
विधि, मासिक तथा सांवत्सरिक श्राद्ध
आदिका वर्णन ............................-५----
२४-अग्निहोत्रका माहात्म्य, अग्निहोत्रीके कर्तव्य,
श्रीत एवं स्मार्तरूप द्विविध धर्म, तृतीय
शिष्टाचारधर्म, वेद, धर्मशास्त्र और
पुराणसे धर्मका ज्ञान तथा इनपर श्रद्धा
३३७
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अध्याय
रखना आवश्यक .......................--------
२५-गृहस्थ ब्राह्मणकी मुख्य वृत्ति तथा आपत्कालकी
वृत्ति, गृहस्थके साधक तथा असाधक
दो भेद, न्यायोपार्जित धनका विभाग एवं
उसका उपयोग .............................-----
२६-दानधर्मका निरूपण एवं नित्य, नैमित्तिक,
काम्य तथा विमल-चतुर्विध दान-भेद, दानके
अधिकारी तथा अनधिकारी, कामना- भेदसे
विविध देवताओंकी आराधनाका विधान,
ब्राह्मणकी महिमा तथा दानधर्म-प्रकरणका
उपहार ५ २२०७४०४०४००/० लेट
२७-वान प्रस्थ-आश्रम तथा वानप्रस्थ-धर्मका वर्णन,
वानप्रस्थीके कर्तव्योंका निरूपण ............
२८- संन्यासधर्मका प्रतिपादन, संनन््यासियोंके भेद
तथा संन्यासीके कर्तव्योंका वर्णन...........
२९- संन्यासाश्रमधर्म-निरूपणमें यतियोंकी भैक्ष्य-
वृत्तिका स्वरूप, यतियोंके लिये महेश्वरके
ध्यानका प्रतिपादन, ब्रतभड़में प्रायश्चित्तविधान
तथा पुनः यथास्थितिमें आनेकी विधि,
संन्यासधर्म-प्रकरणकी समाप्ति ...............
३०-प्रायश्चित्त-प्रकरणमें प्रायश्वित्तका स्वरूप-
निरूपण, पाँच महापातकोंके नाम तथा
ब्रह्महत्याके प्रायश्वित्तका संक्षिप्त निरूपण..
३१-प्रायश्वित्त-प्रकरणमें कपालमोचन-तीर्थका
३२-प्रायश्चित्त-प्रकरणमें महापातकोंके प्रायश्वित्तका
विधान तथा अन्य उपपातकोंसे शुद्धिका
३३-प्रायश्वित्त-प्रकरणमें चोरी तथा अभक्ष्य-
भक्षणका प्रायश्चित्त, प्रकीर्ण पापोंका प्रायश्नित्त,
समस्त पापोंकी एकत्र मुक्तिके विविध
उपाय, पतिब्रताको कोई पाप नहीं लगता,
पतिग्रताके माहात्म्यमें देवी सीताका आख्यान,
सीताद्वारा अग्निस्तुति, ज्ञानयोगकी प्रशंसा
तथा प्रायश्चित्त-प्रकरणका 'उपसंहार ......... ४१९
ध्याय विषय
३४-तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें प्रयाग, गया, एकाम्र
तथा पुष्कर आदि विविध तीर्थोंकी महिमाका
वर्णन, सप्तसारस्वत-तीर्थंके वर्णनमें शिवभक्त
मडछ्ूणक मुनिका आख्यान ................---
३५-तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें विविध तीर्थोका
माहात्म्य, कालझर-तीर्थकी महिमाके वर्णनके
प्रसंगमें शिवभक्त राजा श्वेतकी कथा.....
३६-तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें विविध तीर्थोंकी महिमा,
देवदारु-वन-तीर्थका माहात्म्य ...............
३७-देवदारु-बनमें स्थित मुनियोंका वृत्तान्त एवं
शिवलिड्का पतन, मुनियोंको त्रह्माका उपदेश,
शिवको प्रसन्न करने-हेतु ऋषियोंद्वारा
तपस्या तथा स्तुति, शिवद्वारा सांख्यका
उपदेश 05200: 00002 रे
३८- तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें मार्कण्डेय-युधिष्ठिर-
संवादका प्रारम्भ, मार्कण्डेयजीद्वारा नर्मदा
तथा अमरकण्टकतीर्थके माहात्म्यका
३९- तीर्थमाहात्म्य-वर्णनके प्रसंगमें नर्मदाके तटवर्ती
तीर्थोका विस्तारसे वर्णन ......................
४०-तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें नर्मदा तथा उसके
[९१०]
पृष्ठ-संख्या
विषय
समीपवर्ती तीर्थोकी महिमा, मार्कण्डेय
तथा युधिष्ठिरके संवादकी समाप्ति ..........
४१-तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें नैमिषारण्य तथा
जप्येश्वर-तीर्थकी महिमा, जप्येश्वर-ती र्थमें
महर्षि शिलादके पुत्र नन्दीकी तपस्या तथा
उनके गणाधिपति होनेका आख्यान ........
४२-विविध शैव-तीर्थोके माहात्म्यका निरूपण,
तीथोॉके अधिकारी तथा तीर्थ-माहात्म्यका
7-३९ ९: ६. £ आर भी लक मम मम हवन लिन हे लक
४३- चतुर्विध प्रलयका प्रतिपादन, नेमित्तिक
प्रलयका विशेष वर्णन, विष्णुद्वारा अपने
माहात्म्यका निरूपण ..........................
४४-प्राकृत प्रलयका वर्णन, शिवके विविध
रूपों और विविध शक्तियोंका वर्णन,
शिवकी आराधनाकी विधि, मुनियोंद्वारा
कूर्मरूपधारी विष्णुकी स्तुति, कूर्मपुराणकी
विषयानुक्रमणिकाका वर्णन, कूर्मपुराणकी
फलश्रुति तथा इस पुराणकी वक्तृ-
श्रोतृपरम्पराका प्रतिपादन, महर्षि व्यास
तथा नारायणकी वन्दनाके साथ
पुराणकी पूर्णताका कथन. ...................--
अध्याय
पृष्ठ-संख्या
॥ श्रीहरि: ॥
॥ ३» श्रीपरमात्मने नमः ॥
क्कूर्मपुराणा
[ पूर्वविभाग ]
पहला अध्याय
सूतजीकी उत्पत्ति, उनके रोमहर्षण नाम पड़नेका कारण, पुराणों तथा
उपपुराणोंका नाम-परिगणन, समुद्र-मन्थनसे उत्पन्न विष्णुमायाका
वर्णन, इन्द्रद्यप्ोका आख्यान और कूर्मपुराणकी महिमा
नारायणं नमस्कृत्य नरं चेव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वती चैव ततो जयमुदीरयेत्॥
नमस्कृत्वाप्रमेयाय. विष्णवे कूर्मरूपिणे।
पुराणं सम्प्रवक्ष्यामि यदुक्त विश्वयोनिना॥ १॥
सत्रान्ते सूतमनघं नेमिषीया महर्षय:।
पुराणसंहितां पुण्यां पप्रच्छू रोमहर्षणम्॥ २॥
त्वया सूत महाबुद्धे भगवान् ब्रह्मवित्तम:।
इतिहासपुराणार्थ व्यास: सम्यगुपासितः॥ ३॥
तस्य ते सर्वरोमाणि वचसा हषितानि यत्।
द्वैपायनस्थ भगवांस्ततो वे रोमहर्षण: ॥ ४॥
(बदरिकाश्रममें निवास करनेवाले ऋषि) नारायण,
नरोंमें उत्तम श्रीनर तथा उनकी लीला प्रकट करनेवाली
भगवती सरस्वतीको नमस्कार कर जय (पुराण एवं
इतिहास आदि सद्ग्रन्थों)>का पाठ करना चाहिये।
कूर्मरूप धारण करनेवाले अप्रमेय भगवान् विष्णुको
नमस्कार कर मैं उस पुराण (कूर्मपुराण)-को कहूँगा,
जो समस्त विश्वके मूल कारण भगवान् विष्णुके द्वारा
कहा गया था॥१॥
नैमिषारण्यवासी महर्षियोंने (बारह वर्षतक चलनेवाले)
सत्र (यज्ञ)-के पूर्ण हो जानेपर सर्वथा निष्पाप रोमहर्षण
सूतजीसे पवित्र पुराण-संहिताके विषयमें प्रश्न किया--
महाबुद्धिमानू सूतजी महाराज! आपने इतिहास और
पुराणोंके ज्ञानके लिये ब्रह्मज्ञानियोंमें परम श्रेष्ठ भगवान्
वेदव्यासजीकी भलीभाँति उपासना की है। चूँकि
आपके वचनसे ट्वेपायन भगवान् वेदव्यासजीके समस्त
रोम हर्षित हो गये थे, इसलिये आप “रोमहर्षण'
कहलाते हैं॥ २--४॥
श्र
भवन्तमेव भगवान् व्याजहार स्वयं प्रभु: ।
मुनीनां संहितां वक्तुं व्यास: पौराणिकीं पुरा॥ ५ ॥
त्वं हि स्वायम्भुवे यज्ञे सुत्याहे वितते हरि: ।
सम्भूत:ः संहितां वक्तुं स्वांशेन पुरुषोत्तम:॥ ६ ॥
तस्माद् भवन्तं पृच्छाम: पुराणं कोर्ममुत्तमम्।
वक्तुमईहसि चास्माकं॑ पुराणार्थविशारद॥ ७ ॥
मुनीनां वचन श्र॒ुत्वा सूत: पौराणिकोत्तम: ।
प्रणम्य मनसा प्राह गुरु सत्यवतीसुतम्॥ ८ ॥
रोमहर्पण उवाच
नमस्कृत्वा जगदयोनिं कूर्मरूपधरं हरिम।
वक्ष्ये पोराणिकी दिव्यां कथां पापप्रणाशिनीम्॥॥ ९ ॥
यां श्रुत्वा पापकर्मापि गच्छेत परमां गतिम्।
ननास्तिके कथां पुण्यामिमां ब्रूुयात् कदाचन ॥ १०॥
श्रद्दधानाय शान्ताय धार्मिकाय द्विजातये।
इमां कथामनुब्रूयात् साक्षात्रारायणेरिताम्॥ ११॥
सर्गश्च॒ प्रतिसर्गश्ष वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पदञ्ञलक्षणम॥ १२॥
ब्राह्म॑ पुराणं प्रथमं पाद्यं वेष्णवमेव च।
शैवं भागवतं चेव भविष्यं नारदीयकम्॥ १३॥
मार्कण्डेयमथाग्नेयं ब्रह्मवैवर्ततेव च।
लैड्रं तथा च वाराहं स्कान्दं वामनमेव च॥ १४॥
कौर्म मात्स्यं गारुडं च वायवीयमनन्तरम्।
अष्टादशं समुद्दिष्टे ब्रह्माण्डमिति संज्ञितम्॥ १५॥
अन्यान्युपपुराणानि मुनिभि: कथितानि तु।
अष्टादशपुराणानि श्रुत्वा संक्षेपतो द्विजा:॥ १६॥
आधद्यं सनत्कुमारोक्तं नारसिंहमतः परम्।
तृतीय स्कान्दमुद्दिष्ट कुमारेण तु भाषितम्॥ १७॥
मं कूर्मपुराण मं
प्राचीन कालमें स्वयं समर्थ होते हुए भी भगवान्
वेदव्यासजीने आपसे ही कहा था कि आप मुनियोंको
पुराण-संहिता सुनायें। (सूतजी महाराज!) आप अपने
अंशसे उत्पन्न साक्षात् पुरुषोत्तम नारायण हैं। स्वयम्भू
ब्रह्माजीके महान् यज्ञमें सोमरस प्रस्तुत करनेके दिन
पुराण-संहिताका वाचन करनेके लिये ही आपका आविर्भाव
हुआ था। आप पुराणोंके अर्थको ठीक-ठीक जाननेवाले
हैं। इसीलिये हम आपसे श्रेष्ठ कूर्मपुराणके विषयमें पूछ
रहे हैं। आप हमें वह (कूर्मपुराण) बतलायें॥ ५--७॥
मुनियोंके वचन सुनकर पौराणिकोंमें श्रेष्ठ सूतजीने
देवी सत्यवतीके पुत्र अपने गुरु (भगवान् वेदव्यास)-
को मन-ही-मन प्रणाम कर (इस प्रकार) कहा-- ॥ ८ ॥
रोमहर्षण सूतजी बोले--समस्त विश्वके मूल कारण,
कूर्मरूप धारण करनेवाले भगवान् नारायण विष्णुको
नमस्कार करके कूर्मपुराणकी उस दिव्य कथाको कहता
हूँ, जो समस्त पापोंको नष्ट करनेवाली है और जिसे
सुनकर महान्-से-महान् पाप करनेवाला पापी व्यक्ति
भी परम गतिको प्राप्त कर लेता है। कूर्मपुराणकी इस
पुण्यकथाको नास्तिक व्यक्तिको कभी भी नहीं सुनाना
चाहिये। जो अत्यन्त श्रद्धालु हैं, शान्त हैं, धर्मात्मा हैं--
ऐसे द्विजातियोंको साक्षात् नारायण भगवान् विष्णुके द्वारा
कही गयी इस कूर्मपुराणकी कथाको विशेष रूपसे
कहना चाहिये॥ ९--११॥
सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय), वंश, वंशानुचरित
तथा मन्वन्तर-ये पुराणोंके पाँच लक्षण हैं॥१२॥
अठारह महापुराणोंमें प्रथम पुराण ब्रह्मपुराण है,
द्वितीय पद्मपुराण है। इसी प्रकार क्रमश: विष्णु, शिव,
भागवत, भविष्य, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त,
लिड़, वराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य और गरुडपुराण
हैं। भगवान् वायुके द्वारा कहा गया अठारहवाँ पुराण
ब्रह्माण्डपुराणके नामसे कहा जाता है॥ १३--१५॥
(सूतजीने पुन: कहा--) ब्राह्मणो! अठारह पुराणोंका
नाम सुनकर (अब आप लोग) मुनियोंद्वारा कहे गये
अन्य उपपुराणोंका नाम भी संक्षेपमें सुनें-॥ १६॥
(इन उपपुराणोंमें) पहला उपपुराण सनत्कुमारके
द्वारा कहा गया सनत्कुमार उपपुराण है। तदनन्तर दूसरा
नरसिंहपुराण है। स्कन्दकुमारके द्वारा कथित तीसरा
पुराण स्कन्दपुराण कहा गया है॥ १७॥
* अध्याय १ *
चतुर्थ शिवधर्माख्यं साक्षान्नन्दीशभाषितम् |
दुर्वाससोक्तमाश्चर्य नारदोक्तमत: परम्॥ १८॥
कापिलं मानवं चैव तथेवोशनसेरितम्।
ब्रह्माण्ड वारुणं चाथ कालिकाह्नयमेव च॥ १९॥
माहेश्वरं तथा साम्बं सौर सर्वार्थसंचयम्।
पराशरोक्तमपरं॑ मारीच॑ भार्गवाह्ययम्॥ २०॥
इृदं तु पशञ्ञदशमं पुराणं कौर्ममुत्तमम्।
चतुर्धा संस्थितं पुण्यं संहितानां प्रभेदतः ॥ २१॥
ब्राह्यी भागवती सौरी वेष्णवी च प्रकीर्तिता: ।
चअतस्त्र: संहिता: पुण्या धर्मकामार्थमोक्षदा: ॥ २२॥
इयं तु संहिता ब्राह्मी चतुर्वेदेस्तु सम्मिता।
भवन्ति षट्सहस्त्राणि एलोकानामत्र संख्यया॥ २३॥
यत्र धर्मार्थकामानां मोक्षस्यथ च मुनीश्चरा:।
माहात्म्यममखिलं ब्रह्म ज्ञायते परमेश्वर:॥ २४॥
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च॒ वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं दिव्या: पुण्या: प्रासंगिकी: कथा: ॥ २५ ॥
ब्राह्मणाद्यैरियं धार्या धार्मिक: शान्तमानसे: ।
तामहं वर्तयिष्यामि व्यासेन कथितां पुरा॥ २६॥
पुरामृतार्थ दैतेयदानवै: सह देवताः।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा ममन्थुः क्षीरसागरम्॥ २७॥
मथ्यमाने तदा तस्मिन् कूर्मरूपी जनार्दन:।
बभार मन्दरं देवो देवानां हितकाम्यया॥ २८॥
श्हे
चौथे पुराणका नाम शिवधर्म है जो साक्षात् भगवान्
नन्दीश्वर (शिव)-के द्वारा कहा गया है। महर्षि दुर्वासाके
द्वारा कहा गया आश्चर्यपुराण पाँचवाँ है और छठा पुराण
देवर्षि नारदके द्वारा कहा गया नारदपुराण है। इसी प्रकार
(सातवाँ) कपिल, (आठवाँ) मानव और शुक्राचार्यद्वारा
प्रोक्त उशना नामक (नवाँ) पुराण है। (दसवाँ)
ब्रह्माण्ड, (ग्यारहवाँ) वरुण तथा (बारहवाँ पुराण)
कालिकापुराणके नामसे कहा गया है। (तेरहवाँ)
माहे ध्वरपुराण, (चौदहवाँ) साम्बपुराण तथा सभी प्रकारके
अर्थॉसे युक्त (पंद्रहवाँ) सौरपुराण है। (सोलहवाँ)
पराशरपुराण महर्षि पराशरके द्वारा कहा गया है।
(सत्रहवाँ) मारीचपुराण है और (अठारहवाँ पुराण)
भार्गवपुराणके नामसे कहा गया है॥ १८--२० ॥
यह कूर्मपुराण पंद्रहवाँ महापुराण है, जो पुराणोंमें
श्रेष्ठ है। संहिताओंके भेदसे यह पवित्र पुराण चार भागों
(चार संहिताओं )-में विभक्त है। ब्राह्मी, भागवती, सौरी
तथा वैष्णवी नामक इस कूर्मपुराणकी चार पवित्र
संहिताएँ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष--इस प्रकार
चतुर्विध पुरुषार्थकों देनेवाली कही गयी हैं॥ २१-२२ ॥
यह ब्राह्मी संहिता है, जो चारों वेदोंद्वारा अनुमोदित
है। इसकी श्लोक-संख्या छ: हजार है। हे मुनीश्वरो!
इसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका अशेष माहात्म्य
वर्णित है और (इसके श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पठन-पाठन
एवं श्रवण आदिसे) परमेश्वर ब्रह्मका ज्ञान होता है।
इसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित
और दिव्य एवं पुण्य प्रासंगिक कथाएँ भी कही गयी
हैं। यह पुराणसंहिता शान्त-चित्त एवं धर्मात्मा ब्राह्मणादिकोंके
द्वारा धारण करने योग्य है। (सूतजी कहते हैं--) मैं
उसी पुराणसंहिताका प्रवचन करूँगा, जिसे प्राचीन
समयमें वेदव्यासजीने कहा था॥ २३-२६ ॥
प्राचीन कालमें अमृतकी प्रास्िकि लिये देवताओंने
दितिके पुत्र दैत्यों और दानवोंके साथ मन्दर नामक
पर्ववको मथानी बनाकर क्षीरसागरको मथा। उस
क्षीरसागरके मन्न्थन किये जाते समय देवताओंके
कल्याणकी कामनासे जनार्दन भगवान् विष्णुने कूर्मरूप
धारण करके उस मन्दराचलको ऊपर उठाये
रखा॥ २७-२८ ॥
श्ड
देवाश्व तुष्टवुर्देवे नारदाद्या महर्षय:।
कूर्मरूपधरं दृष्ठा साक्षिणं विष्णुमव्ययम्॥ २९॥
तदन्तरे5भवद देवी श्रीनरायणवल्लभा।
जग्राह भगवान् विष्णुस्तामेव पुरुषोत्तम: ॥ ३०॥
तेजसा विष्णुमव्यक्तं नारदाद्या महर्षय:।
मोहिता: सह शक्रेण रियो वचनमत्रुवन्॥ ३१॥
भगवन् देवदेवेश नारायण जगन्मय।
केषा देवी विशालाक्षी यथावद् ब्रूहि पृच्छताम्॥ ३२ ॥
श्र॒त्वा तेषां तदा वाक्य विष्णुदनिवमर्दन: ।
प्रोवाच देवीं सम्प्रेक्ष्य नारदादीनकल्मषान्॥ ३३ ॥
इयं सा परमा शक्तिर्मन्मयी ब्रह्मरूपिणी।
माया मम प्रियानन्ता ययेदं मोहितं जगतू॥ ३४॥
अनयेव जगत् सर्व सदेवासुरमानुषम्।
मोहयामि द्विजश्रेष्ठा ग्रसामि विसृुजामि च॥ ३५॥
उत्पत्ति प्रलयं चैव भूतानामागतिं गतिम्।
विज्ञायान्वीक्ष्य चात्मानं तरन्ति विपुलामिमाम्॥। ३६॥
अस्यास्त्वंशानधिष्ठाय शक्तिमन्तो 5 भवन् द्विजा: ।
ब्रहोशानादयो देवा: सर्वशक्तिरियं मम॥ ३७॥
सैषा सर्वजगत्सूतिः प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिका |
प्रागेव मत्त: संजाता श्रीकल्पे पद्यवासिनी ॥ ३८ ॥
चतुर्भुजा शट्गुच्क्रपद्महस्ता शुभान्विता।
कोटिसूर्यप्रतीकाशा मोहिनी सर्वदेहिनाम्॥ ३९॥
नाल॑ देवा न पितरो मानवा वसवो5डपि च।
मायामेतां समुत्तर्तु ये चान्ये भुवि देहिनः ॥ ४०॥
र कूर्मपुराण ्
कूर्म (कच्छप)-रूप धारण किये हुए सर्व॑द्रष्टा
अविनाशी भगवान् विष्णुको देखकर देवताओं तथा
नारदादि महर्षियोंने उन देवकी स्तुति की॥ २९॥
उसी समय नारायण भगवान् विष्णुकी प्रिया देवी
श्रीलक्ष्मीका आविर्भाव हुआ। उन्हें पुरुषोत्तम भगवान्
विष्णुने ही ग्रहण किया। लक्ष्मीके तेजसे मोहित हुए
इन्द्रसहित नारद आदि महर्षियोंने अव्यक्त भगवान्
विष्णुसे यह वचन कहा-- ॥ ३०-३१ ॥
हे भगवन्! हे देवदेवेश ! हे नारायण! हे जगन्मय !
हम पूछनेवालोंको आप ठीक-ठीक बतलायें कि
विशाल नेत्रोंबाली यह देवी कौन है ?॥ ३२॥
उस समय उन देवताओं तथा महर्षियोंका वह
वाक्य सुनकर दानवोंका मर्दन करनेवाले भगवान् विष्णु
देवी लक्ष्मीकी ओर देखकर नारद आदि परम पवित्र
महर्षियोंसे बोले-- ॥ ३३॥
यह मेरी स्वरूपभूता ब्रह्मरूपिणी परम शक्ति है,
यही माया है, यही अनन्ता है और यही मेरी वह प्रिया
है जिसने इस सम्पूर्ण जगत्को मोहित कर रखा है। हे
श्रेष्ठ द्विजो | इसीके द्वारा मैं देवताओं, असुरों एवं मनुष्योंसे
युक्त सम्पूर्ण विश्वको मोहित करता हूँ, संहार करता हूँ
और पुन: सृष्टि करता हूँ। (ज्ञानीजन जगत्की ) उत्पत्ति
एवं प्रलयको तथा प्राणियोंके जन्म एवं मोक्षको ठीक-
ठीक समझकर और अआत्मतत्त्वका दर्शनकर इस महा-
मायाके बन्धनसे पार उतरते हैं| द्विजो! मेरी सब प्रकारकी
शक्ति यही है, इसीके अंशोंका आश्रय ग्रहणकर ब्रह्मा
तथा शिव आदि देवता शक्तिमान् हुए हैं॥ ३४--३७॥
यही वह सत्त्व-रज तथा तम-तीनों गुणोंसे युक्त
त्रिगुणात्मिका प्रकृति है और यही सारे संसारको उत्पन्न
करनेवाली है। प्राचीन कालमें श्रीकल्पमें यह पद्मवासिनीके
रूपमें मुझसे ही आविर्भूत हुई थी। ये चार भुजावाली
हैं, ये हाथोंमें शंख, चक्र तथा कमल धारण किये
रहती हैं, सभी मड्गभलमय गुणोंसे युक्त हैं, करोड़ों सूर्योंके
समान इनकी आभा है, ये सभी प्राणियोंको मोहित
करनेवाली हैं। देवता, पितर, मनुष्य, वसुगण तथा
पृथ्वीपर रहनेवाले जितने भी अन्य देहधारी प्राणी हैं,
वे सभी अर्थात् कोई भी ऐसा नहीं है जो इस मायाको
पार करनेमें समर्थ हो॥३८--४०॥
* अध्याय १५ *
इत्युक्ता वासुदेवेन मुनयो विष्णुमब्नुवन्।
ब्रृहि त्वं पुण्डरीकाक्ष यदि कालत्रयेडपि च।
को वा तरति तां मायां दुर्जयां देवनिर्मिताम्॥ ४१ ॥
अथोवाच हृषीकेशो मुनीन् मुनिगणार्चित: ।
अस्ति द्विजातिप्रवर इन्द्रद्यम्न इति श्रुतः॥ ४२॥
पूर्वजन्मनि राजासावधृष्य: शंकरादिभि:।
दृष्टा मां कूर्मसंस्थानं श्रुत्वा पौराणिकीं स्वयम् |
संहितां मन्मुखाद दिव्यां पुरस्कृत्य मुनी श्वरान्॥ ४३॥
ब्रह्माणं च महादेव देवांश्चान्यान् स्वशक्तिभि: ।
मच्छक्तो संस्थितान् बुद्ध्वा मामेव शरणं गत: ॥ ४४॥
सम्भाषितो मया चाथ विप्रयोनिं गमिष्यसि।
इन्द्रद्यम्न इति ख्यातो जाति स्मरसि पौर्विकीम्॥ ४५ ॥
सर्वेषामेव भूतानां देवानामप्यगोचरम् ।
वक्तव्यं यद् गुह्मतमं दास्ये ज्ञानं तवानघ।
लब्ध्वा तन्मामकं ज्ञान मामेवान्ते प्रवेक्ष्यसि ॥ ४६ ॥
अंशान्तरेण भ्रूम्यां त्वं तत्र तिष्ठ सुनिर्व॒तः।
वैवस्वतेउन्तरे5तीते कार्यार्थ मां प्रवेक्ष्यसि ॥ ४७॥
मां प्रणम्य पुरीं गत्वा पालयामास मेदिनीम् ।
कालधर्म गत: कालाच्छूवेतद्वीपे मया सह॥ ४८ ॥
भुक्त्वा तान् वैष्णवान् भोगान् योगिनामप्यगोचरान्।
मदाज्ञया मुनिश्रेष्ठा जज्ञे विप्रकुले पुनः॥ ४९॥
ज्ञात्वा मां वासुदेवाख्यं यत्र द्वे निहिते5क्षरे।
विद्याविद्ये गूढरूपे यत्तद् ब्रह्म परं विदुः॥ ५०॥
सो3र्चयामास भूतानामाश्रयं परमेश्वरम।
ब्रतोपवासनियमैह मैल्वाह्मणतर्पणै: ॥ ५१॥
२१५
भगवान् वासुदेवके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर
मुनियोंने भगवान् विष्णुसे कहा--हे पुण्डरीकाक्ष ! उस
देवनिर्मित दुर्जय मायाकों पार करनेवाला तीनों कालोंमें
यदि कोई हुआ हो तो उसे आप बतलायें॥ ४१॥
तदनन्तर मुनियोंद्वारा पूजित भगवान् हृषीकेशने
उन मुनियोंसे कहा--इन्द्रद्युम्न नामका द्विजातियोंमें श्रेष्ठ एक
ब्राह्मण था, ऐसा सुना गया है । पूर्वजन्ममें वह शंकर आदि
देवताओंसे भी अजेय राजा था। “मैंने कूर्म-अवतार धारण
किया है ' यह जानकर तथा स्वयं मेरे मुखसे दिव्य पुराण-
संहिताको सुनकर वह (राजा इन्द्रदुुम्न) मुनीशथ्वरोंसहित
ब्रह्मा, शिव एवं अपनी-अपनी शक्तियोंके साथ अन्य
सभी देवताओंको मेरी ही शक्तिमें प्रतिष्ठित समझकर
मुझे देखनेके लिये मेरी शरणमें आया॥ ४२--४४॥
इसके बाद मैंने कहा--(३इन्द्रद्युम्न )) तुम ब्राह्मणकी
योनिमें उत्पन्न होओगे, तुम्हारा “इन्द्रयुम्र' यह नाम
प्रसिद्ध होगा और तुम अपने पूर्वजन्मका स्मरण करोगे।
हे अनघ! मैं तुम्हें सभी प्राणियों तथा देवताओंके लिये
भी अज्ञात एवं जो अत्यन्त गूढ़रूपसे कहने योग्य है,
उस ज्ञानको प्रदान करूँगा। उस मेरे ज्ञानको प्राप्तकर तुम
अन्त समयमें मुझमें ही प्रविष्ट हो जाओगे और अपने
ही अंशसे दूसरे रूपमें तुम पृथ्वीपर शान्तिपूर्वक रहो।
बैवस्वत मन्वन्तरके व्यतीत हो जानेपर तुम (अभीष्ट)
कार्यके लिये मुझमें ही प्रविष्ट हो जाओगे॥ ४५--४७॥
( भगवानने पुन: कहा--) मुनिश्रेष्ठो! मुझे प्रणामकर
वह राजा अपनी नगरीमें गया और पृथ्वीका पालन-
पोषण करने लगा। यथासमय मृत्यु होनेपर वह मेरे
स्थान--श्वेतद्वीपको प्राप्त हुआ और वहाँ मेरे साथ
योगियोंके लिये भी अलभ्य दिव्य वैष्णव भोगोंको
भोगकर पुनः मेरी ही आज्ञासे ब्राह्मण-कुलमें उत्पन्न
हुआ ॥ ४८-४९ ॥
जिसमें अविनश्वर गूढ़ स्वरूपवाली विद्या एवं
अविद्या-ये दोनों प्रतिष्ठित हैं तथा जिसे ज्ञानीजन
परब्रह्मके नामसे जानते हैं, उस वासुदेव नामवाले
मुझे जानकर इन्द्रयुम्नने ब्रत। उपवास, नियम, होम
तथा ब्राह्मणोंकी संतुष्टि आदि उपायोंद्वारा सभी
प्राणियोंके एकमात्र आश्रय परमेश्वकी आराधना
की॥ ५०-५१ ॥
१६
तदाशीस्ततन्नमस्कारस्तन्निष्ठस्तत्पायण: _।
आराधयन् महादेवं योगिनां हृदि संस्थितम्॥ ५२॥।
तस्यैवं वर्तमानस्य कदाचित् परमा कला।
स्वरूपं दर्शयामास दिव्यं विष्णुसमुद्धवम्।॥ ५३॥
दृष्ठा प्रणम्य शिरसा विष्णोर्भगवत: प्रियाम्।
संस्तूय विविधे: स्तोत्रे: कृताजजलिरभाषत ॥ ५४॥
इन्द्रद्युम्न उवाच
का त्वं देवि विशालाक्षि विष्णुचिह्वाड्डिति शुभ ।
याथातथ्येन वे भावं तवेदानीं ब्रवीहि मे॥ ५५॥
तस्य तद् वाक्यमाकर्णयय सुप्रसन्ना सुमड्गला ।
हसन्ती संस्मरन् विष्णु प्रियं ब्राह्मणमत्रवीत्॥ ५६॥
न मां पश्यन्ति मुनयो देवा: शक्रपुरोगमा: ।
नारायणात्मिका चैका मायाहं तन््मया परा॥ ५७॥
न मे नारायणाद भेदो विद्यते हि विचारत: ।
तन्मयाहं पर ब्रह्म स विष्णु: परमेश्वर: ॥ ५८ ॥
येउर्चयस्तीह भूतानामाश्रयं परमेश्वरम्
ज्ञानेन कर्मयोगेन न तेषां प्रभवाम्यहम्॥ ५९॥
तस्मादनादिनिधनं कर्मयोगपरायण: ।
ज्ञानेनाराधयानन्तं ततो मोक्षमवाप्स्यसि॥ ६० ॥
इत्युक्त: स मुनिश्रेष्ठ इन्द्रदयुस्नों महामतिः।
प्रणम्य शिरसा देवीं प्राउजलि: पुनरत्नवीत्॥ ६१॥
कथ्थ॑स भगवानीश: शाश्रतो निष्कलो5च्युत: ।
ज्ञातुं हि शक्यते देवि ब्रृहि मे परमेश्वारि॥ ६२॥
एवमुक्ताथ विप्रेण देवी कमलवासिनी।
साक्षात्रारायणो ज्ञान दास्यतीत्याह तं॑ मुनिम्॥ ६३॥
उभाभ्यामथ हस्ताभ्यां संस्पृश्य प्रणतं मुनिम्।
स्मृत्या परात्परं विष्णुं तत्रेवान्तरधीयत॥ ६४॥
हि कूर्मपुराण के
वह उन्हींकी मड्रलकामना करते हुए उन्हींको
नमस्कार करता था, उनमें ही उसकी अनन्य निष्ठा
थी तथा वह उन््हींके आश्रित होकर योगियोंके हृदयप्रदेशमें
विराजमान रहनेवाले महादेवकी आराधना करने लगा।
उसके इसी प्रकार आराधना करते हुए एक दिन वैष्णवी
शक्तिने भगवान् विष्णुसे प्रादुर्भूतन दिव्य स्वरूप उसे
दिखलाया। भगवान् विष्णुकी प्रिया देवी विष्णुप्रियाका
दर्शनकर उसने सिर झुकाकर विनीतभावसे उन्हें प्रणाम
किया और विविध स्तुतियोंके द्वारा उनकी स्तुतिकर
हाथ जोड़कर कहा-- ॥ ५२--५४॥
इन्द्रद्यप्नने कहा--वैष्णव चिह्ोंवाली, मड्रलमयी
तथा विशाल नेत्रोंवाली हे देवि! आप कौन हैं ? आपका
जो यथार्थ स्वरूप हो उसे इस समय मुझे बतलायें ॥ ५५ ॥
इन्द्रयुम्ंके वचन सुनकर अत्यन्त सुप्रसन्ना सुमड्रला
वह देवी विष्णुका स्मरणकर उस प्रिय ब्राह्मणसे हँसती
हुई बोली--॥ ५६॥
मैं उन विष्णुकी प्रकृतिस्वरूपा परा माया हूँ। मुझ
अद्वितीय नारायणस्वरूपा नारायणीको मुनि तथा इन्द्र
आदि देवता भी नहीं देख पाते हैं। सूक्ष्म विचार करनेपर
मुझमें और नारायणमें कोई भेद नहीं दीखता। मैं उनकी
प्रकृतिरूपा हूँ, वे विष्णु परब्रह्म हैं, परमेश्वर हैं। समस्त
भूत (प्राणियों)-के आश्रयभूत उन परमेश्वरकी जो
ज्ञानयोग अथवा कर्मयोगद्वारा यहाँ आराधना करते हैं
ऐसे भक्तोंपर मेरा कोई वश नहीं चलता। अतः तुम
कर्मयोगका आश्रय लेते हुए ज्ञानके द्वारा उन आदि
और अन्तसे रहित अनन्त भगवान् विष्णुकी आराधना
करो। इससे तुम मोक्ष प्राप्त करोगे॥५७--६०॥
ऐसा कहे जानेपर अत्यन्त बुद्धिमान् मुनिश्रेष्ठ उस
इन्द्रयुम्नने देवीको विनयपूर्वक प्रणाम किया और हाथ
जोड़कर पुन: कहा--हे परमेश्वरी देवि! शाश्वत, अखण्ड
तथा अच्युत सबके स्वामी उन भगवान्को किस प्रकार
जाना जा सकता है, यह मुझे बतलायें॥ ६१-६२॥
ब्राह्मण (इन्द्रबुम्न )-के द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर
कमलमें निवास करनेवाली देवीने उस मुनिसे कहा--' साक्षात्
नारायण ही तुम्हें (बह ) ज्ञान प्रदान करेंगे | तदनन्तर प्रणाम
कर रहे उस मुनि (इन्द्रद्युम्न)-को अपने दोनों हाथोंसे भली-
भाँति स्पर्श कर ( वे देवी) परात्पर विष्णुका स्मरण
करती हुई वहीं अन्तर्धान हो गयीं॥ ६३-६४ ॥
* अध्याय ९ *
सोडपि नारायणं द्र॒ष्ठं परमेण समाधिना।
आराधयद्धूषीकेशं प्रणतार्तिप्रभच्जनम्॥ ६५ ॥
ततो बहुतिथे काले गते नारायण: स्वयम्।
प्रादुरासीन््महायोगी पीतवासा जगन्मय:ः: ॥ ६६॥
दृष्ठा देव॑ समायान्तं विष्णुमात्मानमव्ययम्।
जानुभ्यामवनिं गत्वा तुष्टाव गरुडध्वजम्॥ ६७॥
इन्द्रधुम्न उवाच
यज्ञेशाच्युत गोविन्द माधवानन्त केशव ।
कृष्ण विष्णो हषीकेश तुभ्यं विश्वात्मने नम: ॥ ६८ ॥
नमोउस्तु ते पुराणाय हरये विश्वमूर्तये।
सर्गस्थितिविनाशानां हेतवेडनन्तशक्तये॥ ६९॥
निर्गुणाय नमस्तुभ्यं निष्कलायामलात्मने।
पुरुषाय नमस्तुभ्यं विश्वरूपाय ते नमः॥७०॥
नमस्ते वासुदेवाय विष्णवे विश्वयोनये।
आदिमध्यान्तहीनाय ज्ञानगम्याय ते नम: ॥ ७१॥
नमस्ते निर्विकाराय निष्प्रपञ्चाय ते नमः।
भेदाभेटविहीनाय नमो>स्त्वानन्दरूपिणे ॥ ७२ ॥
नमस्ताराय शान्ताय नमोउ5प्रतिहतात्मने |
अनन्तमूर्तये तुभ्यममूर्ताय नमो नमः ॥ ७३॥
नमस्ते परमार्थाय मायातीताय ते नमः!
नमस्ते परमेशाय ब्रह्मणे परमात्मने॥ ७४॥
नमोउस्तु ते सुसूक्ष्माय महादेवाय ते नमः।
नमः शिवाय शुद्धाय नमस्ते परमेष्टठिने॥ ७५॥
त्वयैव सृष्टमखिलं त्वमेव परमा गतिः।
त्वं पिता सर्वभूतानां त्वं माता पुरुषोत्तम॥ ७६॥
त्वमक्षरं पर धाम चिन्मात्रं व्योम निष्कलम्।
सर्वस्याधारमव्यक्तमनन्त॑ तमस: परम्॥ ७७॥
प्रपश्यन्ति परात्मानं ज्ञानदीपेन केवलम्।
प्रपद्ये भवतो रूप॑ तद्विष्णो: परमं पदम्॥ ७८॥
५१७
इन्द्रधुम्न भी शरणागतके दु:खोंको सर्वथा दूर कर
देनेवाले हषीकेश भगवान् नारायणका दर्शन करनेके
लिये दीर्घकालीन समाधिमें निरत होकर आराधना करने
लगा। तत्पश्चात् बहुत समय बीत जानेपर पीताम्बरधारी,
जगन्मूर्ति महायोगी भगवान् नारायण उसके सामने स्वयं
प्रकट हो गये। अविनाशी परमात्मा भगवान् विष्णुको
आया हुआ देखकर घुटनोंके बल पृथ्वीपर स्थित होकर
वह गरुडध्वजदेवकी स्तुति करने लगा॥ ६५--६७॥
इन्द्रद्ु़नने कहा--हे यज्ञोंके स्वामी ! अच्युत ! गोविन्द !
माधव! अनन्त! केशव ! कृष्ण! विष्णु! तथा हषीकेश !
आप विश्वात्माको नमस्कार है | पुराण-पुरुष ! विश्वमूर्ति हे
हरि! आप सृष्टि, स्थिति तथा प्रलयके मूल कारण हैं,
आप अनन्त शक्तिसम्पन्न हैं, आपको नमस्कार है। आप
निर्गुण-स्वरूप हैं, निष्कल एवं विमलात्मा हैं, आपको
नमस्कार है। हे विश्वरूप पुरुष! आपको नमस्कार है।
विश्वकी योनि, वासुदेव भगवान् विष्णुको नमस्कार है।
आप आदि, मध्य तथा अन्तसे रहित ज्ञानद्वारा जानने योग्य
हैं, आपको नमस्कार है। निर्विकार तथा प्रपञ्चरहित
आपको नमस्कार है। भेद- अभेदसे रहित आनन्द-स्वरूप
आपको नमस्कार है। (संसारसागरसे ) पार उतारनेवाले,
शान्तस्वरूप आपको नमस्कार है। शुद्धात्मा आपको नमस्कार
है। आप अनन्तमूर्तिवाले हैं, अमूर्त हैं, आपको बार-बार
नमस्कार है। आप परमार्थरूप हैं, आपको नमस्कार है।
आप मायासे अतीत हैं, आपको नमस्कार है। ईशोंके भी
ईश! आपको नमस्कार है। परमात्मा परब्रह्मरूप आपको
नमस्कार है। अत्यन्त सूक्ष्मरूप आपको नमस्कार है।
देवोंके भी देव महादेव ! आपको नमस्कार है विशुद्धस्वरूप
शिव ! आपको नमस्कार है। परमेष्ठीस्वरूप आपको नमस्कार
है ॥ ६८--७५॥
आपने ही सम्पूर्ण सृष्टिकी रचना की है। आप ही परम
गति हैं। हे पुरुषोत्तम ! आप ही सभी भूत-प्राणियोंके पिता हैं
और आप ही सबकी माता हैं। आप अविनाशी हैं, परम धाम
हैं, चित्स्वरूप हैं, व्योम हैं, निष्कल हैं, सबके आधार हैं,
अव्यक्त हैं, अनन्त हैं और तमसे सर्वथा रहित नित्य प्रकाशस्वरूप
हैं। (ज्ञानाजन) केवल ज्ञानरूपी दीपकके द्वारा जिस परमात्माका
दर्शन करते हैं, मैं आपके उस रूपकी शरण ग्रहण करता हूँ,
वह विष्णुका परमपद है॥ ७६--७८ ॥
५१८
एवं स्तुवन्तं भगवान् भूतात्मा भूतभावन:।
उभाभ्यामथ हस्ताभ्यां पस्पर्श प्रहसन्निव।॥ ७९॥
स्पृष्टमात्रो भगवता विष्णुना मुनिपुंगव:।
यथावत् परमं तत्त्वं ज्ञातवांस्तत्प्रसादतः ॥ ८०॥
ततः प्रहष्टमनसा प्रणिपत्य जनार्दनम्।
प्रोवाचोन्निद्रपद्माक्ष॑ पीतवाससमच्युतम्॥ ८१ ॥
त्वत्प्रसादादसंदिग्धमुत्पन्नं पुरुषोत्तम ।
ज्ञानं ब्रहोकविषयं परमानन्दसिद्धिदम्॥ ८२॥
नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय वेधसे।
किं करिष्यामि योगेश तन्मे वद जगन्मय॥ ८३॥
श्रुत्वा नारायणो वाक्यमिन्द्रद्युम्नस्य माधव: ।
उवबाच सस्मितं वाक्यमशेषजगतो हितम्॥ ८४॥
श्रीभगवानुवाच
वर्णाश्रमाचारवतां पुंसां देवो महेश्वरः।
ज्ञानेन भक्तियोगेन पूजनीयो न चान्यथा।॥ ८५॥
विज्ञाय तत्परं तत्त्वं विभूतिं कार्यकारणम्।
प्रवृत्ति चापि मे ज्ञात्वा मोक्षार्थी श्वरमर्चयेत् ॥। ८६ ॥
सर्वसंगान् परित्यज्य ज्ञात्वा मायामयं जगत्।
अद्वितं भावयात्मानं द्र॒क्ष्य्से परमेश्वरम्॥ ८७॥
त्रिविधा भावना ब्रह्मन् प्रोच्यमाना निबोध मे ।
एका मद्ठिषया तत्र द्वितीया व्यक्तसंश्रया।
अन्या च भावना ब्राह्मी विज्ञेया सा गुणातिगा॥ ८८ ॥
........ल न ओिीओ इ:उसअ अबडअअआअअउअउऊउऑकससयक 5४ + 5 चचचप5प58प8पै।ण”ण:/ पा: तखण एैूौूाणक्चपैाप््््््््््््््््भथयभयय।,“>घ'घ् : उ: ) फशखफ/स्स्श,अयउ र>
वन यीनीननगन3्%श€ तारा". हे का अद्ठित है
* 'परमात्मासे अतिरिक्त कुछ नहीं है” यह भावना ही यहाँ अद्ठित भावना है।
रे कूर्मपुराण मः
इस प्रकार स्तुति करते हुए इन्द्रधुम्का सभी
प्राणियोंक आत्मरूप भूतभावन भगवान् विष्णुने अपने
दोनों हाथोंसे किश्वित् मुसकराते हुए स्पर्श किया ॥ ७९॥
भगवान् विष्णुके द्वारा स्पर्श करते ही मुनिश्रैष्ठ
(इन्द्रद्युम्ू)-को उन भगवान्की कृपासे परम तत्त्वका
यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो गया। इसके बाद अत्यन्त प्रसन्न
मनसे इन्द्र्य॑श्नने प्रफल्लित कमलके समान नेत्रवाले,
पीताम्बरधारी अच्युत भगवान् जनार्दनको प्रणाम कर
कहा-- ॥ ८०-८१ ॥
हे पुरुषोत्तम! आपकी कृपासे मुझे परमानन्दको
प्राप्ति करानेवाला एकमात्र ब्रह्मसम्बन्धी संदेहरहित ज्ञान
प्रात हो गया है। हे भगवन्! हे वासुदेव! हे वेधा!
आपको नमस्कार है। हे योगेश! हे जगन्मय! मैं क्या
करूँ, उसे आप मुझे बतलायें॥ ८२-८३॥
इन्द्रदुम्नकं वचन सुनकर माधव भगवान् नारायणने
समस्त संसारके कल्याणकी कामनासे मुसकराते हुए यह
वचन कहा-- ॥ ८४॥
श्रीभगवान् बोले--वर्ण एवं आश्रमधर्मका पालन
करनेवाले व्यक्तियोंको चाहिये कि वे ज्ञान एवं भक्तियोगके
द्वारा भगवान् महे श्वरकी पूजा करें, अन्य साधनसे नहीं।
मोक्षार्थको चाहिये कि उस परम तत्त्व, विभूति एवं
कार्यकारणरूपको ठीक-ठीक जानकर साथ हो मेरी
प्रवत्तिको समझकर ईश्वरकी उपासना करे। सभी प्रकारकी
आसक्तियोंका सर्वथा परित्याग कर, इस संसारको माया-
रूप जानकर अपनेमें अद्वैतकी भावना करे*। (ऐसा करनेसे
इन्द्रयुम्न ! तुम) परमेश्वरका दर्शन करोगे॥ ८५--८७॥
ब्रह्मन् इन्द्रयुम्न ! तीन प्रकारकी भावनाएँ कही गयी
हैं, उन्हें में बताता हूँ, तुम सुनो--उन तीनोंमेंसे पहली
भावना है मद्विषया अर्थात् मेरे सगुण स्वरूपकी भावना।
दूसरी है व्यक्तसंश्रया अर्थात् भगवानका जो विराद्
स्वरूप है, उसका आश्रय ग्रहण कर उपासनाकी भावना
और तीसरी जो भावना है उसे ब्राह्मी अर्थात् ब्रह्मशनविषयक
भावना जानना चाहिये, यह तीसरी भावना गुणातीत
है (गुणातीतरूपमें ब्रह्मकी उपासना ही ब्राह्मी भावना
है।) विद्वान् व्यक्तिको चाहिये कि इन तीनोंमेंसे किसी
भी भावनाका आश्रय ग्रहण कर उपासना करे॥ ८८॥
* अध्याय १ *
आसामन्यतमां चाथ भावनां भावयेद् बुध: ।
अशक्त: संश्रयेदाद्यामित्येषा वैदिकी श्रुति: ॥ ८९॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन तन्निष्ठस्तत्परायण: |
समाराधय विश्वेशं ततो मोक्षमवाप्स्थसि॥ ९०॥
इन्द्रयुम्न उवाच
कि तत् परतरं तत्त्वं का विभूतिर्जनार्दन।
किं कार्य कारणं कर्त्वं प्रवृत्तिश्चापि का तव॥ ९१॥
श्री भगवानुवाच
परात्परतरं तत्त्व पर॑ ब्रहौकमव्ययम्।
नित्यानन्दं स्वयंज्योतिरक्षरं तमस: परम्॥ ९२॥
ऐश्वर्य तस्य यन्नित्यं विभूतिरिति गीयते।
कार्य जगदथाव्यक्तं कारणं शुद्धमक्षरम्॥ ९३॥
अहं हि सर्वभूतानामन्तर्यामीश्वर: पर:।
सर्गस्थित्यन्तकर्तृत्व॑ प्रवृत्तिमम गीयते॥ ९४॥
एतद् विज्ञाय भावेन यथावदखिल द्विज।
ततस्त्वं कर्मयोगेन शाश्रतं सम्यगर्चय॥ ९५॥
इन्द्रदुम्न उवाच
के ते वर्णाश्रमाचारा ये: समाराध्यते पर: ।
ज्ञानं च कीदृशं दिव्यं भावनात्रयसंस्थितम्॥ ९६ ॥
कथ॑ं सृष्टमिदं पूर्व कथं संहियते पुनः।
कियत्य: सृष्टयो लोके वंशा मन्वन्तराणि च।
कानि तेषां प्रमाणानि पावनानि ब्रतानि च॥ ९७॥
तीर्थान्यर्कादिसंस्थानं पृथिव्यायामविस्तरे।
कति द्वीपाः समुद्राश् पर्वताश्न नदीनदा:।
ब्रृहि मे पुण्डरीकाक्ष यथावदधुनाखिलम्॥ ९८॥
श्रोकृर्म उवाच
एवमुक्तो5थ तेनाहं भक्तानुग्रहकाम्यया।
यथावदखिलं सर्वमवोचं मुनिपुंगवा:॥ ९९॥
१९
जो असमर्थ व्यक्ति है उसे चाहिये कि वह प्रथम
भावना अर्थात् वैष्णवी भावनाका अवलम्बन ग्रहण
करे--ऐसा वेदका मत है। इसलिये (इन्द्रच्ुुम्न ! तुम)
समस्त प्रयत्रोंके द्वारा सम्पूर्ण संसारके स्वामी भगवान्
विष्णुकी आराधना करो, उनमें ही निष्ठा रखो और
उन्हींका आश्रय ग्रहण कर उन्हींके शरणागत हो जाओ,
इससे तुम मोक्ष प्राप्त करोगे॥ ८९-९०॥
इन्द्रद्ुश्न बोले--हे जनार्दन ! वह परात्पर तत्त्व क्या
है, विभूति क्या है? कार्य क्या है और कारण क्या है?
आप कौन हैं? और आपको प्रवृत्ति क्या है?॥ ९१॥
श्रीभगवान् बोले--वह परसे परतर तत्त्व एकमात्र
अखण्ड परम ब्रह्म ही है। वह नित्य आनन्दस्वरूप है,
स्वयं प्रकाशमान है, अविनाशी है और तम (अन्धकार)-
से सर्वथा परे है। उस परमात्माका जो नित्य रहनेवाला
ऐश्वर्य है, वही विभूति नामसे कहा जाता है। यह संसार
ही (परमात्माका) कार्यरूप है और अविनाशी विशुद्ध
अव्यक्त तत्त्व ही (इस संसारका) कारणरूप है। मैं ही
समस्त प्राणियोंमें रहनेवाला अन्तर्यामी ईश्वर हूँ। सृष्टि,
पालन और संहार ही मेरी प्रवृत्ति कही जाती है। हे
द्विजअ! इन सभी बातोंको यथार्थरूपसे जानकर तुम
कर्मयोगके द्वारा श्रद्धाभावसे (उस) सनातन (ईश्वर)-
की भलीभाँति अर्चना करो॥९२--९५॥
इन्द्रयुम्नने कहा--( भगवन्!) वर्णों तथा आश्रमोंके
वे कौनसे पालनीय नियम हैं, जिनसे (उस) परतत्त्वकी
आराधना की जाती है और वह दिव्य ज्ञान कैसा है जो
तीन भावनाओंसे युक्त है ? (परमात्माने) पूर्वकालमें इस
(संसार)-की सृष्टि कैसे की और फिर केसे इसका
संहार होता है, लोकमें कितनी सृष्टियाँ हैं, कितने वंश
हैं, कितने मन्वन्तर हैं। उनके कितने प्रमाण हैं और
पवित्र ब्रत तथा तीर्थ कौन-से हैं। सूर्य आदि ग्रहोंकी
स्थिति कैसी है, पृथ्वीकी लंबाई-चौड़ाई कितनी है,
कितने द्वीप, समुद्र, पर्वत हैं और कितने नद हैं और
कितनी नदियाँ हैं, हे पुण्डरीकाक्ष! इस समय यह सब
मुझे यथार्थरूपसे बताइये॥ ९६--९८ ॥
श्रीकूर्मने कहा--हे श्रेष्ठ मुनियो! उस इन्द्रद्ुम्नके
द्वारा मुझसे इस प्रकार कहे जानेपर भक्तोंपर अनुकम्पा
करनेकी कामनासे मैंने वे सभी बातें विस्तारसे ठीक-
ठीक उसे बतला दीं॥९९॥
२०
व्याख्यायाशेषमेवेदं यत्पृष्टो5हं द्विजेन तु।
अनुगुृह्ा च तं विप्र तत्रेवान्तर्हितो5$भवम्॥ १०० ॥
सो5पि तेन विधानेन मतदुक्तेन द्विजोत्तम: ।
आराधयामास परं भावपूतः समाहितः॥ १०१॥
त्यक्त्वा पुत्रादिषु स्नेह निद्वन्द्वो निष्परिग्रह: ।
संन्यस्य सर्वकर्माणि पर वैराग्यमाश्रित: ॥ १०२॥
आत्मन्यात्मानमन्वीक्ष्य स्वात्मन्येवाखिलं जगत् ।
सम्प्राप्प भावनामन्त्यां ब्राह्मीमक्षरपूर्विकाम्॥। १०३ ॥
अवाप परमं योगं येनैक॑ परिपश्यति।
यं विनिद्रा जितश्रासा: कांक्षन्ते मोक्षकांक्षिण: ॥ १०४ ॥
ततःकदाचिद् योगीद्धो ब्रह्म्णं द्रष्टमव्ययम् ।
जगामादित्यनिर्देशान्मानसोत्तरपर्वतम् ।
आकाशेनैव विप्रेन्रो योगैश्चर्यप्रभावत: ॥ १०५॥
विमान सूर्यसंकाशं प्रादुर्भूतमनुत्तमम्।
अन्वगच्छन् देवगणा गन्धर्वाप्सरसां गणा: ।
दृष्टवान्ये पथि योगीद्ध सिद्धा ब्रह्मर्षयो ययु: ॥ १०६ ॥
ततः स गत्वा तु गिरिं विवेश सुरवन्दितम्
स्थान तद् योगिभिर्जुष्टे यत्रास्ते परम: पुमान्॥ १०७॥
सम्प्राप्प परम स्थान सूर्यायुतसमप्रभम्।
विवेश चान्तर्भवनं देवानां च दुरासदम्॥ १०८॥
विचिन्तयामास परं शरण्यं सर्वदेहिनाम्।
अनादिनिधनं देवं देवदेवं॑ पितामहम्॥ १०९॥
ततः प्रादुरभूत् तस्मिन् प्रकाश: परमात्मन: ।
तन्मध्ये पुरुष पूर्वमपश्यत् परमं पदम्॥ ११०॥
मं कूर्मपुराण न
इस प्रकार उस ब्राह्मण इन्द्रद्युँ्नने जो-जो भी मुझसे
पूछा था, वह सब विस्तारसे बतलाकर और उसपर कृपा
करके में वहीं अन्तर्धान हो गया॥ १०० ॥
उस श्रेष्ठ ब्राह्मणने भी मेरे द्वारा बताये गये विधानसे
अत्यन्त पवित्र भावनासे समाहित-चित्त होकर परम
तत््वकी उपासना की। उसने अपने स्त्री-पुत्र आदिका
मोह छोड़ दिया, सुख-दुःख आदि द्वन्द्दोंसे रहित हो
गया, किसी भी वबस्तुका संग्रह करना सर्वथा त्याग कर
अपरिग्रही हो गया और सभी कर्मोंका परित्याग कर
उसने परम वैराग्यका आश्रय ग्रहण किया। अपनी
आत्मामें ही परमात्माका दर्शन करके और अपनी
आत्मामें ही सम्पूर्ण विश्वका अनुभव कर अक्षर-तत्त्व-
सम्बन्धी अन्तिम ब्राह्मी भावनाको प्राप्त किया, जिसके
कारण उसे उस दुर्लभ परम योगकी प्राप्ति हुई। इस
योगसे ही उस अद्वितीय तत्त्वका साक्षात्कार होता है
जिसकी अभिलाषा निद्रात्यागी, श्वासजयी, मोक्षार्थी
पुरुष भी करते हैं॥ १०१--१०४॥
इसके बाद किसी दिन वह ब्राह्मणश्रेष्ठ योगीन्द्र
इन्द्रदयम्न भगवान् सूर्यके निर्देशसे अव्यय ब्रह्मका दर्शन
करनेके लिये अपनी योग-सिद्धिके प्रभावसे प्रादुर्भूत
सूर्यके समान प्रकाशमान श्रेष्ठ विमानमें चढ़कर आकाशमार्गसे
मानसरोवरके उत्तरमें स्थित पर्वतपर गया। उस योगिराज
इन्द्रयुम्रको आकाशमार्गमें जाते हुए देखकर देवों,
गन्धर्वों तथा अप्सराओंका समूह भी उसके पीछे-पीछे
गया और अन्य सिद्ध तथा ब्रह्मर्षियोंने भी उसका
अनुसरण किया॥ १०५-१०६॥
तदनन्तर वहाँ जाकर इन्द्र्यम्नने देवताओंद्वारा वन्दित
तथा योगियोंद्वारा सेवित पर्वतके उस स्थानपर प्रवेश
किया, जहाँ परम पुरुष परमात्मा प्रतिष्ठित रहते हैं। दस
हजार सूर्योके प्रकाशके समान प्रकाशित उस श्रेष्ठ स्थानपर
पहुँचकर (इन्द्रुम्नने) देवताओंके लिये भी दुष्प्राप्य
(उस स्थानके) अन्तर्गुहमें प्रवेश किया॥ १०७-१०८॥
(वहाँ पहुँँचकर उसने) सभी प्राणियोंके परम
शरणदाता, आदि-अन्तसे रहित, देवाधिदेव पितामह
ब्रह्मदेवका ध्यान किया। इसके बाद उसके ध्यान करते
ही वहाँ परमात्माका प्रकाश प्रादुर्भूर हुआ। इन्द्रद्युम्नने
* अध्याय १ *
महान्तं तेजसो राशिमगम्यं ब्रह्मविद्विषाम् ।
चतुर्मुखमुदाराड्रमचिभिरुपशोभितम् ॥ १११॥
सो5पि योगिनमन्वीक्ष्य प्रणमन्तमुपस्थितम् ।
प्रत्युद्गम्य स्वयं देवो विश्वात्मा परिषस्वजे॥ ११२॥
परिष्वक्तस्य देवेन द्विजेन्द्रस्याथ देहतः।
निर्गत्य महती ज्योत्स्ता विवेशादित्यमण्डलम् ।
ऋग्यजु:सामसंज्ञं तत् पवित्रममलं पदम्॥ ११३॥
हिरण्यगर्भो भगवान् यत्रास्ते हव्यकव्यभुक्।
द्वारं तद् योगिनामाद्य वेदान्तेषु प्रतिष्ठितम् ।
ब्रह्मतेजोमयं श्रीमन्निष्ठा चैव मनीषिणाम्॥ ११४॥
दृष्टमात्रो भगवता ब्रह्मणार्चिर्मयो मुनि: ।
अपश्यदैश्वरं तेज: शान्तं सर्वत्रगं शिवम्॥ ११५॥
स्वात्मानमक्षरं व्योम तद् विष्णो: परम पदम्।
आनन्दमचलं ब्रह्म स्थानं तत्पारमेश्वरम्॥ ११६॥
सर्वभूतात्मभूतः स॒परमैश्चवर्यमास्थित: ।
प्राप्तवानात्मनो धाम यत्तन्मोक्षाख्यमव्ययम्॥ ११७॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन वर्णा भ्रमविधौ स्थित: ।
समाशभ्रित्यान्तिमं भाव मायां लक्ष्मी तरेद बुध: ॥ ११८ ॥
सूत उवाच
व्याहता हरिणा त्वेवं नारदाद्या महर्षय:।
शक्रेण सहिताः सर्वे पप्रच्छु्गरुडध्वजम्॥ ११९॥
ऋषय ऊचु:
देवदेव हषीकेश नाथ नारायणामल।
तद् वदाशेषमस्माकं यदुक्त भवता पुरा॥ १२०॥
इन्द्रद्यज्नाय विप्राय ज्ञानं धर्मादिगोचरम्।
शुश्रूषुश्षाप्ययं शक्रः सखा तव जगन्मय॥ १२१॥
२१
उस प्रकाशपुझके मध्यमें महान् तेजकी राशिके रूपमें
ब्रह्मविद्वेषियोंके लिये अगम्य, परमपदस्वरूप पूर्व पुरुषका
दर्शन किया,जो चार मुखवाले थे, जिनके सभी अड्ढ
शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थे और प्रकाशकी किरणोंसे
सुशोभित थे॥ १०९--१११॥
समीपमें आये प्रणाम करते हुए योगी इन्द्रद्युम्नको
देखकर वह विश्वात्मा ब्रह्मदेव स्वयं भी उसके
समीपमें गये और उसको अपने हृदयसे लगाया।
ब्रह्मदेवके द्वारा आलिड्रन करते ही उस ब्राह्मणश्रेष्ठ
इन्द्रदुम्रके शरीरसे एक महान् प्रकाश निकला, जो
आदित्य-मण्डलमें प्रविष्ट हो गया। वह पवित्र निर्मल
पद (आदित्य-मण्डल) ऋक्-यजु: एवं साम नामवाला
है। जिस स्थानमें हव्य (देवताओंको प्राप्त होनेवाला
हवनीय द्रव्य) तथा कव्य (पितरोंको प्राप्त कराया
जानेवाला श्राद्धीय पदार्थ)-का उपभोग करनेवाले
भगवान् हिरण्यगर्भ निवास करते हैं। वह (स्थान)
वेदान्तमें प्रतिपादित योगी जनोंका आद्य प्रवेश-द्वार
है, ब्रह्मतेजसे सम्पन्न है, श्रीयुक्त है और वह
मनीषियोंकी निष्ठा भी है॥११२-११४॥
भगवान् ब्रह्माके देखते ही देखते वह मुनि इन्द्रद्युम्न
तेजसे सम्पन्न हो गया और उसने सर्वत्र व्याप्त, परम
कल्याणकारी, अत्यन्त शान्त स्वात्मस्वरूप, अक्षर,
व्योम उस परमेश्वर-सम्बन्धी तेजको देखा। वह विष्णुका
परम पद है। केवल आनन्दरूप, अचल वह ब्रह्मका
स्थान परमेश्वररूप है। सभी प्राणियोंको अपनी ही आत्मा
समझनेवाला वह योगी इन्द्रद्यु्न परम ऐश्वर्यमें प्रतिष्ठित
हो गया और उसने “मोक्ष” पदसे कहे जानेवाले उस
अव्यय परमात्मधामको प्राप्त कर लिया॥ ११५--११७॥
इसलिये सभी प्रयत्रोंसे वर्ण एवं आश्रमके नियमोंका
पालन करते हुए अन्तिम भावका आश्रय ग्रहण कर
विद्वान् व्यक्तिको चाहिये कि वह लक्ष्मीरूप मायासे
पार उतरे॥ ११८॥
सूतजी बोले--हरिके द्वारा इस प्रकार कहनेपर
इन्द्रसहित नारद आदि सभी महर्षियोंने गरुडध्वज
भगवान् विष्णुसे पूछा--॥ ११९॥
ऋषियोंने कहा--हे देवाधिदेव! हे हषीकेश! हे
नाथ! हे अमलरूप नारायण! जो आपने पूर्वकालमें
ब्राह्मण इन्द्रदुम्नसे धर्मादि-सम्बन्धी ज्ञान कहा था, वह
सब आप हमें बतलायें। हे जगन्मूर्ति! ये आपके सखा
इन्द्र भी सुननेके लिये इच्छुक हैं॥१२०-१२१॥
२२
ततः स भगवान् विष्णु: कूर्मरूपी जनार्दन: ।
न कूर्मपुराण हम
इसके बाद (सूतजीने कहा--) रसातलमें स्थित
रसातलगतो देवो नारदद्यैर्महर्षिभिः ॥ १२२॥ | कूर्मरूपी जनार्दन भगवान् विष्णुदेवने नारदादि महर्षियोंके
पृष्ठ: प्रोवाच सकल पुराणं कोर्ममुत्तमम् ।
संनिधौ देवराजस्य तद वक्ष्य भवतामहम्॥ १२३॥
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं मोक्षप्रदं नृणाम् ।
पुराणश्रवणं विप्रा: कथनं च विशेषत: ॥ १२४॥
श्रुत्वा चाध्यायमेवैकं सर्वपापै: प्रमुच्यते।
उपाख्यानमथेकं वा ब्रह्मलोके महीयते॥ १२५॥
इदं पुराणं परमं कौर्म कूर्मस्वरूपिणा।
उक्त देवाधिदेवेन श्रद्धातव्यं द्विजातिभि: ॥ १२६॥
द्वारा (इस प्रकार) पूछे जानेपर जिस श्रेष्ठ सम्पूर्ण
कूर्मपुराणको देवराज इन्द्रके समीप सुनाया था, मैं उसे
आप लोगोंको सुनाता हूँ॥ १२२-१२३॥
हे ब्राह्मणो ! (इस कूर्म) पुराणका सुनना मनुष्योंके
लिये यशकी प्राप्ति करानेवाला, दीर्घ आयु प्रदान
करानेवाला, पुण्य प्रदान करानेवाला, कृतकृत्य करानेवाला
तथा मोक्ष प्रदान करानेवाला है। इस पुराणके वाचन
करनेकी तो और भी विशेष महिमा है। इसके मात्र एक
अध्यायके सुननेसे ही सभी प्रकारके पापोंसे (व्यक्ति)
मुक्त हो जाता है। अधिक क्या कहा जाय, केवल एक
उपाख्यानके श्रवणमात्रसे ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त होती
है। इस श्रेष्ठ कूर्मपुराणकों कूर्मरूपधारी देवाधिदेव स्वयं
भगवान् विष्णुने कहा है, द्विजातियोंको इसपर अवश्य
श्रद्धा रखनी चाहिये॥ १२४--१२६॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहस्यां संहितायां पूर्वविभागे प्रथमोउध्याय: ॥ ९ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें पहला अध्याय समाप्त हुआ॥ १॥
दूसरा अध्याय
विष्णुके नाभिकमलसे ब्रह्माका प्रादुर्भाव, रुद्र तथा लक्ष्मीका प्राकट्य, ब्रह्माद्वारा
नौ मानस पुत्रों तथा चार वर्णोकी सृष्टि, वेदज्ञानकी महिमा, ब्रह्म-सृष्टिका
वर्णन, वर्ण और आश्रमोंके सामान्य तथा विशेष धर्म, गृहस्थाश्रमका
माहात्म्य, चतुर्विध पुरुषार्थो्में धर्मकी महिमा, आश्रमोंका द्वैविध्य,
त्रिदेवोंका पूजन, त्रिपुण्ड़, तिलक तथा भस्म-धारणकी महिमा
श्रीकूर्म उवाच
श्रुणुध्वमृषय: सर्वे यत्पृष्टो5ह जगद्धितम्।
वक्ष्यमाणं मया सर्वमिन्द्रद्यम्नाय भाषितम्॥ १॥
श्वरितेरुपबृंहितम् ।
पुराणं पुण्यदं नृणां मोक्षधर्मानुकीर्तनम्॥ २॥
अहं नारायणो देव: पूर्वमासं न मे परम्।
श्रीकूर्मने कहा--समस्त ऋषिगणो! संसारके
कल्याणके लिये आप लोगोंने जो कुछ मुझसे पूछा है
और इन्द्रयुम्नके प्रति मैंने जो कुछ कहा है, वह सब मैं
बतला रहा हूँ, आप लोग सुनें॥ १॥
इस (कूर्म) पुराणमें भूत, वर्तमान एवं भविष्यकालमें
हुए वृत्तान्तोंको विस्तारसे बतलाया गया है। यह पुराण
मनुष्योंको पुण्य प्रदान करनेवाला और मोक्षधर्मका
वर्णन करनेवाला है॥२॥
मैं ही नारायण देवरूपसे पूर्वकालमें विद्यमान था।
उपास्य विपुलां निद्रां भोगिशय्यां समाश्नित: ॥ ३॥ | मेरे अतिरिक्त और कोई दूसरा न था॥३॥
* अध्याय २ *
चिन्तयामि पुनः सृष्टि निशान्ते प्रतिबुध्य तु।
ततो मे सहसोत्पन्न: प्रसादो मुनिपुंगवा:॥ ४ ॥
चतुर्मुखस्ततो जातो ब्रह्मा लोकपितामहः ।
तदन्तरे5भवत् क्रोध: कस्माच्चित् कारणात् तदा॥ ५॥
आत्मनो मुनिशार्दूलास्तत्र देवो महेश्वरः।
रुद्र: क्रोधात्मजो जज्ञे शूलपाणिस्त्रिलोचन: ।
तेजसा सूर्यसंकाशस्त्रेलोक्यं॑ संहरन्निव॥ ६ ॥
ततः श्रीभभवद् देवी कमलायतलोचना।
सुरूपा सौम्यवदना मोहिनी सर्वदेहिनाम्॥ ७ ॥
शुचिस्मिता सुप्रसन्ना मड्रला महिमास्पदा।
दिव्यकान्तिसमायुक्ता दिव्यमाल्योपशोभिता॥ ८ ॥
नारायणी महामाया मूलप्रकृतिरव्यया।
स्वधाम्ना पूरयन्तीदं मत्पाश्व॑ समुपाविशत्॥ ९ ॥
तां दृष्टवा भगवान् ब्रह्मा मामुवाच जगत्पति: ।
मोहायाशेषभूतानां नियोजय सुरूपिणीम्।
येनेयं विपुला सृष्टिवर्धती मम माधव॥ १०॥
तथोक्तो5हं श्रियं देवीमब्रुवं प्रहसन्निव।
देवीदमखिलं विश्व॑ सदेवासुरमानुषम्।
मोहयित्वा ममादेशात् संसारे विनिपातय॥ ११॥
ज्ञानयोगरतान् दान्तान् ब्रहिष्ठान् ब्रह्मवादिन: ।
अक्रोधनान् सत्यपरान् दूरतः परिवर्जय॥ १२॥
ध्यायिनो निर्ममान् शान्तान् धार्मिकान् वेदपारगान्।
जापिनस्तापसानू विप्रान् दूरतः परिवर्जय॥ १३॥
वेदवेदान्तविज्ञानसंछिन्नाशेषसंशयान् ।
महायज्ञपरान् विप्रान् दूरतः परिवर्जय॥ १४॥
ये यजन्ति जपैहेमिर्देवदेव॑ महे श्वरम ।
स्वाध्यायेनेज्यया दूरात् तान् प्रयत्नेन वर्जय॥ १५॥
श्र
मैं प्रगाढ योगनिद्राका आश्रय लेकर शेष-शब्यामें
पड़ा था। मुनिश्रेष्ठो ! रात्रिके बीत जानेपर जागकर मैं पुनः
सृष्टिविषषक चिन्तन करने लगा। उसी समय अकस्मात्
मुझे प्रसन्नता प्राप्त हुई॥ ४॥
तदुपरान्त समस्त संसारके पितामह चतुर्मुख ब्रह्माका
आविर्भाव हुआ। इसी बीच किसी कारणसे अकमस्मात्
उस समय क्रोध उत्पन्न हुआ। हे मुनिश्रेष्ठो! (उस
समय) क्रोधात्मज अपने तेजके द्वारा मानो त्रैलोक्यका
संहार करनेके लिये हाथमें त्रिशूल धारण किये, तीन
नेत्रोंवाले सूर्यके समान प्रकाशमान महेश्वर रुद्रदेव वहाँ
उत्पन्न हुए॥ ५-६॥
तदनन्तर कमलके समान विशाल नेत्रोंवाली, सुन्दर
रूप एवं प्रसन्न मुखवाली तथा सभी प्राणियोंको मोहित
करनेवाली देवी लक्ष्मी उत्पन्न हुईं। पवित्र मुस्कानवाली,
अत्यन्त प्रसन्न, मड्रलमयी, अपनी महिमामें प्रतिष्ठित,
दिव्य कान्तिसे सुसम्पन्न, दिव्य माल्य आदिसे सुशोभित,
अविनाशिनी महामाया मूलप्रकृतिरूपा वे नारायणी अपने
तेजसे इस (संसार)-को आपूरित करती हुई मेरे
समीपमें आकर बैठ गर्यी । उन्हें देखकर संसारके स्वामी
भगवान् ब्रह्मा मुझसे कहने लगे--हे माधव! सम्पूर्ण
प्राणियोंको मोहित करनेके लिये इन सुरूपिणी (देवी)-
को नियुक्त करो, जिससे यह मेरी सृष्टि और भी
अधिक बढ़ने लगे॥७--१०॥
ब्रह्माके द्वारा ऐसा कहे जानेपर मैंने मुसकराते हुए,
देवी लक्ष्मीसे कहा--हे देवि! मेरे आदेशसे तुम
देवताओं, असुरों तथा मनुष्योंसे युक्त सम्पूर्ण विश्वको
(अपनी मायासे) मोहित कर संसारमें प्रवृत्त करो।
(किंतु) जो ज्ञानयोगमें निरत हैं, जितेन्द्रिय हैं, ब्रह्मनिष्ठ
हैं, ब्रह्मवादी हैं, क्रोधशून्य हैं तथा सत्यपरायण हैं--ऐसे
लोगोंको दूरसे ही छोड़ देना॥ ११-१२॥
ध्यान करनेवाले, ममतारहित, शान्त, धार्मिक, वबेदमें
पारंगत, जप-परायण और तपस्वी विप्रोंको दूरसे ही छोड़
देना। वेद एवं वेदान्तके विशेष ज्ञानसे जिनके सम्पूर्ण संशय
सर्वथा दूर हो गये हैं ऐसे तथा बड़े-बड़े यज्ञोंमें परायण
द्विजोंको दूरसे ही छोड़ देना। जो जप, होम, यज्ञ एवं
स्वाध्यायके द्वारा देवाधिदेव महेश्वरका यजन करते हैं, उनका
प्रयत्रपूर्वक दूरसे ही परित्याग कर देना॥ १३--१५॥
7.]
भक्तियोगसमायुक्तानी श्वरापितमानसान् _।
प्राणायामादिषु रतान् दूरात् परिहरामलानू॥ १६॥
प्रणवासक्तमनसो..._ रुद्रजप्यपरायणान्।
अथर्वशिरसो5ध्येतृन् धर्मज्ञान् परिवर्जय॥ १७॥
बहुनात्र किमुक्तेन स्वधर्मपरिपालकान्।
ईश्वराराधनरतान्ू._ मन्नियोगान्न मोहय॥ १८॥
एवं मया महामाया प्रेरिता हरिवल्लभा।
यथादेशं चकारासौ तस्माल्लक्ष्मीं समर्चयेत्॥ १९॥
अश्रियं ददाति विपुलां पुष्टि मेधां यशो बलम्।
अर्चिता भगवत्पत्नी तस्माल्लक्ष्मीं समर्चयेत्॥ २० ॥
ततोडसृजत् स भगवान् ब्रह्मा लोकपितामह: ।
चराचराणि भूतानि यथापूर्व ममाज्ञया॥ २१॥
मरीचिभृग्वड्धिरसः पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
दक्षमत्रिं वसिष्ठे चु सोडइसृजद् योगविद्यया॥ २२॥
नवैते ब्रह्मण: पुत्रा ब्रह्माणो ब्राह्मणोत्तमा: ।
ब्रह्मवादिन एवैते मरीच्याद्यास्तु साधका:॥ २३॥
ससर्ज ब्राह्मणान् वक्त्रात् क्षत्रियांश्व भुजाद विभु: ।
वैश्यानूरुद्दयाद देव: पादाच्छुद्रानू पितामह: ॥ २४॥
यज्ञनिष्पत्तये ब्रह्मा शूद्रवर्ज ससर्ज ह।
गुप्तये सर्ववेदानां तेभ्यो यज्ञों हि निर्बभौ॥ २५॥
ऋचो यजूंषि सामानि तथेवाथर्वणानि च।
ब्रह्मण: सहजं रूपं नित्यैषा शक्तिरव्यया॥ २६॥
अनादिनिधना दिव्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा |
आदी वेदमयी भूता यतः सर्वा: प्रवृत्तय:॥ २७॥
अतो5न्यानि तुशास्त्राणि पृथिव्यां यानि कानिचितू।
न तेषु रमते धीरः पाषण्डी तेन जायते॥ २८॥
न कूर्मपुराण मं
जो भक्तियोगमें लगे हुए हैं, जिन्होंने अपना चित्त
भगवान्को अर्पण कर दिया है और जो प्राणायाम
( धारणा, ध्यान तथा समाधि) आदियमें निरत हैं, ऐसे
अमलात्माओंका दूरसे ही त्याग कर देना। जिनका मन
प्रणवोपासनामें आसक्त है, जो रुद्र (मन्त्रों)>का जप
करनेवाले हैं और जो अथर्वशिरसके अध्येता हैं, उन
धर्मज्ञ व्यक्तियोंको छोड़ देना। और अधिक क्या कहा
जाय, जो अपने धर्मका पालन करनेवाले हैं, ईश्वरकी
आराधनामें सतत रत हैं, (हे देवि!) उन्हें मेरे आदेशसे
कदापि मोहित न करना ॥ १६--१८ ॥
इस प्रकार मेरे द्वारा प्रेरित हरिप्रिया महामायाने जैसी
मेरी आज्ञा थी, उसी प्रकार किया, इसलिये (उन)
लक्ष्मीकी आराधना करनी चाहिये। भगवत्पत्नी (देवी
महालक्ष्मी) पूजा किये जानेपर विपुल ऐश्वर्य, पुष्टि,
मेधा, यश एवं बल प्रदान करती हैं, इसलिये लक्ष्मीकी
भलीभाँति पूजा करनी चाहिये॥ १९-२०॥
तदनन्तर लोकपितामह भगवानने मेरी आज्ञासे
पूर्वकी भाँति ही समस्त चराचर भूत--प्राणियोंकी सृष्टि
की। योगविद्याके प्रभावसे ब्रह्माजीनी मरीचि, भृगु,
अड्रिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, अत्रि तथा वसिष्ठको
उत्पन्न किया॥ २१-२२॥
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! ब्रह्माके मरीचि आदि ये नौ
'ब्रह्माण '- संज्ञक पुत्र साधक हैं, ब्रह्मवादी हैं। पितामह
विभु देव (ब्रह्मा)-ने मुखसे ब्राह्मणों तथा भुजासे
क्षत्रियोंकी सृष्टि की। दोनों जंघाओंसे वैश्योंको तथा
पैरसे शूद्रोंको उत्पन्न किया। ब्रह्माने यज्ञकी निष्पत्ति एवं
सभी वेदोंकी रक्षाके लिये शूद्रके अतिरिक्त (अन्य सभी
वर्णोकी) सृष्टि की, क्योंकि उनसे यज्ञका निर्वाह होता
है॥ २३--२५॥
ऋक्, यजु:, साम तथा अथर्ववेद ब्रह्माके सहज
स्वरूप हैं और यह नित्य अव्यय शक्ति हैं। स्वयम्भू
ब्रह्माजीने प्रारम्भमें आदि और अन्तसे रहित वेदमयी
दिव्य वाग्रूपी शक्तिको उत्पन्न किया, जिसके द्वारा
सभी व्यवहार होते हैं। पृथ्वीपर इन (वेदों)-से भिन्न
जो कोई भी शास्त्र हैं उनमें धीर पुरुषका मन नहीं
लगता क्योंकि ऐसे वेदातिरिक्त ग्रन्थोंके अध्ययनसे
मनुष्य पाखंडी हो जाता है॥ २६--२८ ॥
* अध्याय २ *
वेदार्थवित्तमै: कार्य यत्स्मृतं मुनिभि: पुरा।
स ज्ञेयः परमो धर्मो नान्यशास्त्रेषु संस्थित:॥ २९॥
या वेदबाह्या: स्मृतयो याश्व काश्च कुदृष्टय: ।
सर्वास्ता निष्फला: प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ता: स्मृता: ॥ ३०॥
पूर्वकल्पे प्रजा जाता: सर्वबाधाविवर्जिता: ।
शुद्धान्तःकरणाः सर्वाः स्वधर्मनिरता: सदा॥ ३१ ॥
ततः कालवशात् तासां रागद्वेषादिको5 भवत्।
अधर्मो मुनिशार्दूला: स्वधर्मप्रतिबन्धक: ॥ ३२॥
ततः सा सहजा सिद्ध्रिस्तासां नातीव जायते।
रजोमात्रात्मिकास्तासां सिद्धयोउन्यास्तदाभवन्॥ ३३॥
तासु क्षीणास्वशेषासु कालयोगेन ता: पुनः ।
वार्तोपायं पुनश्चक्रुईस्तसिद्धिं च कर्मजाम्
ततस्तासां विभुर्रदह्या कर्माजीवमकल्पयत्॥ ३४॥
स्वायम्भुवो मनुः पूर्व धर्मान् प्रोवाच धर्मदूक् ।
साक्षात् प्रजापतेमूर्तिनिसृष्टा ब्रह्मणा द्विजा: ।
भृग्वादयस्तद्वदनाच्छुत्ता धर्मानथोचिरे॥ ३५॥
यजनं याजनं दानं ब्राह्मणस्य प्रतिग्रहम।
अध्यापनं चाध्ययनं षट् कर्माणि द्विजोत्तमा: ॥ ३६॥
दानमध्ययनं यज्ञो धर्म: क्षत्रियवेश्ययो:।
दण्डो युद्ध क्षत्रियस्य कृषिवैश्यस्य शस्यते ॥ ३७॥
शुश्रूषैव द्विजातीनां शूद्राणां धर्मसाधनम्।
कारुकर्म तथाजीव: पाकयज्ञो5पि धर्मतः ॥ ३८ ॥
२५
वेदार्थ-ज्ञानमें श्रेष्ठ मुनियोंने प्राचीन समयमें जो कार्य
(करने योग्य) बतलाया है, उसीको परम धर्म समझना
चाहिये, (वह धर्म वेदातिरिक्त) अन्य शास्त्रोंमें प्रतिपादित
नहीं है। वैदिक सिद्धान्तोंक विपरीत बातोंका प्रतिपादन
करनेवाली जो स्मृतियाँ (धर्मशास्त्र) हैं और जो कोई
भी कुदर्शन (नास्तिक दर्शन) हैं, पारलौकिक दृष्टिसे वे
सभी निष्फल हैं, इसीलिये वे तामसी कहे गये
हैं॥ २९-३० ॥
पूर्व कल्पमें जो प्रजा उत्पन्न हुई थी, वह सभी
बाधाओंसे रहित थी। सभी लोग निर्मल अन्त:करणवाले
थे और सर्वदा अपनी-अपनी धर्म-मर्यादामें स्थिर रहते
थे। हे श्रेष्ठ मुनियो! कुछ समय बाद कालकी गतिके
प्रभावसे उन (लोगों)-में राग, द्वेष (लोभ, मोह तथा
क्रोध) आदि उत्पन्न हो गये और स्वधर्ममें बाधा
डालनेवाला अधर्म भी उत्पन्न हो गया॥ ३१-३२॥
(इस कारण) उस समय उनमें (जो पहले सात्तिक)
सहज सिद्धि थी, वह धीरे-धीरे कम होने लगी और
रजोगुणमूलक जो अन्य सिद्धियाँ थीं, वे ही उन्हें प्राप्त
हुईं। उन सभी (रजोगुणमूलक सिद्धियों)-के भी कालयोगसे
क्षीण हो जानेपर वे वार्तोपाय अर्थात् कृषि, पशुपालन
एवं वाणिज्यरूपी जीविकाके उपाय और कर्मसाध्य
(परिश्रमसाध्य) हस्तसिद्धि अर्थात् शिल्पशास्त्र (हाथोंके
माध्यमसे किये जानेवाले शिल्प, मूर्ति-कला आदि)-के
उपाय करने लगे। तब विभु ब्रह्माजीने उन लोगोंके लिये
कर्म एवं आजीविकाकी व्यवस्था की ॥ ३३-३४ ॥
हे ब्राह्मणो! ब्रह्मासे उत्पन्न साक्षात् प्रजापतिस्वरूप
धर्मदर्शी स्वायम्भुव मनुने पूर्वकालमें धर्मोका उपदेश
किया (जो मनुस्मृतिके नामसे प्रसिद्ध हुई)। तदनन्तर
उनके मुखसे उसे सुनकर भृगु आदि महर्षियोंने धर्मोका
वर्णन किया॥ ३५॥
श्रेष्ठ त्राह्मणो ! यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान
लेना, अध्ययन और अध्यापन--ये ब्राह्मणोंके छ: कर्म हैं ।
दान, अध्ययन और यज्ञ--ये तीन क्षत्रिय और वैश्यके
(सामान्य) धर्म हैं, दण्ड-विधान और युद्ध क्षत्रियका तथा
कृषिकर्म वैश्यका प्रशस्त कर्म है। द्विजातियोंकी सेवा करना
शुद्रोंक लिये एकमात्र धर्मका साधन है। धर्मानुसार पाकयज्ञ
तथा शिल्पविद्या उनकी आजीविका है ॥ ३६--३८ ॥
२६
ततः स्थितेषु वर्णेषु स्थापयामास चाश्रमान्।
गृहस्थं च वनस्थं च भिक्षुकं ब्रह्मचारिणम्॥ ३९॥
अग्रयोडतिथिशु श्रूषा यज्ञों दानं सुरा्चनम्।
गृहस्थस्य समासेन धर्मोडयं मुनिपुंगवा: ॥ ४० ॥
होमो मूलफलाशित्वं स्वाध्यायस्तप एव च।
संविभागो यथान्यायं धर्मोड्यं वनवासिनाम्॥ ४१॥।
भेक्षाशनं च मौनित्वं तपो ध्यानं विशेषत: |
सम्यग्ज्ञानं च वैराग्यं धर्मोड्यं भिक्षुके मत: ॥ ४२॥
भिक्षाचर्या च शुश्रूषा गुरो: स्वाध्याय एव च |
संध्याकर्माग्रिकार्य च धर्मो5यं ब्रह्मचारिणाम्॥ ४३ ॥
ब्रह्मचारिवनस्थानां भिक्षुकाणां द्विजोत्तमा: ।
साधारणं ब्रह्मचर्य प्रोवाच कमलोद्धव: ॥ ४४॥
ऋतुकालाभिगामित्वं स्वदारेषु न चान्यत: ।
पर्ववर्ज॒गृहस्थस्य ब्रह्मचर्यमुदाहतम्॥ ४५ ॥
आगर्भसम्भवादाद्यात् कार्य तेनाप्रमादतः ।
अकुर्वाणस्तु विप्रेन्द्रा भ्रूणहा तु प्रजायते॥ ४६॥
वेदाभ्यासो5न्वहं शक्त्या श्राद्धं चातिथिपूजनम् ।
गृहस्थस्य परो धर्मों देवताभ्यर्चन॑ तथा॥ ४७॥
बैवाह्ममग्नरिमिन्धीत साय॑ प्रातर्यथाविधि।
देशान्तगतो वाथ मृतपत्नीक एवं बा॥ ४८॥
त्रयाणामाश्रमाणां तु गृहस्थो योनिरुच्यते।
अन्ये तमुपजीवन्ति तस्माच्छेयान् गृहा भ्रमी ॥ ४९॥
ऐकाश्रम्यं गृहस्थस्य त्रयाणां श्रुतिदर्शनात् |
तस्माद गार्हस्थ्यमेवैकं विज्ञेयं धर्मसाधनम्॥ ५० ॥
परित्यजेदर्थकामौ यौ स्वातां धर्मवर्जितौ।
सर्वलोकविरुद्धं च॒ धर्ममप्याचरेन्न तु॥५१॥
ह कूर्मपुराण भर
तदनन्तर वर्णोंकी व्यवस्था स्थिर हो जानेपर (उन्होंने)
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास (इन चार)
आश्रमोंकी स्थापना की॥ ३९॥
हे मुनिश्रेष्ठो ! अग्नियों (गार्हपत्य, आहवनीय तथा
दक्षिणाग्रि)-की उपासना, अतिथि-सेवा, यज्ञ, दान एवं
देवताओंकी पूजा--यह संक्षेपमें गृहस्थका धर्म है | हवन,
कन्द-मूल-फलका सेवन, स्वाध्याय तथा तप, न्यायपूर्वक
(सम्पत्तिका) विभाजन--यह वानप्रस्थोंका धर्म है।
भिक्षावृत्तिसे प्राप्त पदार्थोका सेवन, मौनब्रत, तप, सम्यक्-
ध्यान, सम्यक्-ज्ञान तथा वेराग्य--यह संन्यासियोंका धर्म
है। भिक्षा माँगना, गुरुकी सेवा करना, स्वाध्याय, संध्याकर्म
तथा अग्रिकार्य--यह ब्रह्मचारियोंका धर्म है ॥ ४०--४३ ॥
श्रेष्ठ त्राह्यणो ! कमलसे प्रादुर्भूत ब्रह्माजीने ब्रह्मचर्यको
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा संन्यासीका साधारण धर्म कहा है
अर्थात् ब्रह्मचर्य तीनों आश्रमियोंका सामान्य धर्म है। ऋतुकाल
(स्त्रीके रजस्वलाकी चार रात्रियोंको छोड़कर) - में, विशेष
पर्वोको छोड़कर अपनी पत्नीमें गमन करना गृहस्थके लिये
*ब्रह्मचर्य ' ही कहा गया है, अन्य रात्रियोंमें नहीं। प्रथम
गर्भ धारण करनेतक उसे बिना किसी प्रमादके इस नियमका
पालन करना चाहिये। हे विप्रेन्द्रो! ऐसा न करनेवाला
(गृहस्थ) भ्रूणघाती होता है॥ ४४--४६ ॥
यथाशक्ति प्रतिदिन बेदका स्वाध्याय, श्राद्ध, अतिथि-
सेवा तथा देवताओंकी पूजा--यह गृहस्थका श्रेष्ठ धर्म
है। किसी दूसरे देशमें जानेपर अथवा पत्नीके मर
जानेपर भी गृहस्थको चाहिये कि वह प्रात:काल और
सायंकाल विधिपूर्वक विवाहाग्रि (गार्हपत्याग्रि)-को
प्रजजलित करता रहे ॥ ४७-४८ ॥
गृहस्थ-आश्रमको तीनों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ
तथा संनन््यास)-का बीज कहा जाता है, क्योंकि तीनों
आश्रमोंके लोग गृहस्थाश्रमीपर ही निर्भर रहते हैं, इसलिये
गृहस्थाश्रमी सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। वेदोंका अभिमत है
कि केवल गृहस्थाश्रममें ही अन्य तीनों आश्रमोंका
(समावेश) होता है, इसलिये एकमात्र गार्हस्थ्यको ही
धर्मका साधन जानना चाहिये॥ ४९-५० ॥
धर्मसे रहित जो अर्थ एवं काम नामक (पुरुषार्थ)
हैं, उनका परित्याग करना चाहिये। साथ ही सभी
प्रकारसे जो लोकविरुद्ध हो उस धर्मका भी आचरण
नहीं करना चाहिये॥ ५१॥
* अध्याय २ *
धर्मात् संजायते हार्थो धर्मात् कामोडभिजायते।
२७
धर्मसे अर्थकी प्रासि होती है, धर्मसे ही कामकी
धर्म एवापवर्गाय तस्माद् धर्म समाश्रयेत्॥ ५२॥ | भी सिद्धि होती है और धर्म (-के आचरण)-से ही
धर्मश्चार्थश्च कामश्च त्रिवर्गस्त्रिगुणो मतः।
सत्त्वं रजस्तमश्चेति तस्माद्धर्म समाश्रयेत्॥ ५३॥
ऊर्ध्व गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा: ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा: ॥ ५४॥।
यस्मिन् धर्मसमायुक्तावर्थकामौ व्यवस्थितौ ।
इह लोके सुखी भूत्वा प्रेत्यानन्याय कल्पते ॥ ५५ ॥
धर्मात् संजायते मोक्षो हार्थात् कामोइभिजायते ।
एवं साधनसाध्यत्वं चातुर्विध्ये प्रदर्शितम्॥ ५६ ॥
य एवं वेद धर्मार्थकाममोक्षस्थ मानव: ।
माहात्म्यं चानुतिष्ठेत स चानन्त्याय कल्पते॥ ५७॥
तस्मादर्थ च काम॑ च त्यक्त्वा धर्म समा श्रयेत्।
धर्मात् संजायते सर्वमित्याहुर्त्रहावादिन: ॥ ५८ ॥
धर्मेण धार्यते सर्व जगत् स्थावरजड्रमम्।
अनादिनिधना शक्ति: सेषा ब्राह्मी द्विजोत्तमा: ॥ ५९॥
कर्मणा प्राप्यते धर्मो ज्ञानेन च न संशय: ।
तस्माज्ज्ानेन सहितं कर्मयोगं समाचरेत्॥ ६०॥
प्रवृत्त च निवृत्तं च द्विविध॑ कर्म वैदिकम्।
ज्ञानपूर्व निवृत्तं स्यातू प्रवृत्तं यदतोउन्यथा॥ ६१॥
निवृत्तं सेवमानस्तु याति तत् परम॑ पदम्।
तस्मान्निवृत्तं संसेव्यमन्यथा संसरेत् पुनः॥ ६२॥
* यहाँ ज्ञानका तात्पर्य धर्मज्ञानसे है, आत्मज्ञानसे नहीं।
मोक्ष प्रात होता है, इसलिये धर्मका ही आश्रय लेना
चाहिये ॥५२॥
धर्म, अर्थ और कामरूपी त्रिवर्ग (क्रमश: ) सत्त्व,
रज और तमरूपी त्रिगुणसे युक्त है, इसलिये धर्मका
आश्रय ग्रहण करना चाहिये। सात्त्विक गुणोंका आश्रय
लेनेवाले ऊर्ध्व लोकको प्राप्त करते हैं, राजसी व्यक्ति
मध्य लोकमें रहते हैं तथा तमोगुणके कार्यमें स्थित
तामसी व्यक्ति अधोगतिको प्राप्त होते हैं। जिस व्यक्तिमें
धर्मसे समन्वित अर्थ और काम प्रतिष्ठित रहते हैं, वह
इस लोकमें सुखोंका उपभोग कर मृत्युके उपरान्त मोक्ष
प्राप्त करनेमें समर्थ होता है ॥ ५३--५५ ॥
धर्मसे (धर्माचरणसे) मोक्षकी प्राप्ति होती है और
अर्थसे कामकी सिद्धि होती है। इस प्रकार चार प्रकारके
पुरुषार्थोमें साधन और साध्यका वर्णन दिखाया गया। जो
मानव धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षके इस प्रकार बताये
गये माहात्म्यको जानता है और तदनुसार आचरण करता
है, वह मोक्ष (प्राप) करनेमें समर्थ होता है। इसलिये
(धर्मविरुद्ध) अर्थ एवं काम (-रूपी पुरुषार्थ)-का
सर्वथा परित्याग कर धर्मका ही आश्रय ग्रहण करना
चाहिये। धर्मसे ही सब कुछ सिद्ध हो जाता है--ऐसा
ब्रह्मवादियोंका कहना है॥ ५६--५८ ॥
धर्मके द्वारा ही स्थावर-जंगमात्मक सारा विश्व धारण
किया जाता है। हे द्विजोत्तमो ! यह (धर्मशक्ति) ब्रह्माजीकी
वह ब्राह्मी शक्ति है जो आदि और अन्तसे रहित है। कर्म
एवं ज्ञान--दोनोंके द्वारा ही धर्मकी प्राप्ति होती है, इसमें
कोई संदेह नहीं। इसलिये ज्ञानके* साथ ही कर्मयोगका
भी आचरण ग्रहण करना चाहिये॥ ५९-६० ॥
प्रवृत्त एवं निवृत्त--इस प्रकारसे वैदिक कर्म दो
प्रकारका होता है। निवृत्तकर्म ज्ञानपूर्वक एवं प्रवृत्तकर्म
इससे भिन्न प्रकारका होता है। निवृत्तकर्मका सेवन
करनेवाला उस परमपद (मोक्ष)-को प्राप्त करता है।
अत: निवृत्तकर्म (निवृत्तिमार्ग)-का ही सेवन करना
चाहिये, इससे अन्यथा करनेपर पुनः संसारमें आना
पड़ता है॥६१-६२ ॥
२८
क्षमा दमो दया दानमलोभस्त्याग एव च।
आर्जव॑ चानसूया च तीर्थानुसरणं तथा॥ ६३॥
सत्यं संतोष आस्तिक्यं श्रद्धा चेन्द्रियनिग्रह: ।
देवताभ्यर्चन॑ पूजा ब्राह्मणानां विशेषतः॥ ६४॥
अहिंसा प्रियवादित्वमपैशुन्यमकल्कता।
सामासिकमिमं धर्म चातुर्वण्येडब्नवीन्मनु:॥ ६५॥
प्राजापत्य॑ ब्राह्मणानां स्मृतं स्थान क्रियावताम्।
स्थानमैन्द्रं क्षत्रियाणां संग्रामेष्वपलायिनाम्॥ ६६ ॥
वैश्यानां मारुतं स्थान स्वधर्ममनुवर्तताम्।
गान्धर्व शूद्रजातीनां परिचारेण वर्तताम्॥ ६७॥
अष्टाशीतिसहस्त्राणामृषीणामूर्ध्वरेतसाम् ।
स्मृतं तेषां तु यत्स्थानं तदेव गुरुवासिनाम्॥ ६८ ॥
सप्तषीणां तु यत्््थानं स्मृतं तद वै वनौकसाम्।
प्राजापत्य॑ गृहस्थानां स्थानमुक्तं स्वयम्भुवा॥ ६९ ॥
यतीनां यतचित्तानां न्यासिनामूरध्वरेतसाम्।
हैरण्यगर्भ तत् स्थानं यस्मान्नावर्तते पुनः॥ ७०॥
योगिनाममृतं स्थानं व्योमाख्यं परमाक्षरम्।
आनन्दमैश्वरं धाम सा काष्ठा सा परा गति: ॥ ७१॥
ऋषय ऊचु:
भगवन् देवतारिष्न हिरण्याक्षनिषूदन।
चअत्वारो ह्याश्रमाः प्रोक्ता योगिनामेक उच्यते॥ ७२॥
श्रीकूर्म उवाच
सर्वकर्माणि संन्न्यस्य समाधिमचलं शभ्रितः ।
य आस्ते निश्चलो योगी स संन्यासी न पञ्ञम: ॥ ७३॥
सर्वेषामाश्रमाणां तु द्वैविध्यं श्रुतिदर्शितम्।
ब्रह्मचार्युपकुर्वाणो नैष्टिको ब्रह्मतत्पर:॥ ७४॥
न कूर्मपुराण न
क्षमा, दम (इन्द्रियनिग्रह), दया, दान, अलोभ,
त्याग, आर्जव (मन-वाणी आदिकी सरलता), अनसूया,
तीर्थानुसरण अर्थात् गुरु एवं शास्त्रका अनुगमन या
तीर्थसेवन, सत्य, संतोष, आस्तिकता (वेदादि शास्त्रोंमें
श्रद्धा), श्रद्धा, जितेन्द्रियत्व, देवताओंका अर्चन, विशेष
रूपसे ब्राह्मणोंकी पूजा, अहिंसा, मधुर भाषण, अपिशुनता
तथा पापसे राहित्य--स्वायम्भुव मनुने चारों वर्णोंके
लिये ये सामान्य धर्म कहे हैं॥६३--६५॥
अपने ब्राह्मण-धर्मका यथावत् पालन करनेवाले क्रिया-
निष्ठ ब्राह्मणोंके लिये प्राजापत्य स्थान (प्राजापत्य लोक)
तथा संग्राममें पलायन न करनेवाले क्षत्रियोंके लिये ऐन्द्र-
स्थान (इन्द्रलोक) सुनिश्चित है। इसी प्रकार स्वधर्मका
पालन करनेवाले वैश्योंके लिये मारुत-स्थान (वायुलोक)
और परिचर्यारूप स्वधर्मका पालन करनेवाले शूद्रजातिवालोंके
लिये गन्धर्वलोक सुनिश्चित है॥ ६६-६७॥
ऊर्ध्वरेता अद्टठासी हजार (शौनक आदि) ऋषियोंका
जो स्थान है, वही स्थान गुरुके अन्तेवासी ब्रह्मचारियोंको
प्राप्त होता है। सप्तर्षियोंका जो स्थान है, वही स्थान
वनमें रहनेवाले वानप्रस्थियोंको प्रात होता है और
स्वयम्भू ब्रह्माने गृहस्थोंके लिये प्राजापत्य स्थान (प्राजापत्य
लोक)-की प्राप्ति बतलायी है॥ ६८-६९ ॥
समाहित-चित्त यतात्मा ऊशध्वरेता संन्यासियोंको
हिरण्यगर्भ नामक वह स्थान प्राप्त होता है, जहाँसे पुनः
लौटना नहीं पड़ता । योगियोंको अविनाशी वह व्योमसंज्ञक
श्रेष्ठ अमरस्थान प्राप्त होता है जो आनन्दस्वरूप और
ऐश्वर धाम है, वही पराकाष्ठा (अन्तिम) और परम
गति है॥ ७०-७१॥
ऋषियोंने कहा--देवताओंके शत्रुओंका विनाश
करनेवाले, हिरण्याक्षका वध करनेवाले हे भगवन्!
(आपने) चार आश्रम बताये (किंतु) योगियोंके लिये
एक ही आश्रम बतलाया॥ ७२॥
श्रीकूर्मने कहा--सभी कर्मोंका परित्याग कर एकमात्र
अचल समाधिमें निरन्तर स्थिर रहनेवाला जो निश्चल योगी
है, वही संन््यासी होता है, अत: (चार ही आश्रम होते हैं)
पाँचवाँ कोई आश्रम नहीं होता। वेदमें बतलाया गया है
कि सभी आश्रम दो प्रकारके होते हैं | ब्रह्मचारीके दो भेद
हैं--उपकुर्वाण और नैष्ठिक ब्रह्मतत्पर॥ ७३-७४॥
* अध्याय २ *
यो<5धीत्य विधिदद्वेदान् गृहस्था श्रममात्रजेत्।
उपकुर्वाणको ज्ञेयो नैप्ठिको मरणान्तिक:॥ ७५ ॥।
उदासीन: साधकश्च गृहस्थो द्विविधो भवेत्।
कुट॒ुम्बभरणे यत्त: साधको5सौ गृही भवेत्॥ ७६॥
ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य त्यक्त्वा भार्याधनादिकम् |
एकाकी यस्तु विचरेदुदासीन: स मौक्षिक: ॥ ७७॥
तपस्तप्यति यो5रण्ये यजेद देवान् जुहोति च।
स्वाध्याये चैव निरतो वनस्थस्तापसो मत: ॥ ७८ ॥
तपसा कर्षितो5त्यर्थ यस्तु ध्यानपरो भवेत्।
सांन्यासिक: स विज्ञेयो वानप्रस्था श्रमे स्थित: ॥ ७९ ॥
योगाभ्यासरतो नित्यमारुरुक्षुजितेन्द्रिय: ।
ज्ञानाय वर्तते भिक्षु: प्रोच्यते पारमेप्ठिक: ॥ ८० ॥
यस्त्वात्मरतिरेव स्यातन्नित्यतृप्तो महामुनि:।
सम्यग् दर्शनसम्पन्न: स योगी भिक्षुरुच्यते॥ ८१॥
ज्ञानसंन्यासिन: केचिद वेदसंन्यासिनो5परे।
कर्मसंन्यासिन: केचित् त्रिविधा: पारमेप्ठिका: ॥ ८२॥
योगी च त्रिविधो ज्ञेयो भौतिक: सांख्य एव च।
तृतीयोउत्या श्रमी प्रोक्तो योगमुत्तममास्थित: ॥ ८३ ॥
प्रथमा भावना पूर्वे सांख्ये त्वक्षरभावना।
तृतीये चान्तिमा प्रोक्ता भावना पारमेश्वरी॥ ८४॥
तस्मादेतद् विजानीध्वमा श्रमाणां चतुष्टयम् ।
सर्वेषु वेदशास्त्रेष् पञ्ञषमो नोपपद्यते॥ ८५॥
२९
जो ब्रह्मचारी विधिवत् वेदोंका अध्ययन कर
गृहस्थाश्रममें प्रवेश करता है, उसे उपकुर्वाणक ब्रह्मचारी
समझना चाहिये और जो यावज्जीवन गुरुके पास रहकर
ब्रह्मविद्याका अभ्यास करता है, वह नैष्ठिक ब्रह्मचारी
कहलाता है॥ ७५ ॥
(इसी प्रकार) गृहस्थाश्रमी भी दो प्रकारका होता
है--(१) उदासीन और (२) साधक। जो कुटुम्बके
भरण-पोषणमें लगा रहता है, वह गृहस्थ साधक
कहलाता है और जो देवऋण, पितऋण एवं ऋषिऋण--
इन तीन ऋणोंसे उऋण होकर स्त्री, धन आदिका
परित्याग कर देता है तथा एकाकी विचरण करता है,
वह मोक्ष-प्राप्तिकी इच्छावाला गृहस्थ उदासीन कहलाता
है ॥ ७६-७७॥
जो वनमें अनुष्ठान करता है, देवताओंकी पूजा करता
है, हवन करता है और स्वाध्यायमें निरत रहता है, वह
बनमें रहनेवाला 'तापस” नामक वानप्रस्थ कहलाता है
और जो अत्यन्त तपसे अपने शरीरको कृश कर लेता है
तथा निरन्तर ध्यानपरायण रहता है, वह वानप्रस्थ-आश्रममें
रहनेवाला सांन्यासिक वानप्रस्थी कहलाता है॥ ७८-७९ ॥
नित्य योगाभ्यासमें रत रहनेवाला, मोक्षमार्गमें आरूढ़
होनेकी इच्छावाला, जितेन्द्रिय तथा ज्ञानप्राप्तिके लिये
प्रयत्शील संन््यासीको ' पारमेष्ठिक' संन्यासी कहा जाता
है और जो केवल आत्मामें ही रमण करनेवाला है,
नित्य-तृप्त महामुनि है, सम्यक्-दर्शन-सम्पन्न है वह
संन््यासी “योगी” कहलाता है॥ ८०-८१॥
पारमेष्ठिक (संन्यासी)-के तीन भेद होते हैं--(१) कोई
ज्ञानसंन्यासी होते हैं, (२) कोई वेदसंन्यासी होते हैं और
(३) कोई कर्मसंन्यासी होते हैं। (इसी प्रकार) योगी भी
तीन प्रकारका समझना चाहिये--पहला भौतिक, दूसरा
सांख्य और तीसरे प्रकारका योगी अत्याश्रमी कहा गया
है, जो श्रेष्ठ योगमें ही नित्य स्थित रहता है। पहले भौतिक
योगीमें प्रथम भावना, (दूसरे) सांख्ययोगीमें अक्षर-भावना
और तीसरे अत्याश्रमी नामक योगीमें जो अन्तिम भावना
रहती है, वह पारमेश्वरी भावना कहलाती है॥ ८२--८४॥
इसीलिये (हे ऋषियो |) सभी वेदशास्त्रोंमें चार ही
आश्रम निश्चित किये गये हैं, ऐसा जानना चाहिये।
पाँचवाँ कोई आश्रम नहीं है॥ ८५॥
३०
एवं वर्णाश्रमान् सृष्टा देवदेवो निरज्धनः।
दक्षादीन् प्राह विश्वात्मा सृजध्वं विविधा: प्रजा: ॥ ८६ ॥
ब्रह्मणो वचनात् पुत्रा दक्षाद्या मुनिसत्तमा: ।
असृजन्त प्रजा: सर्वा देवमानुषपूर्विका:॥ ८७॥
इत्येष भगवान् ब्रह्मा सरत्रष्टत्वे स व्यवस्थित: ।
अहं वे पालयामीदं संहरिष्यति शूलभृत्॥ ८८ ॥
तिस्त्रस्तु मूर्तय: प्रोक्ता ब्रह्मविष्णुमहे श्वरा: ।
रज:सत्त्वतमोयोगात् परस्य परमात्मन: ॥ ८९॥
अन्योन्यमनुरक्तास्ते ह्ान्योन्यमुपजीविन: ।
अन्योन्यं प्रणताएचेव लीलया परमेश्वरा:॥ ९०॥
ब्राह्म माहेश्ररी चेव तथेवाक्षरभावना।
तिसत्रस्तु भावना रुद्रे वर्तन्ते सततं द्विजा:॥ ९१॥
प्रवर्तेी मय्यजस्त्रमाद्या चाक्षरभावना।
द्वितीया ब्रह्मण: प्रोक्ता देवस्याक्षरभावना॥ ९२॥
अहं चैव महादेवो न भिन्नौ परमार्थत:।
विभज्य स्वेच्छयात्मानं सो5न्तर्यामी श्वर: स्थित: ॥ ९३॥
त्रैलोक्यमखिलं स्त्रष्टं सदेवासुरमानुषम् |
पुरुष: परतो5व्यक्ताद ब्रह्मत्वं समुपागमत् ॥ ९४॥
तस्माद् ब्रह्मा महादेवो विष्णुर्विश्वेश्वर: पर: ।
एकस्यैव स्मृतास्तिस्त्रस्तनू: कार्यवशात् प्रभो: ॥ ९५॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन वन्द्या: पूज्या: प्रयत्नत: ।
यदीच्छेदचिरात् स्थान यत्तन्मोक्षाख्यमव्ययम्॥ ९६ ॥
वर्णाश्रमप्रयुक्तेन धर्मेण प्रीतिसंयुतः ।
पूजयेद् भावयुक्तेन यावज्जीवं प्रतिज्ञया॥ ९७॥
हु कूर्मपुराण ह
इस प्रकार (चार) वर्ण तथा (चार) आश्रमोंकी सृष्टि
करके देवाधिदेव निरञ्ञन विश्वात्मा (ब्रह्माजी)-ने दक्ष
आदि (प्रजापतियों )-से कहा--' अनेक प्रकारकी सृष्टि
करो '। हे मुनिश्रेष्ठो ! ब्रह्माजीके कहनेपर उनके दक्ष आदि
(मानस) पुत्रोंने देवताओं एवं मनुष्योंके साथ ही अन्य
भी सभी प्रजाओं (प्राणियों )-की सृष्टि की॥ ८६-८७॥
इस प्रकार ये भगवान् ब्रह्मा सृष्टिके कार्यमें नियत
हैं। में इस (सृष्टि)-का पालन-पोषण करता हूँ और
शूलधारी भगवान् शंकर इसका संहार करेंगे॥ ८८॥
परात्पर परमात्माकी रज, सत्त्त एवं तमोगुणके
योगसे (क्रमश: ) ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर नामक तीन
मूर्तियाँ कही गयी हैं। ये तीनों विग्रह परस्पर एक-
दूसरेमें अनुरक्त तथा एक-दूसरेके उपजीवी (आश्रित)
हैं। ये तीनों परमेश्वर हैं और लीलावश एक-दूसरेको
प्रणाम करते रहते हैं॥ ८९-९०॥
हे ब्राह्मणो! रुद्रमें ब्राह्मी, माहेश्वरी तथा अक्षर
(वैष्णवी) नामक तीन प्रकारकी भावनाएँ सर्वदा
विद्यमान रहती हैं। मुझमें प्रथम अक्षरभावना निरन्तर
प्रवाहित होती रहती है। भगवान् ब्रह्माजीकी द्वितीय
अक्षरभावना कही गयी है॥९१-९२॥
पारमार्थिक दृष्टिसे मुझमें और महादेवमें कोई
भिन्नता नहीं है। वही अन्तर्यामी ईश्वर अपनी इच्छासे
अपनेको विभाजित कर (मेरे तथा महादेवके रूपमें)
स्थित है। देवताओं, असुरों तथा मनुष्योंके साथ ही
सम्पूर्ण त्रेलोक्यकी सृष्टि करनेके लिये (इसी परम)
पुरुषने अपने परात्पर अव्यक्त स्वरूपद्दारा ब्रह्मत्वको
स्वीकार किया अर्थात् वे ही अव्यक्त परमात्मा सृष्टि
करनेके लिये ब्रह्माके रूपमें व्यक्त हुए॥९३-९४॥
अत: ब्रह्मा, महादेव एवं परात्पर विश्वेश्वर भगवान्
विष्णु (ये तीनों ही) पृथक्ू-पृथक् कार्यकी दृष्टिसे एक
ही प्रभुकी तीन मूर्तियाँ कही गयी हैं। इसलिये सभी
प्रकारके प्रयत्रोंसे विशेषत: (ये तीनों ही) वन्न्दनीय हैं,
पूजनीय हैं। मोक्ष नामसे कहे जानेवाले उस अविनाशी
स्थानको यदि शीघ्र ही प्राप्त करनेकी इच्छा हो तो
वर्णाश्रम-धर्मके नियमोंका अत्यन्त प्रीतिपूर्वक पालन
करते हुए प्रतिज्ञापूर्वक बड़े श्रद्धाभावसे जीवनपर्यन्त इन
(त्रिदेवों)-का पूजन करना चाहिये॥ ९५--९७॥
* अध्याय २ *
चतुर्णामाश्रमाणां तु प्रोक्तो5यं विधिवद्द्विजा: ।
आश्रमो वैष्णवो ब्राह्मो हराश्रम इति त्रय:॥ ९८ ॥
तल्लिड्र्धारी सततं तदभक्तजनवत्सल: ।
ध्यायेदथार्चयेदेतान् ब्रह्मविद्यापपायण:॥ ९९ ॥
सर्वेषामेव भक्तानां शम्भोलिड्रमनुत्तमम् ।
सितेन भस्मना कार्य ललाटे तु त्रिपुण्ड्रकम्॥ १००॥
यस्तु नारायणं देवं प्रपन्न: परम पदम्।
धारयेत् सर्वदा शूलं ललाटे गन्धवारिभि: ॥ १०१॥
प्रपन्ना ये जगदबीजं ब्रह्माणं परमेषप्ठलिनम्।
तेषां ललाटे तिलकं धारणीयं तु सर्वदा॥ १०२॥
यो5सावनादिर्भूतादि: कालात्मासौ धृतो भवेत्।
उपर्यधो भावयोगातृ त्रिपुण्ड्स्य तु धारणात्॥ १०३॥
यत्तत् प्रधान त्रिगुणं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम्
धृतं त्रिशूलधरणाद् भवत्येव न संशय: ॥ १०४॥
ब्रह्मतेजोमयं शुक्लं यदेतन्मण्डलं रवे:।
भवत्येव धृतं स्थानमैश्वरं तिलके कृते॥ १०५॥
तस्मात् कार्य त्रिशूलाडूं तथा च तिलकं शुभम्।
त्रियायुषं च भक्तानां त्रयाणां विधिपूर्वकम्॥| १०६ ॥
यजेत जुहुयादग्नौ जपेद् दद्याज्नितेन्द्रिय: ।
शान्तो दान्तो जितक्रोधो वर्णाभ्रमविधानवित्॥ १०७॥
एवं परिचरेद् देवान् यावज्जीवं समाहित: ।
तेषां संस्थानमचलं सो5चिरादधिगच्छति।॥| १०८ ॥
३१
हे ब्राह्मणो! विधिपूर्वक इस प्रकार चारों आश्रमोंका
वर्णन किया गया। (इनमें) वैष्णव, ब्राह्म तथा हर
(शैव) नामक तीन आश्रम (सम्प्रदाय) होते हैं। उन
(शैव, वैष्णव तथा ब्राह्म आश्रमों)-का लिड़ (चिह्र) धारणकर
उस (देवता)-के भक्तजनोंके प्रति प्रेम रखते हुए
ब्रह्मविद्यापरायण व्यक्तिको चाहिये कि वह इन देवोंका
निरन्तर ध्यान करे, पूजन करे॥ ९८-९९ ॥
शिवके सभी भक्तोंके लिये (चिह्-रूपमें ) शिवलिज्भ
धारण करना श्रेष्ठ है। शैवोंको चाहिये कि वे श्वेत
भस्मसे ललाठमें त्रिपुण्ड्र धारण करें। जो परम पद
(-स्वरूप) भगवान् नारायणके शरणागत (भक्त) हो
उसे ललाटपर (कस्तूरी आदिके) सुगन्धित जलसे त्रिशूल
(-की आकृति)-का तिलक सर्वदा धारण करना चाहिये।
जो संसारके बीज परमेष्ठी ब्रह्माके भक्त हैं, उन्हें ललाटपर
सर्वदा तिलक धारण करना चाहिये॥ १००--१०२॥
ऊपर-नीचे भाववपूर्वक त्रिपुण्ड्रके धारण करनेसे
अनादि (होते हुए भी) जो प्राणियोंका आदि है,
कालात्मा है उसका धारण करना हो जाता है। त्रिशूल
(चिह)-के धारण करनेसे जो वह त्रिगुणात्मक प्रधान
ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवस्वरूप है निश्चयरूपसे उसका
धारण हो जाता है। तिलक लगानेसे जो आदित्यमण्डलका
प्रकाशमान ब्रह्मतेजोमय ऐश्वरयुक्त स्थान है उसका धारण
हो जाता है॥ १०३--१०५ ॥
इसलिये (शैव, वैष्णव तथा ब्राह्म ) तीनों प्रकारके
भक्तोंको विधिपूर्वक मज्गनलमय तथा दीर्घ आयु
प्रदान करनेवाले त्रिशूलके चिह्न तथा तिलकको धारण
करना चाहिये॥ १०६॥
वर्ण तथा आश्रमके विधि-विधानको जाननेवाले
शान्त, दान्त, जितेन्द्रिय तथा क्रोधजयीको यज्ञ, अग्निमें
हवन, जप तथा दान करना चाहिये। इस प्रकार
यावज्जीवन समाहित-मन होकर देवोंकी आराधना
करनी चाहिये। ऐसा करनेसे उसे शीघ्र ही अचल
स्थानकी प्राप्ति होती है॥ १०७-१०८॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहक्रथां संहितायां पूर्वविभागे द्वितीयोउध्याय: ॥ २॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें दूसरा अध्याय समाप्त हुआ॥ २॥
३२
ह कूर्मपुराण कं
तीसरा अध्याय
आश्रमधर्मका वर्णन, संन्यास ग्रहण करनेका क्रम, ब्रह्मा्पणका
लक्षण तथा निष्कामकर्मयोगकी महिमा
ऋषय ऊचु:
वर्णा भगवतोदिष्टाश्वत्वारो5प्याश्रमास्तथा।
इदानीं क्रममस्माकमाश्रमाणां बद प्रभो॥१॥
श्रीकूर्म उवाच
ब्रह्माचारी गृहस्थश्व वानप्रस्थो यतिस्तथा।
क्रमेणैवा श्रमा: प्रोक्ता: कारणादन्यथा भवेत्॥ २॥
उत्पन्नज्ञानविज्ञानो बैराग्यं परम॑ गतः।
प्रत्रजेद ब्रह्मचर्यात् तु यदीच्छेत् परमां गतिम्॥ ३॥
दारानाहत्य विधिवदन्यथा विविधेर्मखै:।
यजेदुत्पादयेत् पुत्रान् विरक्तो यदि संन्यसेत्॥ ४॥
अनिष्ठा विधिवद् यज्ञैरनुत्पाद्य तथात्मजम्।
न गार्हस्थ्यं गृही त्यक्त्वा संन्यसेद् बुद्धिमान् द्विज: ॥॥ ५॥
अथ वेराग्यवेगेन स्थातुं नोत्सहते गृहे।
तत्रैव संन्यसेद् विद्वाननिष्टापि द्विजोत्तम:॥ ६॥
अन्यथा विविषधेर्यज्ैरिष्टा वनमथाश्रयेत्।
तपस्तप्त्वा तपोयोगाद विरक्त: संन्यसेद यदि ॥ ७॥
वानप्रस्थाश्रमं गत्वा न गृहं प्रविशेत् पुनः ।
न संन्यासी वन चाथ ब्रह्मचर्य न साधक: ॥ ८ ॥
प्राजापत्यां निरूप्थेष्टिमाग्नेयीमथवा द्विज: |
प्रव्जेत गृही विद्वान् वनाद् वा श्रुतिचोदनात्॥ ९॥
प्रकर्तुमसमर्थोडपि जुहोतियजतिक्रिया: ।
अन्ध: पंगुर्दरिद्रो वा विरक्त: संन्यसेद् द्विज:॥ १०॥
सर्वेषामेव बैराग्यं संन्यासाय विधीयते।
पतत्येवाविरक्तो यः संन्यासं कर्तुमिच्छति॥ ११॥
ऋषियोंने कहा--प्रभो! आपने चारों वर्णों तथा
चारों आश्रमोंका वर्णन किया। अब हमें आश्रमोंका
क्रम बतलायें॥१॥
श्रीकूर्म बोले--ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा
संन्यास--ये क्रमसे आश्रम कहे गये हैं। किसी कारणसे
(इस क्रममें) परिवर्तन भी होता है॥ २॥
जो ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न हो तथा परम वेराग्यको
प्राप्त हो गया हो ऐसा ब्रह्मचारी यदि परमगतिको प्राप्त
करना चाहे तो वह ब्रह्मचर्य-आश्रमसे (सीधे) संन्यास
ग्रहण कर ले। इसके विपरीत (अर्थात् ब्रह्मचर्य-आश्रमसे
सीधे संन्यास न ग्रहण कर) विधिपूर्वक स्त्रीसे विवाह
कर विविध यज्ञोंका अनुष्ठान करते हुए पुत्रोंको उत्पन्न
करे और विरक्त होनेपर संन्यास ग्रहण करे॥ ३-४॥
बुद्धिमान् गृहस्थ द्विजको चाहिये कि वह विधिपूर्वक
यज्ञोंका अनुष्ठान तथा पुत्रोंको उत्पन्न किये बिना गृहस्थ-
आश्रमका परित्यागकर संन्यास ग्रहण न करे। श्रेष्ठ
विद्वान् द्विज यदि तीब्र वेराग्यके वेगके कारण गृहस्थाश्रममें
रहनेके लिये उत्सुक न हो तो यज्ञ किये बिना भी वहीं
संन्यास ग्रहण कर ले॥ ५-६॥
अन्यथा विविध यज्ञोंका सम्पादन कर वनका आश्रय
लेना चाहिये एवं तपोयोगद्वारा तप करनेके बाद यदि
विराग हो जाय तो संन्यास लेना चाहिये। वानप्रस्थ-आश्रम
ग्रहण कर फिर गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश नहीं करना चाहिये,
न संन्यासी वानप्रस्थ-आश्रममें वापस आये और न
साधक गृहस्थ ब्रह्मचर्याश्रममें वापस लौटे॥ ७-८ ॥
विद्वान् गृहस्थ द्विज प्राजापत्य इष्टि अथवा आग्रेयी
इष्टिका सम्पादन कर संन्यास ग्रहण करे या वैदिक
विधानसे वानप्रस्थसे (संन्यास-आश्रममें) प्रवेश करे।
हवन तथा यज्ञ-सम्बन्धी क्रियाओंको करनेमें असमर्थ
होनेपर भी अन्धा, लँगड़ा अथवा दरिद्र द्विज वैराग्य
होनेपर संन्यास ग्रहण करे। सभीके लिये संन्यासके
निमित्त वैराग्यका विधान किया गया है। जो आसक्तियुक्त
पुरुष संन्यास-आश्रम ग्रहण करना चाहता है वह अवश्य
ही पतित हो जाता है॥ ९--११॥
श्रीशिव-पार्वतीद्वारा श्रीकृष्णको बरदान
भगवान् शिव-पार्बती
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उद्धार
भगवान् बराहद्वारा भूदेवीका उद्ध
आचार्य उपमन्यु और भगवान् श्रीकृष्ण
भगवान् मायाबामनका यज्ञवाटमें पूजन
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* अध्याय ३ *
एकस्मिन्नथवा सम्यग् वर्तेतामरणं द्विज:।
श्रद्धावाना श्रमे युक्त: सो5मृतत्वाय कल्पते॥ १२ ॥
न्यायागतधनः शान््तो ब्रह्मविद्यापरायण:।
स्वधर्मपालको नित्यं सो5मृतत्वाय कल्पते॥ १३॥
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि नि:संग: कामवर्जित: |
प्रसन््नेनेव मनसा कुर्वाणो याति तत्पदम्॥ १४॥
ब्रह्मणा दीयते देयं ब्रह्मणे सम्प्रदीयते।
ब्रहोेव दीयते चेति ब्रह्मार्पणमिदं परम्॥ १५॥
नाहं कर्ता सर्वमेतद् ब्रहोव कुरुते तथा।
एतद् ब्रह्मार्पणं प्रोक्तमृषिभि: तत्त्वदर्शिभि: ॥ १६॥
प्रीणातु भगवानीशः कर्मणानेन शाश्वत: |
करोति सततं बुद्धया ब्रह्मा्पणमिदं परम्॥ १७॥
यद्वा फलानां संन्यासं प्रकुर्यात् परमेश्वरे।
कर्मणामेतदप्याहु: ब्रह्मार्पणमनुत्तमम्॥ १८॥
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं संगवर्जितम्।
क्रियते विदुषा कर्म तद्धवेदपि मोक्षदम्॥ १९॥
अन्यथा यदि कर्माणि कुर्य न्नित्यमपि द्विज: ।
अकृत्वा फलसंन्यासं बध्यते तत्फलेन तु॥ २०॥
तस्मात् सर्वप्रयलेन त्यक्त्वा कर्माअ्ितं फलम्।
अविद्वानपि कुर्वीत कर्माप्नोत्यचिरात् पदम्॥ २१॥
कर्मणा क्षीयते पापमैहिकं पौर्विकं तथा।
मन: प्रसादमन्वेति ब्रह्म विज्ञायते तत:॥ २२॥
कर्मणा सहिताज्ज्ञानातू सम्यग् योगोउभिजायते ।
ज्ञानं च कर्मसहितं जायते दोषवर्जितम्॥ २३॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन तत्र तत्राश्रमे रतः।
कर्माणीश्चवरतुष्ठायर्थ कुर्यान्नैष्कर्म्यमाप्नुयात्॥ २४॥
सम्प्राप्प परम ज्ञान नेष्कर्म्य तत्प्रसादत: ।
एकाकी निर्मम: शान्तो जीवन्नेव विमुच्यते॥ २५ ॥
३३
अथवा निष्ठावान् द्विजको चाहिये कि किसी भी
एक आशश्रममें वह यावज्जीवन ठीक-ठीक व्यवहार
करता रहे तो मोक्ष प्राप्त करनेमें समर्थ हो जाता है।
न्यायमार्ग (ईमानदारी)-से धन प्राप्त करनेवाला, शान्त,
ब्रह्म-विद्यापरायण तथा नित्य अपने धर्मका पालन
करनेवाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करनेमें समर्थ होता है।
अपने समस्त कर्मोको ब्रह्ममें अर्पित कर आसक्तिरहित
तथा निष्काम व्यक्ति प्रसन्न-मनसे कर्मोंको करते हुए
उस पद (मोक्ष)-को प्राप्त करता है॥ १२--१४॥
देने योग्य पदार्थ ब्रह्मके द्वारा ही प्राप्त होता है, ब्रह्मको
ही दिया जाता है और ब्रह्म ही दिया भी जाता है--यही
श्रेष्ठ ब्रह्मापण (-की भावना) है। में कर्ता अर्थात् करनेवाला
नहीं हूँ और जो कुछ भी किया जाता है वह ब्रह्म ही
करता हे--इसे तत्त्वद्रष्टा ऋषियोंने 'ब्रह्मार्पण” नामसे
कहा है। “मेरे इस कर्मसे सनातन भगवान् ईश्वर प्रसन्न हों
इस प्रकारकी बुद्धिसे निरन्तर किया गया कर्म श्रेष्ठ ब्रह्मार्पण
है। अथवा परमेश्वरमें सभी कर्मोके फलोंका संन्यास
करे--यह भी श्रेष्ठ ब्रह्मापण कहा गया है ॥ १५--१८ ॥
विद्वान् व्यक्तिके द्वारा आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-
बुद्धिसि जो कर्म नियमत: किया जाता है, उसका वह
कर्म भी मोक्ष देनेवाला होता है। इसके विपरीत यदि
द्विज नित्य कर्मोको करता भी रहे तो कर्मफलका
संन्यास न करनेके कारण वह उस कर्मफलके बन्धनसे
बँधा रहता है। इसलिये अविद्वान् व्यक्तिको भी चाहिये
कि सभी प्रकारके प्रयत्लसलसे कर्मके आश्रित फलका
त्यागकर कर्म करता रहे, इससे उसे शीघ्र ही (परम)
पद प्राप्त होता है। (निष्काम) कर्मसे व्यक्तिके इस जन्म
तथा पूर्व-जन्मका पाप नष्ट हो जाता है, तदनन्तर
चित्तकी प्रसन्नता प्राप्त होती है और फिर (उसे) ब्रह्मका
परिज्ञान हो जाता है॥ १९--२२॥
कर्मयुक्त ज्ञानसे सम्यक् योगकी प्राप्ति होती है और
कर्मयुक्त ज्ञान दोषरहित होता है। इसलिये किसी भी
आश्रममें रहते हुए सभी प्रकारके प्रयत्रोंसे भगवान्की
प्रसन्नताके लिये कर्मोको करता रहे । (इससे ) नैष्कर्म्यकी
प्राप्ति हो जाती है। परम ज्ञानको प्राप्त करनेके अनन्तर उसके
प्रभावसे नैष्कर्म्यकी सिद्धि कर वह एकाकी, ममताशून्य
तथा शान्त (व्यक्ति) जीवनकालमें ही मुक्तिको प्राप्त कर
लेता है अर्थात् जीवन्मुक्त हो जाता है॥ २३--२५॥
ह्टेड * कूर्मपुराण *
वीक्षते परमात्मानं परे ब्रह्म महेश्वरम। (ऐसा व्यक्ति) नित्यानन्दस्वरूप, निराभास (स्वतः-
नित्यानन्दं निराभासं तस्मिन्नेव लयं ब्रजेत्॥ २६॥ | प्रकाश), महे ध्वर, परम ब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार कर
तस्मात् सेवेत सततं कर्मयोगं प्रसन्नधीः ।
तृप्तये परमेशस्य तत् पदं याति शाश्रतम्॥ २७॥
एतद् वः कथितं सर्व चातुराश्रम्यमुत्तमम्
उसीमें लीन हो जाता है। इसलिये प्रसन्नचित्त होकर
परमेश्वरकी संतुष्टिके लिये निरन्तर कर्मयोगका आश्रय
ग्रहण करना चाहिये। (इससे वह परमेश्वरके) उस
सनातन पदको प्राप्त करता है॥ २६-२७॥
इस प्रकार आप लोगोंको यह चारों आश्रमोंका
सम्पूर्ण श्रेष्ठ क्रम बतलाया। इस क्रमका अतिक्रमण
न होतत् समतिक्रम्य सिद्धििं विन्दति मानव: ॥ २८ ॥ | करके कोई भी मनुष्य सिद्धिको प्राप्त नहीं कर सकता॥ २८ ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहग्रधां संहितायां. पूर्विविभागे तृतीयोउध्याय: ॥ ३ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें तीसरा अध्याय समाप्त हुआ॥३॥
चोथा अध्याय
सांख्य-सिद्धान्तके अनुसार ब्रह्माण्डकी सृष्टिका क्रम, पदञ्ञजीकरण-
प्रक्रिया तथा परमेश्ररके विविध नामोंका निरूपण
सूत उवाच
श्रुत्वा अ्रमविधिं कृत्सममृषयो हृष्टमानसा:।
नमस्कृत्य. हषीकेशं पुनर्वचनमन्रुवन्॥ १॥
मुनय ऊचु:
भाषितं भवता सर्व चातुराश्रम्यमुत्तमम्।
इदानीं श्रोतुमिच्छामो यथा सम्भवते जगत्॥ २॥
कुतः सर्वमिदं जातं कस्मिश्व लयमेष्यति।
नियन्ता कश्न सर्वेषां वदस्व पुरुषोत्तम॥ ३॥
श्रुत्वा नारायणो वाक्यमृषीणां कूर्मरूपधृक् ।
प्राह गम्भीरया वाचा भूतानां प्रभवाप्ययौ॥ ४॥
श्रीकूर्म उवाच
महेश्वर: परोउ्व्यक्तश्चतुर्व्यूह: सनातन:।
अनन्तश्चाप्रमेयश्च॒ नियन््ता विश्वतोमुख: ॥ ५॥
अव्यक्त कारणं यत्तन्नित्यं सदसदात्मकम्।
प्रधानं प्रकृतिश्चेति यदाहुस्तत्त्वचिन्तका: ॥ ६॥
गन्धवर्णरसैहीन॑._ शब्दस्पर्शविवर्जितम्।
अजरं श्रुवमक्षय्यं नित्यं स्वात्मन्यवस्थितम्॥ ७॥
सूतजीने कहा--आश्रमोंके सम्बन्धमें पूरे विधि-
विधानको सुनकर प्रसन्न मनवाले ऋषियोंने भगवान्
हृषीकेशको नमस्कार करके पुन: इस प्रकारका वचन
कहा-- ॥ १॥
मुनिजन बोले--(भगवन्!) आपने श्रेष्ठ चारों
आश्रमोंके विषयमें सब कुछ बतलाया, अब इस समय
हमें यह सुननेकी इच्छा है कि इस जगत्की सृष्टि कैसे
होती है। हे पुरुषोत्तम ! यह सब (संसार) कहाँसे उत्पन्न
हुआ, किसमें विलीन होगा और इन सबका नियामक
कौन है? यह सब आप बतलायें। ऋषियोंका वचन
सुनकर कूर्मरूप धारण करनेवाले तथा सभी भूत-
प्राणियोंके उत्पत्ति और विनाशके स्थान भगवान् नारायण
गम्भीर वाणीमें बोले-- ॥ २--४॥
श्रीकूर्मने कहा--सर्वत्र (चारों ओर) मुखवाले
महेश्वर (प्रकृतिसे) पर, अव्यक्त, चतुर्व्यूह, सनातन, अनन्त,
अप्रमेय तथा (समस्त जगत्के) नियन्ता हैं। तत्त्वचिन्तक
जिसे प्रधान और प्रकृति कहते हैं और जो सत्-असत्-
रूप हैं, वही अव्यक्त नित्य कारण है॥५-६॥
गन्ध, वर्ण और रससे हीन, शब्द-स्पर्शसे रहित,
अजर, ध्रुव, अक्षय्य (कभी नाश न होनेवाला), नित्य
* अध्याय ४ *
जगद्योनिर्महाभूत॑ परं ब्रह्म सनातनम्।
विग्रह: सर्वभूतानामात्मनाधिष्ठितं महतू्॥ ८ ॥
अनाइन्तमजं सूक्ष्म॑ त्रिगुणं प्रभवाप्ययम्।
असाम्प्रतमविज्ञेय॑ ब्रह्माग्रे. समवर्तत॥ ९ ॥
गुणसाम्ये तदा तस्मिन् पुरुषे चात्मनि स्थिते।
प्राकृत: प्रलयो ज्ञेयो यावद् विश्वसमुद्धव: ॥ १०॥
ब्राह्मी रात्रिरियं प्रोक्ता अहः सृष्टिरुदाहता।
अहर्न विद्यते तस्य न रात्रिर्हपचारत:॥ ११॥
निशान्ते प्रतिबुद्धोइसौ जगदादिरनादिमान्।
सर्वभूतमयोड्व्यक्तो ह्ान्तर्यामीश्वर: पर:॥ १२॥
प्रकृतिं पुरुषं चैव प्रविश्याशु महे श्वर: ।
क्षोभयामास योगेन परेण परमेश्वर:॥ १३॥
यथा मदो नरस्त्रीणां यथा वा माधवो5निल: ।
अनुप्रविष्ट: क्षोभाय तथासौ योगमूर्तिमान्॥ १४॥
स एव क्षोभको विदप्रा: क्षोभ्यश्व परमेश्वर: ।
स संकोचविकासाभ्यां प्रधानत्वेषपि च स्थित: ॥ १५॥
प्रधानात् क्षोभ्यमाणाच्च तथा पुंस: पुरातनात् ।
प्रादुरासीन्न्महद् बीज॑ प्रधानपुरुषात्मकम्॥ १६॥
महानात्मा मति्नह्या प्रबुद्धि: ख्यातिरी श्वर: ।
प्रज्ञा धृति: स्मृति: संविदेतस्मादिति तत् स्मृतम्॥ १७॥
वैकारिकस्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामस:।
त्रिविधोडयमहंकारो महतः सम्बभूव ह॥ १८॥
अहंकारो5भिमानश्च कर्ता मन्ता च स स्मृत: ।
आत्मा च पुद्गलो जीवो यत: सर्वा: प्रवृत्तय: ॥ १९॥
पजञ्चभूतान्यहंकारात् तन्मात्राणि च जज्षिरे।
इन्द्रियाणि तथा देवा: सर्व तस्यात्मजं जगत्॥ २० ॥
३५
अपनी आत्मामें स्थित संसारका बीजरूप, महाभूत,
सनातन, परकब्रह्म, सभी प्राणियोंकी मूर्तिरूप, आत्मासे
अधिष्ठित, महत्तत्व, अनादि, अनन्त, अजन्मा, सूक्ष्म,
त्रिगुण, उत्पत्ति और प्रलयका स्थान, शाश्वत तथा
अविज्ञेय ब्रह्म ही आदिमें विद्यमान था॥७--९॥
उस समय गुणोंकी साम्यावस्थारूप उस पुरुषके
आत्मस्वरूपमें स्थित होनेपर जबतक विश्वकी सृष्टि नहीं
हो जाती, प्राकृत प्रलय (-का समय) जानना चाहिये।
यह ब्रह्माकी रात्रि कही गयी है और सृष्टिको ब्रह्माका
दिन कहा गया है, (वास्तवमें) उसका न दिन होता है
और न रात होती है॥ १०-११॥
आदिसे रहित वह जगत्का आदि कारण, सर्वभूतमय,
अव्यक्त, अन्तर्यामी परात्पर ईश्वर रात्रि व्यतीत होनेपर
जाग्रतू हुआ। परमेश्वर महेश्वरने प्रकृति एवं पुरुषमें
शीघ ही प्रविष्ट होकर परम योगके द्वारा (उनमें) क्षोभ
(गति) उत्पन्न किया॥ १२-१३॥
जैसे वसन्त ऋतुकी वायु अथवा मद पुरुष एवं
स्त्रियोंको (क्षुब्ध करता है) वैसे ही वह योगविग्रह
(योगबलसे विविध शरीर-धारणमें समर्थ ईश्वर) प्रकृति
एवं पुरुषमें अनुप्रविष्ट होकर क्षोभका कारण बनता है।
हे ब्राह्मणो ! वही परमेश्वर क्षोभ उत्पन्न करनेवाला है एवं
स्वयं क्षुब्ध होनेवाला है, वह प्रलय एवं सृष्टि करनेके
कारण प्रधान भी कहलाता है। प्रधान पुरातनपुरुषके
क्षुब्ध होनेसे प्रधान (प्रकृति) पुरुषात्मक महद् बीजका
आविर्भाव हुआ॥ १४--१६ ॥
इसी कारणसे (वह महद्वीज) महान् आत्मा, मति,
ब्रह्मा, प्रबुद्धि, ख्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, धृति, स्मृति तथा
संवित् कहलाता है॥ १७॥
महत्तत्त्वसे समस्त प्राणियोंकी सृष्टिका आदि कारण--
वैकारिक, तैजस तथा तामस-यह तीन प्रकारका
अहंकार उत्पन्न हुआ॥ १८॥
वह अहंकार अभिमान, कर्ता, मन््ता, आत्मा,
पुदूगल तथा जीव (नामों)-से कहा गया है। उसी
अहंकारसे सभी प्रवृत्तियाँ होती हैं। अहंकारसे पाँच
महाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश), पाँच
तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध), सभी
इन्द्रियाँ तथा उन इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ देवता उत्पन्न हुए।
यह सम्पूर्ण जगत् उससे ही उत्पन्न हुआ है॥ १९-२० ॥
३८६
मनस्त्वव्यक्तजं प्रोक्ते विकार: प्रथम: स्मृतः ।
येनासौ जायते कर्ता भूतादींश्रानुपश्यति॥ २१॥
वैकारिकादहंकारात् सर्गो वैकारिको5भवत् |
तैजसानीन्द्रियाणि स्युर्देवा वैकारिका दश ॥ २२॥
एकादशं मनस्तत्र स्वगुणेनोभयात्मकम्।
भूततन्मात्रसगोंड्यं भूतादेरभवन् प्रजा:॥ २३॥
भूतादिस्तु विकुर्वाण: शब्दमात्र॑ ससर्ज ह।
आकाश्ंं शुषिरं तस्मादुत्पन्नं शब्दलक्षणम्॥ २४॥
आकाशशस्तु विकुर्वाण: स्पर्शमात्र॑ ससर्ज ह।
वायुरुत्पद्यते तस्मात् तस्य स्पर्शों गुणो मत: ॥ २५॥
वायुश्चापि विकुर्वाणो रूपमात्र ससर्ज ह।
ज्योतिरुत्पद्येतेा वायोस्तद्रूपगुणमुच्यते ॥ २६॥
ज्योतिश्चापि विकुर्वाणं रसमात्र॑ ससर्ज ह।
सम्भवन्ति ततो5म्भांसि रसाधाराणि तानि तु॥ २७॥
आपश्चापि विकुर्वन्त्यो गन्धमात्र॑ ससर्जिरे।
संघातो जायते तस्मात् तस्य गन्धो गुणो मत: ॥ २८ ॥
आकाश शब्दमात्र य॒त् स्पर्शमात्रं समावणोत्।
द्विगुणस्तु ततो वायु: शब्दस्पर्शात्मको5भवत्॥ २९॥
रूपं तथेवाविशत: शब्दस्पर्शों गुणावुभो।
त्रिगुण: स्थात् ततो वह्निः स शब्दस्पर्शरूपवान्॥ ३०॥
शब्द: स्पर्शश्व रूपं च रसमात्र॑ समाविशन्।
तस्माच्चतुर्गुणा आपो विज्ञेयास्तु रसात्मिका: ॥ ३१॥
शब्द: स्पर्शश्व॒ रूपं च रसो गन्धं समाविशन्।
तस्मात् पश्चगुणा भूमि: स्थूला भूतेषु शब्दबते॥ ३२॥
शान्ता घोराश्न मूढाश्व विशेषास्तेन ते स्मृता: ।
परस्परानुप्रवेशाद् धारयन्ति परस्परम्॥ ३३॥
न कूर्मपुराण मु
अव्यक्तसे उत्पन्न मनको प्रथम विकार माना गया
है। इस कारण यह कर्ता एवं भूतादिकोंको देखनेवाला
है। वैकारिक अहंकारसे वैकारिक सृष्टि उत्पन्न हुई।
इन्द्रियाँ तैजस हैं और (उन इन्द्रियोंके अधिष्ठाता) दस
देवता वैकारिक हैं ॥ २१-२२॥
उनमें (ग्यारहवाँ) इन्द्रिय मन अपने गुणके कारण
उभयात्मक * है। यह भूततन्मात्राओंकी सृष्टि है। भूतादिकोंसे
ही प्रजा उत्पन्न हुई। विकारप्राप्त भूतोंने शब्दतन्मात्राको
उत्पन्न किया। उस (शब्द तन्मात्रा)-से शब्द लक्षण-
वाले तथा अवकाशस्वरूप आकाशकी उत्पत्ति हुई।
वैकारिक आकाशने स्पर्श तन्मात्राको उत्पन्न किया।
उससे वायु उत्पन्न हुआ और वायुका गुण स्पर्श कहा
गया है॥ २३--२५॥
विकारप्रास्त वायुने रूप तन्मात्राको उत्पन्न किया,
वायुसे तेज उत्पन्न हुआ और इसका “रूप' गुण कहा
जाता है। विकारको प्राप्त हुए तेजने भी रस तन्मात्राकी
सृष्टि की और उससे फिर जलकी उत्पत्ति हुई, वह जल
इस 'रस” गुणका आधार है। विकारको प्राप्त हो रहे
जलने गन्ध तनमात्राको उत्पन्न किया, उससे संघात
(पृथ्वीतत्त्व) उत्पन्न हुआ और उसका गुण 'गन्ध' माना
गया है॥ २६--२८ ॥
आकाशकी शब्द नामक तम्मात्रा है, उसने स्पर्श
नामक तन््मात्राको आवृत किया है, इसलिये वायु शब्द
तथा स्पर्श--इन दो गुणोंवाला है। उसी प्रकार रूप
(नामक) गुण, शब्द एवं स्पर्श दो गुणोंसे आविष्ट है,
अत: तेज या अग्नि--शब्द, स्पर्श तथा रूप--इन तीन
गुणोंवाला है। शब्द, स्पर्श तथा रूप एवं रस तम्मात्रामें
प्रविष्ट हुए, इसलिये रसात्मक जल-तत्त्वको चार गुणों
(शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस)-से युक्त समझना चाहिये।
शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस--ये चार गुण गन्ध तन्मात्रामें
प्रविष्ट हुए, इसलिये पञ्ञ स्थूल महाभूतसे युक्त पृथ्वी
तत्त्व पाँच गुणोंवाला कहा गया है॥ २९--३२॥
इसी कारण ये शान्त, घोर, मूढ तथा विशेष कहलाते
हैं। ये परस्पर एक-दूसरेमें प्रविष्ट होनेके कारण आपसमें
एक दूसरेको धारण किये रहते हैं॥ ३३॥
* हस्त आदि पाँच कर्मेन्द्रिय हैं तथा चक्षु आदि पाँच ज्ञानेन्द्रिय हैं। 'मन” उभयात्मक है अर्थात् संकल्प-विकल्प-रूप कर्म भी
करता है तथा उसे सुख-दुःखका ज्ञान भी होता है।
* अध्याय ४ +
एते सप्त महात्मानो ह्ान्योन्यस्य समा श्रयात् ।
नाशबनुवन् प्रजा: स्त्रष्टमसमागम्य कृत्सनश: ॥ ३४॥
पुरुषधिष्ठितत्वाच्चय अव्यक्तानुग्रहेण च।
महदादयो विशेषान्ता हय्यण्डमुत्पादयन्ति ते॥ ३५॥
एककालसमुत्पन्न॑ जलबुदबुदवच्च॒ तत्|।
विशेषेभ्योडण्डमभवद् बहत् तदुदकेशयम्॥ ३६॥
तस्मिन् कार्यस्य करणं संसिद््धि: परमेष्टिन: ।
प्राकृते5ण्डे विवृत्त: स क्षेत्रज्ञो ब्रह्मसंज्ञित:॥ ३७॥
स वै शरीरी प्रथम: स वे पुरुष उच्यते।
आदिकर्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्तत॥ ३८ ॥
यमाहु: पुरुषं हंसं प्रधानात् परत: स्थितम्।
हिरण्यगर्भ कपिलं छन््दोमूर्ति सनातनम्॥ ३९॥
मेरुरुल्बमभूत् तस्य जरायुश्चापि पर्वता:।
गर्भोदक॑ समुद्राश्ष तस्यासन् परमात्मन: ॥ ४०॥
तस्मिन्नण्डे5भवद् विश्व॑ सदेवासुरमानुषम्।
अन्द्रादित्यौ सनक्षत्रौ सग्रहो सह वायुना॥ ४१॥
अद्धिर्दशगुणाभिश्चव बाह्मयतो5ण्डं समावृतम् ।
आपो दशगुणेनेव तेजसा बाह्यतो वृता:॥ ४२॥
तेजो दशगुणेनेव बाह्यतो वायुनावृतम्।
आकाशेनावृतो वायु: खं तु भूतादिनावृतम्॥ ४३॥
भूतादिर्महता तद्वदव्यक्तेनावतोी महान्।
एते लोका महात्मान: सर्वतत्त्वाभिमानिन: ॥ ४४॥
वसन्ति तत्र पुरुषास्तदात्मानो व्यवस्थिता: ।
ईश्वरा योगधर्माणो ये चान्ये तत्त्वचिन्तका: ॥ ४५ ॥
सर्वज्ञा: शान्तरजसो नित्यं मुदितमानसा: ।
एतैरावरणैरण्ड॑ सप्तभि: प्राकृतैर्वृतम॥ ४६॥
३७
ये सातों महात्मा (महत्, अहंकार आदि तत्त्व)
एक-दूसरेके आश्रित होनेके कारण बिना सम्पूर्ण रूपसे
मिले सृष्टि करनेमें समर्थ नहीं हो सके॥ ३४॥ पुरुषसे
अधिष्ठित और अव्यक्तसे अनुग॒ृहीत होनेके कारण
महत्तत््व्से लेकर विशेष (पञ्चभूत)-पर्यन्त वे सभी
(तत्त्व) अण्डको उत्पन्न करते हैं॥ ३४-३५॥
विशेषों (महाभूतों)-से एक बारमें ही जलके बुल-
बुलेके समान तथा जलमें स्थित वह बृहत् अण्ड उत्तपन्न
हुआ। उसी (बृहत् अण्ड)-में परमेष्ठीके (सृष्टिस्वरूप)
कार्यका करण सिद्ध (निष्पन्न) हुआ। प्राकृत अण्डमें
क्षेत्रत्त आविर्भूत हुआ जो ब्रह्मा नामसे कहलाया। वे
प्रथम शरीर धारण करनेवाले हैं। वे पुरुष कहलाते हैं
और समस्त प्राणियोंके आदिकर्ता वे ब्रह्मा सर्वप्रथम
उत्पन्न हुए। प्रधानसे परमें स्थित उस पुरुषको हंस,
हिरण्यगर्भ, कपिल, छन्दोमूर्ति तथा सनातन कहा
जाता है॥ ३६--३९ ॥
उस परमात्माका गर्भवेष्टन था मेरु, पर्वत थे गर्भके
आवरणरूप चर्म-जरायु तथा गर्भोदक थे सभी समुद्र।
उस अण्डमें देवताओं, असुरों तथा मनुष्योंसहित सम्पूर्ण
विश्व उत्पन्न हुआ तथा ग्रहों, नक्षत्रोंसहित वायु, सूर्य एवं
चन्द्रमा भी उत्पन्न हुए॥४०-४१॥
अण्ड (ब्रह्माण्ड) बाहतककी ओर अपनेसे दस
गुने अधिक जलसे घिरा हुआ है और जल बाहरसे
अपनेसे दस गुने अधिक तेजसे आवृत है। तेज
बाहरसे अपनेसे दस गुने अधिक वायुसे आवृत है। इसी
प्रकार वायु आकाशसे आवृत है और आकाश भूतादि
अर्थात् अहंकारसे घिरा हुआ है। जैसे अहंकार
महत्तत्व्से आवृत है, वैसे ही महत्तत्त्व अव्यक्तसे
आवृत है। ये लोक सर्वतत्त्वाभिमानी महान् स्वरूप-
वाले हैं ॥४२--४४॥
उन (लोकों)-में उन्हींके आत्मरूप ऐश्वर्यसम्पन्न
तथा योगधर्मा (योगधर्मसे युक्त) पुरुष निवास करते
हैं और अन्य भी जो तत्त्वचिन्तक हैं, वे भी निवास
करते हैं। (वे सभी पुरुष) सर्वज्ञ, शान्त रजोगुणवाले
अर्थात् सत्त्वसम्पन्न तथा नित्य ही अत्यन्त प्रसन्न मनवाले
हैं। ब्रह्माण्ड इन्हीं प्राकृक सात आवरणोंसे आवृत
है ॥ ४५-४६ ॥
३८
एतावच्छक्यते वक्तुं मायैषा गहना द्विजा:।
एतत् प्राधानिकं कार्य यन्मया बीजमीरितम् ।
प्रजापते: परा मूर्तिरितीयं वैदिकी श्रुति:॥ ४७॥
ब्रह्माण्डमेतत् सकल॑ सप्ततोकतलान्वितम् |
द्वितीय॑ तस्य देवस्य शरीर परमेष्ठलिन: ॥ ४८ ॥
हिरण्यगर्भो भगवान् ब्रह्मा वै कनकाण्डज: ।
तृतीयं भगवद्गूप॑ प्राहुवेंदार्थवेदिन: ॥ ४९॥
रजोगुणमयं चान्यद् रूपं तस्यैव धीमत:।
चतुर्मुखः स भगवान् जगत्सृष्टी प्रवर्तते॥ ५० ॥
सृष्टे च पाति सकल विश्वात्मा विश्वतोमुख: ।
सत्त्व॑ गुणमुपाभ्रित्य विष्णुर्विश्वेश्वर: स्वयम्॥ ५१॥
अन्तकाले स्वयं देव: सर्वात्मा परमेश्वर: ।
तमोगुणं समाशञ्रित्य रुद्र: संहरते जगत्॥ ५२॥
एको5पि सन्महादेवस्त्रिधासाौ समवस्थित: ।
सर्गरक्षालयगुणैरनिर्गुणोडषपि. निरज्जनः।
एकधा स द्विधा चैव त्रिधा च बहुधा पुनः ॥ ५३ ॥
योगेश्वर: शरीराणि करोति विकरोति च।
नानाकृतिक्रियारूपनामवन्ति स्वलीलया॥ ५४॥
हिताय चैव भक्तानां स एव ग्रसते पुनः ।
त्रिधा विभज्य चात्मानं त्रैकाल्ये सम्प्रवर्तते।
सृजते ग्रसते चैव वीक्षते च विशेषतः॥ ५५॥
यस्मात् सृष्टानुगृह्नाति ग्रसते च पुनः प्रजा: ।
गुणात्मकत्वात् त्रैकाल्ये तस्मादेक: स उच्यते॥ ५६ ॥
अग्रे हिरण्यगर्भ: स प्रादुर्भूतः सनातनः।
आदित्वादादिदेवोडसौ अजातत्वादज: स्मृत: ॥ ५७॥
रे कूर्मपुराण मं
ब्राह्मणो! (इस विषयमें) केवल इतना ही कहा
जा सकता है कि “यह माया बहुत ही गहन है!।
बीजरूपसे मैंने जिसका वर्णन किया वह सब प्रधान
अर्थात् प्रकृतिका कार्य (व्यापार) है। यह (प्रकृति या
माया अन्य और कोई नहीं) प्रजापतिकी (ही) परा
मूर्ति है--ऐसा वेदोंका अभिमत है॥४७॥
सात लोकोंके तलसे युक्त यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
उन परमेष्ठी देवका दूसरा शरीर है। वेदोंके अर्थको
ठीक-ठीक जाननेवाले बतलाते हैं कि सोनेके समान
वर्णवाले पीत अण्डसे प्रादुर्भूत हिरण्यगर्भ भगवान् ब्रह्मा
भगवान्के तीसरे रूप (शरीर) हैं॥४८-४९॥
उन्हीं धीमानका जो रजोगुणयुक्त अन्य रूप है,
वे ही चतुर्मुख भगवान् ब्रह्मा हैं तथा संसारकी सृष्टि
करते हैं। स्वयं विश्वेश्वर विश्वतोमुख विश्वात्मा भगवान्
विष्णु सत्त्गगुणका आश्रय ग्रहणकर उत्पन्न हुए सम्पूर्ण
(संसार)-का पालन-पोषण करते हैं। अन्तकालमें स्वयं
परमेश्वर सर्वात्मा रुद्रदेव तमोगुणका समाश्रयणकर संसारका
संहार करते हैं॥५०--५२॥
एक होनेपर भी वे निर्गुण-निरञ्ञन महादेव सृष्टि,
पालन और संहाररूपी तीन गुणोंके कारण तीन रूपोंमें
स्थित हैं। वे कभी एक, कभी दो, कभी तीन तथा
कभी अनन्त रूप धारण कर लेते हैं। वे योगेश्वर
(परमात्मा) अपनी लीलासे अनेक आकार, क्रिया, रूप
तथा नामवाले शरीरोंका निर्माण करते हैं और फिर
संहार कर डालते हैं॥ ५३-५४ ॥
भक्तोंक कल्याणके लिये ही वे पुन: संहार करते
हैं। अपनेको तीन रूपोंमें विभक्तकर तीनों कालोंमें प्रवृत्त
होते हैं। इस प्रकार (वे) विशेष रूपसे सृष्टि, संहार
और पालनका कार्य करते हैं॥५५॥
चूँकि वे (स्वयं ही) प्रजाकी सृष्टि करते हैं, उसका
पालन करते हैं और (स्वयं उसका) पुनः संहार करते
हैं, इसलिये तीनों कालोंमें (सत्त्व, रज तथा तमरूप)
त्रिगुणात्मक होनेसे वे (परमात्मा) एक (अद्दैत) कहलाते
हैं। प्रारम्भमें वे सनातन हिरण्यगर्भ प्रादुर्भूत हुए। आदियें
उत्पन्न होनेसे वे आदिदेव तथा अजन्मा होनेसे अज
कहलाते हैं॥ ५६-५७ ॥
* अध्याय ४ *
पाति यस्मात् प्रजा: सर्वा: प्रजापतिरिति स्मृतः ।
देवेषु च महादेवो महादेव इति स्मृतः॥ ५८ ॥
बृहत्त्वाच्च स्मृतो ब्रह्मा परत्वातू परमेश्वर: ।
वशित्वादप्यवश्यत्वादी श्वर: परिभाषित: ॥ ५९॥
ऋषि: सर्वत्रगत्वेन हरि: सर्वहरो यतः।
अनुत्पादाच्च पूर्वत्वात् स्वयम्भूरिति स स्मृत: ॥ ६० ॥
नराणामयनो यस्मात् तेन नारायण: स्मृतः ।
हरः संसारहरणाद विभुत्वाद विष्णुरुच्यते ॥ ६१॥
भगवान् सर्वविज्ञानादवनादोमिति स्मृतः।
सर्वज्ञ: सर्वविज्ञानात् सर्व: सर्वमयो यत:॥ ६२॥
शिव: स निर्मलो यस्माद् विभु: सर्वगतो यतः।
तारणातू सर्वदुःखानां तारकः परिगीयते॥ ६३ ॥
बहुनात्र किमुक्तेन सर्व ब्रह्ममयं जगत्।
अनेकभेदभिन्नस्तु क्रीडते परमेश्वर: ॥ ६४॥
इत्येष प्राकृतः सर्ग: संक्षेपात् कथितो मया।
अबुद्धिपूर्वको विप्रा ब्राह्मीं सृष्टि निबोधत।॥ ६५ ॥
३९
वे समस्त प्रजाओंका पालन करते हैं, इसलिये ' प्रजापति '
इस नामसे कहे जाते हैं और देवताओंमें सबसे बड़े देव
हैं, इसलिये “महादेव ' कहलाते हैं ॥ ५८ ॥
बृहत् होनेसे वे ब्रह्मा तथा परम (श्रेष्ठ)
होनेके कारण परमेश्वर कहे जाते हैं। सबको अपने
वशमें रखनेवाले, परंतु स्वयं किसीके वशमें न रहनेके
कारण वे ईश्वर (नामसे) परिभाषित किये जाते हैं।
उनकी सर्वत्र गति होनेके कारण वे ऋषि और
(प्रलयकालमें) सब कुछ हरण करनेके कारण हरि
कहलाते हैं। किसीके द्वारा उत्पन्न न होने तथा सर्वप्रथम
होनेके कारण 'स्वयम्भू” इस नामसे कहे जाते हैं। सभी
मनुष्योंक वे अयन (आश्रय-स्थान) हैं, इसलिये
नारायण कहे जाते हैं, संसारका संहार करनेसे हर तथा
सर्वत्र व्यापक होनेसे विष्णु कहलाते हैं॥५९--६१ ॥
(वे) सब कुछ जाननेके कारण भगवान्
तथा रक्षा-कार्य करनेसे 35» कहलाते हैं। सभीका
विशिष्ट ज्ञान होनेसे सर्वज्ञ तथा सभीके आत्मस्वरूप
होनेके कारण वे सर्व कहे जाते हैं। वे मलशून्य हैं,
इसलिये शिव और सर्वत्र व्याप्त होनेसे विभु तथा
सभी प्रकारके कष्टोंका निवारण करनेसे “तारक”
कहलाते हैं॥ ६२-६३ ॥
और अधिक कहनेसे क्या लाभ! यह सारा जगत्
ब्रह्ममय ही है और वे परमेश्वर अनेक रूपोंमें विभक्त
होकर अनेक क्रीड़ाएँ (लीलाएँ) करते रहते हैं॥ ६४॥
हे ब्राह्मणो! मैंने संक्षेपमें इस अबुद्धिपूर्वक हुए
प्राकृत सर्ग (प्राकृत सृष्टि)-का वर्णन किया है। अब
आप लोग ब्रह्माकी सृष्टिके सम्बन्धमें सुनें॥ ६५ ॥
डति श्रीकूर्मप्राणे पद्साहर्रधां संहितायां पूर्वाव्धागे चतुर्थोषध्याय: ॥ ४॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें चौथा अध्याय समाप्त हुआ॥४॥
नं कूर्मपुराण मं
पाँचवाँ अध्याय
ब्रद्मजीकी आयुका वर्णन, युग, मन्वन्तर तथा कल्प आदि कालकी
गणना, प्राकृत प्रलथ तथा कालकी महिमाका वर्णन
श्रीकूर्म उवाच
स्वयम्भुवो विवृत्तस्य कालसंख्या द्विजोत्तमा: ।
न शक्यते समाख्यातुं बहुवर्षरपि स्वयम्॥ १ ॥
कालसंख्या समासेन परार्थद्ववकल्पिता।
स एव स्यात् पर: काल: तदन्ते प्रतिसृज्यते॥ २ ॥
निजेन तस्य मानेन आयुर्वर्षशतं स्मृतम्।
तत् पराख्यं तदर्ध च परार्धमभिधीयते॥
काष्टा पञ्चषदश ख्याता निमेषा द्विजसत्तमा: ।
काष्टास्त्रशत् कला त्रिंशत् कला मौहूर्तिकी गति:॥ ४ ॥
तावत्संख्येरहोरात्र मुहूर्ते्मानुष॑ स्मृतम्।
अहोरात्राणि तावन्ति मास: पक्षद्वयात्मक:॥ ५ ॥
ते: षड्भिरयनं वर्ष द्वेउयने दक्षिणोत्तरे।
अयनं दक्षिणं रात्रिदेवानामुत्तर दिनम्॥ ६ ॥
दिव्येर्वर्षसहस्नैस्तु कृतत्रेतादिसंज्ञितम्।
चतुर्युगं द्वादशभि: तद्विभागं निबोधत॥ ७ ॥
चत्यार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्व कृतस्य तु॥ ८ ॥
त्रिशती द्विशती संध्या तथा चैकशती क्रमात्।
अंशकं॑ षदशतं तस्मात् कृतसंध्यांशकं विना॥ ९ ॥
त्रिद्ययेकसाहस्त्रमतो विना संध्यांशकेन तु।
त्रेताद्वापरतिष्याणां कालज्ञाने प्रकीर्तितम्॥ १०॥
एतद द्वादशसाहर््रं साधिकं परिकल्पितम्।
तदेकसप्ततिगुणं मनोरन्तरमुच्यते॥ ११॥
श्रीकूर्मने कहा-- श्रेष्ठ ब्राह्मणो! स्वयम्भू-ब्रह्माके
बीते हुए कालकी गणनाका वर्णन बहुत वर्षोमें भी नहीं
किया जा सकता। संक्षेपमें कालकी गणना दो परार्ध
कही गयी है। वही परम काल है और उसके बीत
जानेपर प्रलय होता है॥ १-२॥
अपने मानसे ब्रह्माकी एक सौ वर्षकी आयु कही
गयी है। उसी (ब्रह्माकी एक सौ वर्षकी आयु)-को
“पर' नामसे कहा जाता है और उस परका आधा
'परार्ध/ कहलाता है॥३॥
द्विजोत्तमो ! पंद्रह निमेषकी एक काष्ठा कही गयी है।
तीस काष्ठाकी एक कला और तीस कलाका समय एक
मुहूर्त-काल होता है । उतनी ही संख्या अर्थात् तीस मुहूर्तोंका
एक मानवीय अहोरात्र (दिन-रात) होता है, उतने ही
अर्थात् तीस अहोरात्रोंका एक मास होता है जो दो पक्षवाला
है। छ: मासोंका एक अयन तथा उत्तर एवं दक्षिण नामसे
दो अयनोंका एक वर्ष होता है। दक्षिण अयन अर्थात् दक्षिणायन
देवताओंकी रात्रि और उत्तर अयन अर्थात् उत्तरायण
(देवताओंका) दिन होता है॥ ४--६ ॥
( श्रीकूर्मने ब्राह्मणोंसे कहा--) दिव्य बारह
हजार वर्षोका सत्य, त्रेता इत्यादि नामसे एक चतुर्युग
होता है। उसके विभागोंका वर्णन सुनें॥ ७॥
चार हजार दिव्य वर्षोका सत्ययुग होता है।
सत्ययुगकी उतने ही सौ वर्षोकी अर्थात् चार सौ वर्षोंकी
संध्या तथा संध्यांश (त्रेतायुगका संधिकाल) होता है।
सत्ययुगके संध्यांशको छोड़कर क्रमश: तीन सौ, दो
सौ तथा एक सौ--इस प्रकार कुल मिलाकर दिव्य
छः: सौ वर्षोके द्वापप तथा कलियुगके संध्या तथा
संध्यांश होते हैं॥८-९॥
कालका ज्ञान करनेके लिये संध्यांशोंसे रहित त्रेता,
द्वापर तथा कलियुग क्रमश: तीन, दो तथा एक हजार
(दिव्य) वर्षोके कहे गये हैं। कुछ अधिकता लिये यही
(दिव्य) बारह हजार वर्षोका कालपरिमाण कहा गया
है। इसके इकहत्तर गुना कालकों एक मनुका अन्तर
अर्थात् एक मन्वन्तरका समय कहा गया है॥ १०-११॥
* अध्याय ५ *
ब्रह्मणो दिवसे विप्रा मनव: स्पुश्चतुर्दश ।
स्वायम्भुवादय: सर्वे ततः सावर्णिकादय: ॥ १२॥
तेरियं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
पूर्ण युगसहरत्र वे परिपाल्या नरेश्वर:॥ १३॥
मन्वन्तरेण चैकेन सर्वाण्येवान्तराणि वै।
व्याख्यातानि न संदेह: कल्पं कल्पेन चैव हि॥ १४॥
ब्राह्ममेकमह: कल्पस्तावती रात्रिरिष्यते।
चतुर्युगसहसत्र॑ तु कल्पमाहुर्मनीषिण: ॥ १५॥
त्रीणि कल्पशतानि स्युस्तथा बष्टिद्विजोत्तमा:
ब्रह्मण: कथितं वर्ष पराख्यं तच्छतं विदु:॥ १६॥
तस्यान्ते सर्वतत्त्वानां स्वहेती प्रकृता लयः
तेनायं प्रोच्यते सद्धिः प्राकृतः प्रतिसंचरः
॥ १७॥।
ब्रह्मनारायणेशानां त्रयाणां प्रकृता लय॒ः।
प्रोच्यते कालयोगेन पुनरेव च सम्भव: ॥ १८॥
एवं ब्रह्म च भूतानि वासुदेवो5पि शंकरः
कालेनैव तु सृज्यन्ते स एवं ग्रसते पुनः॥ १९॥
अनादिरेष भगवान् कालो5नन्तो5जरोउमरः ।
सर्वगत्वात् स्वतन्त्रत्वात् सर्वात्मासौ महेश्वरः ॥ २०॥
ब्रहद्माणो बहवो रुद्रा हान्ये नारायणादयः
एको हि भगवानीश: काल: कविरिति श्रुति: ॥ २१॥
एकमत्र व्यतीतं तु परार्ध ब्रह्मणो द्विजा:।
साम्प्रतं वर्तते तद्गत् तस्य कल्पोडयमष्टम: ॥ २२॥
योउतीतः सप्तम: कल्प: पाद् इत्युच्यते बुधे: ।
बाराहो वर्तते कल्प: तस्य वक्ष्यामि विस्तरम्॥ २३॥
है
ब्राह्मणो ! ब्रह्मेके एक दिनमें चौदह मनु (मन्वन्तर)
होते हैं। वे सभी स्वायम्भुव (प्रथम मनु) आदि तथा सावर्णिक
(अष्टम मनु) आदि मनु हैं। उन नरेश्वरों (मन्वन्तराधिपों)-
के द्वारा सात द्वीपों एवं पर्वतोंवाली इस पृथ्वीका पूरे एक
हजार युगोंतक पालन किया जाता है॥ १२-१३ ॥
एक मन्वन्तरके वर्णनसे अन्य भी--सभी मन्वन्तरोंका
वर्णन कर दिया गया है (ऐसा समझना चाहिये) | इसमें
संदेह नहीं करना चाहिये। प्रत्येक कल्प (पूर्व) कल्पके
समान ही होता है। ब्रह्माका एक दिन एक कल्पके
बराबर और रात्रि भी उतनी (अर्थात् एक कल्पके
बराबर) ही होती है। विद्वानोंने एक हजार चतुर्युगीका
एक कल्प कहा है॥ १४-१५॥
श्रेष्ठ ब्राह्यणो ! तीन सौ साठ कल्पोंका ब्रह्माका एक
वर्ष कहा गया है, उसके सौ गुने (अर्थात् ३६०१८१००७
३६,००० कलपों या १०० वर्षोके) कालको 'पर”' इस
नामसे जानना चाहिये। ('पर” नामक) उस कालके
बीतनेपर सभी तत्त्वोंका अपने मूल कारण प्रकृतिमें लय
हो जाता है। इसीलिये दिद्वानोंने इसे प्राकृत प्रतिसञ्चर
(प्राकृत प्रलय) कहा है। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश
तीनोंका प्रकृतिमें लय हो जाता है। पुनः कालयोगसे
उनका आविर्भाव होना कहा जाता है॥ १६--१८॥
इस प्रकार ब्रह्मा, जीव, वासुदेव तथा शंकरकी
कालके द्वारा ही सर्जना होती है, पुन: वही काल इनका
संहार भी करता है। यह काल भगवान् है, अनन्त है,
अजर है, अमर है एवं अनादि है। सर्वव्यापी होनेसे,
स्वतन्त्र होनेसे तथा सबका आत्मस्वरूप होनेसे यह
महेश्वर कहलाता है॥ १९-२० ॥
ब्रह्मा, रुद्र तथा नारायण आदि बहुत होते हैं, किंतु
भगवान् एक ही है, जो ईश, काल तथा कवि कहलाता
है--ऐसा वेदका अभिमत है॥२१॥
ब्राह्मणो ! इस समय ब्रह्माजीका एक परार्ध बीत चुका
है, अब उनका दूसरा परार्ध चल रहा है, उस (द्वितीय
परार्ध)/-का यह आठवाँ कल्प चल रहा है। त्रह्माजीका
जो सातवाँ कल्प व्यतीत हो चुका है, दिद्वानोंद्वारा वह
'पाद्म” (कल्प) कहा गया है। वर्तमानमें वाराह कल्प चल
रहा है, इसके विस्तारका मैं वर्णन करूँगा॥ २२-२३ ॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहर्रधां संहितायां पूर्वविभागे पद्चमोउथ्याय: ॥ ५॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ५॥
४२
मः कूर्मपुराण न
छठा अध्याय
'नारायण' नामका निर्वचचनन, वराहरूपधारी नारायणद्दवारा पृथ्वीका
उद्धार, सनकादि ऋषियोंद्वारा वराहकी स्तुति
श्रीकूर्म उवाच
आसीदेकार्णव॑ घोरमविभागं तमोमयम्।
शान्तवातादिकं सर्व न प्रज्ञायत किज्लन॥ १ ।
एकार्णवे तदा तस्मिन् नष्टे स्थावरजड़मे।
तदा समभवद् ब्रह्मा सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात्॥ २ ।
सहरत्रशीर्षा पुरुषो रुकक््मवर्णस्त्वतीन्द्रिय: ।
ब्रह्म नारायणाख्यस्तु सुष्वाप सलिले तदा॥
इमं चोदाहरन्त्यत्र श्लोक॑ नारायणम्प्रति।
ब्रह्मस्वरूपिणं देवं॑ जगतः प्रभवाप्ययम्॥ ४ ॥
आपो नारा इति प्रोक्ता नाम्ना पूर्वमिति श्रुति: ।
अयनं तस्य ता यस्मात् तेन नारायण: स्मृत:॥ ५ ।
तुल्यं युगसहस्त्रस्य नेशं कालमुपास्य सः।
शर्वर्यन्ते प्रकुरुते ब्रह्मत्व॑ सर्गकारणात्॥
६ ।
ततस्तु सलिले तस्मिन् विज्ञायान्तर्गतां महीम्।
अनुमानात् तदुद्धारं कर्तुकाम: प्रजापति:॥ ७ ॥
जलक्रीडासु रुचिरं वाराहं रूपमास्थित: |
अधृष्यं मनसाप्यन्यैर्वांड्मयं ब्रह्मसंज्ञितम्॥ ८ ॥
पृथिव्युद्धरणार्थाय प्रविश्य च रसातलम्।
दंष्टयाभ्युजहारैनामात्माधारा. धराधर:॥ ९
दृष्ठा दंष्टाग्रविन्यस्तां पृथिवीं प्रथितपौरुषम्।
अस्तुवज्ञनलोकस्था: सिद्धा ब्रह्मर्षयो हरिम्॥ १०॥
श्रीकृर्मने कहा-- (सृष्टिके पूर्व) केवल एकमात्र
समुद्र ही था अर्थात् सर्वत्र जल-ही-जल था और कुछ
नहीं। कोई विभाग नहीं था, घोर अन्धकारमय था। उस
समय वायु आदि सभी शान््त थे। कुछ भी जाना नहीं
जाता था। स्थावर तथा जंगम (सम्पूर्ण सृष्टि)-के उस
एकार्णवमें नष्ट हो जानेपर (विलीन हो जानेपर) उस
समय हजार नेत्रों तथा हजार चरणोंवाले ब्रह्मा प्रादुर्भूत
हुए। हजार सिरवाले, सोनेके समान वर्णवाले, अतीन्द्रिय,
ब्रह्मा जो नारायण नामवाले पुरुष कहलाते हैं, उस समय
जलमें (एकार्णवमें) सोये हुए थे॥ १--३ ॥
सम्पूर्ण संसारके सृष्टि एवं विनाशके कारण,
ब्रह्मसस्वरूप नारायणदेवके विषयमें यह श्लोक कहा
जाता है-- ॥ ४॥
बेदमें 'अप्' अर्थात् 'जल” को 'नार”' इस नामसे
पहले कहा गया है और वह नार (जल) नरका अयन
अर्थात् आश्रय-स्थान है, इस कारण वे 'नारायण' कहे
जाते हैं। हजार युगोंके बराबर रात्रिका उपभोग करके वे
नारायण (उस प्रलयकालीन) रात्रिके बीत जानेपर सृष्टि
करनेके लिये ब्रह्मत्व ग्रहण करते हैं। तदनन्तर उस जल
(एकार्णव)-में प्रलीन पृथ्वीको अनुमानद्वारा जानकर
प्रजापतिने उसके उद्धारकी कामना की॥ ५--७॥
जलमें क्रीडा करते समय (वे) अत्यन्त सुन्दर
वराहरूपमें अवस्थित हो गये। ( भगवान्का वह स्वरूप)
अन्य लोगोंके द्वारा मससे भी न जाना जा सकने
योग्य, वाक्स्वरूप तथा ब्रह्मसंज््क है। धराको धारण
करनेवाले (उन) धराधर एवं आत्माधारने पृथ्वीका
उद्धार करनेके लिये रसातलमें प्रवेश करके अपनी दाढ़
(द्रंष्टा)-द्वारा इसे (रसातलमें डूबी पृथ्वीको) ऊपर
निकाला। (नारायणकी) दंष्टाके अग्रभागमें अवस्थित
पृथ्वीको देखकर जनलोकमें रहनेवाले सिद्धों तथा
ब्रह्मर्षियोंने अपने पौरुषको व्यक्त करनेवाले हरिकी
(इस प्रकार) स्तुति की॥ ८--१०॥
* अध्याय द८ *
ऋषपय ऊचु:
नमस्ते देवदेवाय ब्रह्मणे परमेष्ठिने।
पुरुषाय पुराणाय शाश्वताय जयाय च॥ १५१॥
नमः स्वयम्भुवे तुभ्यं सरत्रष्टे सर्वार्थवेदिने।
नमो हिरण्यगर्भाय वेधसे परमात्मने॥ १२॥
नमस्ते वासुदेवाय विष्णवे विश्वयोनये।
नारायणाय देवाय देवानां हितकारिणे॥ १३॥
नमोउस्तु ते चतुर्वक्त्र शार्डचक्रासिधारिणे |
सर्वभूतात्मभूताय कूटस्थाय नमो नमः॥ १४॥
नमो वेदरहस्याय नमस्ते वेदयोनये।
नमो बुद्धाय शुद्धाय नमस्ते ज्ञानरूपिणे॥ १५॥
नमो<स्त्वानन्दरूपाय साक्षिणे जगतां नमः |
अनन्तायाप्रमेयाय कार्याय करणाय च॥ १६॥
नमस्ते पदञ्ञभूताय पज्चभूतात्मने नमः।
नमो मूलप्रकृतये मायारूपाय ते नमः:॥ १७॥
नमोस्तु ते वराहाय नमस्ते मत्स्यरूपिणे।
नमो योगाधिगम्याय नमः संकर्षणाय ते॥ १८॥
नमस्त्रिमूर्तये तुभ्यं त्रिधाम्ने दिव्यतेजसे।
नमः सिद्धाय पूज्याय गुणत्रयविभाविने॥ १९॥
नमो>स्त्वादित्यवर्णाय नमस्ते पद्ायोनये।
नमो<मूर्ताय मूर्ताय माधवाय नमो नमः॥ २०॥
त्वयैव सृष्टमखिलं त्वय्येव लयमेष्यति।
पालयैतज्जगतू् सर्व त्राता त्वं शरणं गति: ॥ २१॥
इत्थं स भगवान् विष्णु: सनकाचैरभिष्टृत: ।
प्रसादमकरोत्_ तेषां वराहवपुरीश्वरः ॥ २२॥
ततः संस्थानमानीय पृथिवीं पृथिवीपति: ।
मुमोच रूपं मनसा धारयित्वा प्रजापतिः॥ २३॥
तस्योपरि जलौघस्य महती नौरिव स्थिता।
विततत्वाच्च देहस्य न मही याति सम्प्लवम्॥ २४॥
डे
ऋषि बोले--देवाधिदेव, पुराणपुरुष, सनातन,
जयस्वरूप परमेष्ठी ब्रह्मको नमस्कार है। सृष्टि करनेवाले
तथा सभी अर्थोके ज्ञाता स्वयम्भू!। आपको नमस्कार है।
हिरण्यगर्भ, वेधा परमात्माको नमस्कार है। विश्वके
उत्पत्ति-स्थान, देवोंके हितकारी, वासुदेव, नारायणदेव
विष्णुको नमस्कार है। शार्ड्र (धनुष), चक्र (सुदर्शन)
तथा तलवार (नन्दक) आदि धारण करनेवाले चतुर्मुख !
आपको नमस्कार है। सभी प्राणियोंके आत्मरूप, कूटस्थको
बार-बार नमस्कार है॥ ११--१४॥
वेदके रहस्यरूपको नमस्कार है। वेद-योनिको
नमस्कार है। शुद्ध-बुद्धको नमस्कार है। ज्ञानरूपको
नमस्कार है। आनन्दस्वरूपको नमस्कार है। जगत्के
साक्षी, अनन्त, अप्रमेय तथा कार्य एवं कारणरूपको
नमस्कार है। पञ्चभूतरूपको नमस्कार है। पशञ्चभूतात्मा
(पञ्चनभूतके अधिष्ठान आत्मा )-को नमस्कार है, मूलप्रकृतिको
नमस्कार है। मायारूप आपको नमस्कार है॥ १५--१७॥
हे वराह! आपको नमस्कार है। मत्स्यरूप धारण
करनेवालेको नमस्कार है। योगद्वारा जानने योग्यको
नमस्कार है। संकर्षण! आपको नमस्कार है। तीन
मूर्तियों एवं तीन धामों (स्थानों )-वाले दिव्य तेज:स्वरूप
आपको नमस्कार है। तीन गुणोंको प्रवृत्त करनेवाले
सिद्ध एवं पूज्य आपको नमस्कार है। आदित्यके समान
वर्णवाले अर्थात् प्रकाशस्वरूप आपको नमस्कार है।
पद्मयोनिको नमस्कार है। मूर्त एवं अमूर्तरूपको नमस्कार
है। माधवको बारम्बार नमस्कार है॥ १८--२०॥
आपके द्वारा ही सम्पूर्ण सृष्टि हुई है और आपमें
ही (वह) विलीन भी हो जायगी। इस सम्पूर्ण जगत्का
आप पालन करें। आप ही रक्षक हैं, आप ही शरण
देनेवाले आश्रय-स्थान हैं॥२१॥
सनक आदि (महर्षियों)-के द्वारा इस प्रकार स्तुति
किये जानेपर वराह-शरीर धारण करनेवाले सर्वसमर्थ
उन भगवान् विष्णुने उनपर कृपा कौ। इसके बाद
पृथ्वीके स्वामी प्रजापतिने पृथ्वीको उसके स्थानमें
प्रतिष्ठित कर दिया और मनसे उसको धारण करके
अपने (वराह)-रूपको छोड़ दिया॥ २२-२३ ॥
उस महान् जलराशिके ऊपर विशाल नौकाके
समान स्थित पृथ्वी अपने देहके विस्तारके कारण डूबती
नहीं है॥२४॥
है...
पृथिवीं तु समीकृत्य पृथिव्यां सोडचिनोद् गिरीन्
हम कूर्मपुराण नः
तदनन्तर पृथ्वीकों समतल बनाकर उन्होंने
प्राक्सर्गदग्धानखिलांस्तत: सर्गेडद्धन्मन: ॥ २५॥ | पहली सृष्टिके दग्ध हुए समस्त पर्वतोंको पृथ्वीपर
स्थापित किया और सृष्टि (करने)-में अपना मन
लगाया॥ २५ ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे बट्साहर्रथां संहितायां पूर्वविभागे बह्लोउध्याय: ॥ ६ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें छठा अध्याय समाप्त हुआ॥६॥
सातवाँ अध्याय
नौ प्रकारकी सृष्टि, ब्रह्माजीके मानस पुत्रोंका आविर्भाव, ब्रह्माजीके
चारों मुखोंसे चारों वेदोंकी उत्पत्ति इत्यादिका वर्णन
श्रीकूर्म उवाच
सृष्टि चिन्तयतस्तस्थ कल्पादिषु यथा पुरा।
अबुद्धिपूर्वक: सर्ग: प्रादुर्भूतस्तमोमय: ॥ १॥
तमो मोहो महामोहस्तामिस्त्रश्चान्थसंज्ञित: ।
अविद्या पद्ञपर्वैषा प्रादुर्भूता महात्मन:॥ २॥
पशञ्चधावस्थित: सर्गो ध्यायत: सोडभिमानिन: |
संवृतसत्तमसा चैव बीजकम्भुवनावृतः ॥ ३॥
बहिरन्तश्लाप्रकाशः स्तब्धो निःसंज्ञ एव च।
मुख्या नगा इति प्रोक्ता मुख्यसर्गस्तु स स्मृत: ॥ ४॥
तं॑ दृष्ठासाधकं सर्गममन्यदपरं प्रभुः।
तस्याभिध्यायत:ः सर्गस्तिर्यक्स्रोतो5भ्यवर्तत ॥ ५॥
यस्मात् तिर्यक् प्रवृत्त: स तिर्यक्स्रोतस्ततः स्मृतः ।
पश्चादयस्ते विख्याता उत्पथग्राहिणो द्विजा:॥ ६॥
तमप्यसाधकं ज्ञात्वा सर्गमन्यं ससर्ज ह।
ऊर्ध्यस्रोत इति प्रोक्तो देवसर्गस्तु साक्त्तिक: ॥ ७॥
ते सुखप्रीतिबहुला बहिरन्तश्न नावृता:।
प्रकाशा बहिरन्तश्न स्वभावाद् देवसंज्ञिता:॥ ८ ॥
श्रीकूर्म बोले--उनके (ब्रह्माके) द्वारा सृष्टिके
विषयमें सोचते रहनेपर अबुद्धिपूर्वक अन्धकाररूप वैसी
ही सृष्टि हुई जैसी कि पूर्वके कल्पोंमें हुई थी। उन
महात्मासे तम, मोह, महामोह, तामिस्न तथा अन्ध
नामवाली यह पद्जपर्वा अविद्या उत्पन्न हुई। उस
अभिमानी (देव)-के द्वारा ध्यान करते समय अन्धकारसे
ढकी हुई बीज-सदृश तथा लोकोंसे आवृत वह सृष्टि
पाँच भागोंमें विभाजित होकर स्थित हुई॥ १--३॥
बाहर एवं भीतरके प्रकाश (ज्ञान)-से शून्य, स्तब्ध
(जड) तथा संज्ञा (चेतना)-विहीन नग (अर्थात् पर्वत,
वृक्ष आदि) 'मुख्य' इस नामसे कहे जाते हैं और वही
मुख्य सर्ग (मुख्य सृष्टि) कहलाता है। प्रभुने उस
(मुख्य सर्ग)-को (सृष्टिके विस्तारमें) साधक (समर्थ)
न देखकर दूसरी सृष्टिके लिये विचार किया। उनके ऐसा
विचार करते ही 'तिर्यक्स्तोित”' नामक (पशु-पक्षियों
आदिकी) सृष्टि हुई। हे ब्राह्मणो! क्योंकि वह सृष्टि
तिर्यक् (तिरछी) चलनेवाली थी, इसलिये तिर्यक्स्नोत
सृष्टि कहलाती है। वे (मार्गका उल्लंघन करनेवाले) पशु
आदि उत्पथग्राही कहे जाते हैं॥४--६॥
उस तिर्यक्सोत नामक सृष्टिको भी (सृष्टि-विस्तारके
लिये) निष्प्रयोजन जानकर (उन देवने) अन्य सर्गको उत्पन्न
किया। वह (सर्ग) ऊर्ध्वस्नोत सात्तिक सर्ग 'देवसर्ग' नामसे
कहा गया। इस देवसर्गके लोगोंमें सुख और प्रीतिकी अधिकता
रहती है। वे अंदर तथा बाहर आवरणसे रहित होते हैं तथा
स्वभावसे ही अंदर-बाहर प्रकाशसे परिपूर्ण रहते हैं, इसलिये
वे देव कहलाते हैं॥ ७-८ ॥
* अध्याय 9 +*+
ततो5भिध्यायतस्तस्य सत्याभिध्यायिनस्तदा।
प्रादुरासीत् तदाव्यक्तादर्वाक्स्रोतस्तु साधक: ॥ ९ ॥
ते च प्रकाशबहुलास्तमोद्विक्ता रजोडधिका: ।
दुःखोत्कटा: सत्त्वयुता मनुष्या: परिकीर्तिता: ॥ १०॥
त॑ वृष्टा चापरं सर्गममन्यद् भगवानज:।
तस्याभिध्यायत: सर्ग सर्गो भूतादिको5भवत्॥ ११॥
ते5परिग्राहिण: सर्वे संविभागरता: पुनः।
खादनाश्चाप्यशीलाश्व भूताद्या: परिकीर्तिता: ।
इत्येते पञ्ञ कथिता: सर्गा वे द्विजपुंगवा:॥ १२॥
प्रथमो महतः सर्गो विज्ञेयो ब्रह्मणस्तु सः ।
तम्मात्राणां द्वितीयस्तु भूतसर्गों हि स स्मृत: ॥ १३॥
वैकारिकस्तृतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियक:ः स्मृतः ।
इत्येष प्राकृत: सर्ग: सम्भूतो<बुद्धिपूर्वक: ॥ १४॥
मुख्यसर्ग श्चतुर्थस्तु मुख्या वे स्थावरा: स्मृता: ।
तिर्यक्स्रोतस्तु यः प्रोक्तस्तिर्यग्योन्य: स पञ्णञम: ॥ १५॥
तथोर्ध्वस्नोतसां षष्ठो देवसर्गस्तु स स्मृतः।
ततो3र्वाक्स्नोतसां सर्ग: सप्तम: स तु मानुष: ॥ १६॥
अष्टमो भौतिक: सर्गो भूतादीनां प्रकीर्तित: ।
नवमश्चैव कौमारः प्राकृता बैकृतास्त्विमे॥ १७॥
प्राकृतास्तु त्रयः पूर्वे सर्गास्ते5बुद्धिपूर्वका: ।
बुद्धिपूर्व प्रवर्तन्ते मुख्याद्या मुनिपुंगवा:॥ १८॥
अग्रे ससर्ज वै ब्रह्म मानसानात्मन: समान्।
सनकं सनातनं चैव तथेव च सनन्दनम्।
ऋभुं सनत्कुमारं चर पूर्वमेव प्रजापति:॥ १९॥
पज्चैते योगिनो विप्रा: परं वैराग्यमास्थिता: ।
ईश्वरासक्तमनसो न सृष्टी दधिरे मतिम्॥२०॥
डए
तदनन्तर निरन्तर सत्यका ध्यान करनेवाले उन
देवके चिन्तन करनेपर उसी समय अव्यक्त (प्रकृति)-
से (सृष्टि-विस्तारका) साधक अर्वाक्ल्लोतवाला साधक
(सर्ग) उत्पन्न हुआ। वे (अरवक्सख्रोत प्राणी) प्रकाश
(ज्ञान)-के बाहुल्यवाले, तमोगुण तथा रजोगुणकी
अधिकतावाले, अधिक दु:ःखवाले और सत्त्वगुणसे
सम्पन्न मनुष्य नामसे कहे जाते हैं॥९-१०॥
उस (मानुष-सर्ग)-को देखकर अजन्मा भगवानने
अन्य सर्गकी रचनाका विचार किया और उनके ऐसे
सर्ग-विषयक ध्यान करते ही भूतादि सर्ग उत्पन्न हुआ।
वे सभी संग्रह न करनेवाले, फिर भी बाँटनेके
स्वभाववाले, उपभोग करनेवाले तथा शीलरहित ' भूतादि '
इस नामसे कहे गये हैं। ब्राह्मणश्रेष्ठो ! इस प्रकार ये पाँच
सर्ग कहे गये हैं॥ ११-१२॥
ब्रह्माका वह पहला सर्ग महत्सर्ग कहा गया है।
तन्मात्राओंका दूसरा सर्ग भूतसर्ग कहलाता है। तीसरा
वैकारिक सर्ग ऐन्द्रियक सर्ग कहा जाता है। इस प्रकार
यह प्राकृत सर्ग अबुद्धिपूर्वक हुआ। चौथा सर्ग मुख्य
सर्ग है। स्थावर (जड पदार्थ) मुख्य कहलाते हैं।
तिर्यक्ल्लोत्से जिस सर्मको बतलाया है वह तिर्यग्योनिवाला
पाँचवाँ सर्ग है। तदनन्तर ऊर्ध्वस्नोतसोंका छठा सर्ग है
जो देवसर्ग कहलाता है। तदनन्तर अर्वाक्छ्लोतसोंका
सातवाँ सर्ग है जो मानुष सर्ग है। भूतादिकोंका आठवाँ
सर्ग भौतिक सर्ग कहा गया है। नवाँ सर्ग कौमार सर्ग
है। इस प्रकार ये नवों सर्ग प्राकृत तथा वैकृत दोनों
प्रकारके हैं॥ १३--१७॥
मुनिश्रेष्ठो! पहलेके तीन सर्ग (महत्सर्ग, भूतसर्ग
तथा ऐन्द्रियक सर्ग) प्राकृत सर्ग हैं, जो अबुद्धिपूर्वक
होते हैं। और मुख्य आदि सर्ग (अवशिष्ट ६ सर्ग)
बुद्धिपूर्वक होते हैं॥ १८॥
प्रजापति ब्रह्माजीनी सबसे पहले अपने ही समान
सनक, सनातन, सनन्दन, ऋभु तथा सनत्कुमार नामक
मानस पुत्रोंको उत्पन्न किया। हे ब्राह्मणो! ये पाँचों योगी
थे, परम वैराग्यवान् थे और ईश्वरमें उनका मन आसक्त
था। (इसलिये) उन्होंने सृष्टि (-के विस्तार)-में अपनी
बुद्धि नहीं लगायी॥ १९-२० ॥
४६
तेष्वेब॑ निरपेक्षेषु लोकसृष्टी प्रजापति: ।
मुमोह मायया सद्यो मायिनः परमेष्ठिन:॥ २१॥
त॑ बोधयामास सुतं जगन्मायो महामुनिः।
नारायणो महायोगी योगिचित्तानुरञ्जन:॥ २२॥
बोधितस्तेन विश्वात्मा तताप परम तपः।
स तप्यमानो भगवान् न किद्ित् प्रत्यपद्यत॥ २३॥
ततो दीर्घेण कालेन दुःखात् क्रोधो व्यजायत।
क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दवः ॥ २४॥
भ्रुकुटीकुटिलात् तस्य ललाटात् परमेश्वर: ।
समुत्पन्नो महादेव: शरण्यो नीललोहितः॥ २५॥
स॒ एवं भगवानीशस्तेजोराशिः सनातनः।
यं प्रपश्यन्ति विद्वांस: स्वात्मस्थं परमेश्वरम्॥ २६॥
ओकारं समनुस्मृत्य प्रणम्य च कृताझललि:
तमाह भगवान् ब्रह्मा सृुजेमा विविधा: प्रजा: ॥ २७॥
निशम्य भगवान् वाक्य शंकरो धर्मवाहन: ।
स्वात्मना सदृशान् रुद्रानू ससर्ज मनसा शिव: ।
कपर्दिनो निरातड्वांस्त्रिनेत्रानू नीललोहितानू॥ २८॥
त॑ प्राह भगवान् ब्रह्मा जन्ममृत्युयुता: प्रजा: ।
सृजेति सोउब्रवीदीशो नाहं मृत्युजरान्विता: ।
प्रजा: सत्रक्ष्ये जगन्नाथ सृज त्वमशुभा: प्रजा: ॥ २९॥
निवार्य च तदा रुद्रं ससर्ज कमलोद्धव: ।
स्थानाभिमानिन: सर्वान् गदतस्तान् निबोधत॥ ३०॥
आपोडपग्रिरन्तरिक्षं च॒ द्यौर्वायु: पृथिवी तथा।
नद्य: समुद्रा: शैलाश्न वृक्षा वीरुध एवं च॥ ३१॥
लवा; काष्ठा: कलाश्चैव मुहूर्ता दिवसा: क्षपा: ।
अर्धमासाश्च मासाश्च अयनाब्दयुगादयः ॥ ३२॥
न कूर्मपुराण हम
लोकसृष्टिके कार्यमें उनके इस प्रकार निरपेक्ष
(उदासीन) हो जानेपर प्रजापति (ब्रह्मा) मायापति
परमेष्ठीकी * मायाके द्वारा तत्काल मोहित कर लिये गये।
योगियोंके चित्तका अनुरञ्ञन करनेवाले जगत्कर्ता महायोगी,
महामुनि नारायणने (अपने) उस पुत्र (ब्रह्मा)-को प्रबुद्ध
किया। (तब) उनके द्वारा प्रबुद्ध किये गये विश्वात्मा
(ब्रह्मा)-ने परम तप किया, (किंतु) तप करनेपर भी
उन भगवान् ब्रह्माको कुछ प्राप्त नहीं हुआ॥ २१--२३॥
तदनन्तर बहुत समय बीत जानेपर (प्रयोजन सिद्ध
न होनेके कारण उन्हें) दुःखके कारण क्रोध उत्पन्न
हुआ। क्रोधसे आविष्ट उन (ब्रह्मा)-के नेत्रोंसे आँसूकी
बूँदें गिरीं। उनके (क्रोधके कारण) टेढ़ी भृकुटियोंवाले
ललाटसे शरण देनेवाले नीललोहित परमेश्वर महादेव
प्रकट हुए। वे ही तेजकी राशि सनातन भगवान् ईश हैं,
जिन्हें विद्वानू लोग अपनी आत्मामें स्थित परमेश्वर
(परमात्मा)-के रूपमें देखते हैं॥ २४--२६॥
ओंकारका सम्यक् रूपसे स्मरणकर और प्रणामकर
हाथ जोड़ते हुए भगवान् ब्रह्माने उन (महादेव)-से
कहा--इन अनेक प्रकारकी प्रजाओंकी सृष्टि करें॥ २७॥
धर्म (वृषभ) -पर आरूढ़ होनेवाले धर्मबाहन मज्जलकारी
भगवान् शिवने (ब्रह्माके) वचनको सुनकर मनसे अपने
ही समान जटाधारी, आतंकरहित, तीन नेत्रवाले एवं
नीललोहित रुद्रोंको उत्पन्न किया॥ २८ ॥
उनसे भगवान् ब्रह्माने कहा--जन्म लेनेवाली और
मृत्युको प्राप्त होनेवाली प्रजाकी सृष्टि करो। वे ईश
बोले--हे जगन्नाथ! मैं मृत्यु एवं वृद्धावस्थाको प्रा
होनेवाली प्रजाकी सृष्टि नहीं करूंगा। ऐसी अशुभ
प्रजाओंको आप ही उत्पन्न करें ॥ २९॥
तब कमलसे उत्पन्न ब्रह्माने (सृष्टि-विस्तारके कार्यसे)
रुद्रको रोककर (स्वयं) सभी स्थानाभिमानियोंको उत्पन्न
किया, मैं उन्हें बता रहा हूँ (आपलोग) सुनें॥ ३०॥
जल, अग्नि, अन्तरिक्ष, आकाश, वायु और पृथ्वी
इसी प्रकार नदी, समुद्र, पर्वत, वृक्ष, वनस्पति, लव,
काष्ठा, कला, मुहूर्त, दिन-रात, अर्धमास, मास, अयन,
वर्ष तथा युग आदि॥ ३१-३२॥
* छठे अध्यायमें ब्रह्मा और नारायणमें अभेद माना गया है, अतः यहाँ परमेष्ठी शब्द “नारायण” का वाचक है।
* अध्याय ७ *+
स्थानाभिमानिन: सृष्ठरा साधकानसृजत् पुनः ।
मरीचिभग्वड्धिरसं पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
दक्षमत्रिं वसिष्ठ॑ च धर्म संकल्पमेव च॥ ३३॥
प्राणाद ब्रह्मासजद् दक्ष चक्षुषश्च मरीचिनम्
शिरसोडंड्रिरसं देवो हृदयाद् भगुमेव च॥ ३४॥
श्रोत्राभ्यामत्रिनामानं धर्म च व्यवसायतः ।
संकल्पं चैव संकल्पात् सर्वलोकपितामह: ॥ ३५॥
पुलस्त्यं च तथोदानाद व्यानाच्च पुलहं मुनिम्।
अपानात् क्रतुमव्यग्रं समानाच्य वसिष्ठकम्॥ ३६॥
इत्येते ब्रह्मणा सृष्टाः साधका गृहमेधिन: ।
आस्थाय मानवं रूपं धर्मस्तै: सम्प्रवर्तित:॥ ३७॥
ततो देवासुरपितृन् मनुष्यांश्र चतुष्टयम्।
सिसृक्षुरम्भांस्येतानि स्वमात्मानमयूयुजत्॥ ३८ ॥
युक्तात्मनस्तमोमात्रा उद्रिक्ताभूत् प्रजापते: ।
ततो5स्य जघनात् पूर्वमसुरा जज्ञिरि सुता:॥ ३९॥
उत्ससर्जासुरान् सृष्टरा तां तनुं पुरुषोत्तम: ।
सा चोत्सृष्टा तनुस्तेन सद्यो रात्रिरजायत।
सा तमोबहुला यस्मात् प्रजास्तस्यां स्वपन्त्यत: ॥ ४० ॥
सत्त्वमात्रात्मिकां देवस्तनुमन्यामगृहत।
ततो5स्य मुखतो देवा दीव्यतः सम्प्रजज्ञिरि॥ ४१ ॥
त्यक्ता सापि तनुस्तेन सत्त्वप्रायमभूद् दिनम्।
तस्मादहो धर्मयुक्ता देवताः समुपासते॥ ४२॥
सत्त्वमात्रात्मिकामेव ततो<न्यां जगृहे तनुम्।
पितृवन्मन्यमानस्थ पितर: सम्प्रजज्िरि॥ ४३॥
उत्ससर्ज पितृन् सृष्ठा ततस्तामपि विश्वसृक् ।
सापविद्धा तनुस्तेन सद्य: संध्या व्यजायत॥ ४४॥
तस्मादहर्देवतानां रात्रि: स्थाद देवविद्विषाम् ।
तयोरमथ्ये पितृणां तु मूर्ति: संध्या गरीयसी॥ ४५॥
है
स्थानाभिमानियोंकी सर्जना कर पुन: सृष्टिके सहायकों--
मरीचि, भृगु, अड्विरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, अत्रि,
वसिष्ठ, धर्म एवं संकल्पको उत्पन्न किया॥ ३३॥
सभी लोकोंके पितामह नब्रह्मदेवने प्राण (वायु )-से
दक्षको उत्पन्न किया, इसी प्रकार नेत्रोंसे मरीचि, सिरसे
अड्लिरा, हृदयसे भृगु, कानोंसे अत्रि नामवाले (ऋषि)-
को, व्यवसायसे धर्मको और संकल्पसे संकल्पको तथा
ऐसे ही उदान (वायु)-से पुलस्त्य, व्यान (वायु)-से
पुलह मुनि, अपान (वायु)-से शान्त स्वभाव क्रतु और
समान (वायु)-से वसिष्ठको उत्पन्न किया॥ ३४--३६ ॥
ब्रह्माके द्वारा उत्पन्न ये सभी गृहस्थ हैं तथा (सृष्टि-
विस्तारके) सहयोगी हैं। मनुष्यका रूप धारणकर इन्होंने
धर्मका प्रवर्तन किया। तदनन्तर देवता, असुर, पितर तथा
मनुष्य--इन चारोंकी तथा जलकी सृष्टि करनेकी इच्छासे
(ब्रह्माने) अपने-आपको नियुक्त किया॥ ३७-३८ ॥
संयुक्त आत्मरूपवाले प्रजापतिसे तमोगुणकी मात्राका
उद्रेक हुआ। तदनन्तर उनकी जंघासे पहले (तमोगुणी)
असुर (योनिके) पुत्र उत्पन्न हुए। असुरोंकी सृष्टिकर
पुरुषोत्तनने उस (तमोमय) शरीरका परित्याग कर
दिया। उनके द्वारा छोड़ा गया वह शरीर शीघ्र ही रात्रिके
रूपमें परिवर्तित हो गया। वह (रात्रि) चूँकि अन्धकारकी
अधिकतावाली रहती है, अत: उसमें (रात्रिमें) प्रजाएँ
सोती हैं॥ ३९-४० ॥
(पुनः) देवने सत्तवगुणात्मक दूसरे शरीरको धारण
किया और तब उनके मुखसे दीप्तिमान् देवता प्रादुर्भूत
हुए। उन्होंने (प्रजापतिने) वह शरीर भी छोड़ दिया।
वह सत्तवगगुणकी अधिकतावाला शरीर दिन हुआ। धर्मात्मा
देवता इसीलिये दिनका सेवन करते हैं॥४१-४२॥
पुनः: (उन्होंने) सत्त्वगुणात्मक ही एक दूसरे
शरीरको धारण किया। पिताके समान माननेवाले उनके
द्वारा पितर उत्पन्न हुए। विश्वकी रचना करनेवाले उन्होंने
(ब्रह्माने) पितरोंकी सृष्टिकर उस शरीरकों भी छोड़
दिया। वह छोड़ा गया शरीर शीघ्र ही संध्याके रूपमें
बदल गया॥ ४३-४४॥
इसीलिये देवताओंके लिये दिन, देवविद्वेषी असुरोंके
लिये रात तथा दिन और रातके मध्यकी संध्या जो
पितरोंकी मूर्तिरूप है, वह प्रशस्त है॥४५॥
४८
तस्माद् देवासुरा: सर्वे मनवो मानवास्तथा।
उपासते सदा युक्ता रात््यह्रोर्मध्यमां तनुम्॥ ४६॥
रजोमात्रात्मिकां ब्रह्म तनुमन्यामगृहत।
ततो<5स्य जक्ञिरे पुत्रा मनुष्या रजसावृता:॥ ४७॥
तामप्याशु स तत्याज तनुं सद्यः प्रजापति: ।
ज्योत्य्रा सा चाभवद्दिप्रा: प्राक्संध्या याभिधीयते ।। ४८ ॥।
ततः स भगवान् ब्रह्मा सम्प्राप्य द्विजपुंगवा: ।
मूर्ति तमोरजःप्रायां पुनरेवाभ्ययूयुजत्॥ ४९॥
अन्थकररे क्षुधाविष्टा राक्षसास्तस्य जज्ञिरे।
पुत्रास्तमोरज:प्राया बलिनस्ते निशाचरा: ॥ ५०॥
सर्पा यक्षास्तथा भूता गन्धर्वा: सम्प्रजज्ञिरे।
रजस्तमोभ्यामाविष्टांस्ततो3न्यानसूजत् प्रभु: ॥ ५१॥
वयांसि वयस: सृष्ठा अवयो वक्षसो5सृजत् ।
मुखतो5जान् ससर्जान्यान् उदराद गाश्च निर्ममे ॥ ५२॥
पद्धथां चाश्वान् समातड्रान् रासभान् गवयान् मृगान् ।
उष्टानश्वतरांश्चेव न््यडकूनन्यांश्र जातय:।
ओषदध्य: फलमूलिन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरि ॥ ५३ ॥
गायत्रीं च ऋचं चेव त्रिवृत्साम रथन्तरम्।
अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात्॥ ५४॥
यजूंषि त्रैष्टभं छन्दः स्तोम॑ पद्षद्श तथा।
बृहत्साम तथोक््थं च दक्षिणादसृजन्मुखात् ॥ ५५॥
सामानि जागत॑ं छउन्दःस्तोमं सप्तदर्श तथा।
बैरूपमतिरात्र च पश्चिमादसृजन्मुखात्॥ ५६॥।
एकविंशमथर्वाणमाप्तो्यामाणमेव. च।
अनुष्ठुभं सबैराजमुत्तरादसृजन्मुखात्॥ ५७॥
न कूर्मपुराण मं
इसीलिये देवता, असुर, (स्वायम्भुव आदि) सभी
मनु तथा सभी मनुष्य दिन और रातके मध्यमें सदा
स्थित रहनेवाले (संध्यारूपी ) शरीर (मूर्ति)-की उपासना
करते हैं॥४६॥
(तब) ब्रह्माने रजोगुणकी अधिकतावाले अन्य
शरीरको धारण किया, जिससे रजोगुणसे आवृत उनके
पुत्र उत्पन्न हुए, जो मनुष्य कहलाये॥ ४७॥
ब्राह्मणो! उन प्रजापतिने शीघ्र ही उस (रजोगुणात्मक)
शरीरको भी छोड़ दिया। वह (छोड़ा गया शरीर) ज्योत्स्नाके
रूपमें हो गया, जिसे प्राक्संध्या कहा जाता है॥ ४८॥
हे ब्राह्मणो! भगवान् ब्रह्मा फिर तम तथा रजोमयी
मूर्ति (शरीर)-को धारण कर पुन: योगयुक्त हुए। इस
शरीरसे अन्धकारमें भूखसे व्याकुल होनेवाले राक्षस पुत्र
उत्पन्न हुए। तमोगुण तथा रजोगुणकी अधिकतावाले वे
महान् बलशाली पुत्र निशाचर कहलाये। ऐसे ही सर्प,
यक्ष, भूत तथा गन्धर्व उत्पन्न हुए। तदनन्तर रजोगुण तथा
तमोगुणसे आविष्ट अन्य प्राणियोंको भी प्रभुने उत्पन्न
किया॥ ४९--५१ ॥
वय: (अवस्था) -से पक्षियोंकी सृष्टि करनेके अनन्तर
(ब्रह्माने) वक्ष:स्थलसे भेडोोंको उत्पन्न किया। मुखसे
बकरोंको उत्पन्न किया और उदर-देशसे गौओंकी सृष्टि
की। पैरोंसे हाथियोंसहित घोड़ों, गदहों, गायके समान ही
दूसरे प्रकारकी गायों (नीलगाय आदि), मृगों, ऊँटों
खच्चरों, न्यड्कुओं (मृग-विशेष) तथा अन्य (तिर्यक्
आदि) योनियोंको उत्पन्न किया । फल-मूलवाली ओषधियाँ
उनके रोमोंसे पैदा हुईं॥ ५२-५३ ॥
(ब्रह्माजीने अपने) प्रथम (पूर्व) मुखसे गायत्री
छन््द, ऋग्वेद, त्रिवृत्साम, रथन्तर (साम) और यज्ञोंमें
अग्निष्टोमा (नामक यज्ञ)-को उत्पन्न किया। दक्षिण
मुखसे यजुर्वेद, त्रिष्टभू छनन््द, पञ्चदश स्तोम (मन्त्रोंका
समूह-विशेष ) बृहत्साम तथा उकथ (नामक वेदमन्त्रों)-
का सृजन किया। पश्चिम मुखसे सामवेद, जगती छन्द,
सप्तदश स्तोम (मन्त्रोंका समूह-विशेष) और वैरूप
तथा अतितरात्र नामक यज्ञोंको उत्पन्न किया। उत्तर मुखसे
इक्कीस शाखाओंवाले अथर्ववेद, अनुष्ठ॒प् छन््द और
आप्तोर्याम तथा वैराज (नामक यक्ञ)-को उत्पन्न
किया॥ ५४--५७ ॥
* अध्याय ७9 *
उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे।
ब्रहणो हि प्रजासर्ग सृजतस्तु प्रजापते: ॥ ५८ ॥
सृष्ठा चतुष्टयं सर्ग देवर्षिपितृमानुषम्।
ततोडसृजच्च भूतानि स्थावराणि चराणि च॥ ५९॥
यक्षान् पिशाचान् गन्धर्वास्तथेवाप्सरस: शुभा: ।
नरकिन्नररक्षांसि वयः:पशुमृगोरगान् ।
अव्ययं चर व्ययं चेव द्वयं स्थावरजड्रमम्॥ ६०॥
तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्टी प्रतिपेदिरे |
तान्येव ते प्रपद्यन्ते सृज्यमाना: पुनः पुनः॥ ६१॥
हिंस्राहिंस्रे मृदुक़्रे धर्माधर्मावृतानृते।
तद्धाविता: प्रपद्यन्ते तस्मात् तत् तस्य रोचते॥ ६२ ॥
महाभूतेषु नानात्वमिन्द्रियार्थेषु मूर्तिषु।
विनियोगं च भूतानां धातेव व्यदधात् स्वयम्॥ ६३ ॥।
नामरूप॑ च भूतानां कृत्यानां च प्रपञ्ञनम् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ निर्ममे स महेश्वर:॥ ६४॥
आर्षाणि चैव नामानि याश्च वेदेषु दृष्टय: ।
शर्वर्यन्ते प्रसूतानां तान्येवैभ्यो ददात्यज:॥ ६५॥
यथर्तावृतुलिड्रानि नानारूपाणि पर्यये।
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु॥ ६६॥
४९
प्रजापति ब्रह्माके द्वारा प्रजाओंकी सृष्टि करते
समय उनके शरीरसे उच्च एवं निम्न (कोटिके अन्य
भी) प्राणियोंकी सृष्टि हुई। देवता, ऋषि, पितर तथा
मनुष्य--इन चार प्रकारकी सृष्टि करके (ब्रह्माने) चर
तथा अचर (सभी) प्राणियोंकी सृष्टि की ॥ ५८-५९ ॥
यक्षों, पिशाचों, गन्धर्वों तथा शुभ अप्सराओं,
नरों, किन्नरों, राक्षसों, पक्षियों, पशुओं, मृगों तथा
सर्पोको उत्पन्न किया। नित्य एवं अनित्य-भेदसे चर
एवं अचर सृष्टि दो प्रकारकी है। पहलेको सृष्टियोंमें
उन (प्राणियों)-के जो-जो कर्म निश्चित थे अगली
सृष्टियोंमें भी उत्पन्न होकर वे बार-बार उन्हीं कर्मोंको
प्राप्त करते हैं ॥६०-६१ ॥
इसीलिये उसी प्रकारकी भावना (संस्कार)-से
प्रेरित होकर (वे प्राणी) हिंसक, अहिंसक, कोमल,
क्रूर, धर्म-अधर्म तथा सत्य एवं असत्यकी प्रवृत्तियाँ
प्राप्त करते हैं और वही (कर्म) उन्हें रुचिकर भी
लगता है॥ ६२ ॥
विधाताने स्वयं ही प्राणियोंकी इन्द्रियोंके विषयों,
महाभूतों एवं मूर्तियोंमें भिन्नता और विनियोगकी
व्यवस्था की है। उन महे धरने प्रारम्भमें वेदके शब्दोंसे
ही प्राणियोंके नाम और रूप तथा कर्मोंकी विविधताका
निर्माण किया। वेदोंमें जिन सिद्धान्तों और आर्ष
नामोंका प्रतिपादन हुआ है, उन्हीं नामोंको ब्रह्मा
(प्रलयकालीन) रात्रिके अन्तमें उत्पन्न पदार्थोको
प्रदान करते हैं॥ ६३-६५ ॥
प्रलयकालसे पूर्व जो ऋतुएँ और ऋतुओंके चिह्न
तथा अनेक प्रकारके रूप (आकार) दिखलायी देते
थे, अगले युगोंमें वे उन्हीं-उन्हीं (नाम-रूपों तथा)
भावोंमें प्रकट होकर दिखलायी देते हैं॥ ६६॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहरत्रय्ां संहितायां पूर्वव्थागे सम्तमोडध्याय: ॥ ७॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रोकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें सातवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥७॥
५९0०
आठवाँ
मं कूर्मपुराण न
अध्याय
सृष्टि-वर्णनमें ब्रह्माजीसे मनु और शतरूपाका प्रादुर्भाव, स्वायम्भुव मनुके वंशका
वर्णन, दक्ष प्रजापतिकी कनन््याओंका वर्णन तथा उनका विवाह,
धर्म तथा अधर्मकी संतानोंका विवरण
श्रीकूर्म उवाच
एवं भूतानि सृष्टानि स्थावराणि चराणि च।
यदा चास्य प्रजा: सृष्टा न व्यवर्धन्त धीमत: ॥ १ ॥
तमोमात्रावृतो ब्रह्मा तदाशोचत दुःखित:।
ततः स विदधे बुद्धिमर्थनिश्चयगामिनीम्॥ २ ॥
अथात्मनि समद्राक्षीत् तमोमात्रां नियामिकाम्।
रजःसत्त्वं च॒ संवृत्य वर्तमानां स्वधर्मत:॥ ३ ॥
तमस्तद् व्यनुदत् पश्चात् रज: सत्त्वेन संयुतः ।
तत् तम: प्रतिनुन्नं वे मिथुनं समजायत॥ ४ ॥
अधर्माचरणो विप्रा हिंसा चाशुभलक्षणा।
स्वां तनुं स ततो ब्रह्मा तामपोहत भास्वराम्॥ ५ ॥
द्विधाकरोत् पुनर्देहमर्धन पुरुषो5भवत्।
अर्धन नारी पुरुषो विराजमसृजत् प्रभु:॥ ६ ॥
नारीं च शतरूपाख्यां योगिनी ससृजे शुभाम् |
सा दिवं पृथिवीं चेव महिस्ला व्याप्य संस्थिता॥ ७ ॥
योगैश्वर्यनलोपेता._ ज्ञानविज्ञानसंयुता।
यो5भवत् पुरुषात् पुत्रो विराडव्यक्तजन्मन:॥ ८ ॥
स्वायम्भुवो मनुर्देव: सो5भवत् पुरुषो मुनि: ।
सा देवी शतरूपाख्या तप: कृत्वा सुदुश्चवरम्॥ ९ ॥
भर्तारें ब्रह्मण: पुत्र मनुमेवान्वपद्यत ।
तस्माच्च शतरूपा सा पुत्रद्ठवमसूयत।॥ १०॥
प्रियक्नतोत्तानपादी कन्याद्वयमनुत्तमम् |
तयो:ः प्रसूतिं दक्षाय मनु: कन्यां ददी पुनः ॥ ११॥
श्रीकूर्मने कहा--इस प्रकार स्थावर तथा जड्भम
प्राणियोंकी सृष्टि हुई, किंतु जब उन बुद्धिमान् (ब्रह्मा)-
द्वारा उत्पन्न की गयी प्रजाओंमें वृद्धि नहीं हुई, तब
तमोगुणकी अधिकतासे आवृत ब्रह्मा दु:ःखी होकर चिन्ता
करने लगे और फिर उन्होंने अर्थका निश्चय करनेवाली
बुद्धिको ग्रहण किया॥ १-२॥
तदनन्तर उन्होंने स्वधर्मानुसार रजोगुण एवं सत्त्वगुणको
आवृत कर स्थित रहनेवाली तथा (कर्मकी) नियामिका
(तमोवृत्ति)-को अपनी आत्मामें देखा। तत्पश्चात् सत्त्वगुणसे
संयुक्त रजोगुणने उस तमोगुणको दूर किया और दूर
हुआ वह तम दो भागोंमें विभक्त हो गया॥ ३-४॥
हे ब्राह्मणो! (इस प्रकार दो भागोंमें विभक्त हुए
तमसे) अधर्माचण और अशुभ लक्षणोंवाली हिंसा
उत्पन्न हुई। तब ब्रह्माजीनी अपने उस प्रकाशमान
शरीरको छोड़ दिया॥ ५॥
पुन: (पुरातन) पुरुष प्रभुने अपने शरीरको दो
भागोंमें बॉँटा। आधेसे पुरुष हुआ और आधेसे नारी।
तत्पश्चात् (उन्होंने) विराट् पुरुषको उत्पन्न किया॥ ६॥
उन्होंने 'शतरूपा” नामवाली कल्याणमयी योगिनी
नारीको बनाया, वह पृथिवी-लोक तथा चझ्ुलोकको
अपनी महिमासे व्याप्तकर प्रतिष्ठित हुई॥ ७॥
(वह शतरूपा नामवाली नारी) योगके ऐश्वर्य एवं
बलसे सम्पन्न तथा ज्ञान-विज्ञानसे युक्त थी। (और) जो
पुरुषसे अव्यक्तजन्मा ब्रह्माका विराट् नामक पुत्र उत्पन्न
हुआ, वह देवपुरुष मुनि स्वायम्भुव मनुके रूपमें प्रसिद्ध
हुआ। शतरूपा नामवाली उस देवीने अत्यन्त कठोर तप
करके ब्रह्माजीके पुत्र (स्वायम्भुव) मनुको ही (अपना)
पति बनाया और शतरूपाने उनसे (मनुसे) दो पुत्र
उत्पन्न किये॥ ८--१० ॥
(ये ही) प्रियत्रत तथा उत्तानपाद नामक दो पुत्र थे।
(इनके अतिरिक्त) दो श्रेष्ठ कन््याएँ भी हुईं। उन दो
कन्याओंमेंसे स्वायम्भुव मनुने प्रसूति नामक एक कन्या
दक्ष प्रजापतिको प्रदान की॥ ११॥
* अध्याय ८ *
प्रजापतिरथाकूतिं मानसो जगुहे रुचिः।
आकाूत्यां मिथुनं जज्ञे मानसस्य रुचे: शुभम्।
यज्ञश्च दक्षिणा चैव याभ्यां संवर्धितं जगत्॥ १२॥
यज्ञस्य दक्षिणायां तु पुत्रा द्वादश जज्ञिरे।
यामा इति समाख्याता देवा: स्वायम्भुवेउन्तरे॥ १३॥
प्रसूत्यां च तथा दक्षश्चवतस्त्रो विंशतिं तथा।
ससर्ज कन्या नामानि तासां सम्यक् निबोधत॥ १४॥
श्रद्धा लक्ष्मीर्ृतिस्तुष्टि: पुष्टिमेंधा क्रिया तथा।
बुद्धिर्लजा वपु: शान्ति: सिद्धि: कीर्तिस्त्रयोदशी ॥ १५ ॥
पल्यर्थ प्रतिजग्राह धर्मों दाक्षायणी: शुभा: ।
ताभ्य: शिष्टा यवीयस्य एकादश सुलोचना: ॥ १६॥
ख्याति: सत्यथ सम्भूति: स्मृति: प्रीति: क्षमा तथा ।
संततिश्चानसूया च ऊर्जा स्वाहा स्वधा तथा॥ १७॥
भृगुर्भवो मरीचिश्व तथा चेवाड्रिरा मुनिः।
पुलस्त्य: पुलहश्चेव क्रतु: परमधर्मवित्॥ १८ ॥
अत्रिर्वसिष्ठो वह्निश्व पितरश्च यथाक्रमम्।
ख्यात्याद्या जगृहु: कन्या मुनयो मुनिसत्तमा:॥ १९॥
श्रद्धया आत्मज: कामो दर्पो लक्ष्मीसुतः स्मृत: ।
धृत्यास्तु नियम: पुत्रस्तुष्ठया: संतोष उच्यते॥ २०॥
पुष्टया लाभ: सुतश्चापि मेधापुत्र: श्रुतस्तथा।
क्रियायाश्वाभवत्् पुत्रो दण्ड: समय एवं च॥ २१॥
बुद्धया बोध: सुतस्तद्वदप्रमादो व्यजायत।
लज्जाया विनय: पुत्रो वपुषो व्यवसायक: ॥ २२॥
क्षेम: शान्तिसुतश्रापि सुखं सिद्धिरजायत।
यशः कॉोर्तिसुतस्तद्वदित्येते धर्मसूनवः॥ २३॥
कामस्यथ हर्ष: पुत्रो5भूद् देवानन्दो व्यजायत।
इत्येष वे सुखोदर्क: सर्गो धर्मस्य कीर्तितः ॥ २४॥
जज्ञे हिंसा त्वधर्माद् निकृतिं चानृतं सुतम्।
निकृत्यनृतयोर्जजजस भयं नरक एवं च॥२५॥
माया च बेदना चैव मिथुन त्विदमेतयो:।
भयाजन्ञे5थ बे माया मृत्युं भूतापहारिणम्॥ २६॥
५१९
आकूति नामक दूसरी कन्याको (ब्रह्माजीके) मानस
पुत्र रुचि प्रजापतिने ग्रहण किया। मानस पुत्र रुचि
प्रजापतिने आकूतिसे दो संतानें प्राप्त कौं--यज्ञ और
दक्षिणा, जिनसे संसार वृद्धिको प्रात हुआ॥१२॥
यज्ञके दक्षिणासे बारह पुत्र उत्पन्न हुए जो स्वायम्भुव
मन्वन्तरमें 'याम' इस नामसे प्रसिद्ध देवता हुए और दक्ष
प्रजापतिने प्रसूतिसि चौबीस कन्याओंको उत्पन्न किया,
उनके नामोंको भलीभाँति सुनो--(वे हैं--) श्रद्धा, लक्ष्मी,
धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति,
सिद्धि तथा तेरहवीं कनन््याका नाम है कीर्ति॥ १३--१५॥
दक्ष प्रजापतिकी इन (तेरह दाक्षायणी) मड्भरलमयी
कन्याओंको धर्मने पत्नीरूपमें ग्रहण किया। उन (तेरह
कन्याओं)-के अतिरिक्त इनसे सुन्दर आँखोंवाली दक्षकी
ग्यारह, अवस्थामें छोटी कन््याएँ और थीं (जिनके नाम
हैं-) ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा,
संतति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा तथा स्वधा॥ १६-१७॥
श्रेष्ठ मुनियो! ख्याति, सती आदि जो (ग्यारह)
कन्याएँ थीं, उन्हें क्रमश: भृगु, मरीचि, अड्रिरा मुनि,
पुलस्त्य, पुलह, परम धर्मज्ञ क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ नामक
मुनियों, अग्रिदेव और पितरोंने ग्रहण किया॥ १८-१९॥
श्रद्धाका पुत्र "काम तथा लक्ष्मीका पुत्र ' दर्प” नामसे
कहा जाता है। धृतिका “नियम ' नामक पुत्र तथा तुष्टिका
(पुत्र) “संतोष” कहलाता है॥ २०॥
पुष्टिका पुत्र 'लाभ' और मेधाका पुत्र ' श्रुत' हुआ।
क्रियाका पुत्र 'दण्ड' हुआ और वही 'समय' भी
कहलाता है। बुद्धिसे “बोध” नामक पुत्र और उसी
प्रकार 'अप्रमाद” नामक पुत्र भी हुआ। लज्ञाका
“विनय' नामक पुत्र और वपुका 'व्यवसायक' हुआ।
'क्षेम' शान्तिका पुत्र और 'सुख' सिद्धिका पुत्र हुआ।
इसी प्रकार कीर्तिका “यश” नामक पुत्र हुआ। ये सभी
धर्मके पुत्र हुए। कामका “हर्ष” नामक पुत्र हुआ, जो
देवताओंको आनन्द देनेवाला हुआ। यही (इतनी)
धर्मकी सुखदायक सृष्टि कहलाती है॥ २१--२४॥
अधर्मसे हिंसाने निकृति तथा अनृत नामक पुत्रको
उत्पन्न किया। निकृति और अनृतसे भय तथा नरक नामक
पुत्र उत्पन्न हुए। माया तथा वेदना--ये दो इनकी क्रमश:
भय एवं नरककी पत्नियाँ हैं। मायाने भयसे समस्त
प्राणियोंको मार देनेवाले मृत्युको उत्पन्न किया॥ २५-२६ ॥
५२
बेदना च सुतं चापि दुःखं जज्ञे5थ रौरवात्।
* कूर्मपुराण *
वेदनाने भी रौरव (नरक नामक पति)-से दुःख
मृत्यो्व्याधिजराशोकतृष्णाक्रोधाश्व जज्ञिरि॥ २७॥ | नामक पुत्र उत्पन्न किया। मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक,
दुःखोत्तरा: स्मृता होते सर्वे चाधर्मलक्षणा: ।
नेषां भार्यास्ति पुत्रो वा सर्वे ते ह्यूथ्वरेतस: ॥ २८ ॥
इत्येष तामस:ः सर्गो जज्ञे धर्मनियामक:।
संक्षेपेण मया प्रोक्ता विसृष्टिमुनिपुंगवा: ॥ २९॥
तृष्णा तथा क्रोध उत्पन्न हुए॥ २७॥
ये सभी उत्तरोत्तर अधिक दुःखदायी कहे गये हैं
और अधर्माचरण ही इनका लक्षण है। इनकी न कोई
स्त्री है और न कोई पुत्र। ये सभी ऊर्ध्वरिता हैं॥२८॥
श्रेष्ठ मुनियो! इस प्रकार धर्मनियामकने तामस
सर्गकी सृष्टि की। मैंने संक्षेपमें इस विशिष्ट सृष्टिका
वर्णन किया॥ २९॥
जड्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहरत्रयां संहितायां पूर्वव्भागेउट्टमोउध्याय: ॥ ८ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें आठवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥८॥
नवों अध्याय
शेषशायी नारायणकी नाभिसे कमलकोी उत्पत्ति तथा उसी कमलसे ब्रह्माका
प्राकट्य, विष्णु-मायाद्वारा ब्रह्माका मोहित होकर विष्णुसे विवाद
करना, भगवान् शंकरका प्राकट्य, विष्णुद्वारा ब्रह्माको
शिवका माहात्म्य बताना, ब्रह्माद्वारा शिवकी स्तुति
तथा शिव और विष्णुके एकत्वका प्रतिपादन
सूत उवाच
एतच्छुत्वा तु वचन नारदाद्या महर्षय:।
प्रणम्य बरदं विष्णुं पप्रच्छु: संशयान्विता:॥ १॥।
ऋषय ऊचु:
कथितो भवता सर्गो मुख्यादीनां जनार्दन।
इृदानीं संशयं चेममस्माकं छेत्तुमहसि॥ २॥
कथ स भगवानीशः पूर्वजोडपि पिनाकधृक् ।
पुत्र॒त्वमगमच्छम्भुर्ब्रह्मणो5व्यक्तजन्मन:. ॥३॥
कथं च भगवाज्ञज्ञे ब्रह्मा लोकपितामह: |
अण्डजो जगतामीशस्तन्नो वक््तुमिहाईसि॥ ४॥
श्रीकूर्म उवाच
श्रृणुध्वमृषय: सर्वे शंकरस्थामितौजस:।
पुत्रत्व॑ ब्रह्मणस्तस्य पदायोनित्वमेव च॥ ५॥
अतीतकल्पावसाने तमोभूतं जगत् त्रयम्।
आसीदेकार्णवं सर्व न देवाद्या न चर्षय:॥ ६॥
सूतजी बोले--नारद आदि महर्षियोंने यह वचन
सुननेपर संशयग्रस्त होते हुए वरदाता विष्णुको प्रणामकर
इस प्रकार पूछा--॥ १॥
ऋषियोंने कहा--हे जनार्दन ! आपने मुख्य आदिकी
सृष्टिका वर्ण किया। अब इस समय जो संशय हमें हो
रहा है, उसे आप दूर करें--( ब्रह्मासे) पूर्वमें उत्पन्न
होनेपर भी पिनाक नामक धनुषको धारण करनेवाले ईश
भगवान् शिव किस प्रकार अव्यक्तजन्मा ब्रह्माके पुत्रत्वको
प्राप्त हुए और कैसे जगत्के स्वामी लोकपितामह अण्डज
(हिरण्यगर्भ) भगवान् ब्रह्माकी उत्पत्ति हुई, उसे आप
हमें बतलायें॥ २--४॥
श्रीकूर्म बोले--ऋषियो ! आप सभी सुनें-- अमित
तेजस्वी शंकर ब्रह्माके पुत्र-रूपमें कैसे हुए और कैसे
ब्रह्मा कमलसे उत्पन्न हुए॥ ५॥
विगत कल्पकी समाप्तिपर तीनों लोकोंमें घोर
अन्धकार व्याप्त हो गया। सर्वत्र केवल जल-ही-जल
था। न कोई देवता आदि थे और न कोई ऋषिजन॥ ६॥
* अध्याय ९ *
तत्र नारायणो देवो निर्जने निरुपप्लवे।
आश्रित्य शेषशयनं सुष्वाप पुरुषोत्तम:॥ ७ ॥
सहस्त्रशीर्षा भूत्वा स सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात् ।
सहसत्रबाहु: सर्वज्ञश्चिन्यमानो मनीषिभि:॥ ८ ॥
पीतवासा विशालाक्षो नीलजीमूतसत्निभ: ।
महाविभूतियोंगात्मा योगिनां हृदयालय:॥ ९ ॥
कदाचित् तस्य सुप्तस्य लीलार्थ दिव्यमद्भुतम्
त्रैलोक्यसारं विमलं नाभ्यां पड्डजमुद्रभौ॥ १०॥
शतयोजनविस्तीर्ण तरुणादित्यसंनिभम्।
दिव्यगन्धमयं पुण्यं कर्णिकाकेसरान्वितम्॥ ११॥
तस्यैवं सुचिरं काल॑ वर्तमानस्य शाह्िण: ।
हिरण्यगर्भो भगवांस्त॑ देशमुपचक्रमे॥ १२॥
स तं करेण विश्वात्मा समुत्थाप्य सनातनम्।
प्रोवाच मधुरं वाक्यं मायया तस्य मोहित: ॥ १३॥
अस्मिन्नेकार्णवे घोरे निर्जनी तमसावृते।
एकाकी को भवाउचलछेते ब्रूहि मे पुरुषर्षभ।॥ १४॥
तस्य तद् वचन श्रुत्वा विहस्य गरुडध्वज: ।
उबाच देवं ब्रह्माणं मेघगम्भीरनि:स्वनः॥ १५॥
भो भो नारायण देवं लोकानां प्रभवाप्ययम् ।
महायोगेश्वरं मां त्वं जानीहि पुरुषोत्तमम्॥ १६॥
मयि पश्य जगत् कृत्स्त॑ त्वां च लोकपितामहम् ।
स्पर्वतमहाद्वीप॑ समुद्रै: सप्तभिर्वृतम्॥ १७॥
एवमाभाष्य विश्वात्मा प्रोवाच पुरुषं हरि: ।
जानन्नपि महायोगी को भवानिति वेधसम्॥ १८ ॥
ततः प्रहस्य भगवान् ब्रह्मा वेदनिधि:ः प्रभु: ।
प्रत्युवाचाम्बुजाभाक्ष॑ सस्मितं शलकणया गिरा॥ १९॥
ष्रे
उस जनशून्य अत्यन्त शान्त (समुद्रमें) पुरुषोत्तम
नारायणदेव शेषनागकी शय्याका आश्रय लेकर सोये
हुए थे॥ ७॥
हजारों सिर, हजारों नेत्र, हजारों चरण, हजारों
बाहुवाले होकर वे दिद्वानोंके चिन्तनके विषयरूप,
सर्वज्ञ, पीतवस्त्रधारी, विशाल नेत्रवाले, नीले बादलके
समान वर्णवाले, महाविभूतिस्वरूप, योगियोंके हृदयमें
निवास करनेवाले योगात्मा (नारायण) जब किसी समय
शेषशय्यापर शयन कर रहे थे, तब उनकी नाभिसे लीला
करनेके लिये दिव्य अद्भुत, तीनों लोकोंका साररूप,
एक स्वच्छ कमल प्रकट हुआ। (वह कमल) सौ
योजन विस्तारवाला, तरुण आदित्यके समान प्रकाशमान,
पुण्यमय दिव्य गन्धसे सम्पन्न और कर्णिकाएँ तथा
केसरसे समन्वित था॥ ८--११॥
शार्ड़् नामक धनुष धारण करनेवाले शार्ड्रधन्वा
(नारायण) इसी रूपमें बहुत समयसे निवास कर रहे
थे तभी एक समय भगवान् हिरण्यगर्भ उस स्थानपर
गये। उनकी मायासे मुग्ध उन विश्वात्माने उन (सुप्त)
सनातन (पुरुष)-को हाथसे उठाकर यह मधुर वचन
कहा-- ॥ १२-१३ ॥
हे पुरुषश्रेष्ठ| अन्धकारसे आवृत इस घोर, निर्जन
एकार्णवमें अकेले सोनेवाले आप कौन हैं? मुझे
बतलायें ॥ १४ ॥
उनके इस वचनको सुनकर मेघके समान गम्भीर
स्वरवाले गरुडध्वजने हँसकर ब्रह्मदेवसे कहा--॥ १५॥
(ब्रह्माजी आप) मुझे ही समस्त लोकोंकी उत्पत्ति
एवं संहार करनेवाला महायोगेश्वर एवं पुरुषोत्तम नारायण-
देव जानें। पर्वत और महान् द्वीपोंसे युक्त सात समुद्रोंसे
घिरे हुए इस सम्पूर्ण जगत्के साथ ही समस्त लोकोंके
पितामह (ब्रह्माजी) आप अपनेको भी मुझमें ही देखें।
ऐसा कहकर विश्वात्मा महायोगी हरिने (सब कुछ)
जानते हुए भी ब्रह्मारूपी पुरुबसे कहा--आप कौन
हैं 2॥ १६--१८ ॥
तदनन्तर वेदनिधि प्रभु भगवान् ब्रह्माने हँसकर
कमलकी आभाके समान नेत्रवाले तथा मन्द-मन्द
मुसकानवाले (भगवान् विष्णुको इस प्रकार) मधुर
वाणीमें उत्तर दिया--॥ १९॥
।/औ.4
अहं धाता विधाता च स्वयम्भू: प्रपितामह: ।
मस्येव संस्थितं विश्व ब्रह्माहं विश्वतोमुख: ॥ २०॥
श्रुत्वा वा्चं स भगवान् विष्णु: सत्यपराक्रम: ।
अनुज्ञाप्याथ योगेन प्रविष्टो ब्रह्मणस्तनुम्॥ २१॥
त्रैलोक्यमेतत् सकल॑ सदेवासुरमानुषम्।
उदरे तस्य देवस्य दृष्टा विस्मयमागत:॥ २२॥
तदास्य वक्त्रान्निष्क्रम्य पन्नगेन्द्रनिकेतन: ।
अजातशत्रुर्भगववानू_ पितामहमथात्रवीत्॥ २३॥
भवानप्येवमेवाद्य शाश्वतं हि ममोदरम्।
प्रविश्य लोकान् पश्यैतान् विचित्रान् पुरुषर्षभ ॥ २४॥
ततः प्रह्मादिनीं वार्णी श्रुत्वा तस्याभिनन्द्य च।
श्रीपतेरुदर॑ं भूय: प्रविवेश कुशध्वज:॥ २५॥
तानेव लोकान् गर्भस्थानपश्यत् सत्यविक्रम: ।
पर्यटित्वा तु देवस्य ददूशेउन्तं न वे हरे:॥ २६॥
ततो द्वाराणि सर्वाणि पिहितानि महात्मना।
जनार्दनेन ब्रह्मासौ नाभ्यां द्वारमविन्दत॥ २७॥
तत्र योगबलेनासौ प्रविश्य कनकाण्डज:।
उज्जहारात्मनो रूपं पुष्कराच्यतुरानन: ॥ २८ ॥
विरराजारविन्दस्थ:. पद्दागर्भसमदुतिः: ।
ब्रह्मा स्वयम्भूर्भगवान् जगद्योनि: पितामह: ॥ २९॥
स मन्यमानो विश्वेशमात्मानं परम पदम्।
प्रोवाच पुरुषं विष्णुं मेघगम्भीरया गिरा॥ ३०॥
# कूर्मपुराण मं
में ही धाता (धारण करनेवाला), विधाता (विधान
बनानेवाला), स्वयम्भू (स्वयं ही उत्पन्न होनेवाला) और
प्रपितामह हूँ। मुझमें ही (सम्पूर्ण) विश्व स्थित है। मैं
सभी ओर मुखवाला ब्रह्मा हूँ॥२०॥
सत्यपराक्रम वे भगवान् विष्णु (ब्रह्मा)-का वचन
सुनकर (उनकी) आज्ञा लेकर योगबलसे त्रह्मके
शरीरमें प्रविष्ट हुए। उन देव (ब्रह्मा)-के उदरमें देवता,
असुर तथा मनुष्योंसहित सम्पूर्ण त्रिलोकौको देखकर
श्रीविष्णुको (अत्यन्त) आश्चर्य हुआ। तदनन्तर नागराजकी
शय्यापर निवास करनेवाले अजातशत्रु वे भगवान् (विष्णु)
उनके (ब्रह्मके) मुखसे बाहर निकलकर पितामह
(ब्रह्मा)-से बोले-- ॥ २१--२३॥
पुरुषश्रेष्ठस आप भी अब इसी प्रकार मेरे उदरमें
प्रविष्ट होकर सदा इन विचित्र लोकोंको देखें॥ २४॥
तब भगवान् विष्णुकी यह आह्लाद प्रदान करनेवाली
वाणी सुनकर और पुन: उनका ( श्रीविष्णुका) अभिनन्दन
कर कुशध्वज (ब्रह्मा)-ने लक्ष्मीपति ( भगवान् विष्णु)-
के उदरमें प्रवेश किया। सत्यविक्रम (तब्रह्मा)-ने उन्हीं
लोकोंको (भगवान् विष्णुके) उदरमें स्थित देखा (जिन्हें
श्रीविष्णुने ब्रह्माके उदरमें देखा था)। देवके (उदरमें)
भ्रमण करते हुए उन्हें हरि (विष्णु)-का कोई अन्त न
दिखायी दिया॥ २५-२६॥
तदनन्तर महात्मा जनार्दनने (अपनी इन्द्रियोंके)
सभी द्वारोंको बंद कर दिया, तब ब्रह्माने उनकी नाभिमें
द्वार प्रात्त किया। सुवर्णमय अण्डसे उत्पन्न चतुर्मुख
(ब्रह्मा)-ने योगबलसे उसमें (नाभिमें) प्रवेश कर
(नाभिसे उत्पन्न) कमलसे अपने रूपको बाहर
निकाला॥ २७-२८ ॥
पद्मगगर्भके समान* शोभावाले स्वयम्भू, जगद्योनि,
पितामह भगवान् ब्रह्मा अरविन्द (रक्त कमल)-पर
बैठे हुए शोभित होने लगे। अपनेको सम्पूर्ण विश्वका
स्वामी तथा परम पद (आश्रय) मानते हुए उन्होंने
(ब्रह्मने) मेघके समान गम्भीर वाणीमें पुरुषोत्तम
विष्णुसे कहा--॥ २९-३० ॥
* रक्त कमलके भीतर जैसी अरुणिमा होती है वैसी अरुणिमा (लालिमा-ललाई)-से सुशोभित।
*ू अध्याय ९ *
कि कृतं भवतेदानीमात्मनो जयकाइडक्षया।
एकोह5हं प्रबलो नान््यो मां वे कोडभिभविष्यति॥ ३१॥
श्रुत्वा नारायणो वाक्यं ब्रह्मणो लोकतन्त्रिण: ।
सान्त्वपूर्वमिंदं वाक्यं बभाषे मधुरं हरिः॥ ३२॥
भवान् धाता विधाता च स्वयम्भू: प्रपितामहः ।
न मात्सर्याभियोगेन द्वाराणि पिहितानि मे॥ ३३॥
किन्तु लीलार्थमेवैतन्न त्वां बाधितुमिच्छया ।
को हि बाधितुमन्विच्छेद् देवदेव॑ पितामहम्॥ ३४॥
न तेडन्यथावगन्तव्यं मान्यो मे सर्वथा भवान्।
सर्वमन्वय कल्याणं यन्मयापहतं॑ तव॥ ३५॥
अस्माच्च कारणाद् ब्रह्मन् पुत्रो भवतु मे भवान्।
पद्यायोनिरिति ख्यातो मत्तप्रियार्थ जगन्मय॥ ३६॥
ततः स भगवान् देवो वरं दत्त्वा किरीटिने।
प्रहर्षमतुलं॑ गत्वा पुनर्विष्णुमभाषत॥ ३७॥
भवान् सर्वात्मको5नन्त: सर्वेषां परमेश्वर: ।
सर्वभूतान्तरात्मा वे पर ब्रह्म सनातनम्॥ ३८ ॥
अहं वे सर्वलोकानामात्मा लोकमहेश्वर:
मन्मयं सर्वमेवेदं ब्रह्माहं॑ं पुरुष: परः:॥ ३९॥
नावाभ्यां विद्यते हान्यो लोकानां परमेश्वर: ।
एका मूर्तिद्विंधा भिन्ना नारायणपितामहौ ॥ ४०॥
तेनैवमुक्तो ब्रह्माणं वासुदेवो5ब्रवीदिदम्।
इये प्रतिज्ञा भवतो विनाशाय भविष्यति॥ ४१॥
कि न पश्यसि योगेशं ब्रह्माधिपतिमव्ययम्
प्रधानपुरुषेशानं_ वेदाहं परमेश्वरम्॥ ४२॥
यंन पश्यन्ति योगीद्धा: सांख्या अपि महेश्वरम् ।
अनादिनिधनं ब्रह्म तमेव शरणं ब्रज॥ ४३॥
प्ण्
आपने अपनी विजयकी आकांक्षासे इस समय यह
क्या किया (अपनी सभी इन्द्रियोंके द्वारोंको क्यों बंद
कर दिया ?) | एकमात्र मैं ही सबसे बड़ा बलशाली हूँ
और कोई नहीं है, मुझे कौन पराजित कर पायेगा 2॥ ३१॥
लोकनियामक ब्रह्माका वचन सुनकर नारायण
हरिने सान्त्वनापूर्वक यह मधुर वाक्य कहा--॥ ३२॥
आप ही धाता, विधाता और स्वयम्भू पितामह हैं।
(मैंने) ईर्ष्या-द्वेषके कारण अपने (शरीरके) द्वारोंको
बंद नहीं किया, अपितु लीला करनेकी इच्छासे ही मेंने
ऐसा किया न कि आपको बाधा पहुँचानेकी दृष्टिसे।
देवाधिदेव पितामह आपको भला कौन बाधा पहुँचाना
चाहेगा। आपको कुछ अन्यथा नहीं समझना चाहिये।
आप मेरे लिये सभी प्रकारसे मान्य हैं। मेरे द्वारा जो
आपका अपहरण हुआ है, उसमें आप सभी प्रकारसे
अपना कल्याण ही समझें। इसी कारण ब्रह्मन्! मेरी
प्रीतिकि लिये आप मेरे पुत्र बनें। जगन्मूर्ति! आप
“पद्मययोनि” इस नामसे विख्यात हों॥ ३३--३६॥
तदनन्तर भगवान् देव (ब्रह्मा)-ने किरीटी (विष्णु)-
को वर देकर अत्यन्त प्रसन्न होकर पुनः विष्णुसे
कहा-- ॥ ३७॥
आप सभीके आत्मरूप हैं, अनन्त हैं और सभीके
परम ईश्वर हैं। आप सभी प्राणियोंकी अन्तरात्मा हैं तथा
आप ही सनातन परकब्रह्म हैं। मैं ही सभी लोकोंकी
आत्मा एवं लोकमहेश्वर हूँ। यह सब कुछ मेरा ही
स्वरूप है। मैं परम पुरुष ब्रह्मा हूँ। हम दोनोंके
अतिरिक्त लोकोंका परमेश्वर दूसरा अन्य कोई नहीं है,
नारायण और पितामहके रूपमें एक मूर्ति ही दो भागोंमें
विभक्त हुई है॥ ३८--४० ॥
उनके (ब्रह्माके) द्वारा ऐसा कहे जानेपर वासुदेव
ब्रह्मासे इस प्रकार बोले--यह प्रतिज्ञा*॑ आपके विनाशका
कारण बनेगी। क्या आप ब्रह्माधिपति योगेश्वर, अव्यय
एवं प्रधान पुरुष ईशान (शंकर)-को नहीं देख रहे हैं?
मैं उन परमेश्वरको जानता हूँ। योगीन्द्र तथा सांख्यशास्त्रके
ज्ञाता भी जिन महेश्वरका दर्शन नहीं कर पाते, आप
उन्हीं अनादिनिधन ब्रह्मकी शरण ग्रहण करें॥ ४१--४३ ॥
* हम दोनोंके अतिरिक्त दूसरा परमेश्वर नहीं है-यह प्रतिज्ञा।
५८
ततः क्रुद्धो5म्बुजाभाक्षं ब्रह्मा प्रोवाच केशवम्।
भवान् न नूनमात्मानं वेत्ति तत् परमक्षरम्॥ ४४॥
ब्रहद्माणं जगतामेकमात्मानं परमं॑ पदम्।
नावाभ्यां विद्यते हानयो लोकानां परमेश्वर: ॥ ४५॥
संत्यज्य निद्रां विपुलां स्वमात्मानं विलोकय ।
तस्य तत् क्रोधजं वाक्य श्रुत्वा विष्णुरभाषत॥ ४६ ॥
मा मैवं वद कल्याण परिवादं महात्मन:।
न मेउस्त्यविदितं ब्रह्मन् नान््यथाहं वदामि ते॥ ४७॥
किन्तु मोहयति ब्रह्मन् भवन्तं पारमेश्वरी।
मायाशेषविशेषाणां हेतुरात्मसमुद्धवा॥ ४८ ॥
एतावदुक्त्वा भगवान् विष्णुस्तृष्णी बभूव ह।
ज्ञात्वा तत् परमं तत्त्वं स्वमात्मानं महे श्वरम्॥ ४९ ॥
कुतो5प्यपरिमेयात्मा भूतानां परमेश्वर: ।
प्रसादं ब्रह्मणे कर्तु प्रादुरासीत् ततो हर:॥ ५०॥
ललाटनयनो5नन्तो जटामण्डलमण्डित:।
त्रिशूलपाणिर्भगवांस्तेजसां परमो निधि:॥ ५१॥
दिव्यां विशालां ग्रथितां ग्रहैः सार्केन्दुतारके: ।
मालामत्यद्भुताकारां धारयन् पादलम्बिनीम्॥ ५२॥
ते दृष्ठा देवमीशानं ब्रह्मा लोकपितामह:।
मोहितो माययात्यर्थ पीतवाससमतब्रवीत्॥ ५३॥
क एघ पुरुषो5नन्तः शूलपाणिस्त्रिलोचन: ।
तेजोराशिरमेयात्मा समायाति जनार्दन॥ ५४॥
तस्य तद वचन श्रुत्वा विष्णुर्दानवमर्दन:।
अपश्यदीश्वरं देवं ज्वलन्तं विमले5म्भसि॥ ५५॥
ज्ञात्वा तत्परमं भावमैश्वर॑ ब्रह्मभावनम्।
प्रोवाचोत्थाय भगवान् देवदेवं पितामहम्॥ ५६॥
अय॑ देवो महादेव: स्वयंज्योति: सनातनः।
अनादिनिधनो5चिन्त्यो लोकानामीश्वरो महान्॥ ५७॥
न कूर्मपुराण पु
तदनन्तर क्रुद्ध ब्रह्माने कमलकी आभाके समान
नेत्रवाले केशवसे कहा--निश्चित ही आप अपने-आपको
वह परम अक्षर, जगत्का एकमात्र आत्मरूप, ब्रह्मरूप,
परम पद (शरण) नहीं जान रहे हैं। हम दोनोंके
अतिरिक्त लोकोंका परमेश्वर और दूसरा कोई विद्यमान
नहीं है। आप दीर्घ निद्राका परित्याग कर अपने-
आपको देखें (पहचानें) । उनके (ब्रह्माके) इस क्रोधयुक्त
वचनको सुनकर विष्णुने कहा--हे कल्याण! इस प्रकार
न कहें, इस प्रकार न कहें, (यह उन) महात्माकी निन््दा
है। ब्रह्मन्! मेरे लिये कुछ भी अज्ञात नहीं है, मैं आपसे
असत्य नहीं कह रहा हूँ। किंतु ब्रह्मन्! आत्मासे समुद्भूत
समस्त विशेषोंकी हेतुभूत परमेश्वरकी माया ही आपको
मोहित कर रही है॥ ४४--४८ ॥
इतना कहकर भगवान् विष्णु अपने आत्मरूप
महेश्वरको उस सर्वुोत्कृष्ट परम तत्त्वके रूपमें जानकर
चुप हो गये ॥ ४९॥
तदनन्तर ब्रह्माके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये
प्राणियोंके परम ईश्वर अपरिमेयात्मा (असीम सामर्थ्यसम्पन्न)
हर (भगवान् शंकर) वहाँ प्रादुर्भूत हो गये। उन अनन्त
(भगवान् शंकर)-के ललागमें नेत्र था। वे जटामण्डलसे
सुशोभित थे। तेजके परम निधि वे भगवान् हाथमें त्रिशूल
लिये थे। उन्होंने सूर्य, चन्द्रमा, ग्रहों तथा नक्षत्रोंसे गुँथी
हुई अद्भुत आकारवाली चरणोंतक लटकती हुई लम्बी दिव्य
विशाल मालाको धारण कर रखा था॥५०--५२॥
उन ईशानदेवको देखकर मायासे अत्यन्त मोहित
लोकपितामह ब्रह्माने (अपनी रक्षाके लिये) पीताम्बरधारी
(विष्णु)-से कहा--हे जनार्दन! हाथमें त्रिशूल धारण
किये, त्रिनेत्रधारी, तेजकी राशिरूप, अमेयात्मा यह कौन
अनन्त पुरुष (यहाँ) चला आ रहा है॥ ५३-५४॥
उनके (ब्रह्माके) इस वचनको सुनकर दानवोंका
मर्दन करनेवाले विष्णुने निर्मल जलमें देदीप्यमान देव
ईश्वरको देखा। ईश्वर-सम्बन्धी उस परम भावरूप
ब्रह्मभावको जानकर (महेश्वरमें परम तत्त्वका दर्शनकर)
भगवान् (विष्णु) उठकर गये और देवदेव पितामहसे
कहने लगे--॥ ५५-५६ ॥
ये देव स्वयं प्रकाशित होनेवाले, सनातन, आदि
और अन्तसे रहित, अचिन्त्य, महान, समस्त लोकोंके
ईश्वर महादेव हैं॥५७॥
* अध्याय ९ *
शंकर: शम्भुरीशान: सर्वात्मा परमेश्वर: ।
भूतानामधिपो योगी महेशो विमल: शिव: ॥ ५८ ॥
एष धाता विधाता च प्रधानपुरुषेश्वरः ।
यं प्रपश्यन्ति यतयो ब्रह्मभावेन भाविता:॥ ५९॥
सृजत्येष जगत् कृत्स्न॑ पाति संहरते तथा।
कालो भूत्वा महादेव: केवलो निष्कल: शिव: ॥ ६०॥
ब्रह्माणं विदधे पूर्व भवन्तं य: सनातन: ।
बेदांश्व प्रददौ तुभ्यं सोडयमायाति शंकर: ॥ ६१ ॥
अस्यैव चापरां मूर्ति विश्वयोनिं सनातनीम्।
वासुदेवाभिधानां मामवेहि प्रपितामह॥ ६२ ॥
कि न पश्यसि योगेशं ब्रह्माधिपतिमव्ययम् |
दिव्यं भवतु ते चक्षुर्येन द्रक्ष्यसि तत्परम्॥ ६३॥
लब्ध्वा शैवं तदा चक्षुविष्णोलॉकपितामह: ।
बुबुधे परमेशानं पुरतः समवस्थितम्॥ ६४॥
स लब्ध्वा परमं ज्ञानमैश्वरं प्रपितामहः।
प्रपेदे शरणं देवं॑ तमेव पितरं शिवम्॥ ६५७॥
ओकारं समनुस्मृत्य संस्तभ्यात्मानमात्मना।
अथर्वशिरसा देवं तुष्टाव च कृताउजलि: ॥ ६६॥
संस्तुतस्तेन भगवान् ब्रह्मणा परमेश्वर: ।
अवाप परमां प्रीतिं व्याजहार स्मयन्निव॥ ६७॥
मत्समस्त्वं न संदेहो मद्धक्तश्च यतो भवान्।
मयैवोत्पादित: पूर्व लोकसृष्ठयर्थमव्ययम्॥ ६८ ॥
त्वमात्मा ह्यादिपुरुषो मम देहसमुद्धवः।
वरं॑ वरय विश्वात्मन् वरदो5हं॑ तवानघ॥ ६९॥
स॒ देवदेववचनं निशम्य कमलोद्धवः।
निरीक्ष्य विष्णुं पुरुष प्रणम्याह वृषध्वजम्॥ ७०॥
भगवन् भूतभव्येश महादेवाम्बिकापते।
त्वामेव पुत्रमिच्छामि त्वया वा सदृशं सुतम्॥ ७१॥
५७
ये शंकर, शम्भु, ईशान, सर्वात्मा, परमेश्वर, समस्त
प्राणियोंके एकमात्र स्वामी, योगी, महेश, विमल एवं शिवरूप
(कल्याणरूप) हैं।ये ही धाता, विधाता, प्रधान पुरुष और
ईश्वर हैं। यतिजन (संन्यासी लोग) ब्रह्मकी भावनासे भावित
होकर जिनका दर्शन करते हैं वे ही केवल, निष्कल, महादेव
शिव काल बनकर सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करते हैं, रक्षा
करते हैं और संहार करते हैं ॥ ५८--६० ॥
ये वे ही शंकर आ रहे हैं, जिन सनातन (देव)-
ने पूर्वकालमें आप ब्रह्माकों बनाया और आपको वेद
प्रदान किया। प्रपितामह! मुझे इनकी ही विश्वयोनि,
सनातन एवं वासुदेव नामवाली दूसरी मूर्ति समझो। क्या
आप ब्रह्माके भी अधिपति, अव्यय योगेश्वरको नहाँ
देख रहे हैं ? आपकी दिव्य दृष्टि हो जाय, जिससे आप
उस परम (तत्त्व)-को देख सकें॥ ६१--६३ ॥
विष्णुसे इस प्रकार शैव-नेत्र (शिव-सम्बन्धी ज्ञान)
प्रातकर लोक-पितामह (ब्रह्मा)-ने सामने अवस्थित परम
ईशानको जाना। उन प्रपितामह ( ब्रह्मा)-ने ईश्वर-सम्बन्धी
परम ज्ञान प्राप्तकर उन्हीं पितृरूप देव शिवकी शरण
ग्रहण की। ओंकार (तत्त्व)-का अनुस्मरणकर और
आत्माद्वारा मनका निरोधकर उन्होंने अथर्ववेदके मन्त्रोंसे
हाथ जोड़ते हुए (उन) देवकी प्रार्थना की ॥ ६४--६६ ॥
उन ब्रह्माके द्वारा स्तुति किये जानेपर भगवान्
परमेश्वर (शिव)-को परम प्रीति प्राप्त हुई और वे
मुसकराते हुए (इस प्रकार) बोले--॥ ६७॥
तुम मेरे भक्त हो, इसलिये निःसंदेह तुम मेरे ही
समान हो। मेरे द्वारा ही पहले संसारकी सृष्टि करनेके
लिये तुम अव्ययको उत्पन्न किया गया था। मेरी देहसे
उत्पन्न तुम (मेरी ही) आत्मा और आदि पुरुष हो। हे
अनघ! विश्वात्मन्! वर माँगो। मैं तुम्हें वर प्रदान
करूँगा ॥ ६८-६९ ॥
कमलसे उत्पन्न उन ब्रह्माने देवाधिदेव (शंकर)-
के इस वचनको सुनकर विष्णुकी ओर देखा और उन
(परम) पुरुष वृषध्वज (शंकर)-को प्रणामकर उनसे
कहा-- ॥ ७० ॥
है भगवन्! भूत एवं भविष्यके स्वामी! महादेव!
अम्बिकाके पति! मैं आपको ही पुत्र-रूपमें अथवा
आपके ही समान पुत्र प्राप्त करनेकी इच्छा करता हूँ॥ ७१॥
५८
मोहितो5स्मि महादेव मायया सूक्ष्मया त्वया।
न जाने परमं भावं याथातथ्येन ते शिव॥ ७२॥
त्वमेव देव भक्तानां भ्राता माता पिता सुहत्।
प्रसीद तव पादाब्ज॑ नमामि शरणं गत:॥ ७३॥
स तस्य वचन श्रुत्वा जगन्नाथो वृषध्वज:।
व्याजहार तदा पुत्र॑ समालोक्य जनार्दनम्॥ ७४॥
यदर्थितं भगवता तत् करिष्यामि पुत्रक।
विज्ञानमैश्वर॑ दिव्यमुत्पत्स्यति तवानघ॥ ७५ ॥
त्वमेव सर्वभूतानामादिकर्ता नियोजित: ।
तथा कुरुष्व देवेश मया लोकपितामह॥ ७६॥
एष नारायणो5नन्तो ममैव परमा तनुः।
भविष्यति तवेशानो योगक्षेमवहो हरि:॥ ७७॥
एवं व्याहत्य हस्ताभ्यां प्रीतात्मा परमेश्वर: ।
संस्पृश्य देवं ब्रह्माणं हरिं वचनमत्रवीत्॥ ७८॥
तुष्टोडस्मि सर्वथाहं ते भक्त्या तव जगन्मय।
वर॑ वृणीष्व नह्मावां विभिन्नौ परमार्थत:॥ ७९॥
श्रुत्वाथ देववचनं विष्णुर्विश्वजगन्मय: ।
प्राह प्रसन्नया वाचा समालोक्य चतुर्मुखम्॥ ८०॥
एव एवं वरः एलाघ्यो यदहं परमेश्वरम्।
पश्यामि परमात्मानं भक्तिर्भवतु मे त्वयि॥ ८१॥
तथेत्युक्त्ता महादेव: पुनर्विष्णुमभाषत।
भवान् सर्वस्य कार्यस्य कर्ताहमधिदैवतम्॥ ८२॥
मन्मयं त्वन्मयं चैव सर्वमेतन्न संशय:।
भवान् सोमस्त्वहं सूर्यो भवान् रात्रिरहं दिनम्॥ ८३॥
भवान् प्रकृतिरव्यक्तमह॑ पुरुष एव च।
भवान् ज्ञानमहं ज्ञाता भवान् मायाहमी श्वर: ॥ ८४॥
भवान् विद्यात्मिका शक्ति: शक्तिमानहमी श्वरः ।
यो5हं सुनिष्कलो देव: सो5पि नारायण: परः ॥ ८५॥
एकीभावेन पश्यन्ति योगिनो ब्रह्मवादिन: ।
त्वामनाश्रित्य विश्वात्मन् न योगी मामुपेष्यति।
पालयैतजगत् कृत्स्नं॑ सदेवासुरमानुषम्॥ ८६॥
न कूर्मपुराण न
महादेव! में आपकी सूक्ष्म मायाद्वारा मोहित कर
लिया गया हूँ। शिव! मैं आपके परम भावको यथार्थ-
रूपमें नहीं जानता हूँ। देव! आप ही भक्तोंके माता-
पिता, भाई तथा मित्र हैं। आप प्रसन्न हों। में आपके
चरणकमलोंमें प्रणाम करता हूँ और आपकी शरण ग्रहण
करता हूँ॥ ७२-७३ ॥
तदनन्तर जगत्के स्वामी वृषध्वज (शंकर)-ने
उनके वचन सुनकर पुत्र (रूप) जनार्दन (विष्णु)-कौ
ओर देखकर (ब्रह्मासे) कहा-- ॥ ७४॥
हे पुत्रक! तुमने जेसी इच्छा की है मैं वैसा ही
करूँगा। अनघ! तुम्हें ईश्वर-सम्बन्धी दिव्य ज्ञान प्राप्त
होगा। मेरे द्वारा तुम्हीं सभी प्राणियोंके प्रथम स्रष्टाके
रूपमें नियुक्त किये गये हो। अत: देवेश ! लोकपितामह !
तुम वैसा ही करो। ये नारायण एवं अनन्त (भगवान्
विष्णु) मेरी ही श्रेष्ठ मूर्ति हैं। ये ईशान हरि तुम्हारे
योग-क्षेमका वहन करनेवाले होंगे॥ ७५--७७ ॥
ऐसा कहकर प्रसनन्नचित्त परमेश्वर (शिव) -ने हाथोंसे
देव ब्रह्माका स्पर्शकर हरि (विष्णु)-से कहा--हे जगमन्मूर्ति!
तुम्हारी भक्तिसे मैं तुमपर सर्वथा प्रसन्न हूँ। वर माँगो।
तत्त्वत: हम दोनों भिन्न नहीं हैं ॥ ७८-७९ ॥
इसके बाद महादेवका वचन सुनकर विश्वमय,
जगन्मय विष्णुने चतुर्मुख ब्रह्माकी ओर देखकर प्रीतियुक्त
वाणीमें (महादेवसे) कहा--मेरे लिये यही श्लाघनीय
वर है कि मैं आप परमेश्वर परमात्माका दर्शन कर रहा
हूँ। मेरी आपमें भक्ति हो॥८०-८१॥
“ऐसा ही हो', यह कहकर महादेवने पुन: विष्णुसे
कहा--आप सभी कार्योके कर्ता हैं और में अधिदेवता
हूँ। यह सब कुछ मेरा और आपका ही रूप है, इसमें
कोई संदेह नहीं है। आप चन्द्रमा हैं, मैं सूर्य हूँ। आप
रात्रि हैं, मैं दिन हूँ। आप प्रकृति हैं और मैं ही अव्यक्त
पुरुष हूँ। आप ज्ञानरूप हैं और मैं ज्ञाता हूँ,आप मायारूप
हैं और मैं ईश्वर हूँ। आप विद्यात्मिका शक्ति हैं, मैं
शक्तिमान् ईश्वर हूँ और निष्कल देव परस्वरूप
नारायण भी मैं ही हूँ॥ ८२--८५॥
ब्रह्मवादी योगी (हम दोनोंको) एक भावसे ही देखते
हैं। हे विश्वात्मन्! बिना आपका आश्रय ग्रहण किये योगी
मुझे प्राप्त नहीं कर सकते हैं। आप देवता, असुर तथा मनुष्योंसे
युक्त इस सम्पूर्ण जगत्का पालन करें॥ ८६॥
* अध्याय १० *
इतीदमुक्त्वा भगवाननादि:
स्वमायया मोहितभूतभेद: ।
जगाम जन्मर्थिविनाशहीनं
धामेकमव्यक्तमनन्तशक्ति: ॥ ८७॥
५९
ऐसा कहकर अपनी मायासे सम्पूर्ण प्राणियोंको
मोहित करनेवाले अनादि एवं अनन्तशक्तिसम्पन्न भगवान्
जन्म, विकास एवं विनाशसे रहित (अपने) अव्यक्त
धाम (स्थान)-को चले गये॥ ८७॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहर्त्रयां संहितायां पूर्ववक््थिगे नवमोउध्याय: ॥ ९ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें नवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ९॥
दसवा अध्याय
विष्णुद्दारा मधु तथा कैटभका वध, नाभिकमलसे ब्रह्माकी उत्पत्ति तथा उनके द्वारा सनकादिकी
सृष्टि, ब्रह्मासे रुद्रकी उत्पत्ति, रुद्रकी अष्टमूर्तियों, आठ नामों तथा आठ पत्नियोंका
वर्णन, रुद्रके द्वारा अनेक रुद्रोंकी उत्पत्ति तथा पुनः वैराग्य ग्रहण करना,
ब्रह्माद्वारा रुद्रकी स्तुति तथा माहात्म्य-वर्णन, रुद्रद्वारा ब्रह्माको ज्ञानकी प्राप्ति,
महादेवका त्रिमूर्तित्व और ब्रह्माद्वारा अनेक प्रकारकी सृष्टि
श्रीकूर्म उवाच
गते महेश्वेर देवे स्वाधिवासं पितामहः।
तदेव सुमहत् पद्ां भेजे नाभिसमुत्थितम्॥ १॥
अथ दीर्घेण कालेन तत्राप्रतिमपौरुषौ।
महासुराौ समायातौ भ्रातरा मधुकैटभौ॥ २॥
क्रोधेन महताविष्टी महापर्वतविग्रहो।
कर्णान्तरसमुदभूती देवदेवस्यथ शाहद्धिण:॥ ३॥
तावागतौ समीक्ष्याह नारायणमजो विभु:ः।
त्रैलोक्यकण्टकावेतावसुराी हन्तुमरहसि॥ ४॥
तस्य तद् वचन श्रुत्वा हरिनारायण: प्रभु: ।
आज्ञापयामास॒ तयोर्वधार्थ पुरुषावुभौ ॥ ५॥।
तदाज्ञया महद्युद्धं तयोस्ताभ्यामभूद् द्विजा:।
व्यनयत् कैटभं विष्णुर्जिष्णुश्व व्यनयन्मधुम्॥ ६॥
ततः पद्मासनासीनं॑ जगन्नाथं पितामहम।
बभाषे मधुरं वाक्य स्नेहाविष्टमना हरिः॥ ७॥
अस्मान्मयोच्यमानस्त्व॑ पद्मादवतर प्रभो।
नाहं भवन्तं शक््नोमि बोदढुं तेजोमयं गुरुम्॥ ८ ॥
श्रीकूर्मने कहा--महेश्वर देवके अपने निवास-
स्थानपर चले जानेके बाद पितामह (ब्रह्मा), (भगवान्
विष्णुकी) नाभिसे उत्पन्न उसी विशाल सुन्दर कमलपर
रहने लगे॥ १॥
एक लम्बा समय व्यतीत हो जानेपर वहाँ अतुलित
शक्तिवाले मधु तथा कैटभ नामक दो असुर आये, जो
परस्पर भाई थे। देवोंके भी देव शार्ध्र्धारी भगवान्
विष्णुके कानसे उत्पन्न तथा विशाल पर्वतके समान
शरीरवाले और महान् क्रोधसे आविष्ट उन दोनों (मधु-
कैटभ)-को आया हुआ देखकर अजन्मा, विभु (ब्रह्मा)-
ने नारायणसे कहा--ये दोनों असुर तीनों लोकोंके लिये
कण्टक हैं, आप इन्हें मारें॥ २--४॥
उनके इस वचनको सुनकर प्रभु नारायण हरिने उन
दोनोंका वध करनेके लिये (जिष्णु तथा विष्णु नामक)
दो पुरुषोंको आज्ञा दी॥५॥
हे ब्राह्मणो! उनकी आज्ञासे उन (विष्णु तथा
जिष्णु)-से उन दोनों (मधु-कैटभ) असुरोंका महान्
युद्ध हुआ। विष्णुने कैटभको जीता और जिष्णुने मधुको
जीता। तदनन्तर स्नेहसे आविष्ट मनवाले हरिने कमलके
आसनपर आसीन तथा जगन्नाथ पितामहसे मधुर वचन
कहा-- ॥ ६-७॥
प्रभो! मेरे कहनेसे आप अब इस कमलसे नीचे उतरें।
तेजोमय, बहुत भारी आपको ढोनेमें मैं असमर्थ हूँ॥ ८ ॥
६०
नः कूर्मपुराण न
ततो5वतीर्य विश्वात्मा देहमाविश्य चक्रिण: ।
अवाप वैष्णवीं निद्रामेकीभूयाथ विष्णुना॥ ९ ॥
सहस्त्रशीर्षनयनः शट्डुचक्रगदाधर: ।
ब्रह्मा नारायणाख्यो5सौ सुष्वाप सलिले तदा॥ १०॥
सोउ5नुभूय चिरं कालमानन्दं परमात्मन:।
अनाचहानन्तमद्देतं॑ स्वात्मानं ब्रह्मसंज्ञितम्॥ ११॥
ततः प्रभाते योगात्मा भूत्वा देवश्चतुर्मुख: ।
ससर्ज सृष्टि तद्गरूपां वैष्णवं भावमाओअरित:॥ १२॥
पुरस्तादसृजद् देव: सननन््दं सनक॑ तथा।
ऋभुं सनत्कुमारं च पूर्वजं॑ तं सनातनम्॥ १३॥
ते दन्द्दमोहनिर्मुक्ता: परं बैराग्यमास्थिता:।
विदित्वा परम भावं न सृष्टो दधिरे मतिम्॥ १४॥
तेष्वेव॑ निरपेक्षेषु लोकसृष्टी पितामह: ।
बभूव नष्टचेता वे मायया परमेष्ठिन:॥ १५॥
ततः पुराणपुरुषो जगम्मूर्तिर्जनार्दनः।
व्याजहारात्मन: पुत्र॑ मोहनाशाय पद्मजम्॥ १६॥
विष्णुर॒ुवाच
कच्चिन्न विस्मृतो देव: शूलपाणि: सनातन: ।
यदुक्तवानात्मनोइसौ पुत्रत्वे तब शंकर: ॥ १७॥
अवाप्य संज्ञां गोविन्दात् पदायोनि: पितामह: ।
प्रजा: सरत्रष्टमनास्तेपे तपः परमदुश्चरम्॥ १८॥
तस्यैवं तप्यमानस्य न किडिचत् समवर्तत।
ततो दीर्घेण कालेन दुःखात् क्रोधो5भ्यजायत ॥ १९॥
क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दव: ।
ततस्तेभ्यो5 श्रुबिन्दुभ्यो भूता: प्रेतास्तथाभवन्॥ २० ॥
सर्वास्तानश्रुजान् दृष्ठा ब्रह्मात्मानमनिन्दत।
जहीौ प्राणांश्र भगवान् क्रोधाविष्ट: प्रजापति: ॥ २१॥
तदा प्राणमयो रुद्रः प्रादुरासीत् प्रभोर्मुखात्।
सहस्रादित्यसंकाशो. युगान्तदहनोपम: ॥ २२॥
तब विश्वात्मा (ब्रह्मा) नीचे उतरे और चक्र धारण
करनेवाले विष्णुकी देहमें प्रविष्ट होकर वैष्णवी निद्राको
प्राप्त हो गये। इस प्रकार विष्णुसे उनकी एकात्मता हो
गयी ॥ ९॥
तब हजारों सिर तथा हजारों नेत्रवाले और शट्डु, चक्र
एवं गदा धारण करनेवाले वे नारायण नामवाले ब्रह्मा
जलमें सो गये। उन्होंने बहुत समयतक परमात्माके
अनादि, अनन्त, आत्मस्वरूप, ब्रह्मसंज्ञक अद्वेत आनन्दका
अनुभव किया। तदनन्तर प्रभातकाल होनेपर योगात्मा देव
चतुर्मुख होकर और वैष्णव भावका आश्रय ग्रहणकर
उसी प्रकारकी (वैष्णवी) सृष्टि करने लगे॥ १०--१२॥
उन देवने सर्वप्रथम पूर्वजोंके भी पूर्वज सनन्दन,
सनक, ऋभु, सनत्कुमार तथा सनातनको उत्पन्न किया।
(सुख-दुःख आदि) द्वन्द्व एवं मोह (आसक्ति)-से
सर्वथा शून्य एवं परम वैराग्यभावमें स्थित इन सनक
आदि ऋषियोंने परम तत्त्वको जानकर सृष्टिकार्यमें
अपनी बुद्धि नहीं लगायी। उन (सनकादि)-के इस
प्रकारके लोक-सृष्टिसे सर्वथा निरपेक्षभमावको देखकर
पितामह (ब्रह्मा) परमेष्ठी (परमात्मा-जनार्दन)-कौ
मायासे मोहित हो गये। तब जगमन्मूर्ति, पुराणपुरुष,
जनार्दनने (नाभि) कमलसे उत्पन्न अपने पुत्र (ब्रह्मा)-
का मोह नष्ट करनेके लिये उनसे कहा-- ॥ १३--१६॥
विष्णु बोले--कहीं आप शूलपाणि सनातन-
देवको भूल तो नहीं गये ? उन शंकरने अपनेको आपके
पुत्र-रूपमें होनेकी बात कही थी॥ १७॥
गोविन्दसे चेतना प्रात्तकर पद्मययोनि पितामह प्रजाकौ
सृष्टि करनेकी इच्छासे परम दुश्चर तप करने लगे।
उनके इस प्रकार (दीर्घकालतक) तप करनेपर (भी)
किसी भी प्रकारकी सृष्टि नहीं हुई। बहुत समय बीत
जानेपर उन्हें दुःखसे क्रोध उत्पन्न हुआ॥ १८-१९॥
क्रोधाविष्ट उनके (ब्रह्माके) नेत्रोंसे आँसूकी बूँदं
गिरीं। तब उन आँसुओंकी बूँदोंसे भूत-प्रेत उत्पन्न हुए।
आँसुओंसे उत्पन्न उन सब (भूत-प्रेतों)>को देखकर
क्रोधाविष्ट प्रजापति भगवान् ब्रह्माने अपनी ही निन््दा
की और अपने प्राणोंका परित्याग कर दिया॥ २०-२१॥
तदनन्तर प्रभुके मुखसे हजारों सूर्यके समान देदीप्य-
मान तथा प्रलयकालीन अग्निके सदृश प्राणमय रुद्र
प्रकट हुए॥ २२॥
* अध्याय ९० *
रुरोद सुस्वरं घोरं देवदेव: स्वयं शिव:।
रोदमानं ततो ब्रह्मा मा रोदीरित्यभाषत।
रोदनाद् रुद्र इत्येवं लोके ख्यातिं गमिष्यसि॥ २३॥
अन्यानि सप्त नामानि पत्नी: पुत्रांश्व शाश्वतान्।
स्थानानि चेषामष्टानां ददौ लोकपितामह: ॥ २४॥
भव: शर्वस्तथेशान: पशूनां पतिरेव च।
भीमश्चोग्रो महादेवस्तानि नामानि सप्त वै॥ २५॥
सूर्यो जलं मही वह्विर्वायुराकाशमेव च।
दीक्षितो ब्राह्मणश्चन्द्र इत्येता अष्ट्रमूर्तय:ः॥ २६॥
स्थानेष्वेतेषु ये रुद्रं ध्यायन्ति प्रणमन्ति च।
तेषामष्टतनुर्देवो ददाति परम पदम्॥ २७॥
सुवर्चला तथेवोमा विकेशी च तथा शिवा।
स्वाहा दिशश्च दीक्षा च रोहिणी चेति पत्नय: ॥ २८ ॥
शनैश्वरस्तथा शुक्रो लोहिताड़ो मनोजव:।
स्कन्दः सर्गो5थ संतानो बुधश्चैषां सुता: स्मृता: ॥ २९॥
एवम्प्रकारो भगवान् देवदेवो महेश्वरः ।
प्रजाधर्म च काम॑ च त्यक्त्वा वैराग्यमाश्रित: ॥ ३० ॥
आत्मन्याधाय चात्मानमैश्वरं भावमास्थित: ।
पीत्वा तदक्षरं ब्रह्म शाश्वतं परमामृतम्॥ ३१॥
प्रजा: सृजेति चादिष्टो ब्रह्मणा नीललोहित: ।
स्वात्मना सदृशान् रुद्रान ससर्ज मनसा शिव: ॥ ३२॥
कर्पर्दिनो निरातझ्वानू नीलकण्ठान् पिनाकिन: ।
त्रिशूलहस्तानुष्टिप्तान् महानन्दांस्त्रिलोचनानू॥ ३३॥
जरामरणनिर्मुक्ताना महावृषभवाहनान्।
बीतरागांश्व सर्वज्ञान् कोटिकोटिशतान् प्रभु: ॥ ३४॥
तान् दृष्ठा विविधान् रुद्रान् निर्मलान्ू नीललोहितान्।
६१
देवोंके भी देव स्वयं शिव उच्च स्वरमें घोर रुदन
करने लगे। तब रुदन करते हुए उनसे ब्रह्माने “मत
रोओ'--इस प्रकारसे कहा। तुम रुदन करनेके कारण
'रुद्र' इस नामसे संसारमें प्रसिद्धि प्राप्त करोगे॥ २३॥
लोकपितामहने (उन्हें रुद्रके अतिरिक्त) अन्य सात
नाम, (आठ) पत्नियाँ, शाश्वत (दीर्घायु) पुत्र और
आठ स्थानों* (मूर्तियों)-को प्रदान किया॥ २४॥
भव, शर्व, ईशान, पशुपति, भीम, उग्र तथा महादेव--
ये सात नाम हैं। सूर्य, जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु,
आकाश, दीक्षित ब्राह्मण तथा चन्द्र--ये (रुद्रकी) आठ
मूर्तियाँ हैं॥ २५-२६ ॥
जो इन आठ स्थानों (मूर्तिरूपों)-में रुद्रका ध्यान
करते हैं और उन्हें प्रणाम करते हैं, उन्हें अधष्टमूर्तिरूप
देव (भगवान् शिव अपना) परम पद देते हैं॥ २७॥
सुवर्चला, उमा, विकेशी, शिवा, स्वाहा, दिशाएँ,
दीक्षा तथा रोहिणी--ये ही (रुद्रकी आठ) पत्नियाँ हैं।
शनैश्चर, शुक्र, लोहिताड़ (मंगल), मनोजव (कामदेव),
स्कन्द, सर्ग, संतान तथा बुध--ये (आठ उनके) पुत्र
कहे गये हैं॥ २८-२९॥
इस प्रकारके देवाधिदेव भगवान् महेश्वरने प्रजाधर्म
(सृष्टिकार्य) एवं काम (वासना)-का परित्यागकर
वैराग्यका आश्रय ग्रहण किया । उस शाश्वत, परम अमृतरूपी
अक्षर ब्रह्मका आस्वादनकर और आत्मामें आत्मतत्त्वका
आधानकर वे ईश्वरभावमें स्थित हो गये॥ ३०-३१॥
ब्रह्माके द्वारा 'प्रजाकी सृष्टि करो” इस प्रकारका
आदेश प्राप्कर नीललोहित शिवने मनसे अपने ही
समान रुद्रोंकी सृष्टि की॥ ३२॥
प्रभुने सैकड़ों करोड़ जटाजूट धारण करनेवाले,
भयरहित, नीलकण्ठ, पिनाकपाणि, हाथमें त्रिशुल धारण
किये, ऋष्टिष्न, महान् आनन्दस्वरूप, तीन नेत्रयुक्त,
जरा-मरणसे रहित, विशाल वृषभोंको वाहनरूपमें
स्वीकार करनेवाले सर्वज्ञ तथा बीतराग (रुद्रों)-को
उत्पन्न किया॥ ३३-३४ ॥
गुरु (ब्रह्मा)-ने जरा-मरणसे रहित, नीललोहित
एवं निर्मल उन अनेक रुद्रोंको देखकर हर (शिव)-
जरामरणनिर्मुक्तान् व्याजहार हर॑ गुरु:॥ ३५॥ | से कहा॥ ३५॥
* ये आठ स्थान सूर्य, जल आदि आगे गिनाये गये हैं। इनमें रुद्रका निवास है। इसीलिये ये आठ रुद्रकी मूर्ति माने जाते हैं।
६२
मा स्त्राक्षीरीदृशीर्देव प्रजा मृत्युविवर्जिता:।
अन्या: सृजस्व भूतेश जन्ममृत्युसमन्विता: ॥ ३६ ॥
ततस्तमाह भगवान् कपदी कामशासन: |
नास्ति मे तादूशः सर्ग: सृज त्वमशुभा: प्रजा: ॥ ३७॥
ततः प्रभृति देवोडसौ न प्रसूतेडशुभा: प्रजा: ।
स्वात्मजेरेव ते रुद्रैर्निवत्तात्मा हातिष्ठत।
स्थाणुत्वं तेन तस्यासीद् देवदेवस्य शूलिन: ॥ ३८ ॥
ज्ञानं वेराग्यमैश्वर्य तपः सत्यं क्षमा धृति:।
सत्रष्टत्वमात्मसम्बोधो हाथिष्ठातृत्वमेव च॥ ३९॥।
अव्ययानि दशैतानि नित्य॑ तिष्ठन्ति शंकरे।
स एव शंकर: साक्षात् पिनाकी परमेश्वर: ॥ ४० ॥
ततः स भगवान् ब्रह्मा वीक्ष्य देवं त्रिलोचनम्।
सहैव मानसे: पुत्रे: प्रीतिविस्फारिलोचन: ॥ ४१॥
ज्ञात्वा परतरं भावसमैश्वचरं ज्ञानचक्षुषा।
तुष्टाव जगतामेकं॑ कृत्वा शिरसि चाउजलिम्ू॥ ४२ ॥
ब्रह्मोवाच
नमस्तेउस्तु महादेव नमस्ते परमेश्वर।
नमः शिवाय देवाय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे॥ ४३॥
नमोस्तु ते महेशाय नमः शान्ताय हेतवे।
प्रधानपुरुषेशाय. योगाधिपतये नमः ॥ ४४॥
नमः कालाय रुद्राय महाग्रासाय शूलिने।
नमः पिनाकहस्ताय त्रिनेत्राय नमो नमः॥ ४५॥
नमस्त्रिमूर्तये तुभ्यं ब्रह्मणो जनकाय ते।
ब्रह्मविद्याधिपतये.. ब्रह्मविद्याप्रदायिने ॥ ४६ ॥
मं कूर्मपुराण मः
हे देव! मृत्युसे रहित इस प्रकारकी सृष्टि मत
करो। भूतेश! जन्म एवं मृत्युवाली दूसरी प्रकारकी
सृष्टि करो॥ ३६॥
तदनन्तर कामपर शासन करनेवाले जटाजूटधारी
भगवान् (शिव)-ने उनसे कहा--मेरे पास उस प्रकारकी
(जन्म-मृत्युसे युक्त) सृष्टि नहीं है। (ऐसी) अशुभ
प्रजाओंको आप ही उत्पन्न करें| तबसे उन देवने अशुभ
प्रजाओंकी सृष्टि नहीं की। (और) अपने आत्मज उन
रुद्रोंके साथ वे निवृत्तात्मा (क्रियारहित)-के रूपमें
स्थित हो गये। इसी कारण देवोंमें देव उन शूलधारी
(शंकर) -का स्थाणुत्व हुआ (अर्थात् वे 'स्थाणु” इस
नामसे प्रसिद्ध हो गये)॥ ३७-३८ ॥
भगवान् शंकरमें ज्ञान, वेराग्य, ऐश्वर्य, तप, सत्य,
क्षमा, धृति, स्रष्टत्व, आत्मज्ञान तथा अधिष्ठातृत्व-
ये दस अव्यय (शाश्वत) गुण सदा प्रतिष्ठित रहते हैं।
ये पिनाक धारण करनेवाले शंकर ही साक्षात् परमेश्वर
हैं ॥ ३९-४० ॥
तदनन्तर प्रीतिसे विकसित नेत्रवाले भगवान ब्रह्मने
तीन नेत्रोंबाले देव (शंकर)-को मानस पुत्रोंके साथ
देखा। ब्रह्माने अपनी ज्ञान-दृष्टिसे ईश्वर-सम्बन्धी परात्पर
भावको जानकर जगत्के एकमात्र स्वामी (भगवान्
शंकर)-की अपने मस्तकपर हाथोंकी अंजलि बाँधकर
स्तुति की ॥ ४१-४२ ॥
ब्रह्मेने कहा--महादेव! आपको नमस्कार है।
परमेश्वर! आपको नमस्कार है। शिवको नमस्कार है।
ब्रह्मरूपी देवको नमस्कार है। महेश! आपको नमस्कार
है। शान्तिके मूलहेतु!ं आपको नमस्कार है। प्रधान
पुरुषेश।! आपको नमस्कार है तथा योगाधिपति आपको
नमस्कार है। काल, रुद्र, महाग्रास' तथा शूलीको
नमस्कार है। हाथमें पिनाक नामक धनुष धारण
करनेवाले आपको नमस्कार है। तीन नेत्रवालेको बार-बार
नमस्कार है। त्रिमूर्तिस्वरूप आपको नमस्कार है। त्रह्माके
उत्पत्तिकर्ता आपके लिये नमस्कार है। ब्रह्मविद्याके
अधिपति और ब्रह्मविद्या प्रदान करनेवाले आपको
नमस्कार है॥ ४३--४६ ॥
१-स्थाणु-ढूँठ। ढूँठकी ही तरह निष्क्रिय होनेसे शिवको स्थाणु कहा गया है।
२-महाप्रलयमें भगवान् शंकर समस्त प्राणियोंको अपनी गोदमें सुला लेते हैं--इसलिये महाग्रास कहे जाते हैं।
* अध्याय १५० *
नमो वेदरहस्याय कालकालाय ते नमः ।
वेदान्तस्साससाराय. नमो वेदात्ममूर्तये ॥ ४७॥
नमो बुद्धाय शुद्धाय योगिनां गुरवे नमः।
प्रहीणशोकेर्विविधेर्भूती: परिवृताय ते॥ ४८ ॥
नमो ब्रह्मण्यदेवाय ब्रह्माधिपतये नमः।
त्रियम्बकाय देवाय नमस्ते परमेष्ठिने ॥ ४९॥
नमो दिग्वाससे तुभ्यं नमो मुण्डाय दण्डिने।
अनादिमलहीनाय ज्ञानगम्याय ते नमः:॥ ५०॥
नमस्ताराय तीर्थाय नमो योगर्द्धिहेतवे।
नमो धर्माधिगम्याय योगगम्याय ते नमः: ॥ ५१ ॥
नमस्ते निष्प्रपज्ञाय निराभासाय ते नमः।
ब्रह्मणो विश्वरूपाय नमस्ते परमात्मने॥ ५२॥
त्वयैव सृष्टमखिलं त्वय्येव सकल॑ स्थितम्
त्वया संहियते विश्व प्रधानाद्य॑ जगन्मय॥ ५३॥
त्वमीश्वरो महादेव: पर ब्रह्म महेश्वरः।
परमेष्ठी शिव: शान्तः पुरुषो निष्कलो हर: ॥ ५४॥
त्वमक्षरं परं ज्योतिस्त्वं काल: परमेश्वर: ।
त्वमेव पुरुषोउनन्त: प्रधानं प्रकृतिस्तथा।॥ ५५॥
भूमिरापो5नलो वायुर्व्योमाहंकार एव च।
यस्य रूप॑ नमस्यामि भवन्तं ब्रह्मसंज्ञितम्॥ ५६ ॥
यस्य चयौरभवन्मूर्धा पादौ पृथ्वी दिशो भुजा:।
आकाशमुदरं॑ तस्मै विराजे प्रणमाम्यहम्॥ ५७॥
संतापयति यो विश्व स्वभाभिर्भासयन् दिश: ।
ब्रह्मतेजोमयं नित्यं तस्मे सूर्यात्मने नमः ॥ ५८ ॥
हव्यं बहति यो नित्य॑ रौद्री तेजोमयी तनुः।
कव्यं पितृगणानां च तस्मै वह्नयात्मने नम: ॥ ५९॥
आप्यायति यो नित्यं स्वधापम्ना सकलं जगत्।
पीयते देवतासंघेस्तस्मे सोमात्मने नमः॥६०॥
बिभर्त्यशेषभूतानि योउन्तश्वरति सर्वदा।
शक्तिमहिए्वरी तुभ्यं तस्मै वाय्वात्मने नम: ॥ ६१॥
धरे
वेदोंके रहस्यरूपको नमस्कार है। कालके भी काल
आपको नमस्कार है। वेदान्तसारके भी सारको नमस्कार
है। वेदात्ममूर्तिको नमस्कार है। शुद्ध-बुद्धस्वरूपको
नमस्कार है। योगियोंके गुरुको नमस्कार है। शोकोंसे
रहित विविध भूतोंसे घिरे हुए आपको नमस्कार है।
ब्रह्मण्यदेवको नमस्कार है। ब्रह्माधिपतिके लिये नमस्कार
है। त्रिलोचन परमेष्ठी देवको नमस्कार है॥ ४७--४९ ॥
दिगम्बर ! आपको नमस्कार है। मुण्ड (की माला)
एवं दण्ड धारण करनेवालेको नमस्कार है। अनादि
तथा मलरहित (शुद्धरूप ), ज्ञानगम्य आपको नमस्कार
हैं। तारक एवं तीर्थरूप तथा योगविभूतियोंके मूल
कारणको नमस्कार है। धर्म (धर्माचरण)-के द्वारा प्राप्य,
योगगम्य आपको नमस्कार है। निष्प्रप्बको नमस्कार
है। निराभास! आपको नमस्कार है। विश्वरूप ब्रह्म
परमात्माको नमस्कार है॥ ५०-५२ ॥
जगन्मय ! आपके द्वारा ही यह सम्पूर्ण (जगत्) रचा
गया है, आपमें ही यह सम्पूर्ण विश्व प्रतिष्ठित है और
आप ही प्रधानादि समस्त विश्वका संहार करते हैं। आप
ईश्वर, महादेव, परब्रह्म, महेश्वर, परमेष्ठी, शिव, शान्त,
पुरुष, निष्कल तथा हर हैं। आप अक्षर, परम ज्योति हैं,
आप काल तथा परमेश्वर हैं और आप ही प्रधान पुरुष,
प्रकृति तथा अनन्त हैं ॥५३--५५॥
भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश एवं अहंकार--
ये जिसके रूप हैं, उन ब्रह्मसंत््क आपको नमस्कार
करता हूँ। चयुलोक जिनका मस्तक है, पृथ्वी पैर है,
दिशाएँ जिनकी भुजाएँ हैं और आकाश जिनका उदर
है, उन विराट् पुरुषको मेरा प्रणाम है। जो अपने
प्रकाशसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित करते हुए विश्वको
अपेक्षित उष्णता प्रदान करते हैं, उन नित्य ब्रह्म तेजोमय
सूर्यरूपको नमस्कार है। जो अपने रौद्र तेजोमय शरीरसे
(देवताओंको) हव्य तथा पितरोंको कव्य पहुँचाते हैं,
उन अग्निस्वरूप (देव)-को नमस्कार है। जो अपने
तेजसे सम्पूर्ण जगत्को नित्य संतृप्त करते हैं और
देवतासमूहके द्वारा जिनका पान किया जाता है, उन
सोमरूप चन्द्रदेवको नमस्कार है॥ ५६--६० ॥
जो सम्पूर्ण प्राणियोंका भरण-पोषण करती है और जो
(सभी प्राणियोंक) भीतर सदा विचरण करती है, ऐसी
वायुरूपात्मक माहेश्वरीशक्ति आपको नमस्कार है॥ ६१॥
घ््डं
ः कूर्मपुराण नः
सृजत्यशेषमेवेदट॑ यः _ स्वकर्मानुरूपत: ।
स्वात्मन्यवस्थितस्तस्मै चतुर्वक्त्रात्मने नम: ॥ ६२॥
यः शेषशयने शेते विश्वमावृत्य मायया।
स्वात्मानुभूतियोगेन तस्मै विश्वात्मने नमः॥ ६३॥
बिभर्ति शिरसा नित्यं द्विसप्तभुवनात्मकम्।
ब्रह्माण्ड योडरिखलाधारस्तस्मै शेषात्मने नम: ॥ ६४॥
यः परान्ते परानन्दं पीत्वा दिव्यैकसाक्षिकम्।
नृत्यत्यनन्तमहिमा तस्मै रुद्रात्मने नमः॥ ६५॥
योउन्तरा सर्वभूतानां नियन्ता तिष्ठतीश्वरः।
त॑ सर्वसाक्षिणं देवं नमस्ये भवतस्तनुम्॥ ६६॥
यं विनिद्रा जितश्वासा: संतुष्टा: समदर्शिन: ।
ज्योति: पश्यन्ति युज्ञानास्तस्मै योगात्मने नम: ॥ ६७॥
यया संतरते मायां योगी संक्षीणकल्मष: ।
अपारतरपर्यन्तां तस्मे विद्यात्मने नमः॥ ६८॥
यस्य भासा विभातीदमद्दयं तमसः परम्।
प्रपद्ये तत् पर तत्त्वं तद्गूप॑ परमेश्वरम्॥ ६९॥
नित्यानन्दं निराधारं निष्कलं परमं शिवम्।
प्रपय्यषे परमात्मानं भवन्त॑ परमेश्वरम्॥ ७०॥
एवं स्तुत्वा महादेवं ब्रह्मा तद्धावभावित:।
प्राउजलिः: प्रणतस्तस्थौ गृणन् ब्रह्म सनातनम्॥ ७१॥
ततस्तस्मे महादेवो दिव्यं योगमनुत्तमम्।
ऐश्वर्य॑ ब्रह्मसद्धावं वैराग्यं च ददौ हरः॥ ७२॥
कराभ्यां सुशुभाभ्यां च संस्पृश्य प्रणतार्तिहा।
व्याजहार स्वयं देव: सो5नुगृह्य पितामहम्॥ ७३ ॥
जो प्राणियोंके अपने-अपने कर्मोके अनुसार इस
सम्पूर्ण (जगत्)-की सृष्टि करते हैं, उन अपनी आत्मामें
प्रतिष्ठित चतुर्मुखात्मक (ब्रह्मा)-को नमस्कार है। जो
अपने आत्मामें प्रतिष्ठित अनुभूतिरूप योगसे (प्रेरित)
मायाद्वारा सम्पूर्ण विश्वको आवृतकर शेष (शेषनाग)-
की शय्यापर शयन करते हैं, उन विश्वात्माको नमस्कार
है। जो चौदह भुवनोंवाले ब्रह्माण्डको नित्य अपने
सिरपर धारण किये रहते हैं और जो सभीके आश्रय हैं,
उन शेषात्माको नमस्कार है॥ ६२--६४॥
जो महाप्रलयकालमें दिव्य एवं एकमात्र साक्षीरूप
परमानन्दका आस्वादन करते हुए नृत्य करते हैं, उन
अनन्त महिमावाले रुद्रात्माको नमस्कार है। जो ईश्वर
सभी प्राणियोंके भीतर नियन्ताके रूपमें प्रतिष्ठित रहते
हैं, उन सर्वसाक्षी देव और उनके शरीररूप (देव)-को
मैं नमस्कार करता हूँ। निद्रारहित, श्वासको जीतनेवाले,
संतुष्ट तथा समदर्शी (योगीजन समाधिमें) जिस ज्योति
या प्रकाशका दर्शन करते हैं, उन योगात्माको नमस्कार
है। जिस (विद्या)-के द्वारा पुण्यात्मा योगीजन अत्यन्त
कठिनतासे पार की जा सकनेवाली मायाको सरलतासे
पार कर लेते हैं, उस विद्यास्वरूप (देव)-को नमस्कार
है। जिसके प्रकाशसे यह (विश्व) प्रकाशित होता है,
मैं (उस) अन्धकारसे सर्वथा रहित अर्थात् प्रकाशस्वरूप
और अद्वितीय परम तत्त्व-स्वरूप (तद्गरूप परम-तत्तव
मात्र ही जिनका स्वरूप है, उन) परमेश्वरकी शरण
ग्रहण करता हूँ। मैं नित्यानन्दस्वरूप, निराधार, निष्कल
परमात्मा, परमेश्वर आप परम शिवकी शरण ग्रहण
करता हूँ॥ ६५--७० ॥
इस प्रकार महादेवकी स्तुतिकर ब्रह्मा उनकी
भावनासे भावित होकर सनातन ब्रह्मको सम्बोधित करते
हुए. विनयपूर्वक हाथ जोड़े हुए खड़े हो गये॥ ७१॥
तदनन्तर महादेव हरने उन्हें सर्वश्रेष्ठ दिव्य
योग (ज्ञान), ऐश्वर्य, ब्रह्मकी सद्भावना (ब्रह्मविषयक
उत्तम भाव) तथा वैराग्य प्रदान किया। शरणागतोंका
कष्ट हरनेवाले उन (शंकर) देवने स्वयं अपने
मनोरम एवं कल्याणकारी हाथोंके द्वारा उनका
(ब्रह्माका) स्पर्श किया और उनपर अनुग्रह करके
वे बोले--॥ ७२-७३॥
* अध्याय ९० +*
यत्त्वयाभ्यर्थितं ब्रह्मन् पुत्रत्वे भवतो मम।
कृतं मया तत् सकल॑ सृजस्व विविध॑ जगत्॥ ७४॥
त्रिधा भिन्नो5स्म्यहं ब्रह्मन् ब्रह्मविष्णुहराख्यया ।
सर्गरक्षालयगुणैर्निष्कलः परमेश्वर: || ७५ ॥
स त्वं ममाग्रज: पुत्रः सृष्टिहेतोर्विनिर्मितः ।
ममैव दक्षिणादड्राद वामाड्ात् पुरुषोत्तम: ॥ ७६ ॥।
तस्य देवादिदेवस्थ शम्भोईदयदेशतः ।
सम्बभूवाथ रुद्रोडसावहं तस्यापरा तनुः॥ ७७॥
ब्रह्मविष्णुशिवा ब्रह्मन् सर्गस्थित्यन्तहेतवः ।
विभज्यात्मानमेको5पि स्वेच्छया शंकरः स्थित: ॥ ७८ ॥
तथान्यानि च रूपाणि मम मायाकृतानि तु।
निरूप: केवल: स्वच्छो महादेव: स्वभावत: ॥ ७९॥
एभ्य: परतरो देवस्त्रिमूर्ति: परमा तनुः।
माहेश्वरी त्रिनयना योगिनां शान्तिदा सदा॥ ८०॥
तस्या एवं परां मूर्ति मामवेहि पितामह।
शाश्वतैश्वर्यविज्ञानतेजोयोगसमन्वितामू ॥८१॥
सो5हं ग्रसामि सकलमधिष्ठाय तमोगुणम्।
कालो भूत्वा न तमसा मामन्योडभिभविष्यति॥ ८२॥
यदा यदा हि मां नित्यं विचिन्तयसि पदाज।
तदा तदा मे सांनिध्यं भविष्यति तवानघ॥ ८३॥
एतावदुक्त्वा ब्रह्माणं सोउभिवन्द्य गुरु हरः ।
सहैव मानसैः पुत्रे: क्षणादन्तरधीयत॥ ८४॥
सो5पि योग समास्थाय ससर्ज विविध जगत्।
नारायणाख्यो भगवान् यथापूर्व प्रजापति: ॥ ८५॥
मरीचिभृग्वड्धिरसं पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
दक्षमत्रिं वसिष्ठे च सोडइसृजद् योगविद्यया॥ ८६॥
नव ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं गता:।
सर्वे ते ब्रह्मणा तुल्या: साधका ब्रह्मवादिन: ॥ ८७॥
६५
ब्रह्म! जो आपने “मेरा पुत्र बनें! इस प्रकारसे
मुझसे प्रार्थना की थी, मैंने उसे (रुद्ररूपमें उत्पन्न
होकर) पूर्ण कर दिया। (अब आप) विविध प्रकारके
जगतूकी सृष्टि करें। ब्रह्मन्! मैं ही निष्कल परमेश्वर
सृष्टि, रक्षा एवं प्रलय--इन तीन गुणोंसे भावित होकर
ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव--इन नामोंसे तीन रूपोंमें विभक्त
हूँ। आप मेरे ज्येष्ट पुत्र हैं और सृष्टिकी रचनाके लिये
मेरे ही दाहिने अड्र्से आप बनाये गये हैं। मेरे ही बायें
अड़से पुरुषोत्तम विष्णु उत्पन्न हैं। उन्हीं देवोंमें आदिदेव
शम्भुके हृदयप्रदेशसे मैं ही रुद्ररूपमें प्रादुर्भूर हूँ और
उन्हींकी अपर मूर्ति हूँ। हे ब्रह्मन्! ब्रह्मा, विष्णु तथा
शिव (क्रमशः) सृष्टि, स्थिति तथा संहारके हेतु हैं।
एक होते हुए भी वे शंकर अपनी इच्छासे अपनेको
(तीन रूपोंमें) विभक्तकर स्थित रहते हैं॥७४--७८ ॥
इसी प्रकार अन्य भी जो रूप हैं, वे सब मेरी
मायद्वारा ही निर्मित हैं। स्वरूपत: महादेव स्वच्छ,
रूपरहित एवं अद्वितीय हैं॥७९॥
वे देव इन त्रिमूर्तियों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश)-से उत्कृष्ट
एवं श्रेष्ठ शरीरवाले हैं। तीन नेत्रोंवाली वह माहेश्वरी
मूर्ति योगियोंको सदा शान्ति प्रदान करनेवाली है॥ ८०॥
पितामह ! मुझे सनातन ऐश्वर्य, विज्ञान, तेज एवं
योगसे समन्वित उनकी वही परा मूर्ति समझो। वही मैं
कालरूप होकर तमोगुणका आश्रय लेकर समस्त
विश्वको ग्रस्त कर लेता हूँ, कोई दूसरा तमद्ठारा मुझे
अभिभूत नहीं कर सकता। निष्पाप कमलोद्धव! जब-
जब मुझ सनातनका तुम ध्यान करोगे, तब-तब तुम मेरी
समीपता प्राप्त करोगे॥ ८१--८३ ॥
इतना कहकर गुरु (पिता) ब्रह्माकी वन्दना करके
वे हर (महेश्वर) मानस पुत्रोंके साथ क्षणभरमें ही
अन्तर्धान हो गये॥ ८४॥
नारायण नामवाले उन भगवानने योगका अवलम्बन
कर प्रजापतिने जैसी सृष्टि पूर्वमें की थी, वैसी ही
विविध प्रकारके जगत्की सृष्टि की। योगविद्यासे उन्होंने
मरीचि, भृगु, अद्धभिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, अत्रि
और वसिष्ठको उत्पन्न किया। पुराणोंक अनुसार यह
निश्चित है कि ये नौ ब्रह्माण कहलाते हैं। ये सभी त्रह्माके
समान हैं, साधक हैं और त्रह्मवादी हैं॥ ८५--८७॥
६६
संकल्पं चेव धर्म च युगधर्माश्व शाश्वतान्।
हम कूर्मपुराण रः
जैसा पहले बताया गया था तदनुसार संकल्प, धर्म,
स्थानाभिमानिन: सर्वान् यथा ते कथितं पुरा॥ ८८ ॥ | सनातन युगधर्म तथा सभी स्थानाभिमानी (देवताओं)-
का वर्णन तुम्हें सुनाया गया॥ ८८॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहरत्रधां संहितायां पूर्वाविभागे दशमोउध्याय: ॥ १० ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १०॥
ग्यारहवाँ अध्याय
सती और पार्वतीका आविर्भाव, देवी-माहात्म्य, हैमवती-माहात्म्य, देवीका
अष्टोत्तरसहस्त्रनामस्तोत्र, हिमवानूद्वारा देवीकी स्तुति एवं हिमवान्को
देवीद्वारा उपदेश, देवीसहस्त्रनामस्तोत्र-जपका माहात्म्य
श्रीकूर्म उवाच
एवं सृप्ठा मरीच्यादीन् देवदेवः पितामहः।
सहेव मानसै: पुत्रैस्तताप परमं॑ तपः॥ १॥
तस्यैवं तपतो वकक््त्राद रुद्र: कालाग्रिसंनिभ: ।
त्रिशूलपाणिरीशान: प्रादुरासीत् त्रिलोचन: ॥ २॥
अर्धनारीनरवपु: दुष्प्रेकष्योडतिभयंकर: ।
विभजात्मानमित्युक्त्वा ब्रह्मा चान्तर्दधे भयात्॥ ३॥
तथोक्तोउसौ द्विधा स्त्रीत्वं पुरुषत्वमथाकरोत् ।
बिभेद पुरुषत्वं च दशधा चेकथा पुनः॥ ४॥
एकादशैते कथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वरा: ।
कपालीशादयो विप्रा देवकार्ये नियोजिता: ॥ ५॥
सौम्यासौम्यैस्तथा शान्ताशान्तैः स्त्रीत्वं च स प्रभु: ।
बिभेद बहुधा देव: स्वरूपैरसिते: सितैः॥ ६॥
ता वै विभूतयो विप्रा विश्रुता: शक्तयो भुवि।
लघ्म्यादयो याभिरीशा विश्वं व्याप्णोति शांकरी॥ ७॥
विभज्य पुनरीशानी स्वात्मानं शंकराद् विभो: ।
महादेवनियोगेन पितामहमुपस्थिता॥ ८॥
तामाह भगवान् ब्रह्मा दक्षस्य दुहिता भव।
सापि तस्य नियोगेन प्रादुरासीत् प्रजापते:॥ ९॥
श्रीकूर्मने कहा--इस प्रकार मरीचि आदिकौ
सृष्टि करके देवोंके देव पितामह (ब्रह्मा अपने) मानस
पुत्रोंके साथ परम तप करने लगे॥ १॥
इस प्रकार तप करते हुए उनके मुखसे कालाग्निके
समान अति भयंकर, हाथमें त्रिशूल धारण किये,
कठिनतासे देखे जाने योग्य, अर्धनारीश्वरका शरीर धारण
किये हुए, त्रिलोचन ईशान रुद्र प्रकट हुए। “अपना
विभाग करो” ऐसा कहकर ब्रह्मा भयसे अमन्तर्धान हो
गये ॥ २-३ ॥
(ब्रह्माके द्वारा) ऐसा कहे जानेपर उन्होंने स्त्री
तथा पुरुषरूपसे दो भाग कर दिये। पुन: पुरुषभागको
दस और एक--इस प्रकार ग्यारह भागोंमें बाँट दिया।
ये ग्यारह रुद्र त्रिभुवनेश्वर कहलाते हैं। ब्राह्मणो!
कपाली-ईश आदि ये सभी एकादश रुद्र देवताओंके
कार्यमें नियोजित हैं ॥४-५॥
उन प्रभु देवने सौम्य और रौद्र, शान््त और अशान्त
तथा श्वेत और कृष्णरूपोंसे स्त्रीभागको भी अनेक
रूपोंमें विभकत किया। हे विप्रो। ये ही विभूतियाँ शक्तियोंके
रूपमें लक्ष्मी आदि नामोंसे संसारमें विख्यात हैं। शंकरको
शक्ति ईशा इन्हींके द्वारा विश्वमें व्याप्त है॥ ६-७॥
पुन: ईशानी (ईशा) अपनेको विभु शंकरसे विभक्तकर
महादेवके निर्देशसे वे पितामहके पास गयीं। भगवान्
ब्रह्माने इनसे कहा--'दक्षकी पुत्री बनो।' ये भी उनके
आदेशसे दक्ष प्रजापतिके यहाँ उत्पन्न हुईं (इन्हींका नाम
सती है) ॥ ८-९॥
* अध्याय १९ *
नियोगाद ब्रह्मणो देवीं ददौ रुद्राय तां सतीम्।
दक्षाद् रुद्रोडपि जग्राह स्वकीयामेव शूलभृत्॥ १०॥
प्रजापतिं विनिनन््यैषा कालेन परमेश्वरी।
मेनायामभवत् पुत्री तदा हिमवतः सती॥ ११॥
स चापि पर्वतवरो ददौ रुद्राय पार्वतीम्।
हिताय सर्वदेवानां त्रिलोकस्यात्मनोडपि च॥ १२॥
सैषा माहेश्वरी देवी शंकरार्धशरीरिणी।
शिवा सती हेमवती सुरासुरनमस्कृता॥ १३॥
तस्या: प्रभावमतुलं सर्वे देवा: सवासवा:।
विदन्ति मुनयो वेत्ति शंकरो वा स्वयं हरि: ॥ १४॥
एतद् व: कथितं विप्रा: पुत्रत्वं परमेष्ठिन: ।
ब्रह्मण: पद्मयोनित्वं शंकरस्यामितोौजस: ॥ १५॥
सूत उवाच
इत्याकर्ण्याथ मुनयः कूर्मरूपेण भाषितम्।
विष्णुना पुनरेवैनं पप्रच्छु: प्रणता हरिम्॥ १६॥
ऋषय ऊचु:
केैषा भगवती देवी शंकरार्धशरीरिणी।
शिवा सती हेमवती यथावद् ब्रूहि पृच्छताम्॥ १७॥
तेषां तद् वचन श्रुत्वा मुनीनां पुरुषोत्तम: ।
प्रत्युवाच महायोगी ध्यात्वा स्व॑ परमं पदम्॥ १८ ॥
श्रीकूर्म उवाच
पुरा पितामहेनोक्त मेरुपृष्ठे सुशोभनम्।
रहस्यमेतद् विज्ञानं गोपनीयं विशेषत:॥ १९॥
सांख्यानां परम सांख्य॑ ब्रह्मविज्ञानमुत्तमम्।
संसारार्णवमग्नानां जन्तूनामेकमोचनम्॥ २०॥
या सा माहेश्वरी शक्तिज्ञानरूपातिलालसा।
व्योमसंज्ञा परा काष्ठा सेयं हैमवती मता॥ २९॥
शिवा सर्वगतानन्ता गुणातीता सुनिष्कला।
एकानेकविभागस्था ज्ञानरूपातिलालसा॥ २२॥
६७
(दक्षने) ब्रह्माकी आज्ञासे इन सतीदेवीको रुद्रको
प्रदान कर दिया। त्रिशूलधारी रुद्रने भी दक्षसे अपनी ही
शक्तिको ग्रहण किया॥ १०॥
कालान्तरमें (यज्ञमें अपने आराध्य शिवका भाग न
देखकर ) दक्ष प्रजापतिकी निन्दा कर (तथा अपने शरीरका
परित्याग कर) वे परमेश्वरी सती पुन: हिमवानूसे मेनाकी
पुत्री (पार्वती) बनीं। पर्वतश्रेष्ठ हिमवान्ने भी पार्वतीको
सभी देवताओं, तीनों लोकों तथा स्वयं अपने भी
कल्याणके लिये रुद्रको समर्पित कर दिया॥ ११-१२॥
ये ही शंकरके आधे शरीरमें स्थित रहनेवाली
माहेश्वरी देवी शिवा, सती तथा हैमवतीके रूपमें
देवताओं एवं असुरोंद्वारा पूजित हैं। इन्द्रसहित सभी
देवता, मुनि, शंकर अथवा स्वयं हरि इनके अतुल
प्रभावको जानते हैं॥ १३-१४॥
हे विप्रो! इस प्रकार मैंने आप लोगोंसे अमित
तेजस्वी शंकरके पुत्रत्व (पुत्र होनेका) और परमेष्ठी
ब्रह्माके पद्मययोनित्व (पद्मययोनि होने)-का वर्णन किया॥ १५॥
सूत बोले--कूर्मरूप धारण किये हुए विष्णुके इस
कथनको सुनकर मुनियोंने पुन: हरि (कूर्मरूपधारी विष्णु)-
को प्रणाम करते हुए उनसे इस प्रकार पूछा-- ॥ १६॥
ऋषियोंने कहा--(भगवन्!) शंकरके आधे
शरीररूपसे प्रतिष्ठित शिवा, सती तथा हैमवती (इत्यादि
नामवाली) ये देवी भगवती कौन हैं ? हम सभी पूछनेवालोंको
आप यशथार्थरूपमें बतलायें। उन मुनियोंक इस वचनको
सुनकर पुरुषोंमें उत्तम महायोगी (विष्णु)-ने अपने परम
पदका ध्यान करके उन्हें बताया--॥ १७-१८॥
श्रीकूर्म बोले--प्राचीन कालमें अत्यन्त रमणीय
मेरु गिरिके पृष्ठपर (बेंठकर) पितामह (ब्रह्मा)-ने यह
रहस्यपूर्ण ज्ञान कहा था। यह विशेषरूपसे गोपनीय है।
सांख्यशास्त्रके तत्त्वज्ञोंके लिये यह परम सांख्य (तत्त्वज्ञान)
एवं उत्तम ब्रह्मज्ञान है। यह संसार-सागरमें निमग्न
प्राणियोंकी मुक्तिका एकमात्र साधन है॥ १९-२०॥
(महेश्वरकी ) जो ज्ञानरूप, उत्कृष्ट इच्छारूप, व्योम
नामवाली तथा पराकाष्ठारूप (अन्तिम प्राप्तव्य) वह
माहेश्वरी शक्ति है, ये वही हैमवती कही जाती हैं।
(ये हेमवती शक्ति) कल्याण करनेवाली, सर्वत्र
व्याप्त, अनन्त, गुणातीत, नितान्त भेदशून्य, अद्वितीय तथा
अनेक रूपोंमें स्थित रहनेवाली, ज्ञानरूप, परम इच्छारूप |
६८
अनन्या निष्कले तत्त्वे संस्थिता तस्य तेजसा।
स्वाभाविकी च तन््मूला प्रभा भानोरिवामला॥ २३॥
एका माहेश्वरी शक्तिरनेकोपाधियोगत: ।
परावरेण रूपेण क्रीडते तस्य संनिधौ॥ २४॥
सेयं करोति सकल॑ तस्या: कार्यमिदं जगत्
न कार्य नापि करणमीश्वरस्येति सूरय:॥ २५॥
चतस्त्र: शक्तयो देव्या: स्वरूपत्वेन संस्थिता: ।
अधिष्ठानवशात् तस्या: श्रूणुध्वं मुनिपुंगवा: ॥ २६॥
शान्तिर्विद्या प्रतिष्ठा च निवत्तिश्चेति ता: स्मृता: ।
चतुर्व्यूहस्ततो देव: प्रोच्यते परमेश्वर:॥ २७॥
अनया परया देव: स्वात्मानन्दं समश्नुते।
चतुर्ष्पि च वेदेषु चतुर्मूर्तिमहेश्वर:॥ २८ ॥
अस्यास्त्वनादिसंसिद्धमैश्वर्यमतुल॑ महत्।
तत्सम्बन्धादनन्ताया रुद्रेण परमात्मना॥ २९॥
सैषा सर्वेश्वरी देवी सर्वभूतप्रवर्तिका।
प्रोच्यते भगवान् कालो हरि: प्राणो महेश्वर: ॥ ३०॥
तत्र सर्वमिदं प्रोतमोत॑ चैवाखिलं जगत्।
स कालो35ग्रिईरो रुद्रो गीयते वेदवादिभि: ॥ ३१॥
काल: सृजति भूतानि काल: संहरते प्रजा: ।
सर्वे कालस्य वशगा न काल: कस्यचिद् वशे॥ ३२॥
प्रधान पुरुषस्तत्त्वं महानात्मा त्वहंकृति:।
कालेनान्यानि तत्त्वानि समाविष्टानि योगिना॥ ३३॥
तस्य सर्वजगत्सूति: शक्तिमयिति विश्रुता।
तयेदं भ्रामयेदीशो मायावी पुरुषोत्तम:॥ ३४॥
सैषा मायात्मिका शक्ति: सर्वाकारा सनातनी।
वैश्वरूप्यं महेशस्य सर्वदा सम्प्रकाशयेत्॥ ३५॥
* कूर्मपुराण *
अनन्य तथा उन (शिव)-के तेजसे निष्कल तत्त्वमें
प्रतिष्ठित रहनेवाली, सूर्यकी प्रभाके सदृश स्वच्छ तथा
उनके आश्रित एवं स्वभावत: प्रवृत्त होनेवाली हैं। वह
एक ही माहेश्वरी शक्ति अनेक उपाधियों (नाम-रूपों)-
के संयोगसे उत्तम तथा निम्न रूपसे उन (शिव)-के
समीप क्रीडा करती रहती हैं। वे ही यह सम्पूर्ण (सृष्टि
इत्यादिका) कार्य करती हैं। यह जगत् उन्हींका कार्य
है। ईश्वरका न कोई कार्य है और न कोई करण (साधन)
ही होता है--ऐसा विद्वानोंका मत है॥ २१--२५॥
हे श्रेष्ठ मुनियो ! उन देवीकी अधिष्ठान (आश्रय)-
भेदसे अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित चार शक्तियाँ हैं, उन्हें
आप सुनें॥ २६॥
उन शक्तियोंको शान्ति, विद्या, प्रतिष्ठा तथा निवृत्ति--
इस प्रकारसे कहा गया है और इसीलिये (अर्थात् इन
चारों शक्तियोंसे सम्पन्न होनेके कारण) परमेश्वर देवको
भी चतुर्व्यूहात्मक' कहा जाता है। इस पराशक्तिके द्वारा
देव (महेश्वर) स्वात्मानन्दका उपभोग करते हैं।
चारों ही वेदोंमें चतुर्मूर्ति महेश्वर वर्णित हैं ॥ २७-२८॥
उन रुद्र परमात्माके सम्बन्धसे इस अनन्ता (शक्ति)-
का महान् अतुलनीय ऐश्वर्य सिद्ध है। वे ही ये सर्वेश्वरी
देवी सभी प्राणियोंको प्रवर्तित करती हैं। भगवान् काल,
हरि, प्राण तथा महेश्वर कहे जाते हैं ॥ २९-३०॥
उनमें ही यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है। वेदवादियों
(वैदिकों )-के द्वारा वे ही काल, अग्नि, हर तथा रुद्र-
रूपमें गाये जाते हैं। काल सभी प्राणियोंकी सृष्टि करता
है, काल ही प्रजाओंका संहार करता है। सभी कालके
वशीभूत हैं और काल किसीके वशमें नहीं है। (वह
काल हो) प्रधान, पुरुष, तत्त्व, महान, आत्मा तथा
अहंकार है। योगी' कालमें ही अन्य सभी तत्त्व
समाविष्ट हैं॥ ३१--३३॥
सम्पूर्ण जगत्कों उनकी (ईशकी) संतान और
उनकी शक्तिको माया कहा गया है। मायावी पुरुषोत्तम
ईश उस (माया)-के द्वारा ही इस (जगत्)-को भ्रमित
(मोहित) करते हैं। वही यह सर्वाकारा, सनातनी
मायात्मिका शक्ति महेशके विश्वरूपत्वको सदा प्रकाशित
करती रहती है॥ ३४-३५॥
१-व्यूहका अर्थ शक्ति है।
२-कालमें सभी प्रकारका सामर्थ्य है, इसीलिये कालको योगी कहा गया है।
* अध्याय २९ *
अन्याश्व शक्तयो मुख्यास्तस्य देवस्य निर्मिता:।
ज्ञानशक्ति: क्रियाशक्ति: प्राणशक्तिरिति त्रयम्॥ ३६॥।
सर्वासामेव शक्तीनां शक्तिमन्तो विनिर्मिता: ।
माययेवाथ विप्रेन्द्रा/ सा चानादिरननतया॥ ३७॥
सर्वशक्त्यात्मिका माया दुर्निवारा दुरत्यया।
मायावी सर्वशक्तीश: काल: कालकरः प्रभु: ॥ ३८ ॥
करोति काल: सकल संहरेत् काल एवं हि।
काल: स्थापयते विश्वं कालाधीनमिदं जगत्॥ ३९ ॥
लब्ध्वा देवाधिदेवस्य संनिधिं परमेष्ठिन: ।
अनन्तस्याखिलेशस्य शम्भो: कालात्मन: प्रभो: ॥ ४० ॥
प्रधानं पुरुषो माया माया चेवं प्रपद्यते।
एका सर्वगतानन्ता केवला निष्कला शिवा ॥ ४१॥
एका शक्ति: शिवैको5पि शक्तिमानुच्यते शिव: ।
शक्तय: शक्तिमन्तो<न्ये सर्वशक्तिसमुद्धवा: ॥ ४२ ॥
शक्तिशक्तिमतोर्भद॑ वदन्ति परमार्थतः |
अभेदं चानुपश्यन्ति योगिनस्तत्त्वचिन्तका: ॥ ४३ ॥
शक्तयो गिरिजा देवी शक्तिमन्तो5थ शंकरः ।
विशेष: कथ्यते चायं पुराणे ब्रह्मवादिभि: ॥ ४४॥
भोग्या विश्वेश्वरी देवी महेश्वरपतित्नता।
प्रोच्यते भगवान् भोक्ता कपर्दी नीललोहित: ॥ ४५ ॥
मन्ता विश्वेश्वरो देव: शंकरो मन्मथान्तकः ।
प्रोच्यते मतिरीशानी मन्तव्या च विचारतः ॥ ४६॥
इत्येतदखिलं विप्रा: शक्तिशक्तिमदुद्धवम्।
प्रोच्यते सर्ववेदेषु मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभि:॥ ४७॥
एतत् प्रदर्शितं दिव्यं देव्या माहात्म्यमुत्तमम्।
सर्ववेदान्तवेदेषु निश्चितं ब्रह्मवादिभि: ॥ ४८ ॥
एकं सर्वगतं सूक्ष्म॑ कूटस्थमचलं श्रुवम्।
योगिनस्तत् प्रपश्यन्ति महादेव्या: परं पदम्॥ ४९॥
६९
उन देवके द्वारा निर्मित ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति तथा
प्राणशक्ति--ये तीन अन्य मुख्य शक्तियाँ हैं। विप्रेन्द्रो !
अनन्त मायाके द्वारा ही सभी शक्तियोंसे युक्त शक्तिमानोंका
निर्माण हुआ है, किंतु वह (माया) अनादि है। सभी
शक्तियोंकी आत्मरूप वह माया बड़ी कठिनतासे निवारण
करने योग्य और बड़े ही कष्टसे पार करने योग्य है।
सभी शक्तियोंके स्वामी मायावी प्रभु स्वयं काल हैं और
कालको भी उत्पन्न करनेवाले हैं॥ ३६--३८ ॥
काल ही सब कुछ (उत्पन्न) करता है और काल ही
(सबका) संहार करता है। विश्वकी स्थापना काल करता
है और कालके ही अधीन यह सारा जगत् है॥ ३९॥
देवाधिदेव, परमेष्ठी, अनन्त और अखिल (विश्व)-
के स्वामी कालात्मा प्रभु शम्भुका सांनिध्य प्राप्तकर वही
माया शक्त, प्रधान, पुरुष एवं माया नामकी शक्तिका रूप
धारण करती है। वह शक्ति अद्वितीय सर्वत्र व्याप्त, अन्त-
रहित, केवल, भेदशून्य और कल्याणकारिणी है॥ ४०-४१॥
शक्ति एक है और शिव भी एक हैं। शिव शक्तिमान्
कहे जाते हैं। अन्य सभी शक्तियाँ तथा शक्तिमान्
(इसी ) शक्तिसे उत्पंन्न हैं। शक्ति और शक्तिमान्में भेद
कहा जाता है, किंतु तत्त्वका चिन्तन करनेवाले योगीजन
(उनमें) परमार्थतः अभेदका ही दर्शन करते हैं। जितनी
भी शक्तियाँ हैं वे गिरिजादेवी और जितने भी शक्तिमान्
हैं वे शंकर हैं। ब्रह्मवादियोंके द्वारा पुराणमें इनके
विषयमें विशेष (रूपसे) कहा जाता है॥ ४२--४४॥
महेश्वरकी पतिब्रता देवी विश्वेश्वरीको भोग्या
और नीललोहित जटाधारी भगवान् (शंकर)-को भोक््ता
कहा गया है। कामदेवका अन्त करनेवाले, विश्वके
स्वामी देव शंकरको मनन करनेवाला मन््ता और
ईशानीको मति एवं विचारद्वारा मानने योग्य (मन्तव्या)
कहा गया है॥ ४५-४६ ॥
ब्राह्मणो ! तत्त्वद्रष्टा मुनियोंके द्वारा सभी वेदोंमें यही
कहा गया है कि यह सम्पूर्ण विश्व शक्ति एवं शक्तिमानूसे
प्रादुर्भूत है। इस प्रकार ब्रह्मवादियोंके द्वारा समस्त वेदान्त
एवं वेदोंमें निश्चित किये गये देवीके दिव्य एवं उत्तम
माहात्म्यका यह वर्णन किया गया॥ ४७-४८ ॥
महादेवीका जो सर्वव्यापक, सूक्ष्म, कूटस्थ, अचल तथा
ध्रुव परम पद है, उसका योगी साक्षात्कार करते हैं ॥ ४९ ॥
6
हम कूर्मपुराण नंः
आनन्दमक्षरं ब्रह्म केवलं निष्कलं परम्।
योगिनस्तत् प्रपश्यन्ति महादेव्या: पर॑ं पदम्॥ ५०॥
परात्परतरं तत्त्वं शाश्वतं शिवमच्युतम्।
अनन्तप्रकृतौ लीनं देव्यास्तत् परमं पदम्॥ ५१॥
शुभं निरज्जनं शुद्ध निर्गुणं द्वैतवर्जितम्।
आत्मोपलब्धिविषयं देव्यास्तत् परमं पदम्॥ ५२॥
सैषा धात्री विधात्री च परमानन्दमिच्छताम् ।
संसारतापानखिलान्ू निहन्तीश्वरसं श्रया ॥| ५३ ॥
तस्माद् विमुक्तिमन्विच्छन् पार्वती परमेश्वरीम् ।
आश्रयेत् सर्वभावानामात्मभूतां शिवात्मिकाम्॥। ५४॥।
लब्ध्वा च पुत्रीं शर्वार्णी तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।
सभार्य: शरणं यातः पार्वतीं परमेश्वरीम्॥ ५५ ॥
तां दृष्ठा जायमानां च स्वेच्छयैव वराननाम्।
मेना हिमवतः: पत्नी प्राहेदं पर्वतेश्वरम्॥ ५६॥
मेनोवाच
पश्य बालामिमां राजन् राजीवसदूृशाननाम् ।
हिताय सर्वभूतानां जाता च तपसावयो: ॥ ५७॥
सो<पि दृष्ठा ततः पुत्रीं तरुणादित्यसंनिभाम् ।
करपर्दिनी चतुर्वक्त्रां त्रिनेत्रामतिलालसाम्॥ ५८ ॥
अष्टहस्तां विशालाक्षीं चन्द्रावयवभूषणाम्।
निर्गुणां सगुणां साक्षात् सदसदव्यक्तिवर्जिताम्॥ ५९॥
प्रणम्य शिरसा भूमौ तेजसा चातिविहल: ।
भीत: कृताञ्जलिस्तस्याः प्रोवाच परमेश्वरीम्॥ ६० ॥
हिमवानुवाच
का त्वं देवि विशालाक्षि शशाड्लावयवाद्/ितते।
न जाने त्वामहं वत्से यथावद् ब्रूहि पृच्छते॥ ६१॥
गिरीन्द्रवचनं श्रुत्ता ततः सा परमेश्वरी।
व्याजहार महाशैलं॑ योगिनामभयप्रदा॥ ६२॥
देव्युवाच
मां विद्धि परमां शक्ति परमेश्वरसमा श्रयाम् ।
अनन्यामव्ययामेकां यां पश्यन्ति मुमुक्षव:॥ ६३॥
महादेवीका जो आनन्दमय, अविनाशी, त्रह्मरूप,
अद्वितीय एवं भेदरहित परम पद है, योगी उसका दर्शन
करते हैं। देवीका वह परम पद परसे भी परतर,
तत्त्वरूप, सनातन, कल्याणकारी, अच्युत तथा अनन्त
प्रकृतिमें लीन है। देवीका वह परम पद शुभ निरञ्न,
शुद्ध, निर्गुण, ट्वैटरहित और आत्मज्ञानका विषय है।
परम आनन्द चाहनेवालोंके लिये वे ही धात्री तथा
विधात्री हैं। वे ईश्वरके आश्रयसे संसारके सारे पापोंका
विनाश करती हैं। इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवालोंको
चाहिये कि वे सभी भावोंकी आत्मस्वरूपा शिवात्मिका
परमेश्वरी पार्वतीका आश्रय ग्रहण करें॥ ५०--५४॥
अत्यन्त कठोर तप करनेके अनन्तर शर्वाणी (शंकर-
प्रिया)-को पुत्रीरूपमें प्रातकर (हिमवान् अपनी) भायकि
साथ परमेश्वरी पार्वतीकी शरणमें गये। अपनी इच्छासे
उत्पन्न उस श्रेष्ठ मुखवालीको देखकर हिमवान्की पली
मेनाने गिरिराज हिमालयसे इस प्रकार कहा-- ॥ ५५-५६ ॥
मेना बोलीं--राजन्! कमलके समान मुखवाली
इस बालिकाको देखो। (यह) हम दोनोंकी तपस्या
(-के प्रभाव)-से सभी प्राणियोंके कल्याणके लिये
उत्पन्न हुई है॥५७॥
तरुण सूर्यके समान (देदीप्यमान), जटायुक्त, चतुर्मुख,
तीन नेत्रोंवाली, उत्कृष्ट इच्छास्वरूप, आठ हाथों और
विशाल नेत्रोंवाली, चन्द्रमाकी कलाओंके आभूषण धारण
की हुई, गुणातीत एवं गुणयुक्त तथा सत्-असतके
भावोंसे रहित साक्षात् देवीको पुत्रीरूपमें देखकर हिमवानने
भूमिपर मस्तक लगाकर प्रणाम किया और उनके तेजसे
अत्यन्त विहल तथा भयभीत होते हुए हाथ जोड़कर उन
परमेश्वरीसे कहा-- ॥ ५८--६० ॥
हिमवान् बोले--विशाल नेत्रोंवाली तथा चन्द्रमाकी
कलाओंसे सुशोभित देवि! आप कौन हैं? बत्से! में
आपको नहीं जानता हूँ। मुझ पूछनेवालेको आप
यथार्थरूपसे बतलायें॥ ६१॥
योगियोंको अभय प्रदान करनेवाली उस परमेश्वरीने गिरिगज
(हिमालय)-का वचन सुनकर महाशैलसे कहा-- ॥ ६२॥
देवी बोलीं--मोक्षकी इच्छा करनेवाले (मोक्षार्थी)
जिस अनन्य, अविनाशी तथा अद्वितीय (शक्ति)-का
दर्शन करते हैं, परमेश्वरके आश्रयमें रहनेवाली वही
परम शक्ति मुझे समझो॥ ६३॥
* अध्याय ९९ *
अहं वे सर्वभावानामात्मा सर्वान्तरा शिवा।
शाश्वतैश्वर्यविज्ञानमूर्ति: सर्वप्रवर्तिका॥ ६४॥
अनन्तानन्तमहिमा संसारार्णवतारिणी |
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे रूपमैश्वरम्॥ ६५ ॥
एतावदुक्त्वा विज्ञानं दत्त्वता हिमवते स्वयम्।
स्वं रूप॑ दर्शयामास दिव्यं तत् पारमेश्वरम्॥ ६६ ॥
कोटिसूर्यप्रतीकाशं तेजोबिम्बं निराकुलम्।
ज्वालामालासहस्त्राद्यं कालानलशतोपमम्॥ ६७॥।
दंष्टाकरालं दुर्धर्ष जटामण्डलमण्डितम्।
त्रिशूलवरहस्तं॑ च घोररूपं भयानकम्॥ ६८॥
प्रशात्तं.+ सौम्यवदनमनन्ताश्चर्यसंयुतम् ।
चन्न्द्रावयवलक्ष्माणं चन्द्रकोटिसमप्रभम्॥ ६९ ॥।
किरीटिनं गदाहस्तं॑ नूपुरैरुफशोभितम् |
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्॥ ७०॥
शब्डुचक्रधरं काम्यं त्रिनेत्रं कृत्तिवाससम्।
अण्डस्थं चाण्डबाह्ास्थं बाह्ममाभ्यन्तरं परम्॥ ७१॥
सर्वशक्तिमयं शुभ्र॑ सर्वाकारं सनातनम्।
ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्रयोगीन्द्रेवन्द्यमानपदाम्बुजमू_ ॥ ७२॥
सर्वतः पाणिपादान्तं सर्वतोउक्षिशिरोमुखम्।
सर्वमावृत्यतिष्ठन्त॑ ददर्श परमेश्वरम्॥ ७३॥
दृष्ठा तदीदृशं रूप॑ देव्या माहेश्वरं परम्।
भयेन च समाविष्ट: स राजा हष्टमानस:॥ ७४॥
आत्मन्याधाय चात्मानमोड्भारं समनुस्मरन्।
नाम्नामष्टसहस्त्रेण तुष्टाव परमेश्वरीम्॥ ७५॥
हिमवानुवाच
शिवोमा परमा शक्तिरनन्ता निष्कलामला।
शान्ता माहेश्वरी नित्या शाश्वती परमाक्षरा॥ ७६॥
अचिन्त्या केवलानन्त्या शिवात्मा परमात्मिका।
अनादि रव्यया शुद्धा देवात्मा सर्वगाचला॥ ७७॥
७१
में ही सभी पदार्थोकी आत्मा, सभीके अंदर
रहनेवाली, कल्याणकारिणी, सनातन ऐश्वर्य तथा विज्ञानकी
मूर्ति और सभीको प्रवृत्त करनेवाली हूँ। मैं अनन्त और
अनन्त महिमावाली तथा संसारसागरसे पार उतारनेवाली
हूँ। मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करती हूँ, मेरे ऐश्वर्यमय
रूपको देखो॥ ६४-६५ ॥
इतना कहकर तथा हिमवानूको स्वयं विशिष्ट ज्ञान
प्रदान कर (देवीने) अपना वह परमेश्वरमय दिव्य रूप
दिखलाया ॥ ६६ ॥
(हिमवानूने ) करोड़ों सूर्यके समान (प्रकाशमान)
तेज:पुझ, स्थिर, हजारों ज्वालामालाओंसे युक्त, सैकड़ों
कालाग्निके समान, भयंकर दाढ़ोंवाला, दुर्धर्ष, जटामण्डलोंसे
मण्डित, हाथमें त्रिशूल और वरमुद्रा धारण किये,
भयानक, घोर रूप एवं प्रशान्त, सौम्य मुखवाला,
अनन्त आश्चर्योंसे युक्त, चन्द्रकलासे चिह्नित, करोड़ों
चन्द्रमाओंकी आभावाला मुकुट धारण किये, हाथमें
गदा लिये, नूपुरोंसे सुशोभित, दिव्य वस्त्र एवं माला
धारण किये, दिव्य सुगन्धित अनुलेपन किये हुए,
शद्भु-चक्रधारी, कमनीय, तीन नेत्रवाले, चर्माम्बरधारी,
ब्रह्माण्डके बाहर एवं भीतर (सर्वत्र) स्थित, बाहर तथा
भीतर सर्वत्र श्रेष्ठ, सर्वशक्तिमय, शुभ्र, सभी आकारोंसे
युक्त, सनातन, ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु और श्रेष्ठ योगियोंद्वारा
वन्दित चरणकमलोंवाला, सभी ओर हाथ, पैर, आँख,
सिर एवं मुखवाला और सभीको आवृत कर स्थित
रहनेवाला (देवीका वह) परमेश्वर-रूप देखा॥ ६७--७३॥
देवीके इस प्रकारके उस परम माहेश्वर रूपको
देखकर वे (पर्वतोंके) राजा (हिमवान्) भयसे आविष्ट*
होते हुए भी प्रसन्न मनवाले हो गये। (और) अपनी
आत्मामें आत्माको प्रतिष्ठितकर (आत्मनिष्ठ होकर) ओड्डारका
स्मरण करते हुए (वे) परमेश्वरीके एक हजार आठ
नामोंसे उनकी स्तुति करने लगे-- ॥ ७४-७५॥
हिमवानने कहा--( हे देवी! आप) शिवा, उमा,
परमा शक्ति, अनन्ता, निष्कला, अमला, शान्ता, माहेश्वरी,
नित्या, शाश्वती, परमाक्षरा, अचिन्त्या, केवला, अनन्त्या,
शिवात्मिका, परमात्मिका, अनादि, अव्यया, शुद्धा,
देवात्मिका, सर्वगा, अचला॥ ७६-७७॥
* अपनी पुत्रीमें परस्परविरोधी अनेक रूपोंको देखकर भयभीत होना स्वाभाविक है, पर ऐश्वर्यसम्पन्न देवी ही मेरी पुत्री है--यह
अनुभव कर प्रसन्नचित्त होना भी स्वाभाविक ही है।
9२
न कूर्मपुराण मे:
एकानेकविभागस्था मायातीता सुनिर्मला।
महामाहेश्वरी सत्या महादेवी निरख्ना॥ ७८॥
काष्ठा सर्वान्तरस्था च चिच्छक्तिरतिलालसा।
नन्दा सर्वात्मिका विद्या ज्योतीरूपामृताक्षरा ॥ ७९॥
शान्ति: प्रतिष्ठा सर्वेषां निवृत्तिरमृतप्रदा।
व्योममूर्तिव्योमलया व्योमाधारा5च्युताउमरा ॥ ८०॥
अनादिनिधनामोघा कारणात्मा कलाकला।
क्रतुः प्रथमजा नाभिरमृतस्यात्मसंश्रया ॥ ८१॥
प्राणेश्वरप्रिया माता महामहिषघातिनी।
प्राणेश्वरी प्राणरूपा प्रधानपुरुषेश्वरी ॥ ८२॥
सर्वशक्तिकलाकारा ज्योत्स्रा द्यौर्महिमास्पदा |
सर्वकार्यनियन्री च सर्वभूतेश्वरेश्वरी ॥ ८३ ॥
अनादि रव्यक्तगुहा महानन्दा सनातनी।
आकाशयोनिर्योगस्था महायोगेश्वरेश्वरी ॥ ८४ ॥
महामाया सुदुष्पूरा मूलप्रकृतिरीश्वरी।
संसारयोनि: सकला सर्वशक्तिसमुद्धवा॥ ८५॥
संसारपारा दुर्वारा दुर्निरीक्ष्या दुरासदा।
प्राणशक्ति: प्राणविद्या योगिनी परमा कला।॥ ८६॥
महाविभूतिदुर्ध्धा मूलप्रकृतिसम्भवा।
अनाहनन्तविभवा परार्था पुरुषारणि:॥ ८७॥
सर्गस्थित्यन्तकरणी सुदुर्वाच्या दुरत्यया।
शब्दयोनि: शब्दमयी नादाख्या नादविग्रहा ॥ ८८ ॥
प्रधानपुरुषातीता प्रधानपुरुषात्मिका।
पुराणी चिन्मयी पुंसामादि: पुरुषरूपिणी॥ ८९॥
भूतान्तरात्मा कूटस्था महापुरुषसंज्ञिता।
जन्ममृत्युजरातीता सर्वशक्तिसमन्विता॥ ९०॥
व्यापिनी चानवच्छिन्ना प्रधानानुप्रवेशिनी।
क्षेत्रज्रशक्तिरव्यक्तलक्षणा मलवर्जिता॥ ९१॥
अनादिमायासम्भिन्ना त्रितत्त्वा प्रकृतिर्गुह्ा।
महामायासमुत्पन्ना तामसी पौरुषी श्रुवा॥९२॥
व्यक्ताव्यक्तात्मिका कृष्णा रक्ता शुक्ला प्रसूतिका।
अकार्या कार्यजननी नित्य॑ प्रसवधर्मिणी॥ ९३॥
सर्गप्रलयनिर्मुक्ता सृष्टिस्थित्यन्तर्मिणी
ब्रह्मगर्भा चतुर्विशा पद्मनाभाच्युतात्मिका॥ ९४॥
वैद्युती शाश्वती योनिर्जगन्मातेश्वरप्रिया।
सर्वाधारा महारूपा सर्वैश्वर्यसमन्विता ॥ ९५॥
एका, अनेकविभागस्था (विविध रूपोंमें स्थित),
मायातीता, सुनिर्मला, महामाहेश्वरी, सत्या, महादेवी,
निरझना, काष्ठा, सर्वान्तरस्था (सभीके हृदयमें स्थित
रहनेवाली ), चिच्छक्ति (चेतन्यशक्तिरूपा), अतिलालसा
(उत्कृष्ट इच्छारूपा), नन्दा, सर्वात्मिका, विद्या, ज्योतीरूपा,
अमृताक्षरा, शान्ति, सभीकी प्रतिष्ठा, निवृत्ति, अमृतप्रदा,
व्योममूर्ति, व्योमलया, व्योमाधारा, अच्युता, अमरा,
अनादिनिधना, अमोघा, कारणात्मिका, कला, अकला,
क्रतु, प्रथभमजा, अमृतनाभि, आत्मसंश्रया, प्राणेश्वरप्रिया,
माता, महामहिषघातिनी, प्राणेश्वरी, प्राणरूपा,
प्रधानपुरुषेश्वरी ॥ ७८--८२ ॥
सर्वशक्तिकलाकारा, ज्योत्स्ना, दो: (आकाश-
रूपा), महिमास्पदा, सर्वकार्यनियन्त्री, सर्वभूतेश्वरेश्वरी,
अनादि, अव्यक्तगुहा, महानन्दा, सनातनी, आकाश-
योनि, योगस्था, महायोगेश्वरेश्वरी, महामाया, सुदुष्पूरा,
मूलप्रकृति, ईश्वरी, संसारयोनि, सकला, सर्वशक्ति-
समुद्धवा, संसारपारा, दुर्वारा, दुर्निरीक्ष्या, दुरासदा
(कठिन तपसे प्राप्त करने योग्य), प्राणशक्ति, प्राण-
विद्या, योगिनी, परमा, कला, महाविभूति, दुर्धर्षा,
मूलप्रकृतिसम्भवा, अनाचद्यनन्तविभवा, परार्था,
पुरुषारणि पुरुष (परब्रह्म)/ ही जिनकी अरणि (अग्नि-
मन्थनका काष्ठ-विशेष है), सर्गस्थित्यन्तकारिणी,
सुदुर्वाच्या, दुरत्यया, शब्दयोनि, शब्दमयी, नादाख्या,
नाद-विग्रहा, प्रधानपुरुषातीता, प्रधानपुरुषात्मिका,
पुराणी, चिन्मयी, पुरुषोंकी आदिस्वरूपा, पुरुषरूपिणी,
भूतान्तरात्मा, कूटसथा, महापुरुषसंज्ञिता, जन्म-मृत्यु-
जरातीता, सर्वशक्तिसमन्विता, व्यापिनी, अनवच्छिन्ना,
प्रधानानुप्रवेशिनी, क्षेत्रज्ञतक्ति, अव्यक्तलक्षणा, मल-
वर्जिता, अनादिमायासम्भिन्ना (अनादिमायारूपा), त्रितत्त्वा,
प्रकृति, गुहा, महामायासमुत्पन्ना, तामसी, पौरुषी,
ध्रुवा॥ ८३--९२॥
व्यक्ताव्यक्तात्मिका, कृष्णा, रक्ता, शुक्ला, प्रसूतिका,
अकार्या, कार्यजननी, नित्यप्रसवधर्मिणी, सर्गप्रलयनिर्मुक्ता,
सृष्टिस्थित्यन्तधर्मिणी, ब्रह्मगर्भा, चतुर्विशा (चौबीस तत्तवोंम्पे
अन्तिम तत्त्व), पद्मनाभा, अच्युतात्मिका, बैद्युती, शाश्वती,
योनि (मूल कारण), जगन्माता, ईश्वरप्रिया, सर्वाधारा,
महारूपा, सर्वैश्वर्यसमन्विता॥ ९३--९५॥
* अध्याय १५१ *
विश्वरूपा महागर्भा विश्वेशेच्छानुवर्तिनी ।
महीयसी ब्रह्मययोनिर्महालक्ष्मीसमुद्धवा॥ ९६ ॥
महाविमानमध्यस्था महानिद्रात्महेतुका |
सर्वसाधारणी सूक्ष्मा हाविद्या पारमार्थिका ॥ ९७ ॥
अनन्तरूपानन्तस्था देवी पुरुषमोहिनी।
अनेकाकारसंस्थाना कालत्रयविवर्जिता॥ ९८ ॥
ब्रह्मजन्मा हरेमूर्तित्रह्मविष्णुशिवात्मिका |
ब्रहोशविष्णुजननी ब्रह्माख्या ब्रह्मसंश्रया॥ ९९ ॥
व्यक्ता प्रथमजा ब्राह्मी महती ज्ञानरूपिणी |
वैराग्येश्वर्यधर्मात्मा ब्रह्ममूर्तिहदिस्थिता।
अपांयोनि: स्वयम्भूतिर्मानसी तत्त्वसम्भवा॥ १००॥
ईश्वराणी च शर्वाणी शंकरार्धशरीरिणी |
भवानी चेव रुद्राणी महालक्ष्मीरथाम्बिका॥ १०१॥
महे श्वरसमुत्पन्ना. भुक्तिमुक्तिफलप्रदा।
सर्वेश्वरी सर्ववन्द्या नित्यं मुदितमानसा॥ १०२॥
ब्रह्न्द्रोपेनद्रनमिता शंकरेच्छानुवर्तिनी।
ईश्वरार्धासनगता महेश्वरपतिब्रता ॥ १०३॥
सकृदविभाविता सर्वा समुद्रपरिशोषिणी ।
पार्वती हिमवत्पुत्री परमानन्ददायिनी॥ १०४॥
गुणाढ्या योगजा योग्या ज्ञानमूर्तिर्विकासिनी ।
सावित्री कमला लक्ष्मी: श्रीरनन्तोरसिस्थिता॥ १०५ ॥
सरोजनिलया मुद्रा योगनिद्रासुरार्दिनी।
सरस्वती सर्वविद्या जगज्येष्ठा सुमड्गला॥ १०६॥
वाग्देवी वरदा वाच्या कीर्ति: सर्वार्थसाधिका ।
योगीश्वरी ब्रह्मविद्या महाविद्या सुशोभना॥ १०७॥
गुह्विद्यात्मविद्या च धर्मविद्यात्मभाविता |
स्वाहा विश्वम्भरा सिद्धि: स्वधा मेधा धृति: श्रुति: ॥ १०८ ॥
नीति: सुनीतिः सुकृतिर्माधवी नरवाहिनी।
अजा विभावरी सौम्या भोगिनी भोगदायिनी॥ १०९॥।
शोभा वंशकरी लोला मालिनी परमेष्ठिनी |
त्रैलोक्यसुन्दरी रम्या सुन्दरी कामचारिणी॥ ११०॥
महानुभावा सत्त्वस्था महामहिषमर्दिनी।
पद्ममाला पापहरा विचित्रा मुकुटानना॥ १११॥
कान्ता चित्राम्बरधरा दिव्याभरणभूषिता।
हंसाख्या व्योमनिलया जगत्सृष्टिविवर्धिनी ॥ ११२॥
७३
विश्वरूपा, महागर्भा, विश्वेशेच्छानुवर्तिनी, महीयसी,
ब्रह्मयोनि, महालक्ष्मीसमुद्भवा, महाविमानमध्यस्था, महा-
निद्रा, आत्महेतुका, सर्वसाधारणी, सूक्ष्मा, अविद्या,
पारमार्थिका ॥ ९६-९७॥
अनन्तरूपा, अनन्तसथा, देवी, पुरुषमोहिनी,
अनेकाकारसंस्थाना, कालत्रयविवर्जिता, ब्रह्मजन्मा,
हरिमूर्ति (हरिकी मूर्ति), ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका,
ब्रह्मेशविष्णुजननी, ब्रह्माख्या, ब्रह्मसंश्रया, व्यक्ता,
प्रथमजा, ब्राह्मी, महती, ज्ञानरूपिणी, वैराग्यैश्वर्यधर्मात्मिका,
ब्रह्ममूर्ति, हृदिस्थिता, अपांयोनि (जलकी योनि),
स्वयम्भूति, मानसी, तत्त्वसम्भवा, ईश्वराणी, शर्वाणी,
शंकरार्धशरीरिणी, भवानी, रुद्राणी, महालक्ष्मी, अम्बिका,
महेश्वरसमुत्पन्ना, भुक्तिमुक्तिफलप्रदा, सर्वे श्वरी, सर्ववन्द्या,
नित्यमुदितमानसा, ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्रनमिता, शंकरेच्छानुवर्तिनी,
ईश्वरार्धासनगता,. महेश्वरपतिब्रता ॥ ९८--१०३ ॥
सकृद्विभाविता, सर्वा, समुद्रपरिशोषिणी, पार्वती,
हिमवत्पुत्री, परमानन्ददायिनी, गुणाढ्या, योगजा, योग्या,
ज्ञानमूर्ति, विकासिनी, सावित्री, कमला, लक्ष्मी, श्री,
अनन्तोरसिस्थिता (विष्णुके हृदयमें रहनेवाली),
सरोजनिलया, मुद्रा, योगनिद्रा, असुरार्दिनी, सरस्वती,
सर्वविद्या, जगज्ज्येष्टा, सुमड्गला, वाग्देवी, बरदा, वाच्या,
कीर्ति, सर्वार्थसाधिका, योगीश्वरी, ब्रह्मविद्या, महाविद्या,
सुशोभना, गुद्मविद्या, आत्मविद्या, धर्मविद्या, आत्मभाविता,
स्वाहा, विश्वम्भरा, सिद्धि, स्वधा, मेधा, धृति, श्रुति,
नीति, सुनीति, सुकृति, माधवी, नरवाहिनी, अजा,
विभावरी, सौम्या, भोगिनी, भोगदायिनी, शोभा, वंशकरी,
लोला (चञ्जला), मालिनी, परमेष्ठिनी, त्रैलोक्यसुन्दरी,
रम्या, सुन्दरी, कामचारिणी॥ १०४--११० ॥
महानुभावा, सत्त्वस्था, महामहिषमर्दिनी, पद्ममाला,
पापहरा, विचित्रा, मुकुटानना, कान्ता, चित्राम्बरधरा,
दिव्याभरणभूषिता, हंसाख्या, व्योमनिलया, जगत्सृष्टि-
विवर्धिनी ॥ १११-११२॥
४
निर्यन्त्रा यन्त्रवाहस्था नन्दिनी भद्रकालिका।
आदित्यवर्णा कौमारी मयूरवरवाहिनी॥ ११३॥
वृषासनगता गौरी महाकाली सुराचिता।
अदितिर्नियता रौद्री पदागर्भा विवाहना॥ ११४॥
विरूपाक्षी लेलिहाना महापुरनिवासिनी।
महाफलानवद्याड्री कामपूरा विभावरी॥ ११५॥
विचित्ररत्रमुकुटा प्रणतार्तिप्रभज्लिनी ।
कौशिकी कर्षणी रात्रिस्त्रिदशार्तिविनाशिनी ॥ ११६॥
बहुरूपा सुरूपा च विरूपा रूपवर्जिता।
भक्तार्तिशमनी भव्या भवभावविनाशिनी ॥ ११७॥
निर्गुणा नित्यविभवा निः:सारा निरपत्रपा।
यशस्विनी सामगीतिर्भवाड्रनिलयालया॥ ११८॥
दीक्षा विद्याधरी दीघ्ता महेन्द्रविनिपातिनी।
सर्वातिशायिनी विद्या सर्वसिद्धिप्रदायिनी ॥ ११९॥
सर्वेश्वरप्रिया ताक्ष्या समुद्रान्तरवासिनी।
अकललड्डा निराधारा नित्यसिद्धा निरामया॥ १२०॥
कामधेनुर्बृहद्गर्भा धीमती मोहनाशिनी।
निःसड्डल्पा निरातड्डा विनया विनयप्रदा॥ १२१॥
ज्वालामालासहस्त्राढ्या देवदेवी मनोन्मनी ।
महाभगवती दुर्गा वासुदेवसमुद्धवा॥ १२२॥
महेन्द्रोपेन्द्रभगिनी भक्तिगम्या परावरा।
ज्ञानज्ेया जरातीता वेदान्तविषया गति:॥ १२३॥
दक्षिणा दहना दाह्मा सर्वभूतनमस्कृता।
योगमाया विभावज्ञा महामाया महीयसी॥ १२४॥
संध्या सर्वसमुदभूतित्रहमवक्षाअ्रयानति: ।
बीजाह्लुरसमुद्भूतिर्महाशक्तिमहामति:ः ॥ १२५॥
ख्याति: प्रज्ञा चिति: संवित् महाभोगीन्धशायिनी ।
विकृति:ः शांकरी शास्त्री गणगन्धर्वसेविता॥ १२६॥
वैश्वानरी महाशाला देवसेना गुहप्रिया।
महारात्रि: शिवानन्दा शचीदुःस्वननाशिनी॥ १२७॥
इज्या पूज्या जगद्धात्री दुर्विज्ेया सुरूपिणी ।
गुहाम्बिका गुणोत्पत्तिर्महापीठा मरुत्सुता॥ १२८ ॥
हव्यवाहान्तरागादि: हव्यवाहसमुद्धवा।
जगदयोनिर्जगन्माता जन्ममृत्युजरातिगा॥ १२९॥
बुद्धिमाता बुद्धिमती पुरुषान्तरवासिनी।
तरस्विनी समाधिस्था त्रिनेत्रा दिविसंस्थिता॥ १३०॥
क्र कूर्मपुराण न
निर्यन्त्रा, यन्त्रवाहस्था, नन्दिनी, भद्रकालिका,
आदित्यवर्णा, कौमारी, मयूरवरवाहिनी, वृषासनगता,
गौरी, महाकाली, सुराचिता, अदिति, नियता, रीद्री,
पद्मगर्भा, विवाहना, विरूपाक्षी, लेलिहाना, महापुरनिवासिनी,
महाफला, अनवघच्याड़ी, कामपूरा, विभावरी, विचित्ररत्नमुकुय,
प्रणतार्तिप्रभ्ञिनी,गयीि, कौशिकी, कर्षणी, रात्रि,
त्रिदशार्तिविनाशिनी, बहुरूपा, सुरूपा, विरूपा, रूपवर्जिता,
भक्तार्तिशमनी, भव्या, भवभावविनाशिनी ॥ ११३--११७॥
निर्गुणा, नित्यविभवा, नि:सारा, निरपत्रपा, यशस्विनी,
सामगीति, भवाड्गनिलयालया, दीक्षा, विद्याधरी,
दीपा, महेन्द्रविनिपातिनी, सर्वातिशायिनी, विद्या,
सर्वसिद्धिप्रदायिनी, सर्वेश्वरप्रिया, तार्क्ष्या, समुद्रान्तरवासिनी,
अकलंका, निराधारा, नित्यसिद्धा, निरामया, कामधेनु,
बृहदर्भा, धीमती, मोहनाशिनी, नि:सड्डूल्पा, निरातड्डा,
विनया, विनयप्रदा, ज्वालामालासहस्नाढ्या, देवदेवी,
मनोन्मनी, महाभगवती, दुर्गा, वासुदेवसमुद्धवा,
महेन्द्रोपेन्द्रभगिनी, भक्तिगम्या, परावरा, ज्ञानज्ञेया,
जरातीता, वेदान्तविषया, गति, दक्षिणा, दहना, दाह्मा,
सर्वभूतनमस्कृता, योगमाया, विभावज्ञा, महामाया,
महीयसी ॥ ११८--१२४॥
संध्या, सर्वसमुद्धूति, ब्रह्मवृक्षाश्रयानति, बीजाडुर-
समुद्धूति, महाशक्ति, महामति, ख्याति, प्रज्ञा, चिति,
संवितू, महाभोगीन्द्रशायिनी, विकृति, शांकरी, शास्त्री,
गणगन्धर्वसेविता, वैश्वानरी, महाशाला, देवसेना, गुहप्रिया,
महारात्रि, शिवानन्दा, शची, दुःस्वप्ननाशिनी, इज्या,
पूज्या, जगद्धात्री, दुर्विज्ञेया, सुरूपिणी, गुहाम्बिका, गुणोत्पत्ति,
महापीठा, मरुत्सुता, हव्यवाहान्तरागादि, हव्यवाहसमुद्धवा,
जगद्योनि, जगन्माता, जन्ममृत्युजरातिगा, बुद्धिमाता, बुद्धिमती,
पुरुषान्तरवासिनी, तरस्विनी, समाधिस्था, न्ििनेत्रा,
दिविसंस्थिता॥ १२५--१३० ॥
*॑ अध्याय १५९ *
सर्वेन्द्रयमनोमाता सर्वभूतहदिस्थिता।
संसारतारिणी विद्या ब्रह्मगादिमनोलया॥ १३१॥
ब्रह्माणी बृहती ब्राह्मी त्रह्मभूता भवारणि: |
हिरण्मयी महारात्रि: संसारपरिवर्तिका॥ १३२॥
सुमालिनी सुरूपा च भाविनी तारिणी प्रभा।
उन्मीलनी सर्वसहा सर्वप्रत्ययसाक्षिणी॥ १३३॥
सुसौम्या चन्द्रवदना ताण्डवासक्तमानसा।
सत्त्वशुद्धिकरी शुद्धिर्मलत्रयविनाशिनी॥ १३४॥
जगत्प्रिया जगम्मूर्तिस्त्रिमूर्तिरमृताश्रया।
निराश्रया निराहारा निरडःकुरवनोद्धवा॥ १३५॥
चन्द्रहस्ता विचित्राड़ी स्रग्विणी पद्यधारिणी।
परावरविधानज्ञा महापुरुषपूर्वजा॥ १३६॥
विद्येश्वरप्रिया विद्या विद्युज्जिह्ना जितश्रमा।
विद्यामयी सहस्त्राक्षी सहसत्रवदनात्मजा॥ १३७॥
सहस्त्रश्मि: सत्त्वस्था महेश्वरपदाश्रया।
क्षालिनी सन््मयी व्याप्ता तैजसी पद्यब्रोधिका॥ १३८ ॥
महामायाश्रया मान्या महादेवमनोरमा।
व्योमलक्ष्मी: सिंहरथा चेकितानामितप्रभा॥ १३९॥
बीरेश्वरी विमानस्था विशोका शोकनाशिनी।
अनाहता कुण्डलिनी नलिनी पदावासिनी॥ १४०॥
सदानन्दा सदाकीरति: सर्वभूताश्रयस्थिता |
वारदेवता ब्रह्मकला कलातीता कलारणि: ॥ १४१॥
ब्रह्मश्रीत्रह्मददया ब्रह्मविष्णुशिवप्रिया।
व्योमशक्ति: क्रियाशक्तिरज्ञानशक्ति: परागति: ॥ १४२ ॥
क्षोभिका बन्धिका भेद्या भेदाभेदविवर्जिता।
अभिन्नाभिन्नसंस्थाना वंशिनी वंशहारिणी॥ १४३॥
गुह्मशक्तिर्गुणातीता सर्वदा सर्वतोमुखी।
भगिनी भगवत्पत्नी सकला कालकारिणी॥ १५४४॥
सर्ववित् सर्वतोभद्रा गुह्मातीता गुहारणि: ।
प्रक्रिया योगमाता च गड़ा विश्वेश्वरेश्वरी ॥ १४५ ॥
कपिला कापिला कान्ता कनकाभा कलान्तरा।
पुण्या पुष्करिणी भोक्त्री पुरंदरपुरस्सरा॥ १४६॥
पोषणी परमैश्वर्यभूतिदा भूतिभूषणा।
पशञ्चब्नह्मसमुत्पत्ति: परमार्थार्थविग्रहा॥ १४७॥
धर्मोदया भानुमती योगिज्ञेया मनोजवा।
मनोहरा मनोरक्षा तापसी वेदरूपिणी॥ १४८॥
* 'सत्तत (चित्त)।
3५
सर्वेन्द्रियमनोमाता, सर्वभूतहदिस्थिता, संसारतारिणी,
विद्या, ब्रह्मवादिमनोलया, ब्रह्माणी, बृहती, ब्राह्मी, ब्रह्मभूता,
भवारणि, हिरण्मयी, महारात्रि, संसारपरिवर्तिका, सुमालिनी,
सुरूपा, भाविनी, तारिणी, प्रभा, उनन््मीलनी, सर्वसहा,
सर्वप्रत्ययसाक्षिणी, सुसौम्या, चन्द्रवदना, ताण्डवासक्तमानसा,
सत्त्वशुद्धिकरी *, शुद्धि, मलत्रयविनाशिनी, जगत्प्रिया,
जगन्मूर्ति, त्रिमूर्ति, अमृताश्रया, निराश्रया, निराहारा,
निरडूरवनोद्धवा, चन्रहस्ता, विचित्राड़ी, र्नग्विणी, पद्मधारिणी,
परावरविधानज्ञा, महापुरुषपूर्वजा, विद्येश्वरप्रिया, विद्या,
विद्युजिह्वा, विद्यामयी,
सहस्रवदनात्मजा ॥ १३१--१३७ ॥
सहर्नरश्मि, सत्त्वस्था, महेश्वरपदाश्रया, क्षालिनी,
सनन््मयी, व्याप्ता, तैजसी, पद्मबोधिका, महामायाश्रया,
मान्या, महादेवमनोरमा, व्योमलक्ष्मी, सिंहरथा, चेकिताना,
अमितप्रभा, वीरेश्वरी, विमानस्था, विशोका, शोकनाशिनी,
अनाहता, कुण्डलिनी, नलिनी, पद्मवासिनी, सदानन्दा,
सदाकीर्ति, सर्वभूताश्रयस्थिता, वाग्देवता, ब्रह्मकला,
कलातीता, कलारणि, ब्रह्मश्री, ब्रह्महदया, ब्रह्मविष्णुशिवप्रिया,
व्योमशक्ति, क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति, परागति, क्षोभिका,
बन्धिका, भेद्या, भेदाभेदविवर्जिता, अभिन्ना, अभिनन्नसंस्थाना,
वंशिनी, वंशहारिणी, गुद्मयशक्ति, गुणातीता, सर्वदा,
सर्वतोमुखी, भगिनी, भगवत्पतती, सकला,
कालकारिणी॥ १३८--१४४॥
सर्ववित्, सर्वतोभद्रा, गुह्यातीता, गुहारणि, प्रक्रिया,
योगमाता, गज्गजा, विश्वेश्वरेश्वरी, कपिला, कापिला,
कान्ता, कनकाभा, कलान्तरा, पुण्या, पुष्करिणी, भोक्त्री,
पुरंदरपुरस्सरा, पोषणी, परमैश्वर्यभूतिदा, भूतिभूषणा,
पञ्नब्रह्मसमुत्पत्ति, परमार्थार्थविग्रहा, धर्मोदया, भानुमती,
योगिज्ञेया, मनोजवा, मनोहरा, मनोरक्षा, तापसी,
वेदरूपिणी ॥ १४५--१४८ ॥
जितसश्रमा, सहस्रक्षी,
७६
वेदशक्तिवेदमाता वेदविद्याप्रकाशिनी |
योगेश्वरेश्वरी माता महाशक्तिर्मनोमयी॥ १४९॥
विश्वावस्था वियम्मूर्तिविद्युन्माला विहायसी।
किनरी सुरभी वन्द्या नन्दिनी नन्दिवल्लभा॥ १५०॥
भारती परमानन्दा परापरविभेदिका।
सर्वप्रहरणोपेता काम्या कामेश्वरेश्वरी॥ १५१॥
अचिन्त्याचिन्त्यविभवा हल्लेखा कनकप्रभा।
कृष्माण्डी धनरत्नाढ्या सुगन्धा गन्धदायिनी॥ १५२ ॥
त्रिविक्रमपदोदभूता धनुष्पाणि: शिवोदया।
सुदुर्लभा धनाध्यक्षा धनन््या पिड़ललोचना॥ १५३॥
शान्ति: प्रभावती दीप्ति: पड्डूजायतलोचना।
आद्या हत्कमलोदभूता गवां माता रणप्रिया॥ १५४ ॥
सत्क्रिया गिरिजा शुद्धा नित्यपुष्टा निरन्तरा।
दुर्गा कात्यायनी चण्डी चर्चिका शान्तविग्रहा ॥ १५५॥।
हिरण्यवर्णा रजनी जगद्यन्त्रप्रवर्तिका।
मन्दराद्विनिवासा च शारदा स्वर्णमालिनी ॥ १५६ ॥
रत्नमाला रल्रगर्भा पृथ्वी विश्वप्रमाथिनी |
पद्मानना पद्ानिभा नित्यतुष्टामृतोद्धवा॥ १५७॥
धुन्व॒ती दुःप्रकम्प्या च॒ सूर्यमाता दृषद्वती।
महेन्द्रभगिनी मान्या वरेण्या वरदर्पिता॥ १५७८ ॥
कल्याणी कमला रामा पञ्ञभूता वरप्रदा।
वाच्या वरेश्वरी वन्द्या दुर्जया दुरतिक्रमा॥ १५९॥
कालरात्रिर्महावेगा वीरभद्रप्रिया हिता।
भद्गरकाली जगन्माता भक्तानां भद्रदायिनी ॥ १६०॥
कराला पिड्नलाकारा नामभेदामहामदा।
यशस्विनी यशोदा च षडध्वपरिवर्तिका॥ १६१॥
शट्डिनी पद्चिनी सांख्या सांख्ययोगप्रवर्तिका।
अैनत्रा संवत्सरारूढा जगत्सम्पूरणीन्द्रजा॥ १६२॥
शुम्भारि: खेचरी स्वस्था कम्बुग्रीवा कलिप्रिया।
खगध्वजा खगारूढा परार्ध्या परमालिनी ॥ १६३ ॥
ऐश्वर्यवर्त्मनिलया विरक्ता गरुडासना।
जयन्ती हृदगुहा रम्या गह्लरेष्ठा गणाग्रणी:॥ १६४॥
संकल्पसिद्धा साम्यस्था सर्वविज्ञानदायिनी।
कलिकल्मषहन्त्री च गुह्योपनिषदुत्तमा॥ १६५॥
निष्ठा दृष्टि: स्मृति्व्याप्ति: पुष्टिस्तुष्टिः क्रियावती ।
विश्वामरेश्वरेशाना भुक्तिर्मुक्ति: शिवामृता॥ १६६ ॥
हम कूर्मपुराण न
वेदशक्ति, वेदमाता, वेदविद्याप्रकाशिनी, योगेश्वरेश्वरी,
माता, महाशक्ति, मनोमयी, विश्वावस्था, वियम्मूर्ति,
विद्युन्माला, विहायसी, किंनरी, सुरभी, वन्द्या, नन्दिनी,
नन्दिवललभा, भारती, परमानन्दा, परापरविभेदिका,
सर्वप्रहरणोपेता, काम्या, कामेश्वरेश्वरी ॥ १४९--१५१॥
अचिन्त्या, अचिन्त्यविभवा, हल्लेखा, कनकफप्रभा,
कृष्माण्डी, धनरत्नाढ्या, सुगन्धा, गन्धदायिनी,
त्रिविक्रमपदोद्धूता, धनुष्पाणि, शिवोदया, सुदुर्लभा, धनाध्यक्षा,
धन्या, पिड्नललोचना, शान्ति, प्रभावती, दीप्ति,
पड्डूजायतलोचना, आचद्या, हत्कमलोद्धूता, गवां माता
(गौओंकी माता), रणप्रिया, सत्त्रिया, गिरिजा, शुद्धा,
नित्यपुष्टा, निरन्तरा, दुर्गा, कात्यायनी, चण्डी, चर्चिका,
शान्तविग्रहा, हिरण्यवर्णा, रजनी, जगद्यन्त्रप्रवर्तिका, मन्दराद्रि-
निवासा, शारदा, स्वर्णमालिनी, रत्नमाला, रलगर्भा,
पृथ्वी, विश्वप्रमाथिनी, पद्मानना, पद्मनिभा, नित्यतुष्ट,
अमृतोद्धवा, धुन्वती, दुःप्रकम्प्या, सूर्यमाता, दृषद्ठती,
महेन्द्रभगिनी, मान्या, वरेण्या, वरदर्पिता॥ १५२--१५८॥
कल्याणी, कमला, रामा, पञ्ञभूता, वरप्रदा, वाच्या,
वरेश्वरी, वन्द्या, दुर्जया, दुरतिक्रमा, कालरात्रि, महावेगा,
वीरभद्रप्रिया, हिता, भद्रकाली, जगन्माता, भक्तानां भद्र-
दायिनी (भक््तोंका कल्याण करनेवाली), कराला,
पिड्ुलाकारा, नामभेदा, अमहामदा, यशस्विनी, यशोदा,
षडध्वपरिवर्तिका, शट्डिनी, पद्मिनी, सांख्या,
सांख्ययोगप्रवर्तिका, चैत्रा, संवत्सरारूढा, जगत्सम्पूरणीद्धजा,
शुम्भारि, खेचरी, स्वस्था, कम्बुग्रीवा, कलिप्रिया, खगध्वजा,
खगारूढा, परार्ध्या, परमालिनी, ऐश्वर्यवर्त्मनिलया,
विरक्ता, गरुडासना, जयन्ती, हृदगुहा, रम्या, गहरेष्ठा,
गणाग्रणी, संकल्पसिद्धा, साम्यस्था, सर्वविज्ञानदायिनी,
कलिकल्मषहन्त्री, गुह्योपनिषत्, उत्तमा॥ १५९--१६५॥
निष्ठा, दृष्टि, स्मृति, व्याप्ति, पुष्टि, तुष्टि, क्रियावती,
विश्वामरेश्वरेशाना, भुक्ति, मुक्ति, शिवा, अमृता ॥ १६६॥
* अध्याय १५९ +
लोहिता सर्पमाला च भीषणी वनमालिनी।
अनन्तशयनानन्या_ नरनारायणोद्धवा॥ १६७॥
नृसिंही देत्यमथनी शझ्डुचक्रगदाधरा।
संकर्षणसमुत्पत्तिरम्बिकापादसं श्रया ॥ १६८ ॥
महाज्वाला महामूर्ति: सुमूर्ति: सर्वकामधुक् ।
सुप्रभा सुस्तना गौरी धर्मकामार्थमोक्षदा॥ १६९॥
भ्रूमध्यनिलया पूर्वा पुराणपुरुषारणि:।
महाविभूतिदा मध्या सरोजनयना समा॥ १७०॥
अष्टादशभुजानाद्या नीलोत्पलदलप्रभा।
सर्वशकत्यासनारूढा धर्माधर्मार्थवर्जिता॥ १७१॥
बैराग्यज्ञाननिरता निरालोका निरिन्द्रिया।
विचित्रगहनाधारा शाश्रतस्थानवासिनी॥ १७२॥
स्थानेश्वरी निरानन्दा त्रिशूलवरधारिणी।
अशेषदेवतामूर्तिदेवता वरदेवता।
गणाम्बिका गिरे: पुत्री निशुम्भविनिपातिनी॥ १७३॥
अवर्णा वर्णरहिता निवर्णा बीजसम्भवा।
अनन्तवर्णानन्यस्था शंकरी शान्तमानसा॥ १७४॥
अगोत्रा गोमती गोप्ञी गुहारूपा गुणोत्तरा।
गौर्गीर्गव्यप्रिया गौणी गणेश्वरनमस्कृता ॥ १७५॥
सत्यमात्रा सत्यसंधा त्रिसंध्या संधिवर्जिता।
सर्ववादाश्रया संख्या सांख्ययोगसमुद्भवा॥ १७६॥।
असंख्येयाप्रमेयाख्या शून्या शुद्धकुलोद्धवा |
बिन्दुनादसमुत्पत्ति: शम्भुवामा शशिप्रभा।। १७७॥
विसड्रा भेदरहिता मनोज्ञा मधुसूदनी।
महाश्री: श्रीसमुत्पत्तिस्तम:पारेप्रतिष्ठिता॥ १७८ ॥
त्रितत्त्वमाता त्रिविधा सुसूक्ष्मपदसंश्रया।
शान्त्यतीता मलातीता निर्विकारा निराश्रया॥ १७९॥
शिवाख्या चित्तनिलया शिवज्ञानस्वरूपिणी।
दैत्यदानवनिर्मात्री काश्यपी कालकल्पिका॥ १८०॥
शास्त्रयोनि: क्रियामूर्तिश्चतुर्वर्गप्रद्शिका।
नारायणी नरोदभूति: कौमुदी लिड्रधारिणी॥ १८१॥
कामुकी ललिता भावा परापरविभूतिदा।
परान्तजातमहिमा बडवा वामलोचना॥ १८२॥
सुभद्रा देवकी सीता वेदवेदाड्रपारगा।
मनस्विनी मन्युमाता महामन्युसमुद्धवा॥ १८३॥
अमृत्युरमृता स्वाहा पुरुह्दता पुरुष्टुता।
अशोच्या भिन्नविषया हिरण्यरजतप्रिया॥ १८४॥
3७
लोहिता, सर्पमाला, भीषणी, वनमालिनी अनन्तशयना,
नृसिंही, दैत्यमथनी,
शट्डुचक्रगदाधरा, संकर्षणसमुत्पत्ति, अम्बिकापदसं श्रया,
अनन्या, नरनारायणोद्धवा,
महाज्वाला, महामूर्ति, सुमूर्ति, सर्वकामधुक्, सुप्रभा,
सुस्तना, गौरी, धर्मकामार्थमोक्षदा, भ्रूमध्यनिलया, पूर्वा,
पुराणपुरुषारणि, महाविभूतिदा, मध्या, सरोजनयना, समा,
अष्टादशभुजा, नीलोत्पलदल प्रभा,
सर्वशक्त्यासनारूढा, धर्माधर्मार्थवर्जिता, वैराग्यज्ञाननिरता,
निरालोका, निरिन्द्रिया, विचित्रगहनाधारा, शाश्वतस्थानवासिनी,
स्थानेश्वरी, निरानन्दा, त्रिशूलवरधारिणी, अशेषदेवतामूर्ति,
देवता, वरदेवता, गणाम्बिका, गिरे: पुत्री (गिरिपृत्री),
निशुम्भविनिपातिनी ॥ १६७-- १७३ ॥
अनाद्या,
अवर्णा, वर्णरहिता, निवर्णा, बीजसम्भवा, अनन्तवर्णा,
अनन्यस्था, शंकरी, शान्तमानसा, अगोत्रा, गोमती, गोप्ण्ी,
गुह्यरूपा, गुणोत्तरा, गौ: (गौ), गी:, गव्यप्रिया, गौणी,
गणेश्वरनमस्कृता, सत्यमात्रा, सत्यसंधा, त्रिसंध्या,
संधिवर्जिता, सर्ववादाश्रया, संख्या, सांख्ययोगसमुद्धवा,
असंख्येया, अप्रमेयाख्या, शून्या, शुद्धकुलोद्धवा,
बिन्दुनादसमुत्पत्ति, शम्भुवामा, शशिप्रभा, विसड्रा, भेदरहिता,
मनोज्ञा, मधुसूदनी, महाश्री: (महाश्री) श्रीसमुत्पत्ति,
तमःपारेप्रतिष्ठिता, त्रितत्त्वमाता, त्रिविधा, सुसूक्ष्मपदसंश्रया,
शान्त्यतीता, मलातीता, निर्विकारा, निराश्रया, शिवाख्या,
चित्तनिलया, शिवज्ञानस्वरूपिणी, दैत्यदानवनिरात्री,
काश्यपी, कालकल्पिका॥ १७४--१८० ॥
शास्त्रयोनि, क्रियामूर्ति, चतुर्वर्गप्रदर्शिका, नारायणी,
नरोद्धृति, कौमुदी, लिंगधारिणी, कामुकी, ललिता,
भावा, परापरविभूतिदा, परान्तजातमहिमा, बडवा,
वामलोचना, सुभद्रा, देवकी, सीता, वेदवेदाद्भपारगा,
मनस्विनी, मन्युमाता, महामन्युसमुद्धवा, अमृत्यु, अमृता,
स्वाहा, पुरुहूता, पुरुष्ठुता, अशोच्या, भिन्नविषया,
हिरण्यरजतप्रिया॥ १८१--१८४॥
3८
हिरण्या राजती हैमी हेमाभरणभूषिता।
विशभ्राजमाना दुर्ज्ञेया ज्योतिष्टोमफलप्रदा॥ १८५॥
महानिद्रासमुदभूतिरनिद्रा. सत्यदेवता।
दीर्घा ककुद्धिनी हद्या शान्तिदा शान्तिवर्धिनी॥ १८६ ॥
लक्ष्म्यादिशक्तिजननी शक्तिचक्रप्रवर्तिका |
त्रिशक्तिजननी जन्या षड़ूर्मिपरिवर्जिता॥ १८७॥
सुधामा कर्मकरणी युगान्तदहनात्मिका।
संकर्षणी जगदधात्री कामयोनि: किरीटिनी॥ १८८ ॥
ऐन्द्री त्ैलोक्यनमिता वैष्णवी परमेश्वरी।
प्रद्यु्दयिता दान्ता युग्मदृष्टिस्त्रलोचना॥ १८९॥
मदोत्कटा हंसगति:ः प्रचण्डा चण्डविक्रमा।
वृषावेशा वियन्माता विन्ध्यपर्वतवासिनी॥ १९० ॥
हिमवन्मेसनिलया कैलासगिरिवासिनी।
चाणूरहन्तृतनया नीतिज्ञा कामरूपिणी॥ १९१॥
वेदविद्यान्रतस्नाता धर्मशीलानिलाशना।
वीरभद्रप्रिया वीरा महाकालसमुद्धवा॥ १९२॥
विद्याधरप्रिया सिद्धा विद्याधरनिराकृति: ।
आप्यायनी हरन्ती च पावनी पोषणी खिला॥ १९३॥
मातृका मन्मथोदभूता वारिजा वाहनप्रिया।
करीषिणी सुधावाणी वीणावबादनतत्परा॥ १९४॥
सेविता सेविका सेव्या सिनीवाली गरुत्मती।
अरुन्धती हिरण्याक्षी मृगाड्डा मानदायिनी॥ १९५॥
वसुप्रदा वसुमती वसोर्धारा वसुंधरा।
धाराधरा वरारोहा वरावरसहरत्रदा॥ १९६॥
श्रीफला श्रीमती श्रीशा श्रीनिवासा शिवप्रिया।
श्रीधरा श्रीकरी कल्या श्रीधरार्धशरीरिणी ॥ १९७॥
अनन्तदृष्टिरक्षुद्रा धात्रीशा धनदप्रिया।
निहन्न्री दैत्यसद्भानां सिंहिका सिंहवाहना॥ १९८ ॥
सुषेणा चन्द्रनिलया सुकीर्तिश्छिन्नसंशया।
रसज्ञा रसदा रामा लेलिहानामृतस्त्रवा॥ १९९॥
नित्योदिता स्वयंज्योतिरुत्सुका मृतजीवनी
वज्दण्डा वज्जजिह्ना वैदेही वजच्रविग्रहा॥ २००॥
मड़ुल्या मड्भला माला मलिना मलहारिणी।
गान्धर्वी गारुडी चान्द्री कम्बलाश्वतरप्रिया॥ २०१ ॥
सौदामिनी जनानन्दा भ्रुकुटीकुटिलानना।
कर्णिकारकरा कक्ष्या कंसप्राणापहारिणी ॥| २०२॥
युगंधरा युगावर्ता त्रिसंध्या हर्षवर्धिनी।
प्रत्यक्षदेवता दिव्या दिव्यगन्धा दिवापरा॥ २०३॥
न कूर्मपुराण हे
हिरण्या, राजती, हैमी, हेमाभरणभूषिता, विभ्राजमाना,
दुर्शया, ज्योतिष्टोमफलप्रदा, महानिद्रासमुद्धूति, अनिद्रा,
सत्यदेवता, दीर्घा, ककुद्यिनी, हद्या, शान्तिदा, शान्तिवर्धिनी,
त्रिशक्ति-
जननी, जन्या, षडूर्मिपरिवर्जिता, सुधामा, कर्मकरणी,
युगान्तदहनात्मिका, संकर्षणी, जगद्धात्री, कामयोनि, किरीटिनी,
ऐन्द्री, जैलोक्यनमिता, वैष्णवी, परमेश्वरी, प्रद्युम्नदयिता,
दान्ता, युग्मदृष्टि, त्रिलोचना॥ १८५--१८९॥
मदोत्कटा, हंसगति, प्रचण्डा, चण्डविक्रमा, वृषावेशा,
विन्ध्यपर्वतववासिनी, हिमवन्मेरुनिलया,
कैलासगिरिवासिनी, चाणूरहन्तृतनया, नीतिज्ञा, कामरूपिणी,
लक्ष्म्यादिशक्तिजननी, शक्तिचक्रप्रवर्तिका,
वियन्माता,
वेदविद्यात्रतस्नाता, धर्मशीला, अनिलाशना, वीरभद्र-
प्रिया, वीरा, महाकालसमुद्धवा, विद्याधरप्रिया, सिद्धा,
विद्याधरनिराकृति, आप्यायनी, हरन्ती, पावनी, पोषणी,
खिला, मातृका, मन्मथोद्धूता, वारिजा, वाहनप्रिया, करीषिणी,
सुधावाणी, वीणावादनतत्परा, सेविता, सेविका, सेव्या,
सिनीवाली, गरुत्मती, अरुन्धती, हिरण्याक्षी, मृगाड्रा,
मानदायिनी, वसुप्रदा, वसुमती, वसोर्धारा, वसुंधरा,
धाराधरा, वरारोहा, वरावरसहसर्रदा॥ १९०--१९६॥
श्रीफला, श्रीमती, श्रीशा, श्रीनिवासा, शिवप्रिया,
श्रीधरा, श्रीकरी, कल्या, श्रीधरार्धशरीरिणी, अनन्तदृष्टि,
अक्षुद्रा, धात्रीशा, धनदप्रिया, दैत्यसंघानां निहन्त्री
(दैत्यसंघनिहन्त्री), सिंहिका, सिंहवाहना, सुषेणा, चन्द्रनिलया,
सुकीर्ति, छिन्नसंशया, रसज्ञा, रसदा, रामा, लेलिहाना,
अमृतस््रवा, नित्योदिता, स्वयंज्योति, उत्सुका, मृतजीवनी,
वज्रद॒ण्डा, वत्नजिह्ना, वैदेही, वज्नविग्रहा, मड्ल्या, मड्भला,
माला, मलिना, मलहारिणी, गान्धर्वी, गारुडी, चाढद्दी,
कम्बलाश्वतरप्रिया ॥ १९७--२०१ ॥
सौदामिनी, जनानन्दा, भ्रुकुटीकुटिलानना, कर्णिकारकर',
कक्ष्या, कंसप्राणापहारिणी, युगंधरा, युगावर्ता,
त्रिसंध्या, हर्षवर्धिनी, प्रत्यक्षदेवता, दिव्या, दिव्यगन्धा,
दिवापरा॥ २०२-२०३॥
* अध्याय १५१ *
शक्रासनगता शाक्री साध्वी नारी शवासना।
इष्टा विशिष्टा शिष्टेष्टा शिष्टाशिष्टप्रपूजिता ॥ २०४ ॥
शतरूपा शतावर्ता विनता सुरभि: सुरा।
सुरेन्द्रमाता सुझ्युम्ना सुषुम्ना सूर्यसंस्थिता ॥ २०५॥
समीक्ष्या सत्प्रतिष्ठा च निवृत्तिज्ञनिपारगा।
धर्मशास्त्रार्थकुशला धर्मज्ञा धर्मवाहना॥ २०६॥
धर्माधर्मविनिर्मात्री धार्मिकाणां शिवप्रदा।
धर्मशक्तिर्धर्ममयी विधर्मा विश्वधर्मिणी॥ २०७॥
धर्मान्तरा धर्ममेघा धर्मपूर्वा धनावहा।
धर्मोपदेष्टी धर्मात्मा धर्मगम्या धराधरा॥ २०८॥
कापाली शाकला मूर्ति: कला कलितविग्रहा ।
सर्वशक्तिविनिर्मुक्ता सर्वशक्त्याश्रयाश्रया॥ २०९॥
सर्वा सर्वेश्वरी सूक्ष्मा सुसूक्ष्मा ज्ञानरूपिणी |
प्रधानपुरुषशेशा_ महादेवैकसाक्षिणी |
सदाशिवा वियम्मूर्तिविश्वमूर्तिरमूर्तिका॥ २१०॥
एवं नाम्नां सहस्त्रेण स्तुत्वासौ हिमवान् गिरिः ।
भूय: प्रणम्य भीतात्मा प्रोवाचेदं कृताउ्जलि: ॥ २११॥
यदेतदेश्वर रूपं घोर ते परमेश्वारि।
भीतो5स्मि साम्प्रतं दृष्ठा रूपमन्यत् प्रदर्शय॥ २१२॥
एवमुक्ताथ सा देवी तेन शैलेन पार्वती।
संहत्य दर्शयामास स्वरूपमपरं पुनः॥ २१३॥
नीलोत्पलदलप्रख्यं नीलोत्पलसुगन्धिकम् |
द्विनेत्रं द्विभुजं सौम्यं नीलालकविभूषितम्॥ २१४॥
रक्तपादाम्बुजतलं॑ सुरक्तकरपल्लवम् |
श्रीमद् विशालसंव॒ृत्तललाटतिलकोज्वलम्॥ २१५॥
भूषितं चारुसर्वाड्र|ं भूषणैरतिकोमलम्।
दधानमुरसा मालां विशालां हेमनिर्मिताम्॥ २१६॥
ईषत्स्मितं सुबिम्बोष्ठ नूपुरारावसंयुतम्।
प्रसन्नवदन॑ दिव्यमनन्तमहिमास्पदम्॥ २१७॥
3९
शक्रासनगता, शाक्री, साध्वी, नारी, शवासना,
इष्टा, विशिष्टा, शिष्टेष्टा, शिष्टाशिष्टप्रपूजिता, शत-
रूपा, शतावर्ता, विनता, सुरभि, सुरा, सुरेन्द्रमाता,
सुद्युम्ना, सुषुम्ना, सूर्यसंस्थिता, समीक्ष्या, सत्प्रतिष्ठा,
निवृत्ति, ज्ञानपारगा, धर्मशास्त्रार्थकुशला, धर्मज्ञा,
धर्मवाहना ॥ २०४--२०६ ॥
धर्माधर्मविनिर्मात्री, धार्मिकाणां शिवप्रदा ( धार्मिकोंका
कल्याण करनेवाली), धर्मशक्ति, धर्ममयी, विधर्मा,
विश्वधर्मिणी, धर्मान्तरा, धर्ममेघा, धर्मपूर्वा, धनावहा,
धर्मोपदेष्ट्री, धर्मात्मा, धर्मगम्या, धराधरा, कापाली,
शाकला, मूर्ति, कला, कलितविग्रहा, सर्वशक्तिविनिर्मुक्ता,
सर्वशक्त्याश्रयाश्रया, सर्वा, सर्वेश्वरी, सूक्ष्मा, सुसूक्ष्मा,
ज्ञानरूपिणी, प्रधानपुरुषेशेशा, महादेवैकसाक्षिणी, सदाशिवा,
वियन्मूर्ति, विश्वमूर्ति तथा अमूर्तिका--(के नामसे
प्रसिद्ध) हैं॥ २०७--२१० ॥
इस प्रकार हजार नामोंसे (देवीकी) स्तुति करके
वे भयभीत हिमवान् पर्वत पुनः प्रणाम कर हाथ जोड़ते
हुए इस प्रकार बोले--॥२११॥
हे परमेश्वरि! यह जो आपका घोर ऐश्वर (विराट्)-
रूप है, उसे देखकर मैं इस समय भयभीत हो गया
हूँ, आप अपना दूसरा (सौम्य) रूप मुझे दिखायें। उस
(हिमवान्) पर्वतके द्वारा ऐसा कहे जानेपर उन देवी
पार्ववीने अपने उस विराट् रूपको समेटकर दूसरा
(सौम्य) रूप उन्हें दिखलाया॥ २१२-२१३॥
(देवीका वह रूप) नीले कमलदलके समान
(नीलवर्णवाला), नीलकमलके समान सुगन्धियुक्त, दो
नेत्र एवं दो भुजावाला, सौम्य, नीले अलकोंसे विभूषित,
रकक््तकमलके समान चरणतलवाला, सुन्दर लाल पल्लवके
समान हाथवाला, श्रीयुक्त (वह रूप) विशाल एवं
प्रशस्त ललाटपर लगे तिलकसे प्रफुल्लित (था) । (उसके)
सभी अड्ज अत्यन्त कोमल, सुन्दर तथा भूषणोंसे आभूषित
थे। (उन देवीने) स्वर्णनिर्मित विशाल मालाको अपने
वक्ष:स्थलपर धारण कर रखा था। सुन्दर बिम्बफलके
समान (रक्त) ओठ मन्द मधुर मुसकानयुकत था।
(चरणोंमें धारण किये) नूपुरोंसे ध्वनि निकल रही थी।
(देवीका वह रूप) प्रसन्न मुखवाला तथा दिव्य एवं
अनन्त महिमामें प्रतिष्ठित था॥ २१४--२१७॥
८०
तदीदृशं समालोक्य स्वरूपं शैलसत्तम: ।
भीतिं संत्यज्य हष्टात्मा बभाषे परमेश्वरीम्॥ २१८ ॥
हिमवानुवाच
अद्य मे सफलं जन्म अद्य मे सफलं तप: ।
यम्मे साक्षात् त्वमव्यक्ता प्रसन्ना दृष्टिगोचरा ॥ २१९॥
त्वया सृष्टे जगत् सर्व प्रधानाद्यं त्वयि स्थितम्।
त्वय्येव लीयते देवि त्वमेव च परा गति: ॥ २२०॥
वदन्ति केचित् त्वामेव प्रकृति प्रकृतेः: पराम्।
अपरे परमार्थज्ञा: शिवेति शिवसंश्रये॥ २२१॥
त्वयि प्रधान पुरुषो महान् ब्रह्मा तथेश्वर: ।
अविद्या नियतिर्माया कलाद्या: शतशो5भवन्॥ २२२॥
त्वं हि सा परमा शक्तिरनन्ता परमेष्ठिनी।
सर्वभेदविनिर्मुक्ता सर्वभेदाभ्रया निजा॥ २२३॥
त्वामधिष्ठाय योगेशि महादेवो महे श्र: ।
प्रधानाद्यं जगत् कृत्स्नं करोति विकरोति च॥ २२४॥
त्वयैव संगतो देव: स्वमानन्दं समश्नुते।
त्वमेव परमानन्दस्त्वमेवानन्ददायिनी ॥ २२५॥।
त्वमक्षरं पर॑ व्योम महज्योतिर्निरञ्जनम्।
शिवं सर्वगतं सूक्ष्मं परं ब्रह्म सनातनम्॥ २२६॥
त्वं शक्रः सर्वदेवानां ब्रह्मा बत्रह्मविदामसि।
वायुर्बलवतां देवि योगिनां त्वं कुमारकः ॥ २२७॥
ऋषीणां च वसिष्ठस्त्वं व्यासो वेदविदामसि।
सांख्यानां कपिलो देवो रुद्राणामसि शंकर: ॥ २२८ ॥
आदित्यानामुपेन्द्रस्त्वं बसूनां चैव पावक: ।
बेदानां सामवेदस्त्व॑ गायत्री छन््दसामसि॥ २२९॥
अध्यात्मविद्या विद्यानां गतीनां परमा गति: ।
माया त्वं सर्वशक्तीनां काल: कलयतामसि॥ २३०॥
ओड्जारः सर्वगुह्यानां वर्णानां च द्विजोत्तम: |
आश्रमाणां च गार्हस्थ्यमी श्वराणां महेश्वर: ॥ २३१॥
न कूर्मपुराण न
पर्वतश्रेष्ठ हिमवान् देवीके इस प्रकारके (सौम्य)
स्वरूपको देखकर भयका परित्यागकर प्रसन्न-मन
होकर परमेश्वरीसे कहने लगे--॥ २१८ ॥
हिमवान् बोले--मेरा जन्म लेना आज सफल हो
गया, आज मेरा तप सफल हो गया, जो मुझे
अव्यक्तस्वरूपा आप प्रसन्न होकर दृष्टिगोचर हुई हैं।
देवि! आपके द्वारा सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि हुई है, आपमें
प्रधानादि प्रतिष्ठित हैं और आपमें ही (वह सब ) लीन
भी हो जाता हैं। आप ही परम गति भी हैं। शिवके
आश्रयमें रहनेवाली देवि! कुछ लोग आपको ही प्रकृति
तथा प्रकृतिसे परे कहते हैं और दूसरे परमार्थको
जाननेवाले आपको शिवा कहते हैं। आपमें प्रधान,
पुरुष, महान्, ब्रह्मा तथा ईश्वर (प्रतिष्ठित हैं)।
(आपसे ) अविद्या, नियति, माया और सैकड़ों कला
आदिकोी उत्पत्ति हुई हैं॥ २१९--२२२॥
आप ही वह परमा शक्ति, अनन्ता और परमेष्ठिनी
हैं। आप सभी भेदोंसे विनिर्मक्त और सभी भेदोंके
आश्रय एवं स्वयं प्रतिष्ठित हैं। हे योगेश्वरी ! आपमें ही
अधिष्ठित होकर महादेव महेश्वर प्रधान आदि सम्पूर्ण
जगत्की रचना करते हैं और फिर (उसका) संहार
करते हैं। आपके ही संयोगसे महादेव स्वात्मानन्दका
उपभोग करते हैं। आप ही परमानन्द (रूपा) और आप
ही आनन्द प्रदान करनेवाली हैं। आप अक्षर, परमव्योम,
महान् ज्योति, निरञज्जन, कल्याणरूप, सर्वगत, सूक्ष्म
एवं सनातन परम ब्रह्म हैं। देवि! आप सभी देवताओंमें
इन्द्र (रूप) और ब्रह्मज्ञानियोंमें ब्रह्मा (रूप) हैं। (आप)
बलवानोंमें वायु (रूप) तथा योगियोंमें कुमारक
(सनत्कुमार) हैं॥२२३--२२७॥
आप कऋऋषियोंमें वसिष्ठ, वेदविदोंमें व्यास हैं।
सांख्यशास्त्रके जाननेवालोंमें कपिलदेव तथा रुद्रोंमें शंकर
हैं। आप आदित्योंमें उपेन्द्र (विष्णु) तथा वसुओंमें
पावक हैं। वेदोंमें आप सामवेद तथा छन्दोंमें गायत्री छन्द
हैं। विद्याओंमें अध्यात्मविद्या तथा गतियोंमें परम गति
हैं। आप सभी शक्तियोंमें माया और संहार करनेवालोंमें
काल (रूप) हैं। आप सभी गुद्मोंमें ऑंकार और वर्णोमें
द्विजोत्तम हैं। आश्रमोंमें गृहस्थाश्रम तथा ईश्वरोंमें महेश्वर
हैं॥ २२८--२३१॥
* अध्याय ९५९ *+
पुंसां त्वमेकः पुरुष: सर्वभूतहृदि स्थित: ।
सर्वोपनिषदां देवि गुह्योपनिषदुच्यसे॥ २३२॥
ईशानश्लवासि कल्पानां युगानां कृतमेव च।
आदित्य: सर्वमार्गाणां वाचां देवी सरस्वती॥ २३३॥
त्वं लक्ष्मीश्षारुरूपाणां विष्णुर्मायाविनामसि।
अरुन्धती सतीनां त्वं सुपर्ण: पततामसि॥ २३४॥
सूक्तानां पौरुषं सूक्त ज्येष्ठराम च सामसु।
सावित्री चासि जप्यानां यजुषां शतरुद्रियम्॥ २३५॥
पर्वतानां महामेरुरनन्तो भोगिनामसि।
सर्वेषां त्वं पर ब्रह्म त्वन्मयं सर्वमेव हि॥ २३६॥
रूपं तवाशेषकलाविहीन-
मगोचरं निर्मलमेकरूपम् ।
अनादिमध्यान्तमनन्तमाद्यं
नमामि सत्यं तमसः परस्तात्॥ २३७॥
यदेव पश्यन्ति जगत्प्रसूतिं
वेदान्तविज्ञानविनिश्चितार्था: ।
आनन्दमात्र॑ प्रणवाभिधानं
तदेव रूपं शरणं
अशेषभूतान्तरसंनिविष्टं
प्रधानपुंयोगवियोगहेतुम् ।
तेजोमयं जन्मविनाशहीनं
प्राणाभिधानं प्रणतोडस्मि रूपम्॥ २३९॥
आद्चन्तहीनं॑ जगदात्मभूत॑
विभिन्नसंस्थं प्रकृतेः परस्तातू।
कूटस्थमव्यक्तवपुस्तवैव
नमामि रूपं पुरुषाभिधानम्॥ २४० ॥
सर्वाश्रयं सर्वजगद्ठिधानं
सर्वत्रगं जन्मविनाशहीनम् ।
सूक्ष्मं विचित्र त्रिगुणं प्रधान
नतोउस्मि ते रूपमलुप्तभेदम्॥ २४१॥
आईं महत् ते पुरुषात्मरूपं
प्रकृत्यवस्थं त्रिगुणात्मबीजम् |
ऐश्वर्यविज्ञानविरागधर्म:
समन्वितं देवि नतोउस्मि रूपम्॥ २४२॥
प्रपद्ये ॥ २३८ ॥
९
पुरुषोंमें जो (उत्तम) पुरुष है और जो सभी
प्राणियोंक हृदयमें रहनेवाला है, वह एकमात्र आप ही
हैं। देवि! आप सभी उपनिषदोंमें गुह्मोपनिषत् कही
जाती हैं। कल्पोंमें आप ईशानकल्प हैं और युगोंमें
सत्ययुग हैं। सभी भ्रमण करनेवालों (ग्रह-नक्षत्रों
आदि)-में आदित्य (सूर्य) तथा वाणियोंमें सरस्वती
देवी हैं। सुन्दर रूपवालोंमें आप लक्ष्मी और मायावियोंमें
विष्णु हैं। आप पतित्रताओंमें अरुन्धती तथा पक्षियोंमें
गरुड हैं। आप सूकतोंमें पुरुषबसूक्त, सामगानोंमें ज्येष्ठ
साम हैं। जपने योग्य मन्त्रोंमें सावित्री मन्त्र और
यजुर्वेदके मन्त्रोंमें शतरुद्रिय आप ही हैं ॥ २३२--२३५॥
आप पर्वतोंमें महामेरु और सर्पोमें अनन्त (नाग)
हैं। सभीमें आप परत्रह्म हैं, सब कुछ आपमें ही व्याप्त
है। में आपके तमोगुणसे परे रहनेवाले उस सत्यरूपको
नमस्कार करता हूँ जो समस्त कलाओंसे रहित,
अगोचर, निर्मल, अद्वितीय, आदि, मध्य तथा अन्तरहित,
अनन्त और आदिस्वरूप हैं। वेदान्तरूपी विज्ञानके अर्थका
निश्चय करनेवाले, जगत्के उत्पादक प्रणव नामवाले
जिस अद्वितीय आनन्दका साक्षात्कार करते हैं, मैं उसी
रूपकी शरण ग्रहण करता हूँ। (मैं) समस्त प्राणियोंके
भीतर रहनेवाले, प्रधान और पुरुषके संयोग तथा
वियोगके कारण, उत्पत्ति एवं विनाशसे रहित तथा
तेजोमय उस प्राण नामवाले रूपको प्रणाम करता
हूँ॥ २३६--२३९ ॥
(में) आदि तथा अन्तसे रहित, संसारके आत्मारूप,
अनेक रूपोंमें स्थित, प्रकृतिसे परे रहनेवाले, कूटस्थ
एवं अव्यक्त शरीर धारण करनेवाले पुरुष नामक
आपके रूपको नमस्कार करता हूँ। मैं सभीके
आश्रयरूप, सम्पूर्ण संसारका विधान करनेवाले, सर्वत्र
व्यातछ, जन्म और मरणसे रहित, सूक्ष्म, विचित्र,
त्रिगुणात्मक, प्रधानस्वरूप तथा अलुप्त भेदवाले आपके
रूपको प्रणाम करता हूँ। देवि! आपका जो आदइ्य,
महान्, पुरुषात्मक रूप है, जो प्रकृतिमें अवस्थित
है, त्रिगुणात्मक मूल बीजरूप है तथा ऐश्वर्य, विज्ञान
और विराग-धर्मोसे समन्वित है, मैं उसे नमस्कार
करता हूँ॥ २४०--२४२॥
८२
द्विससलोकात्मकमम्बुसंस्थं
विचित्रभेद॑ पुरुषैकनाथम् |
अनन्तभूतैरधिवासितं ते
नतो5स्मि रूपं जगदण्डसंज्ञम्॥ २४३॥
अशेषवेदात्मकमेकमाद्यं
स्वतेजला पूरितलोकभेदम्।
त्रिकालहेतुं परमेष्टिसंज्ञं
नमामि रूप॑ रविमण्डलस्थम्॥ २४४॥
सहस्त्रमूर्धानमनन्तशक्तिं
सहस्त्रबाहुं पुरुष॑ पुराणम्।
शयानमन्तःसलिले तथेव
नारायणाख्यं प्रणतो5स्मि रूपम्॥ २४५॥।
दंष्टाकरालं त्रिदशाभिवन्द्र॑
युगान्तकालानलकल्परूपम् ।
अशेषभूताण्डविनाशहेतुं
नमामि रूपं तव कालसंज्ञम॥ २४६॥
फणासहस्त्रेण विराजमान
भोगीन्द्रमुख्यैरभिपूज्यमानम्_।
जनार्दनारूढतनु प्रसुप्त
नतो5स्मि रूपं तव शेषसंज्ञम्॥ २४७॥
अव्याहतैश्वर्यमयुग्मनेत्र
ब्रह्मामृतानन्दरसज्ञमेकम् |
युगान्तशेषं दिवि नृत्यमानं
नतोउस्मि रूपं॑ तव रुद्रसंज्ञम्॥ २४८॥
प्रहीणशोक॑ विमल॑ पवित्र
सुरास्रैरचितपादपद्मम् ।
सुकोमलं देवि विशालशुभ्र॑
नमामि ते रूपमिंदं नमामि॥ २४९॥
3» नमस्ते महादेवि नमस्ते परमेश्वारि।
नमो भगवतीशानि शिवाये ते नमो नमः ॥ २५० ॥
त्वन्मयो5हं त्वदाधारस्त्वमेव च गतिमम।
त्वामेव शरणं यास्ये प्रसीद परमेश्वारि॥ २५१॥।
मया नास्ति समो लोके देवों वा दानवो5पि वा।
जगन्मातैव मत्पुत्री सम्भूता तपसा यतः॥ २७२॥
न कूर्मपुराण न
चौदह लोकात्मक, जलमें अवस्थित, विचित्र
भेदवाले, परम पुरुषको ही अपना स्वामी स्वीकार
करनेवाले, अनन्त प्राणियोंके निवासस्थान, उस जगदण्ड
(ब्रह्माण्ड)-संज्ञक आपके रूपको में नमस्कार करता
हूँ। (में) समग्र वेदरूप, अद्वितीय, आदि, अपने तेजसे.
सम्पूर्ण संसारको व्याप्त करनेवाले, तीनों कालोंके कारण
तथा सूर्यमण्डलमें प्रतिष्ठित परमेष्ठी नामवाले रूपको
नमस्कार करता हूँ। जो हजारों सिरवाले हैं, अनन्त
शक्ति-सम्पन्न हैं, हजारों हाथवाले हैं तथा जलके
मध्यमें शयन करनेवाले हैं, मैं उन 'नारायण” नामसे
प्रसिद्ध पुराणपुरुषके रूपको प्रणाम करता हूँ। (देवि!)
आपका जो रूप भयंकर दाढ़वाला, देवताओंद्वारा
सब प्रकारसे वन्दनीय, प्रलयकालीन अग्निके समान
रूपवाला और सम्पूर्ण प्राणियोंक विनाशके लिये कारण-
रूप है, में उस काल नामवाले रूपको नमस्कार
करता हूँ॥ २४३--२४६॥
(देवि!) मैं आपके शेष नामवाले उस रूपको
प्रणाम करता हूँ, जो हजारों फणोंसे सुशोभित है, प्रधान-
प्रधान नागराजोंसे पूजित है, जनार्दन नामसे शरीर धारण
किये हुए है तथा प्रगाढ़ निद्रामें है। जिसका ऐश्वर्य
अव्याहत (अबाधित)है, जिसके नेत्र विषम हैं, (जो
तीन नेत्रोंसे युक्त है), जो ब्रह्मके अमृतरूपी आनन्द-
रसको जाननेवाला है, अद्वितीय है, प्रलयकालमें स्थित
रहनेवाला है और जो च्यचुलोकमें नृत्य करता रहता है
(देवि!) मैं आपके उस रुद्र नामवाले रूपको प्रणाम
करता हूँ। देवि! (मैं) शोकसे सर्वथा शून्य, निर्मल,
पवित्र, देवताओं तथा असुरोंसे पूजित चरणकमलवाले
आपके अत्यन्त कोमल, विशाल एवं उज्ज्वल इस
रूपको नमस्कार करता हूँ, बार-बार नमस्कार करता हूँ।
महादेवि! आपको नमस्कार है, परमेश्वरि! आपको
नमस्कार है। भगवती ईशानीको नमस्कार है, कल्याणरूपिणी
आपको बार-बार नमस्कार है॥ २४७--२५० ॥
में आपसे व्याप्त हूँ, आप मेरे आधार हैं और आप ही
मेरी गति हैं। परमेश्वरि ! मैं आपकी ही शरण ग्रहण करता
हूँ, आप (मुझपर) प्रसन्न हों। मेरे समान संसारमें देवता या
दानव कोई भी नहीं है, क्योंकि (मेरे) तपके कारण आप
जगन्माता ही मेरी पुत्रीके रूपमें उत्पन्न हुई हैं॥ २५१-२५२॥
* अध्याय ९१९ *
एषा तवाम्बिका देवि किलाभूत् पितृकन्यका।
मेनाशेषजगन्मातुरहो पुण्यस्थ गौरवम्॥ २७३॥
पाहि माममरेशानि मेनया सह सर्वदा।
नमामि तव पादाब्जं ब्रजामि शरणं शिवाम्॥ २५४ ॥
अहो मे सुमहद् भाग्यं महादेवीसमागमात्।
आज्ञापय महादेवि कि करिष्यामि शंकरि॥ २५५॥
एतावदुक््त्वा वचन तदा हिमगिरीश्वर: ।
सम्प्रेक्षमाणो गिरिजां प्राउजलि: पाश्वतो5भवत्॥ २५६ ॥
अथ सा तस्य वचन निशम्य जगतो5रणि: ।
सस्मितं प्राह पितरं स्मृत्वा पशुपतिं पतिम्॥ २५७॥
देव्युवाच
श्रुणुष्व चैतत् परमं गुहामीश्वरगोचरम्।
उपदेशं गिरिश्रेष्ठ सेवितं ब्रह्मवादिभि:॥ २५८॥
यन्मे साक्षात् परं रूपमैश्वरं दृष्टमद्भुतम्।
सर्वशक्तिसमायुक्तमनन्तं प्रेरक॑ परम्॥ २५९॥
शान्त: समाहितमना दम्भाहंकारवर्जित: ।
तन्निष्ठस्तत्परो भूत्वा तदेव शरणं त्रज॥ २६०॥
भकक्त्या त्वनन्यया तात मद्धाव परमाश्रितः ।
सर्वयज्ञतपोदानैस्तदेवार्चय सर्वदा॥ २६१॥
तदेव मनसा पश्य तद् ध्यायस्व जपसव च।
ममोपदेशात् संसारं नाशयामि तवानघ॥ २६२॥
अहं वे मत्परान् भक्तानैश्वरं योगमास्थितान् ।
संसारसागरादस्मादुद्धराम्यचिरिण_ तु॥ २६३॥
ध्यानेन कर्मयोगेन भकत्या ज्ञानेन चैव हि।
प्राप्याहं ते गिरिश्रेष्ठ नान््यथा कर्मकोटिभि: ॥ २६४॥
श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यक् कर्म वर्णा श्रमात्मकम् ।
अध्यात्मज्ञानसहितं मुक्तये सततं कुरु ॥ २६५॥
धर्मात् संजायते भक्तिर्भक्त्या सम्प्राप्पते परम्।
श्रुतिस्मृतिभ्यामुदितो धर्मो यज्ञादिको मत: ॥ २६६ ॥
०३
देवि! ये पितरोंकी कन्या मेना सम्पूर्ण संसारकी
मातास्वरूप आपकी माता हैं, अहो! पुण्यके गौरवका
क्या कहना ? अमरेशानि! आप मेनाके साथ मेरी सर्वदा
रक्षा करें। मैं आपके चरणकमलोंमें नमस्कार करता हूँ
और आप कल्याणकारिणीकी शरणमें हूँ॥ २५३-२५४॥
अहो! महादेवीके (मेरे घर) आ जानेसे मेरा
बहुत बड़ा सौभाग्य हुआ। महादेवि! शंकरि! आप
मुझे आज्ञा दें कि में क्या करूँ? ऐसा वचन कहकर
वह गिरिराज हिमालय गिरिजाको देखते हुए एवं
हाथ जोड़ते हुए उनके पास खड़े हो गये। जगत्की
अरणि (मूल कारण) -रूप उस देवीने उनका (हिमवानूका)
वचन सुनकर अपने पति पशुपति (शंकर)-का
स्मरणकर मधुर-मधुर मुसकराते हुए पिता (हिमवान्)-
से कहा--॥ २५५--२५७ ॥
देवी बोलीं--गिरिश्रेष्ठ ! ब्रह्मवादियोंद्वारा सेवित
केवल ईश्वरको ज्ञात इस परम गुह्य उपदेशको
सुनो। मेरे जिस सर्वशक्तिसम्पन्न, अनन्त, परम प्रेरक,
अद्भुत एवं ऐश्वर्यसम्पन्न रूपको तुमने देखा है,
शान्त एवं एकाग्रमन होकर, दम्भ और अहंकारका
सर्वथा परित्यागकर, अत्यन्त निष्ठा रखकर, तत्परायण
हो उसी (रूप)-की शरण ग्रहण करो। तात! अनन्य
भक्तिपूर्वक मेरे श्रेष्ठ भावका आश्रय ग्रहणकर, सभी
यज्ञ, तप, दान (आदि साधनों)-के द्वारा सदा उसी
(रूप)-की अर्चना करो। मेरे उपदेशको मानकर मनसे
उसी (रूप)-को देखो, उसीका ध्यान करो और
उसीका जप करो। अनघ! मैं तुम्हारे संसार ( भवबन्धन)-
को विनष्ट कर दूँगी॥२५८--२६२॥
ऐश्वर-योगमें स्थित अपने भक्तोंका मैं इस संसार-
सागरसे शीघ्र ही उद्धार कर देती हूँ। गिरिश्रेष्ठ। मैं
ध्यान, कर्मयोग, भक्ति तथा ज्ञानके द्वारा ही तुम्हारे लिये
प्राप्य हूँ, दूसरे करोड़ों कर्मोके द्वारा मुझे प्राप्त नहीं किया
जा सकता। श्रुति तथा स्मृति-शास्त्रोंमें जो सम्यक्
वर्णाश्रमकर्म (धर्म) बतलाया गया है, मुक्ति-प्राप्तिके
लिये अध्यात्मज्ञानयुक्त उस (कर्म)-का निरन्तर आचरण
करो। धर्मसे भक्ति उत्पन्न होती है और भक्तिसे परम
(तत्त्व) प्राप्त होता है। श्रुति एवं स्मृतिद्वारा प्रतिपादित
यज्ञादि कर्मको धर्म कहा गया है॥ २६३--२६६ ॥
८४
नान््यतो जायते धर्मों वेदाद धर्मो हि निर्बभो।
तस्मान्मुमुक्षुर्धर्मार्थी मद्रूपं वेदमाश्रयेत्॥ २६७॥
ममैवैषा परा शक्तिर्वेद्संज्ञा पुरातनी।
ऋग्यजु:ःसामरूपेण सर्गादौ सम्प्रवर्तते ॥ २६८ ॥
तेषामेव च गुप्त्यर्थ वेदानां भगवानज:।
ब्राह्मणादीन् ससर्जाथ स्वे स्वे कर्मण्ययोजयत् ॥। २६९ ॥
येन कुर्वन्ति तद धर्म तदर्थ ब्रह्मनिर्मितम् ।
तेषामधस्तान्नरकांस्तामिसत्रादीनकल्पयत ॥ २७० ॥
नच वेदाद ऋते किश्िच्छास्त्रधर्माभिधायकम् ।
योअन्यत्र रमते सोडइसौ न सम्भाष्यो द्विजातिभि: ॥ २७१॥
यानि शास्त्राणि दृश्यन्ते लोकेउस्मिन् विविधानि तु।
श्रुतिस्मृतिविरुद्धानि निष्ठा तेषां हि तामसी॥ २७२॥
कापालं पद्ञरात्रं च यामलं वाममाहतम् |
एवंविधानि चान्यानि मोहनार्थानि तानि तु॥ २७३॥
ये कुशास्त्राभियोगेन मोहयन्तीह मानवान्।
मया सृष्टानि शास्त्राणि मोहायैषां भवान्तरे।। २७४॥
बेदार्थवित्तमै: कार्य यत् स्मृतं कर्म वैदिकम ।
तत् प्रयत्नेन कुर्वन्ति मत्प्रियास्ते हि ये नरा: ॥ २७५॥
वर्णानामनुकम्पार्थ मन्नियोगाद विराट स्वयम्।
स्वायम्भुवो मनुर्धर्मान् मुनीनां पूर्वमुक्ततान्॥ २७६ ॥॥
श्रुत्वा चान्येडपि मुनयस्तन्मुखाद धर्ममुत्तमम्।
अक्रुर्धर्मप्रतिष्ठार्थ धर्मशास्त्राणि चैव हि॥ २७७॥
तेषु चान्तर्हितेष्वेव॑ युगान्तेषु महर्षय:।
ब्रह्मणो वचनात् तानि करिष्यन्ति युगे युगे॥ २७८ ॥
अष्टादश पुराणानि व्यासेन कथितानि तु।
नियोगाद ब्रह्मणो राजंस्तेषु धर्म: प्रतिष्ठित: ॥ २७९॥
अन्यान्युपपुराणानि तच्छिष्यै: कथितानि तु।
युगे युगेउन्न सर्वेषां कर्ता वे धर्मशास्त्रवित्॥ २८०॥
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्त छन्द एव च।
ज्योति:शास्त्र न््यायविद्या मीमांसा चोपबृंहणम्॥ २८१॥
हम कूर्मपुराण नर
धर्म किसी अन्यसे उत्पन्न नहीं होता, वेदसे ही धर्म
निर्गत है। इसलिये धर्मार्थी एवं मुमुक्षुको चाहिये कि मेरे
स्वरूपभूत वेदका आश्रय ग्रहण करे। मेरी ही यह 'वेद'
नामवाली पुरातन परा शक्ति ऋक्, यजुष् तथा सामवेदके
रूपमें सृष्टिके आदिमें प्रवर्तित होती है॥ २६७-२६८॥
उन्हीं वेदोंकी रक्षाके लिये भगवान् ब्रह्माने ब्राह्मणादिको
उत्पन्न कर अपने-अपने कर्मोमें लगाया। ब्रह्मद्वारा
बनाये गये उस (वेदविहित वर्णाश्रम) धर्मका जो पालन
नहीं करते हैं, उनके लिये (तब्रह्माने) नीचेके लोकोंमें
स्थित तामिस्न आदि नरकॉंको बनाया है। धर्मका विधान
करनेवाले अथवा धर्मको बतलानेवाले वेदको छोड़कर
और अन्य कोई शास्त्र नहीं हैं। जो (वेदाभ्यासके अतिरिक्त)
अन्यत्र मन लगाते हैं, द्विजातियोंके द्वारा वे सम्भाषण
करने योग्य नहीं हैं। इस संसारमें श्रुति एवं स्मृतिके
विरुद्ध जो विविध शास्त्र देखे जाते हैं, निश्चय ही उनमें
निष्ठा (विश्वास) रखना तमोगुणी (निष्ठा) है। जो
कुत्सित शास्त्रोंके प्रभावको बतलाकर मनुष्योंको मोहित
करते हैं, इस संसारमें उन लोगोंको मोहित करनेके लिये
मैंने (ऐसे ) शास्त्रोंको बनाया है॥ २६९--२७४॥
वेदके अर्थको जाननेवाले श्रेष्ठ दिद्वानोंके द्वारा जिस
कर्मको वेदसम्मत कहा गया है वही (कर्म) करणीय है
और जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक उस कर्मको करते हैं, बे मुझे
प्रिय हैं। प्राचीन कालमें विराट् (पुरुष) स्वायम्भुव
मनुने सभी वर्णोपर अनुग्रह करनेके लिये मेरी ही
आज्ञासे (भगु आदि) मुनियोंसे धर्म (मनुस्मृति) कहा
था। उनके मुखसे श्रेष्ठ धर्मका श्रवणकर अन्य मुनियोंने
भी धर्मकी प्रतिष्ठाके लिये अन्य धर्मशास्त्रों (स्मृतियों)-
की रचना की | प्रलयकाल में उनके ( धर्मशास्त्रोंके) अन्त्हिंत
हो जानेपर प्रत्येक युगमें वे महर्षिगण ब्रह्माके कहनेपर
पुनः उन शास्त्रोंकी रचना करते हैं॥ २७५--२७८॥
राजन्! ब्रह्माके आदेशसे व्यासजीने अठारह
(महा-) पुराणोंकों कहा है। उन (पुराणों)-में धर्म
प्रतिष्ठित है। अन्य उपपुराण उन व्यासजीके शिष्योंद्रारा
कहे गये हैं। यहाँ प्रत्येक युगमें इन सभी शास्त्रोंका
कर्ता ही धर्मशास्त्रका ज्ञाता होता है। सत्तम! चार
वेदोंसहित शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक््त, छन््द,
ज्योतिषशास्त्र, न्यायविद्या, मीमांसा तथा उपबृंहण (इतिहास
और पुराण)--॥ २७९--२८१॥
* अध्याय ९१९ *
«५
एवं चतुर्दशैतानि विद्यास्थानानि सत्तम।
चतुर्वेदे: सहोक्तानि धर्मो नान्यत्र विद्यते॥ २८२॥
एवं पैतामहं धर्म मनुव्यासादय: परम्।
स्थापयन्ति ममादेशाद यावदाभूतसम्प्लवम्॥ २८३ ॥
ब्रह्मणा सह ते सर्वे सम्प्राप्ते प्रतिसंचरे।
परस्यान्ते कृतात्मान: प्रविशन्ति परे पदम्॥ २८४ ॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन धर्मार्थ वेदमाश्रयेत्।
धर्मेण सहितं ज्ञान पर ब्रह्म प्रकाशयेत्॥ २८५ ॥
ये तु सड्रान् परित्यज्य मामेव शरणं गता: ।
उपासते सदा भकक्त्या योगमैश्वरमास्थिता: ॥ २८६ ॥
सर्वभूतदयावन्त: शान्ता दान्ता विमत्सरा: ।
अमानिनो बुद्धिमन्तस्तापसा: शंसितब्रता: ॥ २८७॥
मच्चित्ता मदगतप्राणा मज्ज्ञानकथने रता: ।
संन्यासिनो गृहस्थाश्र वनस्था ब्रह्मचारिण: ॥ २८८ ॥
तेषां नित्याभियुक्तानां मायातत्त्वसमुत्थितम् ।
नाशयामि तम: कृत्स्न॑ ज्ञानदीपेन मा चिरात्॥ २८९॥
ते सुनिर्धूततमसो ज्ञानेनेकेन मन्मया:।
सदानन्दास्तु संसारे न जायन्ते पुनः पुनः॥ २९०॥
तस्मात् सर्वप्रकारेण मदभक्तो मत्परायण: ।
मामेवार्चय सर्वत्र मेनया सह संगतः॥ २९१॥
अशक्तो यदि मे ध्यातुमेश्वरं रूपमव्ययम्।
ततो मे सकल॑ रूप॑ कालाद्यं शरणं द्नज॥ २९२॥
यद यत् स्वरूपं मे तात मनसो गोचर भवेत् ।
ततन्निष्ठस्तत्पो भूत्वा तदर्चनपरो भव॥ २९३॥
यत्तु मे निष्कलं रूप॑ चिन्मात्रं केवल शिवम्।
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तमनन्तममृतं परम्॥ २९४॥
ज्ञानेनेकेन तल्लभ्यं क्लेशेन परमं पदम्।
ज्ञानमेव प्रपश्यन्तो मामेव प्रविशन्ति ते॥ २९५॥
इस प्रकार ये चौदह विद्यास्थान कहे गये हैं। इनके
अतिरिक्त अन्यत्र धर्म विद्यमान नहीं है॥ २८२॥
इस प्रकार मनु, व्यास आदि पितामह न्रह्माके द्वारा
निर्दिष्ट श्रेष्ठ धर्मको मेरे ही आदेशसे प्रलयकालपर्यन्त
स्थापित करते हैं। ब्रह्माकी आयु पूर्ण हो जानेपर प्रलय-
काल उपस्थित होनेपर वे सभी पुण्यात्मा (व्यासादि)
ब्रह्मके साथ ही परम पदमें प्रवेश करते हैं॥ २८३-२८४ ॥
इसलिये धर्मके (परिज्ञानके) लिये सभी प्रकारके
प्रयत्नसे वेदका आश्रय ग्रहण करना चाहिये, (इससे)
धर्मसहित ज्ञान और परम त्रह्म प्रकाशित हो जाता है ॥ २८५ ॥
जो सभी प्रकारकी आसक्तियोंका परित्याग कर
अनन्यभावसे मेरी शरण ग्रहण कर लेते हैं, ईश्वर-
सम्बन्धी योगमें स्थित होकर भक्तपूर्वक सदा मेरी
उपासना करते हैं, सभी प्राणियोंपर दया करते हैं, शान्त,
जितेन्द्रिय, मात्सर्यरहित, मानरहित, बुद्धिमान् तपस्वी
तथा ब्रतपरायण हैं, मुझमें जिनका चित्त और प्राण लगा
हुआ है, मेरे तत्त्व-वर्णनमें ही जो लगे हुए हैं ऐसे
संन््यासी, गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा ब्रह्मचारी जो कोई भी
हों, उन नित्य भक्तिमें लगे हुए भक्तोंके माया-तत्त्वसे
उत्पन्न सम्पूर्ण अन्धकारका ज्ञानरूपी दीपकके द्वारा मैं
अविलम्ब ही विनाश कर देती हूँ। अद्वितीय ज्ञानके द्वारा
जिनके अन्धकारका भलीभाँति विनाश हो गया है ऐसे
ही मत्परायण (भक्त) सदा आनन्दित रहते हैं और
संसारमें बार-बार जन्म नहीं लेते॥ २८६--२९० ॥
इसलिये सब प्रकारसे मेरे भक्त और मेरे परायण
रहते हुए (तुम) मेनाके साथ सर्वत्र मेरी ही अर्चना
करो। यदि तुम मेरे ऐश्वर्यसम्पन्न अव्यय-स्वरूपका
ध्यान करनेमें असमर्थ हो तो मेरे आदिकालस्वरूप
कलात्मक रूपकी शरण ग्रहण करो। तात! मेरा जो-
जो भी रूप आपके मनको अभीष्ट हो, उसीमें निष्ठा
रखो और उसीके परायण होकर उसकी ही आराधनामें
संलग्न रहो॥ २९१--२९३ ॥
मेरा जो कलारहित, चिन्मात्र, अद्वितीय, कल्याणकारी,
सभी उपाधियोंसे सर्वथा मुक्त, अनन्त, अमर एवं
परमरूप है, वह परमपद एकमात्र ज्ञानके द्वारा बड़े ही
कष्टसे प्राप्त किया जाता है। ज्ञानका साक्षात्कार करनेवाले
लोग मुझमें ही प्रवेश करते हैं॥ २९४-२९५॥
८६
तदबुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: ॥ २९६॥।
मामनाशअ्रित्य परमं निर्वाणममलं पदम्।
प्राप्यते न हि राजेन्द्र ततो मां शरणं त्रज।॥। २९७॥
एकत्वेन पृथक्त्वेन तथा चोभयतोऊ5पि वा।
मामुपास्य महाराज ततो यास्यसि तत्पदम्॥ २९८ ॥
मामनाश्रित्य तत् तत्त्वं स््वभावविमलं शिवम्।
ज्ञायते न हि राजेन्द्र ततो मां शरणं व्रज॥ २९९॥
तस्मात् त्वमक्षरं रूप॑ नित्यं चारूपमैश्वरम् ।
आराधय प्रयत्नेन ततो बन्ध॑ प्रहास्यसि॥ ३००॥
कर्मणा मनसा वाचा शिवं सर्वत्र सर्वदा।
समाराधय भावेन ततो यास्यसि तत्पदम्॥ ३०१॥
न वे पश्यन्ति तत् तत्त्व मोहिता मम मायया।
अनाचद्यनन्तं परमं॑ महेश्वरमजं शिवम्॥ ३०२॥
सर्वभूतात्मभूतस्थं सर्वाधारं निरञ्जनम्।
नित्यानन्दं निराभासं निर्गुणं तमसः परम्॥ ३०३॥
अद्वैतमचलं ब्रह्म निष्कलं निष्प्रपञ्नकम |
स्वसंवेद्यमवेद्यं तत् परे व्योम्नि व्यवस्थितम्॥ ३०४॥
सूक्ष्मेण तमसा नित्यं वेष्टिता मम मायया।
संसारसागरे घोरे जायन्ते च पुनः पुनः:॥ ३०५॥
भक्त्या त्वनन्यया राजन् सम्यग् ज्ञानेन चेव हि।
अन्वेष्टव्यं हि तद् ब्रह्म जन्मबन्धनिवृत्तये॥ ३०६ ॥
अहंकारं च मात्सर्य काम॑ क्रोधं परिग्रहम्।
अधर्माभिनिवेशं च त्यक्त्वा वैराग्यमास्थित: ॥ ३०७॥
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
अन्वीक्ष्य चात्मनात्मानं ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ ३०८ ॥
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा सर्वभूताभयप्रद:।
ऐश्वरीं परमां भक्ति विन्देतानन्यगामिनीम्॥ ३०९॥
वीक्षते तत् परं तत्त्वमैश्वरं ब्रह्मनिष्कलम् ।
सर्वसंसारनिर्मुक्तो. ब्रह्मण्येवावतिष्ठते ॥ ३१०॥
नं कूर्मपुराण न
उसीमें (मेरे दिव्य रूपमें ) बुद्धि रखनेवाले, उसीमें
अपनेको लगानेवाले, उसीमें निष्ठा रखनेवाले तथा
उसीके परायण और ज्ञानके द्वारा जिनके समस्त पाप
विनष्ट हो गये हैं, वे सभी आवागमनके चक्रमें नहीं
पड़ते अर्थात् मोक्षको प्राप्त करते हैं। राजेन्द्र ! मेरी शरण
ग्रहण किये बिना परम निर्वाण,निर्मल पद प्राप्त नहीं
होता, इसलिये मेरी शरण ग्रहण करो। महाराज! द्वैत या
अट्ठैत अथवा दोनों ही रूपोंसे मेरी उपासना कर तुम्हें
उस पदकोी प्राप्ति हो जायगी ॥ २९६--२९८ ॥
हे राजेन्द्र! बिना मेरा आश्रय लिये स्वभावसे ही
निर्मल, उस शिवतत्त्वको जाना नहीं जा सकता, अतः
मेरी शरण ग्रहण करो। इसलिये. तुम नित्य, अक्षरस्वरूप
एवं रूपरहित ईश्वर (तत्त्व)-की प्रयत्नपूर्वक आराधना
करो। इससे (तुम) बन्धनसे मुक्त हो जाओगे। मन,
वाणी तथा कर्मसे बड़े ही भावसे सर्वत्र शिवकौ
आराधना करो, इससे (तुम) उस पदको प्राप्त करोगे।
मेरी मायासे मोहित (प्राणी) उस अनादि, अनन्त,
अजन्मा, कल्याणकारी, परम महेश्वर, सभी प्राणियोंके
अन्तरमें निवास करनेवाले, सभीके आधार, निरझन,
नित्य आनन्दस्वरूप, निराभास, निर्गुण, अन्धकारसे परे,
अद्वेत, अचल, कलारहित, निष्प्रपञ्न, स्वसंवेद्य, अज्ञेय
तथा परमाकाशमें स्थित ब्रह्मसंज्ञक तत्त्वको नहीं जान
पाते ॥ २९९--३०४ ॥
मेरी मायाद्वारा नित्य सूक्ष्म तमोगुणसे घिरे हुए प्राणी
(इस ) घोर संसारसागरमें बार-बार जन्म लेते हैं। राजन्!
जन्मरूपी बन्धनकी निवृत्तिके लिये अनन्य भक्ति एवं
सम्यक् ज्ञानके द्वारा उस ब्रह्मका अन्वेषण करना चाहिये।
(राजन! जो) अहंकार, मात्सर्य, काम, क्रोध, संग्रहकी
प्रवृत्ति तथा अधर्माचरणमें रुचिका सर्वथा परित्याग कर
अनासक्तभावमें स्थित रहते हैं और सभी प्राणियोंमें
अपनेको एवं सभी प्राणियोंको अपनी अन्तरात्मामें स्थित
देखते हैं, वे आत्माद्वारा अन्तरात्माका साक्षात्कार कर
ब्रह्मको प्राप्त करनेके योग्य बन जाते हैं । सभी प्राणियोंको
अभय प्रदान करनेवाले तथा प्रसन्न मनवाले ब्रह्ममें
एकीभावसे स्थित, अनन्यगामिनी परम ईश्वरभक्तिको
प्राप्त कर लेते हैं। वे उस ऐश्वर्ययुक्त निष्कल ब्रह्मतत्त्वका
साक्षात् करते हैं और समस्त संसारसे अनासक्त होते हुए
एकमात्र ब्रह्ममें ही प्रतिष्ठित हो जाते हैं॥ ३०५--३१० ॥
* अध्याय १५९ *
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठायं परस्य परम: शिवः।
अनन्तस्याव्ययस्यैक: स्वात्माधारो महेश्वर: ॥ ३१९ ॥
ज्ञानेन कर्मयोगेन भक्तियोगेन वा नृप।
सर्वसंसारमुक्त्यर्थभीएवर॑ सतत श्रय॥ ३१२॥
एप गुह्योपदेशस्ते मया दत्तो गिरीश्वर।
अन्वीक्ष्य चेतदखिलं यथेष्ट कर्तुमहसि॥ ३१३॥
अहं वे याचिता देवै: संजाता परमे श्वरात् |
विनिन्द् दक्ष पितरं महेश्वरविनिन्दकम्॥ ३१४॥
धर्मसंस्थापनार्थाय तवाराधनकारणात्।
मेनादेहसमुत्पन्ना त्वामेव पितरं श्रिता॥ ३१५॥
स त्वं नियोगाद देवस्य ब्रह्मण: परमात्मन: ।
प्रदास्यसे मां रुद्राय स्वयंवरसमागमे॥ ३१६॥
तत्सम्बन्धाच्च ते राजन् सर्वे देवा: सवासवा: ।
त्वां नमस्यन्ति वै तात प्रसीदति च शंकर: ॥ ३१७॥
तस्मात् सर्वप्रयलेन मां विद्धीश्वरगोचराम् ।
सम्पूज्य देवमीशानं शरण्यं शरणं ब्रज॥ ३१८ ॥
स एवमुक्तो भगवान् देवदेव्या गिरीएवरः ।
प्रणम्य शिरसा देवीं प्राउजलि: पुनरत्रवीत्॥ ३१९॥
विस्तरेण महेशानि योगं माहेश्वरं परम्।
ज्ञानं चेवात्मनो योग साधनानि प्रचक्ष्व मे ॥। ३२० ॥
तस्यैतत् परमं ज्ञानमात्मयोगमनुत्तमम्
यथावद् व्याजहारेशा साधनानि च विस्तरात्॥ ३२१॥
निशम्य वदनाम्भोजाद गिरीन्द्रो लोकपूजितः ।
लोकमातु: पर॑ ज्ञानं योगासक्तो5भवत् पुन: ॥ ३२२॥
प्रददौ च महेशाय पार्वती भाग्यगौरवात्।
नियोगाद ब्रह्मण: साध्वीं देवानां चैव संनिधौ ॥ ३२३ ॥
य इमं पठतेडध्यायं देव्या माहात्म्यकीर्तनम् ।
शिवस्य संनिधौ भक्त्या शुचिस्तद्भावभावित: ॥ ३२४॥
सर्वपापविनिर्मुक्तो दिव्ययोगसमन्वितः।
उल्लब्डध ब्रह्मणो लोकं देव्या: स्थानमवाप्नुयात्॥ ३२५ ॥
८७
ये अद्वितीय, अपनी आत्माके आश्रय महेश्वर परमशिव
ही अनन्त तथा अव्यय पर ब्रह्मकी प्रतिष्ठा-रूप हैं।
राजन्! ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्तियोगके द्वारा
समस्त संसारसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये निरन्तर ईश्वरका
आश्रय ग्रहण करो। पर्वतराज हिमालय! मैंने यह गुह्म
उपदेश तुम्हें प्रदान किया है, इस सम्पूर्ण उपदेशपर
विचारकर तुम जैसा चाहो वैसा करो॥ ३११--३१३॥
महादेव शंकरकी निन्दा करनेवाले अपने पिता दक्षकी
आलोचना कर देवताओंके द्वारा प्रार्थना करनेपर मैं
परमेश्वरसे प्रादुर्भूत हुई हूँ। तुम्हारी आराधनाके कारण
धर्मकी स्थापना करनेके लिये तुम्हें ही पिताके रूपमें
आश्रय बनाकर मैं मेनाकी देहसे उत्पन्न हुई हूँ। आप
परमात्मा ब्रह्मदेवके निर्देशसे स्वयंवरके समय मुझे रुद्रको
प्रदान करेंगे। राजन्! तात! उस सम्बन्धके कारण इन्द्रसहित
सभी देवता आपको नमस्कार करेंगे तथा भगवान् शंकर
भी आपसे प्रसन्न होंगे। इसलिये सभी प्रकारके प्रयत्नोंके
द्वारा मुसे ही ईश्वरकी विषयस्वरूपा (ईश्वरका सर्वस्व)
समझो और शरण ग्रहण करने योग्य भगवान् शंकरकी
पूजाकर उनकी शरणमें जाओ॥ ३१४--३१८॥
भगवान् महादेवकी देवी (शंकरपत्नी)-के द्वारा
इस प्रकार कहे जानेपर वे पर्वतराज हिमालय विनयपूर्वक
प्रणामकर हाथ जोड़ते हुए पुनः महेश्वरीसे कहने
लगे--महेशानि! आप मुझे परम माहेश्वर योगको
विस्तारसे बतलाइये और ज्ञान तथा साधनोंसहित आत्मयोगको
भी विस्तारपूर्वक बतलायें॥ ३१९-३२०॥
(इसपर) भगवती पार्वतीने उन्हें वह परम ज्ञान,
श्रेष्ठ आत्मयोग और उसकी प्रासिके साधनोंको भी
विस्तारपूर्वक भलीभाँति बतलाया। जगजननीके मुखकमलसे
परम ज्ञान सुनकर वे लोकपूजित पर्वतराज हिमालय
पुनः योगमें आसक्त हो गये। (कालान्तरमें हिमालयने)
ब्रह्माजीके आदेशसे देवताओंकी संनिधिमें (अपने)
सौभाग्यकी अभिवृद्धि समझते हुए साध्वी पार्वतीको
महेश्वरके लिये प्रदान किया॥ ३२१--३२३॥
जो व्यक्ति भगवान् शिवके सांनिध्यमें उनके
भावसे भावित होकर पवित्रतापूर्वक देवीके माहात्म्यका
वर्णन करनेवाले इस अध्यायका पाठ करता है, वह
सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है और दिव्य योगसे
समन्वित होकर ब्रह्मलोककों पारकर देवीके स्थानको
प्राप्त करता है॥ ३२४-३२५॥
८८
यश्चैतत् पठते स्तोत्र ब्राह्मणानां समीपत: ।
देव्या: समाहितमना: सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ ३२६॥।
नाप्नामष्टसहस्त्रं तु देव्या यत् समुदीरितम्।
ज्ञात्वार्कमण्डलगतां सम्भाव्य परमेश्वरीम्॥ ३२७॥
अभ्यर्च्य गन्धपुष्पाद्येर्भक्तियोगसमन्वित: ।
संस्मरन् परमं भावं देव्या माहेश्वरं परम्॥ ३२८ ॥
अनन्यमानसो नित्यं जपेदामरणाद् द्विज: ।
सो5न्तकाले स्मृतिं लब्ध्वा पर ब्रह्माधिगच्छति ॥ ३२९॥
अथवा जायते विप्रो ब्राह्मणानां कुले शुचौ ।
पूर्वसंस्कारमाहात्म्याद् ब्रह्मविद्यामवाप्य स: ॥ ३३० ॥
सम्प्राप्य योगं परमं दिव्यं तत् पारमे श्वरम ।
शान्त: सर्वगतो भूत्वा शिवसायुज्यमाप्नुयात्॥ ३३१॥
प्रत्येक चाथ नामानि जुहुयात् सवनत्रयम् ।
पूतनादिकृतैदषिग्रहदोषैश्न मुच्यते॥ ३३२॥
जपेद् वाहरहर्नित्यं संवत्सरमतन्द्रित: ।
श्रीकाम: पार्वती देवीं पूजयित्वा विधानत: ॥ ३३३ ॥
सम्पूज्य पार््वत: शम्भुं त्रिनेत्रं भक्तिसंयुत: ।
लभते महतीं लक्ष्मी महादेवप्रसादत:॥ ३३४॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन जप्तव्यं हि द्विजातिभि: ।
सर्वपापापनोदार्थ देव्या नाम सहसरत्रकम्॥ ३३५॥
प्रसड्रात् कथितं विप्रा देव्या माहात्म्यमुत्तमम्।
अतः पर प्रजासर्ग भृग्वादीनां निबोधत॥ ३३६॥
* कूर्मपुराण *
जो एकाग्रमनसे ब्राह्मणोंके समीपमें देवीके इस
(सहस्त्ननाम) स्तोत्रका पाठ करता है, वह सभी पापोंसे
विमुक्त हो जाता है॥ ३२६ ॥
देवीका जो एक सहस्न आठ नामवाला स्तोत्र
बतलाया गया है, उसे जानकर सूर्यमण्डलमें स्थित
परमेश्वरीकी भावना करते हुए गन्ध, पुष्प आदिके द्वारा
भक्तियोगपूर्वक उनकी अर्चना द्विजको करनी चाहिये
और देवीके परम माहेश्वर श्रेष्ठ भावका अनन्य-मनसे
मरणपर्यन्त स्मरण करते हुए इस उपदिष्ट एक हजार
आठ नामोंका नित्य जप करना चाहिये। ऐसा करनेसे
द्विज अन्त-समयमें (देवीकी) स्मृति प्राप्तकर परब्रह्मको
प्राप्त करता है॥ ३२७--३२९॥
अथवा वह विप्र ब्राह्मणोंके पवित्र कुलमें उत्पन्न
होता है और पूर्वजन्मके संस्कारोंके प्रभावसे वह त्रह्मविद्याको
प्रात करता है। परमेश्वर-सम्बन्धी उस परम दिव्य
योगको प्राप्ततर वह शान्त तथा सर्वत्र व्याप्त होते हुए
शिवसायुज्यको प्राप्त करता है। (जो व्यक्ति प्रात:, मध्याह
तथा सायं--) तीनों समय देवीके प्रत्येक नामसे हवन
करता है, वह पूतना आदिद्वारा उत्पन्न (अरिष्ट) दोषों
तथा ग्रहोंके दोषोंसे मुक्त हो जाता हैं॥ ३३०--३३२॥
अथवा लक्ष्मीप्राप्ताकी इच्छा करनेवाला द्विज
विधिपूर्वक देवीकी पूजाकर और उनके पार्श्वभाग
(समीप)-में तीन नेत्रवाले भगवान् शंकरकी पूजा करता
है तथा एक वर्षतक आलस्यरहित होकर प्रतिदिन
निरन्तर (देवीके सहस्ननामका) जप करता है, वह
महादेव भगवान् शंकरकी कृपासे महालक्ष्मीको प्राप्त
करता है॥ ३३३-३३४॥
इसलिये द्विजातियोंको सभी प्रकारके प्रयत्रोंके द्वारा
सभी पापोंसे छुटकारा प्राप्त करनेके लिये देवीके सहस्ननामका
जप करना चाहिये। विप्रो! मैंने प्रसड्रवश देवीका उत्तम
माहात्म्य आप लोगोंसे कहा। अब इसके बाद आपलोग
भूगु आदि महर्षियोंकी प्रजासृष्टिको सुनें ॥ ३३५-३३६॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहम्रधां संहितायां पूर्वविधागे एकादशोउध्याय: ॥ १९ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ११॥
* अध्याय १२ *
८९
बारहवाँ अध्याय
महर्षि भूगु, मरीचि, पुलस्त्य तथा अत्रि आदिद्वारा दक्ष-कन्याओंसे उत्पन्न संतान-
परम्पराका वर्णन, उनचास अग्नियों, पितरों तथा गड्ढके प्रादुर्भावका वर्णन
सूत उवाच
भृगो: ख्यात्यां समुत्पन्ना लक्ष्मीनारायणप्रिया ।
देवो धाताविधातारौ मेरो्जामातरो तथा॥
आयतिर्नियतिरमेरो: कन्ये चेव महात्मनः।
धाताविधात्रोस्ते भार्ये तयोर्जातो सुतावुभौ॥ २ ॥
प्राणश्चेव मृकण्डुश्व मार्कण्डेयो मृकण्डुतः ।
तथा वेदशिरा नाम प्राणस्य द्युतिमान् सुत:॥ ३ ॥
मरीचेरपि सम्भूति: पौर्णमासमसूयत।
कन्याचतुष्टयं चेव सर्वलक्षणसंयुतम्॥ ४ ॥
तुष्टिज्येष्ठा तथा वृष्टि: कृष्टिश्रापचितिस्तथा ।
विरजा: पर्वतश्चैव पौर्णमासस्य तौ सुतौो॥ ५ ॥
क्षमा तु सुषुवे पुत्रान् पुलहस्य प्रजापते:।
कर्दमं च वरीयांसं सहिष्णुं मुनिसत्तमम्॥ ६ ॥
तथेव च कनीयांसं तपोनिर्धूतकल्मषम्।
अनसूया तथेवात्रेर्जज्ञे पुत्रानकल्मषान्॥ ७ ॥
सोम॑ दुर्वाससं चैव दत्तात्रेयं च योगिनम्।
स्मृतिश्चवाड्धिरस: पुत्रीर्जज्ञे लक्षणसंयुता:॥ ८ ॥
सिनीवालीं कुहूं चैव राकामनुमतिं तथा।
प्रीत्यां पुलस्त्यो भगवान् दत्तात्रिमसृजत् प्रभु: ॥ ९ ॥
पूर्वजन्मनि सो5गस्त्य: स्मृतः स्वायम्भुवेडन्तरे।
बेदबाहुं तथा कन््यां सन्नतिं नाम नामतः॥ १०॥
पुत्राणां षष्टिसाहरत्रं संतति: सुषुवे क्रतो:।
ते चोर्ध्वरेतस: सर्वे बालखिल्या इति स्मृता: ॥ ११॥
वसिष्ठश्न तथोर्जायां सप्त पुत्रानजीजनत्।
कन्यां च पुण्डरीकाक्षां सर्वशोभासमन्विताम्॥ १२॥
सूतजी बोले--महर्षि भृगुकी “ख्याति” नामक
पत्नीसे नारायणकी पत्नी लक्ष्मी उत्पन्न हुई तथा धाता
एवं विधाता नामक दो देवता भी उनसे उत्पन्न हुए, जो
मेरुके जामाता हुए। महात्मा मेरकी आयति तथा नियति
नामकी दो कन्याएँ थीं, वे क्रमश: धाता तथा विधाताकी
पत्नियाँ थीं, उनसे दो पुत्र उत्पन्न हुए--प्राण और
मृकण्डु। मृकण्डुसे मार्कण्डेय हुए तथा प्राणके कान्तिमान्
वेदशिरा नामके पुत्र हुए॥ १--३॥
महर्षि मरीचिके भी सम्भूति (नामक पत्नी)-ने
सभी (शुभ) लक्षणोंसे सम्पन्न पौर्णमास नामक पुत्र
और चार कन्याओंको उत्पन्न किया। सबसे बड़ी
(कन्याका नाम) तुष्टि तथा अन्य तीन कन्याओंका नाम
वृष्टि, कृष्टि और अपचिति था। पौर्णमासके विरजा
तथा पर्वत नामके दो पुत्र थे॥४-५॥
प्रजापति पुलहकी पत्नी क्षमाने कर्दम, वरीयान्
और उनसे छोटे सहिष्णु नामक श्रेष्ठ मुनिको जन्म दिया
जो तपके कारण पाप-रहित थे। उसी प्रकार अत्रिकी
पत्नी अनसूयाने चन्द्रमा, दुर्वासा और योगी दत्तात्रेय
नामक पुण्यात्मा पुत्रोंको उत्पन्न किया। महर्षि अड्रिराकी
स्मृति नामक पत्नीने सिनीवाली, कुहू, राका तथा अनुमति
(नामवाली) शुभलक्षणसम्पन्न (चार) पुत्रियोंको जन्म
दिया। प्रभु भगवान् पुलस्त्यने (अपनी पत्नी) प्रीतिसे
दत्तात्रि (नामक पुत्र)-को उत्पन्न किया। स्वायम्भुव
मन्वन्तरके (अपने) पूर्वजन्ममें वे ही अगस्त्य नामसे
प्रसिद्ध थे। (पुलस्त्यको प्रीतिसे) वेदबाहु (नामक एक
अन्य पुत्र) और “'सन्नति! इस नामसे प्रसिद्ध (एक)
कन्या थी॥६--१०॥
महर्षि क्रतुकी पत्नी संततिने साठ हजार पुत्रोंको
जन्म दिया। वे सभी ऊर्ध्वरेता बालखिल्य इस नामसे
प्रसिद्ध हुए। महर्षि वसिष्ठने ऊर्ज्जा नामक पत्नीसे सात
पुत्रों और कमलके समान नेत्रवाली तथा सभी प्रकारकी
शोभाओंसे सम्पन्न एक कन्याको जन्म दिया॥ ११-१२॥
९७०
रजोहश्वोर्ध्वबाहुश्चन सवनश्वानघस्तथा।
सुतपाः शुक्र इत्येते सप्त पुत्रा महोजसः॥ १३॥
योञ्सौ रुद्रात्मको वह्िब्रह्मणस्तनयो द्विजा: ।
स्वाहा तस्मात् सुतान् लेभे त्रीनुदारान् महौजस: ॥ १४॥
पावकः पवमानश्च शुचिरग्निश्व ते त्रयः।
निर्मथ्य: पवमान: स्याद वैद्युत: पावकः स्पृत:॥ १५॥
यश्चासौ तपते सूर्य: शुचिरग्रिस्त्वसौ स्मृतः ।
तेषां तु संततावन्ये चत्वारिशच्च पञ्ञ च॥ १६॥
पावकः: पवमानश्च शुचिस्तेषां पिता च यः ।
एते चैकोनपञ्ञाशद् वह्यः परिकीर्तिता:॥ १७॥
सर्वे तपस्विनः प्रोक्ता: सर्वे यज्ञेषु भागिन: |
रुद्रात्मका: स्मृता: सर्वे त्रिपुण्ड्राद्धितमस्तका: ॥ १८॥
अयज्वानश्व यज्वान: पितरो ब्रह्मणः स्मृता: ।
अग्निष्वात्ता बर्हिषदो द्विधा तेषां व्यवस्थिति: ॥ १९॥।
तेभ्यः स्वधा सुतां जज्ञे मेनां बैतरणीं तथा।
ते उभे ब्रह्मवादिन्यौ योगिन्यौ मुनिसत्तमा: ॥ २०॥
असूत मेना मैनाकं क्रौज्च॑ तस्यानुजं तथा।
गड्डा हिमवतो जज्ञे सर्वलोकेकपावनी॥ २१॥
स्वयोगाग्रिबलाद देवीं लेभे पुत्री महे श्वरीम् ।
यथावत् कथित पूर्व देव्या माहात्म्यमुत्तमम्॥ २२॥
एषा दक्षस्य कन्यानां मयापत्यानुसंततिः।
व्याख्याता भवतामद्य मनोः सृष्टि निबोधत॥ २३॥
* कूर्मपुराण *
रज, ऊह, ऊर्ध्वबाहु, सवन, अनघ, सुतपा और
शुक्र-- (नामवाले) ये (वसिष्ठके) सात महान् ओजस्वी
पुत्र थे। द्विजो! ब्रह्माका रुद्रस्वरूप जो वह वह्लि नामक
पुत्र था, उससे स्वाहाने महातेजस्वी तीन उदार पुत्रोंको
प्राप्त किया। वे तीनों पावक, पवमान तथा शुचि
(नामवाले) अग्नि थे। मन्थनद्वारा उत्पन्न अग्निको
पवमान और विद्युत्से सम्बद्ध अग्निको पावक कहा
जाता है। जो यह सूर्य चमकता है वही शुचि अग्नि
कहलाता है। उन (तीनों अग्नियों )-की पैंतालीस संतानें
हुईं। (इस प्रकार) पावक, पवमान तथा शुचि (नामक
तीन अग्नियाँ) और इन तीनोंके पिता (रुद्रात्मक अग्नि)
एवं (उन तीनों अग्नियोंके पैंतालीस पुत्र) ये सभी
मिलाकर उनचास अग्नियाँ कही गयी हैं। ये सभी
(उनचास) तपस्वी कहे गये हैं, सभी यज्ञभागके
अधिकारी हैं, रुद्रात्मक कहलाते हैं और सभी मस्तकपर
त्रिपुण्ड्के चिहसे अ्धित रहते हैं॥ १३--१८॥
ब्रह्माके अग्निष्वात्त तथा ब्हिषद् नामक दो पुत्र
कहे गये हैं जो पितर हैं। उनमें अयज्वा (यज्ञ न
करनेवाले) तथा यज्वा (यज्ञ करनेवाले)-के रूपमें दो
प्रकारकी व्यवस्था है। मुनिश्रेष्ठो! स्वधाने उनके द्वारा
मेना और वैतरणी नामक दो पुत्रियोंको प्राप्त किया।
वे दोनों ही ब्रह्मवादिनी और योगिनी थीं। मेनाने मैनाक
और उसके अनुज क्रौद्ध (नामक पर्वत)-को जन्म
दिया। हिमालयसे समस्त लोकोंको पवित्र करेेमें
अद्वितीय गड्ढजा उत्पन्न हुई। (हिमालयने) अपनी योगाग्निके
बलसे (उन) देवी महेश्वरीको पुत्री-रूपमें प्राप्त किया,
जिन देवीके उत्तम माहात्म्यको भलीभाँति पहले बता
दिया गया है॥ १९--२२॥
मैंने प्रजापति दक्षकी कनन््याओंकी संतान-परम्पराका
आप लोगोंसे वर्णन किया। अब आप (स्वायम्भुव)
मनुकी सृष्टिका वर्णन सुनें॥ २३॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहस्रधां संहितायां पूर्वविभागे द्वादशोउध्याय: ॥ १२ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें बारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १२॥
* अध्याय १४३ *
९२
तेरहवाँ अध्याय
स्वायम्भुव मनुके वंशका वर्णन, चाक्षुष मनुकी उत्पत्ति, महाराज पृथुका आख्यान, पृथुका
वंश-वर्णन, पृथुके पौत्र 'सुशील' का रोचक आख्यान, सुशीलको हिमालयके ' धर्मपद'
नामक वनमें महापाशुपत श्वेताश्वतर मुनिके दर्शन तथा उनसे पाशुपत-ब्रतका
ग्रहण, दक्षके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा पुनः दक्ष प्रजापतिके रूपमें
आविर्भावकी कथा, दक्षद्वारा शंकरका अपमान, सतीद्वारा
देह-त्याग तथा शंकरका दक्षको शाप
सूत उवाच
प्रियत्नतोत्तानपादी मनो: स्वायम्भुवस्य तु।
धर्मज्ौ सुमहावीरयों शतरूपा व्यजीजनतू्॥ १ ॥
ततस्तूत्तानपादस्य श्रुवो नाम सुतो5भवत्।
भक्तो नारायणे देवे प्राप्तवान् स्थानमुत्तमम्॥ २ ॥
ध्रुवात् श्लिप्टिं च भव्यं च भार्या शम्भुर्व्यजायत ।
शि्लिष्टेराधत्त सुच्छाया पञ्ञ पुत्रानकल्मषानू॥ ३ ॥
वसिष्ठवचनाद् देवी तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम्।
आराध्य पुरुष विष्णुं शालग्रामे जनार्दनम्॥ ४ ॥
रिपुं रिपुञज्जयं विप्रं वृकलं वृषतेजसम्।
नारायणपरान् शुद्धान् स्वधर्मपरिपालकान्॥ ५ ॥
रिपोराधत्त बृहती चक्षुषं सर्वतेजसम्।
सो5जीजनत् पुष्करिण्यां वैरण्यां चाक्षुषं मनुम्।
प्रजापतेरात्मजायां वीरणस्य महात्मन:॥ ६ ॥
मनोरजायन्त दश नड्वलायां महौजस:।
कन्यायां सुमहावीर्या वैराजस्य प्रजापते:॥ ७ ॥
ऊरुः पूरु: शतद्युम्नस्तपस्वी सत्यवाक् शुचिः |
अग्नष्टदतिरात्रश्ष॒ सुद्युम्नश्चाभिमन्युक:॥ ८ ॥
ऊरोरजनयत्_ पुत्रान् षडाग्नेयी महाबलान्।
अड़ूं सुमनसं स्वाति क्रतुमड्रिरसं शिवम्॥ ९ ॥
अड्भाद वेनो5भवत् पश्चाद वैन््यो वेनादजायत।
योउसौ पृथुरिति ख्यातः प्रजापालो महाबल: ॥ १०॥
येन दुग्धा मही पूर्व प्रजानां हितकारणात् |
नियोगाद ब्रह्मण: सार्थ देवेन्द्रेण महौजसा॥ ११॥
सूतजी बोले--स्वायम्भुव मनुकी पत्नी शतरूपाने
प्रियत्रत तथा उत्तानपाद नामवाले दो पुत्रोंको जन्म दिया,
जो धर्मको जाननेवाले तथा महान् पराक्रमी थे। कालान्तरमें
उत्तानपादका श्रुव नामक पुत्र हुआ। भगवान् विष्णुके
उस भकक्तने उत्तम स्थान प्राप्त किया। ध्रुवकी शम्भुनामक
पत्नीने श्लिष्टि तथा भव्य नामक पुत्रोंको जन्म दिया।
श्लिष्टिकी सुच्छाया नामक पत्लीने पाँच पुण्यात्मा पुत्रोंको
उत्पन्न किया। महर्षि वसिष्ठके कथनानुसार सुच्छाया
नामक देवीने अत्यन्त कठोर तप करके शालग्राममें जनार्दन
पुरुष विष्णुकी आराधना कर रिपु, रिपुज्जय, विप्र,
वृकल तथा वृषतेजस् नामवाले पाँच पुत्रोंको जन्म दिया,
जो नारायणमें अनन्य निष्ठा रखनेवाले, शुद्ध तथा अपने
धर्मका विशेषरूपसे पालन करनेवाले थे॥१--५॥
रिपुकी पत्नी बृहतीने सब प्रकारके तेजोंसे सम्पन्न
चक्षुप् (नामक पुत्र)-को जन्म दिया। उस चक्षुष्ने
महात्मा वीरण प्रजापतिकी पुष्करिणी * नामवाली पुत्रीसे
चाक्षुषप मनुको जन्म दिया। अत्यन्त तेजस्वी (चाक्षुष)
मनुके वैराज प्रजापतिकी कन्या नड्वलासे दस पुत्र
उत्पन्न हुए, जो ऊरु, पूरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवाक्,
शुचि, अग्निष्ठतू, अतिरात्र, सुद्यम्म तथा अभिमन्युक
(नामवाले) थे। ऊरुकी पत्नी आग्नेयीने अड़, सुमनस्,
स्वाति, क्रतु, अड्रिरस् एवं शिव (नामवाले) महाबलशाली
छ: पुत्रोंको उत्पन्न किया। अड्भगसे वेन हुआ और फिर
वेनसे वैन्य उत्पन्न हुए। प्रजापालक, महाबलवान् वे ही
वैन्य पृथु नामसे विख्यात हुए। पूर्वकालमें उन्होंने
प्रजाओंके कल्याणको कामनासे ब्रह्माके आदेशसे महा-
तेजस्वी देवराज इन्द्रके साथ (गोरूपा) पृथ्वीका दोहन
किया था॥ ६--११॥
* यह पुष्करिणी प्रजापति वीरणकी पुत्री होनेसे वैरणी भी कही जाती है।
९२
* कूर्मपुराण *
प्राचीन कालमें वेनके पुत्र पृथुके पैतामह नामक
वेनपुत्रस्थय वितते पुरा पैतामहे मखे।
सूतः पौराणिको जज्लञे मायारूप: स्वयं हरि: ॥ १२॥
प्रवक्ता सर्वशास्त्राणां धर्मज्ञो गुणवत्सल: |
तं मां वित्त मुनिश्रेष्ठा: पूर्वोद्भूतं सनातनम्॥ १३॥
अस्मिन् मन्वन्तरे व्यास: कृष्णद्वेपायन: स्वयम्।
श्रावयामास मां प्रीत्या पुराणं पुरुषो हरि: ॥ १४॥
मदन्वये तु ये सूता: सम्भूता वेदवर्जिता:।
तेषां पुराणवक्तृत्व॑ वृत्तिरासीदजाज्ञया॥ १५॥
स तु वन्य: पृथुर्धीमान् सत्यसंधो जितेन्द्रिय: ।
सार्वभौमो महातेजा: स्वधर्मपरिपालक:॥ १६॥
तस्य बाल्यात् प्रभृत्येव भक्ति्नारायणे5 भवत्
गोवर्धनगिरिं प्राप्प तपस्तेपे जितेन्द्रिय:॥ १७॥
तपसा भगवान् प्रीत: शद्भुचक्रगदाधर: ।
आगत्य देवो राजानं प्राह दामोदर: स्वयम्॥ १८ ॥
धार्मिको रूपसम्पन्नौ सर्वशस्त्रभृतां वरौ।
मत्प्रसादादसंदिग्धं पुत्री तव भविष्यतः।
एवमुक्त्वा हृषीकेश: स्वकीयां प्रकृतिं गत: ॥ १९॥
वैन्योडपि वेदविधिना निश्चलां भक्तिमुद्दहन् ।
अपालयतू स्वकं राज्यं न््यायेन मधुसूदने॥ २०॥
अचिरादेव तन्वड्री भार्या तस्य शुचिस्मिता।
शिखण्डिनं हविर्धानमन्तर्धाना व्यजायत॥ २१॥
शिखण्डिनो5भवत् पुत्र: सुशील इति विश्रुत: ।
धार्मिको रूपसम्पन्नो वेदवेदाड्भपारग:॥ २२॥
सो5धीत्य विधिवद् बेदान् धर्मेण तपसि स्थित: ।
मतिं चक्रे भाग्ययोगात् संन्यासं प्रति धर्मवित्॥। २३ ॥
स कृत्वा तीर्थसंसेवां स्वाध्याये तपसि स्थित: ।
जगाम हिमवत्पृष्ठ कदाचित् सिद्धसेवितम्॥ २४॥
तत्र धर्मपदं नाम धर्मसिद्धिप्रदं वनम्।
अपश्यद योगिनां गम्यमगम्यं ब्रह्मविद्विषाम्॥ २५॥
यज्ञ करते समय मायारूपधारी साक्षात् विष्णु हो
पौराणिक सूतके रूपमें उत्पन्न हुए। वे सभी शास्त्रोंके
प्रवक्ता, धर्मको जाननेवाले तथा वात्सल्यगुणसे सम्पन्न
थे। मुनिश्रेष्ठो! प्राचीन कालमें आविर्भूत वही सनातन
(विष्णु) मुझे जानो। इस मन्वन्तरमें स्वयं कृष्णद्वैपायन
व्यास नामक पुराणपुरुष विष्णुने प्रीतिपूर्वक मुझे पुराण
सुनाया। मेरे वंशमें वेदवर्जित जो सूत उत्पन्न हुए,
ब्रह्माकी आज्ञासे 'पुराणोंका प्रवचन करना” उनकी वृत्ति
हुई ॥ १२--१५॥
बेनके पुत्र वे पृथु बुद्धिमान, सत्यसंकल्प, जितेन्द्रिय,
सम्पूर्ण पृथ्वीके स्वामी, महान् तेजस्वी तथा अपने
धर्मका पालन करनेवाले थे। उनकी बाल्यकालसे ही
नारायणमें भक्ति थी। इन्द्रियजयी पृथुने गोवर्धन पर्वतपर
जाकर तप किया। शंख, चक्र तथा गदा धारण
करनेवाले भगवान् विष्णु तपस्यासे प्रसन्न हो गये।
स्वयं भगवान् दामोदर (विष्णु)-ने उनके पास आकर
कहा-मेरी कृपासे निश्चित ही तुम्हें सुन्दर रूपसे
सम्पन्न, सभी शशम्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ दो धर्मात्मा पुत्र
होंगे। ऐसा कहकर भगवान् हषीकेश अपने प्राकृतिक
रूपमें स्थित हो गये (अपने धाम चले गये)। वेन्य
(पृथु) भी भगवान् मधुसूदनमें वैदिक विधानसे निश्चल
भक्ति रखते हुए न्यायपूर्वक अपने राज्यका पालन
करने लगे॥ १६--२०॥
मधुर एवं पवित्र मुसकानवाली तथा कृश शरीरवाली
उनकी पत्नी अन्तर्धानाने थोड़े ही समयमें शिखण्डी
तथा हविर्धान नामक दो पुत्रोंको जन्म दिया। शिखण्डीका
पुत्र 'सुशील' नामसे प्रसिद्ध हुआ। वह धार्मिक,
रूपसम्पन्न तथा वेद-वेदाड्गका पारगामी विद्वान् था।
विधिपूर्वक वेदोंका अध्ययन कर वह धर्मपूर्वक तपस्यामें
स्थित हुआ। भाग्ययोगसे उस धर्मज्ञने संन्यास ग्रहण
करनेका विचार किया। वह तीर्थस्थानोंका सेवन करते
हुए स्वाध्याय तथा तपस्यामें स्थित रहने लगा। एक बार
वह सिद्धोंके द्वारा सेवित हिमालय पर्वतपर गया। वहाँ
उसने धर्म एवं सिद्धिको प्रदान करनेवाले, योगियोंके
लिये प्राप्य, किंतु ब्रह्मसे द्वेष करनेवालोंके लिये अप्राप्य
धर्मदद नामक एक वनको देखा॥ २१--२५॥
* अध्याय १३ *
तत्र मन्दाकिनी नाम सुपुण्या विमला नदी।
पद्मोत्पलवनोपेता सिद्धाश्रमविभूषिता॥ २६॥
स तस्या दक्षिणे तीरे मुनीन्द्रै्योगिभिर्वृतम्।
सुपुण्यमाश्रमं॑ रम्यमपश्यत् प्रीतिसंयुत:॥ २७॥
मन्दाकिनीजले स्नात्वा संतर्प्य पितृदेवता: ।
अर्चयित्वा महादेव पुष्पै: पद्योत्पलादिभि: ॥ २८ ॥
ध्यात्वार्कसंस्थमीशानं शिरस्याधाय चाझलिम्।
सम्प्रेक्षमाणो भास्वन्तं तुष्टाव परमेश्वरम्॥ २९॥
रुद्राध्यायेन गिरिशं रुद्रस्य चरितेन च।
अन्यैश्न विविधे: स्तोत्रे: शाम्भवैर्वेद्सम्भवै: ॥ ३० ॥
अथास्मिन्नन्तरे5पश्यत् समायान्तं महामुनिम् ।
श्वेताश्रतरनामानं॑ महापाशुपतोत्तमम्॥ ३१॥
भस्मसंदिग्धसर्वाडूरं कौपीनाच्छादनान्वितम् ।
तपसा कर्षितात्मानं शुक्लयज्ञोपवीतिनम्॥ ३२॥
समाप्य संस्तवं शम्भोरानन्दास्त्राविलेक्षण: |
ववन्दे शिरसा पादौ प्राज्ललिर्वाक्यमन्नवीतू॥ ३३ ॥
धन्यो5स्म्यनुगृहीतोउस्मि यन्मे साक्षान्मुनी श्वरः ।
योगी श्वरोडद्य भगवान् दृष्टो योगविदां बरः ॥ ३४॥
अहो मे सुमहद्धाग्यं तपांसि सफलानि मे।
कि करिष्यामि शिष्यो5हं तव मां पालयानघ॥ ३५॥
सो<नुगृह्माथ राजानं सुशीलं शीलसंयुतम्।
शिष्यत्वे परिजग्राह तपसा क्षीणकल्मषम्॥ ३६॥
सांन्यासिकं विधिं कृत्स्त॑ कारयित्वा विचक्षण: ।
ददौ तदैश्वरं ज्ञानं स्वशाखाविहितं व्रतम्॥ ३७॥
अशेषवेदसारं तत् पशुपाशविमोचनम्।
अन्त्या श्रममिति ख्यातं ब्रह्मादिभिरनुष्ठितम्॥ ३८ ॥
९३
वहाँ सिद्धोंके आश्रमसे सुशोभित तथा विभिन्न
प्रकारकके कमल-समूहोंसे सम्पन्न निर्मल जलवाली तथा
पुण्य प्रदान करनेवाली मन्दाकिनी नामक एक नदी
(प्रवाहित होती) थी। उसने प्रीतिपूर्वक उस मन्दाकिनी
नदीके दक्षिण किनारेपर स्थित मुनीन्द्रों तथा योगियोंसे
सेवित पुण्यदायी एक रमणीय आश्रम देखा। उसने
मन्दाकिनीके जलमें स्नानकर देवस्वरूप पितरोंको (तर्पण
आदिसे) संतृप्तकर विभिन्न वर्णके कमल आदि पुष्पोंके
द्वारा भगवान् शंकरकी अर्चना की और सूर्यमण्डलमें
स्थित भगवान् ईशानका ध्यानकर सिरसे हाथ जोड़ते हुए
प्रकाशमान सूर्यका दर्शन करते हुए वह रुद्राष्टाध्यायी,
रुद्रके चरित्र एवं और भी अनेक वेदवर्णित विविध
प्रकारके शिव-सम्बन्धी स्तोत्रोंके द्वारा परमेश्वर गिरिशकी
स्तुति करने लगा॥ २६--३० ॥
इसी बीच उसने समस्त अड़्ोंमें भस्म लगाये हुए,
कौपीन वस्त्रसे समन्वित, सफेद यज्ञोपवीत धारण किये
हुए, तपस्याके द्वारा क्षीण शरीरवाले उत्तम महापाशुपत
श्वेताश्वतर नामवाले महामुनिको समीपमें आते हुए
देखा। नेत्रोंमें आनन्दाश्रु भरे हुए उसने भगवान् शंकरकी
स्तुति समाप्त कर उनके चरणोंमें सिरसे प्रणाम किया
और हाथ जोड़ते हुए यह वाक्य कहा-- ॥ ३१--३३॥
में धन्य हूँ, में अनुगृहीत हूँ, जो (आज) मुझे
योगज्ञानियोंमें श्रेष्ठ, मुनियोंके ईश्वर साक्षात् भगवान्
योगीश्वरके दर्शन हुए। अहो! मेरा बड़ा ही सुन्दर भाग्य
है। (आज) मेरे सभी तप सफल हो गये। अनघ! मैं
क्या करू, आपका मैं शिष्य हूँ, आप मेरी रक्षा
करें ॥ ३४-३५ ॥
तपस्यासे जिसका सम्पूर्ण कल्मष नष्ट हो गया है,
ऐसे उस निष्पाप एवं शीलसम्पन्न 'सुशील' नामवाले
राजाके ऊपर अनुग्रह करके (शंकरने अपने) शिष्यरूपमें
उसे ग्रहण किया। उन बुद्धिमान् (मुनि)-ने संनन््यास-
सम्बन्धी सम्पूर्ण विधि करवाकर उसे ईश्वर-सम्बन्धी
ज्ञान तथा अपनी शाखाद्वारा विहित नियम और पशुरूपी
जीवके पाश अर्थात् मायारूपी बन्धनसे मुक्त करनेवाला
वह सम्पूर्ण वेदका सार प्रदान किया, साथ ही ब्रह्मा
आदिके द्वारा सेवित “अन्त्याश्रम' नामवाले आश्रमको
भी प्रदान किया॥ ३६--३८ ॥
९४
उवाच शिष्यान् सम्प्रेक्ष्य ये तदाश्रमवासिन: ।
ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्यान् ब्रह्मचर्यपरायणान् ॥ ३९ ॥
मया प्रवर्तितां शाखामधीत्यैवेह योगिन:।
समासते महादेवं ध्यायन्तो निष्कलं शिवम्॥ ४०॥
इह देवो महादेवो रममाण: सहोमया।
अध्यास्ते भगवानीशो भक्तानामनुकम्पया॥ ४१॥
इहाशेषजगद्धाता पुरा नारायण: स्वयम्।
आराधयन्महादेव॑ लोकानां हितकाम्यया॥ ४२॥
इहैव देवमीशानं देवनामपि देवतम्।
आराध्य महतीं सिद्धि लेभिरे देवदानवा: ॥ ४३॥
इहैव मुनय: पूर्व मरीच्याद्या महेश्वरम्।
दृष्ठा तपोबलाज्ज्ञानं लेभिरे सार्वकालिकम्॥ ४४॥
तस्मात् त्वमपि राजेन्द्र तपोयोगसमन्वित: ।
तिष्ठ नित्यं मया सार्ध तत: सिद्ध्धिमवाप्स्यसि ॥ ४५ ॥
एवमाभाष्य विप्रेन्दों देव॑ ध्यात्वा पिनाकिनम् |
आचचक्षे महामन्त्र यथावत् स्वार्थसिद्धये ॥ ४६॥
सर्वपापोपशमनं वेदसारं विमुक्तिदम्।
अग्रिरित्यादिकं पुण्यमृषिभि: सम्प्रवर्तितम्॥ ४७॥
सो5पि तद्बचचनाद् राजा सुशील: श्रद्धयान्वित: ।
साक्षात् पाशुपतो भूत्वा वेदाभ्यासरतो5भवत्॥ ४८ ॥
भस्मोद्धूलितसर्वाड्र: कन्दमूलफलाशन: |
शान्तो दान्तो जितक्रोध: संन्यासविधिमाश्रित: ॥ ४९ ॥
हविर्धानस्तथाग्नेय्यां जनयामास सत्सुतम्।
प्राचीनबर्हिषं नाम्ना धनुर्वेदस्य पारगम्॥ ५०॥
प्राचीनबर्हिर्भगवान् सर्वशस्त्रभूतां वरः।
समुद्रतनयायां वे दश पुत्रानजीजनतू॥ ५१॥
प्रचेतसस्ते विख्याता राजान: प्रथधितौजस: ।
अधीतवन्त: स्वं बेदं॑ नारायणपरायणा:॥ ५२॥
दशभ्यस्तु प्रचेतोभ्यो मारिषायां प्रजापति: ।
दक्षो जज्ञे महाभागो यः पूर्व ब्रह्मण: सुत: ॥ ५३॥
* कूर्मपुराण *
उस आश्रममें रहनेवाले ब्रह्मचर्यपरायण ब्राह्मण,
क्षत्रिय तथा वैश्य शिष्योंकों देखकर वे (श्वेताश्वतर
मुनि) बोले-मेरे द्वारा प्रवर्तित शाखाका अध्ययन करते
हुए योगीजन निष्कल महादेव शिवका ध्यान करते हुए
यहाँ निवास करते हैं। भक्तोंपर अनुकम्पा करनेके लिये
भगवान् महादेव उमाके साथ रमण करते हुए यहाँ
विराजमान रहते हैं ॥ ३९--४१॥
प्राचीन कालमें संसारके कल्याणकी कामनासे
समस्त जगत्को धारण करनेवाले स्वयं नारायण महादेवकी
आराधना करते हुए यहाँ रहते थे। यहींपर देवताओंके
भी देवता भगवान् शिवकी आराधना कर देवता तथा
दानवोंने महान् सिद्धि प्राप्त की थी और यहींपर प्राचीन
कालमें मरीचि आदि ऋषियोंने अपनी तपस्याके प्रभावसे
महेश्वरका दर्शनकर सभी कालोंमें उपयोगी--हितकर
ज्ञान प्राप्त किया था॥ ४२--४४ ॥
इसलिये राजेन्द्र ! तुम भी तप एवं योगसे समन्वित
होकर नित्य ही मेरे साथ रहो, इससे तुम सिद्धि प्राप्त
करोगे। ऐसा कहकर उन ब्राह्मण-श्रेष्ठ (श्वेताश्वतर
मुनि)-ने पिनाक (नामक धनुष) धारण करनेवाले
भगवान् (शंकर)-का ध्यान करके स्वार्थ-सिद्धिके
लिये सभी पापोंका शमन करनेवाले, वेदसारस्वरूप,
मुक्ति प्रदान करनेवाले तथा ऋषियोंद्वारा प्रवर्तित ' अग्नि'
इत्यादि पुण्यजनक महामन्त्रका उसे (सुशीलको) विधिपूर्वक
उपदेश दिया। उनके कथनानुसार 'सुशील' नामक वह
राजा भी बड़ी ही श्रद्धासे साक्षात् पाशुपत होकर
वेदाभ्यासमें निरत हो गया॥ ४५--४८ ॥
अपने सभी अछझ्ोेंमें भस्म धारणकर कन्द, मूल
एवं फलोंका आहार करते हुए शान्त, इन्द्रियजयी एवं
क्रोधजयी राजाने संन््यास-विधिका आश्रय लिया। हविर्धानने
आग्नेयी नामक अपनी पत्लीसे धनुर्वेदमें पारंगत प्राचीन
बर्हिष् नामक श्रेष्ठ पुत्रको उत्पन्न किया। सभी शस्त्रधारियोंमें
श्रेष्ठ भगवान् प्राचीनबर्हिने समुद्रकी पुत्रीसे दस पुत्रोंको
उत्पन्न किया। नारायणपरायण तथा अपने तेजके लिये
विख्यात प्रचेतस् नामसे प्रसिद्ध उन राजाओंने अपने
वेदका अध्ययन किया। इन्हीं दस प्रचेताओंद्वार
मारिषा (नामक उनकी पत्नी)-से महाभाग प्रजापति
दक्ष (पुत्ररूपमें) उत्पन्न हुए, जो पूर्व समयमें ब्रह्माके
पुत्र थे॥ ४९---५३॥
* अध्याय १९३ *
स तु दक्षो महेशेन रुद्रेण सह धीमता।
कृत्वा विवादं रुद्रेण शप्तः प्राचेतसो5भवत्॥ ५४॥
समायान्तं महादेवो दक्ष देव्या गृहं हरः।
दृष्ठा यथोचितां पूजां दक्षाय प्रददौ स्वयम्॥ ५५॥।
तदा वे तमसाविष्ट: सो5धिकां ब्रह्मण: सुतः ।
पूजामनर्हामन्विच्छन् जगाम कुपितो गृहम्॥ ५६॥।
कदाचित् स्वगृहं प्राप्तां सतीं दक्ष: सुदुर्मना: ।
भर्त्रा सह विनिन््धेनां भर्त्सयामास वै रुषा॥ ५७॥
अन्ये जामातरः श्रेष्ठा भर्तुस्तव पिनाकिन: |
त्वमप्यसत्सुतास्माकं गृहाद् गच्छ यथागतम्॥ ५८ ॥
तस्य तद्वाक्यमाकर्णर्य सा देवी शंकरप्रिया |
विनिन्द् पितरं दक्ष ददाहात्मानमात्मना॥ ५९॥
प्रणम्य पशुभर्तारें भर्तारें कृत्तिवाससम्।
हिमवददुहिता साभूत् तपसा तस्य तोषिता॥ ६० ॥
ज्ञात्वा तद्धगवान् रुद्र: प्रपन्नार्तिहरो हरः।
शशाप दक्ष कुपित: समागत्याथ तदगृहम्॥ ६१॥
त्यक्त्वा देहमिमं ब्रह्मन् क्षत्रियाणां कुलोद्धव: ।
स्वस्यां सुतायां मूढात्मन् पुत्रमुत्पादयिष्यसि ॥ ६२ ॥
एवमुक्त्वा महादेवो ययौ केलासपर्वतम्।
स्वायम्भुवोषपि कालेन दक्ष: प्राचेतसो5 भवत्॥ ६३ ॥
एतद् व: कथितं सर्व मनो: स्वायम्भुवस्य तु।
विसर्ग दक्षपर्यन्तं श्रेण्वतां पापनाशनम्॥ ६४॥
९५
उन दक्षने बुद्धिमान्ू महेश रुद्रके साथ विवाद
किया था, इससे रुद्रद्वारा शाप प्राप्तकर वे प्रचेताओंके
पुत्र बने॥ ५४ ॥
महादेव हरने स्वयं देवी (पार्वती)-के घर आये
हुए दक्षको देखकर उनकी यथोचित पूजा की। (किंतु)
उस समय तमोगुणके आवेशसे समाविष्ट ब्रह्माके पुत्र
दक्ष (शंकरद्वारा की गयी अपनी) पूजाको अपर्याप्त
और अयोग्य समझकर और भी अधिक पूजाकी इच्छा
करनेके कारण कुपित होकर अपने घर चले गये।
तदनन्तर कभी दूषित मनवाले दक्षने अपने घर आयी
हुई (अपनी पुत्री) सतीकी (उनके) पति (भगवान्
शंकर)-के साथ निन्दा करते हुए क्रुद्ध होकर भर्त्सना
को ॥ ५५--५७ |
(दक्ष बोले--सती !) तुम्हारे पिनाकधारी पतिसे मेरे
अन्य जामाता श्रेष्ठ हैं। तुम भी अच्छी पुत्री नहीं हो,
इसलिये मेरे घरसे वहीं चले जाओ जहाँसे आयी हो।
शंकरप्रिया उन देवी सतीने उस (कठोर) वाक्यको
सुनकर पिता दक्षकी निन््दा की और चर्माम्बरधारी अपने
स्वामी पशुपतिको प्रणामकर स्वयं ही उन्होंने (योगाग्निद्वारा)
अपनेको भस्म कर डाला। तदनन्तर वे ही हिमालयकी
तपस्यासे प्रसन्न होकर उनकी पुत्री बनीं॥ ५८--६० ॥
उस बातको जानकर शरणागतोंका कष्ट हरनेवाले
भगवान् रुद्र हर दक्षके घर आये और क्रुद्ध होकर
उन्हें शाप दिया। ब्रह्मन्! मूढात्मन्! इस शरीरको
छोड़कर तुम क्षत्रियोंके कुलमें उत्पन्न होओगे और
पापवश अकार्यमें तुम्हारी प्रवृत्ति होगी। ऐसा कहकर
महादेव कैलासपर्वतपर चले गये और समय आनेपर
स्वायम्भुव दक्ष भी प्रचेताओंके पुत्र बने॥६१--६३ ॥
(सूतजीने इस प्रकार कहा--) आप लोगोंसे
मैंने स्वायम्भुव मनुकी दक्षपर्यन्त विशेष सृष्टिका
वर्णन किया। (यह वर्णन) सुननेवालोंके पापको नष्ट
करनेवाला है॥ ६४॥
जति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्यां संहितायां पूर्वविभागे त्रयोदशोउध्यायः ॥ १३ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें तेरहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १३॥
९८६
* कूर्मपुराण *
चौदहवाँ अध्याय
हरिद्वारमें दक्षद्वारा यज्ञका आयोजन, यज्ञमें शंकरका भाग न देखकर महर्षि दधीचद्वारा
दक्षकी भर्त्सना तथा यज्ञमें भाग लेनेवाले ब्राह्मणोंको शाप, देवी पार्वतीके कहने-
पर शंकरद्वारा रुद्रों, भद्रकाली तथा वीरभद्रको प्रकट करना, वीरभद्वादिद्वारा
दक्षके यज्ञका विध्वंस, शंकर-पार्वतीका यज्ञस्थलमें प्राकट्य, भयभीत
दक्षद्वारा शंकर तथा पार्वतीकी स्तुति और वर प्राप्त करना,
ब्रह्माद्वारा दक्षको उपदेश और शिव-विष्णुके
एकत्वका
प्रतिपादन तथा
दक्षद्वारा
शिवकी शरण ग्रहण करना
नेमिषीया ऊचु:
देवानां दानवानां च गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
उत्पत्ति विस्तरात् सूत ब्रूहि वैवस्वतेउन्तरे॥ १॥
स शप्तः शम्भुना पूर्व दक्ष: प्राचेतसो नृपः।
किमकार्षीन्महाबुद्धे श्रोतुमिच्छाम साम्प्रतम्॥ २॥
सूत उवाच
वक्ष्ये नारायणेनोक्त पूर्वकल्पानुषड्रिकम्।
त्रिकालबद्धं पापध्न॑ प्रजासर्गस्य विस्तरम्॥ ३॥
स शप्तः शम्भुना पूर्व दक्ष: प्राचेतसो नृपः।
विनिन्द्य पूर्ववरेण गड्जाद्वारेइयजद् भवम्॥ ४॥
देवाश्व सर्वे भागार्थमाहूता विष्णुना सह।
सहैव मुनिभि: सर्वैरागता मुनिपुड्वा:॥ ५॥
वृष्टा देवकुलं कृत्स्नं शंकरेण विनागतम्।
दधीचो नाम विप्रर्षि:ः प्राचेतसमथान्नवीत्॥ ६॥
दधीच उवाच
ब्रह्मादय: पिशाचान्ता यस्याज्ञानुविधायिन: ।
स देव: साम्प्रतं रुद्रो विधिना किं न पूज्यते॥ ७॥
दक्ष उवाच
सर्वेष्वेव हि यज्ञेषु न भागः परिकल्पित:।
न मन्त्रा भार्यया सार्थ शंकरस्थेति नेज्यते॥ ८॥
विहस्य दक्षं कुपितो बच: प्राह महामुनि:।
श्रुण्वतां सर्वदेवानां सर्वज्ञानमय: स्वयम्॥ ९॥
नेमिषीय ऋषि बोले--सूतजी महाराज! वैवस्वत
मन्वन्तरमें हुई देवताओं, दानवों, गन्धर्वों, नागों तथा
राक्षसोंकी उत्पत्तिको आप विस्तारसे बतलायें। महाबुद्धिमान्
सूतजी ! इस समय हम यह सुनना चाहते हैं कि प्राचीन
कालनमें प्रचेताके पुत्र राजा दक्षने भगवान् शंकरसे शाप
प्रातकर क्या किया था॥ १-२॥
सूतजीने कहा--मैं पूर्वकल्पके प्रसंगमें नारायणद्दारा
कहे गये (भूत, भविष्य तथा वर्तमान-- इस प्रकार)
तीनों कालोंसे सम्बद्ध तथा पाप हरनेवाले प्रजा-सर्गको
विस्तारसे बतलाता हूँ॥३॥
प्राचीन कालकी बात है, भगवान् शंकरके शापसे
ग्रस्त उन प्रचेतापुत्र राजा दक्षने पूर्व वैरके कारण शंकरको
निन्दा कर गड्ज़ाद्वार हरिद्वारमें एक यज्ञका अनुष्ठान
प्रारम्भ किया। श्रेष्ठ मुनियो! विष्णुके साथ सभी देवता
उस यज्ञमें भाग ग्रहण करनेके लिये बुलाये गये। सभी
मुनियोंके साथ वे वहाँ आये। शंकरको छोड़कर आये
हुए समस्त देव-समूहोंको देखकर दधीच नामक विप्रषिने
प्राचेतस-दक्षसे (इस प्रकार) कहा-- ॥ ४--६॥
दधीच बोले--ब्रह्मा आदिसे लेकर पिशाचतक
जिनकी आज्ञाका शीघ्र ही अनुपालन करते हैं, उन
रुद्रदेवकी पूजा इस समय क्यों नहीं की जा रही
है ?॥ ७॥
दक्षने कहा--सभी यजक्ञोंमें भार्यासहित शंकरके
भाग एवं मन्त्रोंकी परिकल्पना नहीं हुई है, इसलिये
उनको पूजा नहीं की जाती। इसपर साक्षात् सर्वज्ञानमय
महामुनि दधीचने कोपपूर्वक हँसते हुए सभी देवताओंको
सुनाते हुए दक्षसे कहा--॥ ८-९॥
* अध्याय १४ *
९७
दधीच उवाच
यतः प्रवृत्तिविश्वेषां यश्चवास्य परमेश्वरः।
सम्पूज्यते सर्वयज्ञेविंदित्ता किल शंकर: ॥ १०॥
दक्ष उवाच
न हाय शंकरो रुद्र: संहर्ता तामसो हरः।
नग्न: कपाली विकृतो विश्वात्मा नोपपद्यते॥ ११॥
ईश्वरो हि जगत्स्त्रष्टा प्रभुनारायण: स्वराद।
सत्त्वात्मकोडइसौ भगवानिज्यते सर्वकर्मसु॥ १२॥
दधीच उवाच
कि त्वया भगवानेष सहस्त्रांशुर्न दृश्यते।
सर्वलोकेकसंहर्ता कालात्मा परमेश्वर:॥ १३॥
यं गृणन्तीह विद्वांसो धार्मिका ब्रह्मवादिन: ।
सो<यं साक्षी तीव्ररोचि: कालात्मा शांकरी तनु: ॥ १४॥
एष रुद्रो महादेव: कपर्दी च घणी हरः |
आदित्यो भगवान् सूर्यो नीलग्रीवो विलोहित:॥ १५॥
संस्तूयते सहस्त्रांशु: सामगाध्वर्युहोतृभि: ।
पश्यैनं विश्वकर्माणं रुद्रमूर्ति त्रयीमयम्॥ १६॥
दक्ष उवाच
य एते द्वादशादित्या आगता यज्ञभागिन:।
सर्वे सूर्या इति ज्ञेया न हान्यो विद्यते रवि: ॥ १७॥।
एवमुक्ते तु मुनयः समायाता दिदृक्षव:।
बाढमित्यब्रुवन् वाक््यं तस्य साहाय्यकारिण: ॥ १८ ॥
तमसाविष्टमनसो न पश्यन्ति वृषध्वजम्।
सहसत्रशो5थ शतशो भूय एवं विनिन्द्यते॥ १९॥
निन्दन्तो वैदिकान् मन्त्रान् सर्वभूतपतिं हरम् ।
अपूजयन् दक्षवाक्यं मोहिता विष्णुमायया॥ २० ॥
देवाश्व सर्वे भागार्थभागता वासवादय:।
नापश्यन् देवमीशानमृते नारायणं हरिम्॥ २१॥
हिरण्यगर्भो भगवान् ब्रह्मा ब्रह्मविदां वर: ।
पश्यतामेव सर्वेषां. क्षणादन्तरधीयत॥ २२॥
दधीच बोले--जिनसे सभीकी प्रवृत्ति होती है और
जो इस (विश्व)-के परमेश्वर हैं, वे शंकर निश्चय ही
सभी यज्ञोंद्वारा ज्ञानपूर्वक पूजित होते हैं॥१०॥
दक्षने कहा--संहार करनेवाले, तमोगुणी, नग्न,
कपाल धारण करनेवाले तथा विकृत (वेशवाले) रुद्र,
हर, शंकर किसी भी प्रकार विश्वात्मा नहीं हो सकते।
संसारकी सृष्टि करनेवाले स्वराट्, प्रभु नारायण हो
ईश्वर हैं और सभी कर्मोमें उन सत्त्वात्मक भगवान्
विष्णुकी पूजा की जाती है॥ ११-१२॥
दधीच बोले--क्या तुम समस्त लोकोंके एकमात्र
संहारकर्ता कालस्वरूप, तथा हजारों किरणवाले इन
परमेश्वर भगवान् (सूर्य)/-को नहीं देख रहे हो।
धर्मात्मा, ब्रह्मवादी विद्वान् जिनकी स्तुति करते हैं, वही
ये (सूर्य) तीत्र तेजसे सम्पन्न कालात्मक साक्षी यहाँ
शंकरके शरीररूपमें ही स्थित हैं। देवी अदितिके पुत्र
ये भगवान् सूर्य ही रुद्र, महादेव, कपर्दी, घृणी, हर,
नीलग्रीव, विलोहित (नामवाले) हैं। सामवेदका गान
करनेवाले तथा अध्वर्यु एवं होताओंके द्वारा हजारों
किरणवाले सूर्यकी स्तुति की जाती है। विश्वको
बनानेवाले त्रयीमय--ऋक्, यजु: तथा सामवेदस्वरूप
रुद्रकी मूर्तिकों देखो॥ १३--१६॥
दक्षने कहा--यज्ञमें भाग ग्रहण करनेवाले ये जो
बारह (अदिति-पुत्र) आदित्य यहाँ आये हुए हैं, ये
सभी सूर्यके नामसे ही जाने जाते हैं। इनसे अतिरिक्त
कोई अन्य सूर्य नहीं हैं। ऐसा कहनेपर यज्ञ देखनेकी
इच्छासे आये हुए उनके (दक्षके) सहयोगी मुनियोंने
(समर्थन करते हुए) दक्षसे कहा--ठीक है। तमोगुणसे
आविष्ट मनवाले सेकड़ों-हजारोंकी संख्यामें आये हुए
उन लोगोंने भगवान् वृषध्वज शंकरको न देखते हुए
पुनः: उनकी निनदा करनी आरम्भ की। विष्णुकी मायासे
मोहित होकर वे वैदिक मन्त्रोंकी निन्दा करते हुए सभी
प्राणियोंके एकमात्र स्वामी भगवान् हरकी पूजा न करके
दक्षके वचनका अनुमोदन करने लगे। यज्ञमें भाग ग्रहण
करनेके लिये आये हुए इन्द्रादि सभी देवताओंने भी
नारायण हरिके अतिरिक्त देव ईशान (शंकर)-को भी
नहीं देखा (अर्थात् शिवके माहात्म्यको वे जान नहीं पाये) ।
ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हिरण्यगर्भ भगवान् ब्रह्मा सभीके देखते-
देखते क्षणभरमें ही अन्तर्धान हो गये॥ १७--२२॥
९८
अन्तहिते भगवति दक्षो नारायणं हरिम्।
रक्षक॑ जगतां देवं जगाम शरणं स्वयम्॥ २३॥
प्रवर्तमामास च त॑ यज्ञ दक्षोड्थ निर्भय:।
रक्षते भगवान् विष्णु: शरणागतरक्षकः ॥ २४॥
पुनः प्राह च त॑ दक्ष दधीचों भगवानृषि:।
सम्प्रेष्ष्यर्षिगणान् देवान् सर्वान् वै ब्रह्मविद्विष: | २५॥।
अपूज्यपूजने चैव पूज्यानां चाप्यपूजने।
नरः पापमवाप्नोति महद् वे नात्र संशय: ॥ २६॥
असतां प्रग्रहो यत्र सतां चेव विमानना।
दण्डो देवकृतस्तत्र सद्य: पतति दारुण:॥ २७॥
एवमुक्त्वा तु विप्रर्षि: शशापेश्वरविद्विष:।
समागतान् ब्राह्मणांस्तान् दक्षसाहाय्यकारिण: ॥ २८ ॥
यस्माद बहिष्कृता वेदा भवद्धिः परमेश्वर: ।
विनिन्दितो महादेव: शंकरो लोकवन्दित: ॥ २९॥
भविष्यध्वं त्रयीबाह्मा: सर्वेडपी श्वरविद्विष: ।
निन्दन्तो हो श्वरं मार्ग कुशास्त्रासक्तमानसा: ॥ ३०॥
मिथ्याधीतसमाचारा मिथ्याज्ञानप्रलापिन: ।
प्राप्प घोर कलियुगं कलिजै: किल पीडिता: ॥ ३१॥
त्यक्त्वा तपोबलं कृत्स्नं गच्छध्वं नरकान् पुनः ।
भविष्यति हृषीकेश: स्वाश्रितो5पि पराडग्मुख: ॥ ३२॥
एवमुक्त्वा तु विप्रर्षिविरराम तपोनिधि:।
जगाम मनसा रुद्रमशेषाघविनाशनम्॥ ३३॥
एतस्मिन्नन्ते देवी महादेव महेश्वरम्।
पतिं पशुपतिं देवं ज्ञात्वैतत् प्राह सर्वदूक् ॥ ३४॥
देव्युवाच
दक्षो यज्ञेन यजते पिता मे पूर्वजन्मनि।
बिनिनन््ध भवतो भावमात्मानं चापि शंकर॥ ३५॥
देवा: सहर्षिभिश्वासंस्तत्र साहाय्यकारिण: ।
विनाशयाशु तं यज्ञ वरमेक॑ वृणोम्यहम्॥ ३६॥
* कूर्मपुराण *
भगवान् ब्रह्माके अन्तर्धान हो जानेपर स्वयं दक्ष
संसारकी रक्षा करनेवाले देव नारायण हरिकी शरणमें
गये | तदनन्तर भयसे मुक्त होकर दक्षने वह यज्ञ आरम्भ
किया। शरणागतकी रक्षा करनेवाले भगवान् विष्णु
(उस यज्ञकी) रक्षा करने लगे। भगवान् दधीच ऋषिने
ब्रह्म (शंकर)-से द्वेष माननेवाले उन सभी ऋषिगणों
तथा देवताओंकी ओर देखकर उन दक्षसे पुनः कहा-
जो अपूज्य है, उसका पूजन करनेसे और जो पूज्य है,
उसका पूजन न करनेसे मनुष्य निश्चित ही महान्
पापको प्राप्त करता है, इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है।
जहाँ दुर्जोंका आदर होता है और सत्पुरुषोंका अनादर
होता है, वहाँ अति शीघ्र ही दारुण दैवी दण्ड उपस्थित
होता है। ऐसा कहकर विप्रर्षि दधीचने दक्षकी सहायता
करनेके लिये आये हुए उन ईश्वर (शंकर)-से विद्वेष
रखनेवाले ब्राह्मणोंको शाप देते हुए कहा-- ॥ २३--२८॥
चूँकि तुम लोगोंने वेदोंकी अवमानना की है और
समस्त संसारके द्वारा वन्दित परमेश्वर महादेव शंकरकी
निन्दा की है, अत: ईश्वर (शंकर)-से द्वेष रखनेवाले
तुम सभी वेदत्रयीसे रहित हो जाओगे और असत्-
शास्त्रोंमें मन लगाते हुए ईश्वर-मार्ग (शिव-मार्ग)-की
निन्दा करोगे तथा घोर कलियुग आनेपर मिथ्या अध्ययन
और मिथ्या आचारयुक्त होकर मिथ्या ज्ञानका प्रलाप
करनेवाले होओगे, साथ ही कलिके द्वारा उत्पन्न कष्ट
एवं दु:खों आदिसे पीड़ित रहोगे। पुन: तुम सभी अपने
सम्पूर्ण तपोबलका त्याग करके नरक प्राप्त करोगे। तुम
लोगोंके द्वारा हृषीकेश विष्णुके भलीभाँति आश्रय ग्रहण
करनेपर भी वे तुम लोगोंसे विमुख ही रहेंगे॥ २९--३२॥
ऐसा कहकर तपस्याकी निधि वे विप्रर्षि (दधीच)
चुप हो गये और मानसिक रूपसे सम्पूर्ण पापोंका
विनाश करनेवाले रुद्रकी शरणमें गये। इसी बीच यह
सारी घटना जानकर सर्वदर्शी (सब कुछ प्रत्यक्ष
देखनेवाली) देवी (पार्वती )-ने (अपने) पतिदेव पशुपति
महादेव महेश्वरसे कहा-- ॥ ३३-३४ ॥
देवी बोलीं--शंकर ! पूर्वजन्मके मेरे (सतीके) पिता
दक्ष यज्ञ कर रहे हैं और आपके भाव तथा स्वरूपकी निन्दा
कर रहे हैं। ऋषियोंके साथ देवता वहाँ उनकी सहायता
करते हुए उपस्थित हैं। मैं आपसे एक वर माँगती हूँ कि
“आप शीघ्र ही उस यज्ञको नष्ट करें'॥ ३५-३६ ॥
* अध्याय १४ *
एवं विज्ञापितो देव्या देवो देववरः प्रभु: ।
ससर्ज सहसा रुद्रं दक्षयज्ञजिघांसया॥ ३७॥
सहस्त्रशीर्षपादं च सहस्त्राक्ष॑ महाभुजम्।
सहस्त्रपाणिं दुर्धर्ष युगान्तानलसंनिभम्॥ ३८ ॥
दंष्टाकरालं दुष्प्रेक्ष्य॑ शट्डुचक्रगदाधरम् |
दण्डहस्तं महानादं शार््धिणं भूतिभूषणम्॥ ३९॥
वीरभद्र इति ख्यातं देवदेवसमन्वितम्।
स जातमात्रो देवेशमुपतस्थे कृताउजलि: ॥ ४०॥
तमाह दक्षस्य मर्खं विनाशय शिवोऊस्त्विति।
विनिन्ध मां स यजते गड्ाद्वारे गणेश्वर॥ ४१॥
ततो बन्धुप्रयुक्तेन सिंहेनेकेन लीलया।
वीरभद्रेण दक्षस्थ विनाशमगमत् क्रतुः॥ ४२॥
मन्युना चोमया सृष्टा भद्रकाली महेश्चरी।
तया च सार्ध वृषभं समारुह्य ययौ गण: ॥ ४३॥
अन्ये सहस्त्रशो रुद्रा निसृष्टास्तेन धीमता।
रोमजा इति विख्यातास्तस्य साहाय्यकारिण: ॥ ४४॥
शूलशक्तिगदाहस्ताष्टट्डलोपलकरास्तथा ।
कालाग्रिरुद्रसंकाशा नादयन्तो दिशो दश ॥ ४५ ॥
सर्वे वृषासनारूढा: सभार्याश्चातिभीषणा: ।
समावृत्य गणश्रेष्ठ॑ ययुर्दक्षमखं प्रति॥ ४६॥
सर्वे सम्प्राप्य तं देशं गड्ढाद्वारमिति श्रुतम्।
ददृशुर्यज्ञदेश॑ तं॑ दक्षस्थामिततेजस: ॥ ४७॥
देवाड़नासहस्त्राद्यमप्सरोगीतनादितम्ू ।
वीणावेणुनिनादाढ्यं वेदवादाभिनादितम्॥ ४८ ॥
दृष्ठटा सहर्षिभिर्देवे: समासीनं प्रजापतिम्।
उवाच भद्रया रुद्रैरवीरभद्र: स्मयत्निव॥ ४९॥
९२९
देवीके द्वारा ऐसा कहे जानेपर देवताओंमें श्रेष्ठ
प्रभु भगवान् (शंकर)-ने दक्षके यज्ञका विध्वंस करनेके
लिये शीघ्र ही हजारों सिर एवं पैरवाले, हजारों
आँखवाले, विशाल भुजायुक्त, हजारों हाथवाले, दुर्जेय
प्रलयकालीन अग्निके समान, भयंकर दाढ़युकत,
देखनेमें भयंकर, शंख, चक्र तथा गदा धारण किये,
हाथमें दण्ड धारण करनेवाले, घोर नाद करनेवाले,
सींगसे बने धनुषको धारण किये, विभूतिसे सुशोभित
तथा अनेक देवताओंसे घिरे हुए वीरभद्र नामवाले
रुद्रको उत्पन्न किया। उत्पन्न होते ही वह हाथ
जोड़कर देवताओंके स्वामी भगवान् शंकरके सम्मुख
उपस्थित हुआ॥ ३७--४० ॥
(शंकरने उससे कहा--) गणेश्वर! दक्षके यज्ञका
विध्वंस करो, वह गड्जाद्वार (हरिद्वार ) -में मेरी निन्दा करते
हुए यज्ञ कर रहा है। तुम्हारा कल्याण हो। तदनन्तर बन्धु
(शिव) -के द्वारा निर्दिष्ट वीरभद्रने सिंहके समान लीला
करते हुए अकेले ही दक्षके यज्ञका विध्वंस कर दिया।
उमाने भी क्रोध करते हुए महेश्वरी भद्रकालीको उत्पन्न
किया, उसके साथ वृषभपर आरूढ़ होकर वह गण (वीरभद्र)
वहाँ (गड्ाद्वार यज्ञमें) गया। बुद्धिमान् उन शंकरने उनकी
सहायता करनेवाले हजारों दूसरे रुद्रोंको भी उत्पन्न किया।
(शंकरके) रोमोंसे उत्पन्न होनेके कारण वे रुद्र 'रोमज'
कहलाये। हाथोंमें त्रिशूल, शक्ति, गदा, टू (पत्थर
तोड़नेके हथियार--घन, हथौड़ा, छेनी आदि) तथा पत्थर
लिये हुए और कालाग्नि रुद्रके समान अत्यन्त भीषण
सभी अपनी-अपनी भार्याओंके साथ वृषभरूप आसनपर
आरूढ होकर दसों दिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए गणोंमें
सर्वश्रेष्ठ वीरभद्रको अपने समूहके बीच रखते हुए जहाँ
दक्षयज्ञ हो रहा था, उस ओर चल पड़े ॥ ४१--४६॥॥
गड्ढाद्वार (हरिद्वार) नामसे प्रसिद्ध उस देशमें
पहुँचकर उन सभीने अमित तेजस्वी दक्षके उस
यज्ञस्थलको देखा, जो हजारों देवाड्रनाओंसे सुशोभित
था, अप्सराओंके गीतोंसे मुखरित था, वीणा तथा वेणुके
निनादसे प्रतिध्वनित और वेद-मन्त्रोंसे गुज्ित था।
देवताओं तथा ऋषियोंके साथ बैठे हुए प्रजापति दक्षको
देखकर भद्रकाली तथा रुद्रोंसहित वीरभद्रने हँसते हुए
कहा-- ॥ ४७--४९ ॥
१००
* कूर्मपुराण *
वयं हानुचरा: सर्वे शर्वस्यामिततेजस: |
भागाभिलिप्सया प्राप्ता भागान् यच्छध्वमीप्सितान्।। ५० ॥
अथ चेत् कस्यचिदियमाज्ञा मुनिसुरोत्तमा: ।
भागो भवद्धय्ो देयस्तु नास्मभ्यमिति कथ्यताम्।
त॑ ब्रूताज्ञापयति यो वेत्स्यामो हि वयं तत:॥ ५१॥।
एवमुक्ता गणेशेन प्रजापतिपुरः:सरा: |
देवा ऊचुर्यज्ञभागे न च मन्त्रा इति प्रभुम्॥ ५२॥
मन्त्रा ऊचुः सुरान् यूयं तमोपहतचेतस: ।
ये नाध्वरस्य राजानं पूजयध्व॑ महेश्वरम्॥ ५३॥
ईश्वर: सर्वभूतानां सर्वभूततनुईईरः ।
पूज्यते सर्वयज्ञेषु सर्वाभ्युदयसिद्द्धिद: ॥ ५४॥
एवमुक्ता अपीशानं मायया नष्टचेतस:।
न मेनिरे ययुर्मन्त्रा देवान् मुक्त्वा स्वमालयम्॥ ५५ ॥
ततः स रुद्रो भगवान् सभार्य: सगणेश्वर:।
स्पृशन् कराभ्यां ब्रह्मर्षि दधीचं प्राह देवता: ॥ ५६ ॥
मन्त्रा: प्रमाणं न कृता युष्माभिर्बलगर्वितै:।
यस्मात् प्रसहा तस्माद् वो नाशयाम्यद्य गर्वितम्॥ ५७॥
इत्युक्त्वा यज्ञशालां तां ददाह गणपुड्रढव:।
गणेश्वराश्च संक्रुद्धा यूपानुत्पाट्य चिक्षिपु:॥ ५८ ॥
प्रस्तोत्रा सह होत्रा च अश्वं चैव गणेश्वरा: ।
गृहीत्वा भीषणा: सर्वे गड्डास्नोतसि चिक्षिपु: ॥ ५९॥
वीरभद्रो5पि दीप्तात्मा शक्रस्योद्यच्छत: करम्।
व्यष्टम्भयददीनात्मा तथान्येषां दिवौकसाम्॥ ६०॥
भगस्य नेत्रे चोत्पाटय करजाग्रेण लीलया।
निहत्य मुष्टिना दन्तान् पूृष्णश्चेवमपातयत्॥ ६१॥
हम सभी अमित तेजस्वी शंकरके अनुचर हैं, यज्ञमें
भाग प्राप्त करनेकी इच्छासे यहाँ आये हैं, आप हमें
अभीप्सित यज्ञभाग प्रदान करें। अथवा श्रेष्ठ मुनियो और
देवताओ! आप हमें यह बतलायें कि किसने आपको
ऐसी आज्ञा दी है कि मुझे यज्ञभाग न दें और आप
लोगोंका ही सब भाग है। जो ऐसी आज्ञा देनेवाला है,
उसे बतलायें, फिर हम उसे देख लेंगे। गणोंके स्वामी
वीरभद्रके ऐसा कहे जानेपर प्रजापति दक्षसहित देवताओं ने
प्रभु (वीरभद्र )-से कहा--'आपको यज्ञभाग देने-
सम्बन्धी मन्त्र नहीं हैं'॥ ५०--५२॥
(यह सुनकर वबेद-) मन्त्रोंने (मूर्तिमान् स्वरूप
धारणकर) देवताओंसे कहा--आपका मन तमोगुणसे
आक्रान्त हो गया है, इसीलिये आप यज्ञके स्वामी
महेश्वरकी पूजा नहीं कर रहे हैं। सभी प्राणियोंके
एकमात्र स्वामी और सभी प्राणियोंके शरीर-रूप तथा
समस्त अभ्युदय एवं सिद्धियोंको प्रदान करनेवाले हर
(शंकर) सभी यज्ञोंमें पूजित होते हैं। ईशान अर्थात्
शंकरके बारेमें ऐसा कहे जानेपर भी मायाके कारण नष्ट
चेतनावाले देवोंने (जब उनकी बातको ) नहीं माना, तब
मन्त्र उन्हें छोड़कर अपने स्थानको चले गये। तदनन्तर
भार्या और गणेश्वरोंसहित उन (वीरभद्रस्वरूप) रुद्रने
ब्रह्मर्षि दधीचको हाथोंसे स्पर्श करते हुए देवताओंसे
कहा-- ॥ ५३--५६ ॥
तुम लोगोंने अपने बलसे गर्वित होकर मन्त्रोंको
प्रमाण नहीं माना, इसलिये इसे सहन न कर में आज
बलपूर्वक सभीके गर्वको नष्ट करूँगा। ऐसा कहकर
गणोंमें श्रेष्ठ वीरभद्रने उस यज्ञशालाको जला डाला और
गणेश्वरोंने अत्यन्त क्रुद्ध होकर (यज्ञशालाके) यूपों
(स्तम्भों)-को उखाड़कर फेंक दिया। भयानक सभी
गणेश्वरोंने आहुति देनेवालोंसहित पाठ करनेवालों एवं
घोड़ेको भी पकड़कर गड़ाके प्रवाहमें फेंक दिया।
प्रदीत्त आत्मावाले तथा दीनतारहित वबीरभद्रने भी इन्द्रके
उठे हुए सौ हाथों तथा अन्य देवताओंके उठे हुए
हाथोंको स्तम्भित कर दिया। उन्होंने नाखूनोंके अग्रभागसे
खेल-खेलमें ही भग (देवता)-के नेत्रोंको उखाड़
डाला, मुक्केसे मारकर पूषा (देवता)-के दाँतोंको तोड़
डाला॥ ५७--६१ ॥
* अध्याय १४ *
तथा चन्द्रमसं देवं पादाडडष्ठेन लीलया।
धर्षयामास बलवान् स्मयमानो गणेश्वर:॥ ६२॥
वह्लेईस्तद्वयं छित्त्वा जिह्नामुत्पाट्य लीलया।
जघान मूर्ध्नि पादेन मुनीनपि मुनीश्चरा:॥ ६३॥
तथा विष्णुं सगरुडं समायान्तं महाबल:।
विव्याध निशितेैर्बाणै: स्तम्भयित्वा सुदर्शनम्॥| ६४॥
समालोक्य महाबाहुरागत्य गरुडो गणम्।
जघान पक्षे: सहसा ननादाम्बुनिधिर्यथा।॥ ६५ ॥
ततः सहस्त्रशो भद्र: ससर्ज गरुडान् स्वयम्।
वैनतेयादभ्यधिकान् गरुडं ते प्रदुद्गुवु:॥ ६६॥
तान् दृष्ठा गरूडो धीमान् पलायत महाजव: |
विसृज्य माधवं वेगात् तदद्धुतमिवाभवत्॥ ६७॥
अन्तहिते बैनतेये भगवान् पद्मसम्भव:।
आगत्य वारयामास वीरभद्रं च केशवम्॥ ६८ ॥
प्रसादयामास च तं गौरवात् परमेष्ठिन:ः।
संस्तूय भगवानीश: साम्बस्तत्रागमत् स्वयम्॥ ६९॥
वीक्ष्य देवाधिदेवं तं साम्बं सर्वगणैर्वृ॑तम्।
तुष्टाव भगवान् ब्रह्म दक्ष: सर्वे दिवौकस: ॥ ७०॥
विशेषात् पार्वतीं देवीमी श्वरार्धशशरीरिणीम् ।
स्तोत्रैर्नानाविधेर्दक्ष: प्रणम्य च कृताउजलि: ॥ ७१॥
ततो भगवती देवी प्रहसन्ती महेश्वरम्।
प्रसन्नमानसा रुद्रं वच: प्राह घृणानिधि:॥ ७२॥
त्वमेव जगत: स्त्रष्टा शासिता चैव रक्षक: ।
अनुग्राह्मो भगवता दक्षश्नापि दिवौकस:॥ ७३॥
ततः प्रहस्य भगवान् कपर्दी नीललोहितः ।
उवबाच प्रणतान् देवान् प्राचेतसमथो हरः॥ ७४॥
गच्छध्वं देवता: सर्वा: प्रसन्नो भवतामहम्।
सम्पूज्य: सर्वयज्ञेषु न निन्योउहं विशेषतः॥ ७५॥
१०१
इसी प्रकार लीला करते हुए बलशाली गणेश्वर
वीरभद्रने हँसकर पैरके अँगूठेसे चन्द्रमाको धर्षित कर
(रौंद) दिया। अग्नि (देवता)-के दोनों हाथोंको काटकर
लीलासे ही उनकी जीभ उखाड़ दी। मुनीश्वरो! उन्होंने
पैरसे मुनियोंके मस्तकपर भी प्रहार किया। साथ ही
(उस) महाबली (वीरभद्र )-ने सुदर्शनचक्रको स्तम्भित
कर गरुडपर बैठकर आते हुए विष्णुको भी तीक्षण
बाणोंसे विद्ध (चोटिल) कर दिया॥ ६२--६४॥
महाबाहु गरुडने वहाँ आकर गण (वीरभद्र)-को
देखकर अचानक उन्हें अपने पंखोंसे मारा और समुद्रके
समान गर्जन किया। तदनन्तर उन वीरभद्रने भी स्वयं
हजारों गरुडोंको उत्पन्न कर डाला, जो विनतापूुत्र
गरुडसे भी अधिक बलशाली थे, वे सभी गरुडके ऊपर
टूट पड़े। उन (वीरभद्रद्वारा उत्पन्न) गरुडोंको देखकर
बुद्धिमान् वे गरुड विष्णुको छोड़कर बड़े ही वेगसे भाग
उठे, यह एक आश्चर्यकी बात थी। विनताके पुत्र
गरुडके अन्तर्धान हो जानेपर कमलसे उत्पन्न भगवान्
ब्रह्माने वहाँ उपस्थित होकर वीरभद्र तथा केशवको
(युद्ध करनेसे) रोका॥ ६५--६८ ॥
परमेष्ठी ब्रह्माकी महत्ताको समझकर (वीरभद्रने
उनको) स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया। (उस समय)
पार्वतीसहित साक्षात् भगवान् शंकर भी वहाँ आये। सभी
गणोंसे घिरे हुए पार्वतीसहित उन देवाधिदेव शंकरको
देखकर भगवान् ब्रह्मा, दक्ष तथा च्ुलोकमें रहनेवाले
सभी देवता उनकी (भगवान् शंकरकी) स्तुति करने
लगे। दक्षने विशेषरूपसे शंकरकी अर्धाड्रिनी देवी
पार्ववीको हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए नाना प्रकारके
स्तोत्रोंसे प्रसन्न किया। तदनन्तर दयाकी निधि देवी
भगवतीने हँसते हुए प्रसन्न-मनसे महेश्वर रुद्रसे यह
वचन कहा-- ॥ ६९--७२ ॥
आप ही संसारकी सृष्टि करनेवाले तथा आप ही
शासन करनेवाले एवं रक्षक हैं। आप भगवान्को दक्ष
तथा देवताओंपर कृपा करनी चाहिये। तदनन्तर जटा
धारण करनेवाले नीललोहित भगवान् हरने हँसकर
देवताओं तथा प्रचेतापुत्र दक्षसे कहा-- ॥ ७३-७४॥
देवताओ! आप सभी लोग जाय॑ँ। मैं आपपर प्रसन्न
हूँ। सभी यज्ञोंमें विशेषरूपसे मेरी पूजा करनी चाहिये
और मेरी निन््दा नहीं करनी चाहिये॥ ७५॥
१०२
त्वं चापि श्रुणु मे दक्ष वचन सर्वरक्षणम्।
त्यक्त्वा लोकेषणामेतां मद्धक्तो भव यत्नत:ः ॥ ७६॥
भविष्यसि गणेशान: कल्पान्तेजनुग्रहान्मम ।
तावत् तिष्ठ ममादेशात् स्वाधिकारेषु निर्वृत: ॥ ७७॥
एवमुक्त्वा स भगवान् सपत्नीकः सहानुग: ।
अदर्शनमनुप्राप्तो दक्षस्यामिततेजस: ॥ ७८ ॥
अन्तहिते महादेवे शंकरे पद्मसम्भव:।
व्याजहार स्वयं दक्षमशेषजगतो हितम्॥ ७९॥
ब्रह्मोवाच
कि तवापगतो मोह: प्रसन्ने वृषभध्वजे।
यदाचष्ट स्वयं देव: पालयैतदतन्द्रित:॥ ८०॥
सर्वेघामेव भूतानां हृद्येष वसतीश्वर:।
पश्यन्त्येनं ब्रह्मभूता विद्वांसो वेदवादिन:॥ ८१॥
स आत्मा सर्वभूतानां स बीज॑ परमा गति: |
स्तूयते वैदिकेर्मन्त्रैदिवदेवो महेश्वर:॥ ८२॥
तमर्चयति यो रुद्रं स्वात्मन्येके सनातनम्।
चेतसा भावयुक्तेन स याति परम पदम्॥ ८३॥
तस्मादनादिमध्यान्तं॑ विज्ञाय परमेश्वरम।
कर्मणा मनसा वाचा समाराधय यत्नतः॥ ८४॥
यलात् परिहरेशस्य निन्दामात्मविनाशिनीम् ।
भवन्ति सर्वदोषाय निन्दकस्य क्रिया यत: ॥ ८५॥
यस्तवैष महायोगी रक्षको विष्णुरव्यय:।
स देवदेवो भगवान् महादेवो न संशय:॥ ८६॥
मन्यन्ते ये जगद्योनिं विभिन्न विष्णुमीश्वरात्।
मोहादवेदनिष्ठत्वात् ते यान्ति नरकं॑ नरा:॥ ८७॥
वेदानुवर्तिनो रुद्रं देव॑ नारायणं तथा।
एकीभावेन पश्यन्ति मुक्तिभाजो भवन्ति ते॥ ८८ ॥
यो विष्णु: स स्वयं रुद्रो यो रुद्र: स जनार्दन: ।
इति मत्वा यजेद् देवं स याति परमां गतिम्॥ ८९॥
* कूर्मपुराण *
हे दक्ष! तुम भी सभीकी रक्षा करनेमें समर्थ मेरे
वचनको सुनो-तुम “मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ” इस लोकेषणा
(यशकी इच्छा )-का परित्यागकर प्रयलपूर्बक मेरे भक्त
बनो। इस कल्पके बीत जानेपर मेरी कृपासे तुम गणोंके
अधिपति बनोगे। मेरे आदेशसे उस समयतक तुम अपने
अधिकारपर शान्तिसे बने रहो॥ ७६-७७॥
ऐसा कहकर वे भगवान् शंकर पत्नी पार्वती तथा
अपने अनुचरोंसहित अमित तेजस्वी दक्षके लिये
अन्तर्धान (अदृश्य) हो गये। महादेव शंकरके अन्तर्धान
हो जानेपर साक्षात् पद्मोद्धव ब्रह्माने समस्त संसारके
लिये कल्याणकारी वचन कहे-- ॥ ७८-७९ ॥
ब्रह्माजीनी कहा-- (दक्ष !) वृषभध्वज शंकरके
प्रसन्न हो जानेपर क्या तुम्हारा मोह दूर हुआ ? साक्षात्
भगवान्ने जो तुमसे कहा है, आलस्यरहित होकर
उसका पालन करो। ये परमेश्वर सभी प्राणियोंके
हृदयमें निवास करते हैं। वेदवादी त्रह्मस्वरूप विद्वान्
लोग इनका दर्शन करते हैं। वे सभी प्राणियोंके आत्मा,
वे ही बीजरूप तथा परम गति हैं। वैदिक मन्त्रोंके द्वारा
देवदेव महेश्वरकी स्तुति की जाती है। जो उस
अद्वितीय सनातन रुद्रकी अपनी आत्मामें श्रद्धायुक्त
मनसे आराधना करता है, वह परमपद अर्थात् मोक्ष प्राप्त
करता है। इसलिये आदि, मध्य और अन्तसे रहित
परमेश्वरको जानकर मन, वाणी तथा कर्मसे प्रयलपूर्वक
उनकी आराधना करो॥ ८०--८४॥
अपना ही विनाश कर डालनेवाली शंकरकी निन्दा
करना प्रयत्नपूर्वक छोड़ दो, क्योंकि ( भगवान् शंकरकी)
निन््दा करनेवालेकी सारी क्रियाएँ दोषयुक्त ही होती हैं।
जो आपके ये अव्यय तथा महायोगी विष्णु रक्षक हैं,
वे भी देवताओंके देव भगवान् महादेव ही हैं, इसमें
कोई संशय नहीं। जो अज्ञानसे तथा बेदमें निष्ठा न
रखनेके कारण संसारके मूल कारण भगवान् विष्णुको
शंकरसे पृथक् मानते हैं, वे मनुष्य नरकमें जाते हैं।
वेदमार्गका अनुवर्तन करनेवाले लोग रुद्रदेव तथा
नारायणको एकीभावसे देखते हैं, अत: वे मुक्तिपदके
भागी होते हैं॥ ८५--८८ ॥
जो विष्णु हैं वे ही साक्षात् रुद्र हैं और जो रुद्र हैं, वे
ही जनार्दन विष्णु हैं--इस प्रकार समझकर जो देवका
पूजन करता है, वह परमगतिको प्राप्त करता है॥ ८९॥
* अध्याय १४ *
सृजत्येतज्जगत् सर्व विष्णुस्तत् पश्यती श्वर: ।
इत्थं जगत् सर्वमिदं रुद्रनारायणोद्धवम्॥ ९०॥
तस्मात् त्यक्त्वा हरेर्निन्दां विष्णावषि समाहित: ।
समाश्रयेन्महादेव॑ शरण्यं ब्रह्मवादिनाम्॥ ९१॥।
उपश्रुत्याथ वचन विरिश्ञस्थ प्रजापति: ।
जगाम शरणं देवं गोपतिं कृत्तिवाससम्॥ ९२॥
येडन्ये शापाग्रनिनिर्दग्धा दधीचस्य महर्षय: ।
द्विषन्तो मोहिता देवं सम्बभूवु: कलिष्वथ॥ ९३॥
त्यक्त्वा तपोबलं कृत्स्नं विप्राणां कुलसम्भवा: ।
पूर्वसंस्कारमाहात्म्याद् ब्रह्मणो वचनादिह॥ ९४॥
मुक्तशापास्तत: सर्वे कल्पान्ते रौरवादिषु।
निपात्यमाना: कालेन सम्प्राप्यादित्यवर्चसम्।
ब्रह्माणं जगतामीशमनुज्ञाता: स्वयम्भुवा॥ ९५॥
समाराध्य तपोयोगादीशानं त्रिदशाधिपम्।
भविष्यन्ति यथा पूर्व शंकरस्य प्रसादत:॥ ९६॥
एतद् व: कथितं सर्व दक्षयज्ञनिषूदनम्।
श्रृणुध्व॑ दक्षपुत्रीणां सर्वासां चेव संततिम्॥ ९७॥
१०३
विष्णु इस सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करते
हैं और शंकर उसकी देख-रेख करते हैं। इस
प्रकार यह सारा संसार रुद्र और नारायणद्वारा ही उत्पन्न
होता है॥९०॥
इसलिये भगवान् शंकरकी निन्दाका परित्याग कर
और विष्णुमें भी ध्यान लगाकर ब्रह्मवादियोंके एकमात्र
शरण्य महादेवका आश्रय ग्रहण करना चाहिये। इस
प्रकार ब्रह्मेके वचन सुनकर प्रजापति दक्ष चर्माम्बर
धारण करनेवाले देव पशुपतिकी शरणमें गये। और
जो दूसरे महर्षि दधीचके शापरूपी अग्निसे दग्ध
हो गये थे तथा मोहवश शंकरसे द्वेष करनेवाले थे,
वे पूर्वजन्मके संस्कारोंके माहात्म्य तथा ब्रह्माके वचनसे
सम्पूर्ण तपोबलका त्याग करके कलियुगमें ब्राह्मणोंके
कुलमें उत्पन्न होंगे॥९१--९४॥
रौरव आदि नरकोंमें डाले गये वे सभी (शंकरसे
विद्वेष करनेवाले) कल्पान्तमें यथासमय स्वयम्भूकी
आज्ञासे आदित्यके समान तेजोमय जगत्के स्वामी
ब्रह्मको प्रात्कर शापसे मुक्त हो जायँगे और तपोयोगद्वारा
देवताओंके स्वामी शंकरकी आराधना कर और उनकी
कृपासे पुनः जैसे पहले थे वैसे ही (विप्रर्षि) हो
जायँगे॥ ९५-९६ ॥
प्रसंगवश (मैंने) यह सब दक्ष-यज्ञके विध्वंसकी
कथा आप लोगोंसे कही। अब आप लोग प्रजापति
दक्षकी सभी कन्याओंकी संतान-परम्पराका वर्णन
सुनें ॥ ९७॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहम्रधां संहितायां पूर्वविभागे चतुर्दशोउध्याय: ॥ ९४॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें चौदहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १४॥
* कूर्मपुराण *
पंद्रहवों अध्याय
दक्ष-कन्याओंकी संतति, नृसिंहावतार, हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष-वधका वर्णन,
पृथ्वीका उद्धार, प्रह्माद-चरित, गौतमद्वारा दारुवननिवासी मुनियोंको शाप, अन्धकके
साथ महादेवका युद्ध एवं महादेवद्वारा अपने स्वरूपका उपदेश, अन्धकद्वारा महादेवकी
स्तुति तथा महादेव (शंकर )-द्वारा अन्धकको गाणपत्य-पदकी प्राप्ति, अन्धक-
द्वारा देवीकी स्तुति और देवीद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें ग्रहण करना तथा
विष्णुद्वारा उत्पन्न माताओंसे अपनी तीनों मूर्तियोंका प्रतिपादन
सूत उवाच
प्रजा: सृजेति व्यादिष्ट: पूर्व दक्ष: स्वयम्भुवा।
ससर्ज देवान् गन्धर्वान् ऋषी श्चैवासुरोरगान्॥
यदास्य सृजमानस्य न व्यवर्धन्त ताः प्रजा: ।
तदा ससर्ज भूतानि मैथुनेनैव धर्मत:॥
असिकक्न्यां जनयामास वीरणस्य प्रजापते: ।
सुतायां धर्मयुक्तायां पुत्राणां तु सहस्नकम्॥
तेषु पुत्रेषु नष्टेपु मायया नारदस्य सः।
थष्टिं दक्षोटसृजत् कन्या वैरण्यां वै प्रजापति: ॥
ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश।
विंशत् सप्त च सोमाय चतसस्त्रो5रिष्टनेमिने॥
द्वे चेव बहुपुत्राय द्वे कुशाश्राय धीमते।
द्वेचेवाड्रिरसे तद्बत् तासां वक्ष्येडथ विस्तरम्॥
अरुन्धती वसुर्जामी लम्बा भानुर्मरुत्वती।
संकल्पा च मुहूर्ता च साध्या विश्वा च भामिनी ॥
धर्मपत्यो दश त्वेतास्तासां पुत्रान निबोधत।
विश्वाया विश्वदेवास्तु साध्या साध्यानजीजनतू॥
मरुत्वन्तो मरुत्वत्यां वसवो5ष्टी वसो: सुता: ।
भानोस्तु भानवश्चैव मुहूर्ता वै मुहूर्तजा:॥
लम्बायाश्राथ घोषो बे नागवीथी तु जामिजा |
पृथिवीबिषयं सर्वमरुन्धत्यामजायत।
4
२
प्
हे
८
९॥।
संकल्पायास्तु संकल्पो धर्मपुत्रा दश स्मृता: ॥ १०॥
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोडनल:
प्रत्यूषश्न प्रभासश्ष वसवोउष्टौ प्रकीर्तिता:॥ ११॥
आपस्य पुत्रो बैतण्डय: श्रम: श्रान्तो धुनिस्तथा।
श्रुवस्य पुत्रो भगवान् कालो लोकप्रकालन: ॥ १२॥
सूतजी बोले--पूर्वकालमें 'प्रजाकी सृष्टि करो'
इस प्रकारकी स्वयम्भू-ब्रह्माकी आज्ञा प्राप्तकर दक्षने
देवताओं, गन्धर्वों, ऋषियों, असुरों तथा नागोंकी सृष्टि
की। जब सृष्टि करनेवाले उन दक्षकी वे प्रजाएँ नहीं
बढ़ीं, तब उन्होंने मर्यादापूर्वक मिथुन-धर्म (स्त्री-पुरुष-
संयोग)-से प्राणियोंकी सृष्टि की | उन्होंने वीरण प्रजापतिकी
धर्मपरायणा असिक्नी नामकी कन्यासे एक हजार पुत्रोंको
उत्पन्न किया। देवर्षि नारदकी मायासे उन पुत्रोंके नष्ट
हो जानेपर पुनः: उन दक्ष प्रजापतिने वीरणकी पुत्री
असिक्नीसे ही साठ कन्याओंको उत्पन्न किया॥ १--४॥
(उन साठ कन्याओंमेंसे) उन्होंने दस धर्मको, तेरह
कश्यपको, सत्ताईस चन्द्रमाको, चार अरिष्टनेमिको, दो
बहुपुत्रको, दो बुद्धिमान् कृुशाश्वको और इसी प्रकार दो
कन्याएँ अंगिराको प्रदान कौीं। अब मैं उनके वंश-
विस्तारका वर्णन करूँगा॥ ५-६ ॥
अरुन्धती, वसु, जामी, लम्बा, भानु, मरुत्वती,
संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या तथा भामिनी विश्वा-ये दस
धर्मकी पत्नियाँ हैं। इनके पुत्रोंके नाम सुनो। विश्वाके
विश्वेदेव हुए और साध्याने साध्य नामवाले पुत्रोंको जन्म
दिया। मरुत्वतीसे मरुदगण हुए और वसुसे वसु नामक
आठ पुत्र हुए। भानुसे भानुओं और मुहूर्तसे मुहूर्तोंकी
उत्पत्ति हुई। लम्बासे घोष और जामिसे नागवीथी नामक
पुत्र उत्पन्न हुए। अरुन्धतीसे सम्पूर्ण पृथ्वीसे सम्बद्ध
प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई और संकल्पासे संकल्प नामक
पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार धर्मके (ये) दस पुत्र कहे
गये हैं॥७--१०॥
आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष तथा
प्रभास--ये अष्ट बसु कहे गये हैं। आपके वैतण्डय,
श्रम, श्रान्त तथा धुनि नामक पुत्र हुए और धुवके पुत्र
संसारके संहारक भगवान् काल हैं ॥११-१२॥
* अध्याय १५७ *
सोमस्य भगवान् वर्चा धरस्य द्रविण: सुतः ।
पुरोजवो5निलस्यस्यादविज्ञातगतिस्तथा॥ १३॥
कुमारो हानलस्यासीत् सेनापतिरिति स्मृतः ।
देवलो भगवान् योगी प्रत्यूषस्याभवत् सुतः ।
विश्वकर्मा प्रभासस्य शिल्पकर्ता प्रजापति: ॥ १४॥
अदितिर्दितिर्दनुस्तद्वदरिष्टा सुरसा तथा।
सुरभिर्विनता चैव ताम्रा क्रोधवशा इरा।
कद्रर्मुनिश्च धर्मज्ञा तत्पुत्रानू वै निबोधत॥ १५॥
अंशो धाता भगस्त्वष्टा मित्रो5<थ वरुणो3र्यमा ।
विवस्वान् सविता पूषा हांशुमान् विष्णुरेवच ॥ १६॥
तुषिता नाम ते पूर्व चाक्षुषस्यान्तरे मनो:।
बैवस्वते5न्तरे प्रोक्ता आदित्याश्वादिते: सुता: ॥ १७॥
दितिः पुत्रद्ठय॑ लेभे कश्यपाद् बलसंयुतम्।
हिरण्यकशिपुं ज्येष्ठ हिरण्याक्षं तथापरम्॥ १८ ॥
हिरण्यकशिपुर्देत्यपो महाबलपराक्रमः |
आराध्य तपसा देवं ब्रह्माणं परमेष्टिनम्।
दृष्टा लेभे वरान् दिव्यान् स्तुत्वासौ विविधे: स्तवै: ॥ १९॥
अथ तस्य बलाद् देवा: सर्व एव सुरघ्षय: ।
बाधितास्ताडिता जम्मुर्देवबदेव॑ पितामहम्॥ २०॥
शरण्यं शरणं देव शम्भुं सर्वजगन्मयम्।
ब्रह्माणं लोककर्तरिं त्रातारं पुरुषं परम्।
कूटस्थं जगतामेकं पुराणं पुरुषोत्तमम्॥ २१॥
स॒याचितो देववरैर्मुनिभिश्च मुनीश्चवरा:।
सर्वदेवहितार्थायथ _ जगाम कमलासनः ॥ २२॥
संस्तूयमान:ः प्रणतैर्मुनीन्द्रैरमरैरपि ।
क्षीरोदस्योत्तर कूलं यत्रास्ते हरिरीश्वरः॥ २३॥
दृष्ठा देवं जगद्योनिं विष्णुं विश्वगुरुंं शिवम्।
ववन्दे चरणौ मूर्धाना कृताउजलिरभाषत॥ २४॥
ब्रह्मोवाच
त्वं गति: सर्वभूतानामनन्तो5स्यखिलात्मकः ।
व्यापी सर्वामरवपुर्महायोगी सनातनः॥ २५॥
२१०५
भगवान् वर्चा सोमके पुत्र हैं और धरके द्रविण
नामक पुत्र हैं। अनिलके पुरोजव तथा अविज्ञातगति नाम-
वाले पुत्र हैं। अतुलके पुत्र कुमार हैं जो 'सेनापति' नामसे
कहे जाते हैं। प्रत्यूष (नामक वसु)-के महायोगी भगवान्
देवल नामक पुत्र हुए। इसी प्रकार प्रभासके प्रजापति
विश्वकर्मा नामक पुत्र हैं जो शिल्पकारी हैं॥ १३-१४॥
अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, सुरभि,
विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रु, मुनि तथा धर्मज्ञा--
(दक्षकी ये तेरह कन्याएँ कश्यपकी पत्नियाँ हैं) उनके
पुत्रोंके विषयमें सुनो--॥ १५॥
अंश, धाता, भग, त्वष्टा, मित्र, वरुण, अर्यमा,
विवस्वान्ू, सविता, पूषा, अंशुमान् तथा विष्णु--ये सभी
पूर्वकालमें चाक्षुष मन्वन्तरमें तुषित नामक देवता थे और
वैवस्वत मन्वन्तरमें ये ही अदितिके पुत्र (बारह)
आदित्य कहे गये हैं। दितिने कश्यपसे बलवान दो
पुत्रोंकोी प्राप्त किया। उनमें हिरण्यकशिपु बड़ा था,
उसका अनुज हिरण्याक्ष था। दैत्य हिरण्यकशिपु
महाबलशाली और पराक्रमी था। उसने तपस्यद्वारा
परमेष्ठी ब्रह्मकी आराधनाकर उनका दर्शन किया तथा
विविध स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुतिकर दिव्य वरोंको प्राप्त
किया। उसके पराक्रमसे पीड़ित एवं ताडित सभी देवता
एवं देवर्षिगण शरण ग्रहण करने योग्य, आश्रयस्वरूप,
सर्वजगन्मय, शम्भु देवस्वरूप त्राता, लोककर्ता, परमपुरुष,
कूटस्थ, जगत्के एकमात्र पुराण पुरुष पुरुषोत्तम देवोंके
देव पितामह ब्रह्माकी शरणमें गये॥ १६--२१॥
मुनीश्वरो! श्रेष्ठ देवताओं तथा मुनियोंके द्वारा
प्रार्थना किये जानेपर सभी देवताओंके कल्याण करनेकी
इच्छासे कमलके आसनवाले ब्रह्मा क्षीरसागरके उत्तरी
तटपर गये, जहाँ विनीत मुनीन्द्रों तथा देवताओंके द्वारा
स्तुति किये जाते हुए हरि ईश्वर निवास करते हैं।
जगत्के मूल कारण, विश्वके गुरु, कल्याणमय, विष्णुदेवका
दर्शन करके उन्होंने मस्तक झुकाकर चरणोंमें प्रणम किया
और हाथ जोड़कर (इस प्रकार) कहा--॥ २२--२४॥
ब्रद्मने कहा-- ( भगवन्!) आप सभी प्राणियोंकी
गति हैं, अनन्त हैं और इस सम्पूर्ण विश्वके आत्मस्वरूप
हैं। आप सर्वत्र व्याप्त, सभी देवताओंके शरीररूप,
महायोगी तथा सनातन हैं॥ २५॥
५०६
* कूर्मपुराण *
त्वमात्मा सर्वभूतानां प्रधानं प्रकृति: परा।
बैराग्यैश्वर्यथनिरतोि!] रागातीतो निरज्जन:॥ २६॥
त्वं कर्ता चेव भर्ता च निहन्ता सुरविद्विषाम् ।
त्रातुमईस्यनन्तेश त्राता हि परमेश्वर:॥ २७॥
इत्थं स विष्णुर्भगवान् ब्रह्मणा सम्प्रबोधित: ।
प्रोवाचोन्निद्रपद्माक्ष#॥. पीतवासासुरद्विष: ॥ २८ ॥
किमर्थ सुमहावीर्या: सप्रजापतिकाः सुरा: ।
इमं देशमनुप्राप्ता: कि वा कार्य करोमि व: ॥ २९॥
देवा ऊचु:
हिरण्यकशिपुर्नाम ब्रह्मणो वरदर्पितः।
बाधते भगवतन् दैत्यो देवान् सर्वान् सहर्षिभि: ॥ ३०॥
अवध्य: सर्वभूतानां त्वामृते पुरुषोत्तम।
हन्तुमहसि सर्वेषां त्वं त्रातासि जगन्मय॥ ३१॥
श्रुत्वा तद्देवतिरुक्ते स विष्णुलोकभावन:।
वधाय देैत्यमुख्यस्य सो5सृजत् पुरुषं स्वयम्॥ ३२॥
मेरुपर्वतवर्ष्षणं घोररूपं भयानकम्।
शट्डुचक्रगदापाणिं तं प्राह गरुडध्वज:॥ ३३॥
हत्वा तं दैत्यराजं त्वं हिरण्यकशिपुं पुनः ।
इमं देशं समागन्तुं क्षिप्रमहसि पौरुषात्॥ ३४॥
निशम्य वैष्णवं वाक्य प्रणम्य पुरुषोत्तमम् ।
महापुरुषमव्यक्त ययौ देत्यमहापुरम्॥ ३५॥
विमुख्जन् भेरवं नादं शद्भुचक्रगदाधर:।
आरुह्य गरुडं देवो महामेरुरिवापर:॥ ३६॥
आकर्णय दैत्यप्रवरा महामेघरवोपमम्।
समाचचक्षिरे नादं तदा दैत्यपतेर्भयात्॥ ३७॥
असुरा ऊचुः
अ्रदागच्छति महान् पुरुषो देवचोदित:।
3.83 भैरव नादं॑ त॑ जानीमो5मरार्दन॥ ३८॥
: सहासुरवरेरहिरण्यकशिपु: स्वयम्।
संनद्धैः सायुथे पुत्रेः प्रह्मदाद्येस्तदा ययौ॥ ३९॥
वृष्ठा त॑ गरुडासीनं सूर्यकोटिसमप्रभम्।
पुरुष॑ पर्वताकारं नारायणमिवापरम्॥ ४०॥
आप सभी प्राणियोंकी आत्मा, प्रधान और परा
प्रकृति हैं। आप वैराग्य और ऐश्वर्यमें निरत, रागातीत
तथा निरञझ्ञन हैं। आप ही कर्ता-भर्ता तथा देवताओंसे
द्वेष रखनेवालोंके संहर्ता हैं। अनन्तेश! आप हो रक्षा
करनेवाले परमेश्वर हैं, आप रक्षा करें॥ २६-२७॥
ब्रह्माके द्वारा इस प्रकार भलीभाँति प्रबुद्ध किये
जानेपर विकसित कमलके समान नेत्रवाले, पीत वस्त्र
धारण करनेवाले तथा असुरोंके द्वेषी भगवान् विष्णु
बोले--अत्यन्त वीर्यशाली देवताओ! आपलोग प्रजापतियोंके
साथ इस स्थानपर किस कारणसे आये हैं अथवा मैं
आप लोगोंका कौन-सा कार्य करूँ 2॥ २८-२९॥
देवता बोले-- भगवन्! ब्रह्माके द्वारा प्राप्त वरदानके
कारण घमंडसे भरा हुआ हिरण्यकशिपु नामका दैत्य
ऋषियोंसहित सभी देवताओंको पीड़ित कर रहा है। हे
पुरुषोत्तम! आपको छोड़कर अन्य सभी प्राणियोंसे वह
अवध्य है। जगन्मय। आप उसे मारनेमें समर्थ हैं, आप
ही सभीके रक्षक हैं। देवताओंके द्वारा कही गयी उस
बातको सुनकर संसारके रक्षक विष्णुने देत्यप्रमुख उस
हिरण्यकशिपुके वधके लिये स्वयं एक पुरुषको उत्पन
किया। सुमेरु पर्वतके समान शरीरवाले, घोर रूपवाले,
भयानक एवं हाथमें शंख, चक्र, गदा धारण करनेवाले
उस पुरुषसे गरुडध्वज (विष्णु)-ने कहा॥ ३०--३३॥
तुम (अपने) पराक्रमसे उस दैत्यराज हिरण्यकशिपुको
मारकर पुन: इस स्थानपर शीघ्र ही वापस लौट आओ।
विष्णुका वचन सुनकर शंख, चक्र, गदाधारी वह दूसरे
महामेरुके समान देव गरुडपर आरूढ़ होकर भीषण नाद
करते हुए अव्यक्त, महापुरुष पुरुषोत्तमको प्रणामकर
(हिरण्यकशिपु) दैत्यके महानगरकी ओर गया। महामेघकी
गर्जनाके समान नादको सुनकर बड़े-बड़े दैत्योंने दैत्यराजसे
(हिरण्यकशिपुसे ) भयपूर्वक कहा-- ॥ ३४--३७॥
दैत्योंने कहा--देवताओंका विनाश करनेवाले
दैत्यराज! देवताओंकी प्रेरणा प्राप्त कर कोई महान पुरुष
भीषण नाद करता हुआ आ रहा है, हमें उसे जानना
चाहिये। तदनन्तर मुख्य-मुख्य असुरों तथा आयुरधोंसे
सुसज्जित प्रह्यद आदि पुत्रोंके साथ हिरण्यकशिपु स्वयं
वहाँ गया। करोड़ों सूर्यके समान प्रभावाले तथा दूसरे
नारायणके समान पर्वताकार गरुडपर बैठे हुए उस
* अध्याय ९५ *
दुद्वुवु: केचिदन्योन्यमूचु: सम्भ्रान्तलोचना: ।
अयं स देवो देवानां गोप्ता नारायणो रिपु:॥ ४१॥
अस्माकमव्ययो नूनं तत्सुतो वा समागत: ।
इत्युक्त्वा शस्त्रवर्षाणि ससृजुः पुरुषाय ते।
तानि चाशेषतो देवो नाशयामास लीलया॥ ४२॥
तदा हिरण्यकशिपेोश्चत्वार: प्रथितौजस: ।
पुत्रा नारायणोदभूतं युयुधुर्मेघनि:स्वना: ।
प्रह्मदश्चाप्यनुह्लाद: संहादो हाद एवं च॥ ४३॥
प्रह्द: प्राहिणोद त्राह्ममनुह्लादो5थ वैष्णवम्।
संहादश्चापि कौमारमाग्नेयं हाद एवं च॥ ४४॥
तानि त॑ पुरुषं प्राप्य चत्वार्यस्त्राणि वैष्णवम्।
न शेकुर्बाधितुं विष्णुं वासुदेव॑ यथा तथा॥ ४५॥
अथासौ चतुरः पुत्रान् महाबाहुर्महाबल: |
प्रगृह्ा पादेषु करे: संचिक्षेप ननाद च॥ ४६॥
विमुक्तेष्वथ पुत्रेषु हिरण्यकशिपुः स्वयम्।
पादेन ताडयामास वेगेनोरसि त॑ बली॥ ४७॥
स तेन पीडितोउत्यर्थ गरुड़ेन तथाशुग:।
अदृश्य: प्रययौ तूर्ण यत्र नारायण: प्रभु: ।
गत्वा विज्ञापयामास प्रवृत्तमखिलं तथा॥ ४८ ॥
संचिन्त्य मनसा देव: सर्वज्ञानमयो5मल: |
नरस्यार्धतनुं कृत्वा सिंहस्यार्धतनुं तथा॥ ४९ ॥
नृसिंहवपुरव्यक्तो हिरण्यकशिपो: पुरे।
आविर्बभूव सहसा मोहयन् दैत्यपुड़वान्॥ ५०॥
दंष्टाकरालो योगात्मा युगान्तदहनोपम:।
समारुह्यात्मनः शक्ति सर्वसंहारकारिकाम् |
भाति नारायणो5नन्तो यथा मध्यंदिने रवि: ॥ ५१॥
दृष्ठा नृसिंहवपुषं प्रह्मादं ज्येष्ठपुत्रकम्।
वधाय प्रेरयामास नरसिंहस्य सोउ5सुरः ॥ ५२॥
इमं नृसिंहवपुषं पूर्वस्माद् बहुशक्तिकम्।
सहैव त्वनुजैः सर्वेर्नाशयाशु मयेरित:॥ ५३ ॥
२०७
पुरुषको देखकर कोई तो भाग गये और कोई भ्रान्त-
दृष्टि होकर आपसमें कहने लगे--'यह निश्चित ही
हमारा शत्रु और देवताओंका रक्षक वही अव्यय नारायण
देव है अथवा उसका पुत्र ही यह आया है।' ऐसा कहकर
वे उस पुरुषपर शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे, किंतु उस देवने
लीलासे ही उन सभी शस्त्रोंकी नष्ट कर डाला॥ ३८--४२॥
तदनन्तर अतितेजस्वी तथा मेघके समान गर्जना
करनेवाले प्रहाद, अनुहाद, संहाद तथा हाद नामक
हिरण्यकशिपुके चार पुत्र नारायणसे उत्पन्न उस पुरुषसे
युद्ध करने लगे। प्रह्मदने ब्रह्मास्त्र, अनुहादने वेष्णवास्त्र,
संहादने कौमारास्त्र तथा हादने आग्रेयास्त्रका प्रयोग
किया ॥ ४३-४४ ॥
वे चारों अस्त्र उस वैष्णव पुरुषके पास पहुँचकर
उन वासुदेव विष्णुको किसी भी प्रकार बाँधनेमें समर्थ
न हो सके। तदनन्तर महाबाहु महाबलशाली उस पुरुषने
उन चारों पुत्रोंके परोंको अपने हाथसे पकड़कर उन्हें
फेंक दिया और गर्जना की। इस प्रकार पुत्रोंके फेंक
दिये जानेपर बलवान स्वयं हिरण्यकशिपुने पैरद्वारा बड़े
ही वेगसे उस (पुरुष)-की छातीपर प्रहार किया। उस
प्रहारसे पीड़ित होकर वह पुरुष गरुडपर चढ़कर
अदृश्य हो गया तथा शीघ्र ही वहाँ गया जहाँ प्रभु
नारायण स्थित थे। वहाँ जाकर उसने सम्पूर्ण घटित
वृत्तान्त उन्हें बतला दिया॥४५--४८ ॥
तब सर्वज्ञानममय विमल देवने मनमें विचारकर
आधा शरीर मनुष्यका एवं आधा शरीर सिंहका बनाया।
नरसिंह-शरीर धारण करनेवाले अव्यक्त देव दैत्य-
समूहोंकों मोहित करते हुए अकस्मातू् हिरण्यकशिपुके
नगरमें प्रकट हो गये। भयंकर दाढ़ोंवाले योगात्मा तथा
प्रलयाग्निकि समान अनन्त नारायण अपनी सर्वसंहारकारिणी
शक्तिपर आरूढ़ होकर उसी प्रकार प्रकाशित हो रहे
थे जैसे मध्याहकालीन सूर्य प्रकाशमान होता है।
नरसिंहका शरीर धारण किये उन्हें देखकर उस असुरने
अपने बड़े लड़के प्रह्ददको नरसिंहके वधके लिये प्रेरित
किया और कहा--॥ ४९--५२॥
अपने सभी छोटे भाइयोंके साथ तुम पहलेसे
अधिक शक्तिवाले इस नरसिंह-शरीरधारी पुरुषको मेरी
प्रेरणासे शीघ्र ही मार डालो॥ ५३॥
९०८
तत्संनियोगादसुर: प्रह्मदो विष्णुमव्ययम्।
युयुधे सर्वयत्नेन_ नरसिंहेन निर्जित:॥ ५४॥
ततः संचोदितो दैत्यो हिरण्याक्षस्तदानुज: ।
ध्यात्वा पशुपतेरस्त्रं ससर्ज च ननाद च॥ ५५॥
तस्य देवादिदेवस्य विष्णोरमिततेजस: ।
न हानिमकरोदस्त्रं यथा देवस्य शूलिनः॥ ५६॥
दृष्टा पराहतं त्वस्त्रं प्रह्मादो भाग्यगौरवात्।
मेने सर्वात्मकं देवं॑ वासुदेव॑ सनातनम्॥ ५७॥
संत्यज्य सर्वशस्त्राणि सत्त्वयुक्तेन चेतसा।
ननाम शिरसा देव योगिनां हृदयेशयम्॥ ५८॥
स्तुत्वा नारायण: स्तोत्रै: ऋग्यजुःसामसम्भव: ।
निवार्य पितरं भ्रातृन् हिरण्याक्षं तदाब्रवीत्॥ ५९॥
अय॑ नारायणोउनन्तः शाश्रतो भगवानज:।
पुराणपुरुषो देवों महायोगी जगन्मयः॥ ६०॥
अय॑ धाता विधाता च स्वयंज्योतिर्निरश्धन: ।
प्रधानपुरुषस्तत्त्वं मूलप्रकृतिरव्यय: ॥ ६१॥
ईश्वर: सर्वभूतानामन्तर्यामी गुणातिगः।
गच्छध्वमेन॑ शरणं विष्णुमव्यक्तमव्ययम्॥ ६२॥
एवमुक्ते सुदुर्बुद्धिर्हिरण्यकशिपु: स्वयम्।
प्रोवाच्र पुत्रमत्यर्थ मोहितो विष्णुमायया॥ ६३ ॥
अयं॑ सर्वात्मना वध्यो नृसिंहो5ल्पपराक्रम: ।
समागतो<स्मद्धवनमिदानीं कालचोदित:॥ ६४॥
विहस्य पितरं पुत्रो वचः प्राह महामतिः।
मा निन्दस्वैनमीशानं भूतानामेकमव्ययम्॥ ६५॥
कथं देवो महादेव: शाश्रतः कालवर्जित:।
कालेन हन्यते विष्णु: कालात्मा कालरूपधृक् ॥ ६६ ॥
ततः सुबर्णकशिपुर्दुरात्मा विधिचोदित:।
निवारितो5पि पुत्रेण युयोध हरिमव्ययम्॥ ६७॥
संरक्तनयनो5नन्तो.. हिरण्यनयनाग्रजम्।
नखैर्विदारयामास प्रह्मादस्यैतव पश्यत:॥ ६८॥
* कूर्मपुराण *
उसकी आज्ञा पाकर असुर प्रह्मदने सभी प्रकारके
प्रयत्रोंके द्वारा अव्यय विष्णुके साथ युद्ध किया, किंतु
वह नरसिंहद्वारा पराजित हो गया। तदनन्तर उस (हिरण्य-
कशिपु)-की आज्ञा प्रात्तर उसके छोटे भाई हिरण्याक्षने
पाशुपतास्त्रका ध्यान करके उसे चलाया और गर्जना
की। वह अस्त्र देवाधिदेव अमित तेजस्वी उन विष्णुकी,
कोई हानि न कर सका जैसे कोई अस्त्र त्रिशूलधारी
देव (शंकर)-की हानि नहीं करता॥ ५४--५६॥
अस्त्रको विफल होते देखकर भाग्यशाली होनेके
कारण प्रह्मदने उन देवको सर्वात्मक सनातन वासुदेव
ही समझा। उसने सभी शशब्त्रोंका परित्याग कर दिया
और सत्त्वगुणसम्पन्न चित्तसे योगियोंके हृदयमें निवास
करनेवाले देवको सिरसे प्रणाम किया तथा ऋक्, यजुष्
तथा सामवेदमें प्राप्त वैष्णव स्तुतियोंके द्वारा स्तुतिकर
अपने पिता (हिरण्यकशिपु), भाइयों एवं हिरण्याक्षको
युद्ध करनेसे रोकते हुए इस प्रकार कहा-- ॥ ५७--५९॥
ये अनन्त, सनातन, अजन्मा, महायोगी, जगन्मय
पुराणपुरुष भगवान् नारायण देव हैं। ये धाता, विधाता,
स्वयंज्योति, निरज्ञन, प्रधानपुरुषरूप, तत्त्व, मूलप्रकृति,
अव्यय, ईश्वर, सभी प्राणियोंके अन्तर्यामी तथा गुणातीत
हैं। इन अव्यक्त, अव्यय विष्णुकी आप लोग शरण
ग्रहण करें॥ ६०--६२ ॥
(प्रह्दादके) इस प्रकार कहनेपर विष्णुकी मायासे
अत्यन्त मोहित दुर्बुद्धि हिरण्यकशिपुने स्वयं पुत्रसे
कहा--यह थोड़े पराक्रमवाला नरसिंह सभी प्रकारसे
वध करने योग्य है। कालके द्वारा प्रेरित होकर इस
समय यह हमारे घरमें ही आ गया है॥ ६३-६४॥
पिताका वचन सुनकर महामति प्रह्मदने हँसकर
कहा--प्राणियोंके एकमात्र स्वामी इन अव्ययकी निन््दा
मत करो। सनातन, कालवर्जित, कालात्मा, कालका रूप
धारण करनेवाले, महादेव विष्णु देवको काल कैसे मार
सकता है। तदनन्तर भाग्यसे प्रेरित हिरण्यकशिपु पुत्रके
द्वारा रोके जानेपर भी अव्यय हरिसे लड़ने लगा। (क्रोधसे)
अत्यन्त लाल नेत्रोंवाले अनन्त विष्णुने प्रह्मदके देखते-
ही-देखते हिरण्य (स्वर्ण)-के समान नयन हैं जिसके,
उस हिरण्यनयन (हिरण्याक्ष)-के बड़े भाई हिरण्य-
कशिपुको अपने नखोंद्वार विदीर्ण कर डाला॥ ६५--६८॥
* अध्याय १५ *
हते हिरण्यकशिपौ हिरण्याक्षो महाबल:।
विसृज्य पुत्र प्रह्मादं दुद्रंबं भयविद्वधल:॥ ६९॥
अनुह्ादादयः पुत्रा अन्ये च शतशोअसुरा: ।
नृसिंहदेहसम्भूते: सिंहे्नीता यमालयम्॥ ७०॥
ततः संहत्य तद्गूपं हरिनारायण: प्रभु: ।
स्वमेव परम रूपं ययौ नारायणाहयम्॥ ७१॥
गते नारायणे दैत्य: प्रह्मदो5सुरसत्तम:।
अभिषेकेण युक्तेन हिरण्याक्षमयोजयत्॥ ७२॥
स बाधयामास सुरान् रणे जित्वा मुनीनपि।
लब्ध्वान्धकं महापुत्र॑ तपसाराध्य शंकरम्॥ ७३॥
देवाज्जित्वा सदेवेन्द्रान् बध्वा च धरणीमिमाम्।
नीत्वा रसातलं चक्रे वन्दीमिन्दीवरप्रभाम्॥ ७४॥
ततः सब्रह्मका देवा: परिम्लानमुखभ्रिय: ।
गत्वा विज्ञापयामासुर्विष्णवे हरिमन्दिरम्॥ ७५॥
स चिन्तयित्वा विश्वात्मा तद्बधोपायमव्यय: ।
सर्वदेवमयं शुभ्रं वाराहं॑ वपुरादथे॥ ७६॥
गत्वा हिरण्यनयनं हत्वा त॑ पुरुषोत्तम:।
दंष्टयोद्धारयामास कल्पादी धरणीमिमाम्॥ ७७॥
त्यक्त्वा वराहसंस्थान संस्थाप्य च सुरद्विजान्।
स्वामेव प्रकृतिं दिव्यां ययौ विष्णु: पर पदम्॥ ७८ ॥
तस्मिन् हते5मररिपौ प्रह्मदो विष्णुतत्परः।
अपालयत् स्वकं राज्यं भावं त्यक्त्वा तदासुरम्॥ ७९॥
इयाज विधिवद् देवान् विष्णोराराधने रतः ।
निःसपत्नं तदा राज्यं तस्यासीद विष्णुवैभवात्॥ ८० ॥
ततः कदाचिदसुरो ब्राह्मणं गृहमागतम्।
तापसं नार्चयामास देवानां चैव मायया॥ ८१॥
१०९
हिरण्यकशिपुके मार दिये जानेपर भयसे विह्ल
महाबली हिरण्याक्ष पुत्र प्रहादको छोड़कर भाग चला।
नरसिंहकी देहसे उत्पन्न सिंहोंने (हिरण्यकशिपुके)
अनुहाद आदि पुत्रों तथा अन्य सैकड़ों असुरोंको
यमलोक पहुँचा दिया। तदनन्तर प्रभु नारायण हरिने उस
(नरसिंह) रूपको समेटकर अपने ही नारायण नामवाले
श्रेष्ठ रूपको धारण कर लिया तथा अपने धामके लिये
प्रस्थान किया॥ ६९--७१॥
नारायणके चले जानेपर असुरश्रेष्ठ दैत्य प्रह्मदने
(अपने चाचा) हिरण्याक्षका यथोचित अभिषेक किया।
उस (हिरण्याक्ष)-ने युद्धमें देवताओं और मुनियोंको
जीतकर उन्हें पीड़ा पहुँचायी और तपस्याके द्वारा शंकरकी
आराधना करके अन्धक नामक श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त किया।
उसने देवराज इन्द्रसहित सभी देवताओंको जीत लिया
तथा कमलके समान कान्तिवाली इस पृथ्वीको बाँधकर
रसातलमें ले जाकर बंदी बना लिया॥ ७२--७४॥
तब मुरझायी हुई मुखकी शोभावाले सभी देवता
ब्रह्मासहित हरिके निवासमें गये और उन्हें (सारा
वृत्तान्त) बतलाया॥ ७५॥
अव्यय उन विश्वात्माने उस हिरण्याक्षेके वधका
उपाय सोचते हुए सर्वदेवमय स्वच्छ वराहके शरीरको
धारण किया। हिरण्याक्षके समीप जाकर पुरुषोत्तमने
उसे मार डाला और कल्पके आदियमें (हिरण्याक्षके द्वारा
रसातल ले जायी गयी) इस पृथ्वीका अपने दाढ़ोंद्वारा
(उठाकर) उद्धार किया। वराह-रूपका परित्याग कर तथा
देवताओं और ब्राह्मणोंको यथास्थान प्रतिष्ठित कर विष्णुने
अपने ही दिव्य (चतुर्भुज)-स्वरूपको धारण किया और
वे अपने परम पदकी ओर चले गये॥ ७६--७८ ॥
देवताओंके शत्रु उस (हिरण्याक्ष )-के मारे जानेपर
विष्णुपरायण प्रह्दद आसुर भावका परित्याग कर अपने
राज्यका पालन करने लगा। विष्णुकी आराधनामें निरत
रहते हुए उसने विधिपूर्वक देवोंका यज्ञ आदिद्वारा पूजन
किया। विष्णुके प्रतापसे उसका राज्य किसी प्रतिद्वन्द्वी
(शत्रु) आदिसे रहित था॥ ७९-८० ॥
एक बारकी बात है--देवताओंकी मायाके वशीभूत
असुर प्रह्मदने घरमें आये हुए तपस्वी ब्राह्मणकी पूजा
नहीं की॥८१॥
१९०
स॒तेन तापसोउत्यर्थ मोहितेनावमानितः।
शशापासुरराजानं_क्रोधसंरक्तलोचन: ॥ ८२॥
यत्तद्वल॑ समाञश्रित्य ब्राह्मणानवमन्यसे |
सा भक्तिर्वैष्णवी दिव्या विनाशं ते गमिष्यति॥ ८३॥
इत्युक्त्वा प्रययौ तूर्ण प्रह्मदस्य गृहाद् द्विज: ।
मुमोह राज्यसंसक्त: सो5पि शापबलात् ततः ॥ ८४॥
बाधयामास विप्रेन्द्रान न विवेद जनार्दनम्।
पितुर्वधमनुस्मृत्य क्रोधं चक्रे हरिं प्रति॥ ८५॥
तयो: समभवद् युद्ध सुधघोरं रोमहर्षणम्।
नारायणस्य देवस्य प्रह्मादस्यामरद्विष: ॥ ८६॥
कृत्वा तु सुमहद युद्ध विष्णुना तेन निर्जितः ।
पूर्वसंस्कारमाहात्म्यात् परस्मिन् पुरुषे हरौ।
संजातं तस्य विज्ञानं शरण्यं शरणं ययौ॥ ८७॥
ततः प्रभृति दैत्येन्द्रो हानन्यां भक्तिमुद्ददन्।
नारायणे महायोगमवाप पुरुषोत्तमे॥ ८८ ॥
हिरण्यकशिपो:ः पुत्रे योगसंसक्तचेतसि।
अवाप तनन््महद् राज्यमन्धको<सुरपुड्भवः ॥ ८९॥
हिरण्यनेत्रतनयः शम्भोर्देहसमुद्धव: ।
मन्दरस्थामुमां देवीं चकमे पर्वतात्मजाम्॥ ९०॥
पुरा दारुवने पुण्ये मुनयो गृहमेधिनः।
ईश्वराराधनार्थाय तपश्चेर: सहस्त्रश:॥ ९१॥
ततः कदाचिन्महती कालयोगेन दुस्तरा।
अनावृष्टिरतीवोग्रा ह्यासीद् भूतविनाशिनी॥ ९२॥
समेत्य सर्वे मुनयो गौतमं तपसां निधिम्।
अयाचन्त क्षुधाविष्टा आहारं प्राणधारणम्॥ ९३॥
स ॒तेभ्य: प्रददावन्नं मृष्टे बहुतरं बुधः।
सर्वे बुभुजिरे विप्रा निर्विशद्लेन चेतसा॥ ९४॥
गते तु द्वादशे वर्ष कल्पान्त इब शंकरी।
बभूव वृष्टिमहती यथापूर्वमभूजगत्॥ ९५॥
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* कूर्मपुराण *
मायासे अत्यन्त मोहित उस तपस्वी प्रह्मदके द्वारा
अपमानित होकर क्रोधसे रकक्तनेत्रवाले उस तपस्वी
ब्राह्मणने असुरराज (प्रहाद)-को शाप दे डाला-जिस
बलका आश्रय ग्रहणकर तुम ब्राह्मगणोंकी अवमानना कर
रहे हो, तुम्हारी वह दिव्य वैष्णवी भक्ति विनष्ट हो
जायगी॥ ८२-८३ ॥
ऐसा कहकर वह ब्राह्मण प्रह्ददके घरसे शीघ्र ही
निकल पड़ा और प्रह्नद भी शापके प्रभावसे राज्य-
संचालनमें लगे रहनेपर भी मोहग्रस्त हो गया। वह श्रैष्ठ
ब्राह्मणोंको पीड़ित करने लगा और जनार्दनको भूल-सा
गया। पिता (हिरण्यकशिपु)-के वधका स्मरणकर वह
हरि (विष्णु)-पर क्रुद्ध हो गया। तब उन दोनों सुरद्रोही
प्रहाद और नारायणदेवमें अत्यन्त घोर रोमाञ्जकारी युद्ध
हुआ। बड़ा भारी युद्ध करनेके बाद विष्णुने उसे जीत
लिया। पहलेके संस्कारके माहात्म्यसे उसे परमपुरुष
हरिका वास्तविक ज्ञान उद्दुद्ध हो गया और वह उनकी
शरणमें गया। तबसे नारायण पुरुषोत्तममें अनन्य भक्ति
रखते हुए उस दैत्येन्द्र प्रहादको महायोगकी प्राप्ति
हुई॥ ८४--८८ ॥
हिरण्यकशिपुके पुत्र (प्रह्मद)-का चित्त योगमें आसक्त
हो जानेपर शम्भुके देहसे* उत्पन्न हिरण्याक्षके पुत्र
असुर श्रेष्ठ अन्धकने उस विशाल राज्यको प्राप्त किया
तथा मन्दर पर्वतपर अवस्थित पर्वत (हिमालय)-की
पुत्री उमा देवीको प्राप्त करनेकी इच्छा की॥ ८९-९०॥
प्राचीन कालकी बात है, हजारों गृहस्थ मुनि
पुण्यदायी दारुवनमें ईश्वरकी आराधना करनेके लिये तप
करते थे। तदनन्तर कालयोगसे किसी समय प्राणियोंका
विनाश करनेवाली अत्यन्त उग्र तथा भयंकर अनावृष्टि
हुई। भूखसे व्याकुल सभी मुनियोंने साथ मिलकर
तपोनिधि गौतमसे प्राण धारणके निमित्त भोजनकी
याचना की । बुद्धिमान् उन गौतमने उन सभीको अत्यधिक
स्वादुयुक्त अन्न प्रदान किया। उन सभी नब्राह्मणोंने
निःशंक-मनसे भोजन किया॥ ९१--९४॥
बारह वर्ष व्यतीत हो जानेपर कल्पान्तमें होनेवाली
कल्याणकारिणी वृष्टिके सदृश महान वृष्टि हुई। संसार
(पुनः) पहलेके समान हो गया॥ ९५॥
* शम्भुकी आराधनासे ही हिरण्याक्षको अन्धक (पुत्र)-कौ प्राप्ति हुई थी।
* अध्याय १७ *
ततः सर्वे मुनिवरा: समामन्त्र्य परस्परम्।
महर्षि गौतमं प्रोचुर्गच्छाम इति वेगतः॥ ९६ ॥
निवारयामास च तान् कज्चित् काल॑ यथासुखम्।
उषित्वा मदगृहे5वश्यं गच्छध्वमिति पण्डिता:॥ ९७ ॥
ततो मायामयीं सृध्ठरा कृशां गां सर्व एवं ते।
समीपं प्रापयामासुर्गोतमस्य महात्मन:॥ ९८ ॥
सो&नुवीक्ष्य कृपाविष्टस्तस्या: संरक्षणोत्सुकः ।
गोष्टे तां बन्धयामास स्पृष्टमात्रा ममार सा॥ ९९ ॥
स शोकेनाभिसंतप्तः कार्याकार्य महामुनिः ।
न पश्यति सम सहसा तादूशं मुनयोउब्बुवन्॥ १००॥
गोवशध्येयं द्विजश्रेष्ठ यावत् तव शरीरगा।
तावत् तेजन्न न भोक्तव्यं गच्छामो वयमेव हि॥ १०१॥
तेन ते मुदिताः: सन्तो देवदारुवनं शुभम्।
जग्मु: पापवशं नीतास्तपश्चर्तुं यथा पुरा॥ १०२॥
स तेषां मायया जातां गोवध्यां गौतमो मुनिः।
केनापि हेतुना ज्ञात्वा शशापातीवकोपन:॥ १०३॥
भविष्यन्ति त्रयीबाह्या महापातकिभि: समा: ।
बभूवुस्ते तथा शापाजायमाना: पुनः पुन: ॥ १०४॥
सर्वे सम्प्राप्य देवेशं शंकरं विष्णुमव्ययम् ।
अस्तुवन् लौकिकैः स्तोत्रेरुच्छिष्टा इव सर्वगो ॥ १०५ ॥
देवदेवों महादेवो भक्तानामार्तिनाशिनौ।
कामतवृत्त्या महायोगौ पापाज्नस्त्रातुमहथ: ॥ १०६॥
तदा पाएवस्थितं विष्णुं सम्प्रेकष्य वृषभध्वज: ।
किमेतेषां भवेत् कार्य प्राह पुण्येषिणामिति॥ १०७॥
ततः स भगवान् विष्णु: शरण्यो भक्तवत्सल: ।
गोपतिं प्राह विप्रेन्द्रानालोक्य प्रणतान् हरि: ॥ १०८ ॥
न बेदबाह्ये पुरुषे पुण्यलेशो5पि शंकर।
संगच्छते महादेव धर्मों बेदाद विनिर्बभौ॥ १०९॥
१११
तब सभी मुनिवरोंने आपसमें मन्त्रणा कर महर्षि
गौतमसे पूछा--क्या हमलोग शीघ्र यहाँसे चले जायें?
तब गौतमने उन लोगोंको रोकते हुए कहा--पण्डितजनो !
कुछ समय और यहाँ मेरे घरमें सुखपूर्वक रहें, इसके
बाद आप सभी जायें। तत्पश्चात् उन सभीने मायामयी
एक कमजोर गाय बनाकर उसे महात्मा गौतमके समीप
पहुँचा दिया। गायको देखकर उसकी रक्षाके लिये
उत्सुक दयालु मुनिने अपनी गोशालामें उसे बाँध दिया,
किंतु वह गाय छूते ही मर गयी॥ ९६--९९॥
शोकसे अत्यन्त दुःखी वे महामुनि उस समय
किंकर्तव्यविमूढ़-से हो गये। तब शीघ्र ही मुनियोंने ऐसे
उन (गौतम मुनि)-से कहा--॥ १०० ॥
हे द्विजश्रेष्ठ! जबतक यह गोहत्या आपके शरीरमें
(व्याप्त) रहेगी, तबतक आपके यहाँ अन्न नहीं ग्रहण
करना चाहिये, इसलिये हमलोग जा रहे हैं॥ १०१॥
इस प्रकार पापके वशीभूत हुए वे (मुनिजन)
प्रसन्न होकर पहलेके ही समान तप करनेके लिये शुभ
देवदारु वनमें चले गये। उन गौतम मुनिने उन
मुनियोंकी मायाद्वारा करायी गयी गोहत्याको किसी
प्रकारसे जान लिया और अत्यन्त क्कुद्ध होकर (इस
प्रकार) शाप दिया॥ १०२-१०३॥
महापातकियोंके समान ये लोग वेदसे बहिष्कृत हो
जायँगे और शापके कारण बार-बार जन्म लेनेवाले होंगे।
भोजनसे बची हुई जूठनके समान वे सभी (शापसे
भयभीत होकर) सर्वव्यापक देवेश शंकर तथा अव्यय
विष्णुके पास पहुँचकर उनकी लौकिक स्तुतियोंसे स्तुति
करने लगे--॥ १०४-१०५ ॥
हे देवदेव (विष्णु) ! हे महादेव! (शंकर) आप दोनों
भक्तोंका कष्ट दूर करनेवाले हैं और इच्छानुसार योगका
अवलम्बन करनेवाले हैं। आप हम लोगोंकी पापसे
रक्षा करें। तब समीपमें स्थित विष्णुकी ओर देखकर
वृषभध्वज शंकरने कहा-बताइये कि ये पुण्यकी
इच्छा करनेवाले लोग क्या चाहते हैं ? तब भक्तवत्सल,
शरण्य हरि उन भगवान् विष्णुने विनीत श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी
ओर देखकर शंकरजीसे कहा--॥ १०६--१०८ ॥
शंकर! वेदबाह्म पुरुषमें पुण्यका लेशमात्र भी नहीं
रहता। हे महादेव! वेदसे ही धर्म उत्पन्न हुआ है ॥ १०९॥
११२
तथापि भक्तवात्सल्याद रक्षितव्या महेश्वर।
अस्माभिः सर्व एवेमे गन्तारो नरकानपि॥ ११०॥
तस्माद वे वेदबाह्मानां रक्षणार्थाय पापिनाम् ।
विमोहनाय शास्त्राणि करिष्यामो वृषध्वज॥ १११॥
एवं सम्बोधितो रुद्रो माधवेन मुरारिणा।
चकार मोहशास्त्राणि केशवो5पि शिवेरित: ॥ ११२॥
कापालं नाकुलं वाम॑ भेरवं पूर्वपश्चिमम् ।
पद्ञरात्र पाशुपतं तथान्यानि सहस्त्रश:॥ ११३॥
सृष्ठा तानूचतुर्देवी कुर्वाणा: शास्त्रचोदितम्।
पतन्न्तो निरये घोरे बहून् कल्पान् पुनः पुन: ॥ ११४॥
जायन्तो मानुषे लोके क्षीणपापचयास्तत: ।
ईश्वराराधनबलाद् गच्छध्वं सुकृतां गतिम्।
वर्तध्वं मत्प्रसादेन नान्यथा निष्कृतिहिं व: ॥ ११५॥
एवमीश्वरविष्णुभ्यां चोदितास्ते महर्षय:।
आदेशं प्रत्यपद्यन्त शिरसा5सुरविद्विषो: ॥ ११६॥
चक्रुस्तेउन्यानि शास्त्राणि तत्र तत्र रता: पुनः ।
शिष्यानध्यापयामासुर्दर्शयित्वा फलानि तु॥ ११७॥
मोहयन्त इमं लोकमवतीर्य महीतले।
चकार शंकरो भिक्षां हितायैषां द्विजे: सह॥ ११८॥
कपालमालाभरण: प्रेतभस्मावगुण्ठित: ।
विमोहयँल्लोकमिमं जटामण्डलमण्डित: ॥ ११९॥
निक्षिप्य पार्वती देवीं विष्णावमिततेजसि।
नियोज्याड्ुभवं रुद्रं भेरवं दुष्टनिग्रहे॥ १२० ॥
दत्त्या नारायणे देवीं नन्दिनं कुलनन्दिनम्।
संस्थाप्य तत्र गणपान् देवानिन्द्रपुरोगमान्॥ १२१॥
प्रस्थितेडथ महादेवे विष्णुर्विश्वतनु: स्वयम्।
स्त्रीरृपधारी नियतं सेवते सम महेश्वरीम्॥ १२२॥
हि कूर्मपुराण नर
तथापि महेश्वर! भकतवत्सलताके कारण नरकोंमें
जानेवाले इन सभीकी हमारे द्वारा रक्षा की जानी चाहिये
ऐसा उचित प्रतीत होता है। इसलिये वृषभध्वज!
वेदबाह्य पापियोंकी रक्षा करने एवं उन्हें मोहित करनेके
लिये मैं शास्त्रोंकी रचना करूँगा। इस प्रकार मुरारि
माधवसे प्रेरित किये गये रुद्रने मोहित करनेवाले
शास्त्रोंकी बनाया और उसी प्रकार शिवसे प्रेरणा प्राप्त
केशवने भी ऐसे ही शास्त्रोंकी रचना की। कापाल,
नाकुल, वाम, भेरव, पूर्वपश्चिम, पञ्जरात्र, पाशुपत तथा
अन्य भी सहम्रों शास्त्रोंकी रचना करके उन देवोंने उन
(वेदबाह्य )-से कहा--इन शास्त्रोंमें बताये गये कर्मोंको
करनेके कारण बहुत कल्पोंतक आप सब घोर अन्धकारपूर्ण
नरकोंमें गिरेंगे और फिर पाप-समूहके क्षीण हो जानेपर
मनुष्यलोक प्राप्त करेंगे। पुन: ईश्वरकी आराधनाके
बलपर पुण्यवानोंकी गति प्राप्त करेंगे। आप सभी मेरी
प्रसन्नताके लिये ऐसा ही करें, आप लोगोंके निस्तारणका
अर्थात् दोषमुक्त होनेका इसके अतिरिक्त अन्य कोई
उपाय नहीं है॥ ११०--११५॥
इस प्रकार शिव तथा विष्णुके द्वारा प्रेरणा प्राप्तकर
उन महर्षियोंने असुरोंसे द्वेष करनेवाले उन दोनों देवोंकी
आज्ञाको सिरसे स्वीकार किया। पुनः उन लोगोंने भी
दूसरे शास्त्रोंकी रचना कर उनमें प्रवृत्त होनेवाले
शिष्योंको पढ़ाया तथा उन शास्त्रोंक पढ़नेका फल भी
बताया॥ ११६-११७ ॥
शिवने इन (ब्राह्मणों)-के कल्याणके लिये पृथ्वीपर
अवतार लेकर लोगोंको मोहित करते हुए ब्राह्मणोंके
साथ भिक्षावृत्ति ग्रहण की | कपालोंकी मालाका आभूषण
धारणकर, चिता-भस्म लगाकर और जटामण्डलसे
मण्डित हो इस लोकको मोहित किया। देवी पार्वतीको
अमित तेजस्वी विष्णुके समीप रखा और दुष्टोंका निग्रह
करनेके लिये अपने अड्जसे उत्पन्न रुद्र भैरवको नियुक्त
किया। देवीको नारायणके समीप रखकर कुलनन्दन
नन्दीको वहाँ रखा तथा इन्द्रादि देवों एवं गणपोंको भी
वहाँ स्थापित किया॥ ११८--१२१॥
महादेवके जानेके पश्चात् विश्वतनु साक्षात् विष्णु
सत्री-रूप धारण करके महेश्वरी पार्वतीकी भलीभाँति
सेवा करने लगे॥ १२२॥
* अध्याय १५ *
ब्रह्मा हुताशन: शक्रो यमो<न्ये सुरपुड्रवा: ।
सिषेविरे महादेवीं स्त्रीवेशं शोभनं गता: ॥ १२३॥
नन्दीश्वरश्चन भगवान् शम्भोरत्यन्तवल्लभ: ।
द्वारदेशे गणाध्यक्षो यथापूर्वमतिष्ठत॥ १२४॥
एतस्मिन्नन्तरे दैत्यो हान्थको नाम दुर्मति: ।
आहर्तुकामो गिरिजामाजगामाथ मन्दरम्॥ १२५७॥
सम्प्राप्तमन्धकं दृष्ठा शंकर: कालभेरव: |
न्यषेधयदमेयात्मा कालरूपधरो हरः॥ १२६॥
तयो: समभवद् युद्ध सुधोरं रोमहर्षणम् ।
शूलेनोरसि तं देत्यमाजघान वृषध्वज:॥ १२७॥
ततः सहस्त्रशो देत्य: ससर्जान्धकसंज्ञितान्।
नन्दिषेणादयो दैत्यैरन्धथकैरभिनिर्जिता:॥ १२८ ॥
घण्टाकर्णो मेघनादश्रण्डेशश्चण्डतापन: ।
विनायको मेघवाह:ः सोमनन्दी च वैद्युत:॥ १२९॥
सर्वेडन्थकं दैत्यवरं सम्प्राप्पातिबलान्विता: ।
युयुधु: शूलशक्त्यृष्टिगिरिकूटपरश्रथे: ॥ १३०॥
भ्रामयित्वाथ हस्ताभ्यां गृहीतचरणद्वया: ।
दैत्येन्द्रेणातिबलिना क्षिप्तास्ते शतयोजनम्॥ १३१॥
ततो5न्धकनिसृष्टास्ते शतशो5थ सहस््रश: ।
कालसूर्यप्रतीकाशा भेरवं त्वभिदुद्गुवु:॥ १३२॥
हा हेति शब्द: सुमहान् बभूवातिभयड्डूरः ।
युयोध भेरवो रुद्रः शूलमादाय भीषणम्॥ १३३ ॥
दृष्टाउन्धकानां सुबल॑ दुर्जयं तर्जितो हर: ।
जगाम शरणं देवं वासुदेवमजं विभुम्॥ १३४॥
सो$सृजद् भगवान् विष्णुर्देवीनां शतमुत्तमम् ।
देवीपाश्वस्थितो देवो विनाशायामरद्विषाम्॥ १३५॥
तदान्धथकसहरत्र तु देवीभिर्यमसादनम्।
नीत॑ केशवमाहात्म्याह्लेलयैव रणाजिरे॥ १३६॥
दृष्ठा पराहतं सैन्यमन्थकोडपि महासुरः।
पराइ्मुखो रणात् तस्मात् पलायत महाजव: ॥ १३७॥
ततः क्रीडां महादेव: कृत्या द्वादशवार्षिकीम्।
हिताय लोके भक्तानामाजगामाथ मन्दरम्॥ १३८ ॥
११३
सुन्दर स्त्रीका रूप धारण करके ब्रह्मा, अग्नि,
इन्द्र, यम तथा अन्य भी श्रेष्ठ देवता महादेवीकी
सेवा करने लगे। शम्भुके अत्यन्त प्रिय गणोंके अध्यक्ष
भगवान् नन्दीश्वर पूर्वकी भाँति द्वारपर स्थित रहे।
इसी बीच अन्धक नामका एक कुबुद्धि दैत्य गिरिजा
पार्ववीको हरनेकी इच्छासे उस मन्दर पर्वतपर
आया। अन्धकको वहाँ आया देखकर कालरूपधारी
शंकर, अमेयात्मा हर कालभेरवने उसे रोका।
उन दोनोंका अत्यन्त भयंकर और रोमाञ्जकारी युद्ध
हुआ--॥ १२३--१२७॥
इसके बाद उस दैत्यने अन्धक नामवाले हजारों
दैत्योंको उत्पन्न किया। उन अन्धक नामवाले दैत्योंने
नन्दिषेण आदि (गणों)-को पराजित कर दिया | घण्यकर्ण,
मेघनाद, चण्डेश, चण्डतापन, विनायक, मेघवाह, सोमनन्दी
तथा वैद्युत आदि ये सभी अत्यन्त बलशाली गण
दैत्यश्रेष्ठ अन्धकके पास जाकर शूल, शक्ति, ऋष्टि,
पर्वतशिखर तथा परशुद्वारा युद्ध करने लगे। अत्यन्त
बलवान दैत्येन्रने अपने हाथोंसे उन सभीके दोनों
पैरोंको पकड़कर घुमाते हुए उन्हें सौ योजन दूर फेंक
दिया। तदनन्तर अन्धकद्ठवारा उत्पन्न सैकड़ों तथा
हजारोंकी संख्यामें प्रलयकालीन सूर्यके समान वे
(दैत्य) भेरवपर टूट पड़े। अत्यन्त भयंकर हाहाकारका
शब्द होने लगा। भेरव रुद्र भीषण शूल लेकर युद्ध
करने लगे॥ १२८--१३३॥
अन्धकोंकी सेनाको अजेय देखकर भयभीत हर,
विभु, अजन्मा देव वासुदेवकी शरणमें गये। तब देवीके
समीपमें स्थित उन देव भगवान् विष्णुने देवताओंके
द्वेषियोंका विनाश करनेके लिये श्रेष्ठ सौ देवियोंको
उत्पन्न किया॥ १३४-१३५॥
तदनन्तर विष्णुकी महिमासे उन देवियोंने सैकड़ों
अन्धकोंको उस युद्धस्थलमें खेल-खेलमें ही यमलोक
भेज दिया। अपनी सेनाकी पराजय देखकर महान् असुर
अन्धक भी युद्धसे विमुख होकर अत्यन्त वेगसे भाग
चला॥ १३६-१३७ ॥
तदनन्तर संसारमें भक्तोंके कल्याणार्थ बारह वर्षतक
चलनेवाली लीलाको समाप्तकर महादेव मन्दराचल
पर्वतपर चले आये॥ १३८ ॥
११४ * कूर्मपुराण *
सम्प्राप्तमीश्वरं ज्ञात्वा सर्व एव गणेश्वरा: ।
समागम्योपतस्थुस्तं भानुमन्तमिव द्विजा:॥ १३९॥
प्रविश्य भवन पुण्यमयुक्तानां दुरासदम्।
ददर्श नन्दिनं देवं भेरव॑ केशवं शिव: ॥ १४०॥
प्रणामप्रवर्णं देवं सो5नुगृह्माथ नन्दिनम्।
आपघ्राय मूर्धनीशानः: केशव परिषस्वजे॥ १४१॥
दृष्ठा देवी महादेवं प्रीतिविस्फारितेक्षणा।
ननाम शिरसा तस्य पादयोरीश्वरस्य सा॥ १४२॥
निवेद्य विजय॑ तस्मै शंकरायाथ शंकरी।
भेरवो विष्णुमाहात्म्यं प्रणत: पाश्वगो5वदत्॥ १४३ ॥
श्रुत्वा तद्विजयं शम्भुर्विक्रमं केशवस्य च।
समास्ते भगवानीशो देव्या सह वरासने॥ १४४॥
ततो देवगणा:ः सर्वे मरीचिप्रमुखा द्विजा: ।
आजममुर्मन्दरं द्रष्टुं देवदेव॑ त्रिलोचनम्॥ १४५॥
येन तद् विजितं पूर्व देवीनां शतमुत्तमम्।
समागतं देत्यसैन्यमीशदर्शनवाज्छया॥ १४६॥
दृष्ठा वरासनासीनं देव्या चन्द्रविभूषणम्।
प्रणेमुरादराद देव्यो गायन्ति स्मातिलालसा: ॥ १४७॥
प्रणेमुर्गिरिजां देवीं वामपाएवें पिनाकिन: ।
देवासनगतं देवं॑ नारायणमनामयम्॥ १४८ ॥
दृष्ठा सिंहासनासीनं देव्या नारायणेन च।
प्रणम्य देवमीशानं पृष्टवत्यो वराड्रना:॥ १४९॥
कन्या ऊचु:
कस्त्वं विध्वाजसे कान्त्या केयं बालरविप्रभा।
को5न्वयं भाति वपुषा पड्टडूजायतलोचन: ॥ १५७० ॥
निशम्य तासां वचन वृषेन्द्रवरवाहन:।
व्याजहार महायोगी भूताधिपतिरव्यय:॥ १५१॥
अहूं नारायणो गौरी जगन्माता सनातनी।
विभज्य संस्थितो देव: स्वात्मानं बहुधेश्वरः ॥ १५२॥
ईश्वरको आया हुआ जानकर सभी गणेश्वर उनके
पासमें आकर इस प्रकार स्थित हो गये जैसे द्विज
सूर्यकी उपासनामें स्थित रहते हैं। अयोगियोंके लिये
दुर्गम पुण्यशाली भवनमें प्रवेशकर शिवने नन्दी, भेरवदेव
तथा केशवको देखा॥ १३९-१४० ॥
उन देव शंकरने प्रणाम करनेवाले नन्दीके ऊपर कृपा
करके उनका सिर सूघा और केशवका आलिड्न किया।
महादेवको देखकर प्रीतिसे विकसित आँखोंवाली उन
देवीने उन ईश्वरके चरणोंमें सिरसे प्रणाम किया | तदनन्तर
शंकरप्रिया पार्वतीने उन्हें विजयका समाचार कहा और
(शंकरके) पार्श्वमें स्थित रहनेवाले भैरवने विनयपूर्वक
विष्णुके माहात्म्यको भी (उन्हें) बताया। उस विजय
(-के समाचार) तथा केशव विष्णुके पराक्रमको सुनकर
शम्भु भगवान् शंकर देवी पार्वतीके साथ श्रेष्ठ आसनपर
विराजमान हुए। तदनन्तर मरीचि आदि प्रमुख द्विज
तथा सभी देवगण देवाधिदेव त्रिलोचनका दर्शन
करनेके लिये मन्दराचलपर आये॥ १४१--१४५॥
जिन्होंने दैत्य (अन्धक)-की सेनाको पहले जीता
था, वे श्रेष्ठ सौ देवियाँ भी ईशके दर्शनोंकी लालसासे
वहाँ आयीं। चन्द्रमारूपी आभूषणसे विभूषित शंकरको
देवी पार्वतीके साथ श्रेष्ठ आसनपर विराजमान देखकर
(उन) देवियोंने आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और
अत्यन्त प्रेमसे वे गान करने लगीं। पिनाकी (शंकर)-
के वामभागमें स्थित देवी गिरिजा एवं शंकरके आसनपर
उनके साथ विराजमान प्रसन्नचित्त नारायणको (उन
देवियोंने) प्रणाम किया। देवी पार्वती और नारायणके
साथ सिंहासनपर बैठे हुए देव शंकरको प्रणामकर उन
श्रेष्ठ स्त्रियोंने पूछा--॥ १४६--१४५९ ॥
कन्याओं ( देवियों )-ने कहा--अपनी कान्तिसे
प्रकाशित होनेवाले आप कौन हैं ? बाल सूर्यके समान
आभावाली यह (बाला) कौन है? और कमलके समान
विशाल नेत्रोंवाले एवं अपने शरीरके कारण शोभायमान
यह कौन पुरुष है?॥ १५०॥
उनके वचन सुनकर श्रेष्ठ वृषभपर आरूढ़ होनेवाले
सम्पूर्ण प्राणियोंके स्वामी, महायोगी अव्यय (शिव)-ने
कहा-मैं अपनेको नारायण तथा सनातन जगन्माता गौरी
आदि अनेक रूपोंमें विभकतकर स्थित रहनेवाला देव
ईश्वर हूँ॥ १५१-१५२॥
* अध्याय १५ *+
न मे विदुः परं तत्त्व देवाद्या न महर्षयः ।
११५७५
मेरे परम तत्त्वको न तो देवता आदि जानते हैं और
एको<यं वेद विश्वात्मा भवानी विष्णुरेवच॥ १५३॥ | न महर्षि। एकमात्र विश्वात्मा ये विष्णु और भवानी ही
अहं हि निष्क्रिय: शान्तः केवलो निष्परिग्रह: ।
मामेव केशवं देवमाहुर्देवीमथाम्बिकाम्॥ १५४ ॥
एप धाता विधाता च कारणं कार्यमेव च।
कर्ता कारयिता विष्णुर्भुक्तिमुक्तिफलप्रद: ॥ १५५ ॥
भोक्ता पुमानप्रमेय: संहर्ता कालरूपधृक् ।
स्त्रष्टा पाता वासुदेवो विश्वात्मा विश्वतोमुख: ॥ १५६॥
कूटस्थो ह्क्षरो व्यापी योगी नारायण: स्वयम्।
तारकः पुरुषो ह्ात्मा केवलं परम पदम्॥ १५७॥
सैषा माहेश्वरी गौरी मम शक्तिर्निरख्जना।
शान्ता सत्या सदानन्दा परं पदमिति श्रुति:॥ १५८ ॥
अस्या: सर्वमिदं जातमत्रेव लयमेष्यति।
एषेव सर्वभूतानां गतीनामुत्तमा गति:॥ १५९॥
तयाहं संगतो देव्या केवलो निष्कलः परः ।
पश्याम्यशेषमेवेदं यस्तद् वेद स मुच्यते॥ १६० ॥
तस्मादनादिमद्वदैतं विष्णुमात्मानमी श्वरम् ।
एकमेव विजानीध्वं ततो यास्यथ निर्वतिम्॥ १६१॥
मन्यन्ते विष्णुमव्यक्तमात्मानं श्रद्धयान्विता: ।
ये भिन्नदृष्टयापीशानं पूजयन्तो न मे प्रिया: ॥ १६२ ॥
द्विषन्ति ये जगत्सूतिं मोहिता रौरवादिषु।
पच्यमाना न मुच्यन्ते कल्पकोटिशतैरपि॥ १६३॥
तस्मादशेषभूतानां रक्षको विष्णुरव्यय: ।
यथावदिह विज्ञाय ध्येय: सर्वापदि प्रभु:॥ १६४॥
श्रुत्वा भगवतो वाक्य देव्य: सर्वगणेश्वरा: ।
नेमुर्नारायणं देवं देवीं च हिमशैलजाम्॥ १६५॥
प्रार्थथामासुरीशाने भक्तिं भक्तजनप्रिये।
भवानीपादयुगले_ नारायणपदाम्बुजे॥ १६६॥
ततो नारायणं देवं गणेशा मातरो5पि च।
न पश्यन्ति जगत्सूतिं तददभुतमिवाभवत्॥ १६७॥
(मुझे) जानते हैं। मैं ही निष्क्रिय, शान्त, अद्वितीय और
परिग्रहशून्य हूँ। मुझे ही केशव, देव तथा देवी अम्बिका
कहा जाता है॥ १५३-१५४॥
ये विष्णु ही स्वयं धाता, विधाता, कारण, कार्य,
कर्ता, कारयिता (कार्यके लिये प्रेरित करनेवाले) और
भुक्ति तथा मुक्तिस्वरूप फलको प्रदान करनेवाले हैं।
(ये ही) भोक्ता, अप्रमेय पुरुष, संहर्ता, कालका रूप
धारण करनेवाले, सृष्टि तथा पालन करनेवाले, विश्वात्मा,
सर्वव्यापक, वासुदेव, कूटस्थ, अविनाशी, व्यापी, योगी,
नारायण, तारक, पुरुष, आत्मा और अद्वितीय परम पद
हैं॥ १५५--१५७॥
ये माहेश्वरी गौरी मेरी निरझ्नन शक्ति हैं। वेद
इन्हें ही शान्त, सत्य, सदानन्द और परम पद बतलाते
हैं। इन्हींसे यह सब उत्पन्न हुआ है और इन्हींमें लय
भी हो जायगा। ये ही सभी प्राणियोंकी गतियोंमें उत्तम
गति हैं॥ १५८-१५९॥
इन्हीं देवीके साथ अद्वितीय, निष्कल तथा परमस्वरूप
मैं इस सम्पूर्ण (विश्व)-का साक्षात्कार करता हूँ। जो
इस (तत्त्व)-को जानता है, वह मुक्त हो जाता है।
इसलिये अनादि, अट्ठैत विष्णु और आत्मस्वरूप ईश्वर
(शंकर)-को एक ही समझो। इससे तुम लोगोंको शान्ति
प्राप्त होगी। जो श्रद्धासम्पन्न व्यक्ति अव्यक्त एवं आत्मरूप
विष्णुको भिन्न मानकर शिवकी पूजा करते हैं, वे मुझे
प्रिय नहीं हैं। जो लोग जगत्को उत्पन्न करनेवाले (विष्णु)-
से द्वेष रखते हैं (वे सभी) मोहित व्यक्ति रौरव आदि
नरकोंमें पड़े रहते हैं और सैकड़ों करोड़ कल्पोंमें भी
मुक्त नहीं होते। इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके रक्षक
अव्यय विष्णुको भलीभांति समझकर समस्त आपत्तियोंमें
उन प्रभुका ध्यान करना चाहिये॥ १६०--१६४॥
सभी देवियों और गणेश्वरोंने भगवान्के वाक्यको
सुनकर नारायण देव तथा हिमालयकी पुत्री देवी (पार्वती)-
को प्रणाम किया और भक्तजनोंके प्रिय ईशान भगवान् शंकर
तथा भवानीके चरणयुगल एवं नारायणके चरणकमलोंमें
भक्तिकी प्रार्थना की। तदनन्तर गणेश्वरों और मातृदेवियोंने
जगत्को उत्पन्न करनेवाले नारायण देवको नहीं देखा यह
एक आश्चर्य-जैसा ही हुआ॥ १६५--१६७ ॥
११६
तदन्तरे महादैत्यो हान्थको मन्मथार्दित:।
मोहितो गिरिजां देवीमाहततु गिरिमाययौ॥ १६८ ॥
अथानन्तवपु: श्रीमान् योगी नारायणो$मल: ।
तत्रैवाविरभूद दैत्यैर्युद्धाय पुरुषोत्तम:॥ १६९॥
कृत्वाथ पाश्वे भगवन्तमीशो
युद्धाय विष्णुं गणदेवमुख्य:।
शिलादपुत्रेण च मातृकाभिः
स॒ कालरुद्रोडभिजगाम देव: ॥ १७०॥
त्रिशूलमादाय कृशानुकल्पं
स॒देवदेव: प्रययौ पुरस्तातू।
तमन्वयुस्ते गणराजवर्या
जगाम देवो5पि सहस्त्रबाहु:॥ १७१॥
रराज मध्ये भगवान् सुराणां
विवाहनो वारिदवर्णवर्ण:।
तदा सुमेरो: शिखराधिरूढ-
स्त्रिलोकदृष्टिर्भगवानिवार्क:
जगत्यनादिर्भगवानमेयो
हरः सहस्त्राकृतिराविरासीतू।
बत्रिशूलपाणिर्गगने सुघोषः
पपात देवोपरि पुष्पवृष्टि:॥ १२७३॥
समागतं वीक्ष्य गणेशराजं
समावृतं देवरिपुर्गणेशै: ।
युयोध शक्रेण समातृकाभि-
गणैरशेषैरमरप्रधानै:
विजित्य सर्वानिषि बाहुवीर्यात्
स॒ संयुगे शम्भुमनन्तधाम।
समाययौ यत्र स कालरुद्रो
विमानमारुह. विहीनसत्त्व:॥ १७५॥
वृष्टान्थकं समायान्तं भगवान् गरुडध्वज:ः।
व्याजहार महादेवं भेरवं॑ भूतिभूषणम्॥ १७६॥
हन्तुमईसि दैत्येशमन्धकं लोककण्टकम्।
त्यामृते भगवान् शक्तो हन्ता नान्योउस्य विद्यते॥ १७७॥
॥ १७२॥।
॥ १७४॥
त्व॑ ह्ता सर्वलोकानां कालात्मा हौश्वरी तनु: ।
स्तूयते विविधेर्मन्त्रैबेंदविद्धिर्विचक्षणै:॥ १७८॥
* कूर्मपुराण *
इसी बीच कामदेवके द्वारा पीड़ित महादैत्य अन्धक
मोहित होता हुआ देवी गिरिजाको हरण करनेके लिये
पर्वतपर आया॥ १६८ ॥
इसके बाद विराट्शरीरधारी, श्रीमान्, योगी, निर्मल
नारायण पुरुषोत्तम दैत्योंसे युद्ध करनेके लिये वहीं प्रकट
हो गये। तदनन्तर वे कालरुद्रदेव भगवान् विष्णुको
अपने पार्श्वमें करके तथा मुख्य गणदेवों, शिलादपुत्र
नन्दी और मातृकाओंको साथ लेकर युद्धके लिये स्वयं
गये। अग्निके समान त्रिशूलको लेकर वे देवदेव
(शंकर) आगे-आगे चले। उन श्रेष्ठ गणराजों तथा
हजार बाहुवाले देव (विष्णु)-ने भी उनका अनुगमन
किया। देवताओंके बीचमें उस समय मेघके समान
वर्णवाले गरुडश़बाहन भगवान् विष्णु उसी प्रकार सुशोभित
हो रहे थे, जिस प्रकार सुमेरु पर्वतके शिखरपर आरएूढ़
तीनों लोकोंके नेत्र-स्वरूप भगवान् सूर्य सुशोभित होते
हैं॥ १६९--१७२॥
अनादि, अमेय त्रिशूलपाणि भगवान् हर हजारों
स्वरूप धारणकर पृथ्वीपर प्रकट हुए। (उस समय)
आकाशमें सुन्दर शब्द होने लगा तथा उन देवके ऊपर
(आकाशसे) पुष्पवृष्टि होने लगी। गणेश्वरोंके राजा
शिवको गणेश्वरोंद्वारा घिरि हुए आते देखकर देवशत्रु
अन्धक, इन्द्र तथा मातृकाओं, गणों और सभी प्रधान-
प्रधान देवताओंके साथ युद्ध करने लगा। अपने बाहुबलसे
युद्धमें सभीको जीतकर वह सत्तवविहीन (अन्धक)
अनन्त तेजस्वी शम्भुके समीप गया, जहाँ वे कालरुद्र
विमानपर बैठे हुए थे। अन्धकको आते हुए देखकर
भगवान् गरुडध्वजने विभूतिसे सुशोभित भैरव महादेवसे
कहा-- ॥ १७३--१७६ ॥
(भगवन्!) आप संसारके कण्टकरूप दैत्यपति
अन्धकको मारनेमें समर्थ हैं। आपको छोड़कर इसे
मारनेमें और कोई दूसरा समर्थ नहीं है। आप सभी
लोकोंका संहार करनेवाले ईश्वरके कालमय शरीर हैं।
वेदोंको जाननेवाले दिद्वानोंके द्वारा विविध मन्त्रोंसे
आपकी स्तुति की जाती है॥ १७७-१७८॥
* अध्याय २१५७५ *
स वासुदेवस्य वचो निशम्य भगवान् हरः ।
निरीक्ष्य विष्णुं हनने दैत्येन्द्रस्य मतिं दधी॥ १७९॥
जगाम देवतानीकं गणानां हर्षमुत्तमम्।
स्तुवन्ति भेरवं देवमन्तरिक्षचरा जना:॥ १८०॥
जयानन्त महादेव कालमूर्ते सनातन।
त्वमग्नि: सर्वभूतानामन्तश्चवरसि नित्यश: ॥ १८१॥
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वं धाता हरिरव्यय: ।
त्वं ब्रह्मा त्वं महादेवस्त्वं धाम परमं पदम्॥ १८२॥
ओड्डारमूर्तियोंगात्मा त्रयीनेत्रस्त्रिलोचन: |
महाविभूति्देवेशोी जयाशेषजगत्पते॥ १८३॥
ततः कालाग्रिरुद्रोडसौ गृहीत्वान्धकमी श्र: ।
त्रिशूलाग्रेषु विन्यस्य प्रननर्त सतां गति:॥ १८४॥
दृष्टान्धकं॑ देवगणा: शूलप्रोतं पितामह: ।
प्रणेमुरीशचर॑देव॑ भेरव॑ भवमोचकम्॥ १८५॥
अस्तुवन् मुनयः सिद्धा जगुर्गन्धर्वकिन्नरा: ।
अन्तरिक्षेउप्सरःसद्ठभा नृत्यन्ति सम मनोरमा: ॥ १८६॥
संस्थापितो5थ शूलाग्रे सोउन््धको दग्धकिल्बिष: ।
उत्पन्नाखिलविज्ञानस्तुष्टावः परमेश्वरम्॥ १८७॥
अन्धक उवाच
नमामि मूर्थना भगवन्तमेकं
समाहिता य॑ं विदुरीशतत्त्वम्।
पुरातनं पुण्यमनन्तरूपं
काल कविं योगवियोगहेतुम्॥ १८८॥
दंष्टाकरालं दिवि नृत्यमानं
हुताशवक्त्र ज्वलनार्करूपम।
सहस्रपादाक्षिशिरो5भियुक्तं
भवन्तमेक॑ प्रणमामि रुद्रम्॥ १८९॥
१२१७
वासुदेवका वचन सुनकर उन भगवान् हरने
विष्णुकी ओर देखकर दैत्येन्र अन्धकको मारनेका
विचार किया, गणोंका हर्ष बढ़ाते हुए वोे
देवताओंकी सेनामें गये। (तब) अन्तरिक्षमें विचरण
करनेवाले लोग भेरवदेवकी (इस प्रकार) स्तुति
करने लगे-- ॥ १७९-१८० ॥
अनन्त! महादेव! आप सनातन हैं, कालकी मूर्ति
हैं, आपकी जय हो। आप अग्निरूप और सभी
प्राणियोंक भीतर सदैव निवास करनेवाले हैं। आप ही
यज्ञ, आप ही वषट्कार और आप ही धाता अव्यय
हरि हैं। आप ही ब्रह्मा, महादेव और आप ही
तेज:स्वरूप परमपद हैं। (आप) प्रणवमूर्ति, योगात्मा,
वेदत्रयीरूप तीन नेत्रवाले त्रिलोचन हैं। आप
महाविभूतिस्वरूप, देवताओंके स्वामी हैं। हे सम्पूर्ण
संसारके स्वामी! आपकी जय हो॥ १८१--१८३ ॥
तदनन्तर सज्जनोंके आश्रयस्थान एवं प्रलयकालीन
अग्निके समान भयंकर वे ईश्वर अन्धक दैत्यको
पकड़कर अपने त्रिशूलके अग्रभागमें रखकर नाचने
लगे। त्रिशूलपर पिरोये हुए अन्धकको देखकर पितामह
ब्रह्मा तथा देवगण, संसारसागरसे मुक्त करनेवाले
भेरवदेवको प्रणाम करने लगे॥ १८४-१८५॥
मुनि तथा सिद्धजन स्तुति करने लगे और गन्धर्व,
किन्नर गान करने लगे तथा अन्तरिक्षमें रमणीय
अप्सराओंके समूह नृत्य करने लगे। तदनन्तर त्रिशूलके
अग्रभागमें स्थापित उस अन्धकके सभी पाप दग्ध
(नष्ट) हो गये, उसे सम्पूर्ण ज्ञान प्रात्त हो गया और
वह परमेश्वरकी स्तुति करने लगा--॥ १८६-१८७॥
अन्धकने (स्तुति करते हुए) कहा--समाधिमें
स्थित रहनेवाले लोग जिस पुरातन, पुण्यदायी, अनन्त-
स्वरूप, कालरूप, कवि तथा संयोग एवं वियोगके
कारणरूप ईश्वर-तत्त्वको जानते हैं, मैं उन अद्वितीय
भगवानूको सिरसे प्रणाम करता हूँ। भयंकर दाढ़ोंवाले,
आकाशमें नृत्य करते हुए, अग्निके समान मुखवाले,
प्रज्जलित सूर्यके समान स्वरूपवाले, हजारों पैर, आँख
तथा सिरोंसे युक्त आप अद्वितीय रुद्रको मैं प्रणाम
करता हूँ॥ १८८-१८९॥
१९१८
जयादिदेवामरपूजिताडस्े
विभागहीनामलतत्त्वरूप |
त्वमग्नमिरिको बहुधाभिपूज्यसे
वाय्वादिभेदेैरखिलात्मरूप. ॥ १९०॥
त्वामेकमाहु: पुरुषं पुराण-
मादित्यवर्ण तमसः: परस्तात्।
त्वं पश्यसीदं परिपास्यजर्त्र
त्वमन्तको योगिगणाभिजुष्ट: ॥ १९१॥
एकोअ<न्तरात्मा बहुधा निविष्टो
देहेषु देहादिविशेषहीन: ।
त्वमात्मशब्दं परमात्मतत्त्वं
भवन्तमाहु: शिवमेव केचित्॥ १९२॥
त्वमक्षरं ब्रह्म पर पवित्र-
मानन्दरूपं. प्रणवाभिधानम्।
त्वमीश्वरो वेदपदेषु सिद्धः
स्वयं प्रभोहश्शेषविशेषहीनः ॥ १९३॥
त्वमिन्द्ररूपो वरुणाग्रिरूपो
हंसः प्राणो मृत्युरन्तोडसि यज्ञ: ।
प्रजापतिर्भगवानेकरुद्रो
नीलग्रीवः स्तूयसे वेदविद्धि:ः॥ १९४॥
नारायणस्त्वं जगतामथादि:
पितामहस्त्व॑ प्रपितामहश्च ।
बेदान्तगुह्योपनिषत्सु गीत:
सदाशिवस्त्व॑ परमेश्वरोडईसि॥ १९५॥
नमः परस्तात् तमसः परस्मै
परात्मने पतञ्ञपदान्तराय |
त्रिशक्त्यतीताय निरख़नाय
सहस््रशक्त्यासनसंस्थिताय
त्रिमूर्तये3नन्तपदात्ममूर्ते
जगतन्निवासाय
नमो ललाटार्पितलोचनाय
नमो जनानां हृदि संस्थिताय॥ १९७॥
फणीन्द्रहाराय नमोउस्तु तुभ्यं
मुनीन्द्रसिद्धार्यितपादयुग्म..।
॥ १९६॥
जगन्मयाय।
न कूर्मपुराण न्ः
है आदिदेव! देवताओंके द्वारा आपके चरणोंकी
पूजा की जाती है, आप विभागरहित, शुद्ध तत्त्वस्वरूप
हैं, आपकी जय हो। अद्वितीय अग्निरूप आप वायु
आदि भेदोंसे बहुत प्रकारसे पूजित होते हैं और अखिल
आत्मरूप हैं। सूर्यके समान वर्णवाले पुराणपुरुष!
एकमात्र आपको ही तम (मायारूप अन्धकार)-से परे
कहा जाता है। आप इस (संसार)-के साक्षी हैं, निरन्तर
इसका पालन करते हैं और आप ही संहार करनेवाले
हैं। आप योगियोंके समूहोंद्वारा सेवित होते रहते हैं।
अद्वितीय, अन्तरात्मारूप आप देह आदि विशेष पदार्थोसे
रहित होते हुए (विभिन्न) देहोंमें अनेक प्रकारसे स्थित
रहते हैं। आप आत्मशब्द ('आत्मा' शब्दसे बोध्य)
और परमात्मतत्त्व हैं। कुछ लोग आपको ही शिव कहते
हैं॥ १९०--१९२॥
हे प्रभो! स्वयं आप आनन्दस्वरूप, परम पवित्र,
ओंकार शब्दसे वाच्य, अविनाशी, पर ब्रह्म हैं। आप
स्वयं वेदवाक्योंमें 'ईश्वर '-शब्दसे सिद्ध हैं और समस्त
विशेष पदार्थोंसे शून्य हैं। आप इन्द्र, वरुण, अग्नि,
हंस, प्राण, मृत्यु, अन्त एवं यज्ञ हैं| वेदको जाननेवालोंके
द्वारा आपके नीलकण्ठ, एकरुद्र, प्रजापति और
भगवत्स्वरूपकी स्तुति की जाती है। आप
संसारके आदि और नारायण हैं, आप ही पितामह
और प्रपितामह हैं। वेदान्तशास्त्र तथा गुह्य उपनिषदोंमें
आप ही सदाशिव और परमेश्वर इस नामसे वर्णित
हैं॥ १९३--१९५॥
तमोगुणसे परे, परम परमात्मा, पञ्जपदान्तरस्वरूप,
ब्राह्मी, वैष्णवी एवं शाक्त--तीनों शक्तियोंसे अतीत,
निरझन और सहस्रशक्तिरूप आसनपर विराजमान रहनेवाले
आप परमात्माको नमस्कार है॥१९६॥
ब्रह्मा-विष्णु एवं शिव--इन त्रिमूर्तिरूप, अनन्त पदात्मक,
आत्ममूर्ति, जगन्निवास और जगन्मयको नमस्कार है।
ललाठमें नेत्र धारण करनेवाले तथा लोगोंके हृदयमें स्थित
आपको नमस्कार है। मुनीन्द्रों तथा सिद्धोंद्वारा जिनके
चरणकमलोंकी पूजा की जाती है, ऐसे नागराजोंकी माला
धारण करनेवाले आपको नमस्कार है॥ १९७३ ॥
* अध्याय १५७५ *
ऐश्वर्यरर्मासनसंस्थिताय
नमः परान्ताय भवोद्धवाय॥ १९८ ॥
सहस्त्रचन्द्राकविलोचनाय
नमोस्तु ते सोम सुमध्यमाय।
नमोउस्तु ते देव हिरण्यबाहो
नमो5म्बिकाया: पतये मृडाय॥ १९९॥
नमो5तिगुह्ााय गुहान्तराय
वेदान्तविज्ञानसुनिश्चिताय ।
त्रिकालहीनामलधामधाम्ने
नमो महेशाय नमः शिवाय॥ २००॥
एवं स्तुवन्तं भगवान् शूलाग्रादवरोप्य तम्।
तुष्ट: प्रोवाच हस्ताभ्यां स्पृष्टाथ परमेश्वर: ॥ २०१॥
प्रीतो5हं सर्वथा दैत्य स्तवेनानेन साम्प्रतम्।
सम्प्राप्प गाणपत्यं मे संनिधाने वसामर: ॥ २०२॥
अरोगश्छिन्नसंदेहो देवैरपि सुपूजितः।
नन्दीश्वरस्यानुचर: सर्वदुःखविवर्जितः ॥ २०३॥
एवं व्याहतमात्रे तु देवदेवेन देवता:।
गणेश्वरा महादेवमन्धकं देवसंनिधौ॥ २०४॥
सहस्त्रसूर्यसंकाशं त्रिनेत्रं चन्द्रचिह्नितम्।
नीलकण्ठं जटामौलिं शूलासक्तमहाकरम्॥ २०५॥
दृष्ठा तं तुष्टवुर्देत्यमाश्चर्य परम गता:।
उवाच भगवान् विष्णुर्देवदेवं स्मयन्निव॥ २०६॥
स्थाने तव महादेव प्रभाव: पुरुषो महान्।
नेक्षतेजज्ञानजान् दोषान् गुह्लाति च गुणानपि॥ २०७॥
इतीरितोडइथ भेरवों गणेशदेवपुडुवैः।
सकेशव:ः सहान्धको जगाम शंकरान्तिकम्॥ २०८ ॥
निरीक्ष्य देवमागतं स शंकर: सहान्धकम्।
समाधवं समातृकं जगाम निर्वुतिं हरः॥ २०९॥
प्रगृद्य पाणिनेश्वरो हिरण्यलोचनात्मजम्।
जगाम यत्र शैलजा विमानमीशवल्लभा॥ २१०॥
११९
ऐश्वर्यमय धर्मके आसनपर विराजमान रहनेवाले,
परमोत्कृष्ट एवं संसारको उत्पन्न करनेवाले आपको
नमस्कार है। हजारों चन्द्रमा और सूर्योके समान नेत्रवाले
तथा सुन्दर मध्यभागवाले सोमस्वरूप आपको
नमस्कार है। हिरण्यबाहो! देव! आपको नमस्कार है।
अम्बिकाके पति मृड! आपको नमस्कार है। अत्यन्त
गुहय, गुहान्तर, वेदान्तरूपी विज्ञानके द्वारा निश्चित
किये गये तीनों कालोंके प्रभावसे रहित, शुद्ध तेजोमय
स्थानवाले महेशको नमस्कार है, शिवको नमस्कार
है॥ १९८--२०० ॥
इस प्रकार स्तुति कर रहे उस (अन्धक)-को
प्रसन्न होकर भगवान् परमेश्वरने त्रिशूलके अग्रभागसे
उतारा और हाथोंसे स्पर्श करते हुए कहा--दैत्य ! इस
समय तुम्हारे द्वारा की गयी इस स्तुतिसे मैं तुमपर
अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम गणपति-पद प्रातकर अमर
होकर मेरे समीपमें निवास करो। तुम रोगोंसे रहित,
संदेहशून्य, सभी दु:ःखोंसे रहित और नन्दीश्वरके
अनुचर होकर देवताओंके द्वारा भलीभाँति पूजित
होओगे॥ २०१--२०३ ॥
देवताओंके भी देव (शंकर)-के इतना कहते ही
हजारों सूर्यके समान प्रकाशमान, त्रिनेत्रधारी, चन्द्रमाके
चिहसे सुशोभित, नीलकण्ठ, जटा-मुकुटधारी, विशाल
भुजामें त्रिशूल धारण किये तथा महादेवरूपमें
विद्यमान उस अन्धक दैत्यको देव शंकरके समीपमें
स्थित देखकर देवता तथा गणेश्वर अत्यन्त आश्चर्य-
चकित हो गये और उसकी स्तुति करने लगे।
तदनन्तर भगवान् विष्णुने हँसते हुए देवाधिदेव शिवसे
कहा-- ॥ २०४--२०६ ॥
महादेव! आपने उचित ही प्रभाव दिखलाया। महान्
पुरुष अज्ञानसे उत्पन्न दोषोंको नहीं देखते और गुणोंको
ही ग्रहण करते हैं। इतना कहे जानेके बाद गणेश्वरों,
श्रेष्ठ देवों, केशव तथा अन्धकके साथ भेरव शंकरके
पास गये। अन्धक, विष्णु तथा मातृकाओंके साथ देव
(भेरव)-को आया देखकर उन कल्याणकारी हरको
परम शान्ति प्राप्त हुई। हिरण्याक्षके पुत्र (अन्धक)-का
हाथ पकड़कर ईश्वर (शंकर) वहाँ गये, जहाँ शंकरप्रिया
पार्वती विमानपर बैठी हुई थीं॥ २०७--२१० ॥
१२०
विलोक्य सा समागतं भवं भवार्तिहारिणम्।
* कूर्मपुराण *
संसारके दुःखोंका हरण करनेवाले भव (शंकर)-
अवाप सान्धकं सुर प्रसादमन्धकं प्रति॥ २११॥ | को अन्धकके साथ आया देखकर उन्हें सुख प्राप्त हुआ,
अथान्थको महेश्वरीं ददर्श देवपाशव॑गाम्।
पपात दण्डवत् छ्षितो ननाम पादपद्यायो: ॥ २१२॥
नमामि देववल्लभामनादिमद्रिजामिमाम्।
यतः प्रधानपूरुषो निहन्ति याखिलं जगत्॥ २१३॥
विभाति या शिवासने शिवेन साकमव्यया।
हिरण्मयेउतिनिर्मले नमामि तामिमामजाम्॥ २१४॥
यदन्तराखिलं जगज्जगन्ति यान्ति संक्षयम्।
नमामि यत्र तामुमामशेषभेदवर्जिताम्॥ २१५॥
न जायते न हीयते न वर्धते च तामुमाम्।
नमामि या गुणातिगा गिरीशपुत्रिकामिमाम्॥ २१६॥
क्षमस्त्र देवि शैलजे कृतं मया विमोहतः ।
सुरासुरैर्यदर्चितं नमामि ते पदाम्बुजम्॥ २१७॥
इत्थं भगवती गौरी भक्तिनग्रेण पार्वती।
संस्तुता दैत्यपतिना पुत्रत्वे जगृहेडन्धकम्॥ २१८॥
ततः स मातृभिः सार्ध भेरवो रुद्रसम्भव: ।
जगामानुज्ञया शम्भो: पातालं परमेश्वर:॥ २१९॥
यत्र सा तामसी विष्णोरमूर्ति: संहारकारिका |
समास्ते हरिरव्यक्तो नृसिंहाकृतिरीश्वर:॥ २२०॥
ततोउनन्ताकृतिः शम्भुः शेषेणापि सुपूजित: ।
कालाग्निरुद्रो भगवान् युयोजात्मानमात्मनि॥ २२१॥
युञ्जतस्तस्य देवस्य सर्वा एवाथ मातरः |
बुभुक्षिता महादेवं प्रणम्याहुस्त्रिशूलिनम्॥ २२२॥
मातर ऊचुः
बुभुक्षिता महादेव अनुज्ञा दीयतां त्वया।
ब्रैलोक्यं भक्षयिष्यामो नान्यथा तृप्तिस्स्ति न: ॥ २२३ ॥
एतावदुक्त्या बचन॑ मातरो विष्णुसम्भवा: ।
भक्षयाञझ्ञक्रिरे सर्व त्रैलोक्यं सचराचरम्॥ २२४॥
ततः स भैरवो देवो नृसिंहवपुषं हरिम्।
दध्यौ नारायण देवं क्षणात् प्रादुरभूद्धरिः ॥ २२५॥
तब उन्होंने अन्धकपर कृपा की। अन्धक शंकरके
पार्श्वईभागमें स्थित महेश्वरीको देखा। वह पृथ्वीपर
दण्डके समान गिर गया और देवीके चरणकमलोंमें
प्रणाम किया॥ २११-२१२॥
जिनसे प्रधान (प्रकृति) और पुरुष उत्पन्न हुए हैं
और जो सम्पूर्ण विश्वका संहार करनेवाली हैं, उन
अनादि शंकरप्रिया अद्वितनया (पर्वतपुत्री )-को मैं प्रणाम
करता हूँ। जो अति निर्मल, हिरण्मय, मंगलकारी
आसनपर भगवान् शिवके साथ सुशोभित होती हैं, उन
अव्यय और अजन्माको मैं नमस्कार करता हूँ। सभी
भेदोंसे रहित उन उमाको मैं प्रणाम करता हूँ, जिनके
भीतर सम्पूर्ण संसार उत्पन्न होता है और विनाशको प्राप्त
होता रहता है। जो न उत्पन्न होती हैं, न विनाशको प्राप्त
होती हैं और न बढ़ती ही हैं, उन गुणातीत हिमालयकी
पुत्री उमाको मैं नमस्कार करता हूँ। देवि! शैलपुत्रि! मैंने
मोहित होकर जो किया उसके लिये आप मुझे क्षमा
करें। देवताओं तथा असुरोंसे पूजित आपके चरणकमलोंको
मैं नमस्कार करता हूँ॥ २१३--२१७॥
भक्तिसे विनम्र हुए दैत्यपतिके इस प्रकार स्तुति
किये जानेपर भगवती गौरी पार्वतीने उस अन्धकको
पुत्ररूपमें स्वीकार किया॥ २१८॥
तदनन्तर रुद्रसे उत्पन्न परमेश्वर भैरव शम्भुकौ
आज्ञासे मातृकाओंके साथ पाताल गये। जहाँ विष्णुकी
संहारकारिणी तामसी मूर्तिके रूपमें नृसिंहाकृति ईश्वर
अव्यक्त हरि स्थित हैं। तदनन्तर शेषसे भी पूजित
कालाग्नि रुद्र अनन्ताकृति भगवान् शम्भुने स्वयंको
परमात्मतत्त्वसे संयुक्त कर दिया। उन देवके (परमात्मासे)
संयोग करते समय सभी बुभुक्षित मातृकाओंने त्रिशूलधारी
महादेवको प्रणामकर कहा--॥ २१९--२२२॥
मातृकाओंने कहा--महादेव ! हम भूखी हैं। आप
आज्ञा दें, हम तीनों लोकोंका भक्षण करेंगी, हमारी और
किसी प्रकारसे तृप्ति नहीं होगी। इतनी बात कहकर
विष्णुसे उत्पन्न वे मातृकाएँ चराचरसहित सम्पूर्ण
त्रिलोकीका भक्षण करने लगीं॥ २२३-२२४॥
तब उन भैरवदेवने नुसिंह-शरीरधारी नारायण-देव हरिका
ध्यान किया। हरि क्षणभरमें ही प्रकट हो गये॥ २२५॥
* अध्याय १५ *
विज्ञापयामास च त॑ भक्षयन्तीह मातरः |
निवारयाशु त्रेलोक्यं त्वदीया भगवतन्निति॥ २२६॥
संस्मृता विष्णुना देव्यो नुसिंहवपुषा पुनः ।
उपतस्थुर्महादेव॑ नरसिंहाकृतिं च तम्॥ २२७॥
सम्प्राप्प संनिधिं विष्णो: सर्वा: संहारकारिका: ।
प्रददुः शम्भवे शक्ति भेरवायातितेजसे॥ २२८॥
अपश्यंस्ता जगत्सूतिं नुसिंहमथ भेरवम्।
क्षणादेकत्वमापन्नं शेषाहिं चापि मातर:॥ २२९॥
व्याजहार हषीकेशो ये भक्ता: शूलपाणिन: ।
येच मां संस्मरन्तीह पालनीया: प्रयत्ततः॥ २३०॥
ममैव॒ मूर्तिरतुला सर्वसंहारकारिका।
महेश्वरांशसम्भूता भुक्तिमुक्तिप्रदा त्वियम्॥ २३१॥
अनन्तो भगवान् कालो द्विधावस्था ममैव तु।
तामसी राजसी मूर्तिर्देवदेवश्चतुर्मुखः॥ २३२॥
सो<यं देवो दुराधर्ष: कालो लोकप्रकालन: ।
भक्षयिष्यति कल्पान्ते रुद्रात्मा नेखिलं जगत्॥ २३३ ॥
या सा विमोहिका मूर्तिर्मम नारायणाह्नया।
सत्त्वोद्रिक्ता जगत् कृत्स्न॑ संस्थापयति नित्यदा॥ २३४॥
स हि विष्णु: परं ब्रह्म परमात्मा परा गतिः ।
मूलप्रकृतिरव्यक्ता सदानन्देति कथ्यते॥ २३५॥
इत्येवं बोधिता देव्यो विष्णुना विश्वमातरः ।
प्रपेदि महादेव॑ तमेव शरणं हरिम्॥ २३६॥
एतद् वः कथित सर्व मयान्धकनिबईहणम्।
माहात्म्य॑ देवदेवस्य भेरवस्यामितौजस: ॥ २३७॥
१२१
(भेरवदेवने) उन्हें बतलाते हुए कहा--भगवन्!
आपकी ये मातृकाएँ त्रिलोकीका भक्षण कर रही
हैं, इन्हें आप शीघ्र ही रोकें॥ २२६॥
नरसिंह-शरीरधारी विष्णुके द्वारा पुन: उन देवियोंका
स्मरण किये जानेपर वे उन नरसिंहरूपवाले महादेवके
पास आ पहुँचीं। संहार करनेवाली उन सभी शक्तियोंने
विष्णुके समीप आकर भैरवरूपधारी अति तेजस्वी
शम्भुको शक्ति प्रदान कर दी॥ २२७-२२८॥
उन मातृकाओंने जगत्को उत्पन्न करनेवाले
नृसिंह, भेरव तथा शेषनागको क्षणभरमें ही एक होते
हुए देखा। हषीकेशने कहा--शूलपाणि भगवान् शंकरके
जो भक्त हैं और जो मेरा स्मरण करते हैं, प्रयत्न-
पूर्वक उनका यहाँ पालन करना चाहिये। महेश्वरके
अंशसे उत्पन्न, सबका संहार करनेवाली यह मेरी
ही अतुलनीय मूर्ति है। यह भुक्ति और मुक्तिको
प्रदान करनेवाली है॥२२९--२३१॥
भगवान् अनन्त और काल मेरी ही दो प्रकारकी
तामसी अवस्थाएँ हैं। देवाधिदेव चतुर्मुख ब्रह्मा मेरी
राजसी मूर्ति हैं। वे ही ये संसारका संहार करनेवाले
दुर्धष कालदेव हैं। कल्पका अन्त होनेपर ये रुद्रात्मा
सम्पूर्ण विश्वका भक्षण करेंगे। सबको मोहित करनेवाली
सत्त्वगुणसम्पन्ना मेरी 'नारायण” इस नामवाली जो मूर्ति
है, वह नित्य समस्त संसारकी स्थापना करती है।
(मेरी) उस (मूर्ति)-को विष्णु, परम ब्रह्म, परमात्मा,
परमगति, मूलप्रकृति, अव्यक्त और सदानन्द--इस
प्रकारसे कहा जाता है। विष्णुके द्वारा इस प्रकार
समझानेपर देवीरूप उन सभी मातृकाओंने उन्हीं महादेव
हरिकी शरण ग्रहण की॥ २३२--२३६॥
मैंने आप लोगोंसे अन्धकके विनाश और अमित
ओजस्वी देवाधिदेव भेरवके माहात्म्यका सम्पूर्ण वर्णन
किया॥ २३७॥
ड्ति श्रीकूर्मपूराणे पट्साहस्रधां संहितायां पूर्वविधभागे पदञ्चनदशोउध्याय: ॥ १५ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविंभागमें पंद्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १५॥
५१५२२ ह कूर्मपुराण कं
सोलहवाँ अध्याय
सनत्कुमारद्वारा आत्मज्ञान प्राप्तकर प्रह्माद-पुत्र विरोचनका योगमें संलग्न होना, विरोचन-
पुत्र बलिद्वारा देववाओंको पराजित करना, देवमाता अदितिका दुःखी होना तथा
विष्णुसे प्रार्थनाकर पुत्ररूपमें उनके उत्पन्न होनेका वर प्राप्त करना, अदितिके
गर्भमें विष्णुका प्रवेश, विष्णुका वामनरूपमें आविर्भाव, बलिके यज्ञमें
वामनका प्रवेश तथा तीन पग भूमिकी याचना, तीसरे पगसे नापते
समय ब्रह्माण्ड-भेदन, गड्भाकी उत्पत्ति तथा भक्तिका
वर प्राप्तर बलि आदिका पातालमें प्रवेश
श्रीकूर्म उवाच श्रीकूर्मने कहा--प्राचीन कालमें अन्धकके निगृहीत
अन्धके निगृहीते वै प्रह्मदस्य महात्मन:। हो जानेपर महात्मा प्रह्मदका विरोचन नामका पुत्र राजा
विरोचनो नाम सुतो बभूव नृपतिः पुरा॥ १ ॥ | _ग। उस महान् असुरने देवेन्द्रसहित देवताओंको
जीतकर धर्मपूर्वक चराचर त्रिलोकीका बहुत वर्षोतक
हक जग बल के सजग ं | ३ ॥ | "लिन किया। उसके इस प्रकार रहते हुए एक बाए
लिसी के सचराचरमा। २ ।| | भी विष्णुसे प्रेरित होकर महामुनि भगवान् सनत्कुमार
तस्यैवं बर्तमानस्य कदाचिद् विष्णुचोदितः । उसके नगरमें आये। सिंहासनपर बैठे हुए उस महान्
सनत्कुमारो भगवान् पुरं प्राप महामुनि:॥ ३ ॥ असुरने ब्रह्माजीके पुत्र (सनत्कुमार)-को देखकर
दृष्ठा सिंहासनगतो ब्रह्मपुत्र महासुरः । (आसनसे) उठकर सिरसे उन्हें प्रणाम किया और हाथ
ननामोत्थाय शिरसा प्राञ्जलिर्वाक्यमन्नवीत्॥ ४ ॥ | जोड़कर यह वाक्य कहा--॥ १--४॥
धन्योउस्म्यनुगृहीतो5स्मि सम्प्राप्तो मे पुरातन: । आज मैं धन्य हुआ, कृतार्थ हुआ जो ये ब्रह्मज्ञानी,
योगीश्ररोउद्य भगवान् यतो5सौ ब्रह्मवित् स््वयम्॥ ५ ॥ | पुरातन योगीश्वर भगवान् स्वयं यहाँ आ गये हैं। हे
ब्रह्मन्! देवस्वरूप पितामह ब्रह्माजीके पुत्र! आप किस
किमर्थमागतो ब्रह्मन् स्वयं देवः पितामहः । प्रयोजनसे यहाँ आये हैं, मुझे बतलायें। मैं आपका
ब्रहि मे ब्रह्मण: पुत्र कि कार्य करवाण्यहम्॥ ६ ॥ | कौन-सा कार्य करूँ॥ ५-६॥
सोउब्रवीद भगवान् देवो धर्मयुक्त महासुरम् वे भगवान् देव धर्मात्मा महासुर (विरोचन)-से
द्रष्टमभ्यागतो5हं वै भवन्तं॑ भाग्यवानसि॥ ७ ॥ | बोले--मैं आपको ही देखने आया हूँ, आप भाग्यशाली
अ हैं। दैत्यश्रेष्ठ! दैत्योंके लिये यह (धार्मिक) नीति
सुदुर्लभा नीतिरेषा देत्यानां दैत्यसत्तम। अत्यन्त दुर्लभ है। निश्चय ही तीनों लोकोंमें तुम्हारे समान
त्रिलोके धार्मिको नूनं त्वादृशोउन्यो न विद्यते॥ ८ ॥ | कोई दूसरा धार्मिक नहीं है। ऐसा कहे जानेपर असुरराज
इत्युक्तोउसुरराजस्तं पुनः प्राह महामुनिम्। (विरोचन)-ने उन महामुनिसे पुनः कहा--ब्रह्मज्ञानियोंमें
धर्माणां परम॑ धर्म मे ब्रह्मवित्तम॥ ९ ॥ | '्ेश्रेष्ट! आप मुझे धर्मोंमें जो श्रेष्ठ धर्म हो, उसे
धर्माणां परम॑ ब्रूहि कर बतलायें। उन भगवान् योगीने महात्मा दैत्येन्द्रको
सोउदब्रवीद भगवान् योगी दैत्येन्द्राय महात्मने। आत्मज्ञानरूपी और सब प्रकारसे अत्यन्त रहस्यमय श्रेष्ठ
सर्वगुह्मतमं धर्ममात्मज्ञानमनुत्तमम्॥ १०॥ | धर्म बतलाया॥ ७--१०॥
उन्होंने (महात्मा विरोचनने) परम ज्ञान प्राप्तकर उन्हें
स लब्ध्या परम॑ ज्ञान दत्त्या च गुरुदक्षिणाम् | (सनत्कुमारको) गुरुदक्षिणा प्रदान की तथा राज्य अपने
निधाय पुत्रे तद्राज्यं योगाभ्यासरतो5भवत्॥ ११॥ | पुत्र (बलि)-को सौंपकर वे योगाभ्यासमें निरत हो गये॥ ११॥
* अध्याय १६ *
स तस्य पुत्रो मतिमान् बलिनाम महासुरः |
ब्रह्मण्यो धार्मिको5त्यर्थ विजिग्ये5थ पुरंदरम्॥ १२॥
कृत्वा तेन महद् युद्ध शक्रः सर्वामरेर्वृतः ।
जगाम निर्जितो विष्णुं देवं शरणमच्युतम्॥ १३॥
तदन्तरेडदितिर्देवी देवमाता सुदुःखिता।
दैत्येद्राणां वधार्थाय पुत्रो मे स्यादिति स्वयम्॥ १४॥
तताप सुमहद् घोरं तपोराशिस्तप: परम्।
प्रपन्ना विष्णुमव्यक्ते शरण्यं शरणं हरिम्॥ १५॥
कृत्वा हत्पदाकिज्जल्के निष्कलं परम॑ पदम् |
वासुदेवमनादहन्तमानन्द॑ व्योम केवलम्॥ १६॥
प्रसन्नो भगवान् विष्णु: शट्डुच्क्रगदाधर: ।
आविर्बंभूव योगात्मा देवमातुः पुरो हरि:॥ १७॥
दृष्ठटा समागतं विष्णुमदितिर्भक्तिसंयुता।
मेने कृतार्थमात्मानं तोषयामास केशवम्॥ १८॥
अदितिरुवाच
जयाशेषदुःखौघनाशैकहेतो
जयानन्तमाहात्म्ययोगाभियुक्त ।
जयानादिमध्यान्तविज्ञानमूर्ते
जयाशेषकल्पामलानन्दरूप ॥ १९॥
नमो विष्णवे कालरूपाय तुभ्य॑
नमो नारसिंहाय शेषाय तुभ्यम्।
नमः कालरुद्राय संहारकरत्रे
नमो वासुदेवाय तुभ्यं नमस्ते॥ २०॥
नमो विश्वमायाविधानाय तुभ्यं
नमो योगगम्याय सत्याय तुभ्यम्।
नमो धर्मविज्ञाननिष्ठाय तुभ्यं
नमस्ते वराहाय भूयो नमस्ते॥२१॥
नमस्ते सहस्त्रार्कचन्द्राभमूर्ते
नमो वेदविज्ञानधर्माभिगम्य ।
नमो देवदेवादिदेवादिदेव
प्रभो विश्वयोनेडथ भूयो नमस्ते॥२२॥
१२३
उनका वह बलि नामक महान् असुर पुत्र
बुद्धिमान, ब्राह्मणभक्त तथा अत्यन्त धार्मिक था। महान्
अभ्युदयकी प्राप्तिक लिये उसने इन्द्रको भी जीत लिया
था। सभी देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रने उसके साथ महान्
युद्ध करते हुए पराजित होकर अच्युत विष्णुदेवकी
शरण ग्रहण की॥ १२-१३॥
इसी बीच अत्यन्त दुःखी होकर देवताओंकी माता
तपोराशि, परम तपोरूप देवी अदितिने दैत्येन्द्रोंके वधके
लिये 'स्वयं भगवान् ही मेरे पुत्र हों' इस संकल्पको
लेकर अत्यन्त महान् कठोर तप किया। अपने हृदयरूपी
कमलकलिकामें निष्कल, परम पद, अनादि, अनन्त,
आनन्दस्वरूप, व्योममय, अद्वितीय वासुदेवका ध्यान
करती हुई वे शरणागतवत्सल अव्यक्त, हरि विष्णुकी
शरणमें गयीं। प्रसन्न होकर शद्भगु-चक्र तथा गदा धारण
करनेवाले योगात्मा हरि भगवान् विष्णु देवमाता (अदिति)-
के समक्ष प्रकट हो गये। विष्णुको सामने देखकर
भक्तिपरायणा अदितिने अपनेको कृतार्थ माना और वे
केशवको स्तुतिसे प्रसन्न करने लगीं॥ १४--१८॥
अदितिने कहा--समस्त दुःखसमूहोंके नाश करनेके
लिये एकमात्र कारणरूप आपकी जय हो। अनन्त
माहात्म्य-सम्पन्न तथा योगाभियुक्त! (योगमें प्रतिक्षण
निरत) आपकी जय हो। आदि, मध्य और अन्तसे रहित
विज्ञानमूर्त! आपकी जय हो। अशेषकल्प (जिनमें
किसी भी प्रकारके विषयका विराम नहीं है) तथा
विशुद्ध आनन्दस्वरूप! आपकी जय हो। कालरूप
विष्णु! आपको नमस्कार है। नरसिंहरूपधारी शेष!
आपको नमस्कार है। संहार करनेवाले कालरुद्रको
नमस्कार है। वासुदेव! आपको बार-बार नमस्कार है।
विश्वरूपी मायाका विधान करनेवाले! आपको नमस्कार
है। योगद्वारा जानने योग्य सत्यरूप! आपको नमस्कार
है। धर्म एवं ज्ञाननिष्ठ! आपको नमस्कार है। हे वराहरूप !
आपको बार-बार नमस्कार है। हजारों सूर्य और
चन्द्रमाकी आभाके समान प्रकाशयुक्त मूर्तिवाले! आपको
नमस्कार है। वेदोंमें प्रतिपादित विशिष्ट ज्ञान और
धर्मद्वारा प्रात होनेवाले! आपको नमस्कार है। देवदेवादिदेव
आदिदेव! आपको नमस्कार है। प्रभो! आप विश्वके
योनिरूप हैं, आपको बार-बार नमस्कार है॥ १९--२२ ॥
श्र
नमः शम्भवे सत्यनिष्ठाय तुभ्यं
नमो हेतवे विश्वरूपाय तुभ्यम्।
नमो योगपीठान्तरस्थाय तुभ्यं
शिवायैकरूपाय भूयो नमस्ते ॥ २३॥
एवं स भगवान् कृष्णो देवमात्रा जगन्मय: ।
तोषितश्छन्दयामास॒ वरेण प्रहसन्निव॥ २४॥
प्रणम्य शिरसा भूमौ सा वद्ने वरमुत्तमम्।
त्वामेव पुत्र॑ देवानां हिताय वरये वरम्॥ २५॥
तथास्त्वित्याह भगवान् प्रपन्नजनवत्सल: |
दत्त्वा वरानप्रमेयस्तत्रेवान्तरधीयत ॥ २६॥
ततो बहुतिथे काले भगवन्न्तं जनार्दनम्।
दधार गर्भ देवानां माता नारायणं स्वयम्॥ २७॥
समाविष्टे हषीकेशे देवमातुरथोदरम।
उत्पाता जज्ञिरि घोरा बलेवैरोचने: पुरे॥२८॥
निरीक्ष्य सर्वानुत्पातान् दैत्येन्द्रो भयविह्नलः ।
प्रह्मादमसुरं वृद्ध प्रणम्याह पितामहम्॥ २९॥
बलिरुवाच
पितामह महाप्राज्ञ जायन्तेउस्मत्पुरेडधुना।
किमुत्पाता भवेत् कार्यमस्माकं किंनिमित्तका:॥ ३० ॥
निशम्य तस्य वचन चिरं ध्यात्वा महासुरः ।
नमस्कृत्य हृषीकेशमिदं वचनमन्रवीत्॥ ३१॥
प्रहाद उवाच
यो यज्जैरिज्यते विष्णुर्यस्य सर्वमिदं जगत्।
दधारासुरनाशार्थ माता तं त्रिदिवौकसाम्॥ ३२॥
यस्मादभिन्न॑ सकल॑ भिद्यते योडखिलादपि।
स वासुदेवो देवानां मातुर्देहे समाविशत्॥ ३३॥
न यस्य देवा जानन्ति स्वरूपं परमार्थतः।
स विष्णुरदितेददेहं स्वेच्छयाउद्य समाविशत्॥ ३४॥
भवन्ति भूतानि यत्र संयान्ति संक्षयम्।
सो5वरतीरों महायोगी पुराणपुरुषो हरिः॥ ३५॥
* कूर्मपुराण *
सत्यनिष्ठ शम्भो! आपको नमस्कार है। कारणरूप!
विश्वरूप! आपको नमस्कार है। योगपीठके मध्यमें
विराजमान रहनेवाले! आपको नमस्कार है। हे एकरूप
शिव! आपको बार-बार नमस्कार है॥२३॥
देवमाता (अदिति)-के द्वारा इस प्रकार प्रसत्र
किये जानेपर जगन्मय उन भगवान् कृष्ण-(विष्णु)-ने
किंचित् हँसते हुए वर माँगनेके लिये कहा॥ २४॥
सिरसे भूमिमें प्रणाम करते हुए तथा श्रेष्ठ वर माँगते
हुए उसने (अदितिने) कहा--मैं देवताओंके कल्याणके
लिये आपको ही पुत्ररूपमें प्रात करनेका वर माँगती
हूँ। शरणागतवत्सल अप्रमेय भगवान् 'ऐसा ही हो'
इतना कहकर तथा वरोंको प्रदानकर वहींपर अन्तर्धान
हो गये॥ २५-२६ ॥
तदनन्तर बहुत समय बीतनेके पश्चात् देवताओंकी
माता (अदिति)-ने साक्षात् नारायण भगवान् जनार्दनको
गर्भमें धारण किया। देवमाताके उदरमें हृषीकेशके
प्रविष्ट होते ही विरोचनपुत्र बलिके नगरमें भयंकर
उत्पात होने लगे। सभी उपद्रवोंको देखकर भयसे
विहल हुआ दैत्यराज (बलि) वृद्ध पितामह असुर
प्रह्दादको प्रणामकर कहने लगा--॥ २७--२९॥
बलिने कहा--महाप्राज्ञ पितामह ! हमारे नगरमें इस
समय ये उत्पात क्यों हो रहे हैं, इनका कारण क्या है?
हमें क्या करना चाहिये? उसकी बात सुनकर महासुर
(प्रह्माद)-ने देरतक ध्यान किया और फिर हृषीकेशको
नमस्कार करके यह वचन कहा--॥ ३०-३१॥
प्रह्दाद बोले--यज्ञोंद्वारा जिन विष्णुका यजन
किया जाता है और यह सम्पूर्ण विश्व जिनका (स्वरूप)
है, देवताओंकी माता (अदिति)-ने उन्हें ही असुरोंके
विनाशके लिये (गर्भमें) धारण किया है। समस्त विश्व
जिनसे अभिन्न है और जो समस्त विश्वसे भिन्न भी है,
उन वासुदेवने देवताओंकी माताके शरीरमें प्रवेश किया
है। देवता भी जिनके स्वरूपको यथार्थत: नहीं जानते
वे विष्णु ही इस समय अपनी इच्छासे अदितिके देहमें
प्रविष्ट हुए हैं॥ ३२--३४॥
जिनसे सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं और जहाँ
नाशको प्राप्त होते हैं वे महायोगी पुराणपुरुष हरि
अवतीर्ण हुए हैं॥३५॥
* अध्याय १५६८६ *
न यत्र विद्यते नामजात्यादिपरिकल्पना।
सत्तामात्रात्मरूपोउसौ विष्णुरंशेन जायते॥ ३६॥
यस्य सा जगतां माता शक्तिस्तद्धर्मधारिणी ।
माया भगवती लक्ष्मी: सोडवतीर्णो जनार्दन: ॥ ३७॥
यस्य सा तामसी मूर्ति: शंकरो राजसी तनु: ।
ब्रह्मा संजायते विष्णुरंशेनेकेन सत्त्वभूत्॥ ३८ ॥
इत्थं विचिन्त्य गोविन्द भक्तिनप्रेण चेतसा।
तमेव गच्छ शरणं ततो यास्यसि निर्व॒तिम्॥ ३९॥
ततः प्रह्मादवचनाद् बलिवैरोचनि्हरिम्।
जगाम शरणं विश्वं पालयामास धर्मत:॥ ४०॥
काले प्राप्ते महाविष्णुं देवानां हर्षवर्धनम्।
असूत कश्यपाच्चेनं देवमातादिति: स्वयम्॥ ४१॥
चतुर्भुजं विशालाक्षं श्रीवत्साड्वितवक्षसम्।
नीलमेघप्रतीकाशं भ्राजमानं अयावृतम्॥ ४२॥
उपतस्थु: सुरा: सर्वे सिद्धा: साध्याश्व चारणा:।
उपेन्द्रमिन्द्रप्रमुखा ब्रह्मा चर्षिगणैर्वृत: ॥ ४३॥
कृतोपनयनो वेदानध्येष्ट भगवान् हरिः।
समाचारं भरद्वाजात् त्रिलोकाय प्रदर्शयन्॥ ४४॥
एवं हि लौकिकं मार्ग प्रदर्शयति स प्रभु: ।
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ ४५॥
तत: कालेन मतिमान् बलिवैंरोचनि: स्वयम् |
यज्ञैर्यज्ञेश्वरं विष्णुमर्चयामास सर्वगम्॥ ४६॥
ब्राह्मणान् पूजयामास दत्त्वा बहुतरं धनम्।
ब्रह्मर्षय: समाजम्मुर्यज्ञवाटं महात्मन:॥ ४७॥
विज्ञाय विष्णुर्भगवान् भरद्वाजप्रचोदित: |
आस्थाय वामनं रूप॑ यज्ञदेशमथागमत्॥ ४८ ॥
कृष्णाजिनोपवीताड़़्र आषाढेन विराजित:।
ब्राह्मणो जटिलो वेदानुद्गिरन् भस्ममण्डित: ॥ ४९॥
सम्प्राप्यासुरराजस्य समीपं भिक्षुको हरिः।
स्वपादैर्विमितं देशमयाचत बलिं त्रिभि:॥ ५०॥
१२५
जिनमें नाम, जाति आदिकी परिकल्पना नहीं होती,
सत्तामात्रसे व्याप्त रहनेवाले आत्मरूप वे ही विष्णु अपने
अंशरूपसे प्रकट हो रहे हैं। जगत्की मातृरूपा और
उसके (जगत्के) धर्मको धारण करनेवाली, भगवती लक्ष्मी
जिनकी मायारूपी शक्ति हैं, वे जनार्दन ही अवतीर्ण हुए
हैं। जिनकी तामसी मूर्ति शंकर हैं और राजसी मूर्ति
ब्रह्मा हैं वे सत्वतगुणको धारण करनेवाले विष्णु ही अपने
एक अंशसे प्रकट हो रहे हैं॥ ३६--३८ ॥
गोविन्दको इस प्रकार समझकर भक्तिसे विनग्र-
चित्त हो उन्हींकी शरणमें जाओ, इससे तुम शान्ति प्राप्त
करोगे। तब प्रह्मदके वचनसे विरोचनपुत्र बलि हरिकी
शरण ग्रहण करता हुआ धर्मपूर्वक विश्वका पालन करने
लगा॥ ३९-४० ॥
समय आनेपर कश्यपसे स्वयं देवमाता अदितिने
देवताओंके हर्षको बढ़ानेवाले उन महाविष्णुको जन्म
दिया। वे (भगवान् विष्णु) चार भुजावाले, विशाल
नेत्रवाले, श्रीवत्ससे सुशोभित वक्ष:स्थलवाले, नीले
मेघके समान, शोभासे व्याप्त एवं प्रकाशमान थे। सभी
देवता, सिद्ध, साध्य, चारण तथा प्रधान इन्द्र, उपेन्द्र और
ऋषिगणोंसे आवृत ब्रह्मा उनके समीपमें गये। उपनयन
(यज्ञोपवीत-संस्कार) हो जानेके बाद भगवान् हरिने
तीनों लोकोंको प्रदर्शित करते हुए भरद्वाजसे वेदों और
सदाचारका अध्ययन किया॥ ४१--४४॥
इस प्रकार वे प्रभु लौकिक (लोक-कल्याणकारी)
मार्ग दिखाते हैं। वे जैसा प्रमाण उपस्थित करते हैं,
संसार उसीका अनुवर्तन करता है। तदनन्तर समयानुसार
विरोचनके पुत्र बुद्धिमान् बलिने यज्ञोंके द्वारा सर्वव्यापी
यज्ञेश्वर विष्णुकी स्वयं अर्चना की। उसने (दक्षिणारूपमें )
बहुत-सा धन देकर ब्राह्मणोंकी पूजा की | उस महात्माके
यज्ञस्थलमें ब्रह्मर्षि आये। (यज्ञ हो रहा है ऐसा) जानकर
भरद्वाजसे प्रेरणा प्रातकर भगवान् विष्णु वामनरूप
धारणकर यज्ञदेशमें आये॥ ४५--४८ ॥
शरीरपर कृष्णमृगका चर्म तथा उपवीत (यज्ञोपवीत-
जनेऊ) धारण किये, पलाशके दण्डसे सुशोभित, जटा
धारण किये तथा भस्मसे मण्डित वे ब्राह्मण बेदमन्त्रोंका
उच्चारण करते हुए असुरराज बलिके समीप आये। उन
भिक्षुक (वेशधारी) हरिने बलिसे अपने तीन पगोंद्वारा
नापी गयी भूमिकी याचना को॥ ४९-५० ॥
१२६
प्रक्षाल्य चरणौ विष्णोर्बलिभावसमन्वित: ।
आचामयित्वा भृड्ारमादाय स्वर्णनिर्मितम्॥ ५१॥
दास्ये तवेदं भवते पदत्रयं
प्रीणातु देवो हरिरव्ययाकृतिः।
विचिन्त्य देवस्य कराग्रपललवे
निपातयामास जल॑ सुशीतलम्॥ ५२॥
विचक्रमे पृथिवीमेष एता-
मथान्तरिक्षं दिवमादिदेव: ।
व्यपेतरागं दितिजेश्वरं तं
प्रकर्तुकाम: शरणं प्रपन्नम्॥ ५३॥
आक्रम्य लोकत्रयमीशपाद:
प्राजापत्याद ब्रहलोक॑ जगाम।
प्रणेमुरादित्यसहस्त्रकल्पं
ये तत्र लोके निवसन्ति सिद्धा:॥ ५४॥
अथोपतस्थे भगवाननादिः
पितामहस्तोषयामास॒ विष्णुम्।
भित्त्वा तदण्डस्य कपालमूर्ध्व
जगाम दिव्यावरणानि भूयः:॥ ५५॥
अथाण्डभेदान्निपपात शीतलं
महाजलं तत् पुण्यकृद्धिश्व जुष्टम।
प्रवृति चापि सरिद्वा तदा
गड्जेत्युक्ता ब्रह्मणा व्योमसंस्था॥५६॥
गत्वा महान्तं॑ प्रकृति प्रधानं
ब्रह्माणमेके पुरुष॑ सस््वबीजम्।
अतिष्ठदीशस्य पदं॑ तदव्ययं
दृष्ठा देवास्तत्र तत्र स्तुवन्ति॥५७॥
आलोक्य तं॑ पुरुषं विश्वकायं
महान् बलिर्भक्तियोगेन विष्णुम्।
ननाम नारायणमेकमतव्ययं
स्वचेतसा य॑ प्रणमन्ति देवा:॥५८॥
तमब्रवीद भगवानादिकर्ता
भूत्ता पुनर्वामनो वासुदेव:ः।
ममैय दैत्याधिपते<थुनेदं
लोकत्रयं भवता भावदत्तम्॥ ५९॥
प्रणम्य मूर्धना पुनरेव दैत्यो
निपातयामास जल॑ कराग्रे।
* कूर्मपुराण *
बलिने भावपूर्वक विष्णुके दोनों चरणोंको धोकर
स्वर्णनिर्मित भृड़ार (टोटीदार पात्र) लेकर उन्हें आचमन
कराया और “मैं आपको आपके ही तीन पगवाली
( भूमि) देता हूँ, इससे अव्यय आकृतिवाले देव हरि
प्रसन्न हों! ऐसा संकल्पकर उन देवके कराग्रपल्लवपर
सुशीतल जल गिराया। शरणमें आये हुए उस दैत्यराजको
आसक्तिरहित बनानेकी इच्छासे उन आदिदेवने पृथ्वी,
अन्तरिक्ष और च्ुलोकमें पाद-विक्षेप किया। तीनों
लोकोंको आक्रान्तकर ईश्वरका चरण प्रजापतिके लोकसे
ब्रह्मलोकमें पहुँचा। उस लोकमें निवास करनेवाले जो
सिद्धजन थे, उन्होंने हजारों आदित्यके समान (प्रकाशमान)
उस चरणको प्रणाम किया॥ ५१--५४॥
तदनन्तर अनादि भगवान् पितामहने वहाँ उपस्थित
होकर विष्णुको प्रसन्न किया। उस त्रह्माण्डके ऊपरी
कपालको भेदकर पुन: वह चरण दिव्य आवरणोंमें
चला गया। उस अण्डका भेदन होनेसे पुण्य करनेवालोंद्वारा
सेवित वह शीतल महाजल नीचे गिरा। तभीसे आकाशमें
स्थित वह नदियोंमें श्रेष्ठ नदी प्रवर्तित हुई जिसे ब्रह्माने
“गड़ा' नामसे अभिहित किया॥ ५५-५६ ॥
ईश्वरका वह चरण महान्, प्रधान, प्रकृति, स्वबीज-
स्वरूप अद्वितीय पुरुष ब्रह्मपर्यन्त पहुँचकर स्थित हो
गया। उस अव्यय पदका दर्शनकर विभिन्न स्थानोंके
देवता स्तुति करने लगे। उन संसाररूपी शरीरवाले पुरुष
विष्णुको देखकर महान् बलिने उन अद्वितीय अव्यय
नारायणको अपने भक्तिपूरित चित्तसे प्रणाम किया,
जिन्हें सभी देवता प्रणाम करते रहते हैं॥ ५७-५८॥
आदिकर्ता भगवान् वासुदेवने पुन: वामनरूप धारणकर
उस (बलि)-से कहा--दैत्याधिपते | इस समय भक्तिपूर्वक
आपके द्वारा दिये गये ये तीनों लोक अब मेरे ही
हैं ॥ ५९॥
दैत्यने पुनः सिरेसे प्रणामकर हाथोंके अग्रभागमें
जल गिराया (और कहा--) अनन्तधाम।! त्रिविक्रम!
* अध्याय १६ *
तवात्मानमनन्तधाम्ने
त्रिविक्रमायामितविक्रमाय
सूनोरपि सम्प्रदत्तं
प्रह्मदसूनोरथ शद्भुपाणि: ।
देत्यं जगदन्तरात्मा
पातालमूलं प्रविशेति भूयः॥ ६१॥
समास्यतां भवता तत्र. नित्य॑
भुक्त्वा भोगान् देवतानामलभ्यान्।
ध्यायस्व मां सततं भक्तियोगात्
प्रवेक्ष्से कल्पदाहे पुनर्माम्॥६२॥
उक्त्वैवं दैत्यसिंहं तं विष्णु: सत्यपराक्रम: ।
पुरंदराय त्रैलोक्यं ददौ विष्णुरुरुक्रम:॥ ६३॥
दास्ये
॥ ६०॥
प्रगह्म
जगाद
संस्तुवन्ति महायोगं सिद्धा देवर्षिकिन्नरा:।
ब्रह्म शक्रो5थ भगवान् रुद्रादित्यमरुदगणा: ॥ ६४॥
कृत्वैतदद्भुतं कर्म विष्णुर्वामनरूपधृक् ।
पश्यतामेव सर्वेषां तत्रैवान्तरधीयत॥ ६५॥
सोउ5पि दैत्यवरः श्रीमान् पाताल प्राप चोदितः: ।
प्रह्मदेनासुरवरैर्विष्णुना विष्णुतत्पर:॥ ६६॥
अपृच्छद् विष्णुमाहात्म्यं भक्तियोगमनुत्तमम्
पूजाविधानं प्रह्मदं तदाहासौ चकार सः॥ ६७॥
अथ रथचरणासिशद्डपा्िं
सरसिजलोचनमीशमप्रमेयम्_ ।
शरणमुपययौ स॒भावयोगात्
प्रणतगतिं प्रणिधाय कर्मयोगम्॥ ६८ ॥
एष व: कथितो विप्रा वामनस्य पराक्रम: ।
१२७
अमित पराक्रमी! मैं अपने-आपको तुम्हें प्रदान करता
हूँ। प्रह्मदके पुत्रके भी पुत्र अर्थात् बलिके द्वारा
भलीभाँति दिया हुआ तीनों लोक ग्रहणकर संसारके
अन्तरात्मा शह्ड॒पाणि (भगवान् विष्णु)-ने दैत्यसे पुनः
कहा--(अब आप) पातालमूलमें प्रवेश करें। आप
वहाँ नित्य रहते हुए देवताओंको भी प्राप्त न होनेवाले
भोगोंका उपभोगकर भक्तियोगद्वारा मेरा निरन्तर ध्यान
करते रहें। कल्पान्त होनेपर पुनः मुझमें ही (आप)
प्रवेश करेंगे ॥ ६०--६२ ॥
उस दैत्यश्रेष्ठठे इस प्रकार कहकर सत्यपराक्रम
तथा विशाल डंगोंवाले विष्णुने तीनों लोक इन्द्रको दे
दिये। सिद्ध, देवता, ऋषि, किन्नर, ब्रह्मा, इन्द्र, भगवान्
रुद्र आदित्य तथा मरुद्रण (उन) महायोगीकी स्तुति
करने लगे॥ ६३-६४ ॥
ऐसा अद्भुत कार्य करके वामन-रूप धारण करनेवाले
विष्णु सभीके देखते-ही-देखते वहाँ अन्तर्धान हो गये।
वह विष्णुपरायण श्रीसम्पन्न दैत्यश्रेष्ठट (बलि) भी विष्णुसे
प्रेरित होकर प्रह्नाद एवं अन्य श्रेष्ठ असुरोंके साथ
पातालमें चला गया॥ ६५-६६ ॥
उसने प्रह्नादसे विष्णुका माहात्म्य, श्रेष्ठठटम भक्तियोग
तथा पूजनका विधान पूछा। तब उनके द्वारा बताये
जानेपर उसने वैसा ही किया। तदनन्तर भक्तिपूर्वक
कर्मयोगका आचरण कर वह शरणागतोंके आश्रयस्थल,
हाथोंमें चक्र, तलवार तथा शंख धारण करनेवाले,
कमलके समान नेत्रवाले, अप्रमेय ईश्वरकी शरणमें
गया॥ ६७-६८ ॥
ब्राह्गणो! इस प्रकार यह (भगवान्) वामनके
पराक्रमको मैंने बतलाया। ये पुरुषोत्तम सदा देवताओंके
स देवकार्याणि सदा करोति पुरुषोत्तम:॥ ६९॥ | कार्योंको करते रहते हैं॥ ६९ ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्रथां संहितायां पूर्वविभागे बोडशोउध्यायः ॥ १६ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें सोलहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥ १६॥
१२८
कं कूर्मपुराण मु
सत्रहवाँ अध्याय
बलिपुत्र बाणासुरका तृत्तान्त, दक्ष प्रजापतिकी दनु, सुरसा आदि
कन्याओंकी संतानोंका वर्णन
सूत उवाच
बले: पुत्रशतं त्वासीन्महाबलपराक्रमम्।
तेषां प्रधानो झुतिमान् बाणो नाम महाबल:॥ १ ॥
सो5तीव शंकरे भक्तो राजा राज्यमपालयत्।
तऔ्रैलोक्यं वशमानीय बाधयामास वासवम्॥
ततः शक्रादयो देवा गत्वोचु: कृत्तिवाससम् |
त्वदीयो बाधते हास्मान् बाणो नाम महासुर: ॥
व्याहतो देवतेः सर्वैर्देददेवो महेश्वरः।
ददाह बाणस्य पुरं शरेणैकेन लीलया॥
दह्ममाने पुरे तस्मिन् बाणो रुद्र त्रिशुलिनम्।
ययौ शरणमीशानं गोपतिं नीललोहितम्॥
मूर्धन्याधाय तल्लिड्रं शाम्भवं भीतिवर्जित: ।
निर्गत्य तु पुरात् तस्मात् तुष्टाव परमेश्वरम्॥
संस्तुतो भगवानीश: शंकरो नीललोहितः।
गाणपत्येन बाणं तं योजयामास भावतः॥
अथाभवतन् दनोः पुत्रास्ताराद्या हतिभीषणा: ।
तारस्तथा शम्बरश्च कपिल: शंकरस्तथा।
स्वर्भानुर्वषपर्वा च प्राधान्येन प्रकीर्तिता: ॥
सुरसाया: सहस्त्रं तु सर्पाणामभवद् द्विजा:।
अनेकशिरसां तद्बत् खेचराणां महात्मनाम्॥
अरिप्टा जनयामास गन्धर्वाणां सहसत्रकम्।
है.
छ्
हि
८
९
अनन्ताद्या महानागा: काद्रवेया: प्रकीर्तिता: ॥ १०॥
ताप्रा च जनयामास षट् कन्या द्विजपुंगवा: ।
शुकीं श्येनीं च भारी च सुग्रीवां गृश्चिकां शुच्चिम्॥ ११॥
गास्तथा जनयामास सुरभिर्महिषीस्तथा।
इरा वृक्षलतावल्लीस्तृणजातीश्व सर्वशः॥ १२॥
खसा ये यक्षरक्षांस मुनिरप्सरसस्तथा।
रक्षोगणं क्रोधवशा जनयामास सत्तमाः॥ १३॥
सूतजी बोले--बलिके महान् बल और पराक्रमवाले
सौ पुत्र थे, उनमें प्रधान पुत्रका नाम “बाण” था, जो
चुतिमान् और अत्यन्त बलवान् था। भगवान् शंकरमें
अत्यन्त भक्तिवाले उस राजा (बाण)-ने राज्यका पालन
करते हुए त्रिलोकौको अपने वशमें करके इन्द्रको पीड़ित
किया। तब इन्द्रादि देवता कृत्तिवासा' (शंकर)-के पास
जाकर कहने लगे--( भगवन्!)) आपका भक्त 'बाण'
नामक महान् असुर हमें पीड़ित कर रहा है॥१--३॥
सभी देवताओंके द्वारा ऐसा कहे जानेपर देवाधिदेव
महे ध्वरने एक बाणसे लीलापूर्वक 'बाण' के नगरको दग्ध
कर दिया। उस नगरके जलनेपर बाण त्रिशूलधारी, गोपति
(वृषवाहन) नीललोहित ईशान रुद्रकी शरणमें गया ॥ ४-५॥
शम्भुके लिंगको सिरपर धारणकर वह निर्भयतापूर्वक
अपने नगरसे बाहर निकल गया और परमेश्वर (शंकर)-
की स्तुति करने लगा। स्तुति करनेपर नीललोहित,
शंकर भगवान् ईशने स्न्रेहतश उस बाणासुरको गणपतिका
पद प्रदान किया॥ ६-७॥
दनुके' तार आदि अत्यन्त भीषण पुत्र हुए। उनमें
तार, शम्बर, कपिल, शंकर, स्वर्भानु तथा वृषपर्वा
प्रधान कहे गये हैं। द्विजो! दक्षप्रजापतिकी कन्या
सुरसाके अनेक फणोंवाले हजार सर्प पुत्ररूपमें हुए।
इसी प्रकार अरिष्टाने हजारों आकाशचारी महात्मा गन्धवॉंको
उत्पन्न किया। अनन्त आदि महानाग कढ्वूके पुत्र कहे
गये हैं॥ ८--१०॥
द्विजश्रेष्टो ! ताम्राने छ: कनन््याओंको जन्म दिया, जो
शुकी, श्येनी, भासी, सुग्रीवा, गृप्रिका तथा शुचि
नामवाली हैं। सुरभिने गौओं तथा महिषियों ( भैंसों)-को
उत्पन्न किया। इराने सभी प्रकारके वृक्ष, लता, वल्ली तथा
तृण-जातिवालोंको जन्म दिया। द्विजसत्तमो ! खसाने यक्षों
तथा राक्षसोंको, मुनिने अप्सराओंको और क्रोधवशाने
राक्षसोंको उत्पन्न किया॥ ११--१३॥
१-कृत्ति (व्याप्रचर्म)-को वसन (वस्त्र) -रूपमें धारण करनेवाले।
२-'दनु' दक्षप्रजापतिकी कन्या है। इसका विवाह कश्यपसे हुआ था।
* अध्याय १९८ *
विनतायाश्ष पुत्री द्वौ प्रख्याती गरुडहारुणौ।
तयोश्व गरुडो धीमान् तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।
प्रसादाच्छूलिन: प्राप्तो वाहनत्वं हरे: स्वयम्॥ १४॥
आराध्य तपसा रुद्रं महादेव॑ तथारुणः।
सारथ्ये कल्पितः पूर्व प्रीतेनार्कस्य शम्भुना॥ १५॥
एते कश्यपदायादा:ः कोर्तिता: स्थाणुजड़मा: |
बैवस्वते5न्तरे हास्मिज्छुण्वतां पापनाशना: ॥ १६॥
सप्तविंशत् सुताः प्रोक्ता: सोमपल्यश्च सुब्रता: ।
अरिष्टनेमिपत्नीनामपत्यानीह घोडश॥ १७॥
बहुपुत्रस्य विदुषश्चतरत्रो विद्युतः स्मृताः।
तद्गदड़िरसः पुत्रा ऋषयो ब्रह्मसत्कृता:॥ १८॥
कृशाश्वस्य॒ तु देवर्षेदेवप्रहरणा: सुताः।
एते युगसहस्त्रान्ते जायन्ते पुनरेव हि।
मन्वन्तरेषु नियतं तुल्यै: कार्य: स्वनामभि:॥ १९॥
२१२९
विनताके दो विख्यात पुत्र हुए--गरुड तथा अरुण।
उनमेंसे बुद्धिमान् गरुडने दुस्तर तप करके भगवान्
शंकरकी कृपासे साक्षात् हरिके वाहन होनेका सौभाग्य
प्राप्त किया। इसी प्रकार पूर्वकालमें अरुणने महादेव
रुद्रकी तपस्याद्वारा आराधना की, इससे महादेवने प्रसन्न
होकर उसे सूर्यका सारथी बना दिया॥ १४-१५॥
इस वैवस्वत मन्वन्तरमें स्थावर तथा जंगम-रूप ये
(महर्षि) कश्यपके वंशज कहे गये हैं। इनका वर्णन
सुननेवालोंके पाप नष्ट हो जाते हैं॥ १६॥
शोभन ब्रतवाले द्विजो! (दक्षकी) सत्ताईस कन्याएँ
चन्द्रमाकी पत्नियाँ कही गयी हैं। अरिष्टनेमिकी पत्रियोंकी
सोलह संतानें हुईं। विद्वान् बहुपुत्रके चार विद्युत् नाम-
वाले पुत्र कहे गये हैं। इसी प्रकार अड्विराके पुत्र ब्रह्मा-
द्वारा सम्मान-प्राप्त श्रेष्ठ ऋषि थे। देवर्षि कृशाश्रके पुत्र
देवप्रहरण अर्थात् देवोंके शस्त्र थे। हजार युगोंका अन्त
होनेपर विभिन्न मन्वन्तरोंमें ये अपने नामोंके समान कार्योंकि
साथ निश्चितरूपसे पुनः उत्पन्न होते हैं॥१७--१९॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहस्धां संहितायां पूर्वविधभागे सप्रदशोउथध्यायः ॥ ९७॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें सत्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥१७॥
अठारहवाँ अध्याय
महर्षि कश्यप तथा पुलस्त्य आदि ऋषियोंके वंशका वर्णन, रावण तथा कुम्भकर्ण
आदिकी उत्पत्ति, वसिष्ठके वंश-वर्णनमें व्यास, शुकदेव आदिकी उत्पत्तिकी
कथा, भगवान् शंकरका ही शुकदेवके रूपमें आविर्भूत होना
सूत उवाच
एतानुत्पाद्य पुत्रांस्तु प्रजासंतानकारणात्।
कश्यपो गोत्रकामस्तु चचार सुमहत् तपः॥ १॥
तस्य वे तपतोउत्यर्थ प्रादुर्भूती सुताबिमौ।
वत्सरश्नासितश्चैव तावुभौब्रह्मवादिनौ॥ २॥
वत्सरान्नैश्ुवोी जज्ञे रैभ्यश्च सुमहायशाः।
रैभ्यस्य जक्तिरे रैभ्या: पुत्रा झुतिमतां बराः॥ ३॥
च्यवनस्य सुता पत्नी नैश्वुवस्थ महात्मन:।
सुमेधा जनयामास पुत्रान् वै कुण्डपायिन: ॥ ४॥
असितस्यैकपर्णायां. ब्रह्मिप्ठ;: समपद्यत।
नाम्ता वे देवलः पुत्रो योगाचार्यों महातपा:॥ ५॥
सूतजी बोले--प्रजाकी अभिवृद्धिके लिये इन
पुत्रोंकोी उत्पन्न कर पुत्राभिलाषी कश्यप अत्यन्त
महान् तप करने लगे। कठोर तप कर रहे उनके
“बत्सर' तथा “असित” नामके दो पुत्र हुए। वे
दोनों ही ब्रह्मवादी थे। वत्सरसे नैधुव और रैभ्य
नामके महान् यशस्वी पुत्र उत्पन्न हुए। रैभ्यके
तेजस्तवियोंमें श्रेष्ठ रैभ्य नामक पुत्र हुआ। च्यवन
ऋषिकी (सुमेधा नामवाली) पुत्री महात्मा नैधुवकी
पत्नी थी। सुमेधाने 'कुण्डपायी” पुत्रोंको उत्पन्न किया।
असितकी एकपर्णा नामक पप्नीने ब्रह्मिष्ठ पुत्रको
उत्पन्न किया जो देवल नामवाले थे, वे योगके आचार्य,
१३०
शाण्डिल्यानां पर: श्रीमान् सर्वतत्त्वार्थवित् सुधी: ।
प्रसादात् पार्वतीशस्य योगमुत्तममाप्तवान्॥ ६ ॥
शाण्डिल्या नेध्रुवा रैभ्यास्त्रय: पक्षास्तु काश्यपा: ।
नरप्रकृतयो विप्रा: पुलस्त्यस्य वदामि व:॥ ७ ॥।
तृणबिन्दोः सुता विप्रा नाम्ना त्विलविला स्मृता।
पुलस्त्याय स राजर्षिस्तां कन्यां प्रत्यपादयत् ॥ ८॥
ऋषिस्त्वैलविलिस्तस्यां विश्रवा: समपद्यत।
तस्य पल्यश्चतस्त्रस्तु पौलस्त्यकुलवर्धिका: ॥ ९ ॥
पुष्पोत्कटा च राका च कैकसी देववर्णिनी |
रूपलावण्यसम्पन्नास्तासां वै श्रृणुत प्रजा: ॥ १०॥
ज्येष्ठ वैश्रवणं तस्य सुषुवे देवरूपिणी।
कैकसी जनयत् पुत्र रावणं राक्षसआधिपम्॥ ११॥
कुम्भकर्ण शूर्पणखां तथेव च विभीषणम्।
पुष्पोत्कटा व्यजनयत् पुत्रान् विश्रवस: शुभान्॥ १२॥
महोदरं प्रहस्त॑ं च महापाश्व॑ खरं तथा।
कुम्भीनसीं तथा कनन््यां राकायां श्रुणुत प्रजा: ॥ १३॥
त्रिशिरा दूषणश्चैव विद्युज्जिह्ों महाबल:।
इत्येते क्रूरकर्माण: पौलस्त्या राक्षसा दश।
सर्वे तपोबलोत्कृष्टा रुद्रभक्ता: सुभीषणा: ॥ १४॥
पुलहस्य मृगाः पुत्रा: सर्वे व्यालाश्च दंष्टिण: ।
भूता: पिशाचा: सर्पाश्च शूकरा हस्तिनस्तथा॥ १५॥
अनपत्य: क्रतुस्तस्मिन् स्पृतो बैवस्वतेउन्तरे।
मरीचे: कश्यपः पुत्र: स्वयमेत्र प्रजापति: ॥ १६॥
भृगोरप्यभवच्छक्रो दैत्याचार्यों महातपा:।
स्वाध्याययोगनिरतो हरभक्तो महाद्युतिः॥ १७॥
अत्रे: पल्यो5भवन् बह्घः सोदर्यास्ता: पतिक्रता: ।
कृशाश्रस्य तु विप्रेन्दा घृताच्यामिति मे श्रुतम्॥ १८ ॥
स तासु जनयामास स्वस्त्यात्रेयान् महौजस: ।
वेदवेदाड्निरतांस्तपसा हतकिल्बिषानू॥ १९॥
नारदस्तु वसिष्ठाय ददौ देवीमरुन्धतीम्।
ऊर्ध्वरेतास्तत्र मुनि: शापाद् दक्षस्य नारद: ॥ २०॥
* कूर्मपुराण *
महान् तपस्वी शाण्डिल्योंमें श्रेष्ठ, श्रीमानु, सभी तत्त्वार्थोको
जाननेवाले तथा दिद्वान् थे। पार्वतीके पति भगवान्
शंकरकी कृपासे उन्होंने श्रेष्ठ योग प्राप्त किया॥ १--६॥
शाण्डिल्य, नैध्रुव तथा रैभ्य--ये तीनों शाखाएँ
कश्यपवंशीय और मानव प्रकृतिवाली हैं। ब्राह्मणो!
आपको अब पुलस्त्य ऋषिके वंशको बताता हूँ। विप्रो!
तृणबिन्दुकी एक पुत्री थी जो इलविला नामसे प्रसिद्ध
थी। उन राजर्षिने वह कन्या पुलस्त्यको प्रदान की। उस
इलविलासे विश्रवा ऋषि उत्पन्न हुए। उनकी पुष्पोत्कट,
राका, कैकसी तथा देववर्णिनी नामकी चार पत्नियाँ थीं,
जो पुलस्त्यके वंशको बढ़ानेवाली तथा रूप और लावण्यसे
सम्पन्न थीं। अब आप उनकी संतानोंको सुनें-- ॥ ७--१०॥
उनकी देवरूपिणी (देववर्णिनी) (नामक पत्नी)-
ने ज्येष्ट वैश्रवण (कुबेर)-को जन्म दिया। कैकसीने
राक्षमोंके अधिपति रावण नामक पुत्र और इसी प्रकार
कुम्भकर्ण, शूर्पणखा तथा विभीषणको जन्म दिया। पुष्पोत्कयने
भी महोदर, प्रहस्त, महापार्थ और खर नामक विश्रवाके
शुभ पुत्रों और कुम्भीनसी नामक कन्याको जन्म दिया।
अब आप राकाकी संतान सुनें--॥ ११--१३॥
त्रिशिरा, दूषण तथा महाबली विद्युज्जिह--ये राकाके
पुत्र थे। पुलस्त्यके ये सभी दस राक्षस-पुत्र क्रूर कर्म
करनेवाले, अत्यन्त भयंकर, उत्कट तपोबलवाले और
रुद्रके भक्त थे। मृग, व्याल, दाढ़ोंवाले (प्राणी), भूत,
पिशाच, सर्प, शूकर तथा हाथी-ये सभी पुलह
(ऋषि) -के पुत्र हैं। उस वैवस्वत मन्वन्तरमें (महर्षि)
क्रतुको संतानहीन कहा गया है। प्रजापति कश्यप
मरीचिके पुत्र थे। भृगुके भी शुक्र नामक पुत्र हुए जो
दैत्योंके आचार्य, महान् तपस्वी, स्वाध्याय तथा योगपरायण,
अत्यन्त तेजस्वी और शंकरके भक्त थे। श्रेष्ठ ब्राह्मणो!
अत्रिकी बहुत-सी पत्नियाँ थीं। वे पतिब्रता तथा आपसमें
बहनें थीं। हमने सुना है कि वे घृताचीसे उत्पन्न
कृशाश्वकी पुत्रियाँ थीं॥ १४--१८॥
उन्होंने उन पत्रियोंसे महान् ओजस्वी, वेद-वेदाड्र-
परायण और तपस्याद्वारा अपने पापोंको नष्ट करनेवाले
कल्याणकारी अआत्रेयों (स्वस्त्यात्रेयों)-को उत्पन्न किया।
नारदने देवी अरुन्धतीको वसिष्ठके लिये प्रदान किया।
दक्षके शापसे नारद मुनि ऊर्ध्वरेता हो गये॥ १९-२०॥
* अध्याय १९ *
हर्यश्वेषु तु नष्टेपु मायया नारदस्य तु।
शशाप नारदं दक्ष: क्रोधसंरक्तलोचन:॥ २१॥
यस्मान्मम सुताः सर्वे भवतो मायया द्विज।
क्षयं नीतास्त्वशेषेण निरफपत्यो भविष्यति॥ २२॥।
अरुन्धत्यां वसिष्ठस्तु शक्तिमुत्पादयत् सुतम्।
शक्ते: पराशरः श्रीमान् सर्वज्ञस्तपतां वर: ॥ २३॥
आराध्य देवदेवेशमीशानं त्रिपुरान्तकम्।
लेभे त्वप्रतिमं पुत्र॑ कृष्णद्वैपायनं प्रभुम्॥ २४॥
द्वैपायनाच्छुको जज्ञे भगवानेव शंकरः।
अंशांशेनावतीर्योर््याँ स्व प्राप परमं पदम्॥ २५॥
शुकस्याप्यभवन् पुत्रा: पञ्ञात्यन्ततपस्विन: ।
भूरिश्रवाः प्रभु: शम्भु: कृष्णो गौरश्व पदञ्ञम: ।
कन्या कीर्तिमती चैव योगमाता धृतव्नता॥ २६॥
एतेउत्र वंश्या: कथिता ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनाम्
अत ऊर्थ्व निबोधध्वं कश्यपाद्राजसंततिम्॥ २७॥
१३१
नारदकी मायासे हर्यश्रोंके नष्ट हो जानेपर क्रोधसे
लाल आँखोंवाले दक्षने नारदको (इस प्रकार) शाप
दिया-- ॥ २१॥
'द्विज! चूँकि आपकी मायासे मेरे सभी पुत्र सभी
प्रकारसे विनाशको प्राप्त हो गये, अत: आप भी संतानरहित
होंगे।' वसिष्ठने अरुन्धतीसे शक्ति नामक पुत्र उत्पन्न
किया। शक्तिके पराशर हुए जो श्रीसम्पन्न, सर्वज्ञ तथा
तपस्तियोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने त्रिपुकका नाश करनेवाले
देवाधिदेव शंकरकी आराधनाकर कृष्णद्वेपायन नामवाले
अप्रतिम एवं शक्तिसम्पन्न पुत्रको प्राप्त किया॥ २२--२४॥
भगवान् शंकर ही शुक नामसे द्वैपायनके पुत्र हुए।
पृथ्वीपर अपने अंशांशरूपसे उत्पन्न होकर (पुनः)
अपने परम पदको प्राप्त हुए। शुकके महान् तपस्वी पाँच
पुत्र हुए, वे भूरिश्रवा, प्रभु, शम्भु, कृष्ण तथा पाँचवें गौर
नामवाले थे। साथ ही कीर्तिमती नामकी एक कन्या भी
हुई, जो योगमाता और ब्रतपरायणा थी॥ २५-२६॥
इन ब्रह्मवादी ब्राह्मणोंके वंशजोंका यह वर्णन किया
गया, अब आगे कश्यपसे उत्तपन्न क्षत्रिय संतानोंका वर्णन
सुनो-- ॥ २७॥
डति श्रीकूर्मपुराणे षबद्साहप्रथां संहितायां पूर्वव्थागे अट्टावशोउध्याय: ॥ १८ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें अठारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १८॥
उन्नीसवाँ अध्याय
सूर्यवंश-वर्णनमें बैवस्वत मनुकी संतानोंका वर्णन, युवनाश्रको गौतमका उपदेश,
महातपस्वी राजा वसुमनाकी कथा, वसुमनाके अश्वमेध-यज्ञमें ऋषियों तथा
देवताओंका आगमन, ऋषियोंद्वारा तपस्याकी आज्ञा प्राप्तकर वसुमनाका
हिमालयमें जाकर तप करना और अन्तमें उसे शिवपदकी प्राप्ति
सूत उवाच
अदिति: सुषुवे पुत्रमादित्यं कश्यपात् प्रभुम्।
तस्यादित्यस्य चेवासीद् भार्याणां तु चतुष्टयम्।
सूतजी बोले--अदितिने कश्यपसे शक्तिशाली
'आदित्य' नामक पुत्रको उत्पन्न किया। उस आदित्यकी
संज्ञा, राज्ञी, प्रभा तथा छाया नामवाली चार पत्नियाँ थीं।
संज्ञा राज्ञी प्रभा छाया पुत्रांस्तासां निबोधत॥ १॥ | उनके पुत्रोंको सुनो-त्वष्टा (विश्वकर्मा)-की पुत्री संज्ञाने
संज्ञा त्वाष्टी च सुषुवे सूर्यान्मनुमनुत्तमम्।
सूर्यसे श्रेष्ठ मनु, यम और यमुनाको उत्पन्न किया और
यम॑ चर यमुनां चैव राज्ञी रैवतमेव च॥२॥ | राज्ञीने रैवतको उत्पन्न किया। प्रभाने आदित्यसे प्रभातको
प्रभा प्रभातमादित्याच्छाया सावर्णमात्मजम्।
उत्पन्न किया। छायाने क्रमश: सावर्ण, शनि, तपती और
शनि चर तपतीं चेव विष्टिं चेब यथाक्रमम्॥ ३ ॥ | विष्टि नामक संतानोंको जन्म दिया॥ १--३॥
१३२
मनोस्तु प्रथमस्यासन् नव पुत्रास्तु संयमा:।
इक्ष्वाकुर्नभगश्चैव थ्रृष्ट: शर्यातिरिव च॥ ४ ॥
नरिष्यन्तश्च नाभागो हारिष्ट: कारुषकस्तथा।
पृषश्रश्च महातेजा नवेते शक्रसंनिभा:॥ ५ ॥
इला ज्येष्ठा वरिष्ठा च सोमवंशविवृद्धये।
बुधस्य गत्वा भवन सोमपुत्रेण संगता॥ ६ ॥
असूत सौम्यजं देवी पुरूरवसमुत्तमम्।
पितृणां तृप्तिकर्तारें बुधादिति हि नः श्रुतम्॥ ७ ॥
सम्प्राप्य पुंस्तवममलं सुद्युं्न इति विश्रुतः।
इला पुत्रत्रयं लेभे पुनः स्त्रीत्वमविन्दत॥ ८ ॥
उत्कलश्व गयश्चैव विनताश्रवस्तथेव च।
सर्वे तेउप्रतिमप्रख्या: प्रपन्ना: कमलोद्धवम्॥ ९ ॥
इक्ष्वाकोश्चवाभवद् वीरो विकुक्षि्नाम पार्थिव: ।
ज्येष्ठ: पुत्रशतस्यापि दश पशञ्च च तत्सुता:॥ १०॥
तेषां ज्येष्ट:ककुत्स्थो5 भूत् काकुत्स्थो हि सुयोधन: ।
सुयोधनात् पृथु: श्रीमान् विश्वकश्न पृथो: सुत:॥ ११॥
विश्वकादार्द्रको धीमान् युवनाश्चस्तु तत्सुतः ।
स गोकर्णमनुप्राप्य युवनाश्र: प्रतापवान्॥ १२॥
दृष्ठा तु गौतमं विप्र॑ं तपन्तमनलप्रभम।
प्रणम्य दण्डवद् भूमौ पुत्रकामो महीपति: |
अपृच्छत् कर्मणा केन धार्मिकं प्राप्नुयात् सुतम्॥ १३॥
गौतम उवाच
आराध्य पूर्वपुरुष॑ नारायणमनामयम्।
अनादिनिधन देवं धार्मिकं प्राप्नुयात् सुतम्॥ १४॥
यस्य पुत्र: स्वयं ब्रह्मा पौत्र: स्यान्नीललोहित: ।
तमादिकृष्णमीशानमाराध्याण्नोति सत्सुतम्॥ १५॥
न यस्य भगवान् ब्रह्मा प्रभाव वेत्ति तत्त्वतः
तमाराध्य हषीकेशं प्राप्नुयाद्धार्मिकं सुतम्॥ १६॥
स गौतमवच्त: श्रुत्वा युवनाश्रो महीपति:।
आराधयन्महायोगं वासुदेव॑ सनातनम्॥ १७॥
* राजा सुद्युघ्रकी कथामें 'इला' की उत्पत्तिका वर्णन है।
* कूर्मपुराण *
प्रथम मनुके नौ पुत्र थे जो इक्ष्वाकु, नभग, धैष्ट,
शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग, अरिष्ट, कारुषक तथा पृषप्र
नामवाले थे। ये नवों पुत्र इन्द्रियजयी, महान् तेजसे
सम्पन्न तथा इन्द्रके समान थे॥ ४-५ ॥
(मनुकी) ज्येष्ठ एवं वरिष्ठ (पुत्री) इलाने* सोमवंशकी
अभिवृद्धिके लिये बुधके भवनमें जाकर सोमपुत्र
(बुध)-के साथ संगति की और हमने सुना है कि उस
देवीने बुधसे श्रेष्ठ पुरूरवाको उत्पन्न किया। वह
पितरोंको तृप्ति प्रदान करनेवाला था। (पुत्र प्राप्त करनेके
उपरान्त इलाको) विशुद्ध पुरुषत्वकी प्राप्ति हुई जो
सुद्युम्र नामसे विख्यात हुआ। (पुरुषरूपमें) इलाने
उत्कल, गय तथा विनताश्व नामक तीन पुत्रोंको प्राप्त
किया, तदनन्तर वह पुन: स्त्री हो गयी, वे सभी
अतुलनीय कीरतिमान् तथा ब्रह्मपरायण थे॥ ६--९॥
मनुके ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकुसे विकुक्षि नामक वौर
राजा हुए। विकुक्षि सौ पुत्रोंमें ज्येष्ठ थे। उनके पंद्रह पुत्र
हुए। उनमें ककुत्स्थ सबसे बड़े थे। ककुत्स्थका पुत्र
सुयोधन था। सुयोधनसे श्रीमान् पृथु उत्पन्न हुए और
विश्वक पृथुके पुत्र थे। विश्वकसे बुद्धिमान् आर्द्रक हुए
और उनके पुत्र युवनाश्र हुए। प्रतापी वे युवनाश्र गोकर्ण
तीर्थमें गये॥ १०--१२॥
वहाँ तप कर रहे अग्नि-सदृश विप्र गौतमका दर्शन-
कर पुत्र-प्राप्तिकी इच्छासे युवनाश्रवने भूमिमें दण्डवत्
प्रणाम किया और उनसे (गौतमसे) पूछा--( भगवन्!)
किस कमके द्वारा धर्मात्मा पुत्रको प्राप्त किया जा
सकता है--॥ १३॥
गौतमने कहा---आदि और अन्तसे रहित, अनामय,
पूर्वपुरुष नारायणदेवकी आराधनासे धर्मात्मा पुत्रकी
प्राप्ति होती है। जिनके पुत्र स्वयं ब्रह्मा हैं और (जिनके)
पौत्र नीललोहित शंकर हैं, उन आदिकृष्ण ईशानकी
आराधनासे (मनुष्य) सत्पुत्र प्राप्त करता है। भगवान्
ब्रह्मा भी जिनके प्रभावको तत्त्वतः नहीं जानते हैं, उन
हृषीकेशकी आराधनासे धार्मिक पुत्रको प्राप्त करना
चाहिये॥ १४--१६ ॥
गौतमके वचनको सुनकर उस पृथ्वीपति युवनाश्रने
महायोगी सनातन वासुदेवकी आराधना प्रारम्भ की॥ १७॥
* अध्याय १९ *+
तस्य पुत्रो5भवद् वीरः श्रावस्तिरिति विश्रुत: ।
निर्मिता येन श्रावस्तिगौंडदेशे महापुरी॥१८॥
तस्माच्च बृहदश्नो5भूत् तस्मात् कुवलयाश्रकः ।
धुन्धुमारत्वमगमद् धुन्धुं हत्वा महासुरम्॥ १९॥
धुन्धुमारस्य तनयास्त्रय: प्रोक्ता द्विजोत्तमा: ।
दृढाश्वश्चेव दण्डाश्व: कपिलाश्वस्तथेव च॥ २०॥
दृढाश्वस्य प्रमोदस्तु हर्यश्रस्तस्य चात्मज:।
हर्यश्वस्य निकुम्भस्तु निकुम्भात् संहताश्रक: ॥ २१॥
कृशाश्रश्व रणाश्रश्व संहताश्वस्य वे सुतौ।
युवनाश्रो रणाश्वस्य शक्रतुल्यबलो युधि॥ २२॥
कृत्वा तु वारुणीमिष्टिमृषीणां वै प्रसादत: ।
लेभे त्वप्रतिमं पुत्र॑ विष्णुभक्तमनुत्तमम्।
मान्धातारं महाप्राज्ञं सर्वशस्त्रभुतां वरम्॥ २३॥
मान्धातु: पुरुकुत्सो5भूदम्बरीषश्च वीर्यवान् ।
मुचुकुन्दश्च पुण्यात्मा सर्वे शक्रसमा युधि॥ २४॥
अम्बरीषस्य दायादो युवनाश्वो5पर: स्मृतः ।
हरितो युवनाश्वस्य हारितस्तत्सुतो5भवत्॥ २५॥
पुरुकुत्सस्थ दायादस्त्रसहस्युर्महायशा: ।
नर्मदायां समुत्पन्न: सम्भूतिस्तत्सुतो5भवत्॥ २६॥
विष्णुवृद्ध: सुतस्तस्य त्वनरण्यो5भवत् पर: ।
बृहदश्वो 5नरण्यस्य हर्यश्वस्तत्सुतो5$भवत्॥ २७॥
सो5तीव धार्मिको राजा कर्दमस्य प्रजापते: ।
प्रसादाद्धार्मिकं पुत्र॑ लेभे सूर्यपरायणम्॥ २८ ॥
स तु सूर्य समभ्यर्च्य राजा वसुमना: शुभम्।
लेभे त्वप्रतिमं पुत्र॑ त्रिधन्वानमरिंदमम्॥ २९॥
अयजच्चाश्वमेधन शत्रून् जित्वा द्विजोत्तमा: ।
स्वाध्यायवान् दानशीलस्तितिक्षुर्धर्म तत्पर: ॥ ३० ॥
ऋषयस्तु समाजम्मुर्यज्ञवार्टं महात्मन: ।
वसिष्ठकश्यपमुखा देवाश्चेन्द्रपुरोगमा: ॥ ३१॥
तान् प्रणम्य महाराज: पप्रच्छ विनयान्वित: ।
समाप्य विधिवद् यज्ञ वसिष्ठादीन् द्विजोत्तमान्॥ ३२॥
श्३रे
(आराधनाके फलस्वरूप) उसका वोर पुत्र हुआ
जो ' श्रावस्ति” इस नामसे विख्यात हुआ। उसने गौडदेशमें
श्रावस्ति नामक महापुरीका निर्माण किया॥ १८ ॥
उससे (श्रावस्तिसे) बृहदश्चव उत्पन्न हुए और उससे
कुवलयाश्रक उत्पन्न हुए। धुन्धु नामक महान् असुरको
मारनेके कारण वे धुन्धुमारके नामसे प्रसिद्ध हुए श्रेष्ठ
द्विजो! धुन्धुमारके तीन पुत्र कहे गये हैं--दृढाश्व,
दण्डाश्व तथा कपिलाश्व। दृढाश्वका प्रमोद और प्रमोदका
पुत्र हर्यश्व था। हर्यश्वका पुत्र निकुम्भ था और निकुम्भसे
संहताश्रक उत्पन्न हुआ। संहताश्चवकके कृशाश्र तथा
रणाश्व--ये दो पुत्र हुए। रणाश्वका युद्धमें इन्द्रके तुल्य
बलशाली युवनाश्र नामक पुत्र हुआ॥ १९--२२॥
युवनाश्वने ऋषियोंकी कृपासे वारुणी नामक यागका
(वारुणी नामकी इष्टिका) अनुष्ठान करके अप्रतिम
महान् बुद्धिमान, शस्त्रधारियोंमें सर्वश्रेष्ठ तथा उत्तम
विष्णुभक्त मान्धाता नामक पुत्रको प्राप्त किया। मान्धाताके
पुरुकुत्स, वीर्यवान् अम्बरीष तथा पुण्यात्मा मुचुकुन्द
नामक पुत्र हुए। युद्धमें वे सभी इन्द्रक समान थे।
अम्बरीषका पुत्र दूसरा युवनाश्र* कहलाता है। युवनाश्वका
पुत्र हरित और उसका पुत्र हारित हुआ॥ २३--२५॥
पुरुकुत्सका नर्मदा (नामक पत्नी)-से महायशस्वी
त्रसहस्यु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ और उसका पुत्र
सम्भूति हुआ। उसका (सम्भूतिका) विष्णुवृद्ध तथा
दूसरा अनरण्य नामक पुत्र हुआ। अनरण्यका बृहदश्व
और उसका पुत्र हर्यश्च हुआ। यही हर्यश्र अत्यन्त
धार्मिक राजारूपमें विख्यात हुआ। इसने कर्दम प्रजापतिकी
कृपासे धार्मिक सूर्यईभक्त (वसुमना नामक) पुत्रको प्राप्त
किया। इस वसुमना नामक राजाने सूर्यकी आराधनासे
शत्रुओंका दमन करनेवाले अप्रतिम कल्याणकारी त्रिधन्वा
नामक पुत्रको प्राप्त किया। श्रेष्ठ द्विजो! स्वाध्यायनिरत,
दानशील, सहिष्णु तथा धर्मपरायण (उस) राजाने शत्रुओंको
जीतकर अश्वमेध नामक यज्ञ किया॥ २६--३० ॥
उस महात्माके यज्ञस्थलमें वसिष्ठ तथा कश्यप
आदि प्रमुख ऋषिगण तथा इन्द्र आदि देवता आये।
विधिपूर्वक यज्ञ पूर्ण करके उन वसिष्ठ आदि द्विजोत्तमोंको
प्रणामकर महाराज (वसुमना)-ने विनयपूर्वक उनसे
पूछा-- ॥ ३१-३२॥
* इस वंशवर्णनके अनुसार यह तीसरा युवनाश्व है। पहला आर्द्रकका पुत्र, दूसरा रणाश्वका पुत्र और तीसरा यह अम्बरीषका पुत्र।
श्हेड
ना कूर्मपुराण न
वसुमना उवाच
किंस्विच्छेयस्करतरं लोकेउस्मिन् ब्राह्मणर्षभा: ।
यज्ञस्तपो वा संन््यासो ब्रूत मे सर्ववेदिनः ॥ ३३॥
वसिष्ठ उवाच
अधीत्य वेदान् विधिवत् पत्रानुत्पाद्य धर्मत: |
इष्टा यज्ञेश्वरं यज्लैर्गच्छेद् वनमथात्मवान्॥ ३४॥
पुलस्त्य उवाच
आराध्य तपसा देवं योगिनं परमेष्टिनम्।
प्रत्रजेद विधिवद् यज्ैरिट्टा पूर्व सुरोत्तमान्॥ ३५॥
पुलह उवाच
यमाहुरेके पुरुषं पुराणं॑ परमेश्वरम।
तमाराध्य सहस्त्रांशुं तपसा मोक्षमाप्नुयात्॥ ३६॥
जमदग्रिरुवाच
अजस्य नाभावध्येकमीश्वरेण समर्पितम्।
बीजं॑ भगवता येन स देवस्तपसेज्यते॥ ३७॥
विश्वामित्र उवाच
योउग्रिः सर्वात्मको5नन्तः स्वयम्भूर्विश्वतोमुख: ।
स॒ रुद्रस्तपसोग्रेण पूज्यते नेतरर्मखै: ॥ ३८ ॥
भरद्वाज उवाच
यो यज्ञैरिज्यते देवो जातवेदा: सनातनः।
स॒ सर्वदेवततनुः पूज्यते तपसेश्वर:॥ ३९॥
अत्रिरुवाच
यतः सर्वमिदं जातं यस्यापत्यं प्रजापति: ।
तपः सुमहदास्थाय पूज्यते स महेश्वरः॥ ४०॥
गौतम उवाच
यतः प्रधानपुरुषी यस्य शक्तिमयं जगत्।
स॒ देवदेवस्तपसा पूजनीय:ः सनातनः॥ ४१॥
कश्यप उवाच
सहस्त्रनयनो देवः साक्षी स तु प्रजापति: ।
प्रसीदति महायोगी पूजितस्तपसा परः॥ ४२॥
क्रतुरुवाच
प्राप्ताध्ययनयज्ञस्थ लब्धपुत्रस्थय चैव हि।
नान्तरेण तपः कश्चिद्धर्म: शास्त्रेषु दृश्यते॥ ४३॥
वसुमनाने कहा--पश्रेष्ठ ब्राह्णणो! आप सब कुछ
जाननेवाले हैं। मुझे यह बतलाइये कि इस संसारमें यज्ञ,
तप अथवा संन्यासमें कौन अधिक श्रेयस्कर है ?॥ ३३ ॥
वसिष्ठ बोले--आत्मवान्को चाहिये कि वह वेदोंका
विधिवत् अध्ययन करके धर्मपूर्वक पुत्रोंकों उत्पन्न करे
और यज्ञोंद्वारा यज्ञेध्रका यजनकर वनमें जाय॥ ३४॥
पुलस्त्यने कहा--सर्वप्रथम श्रेष्ठ देवोंकी यह्ञद्वारा
अर्चना करके और तपफस्याद्वारा योगी देव परमेश्वरकी
आराधना करके विधिपूर्वक संन्यास ग्रहण करना
चाहिये ॥ ३५ ॥
पुलह बोले--जिन्हें अद्वितीय, पुराणपुरुष तथा
परमेश्वर कहा गया है, उन सहसत्रकिरण (सूर्य)-कौ
तपस्याद्वारा आराधना करके मोक्ष प्राप्त करना चाहिये॥ ३६॥
जमदग्निने कहा--जिन भगवान् ईश्वरने अजन्मा
(ब्रह्म )-की नाभिमें अद्वितीय बीज (जगत्कारण ब्रह्मा)-
को स्थापित किया, उन देवकी तपस्याद्वारा आराधना की
जानी चाहिये॥ ३७॥
विश्वामित्रने कहा--जो अग्रनिस्वरूप, सर्वात्मक,
अनन्त, स्वयम्भू तथा सर्वतोमुख हैं, वे रुद्र उग्र
तपस्याद्वारा पूजनीय हैं न कि अन्य किसी दूसरे यज्ञ
आदि साधनोंद्वारा ॥ ३८ ॥
भरद्वाज बोले--यक्ञोंद्वारा जिन सनातन अग्रनिदेवको
पूजा की जाती है, वे सभी देवताओंके विग्रहरूप
परमेश्वर ही तपके द्वारा पूजित होते हैं॥३९॥
अत्रि बोले--वे महेश्वर अत्यन्त महान् तपके
द्वारा पूजे जाते हैं, जिनसे यह सब उत्पन्न हुआ है और
प्रजापति जिनकी संतान हैं॥ ४० ॥
गौतमने कहा--जिससे प्रधान अर्थात् पुरुष और
प्रकृति उत्पन्न हुए हैं और जिनकी शक्तिसे यह जगत्
(उत्पन्न) हुआ है, वे सनातन देवाधिदेव तपस्यद्वारा
पूजनीय हैं॥ ४१॥
कश्यपने कहा--तपद्वारा आराधना करनेसे वे
हजारों नेत्रवाले, साक्षी, महायोगी, प्रजापति प्रभु प्रसन्न
होते हैं॥४२॥
क्रतु बोले---अध्ययनरूपी यज्ञ पूर्ण कर पुत्र प्राप्त
कर लेनेवाले पुरुषके लिये तपस्याके अतिरिक्त कोई
और दूसरा धर्म शास्त्रोंमें दिखायी नहीं देता॥४३॥
* अध्याय १९ *
इत्याकर्ण्य स राजर्षिस्तान् प्रणम्यातिहृष्टधी: ।
विसर्जयित्वा सम्पूज्य त्रिधन्वानमथाब्रवीत्॥ ४४॥
आराधयिष्ये तपसा देवमेकाक्षराह्ययम्।
प्राणं बृहन्तं पुरुषमादित्यान्तरसंस्थितम्॥ ४५ ॥।
त्वं तु धर्मरतो नित्यं पालयैतदतन्द्रित:।
चातुर्व्ण्यसमायुक्तमशेषं क्षितिमण्डलम्॥ ४६ ॥
एवमुक्क्त्वा स तद्राज्यं निधायात्मभवे नृपः।
जगामारण्यमनघस्तपश्चर्तुमनुत्तमम् ॥ ४७॥
हिमवच्छिखरे रम्ये देवदारुवने शुभे।
कन्दमूलफलाहारो मुन्यन्नैरयजत् सुरान्॥ ४८॥
संवत्सरशतं साग्रं॑ तपोनिर्धूतकल्मषः ।
जजाप मनसा देवीं सावित्रीं वेदमातरम्॥ ४९॥
तस्यैवं॑ जपतो देव: स्वयम्भू: परमेश्वर: ।
हिरण्यगर्भो विश्वात्मा तं देशमगमत् स्वयम्॥ ५०॥
दृष्टा देवं समायान्तं ब्रह्माणं विश्वतोमुखम्।
ननाम शिरसा तस्य पादयोरनाम कीर्तयन्॥ ५१॥
नमो देवाधिदेवाय ब्रह्मणे परमात्मने।
हिरण्यमूर्तये तुभ्यं सहस्त्राक्षाय वेधसे॥ ५२॥
नमो धात्रे विधात्रे चर नमो वेदात्ममूर्तये।
सांख्ययोगाधिगम्याय नमस्ते ज्ञानमूर्तये॥ ५३॥
नमस्त्रिमूर्तये तुभ्यं रत्रष्ट. सर्वार्थवेदिने।
पुरुषाय पुराणाय योगिनां गुरवे नमः॥ ५४॥
ततः प्रसन्नो भगवान् विरिश्ञो विश्वभावन:
वरं॑ वरय भद्ठरं ते वरदोउस्मीत्यभाषत॥ ५५७ ॥
राजोवबाच
जपेयं देवदेवेश गायत्रीं वेदमातरम्।
भूयो वर्षशर्त साग्रं तावदायुर्भवेन््मम॥ ५६ ॥
बाढमित्याह विश्वात्मा समालोक्य नराधिपम्।
स्पृष्टा कराभ्यां सुप्रीतस्तत्रेवान्तरधीयत ॥ ५७॥
१२५
ऐसा सुनकर अत्यन्त प्रसन्न मनवाले उस वसुमना
राजर्षिने उन द्विजश्रेष्टोंको प्रणम किया और पूजनकर
उन्हें बिदा किया। तदनन्तर (उसने अपने पुत्र)
त्रिधन्वासे (इस प्रकार) कहा--तपटद्दारा मैं सूर्यमण्डलके
मध्यमें स्थित, प्राणरूप अद्वितीय अक्षर नामक ब्रह्म
पुरुषकी आराधना करूँगा। तुम धर्ममें निरत होकर
चातुर्वर्ण्णसे समन्वित इस सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डलका
आलस्यरहित होकर पालन करो॥ ४४--४६ ॥
ऐसा कहकर वह अनघ राजा वसुमना अपने पुत्र
(त्रिधन्वा)-को राज्य सौंपकर सर्वोत्तम तपस्या करनेके
लिये वबनमें चला गया। ये वसुमना राजा हिमालयके
शिखरपर स्थित रमणीय शुभ देवदारु वनमें रहते हुए
कन्दमूल एवं फलोंका आहार करते हुए मुनियोंके अन्न
(नीवार आदि)-से देवताओंकी प्रसन्नताके लिये यज्ञ
(आराधना) करने लगे। तपस्याद्वारा नष्ट हुए पापोंवाले
उन्होंने सौ वर्षोसे भी अधिक समयतक वेदमाता देवी
सावित्रीका मानसिक जप किया। उनके इस प्रकार जप
करते रहनेपर ही स्वयम्भू देव परमेश्वर हिरण्यगर्भ
विश्वात्मा स्वयं उस स्थानपर गये। विश्वतोमुख ब्रह्मदेवको
आते हुए देखकर उन्होंने अपना नाम बोलते हुए
उनके चरणोंमें सिरसे प्रणाम किया और इस प्रकार
कहा-- ॥ ४७--५१ ॥
देवाधिदेव परमात्मा ब्रह्मको नमस्कार है। सहख्र
नेत्रोंवाले हिरण्यमूर्ति आप वेधाको नमस्कार है। धाता
और विधाताको नमस्कार है, वेदात्ममूर्तिको नमस्कार
है। सांख्य तथा योगद्वारा ज्ञात होनेवाले ज्ञान-मूर्तिको
नमस्कार है। सभी अर्थोंके ज्ञाता, सृष्टिकर्ता, त्रिमूर्तिरूप
आपको नमस्कार है। योगियोंके गुरु पुराणपुरुषको
नमस्कार है॥ ५२--५४॥
तब प्रसन्न होकर विश्वभावन भगवान् ब्रह्माने कहा--
“वर माँगो, तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हें बर दूँगा '॥ ५५ ॥
राजाने कहा--देवदेवेश! में पुनः सौ वर्षसे
अधिक समयतक इस वेदमाता गायत्रीका जप कर
सकूँ , इसके लिये उतनी ही मेरी आयु हो। राजाको
देखकर विश्वात्माने 'बहुत अच्छा' ऐसा कहा और प्रसन्न
होकर हाथोंसे (राजाका) स्पर्शकर वे वहीं अन्तर्धान
हो गये॥ ५६-५७॥
१३६
सो5पि लब्धवरः श्रीमान् जजापातिप्रसन्नधी: ।
शान्तस्त्रिषवणस्नायी कन्दमूलफलाशन: ॥ ५८॥
तस्य पूर्ण वर्षशते भगवानुग्रदीधितिः।
प्रादुरासीन्महायोगी भानोर्मण्डलमध्यत: ॥ ५९॥
तं दृष्ठा वेदविदुषं मण्डलस्थं सनातनम्।
स्वयम्भुवमनाच्यन्तं ब्रह्माणं विस्मयं गत: ॥ ६०॥
तुष्टाव वैदिकेर्मन्त्रै: सावित्या च विशेषतः ।
क्षणादपश्यत् पुरुषं॑ तमेव परमेश्वरम्॥ ६१॥
चतुर्मुखं जटामौलिमष्टहस्तं त्रिलोचनम्।
चअन्द्रावयवलक्ष्माणं. नरनारीतनुं हरम्॥ ६२॥
भासयन्तं जगत् कृत्स्नं नीलकणठं स्वरश्मिभि: ।
रक्ताम्बरधरं रक्त रक्तमाल्यानुलेपनम्॥ ६३॥
तद्धघावभावितो दृष्टा सद्धावेन परेण हि।
ननाम शिरसा रुद्रं सावित्रयानेन चैव हि॥ ६४॥
नमस्ते नीलकण्ठाय भास्वते परमेष्ठिने।
त्रयीमयाय रुद्राय कालरूपाय हेतवे॥ ६५॥
तदा प्राह महादेवो राजानं प्रीतमानस:।
इमानि में रहस्यानि नामानि श्रुणु चानघ॥ ६६॥।
सर्ववेदेषु गीतानि संसारशमनानि तु।
नमस्कुरुष्व नृपते एभिमा सततं शुच्ि:॥ ६७॥
अध्यायं शतरुद्रीयं यजुषां सारमुद्धृतम्।
जपस्वानन्यचेतस्को मय्यासक्तमना नृप॥ ६८॥
ब्रह्मचारी मिताहारो भस्मनिष्ठ:ः समाहित: ।
जपेदामरणाद् रुद्रं स याति परमं पदम्॥ ६९॥
इत्युक्त्वा भगवान् रुद्रो भक्तानुग्रहकाम्यया ।
पुनः संवत्सरशतं राज्ञे ह्यायुरकल्पयत्॥ ७०॥
दत्त्वास्मै तत् परं ज्ञानं वैराग्यं परमेश्वर:।
क्षणादन्तर्दधे. रुद्रस्तददभुतमिवाभवत्॥ ७१॥
राजापि तपसा रुद्रं जजापानन्यमानसः ।
भस्मच्छन्नस्त्रिषवर्ण स्नात्वा शान्तः समाहित: ॥ ७२॥
जपतस्तस्य नृपते: पूर्णे वर्षशते पुनः।
योगप्रवृत्तिरभवत् कालातू कालात्मकं॑ परम्॥ ७३॥
* कूर्मपुराण *
वर-प्राप्त वह श्रीमान् (राजा) भी तीनों समयोंमें
स्रान करते हुए तथा कन्दमूल एवं फलोंका आहार करते
हुए अत्यन्त प्रसन्न-मनसे शान्तिपूर्वक जप करने लगे।
उनके (जप करते हुए) सौ वर्ष पूरा होनेपर सूर्यमण्डलके
मध्यसे प्रज्बलित किरणोंवाले महायोगी भगवान् प्रकट
हुए। मण्डलमें स्थित उन सनातन, स्वयम्भू, अनादि,
अनन्त तथा वेदज्ञ ब्रह्माको देखकर वे राजा आश्चर्यचकित
हुए। उन्होंने वैदिक मन्त्रों तथा विशेषरूपसे गायत्री
(मन्त्र )-द्वारा उनकी स्तुति की। क्षणभरमें ही उन्होंने
उन परमेश्वर पुरुषको चार मुखवाले, जटा तथा मुकुटधारी,
आठ हाथ तथा तीन नेत्रवाले, चन्द्रकलाओंसे चिह्ित
अर्धनारीश्वर शरीरवाले, अपनी किरणोंद्वारा सम्पूर्ण जगत्को
प्रकाशित करते हुए, रक्तवस्त्र धारण किये, रक्तवर्णवाले
तथा रक्तमाला और रक्त अनुलेपन धारण किये नीलकण्ठ
हरके रूपमें देखा॥ ५८--६३ ॥
उन्हें देखकर उन्हींके भावसे भावित होकर परम
सद्भावसे राजाने सिरसे रुद्रको प्रणाम किया और
सावित्री-मन्त्र तथा इस स्तोत्रसे स्तुति की। वेदत्रयीरूप,
रुद्र, कालरूप, कारणस्वरूप भासमान परमेष्ठी नीलकण्ठको
नमस्कार है॥ ६४-६५ ॥
तब प्रसन्न मनवाले महादेवने राजासे कहा-हे
निष्पाप! मेरे इन गोपनीय नामोंको सुनो। ये सभी वेदोंमें
वर्णित हैं तथा संसार (सागर)-का नाश करनेवाले हैं।
राजन! पवित्र होकर इन नामोंसे मुझे निरन्तर नमस्कार
करो। राजन! यजुर्वेदसे साररूपमें उद्धृत शतरुद्रीका
अनन्यमन होकर मुझमें मन लगाकर जप करो। जो
ब्रह्मचर्य धारणकर, संयमित आहार ग्रहणकर, भस्मका
लेपकर एकाग्रतापूर्वक मरणपर्यन्त रुद्रका जप करता है,
वह परम पद प्राप्त करता है। ऐसा कहकर भक्तपर
अनुग्रह करनेकी इच्छासे भगवान् रुद्रने राजाकी आयु
पुन: सौ वर्षोतक कर दी॥ ६६--७० ॥
राजा वसुमनाको परम ज्ञान और वैराग्य प्रदानकर
परमेश्वर रुद्र क्षणभरमें ही अन्तर्धान हो गये। यह
एक आश्चर्य ही हुआ। राजाने भी तीनों कालोंमें
स्नानकर, भस्म धारणकर, शान्त और एकाग्रतापूर्वक
अनन्य-मनसे तपस्याद्वारा रुद्रका जप किया। जप
करते हुए उन राजाके पुनः सौ वर्ष पूरे हो जानेपर
उसमें योगकी प्रवृत्ति हुई और यथासमय उन्होंने श्रेष्ठ
* अध्याय २० *
विवेश तद् वेदसारं स्थान वे परमेष्ठटिन:।
१३७
कालात्मक परमेष्ठीके उस वेदसार नामक स्थानको प्राप्त
भानो: स मण्डलं शुभ्र॑ ततो यातो महे ध्वरम्॥। ७४ ॥ | किया जो सूर्यका शुभ्र मण्डल है। तदनन्तर वे महेश्वरको
यः पठेच्छुणुयाद् वापि राज्ञश्चरितमुत्तमम्।
सर्वपापविनिर्मुक्ती ब्रह्मलोके महीयते॥ ७५॥
प्रात्त हुए्॥ ७१--७४॥
राजाके इस उत्तम चरितको जो पढ़ता है अथवा
सुनता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मलोकमें
प्रतिष्ठा प्राप्त करता है॥७५॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्रथां संहितायां पूर्वविधागे एकोनविंशोउध्याय: ॥ १९ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १९॥
बीसवाँ अध्याय
इक्ष्वाकु-वंश-वर्णनके प्रसंगमें श्रीराम-कथाका प्रतिपादन, श्रीरामद्वारा सेतु-बन्धन
और रामेश्वर-लिंगकी स्थापना, शंकर-पार्वतीका प्रकट होकर रामेश्वर-
लिंगके माहात्म्यको बतलाना, श्रीरामको लव-कुश-पुत्रोंकी प्राप्ति
तथा इक्ष्वाकु-वंशके अन्तिम राजाओंका वंश-वर्णन
सूत उवाच
त्रिधन्वा राजपुत्रस्तु धर्मेणापालयन्महीम्।
तस्थ पुत्रो5भवद् दिद्ठवांस्त्रय्यारुण इति स्मृत: ॥
तस्य सत्यव्रतो नाम कुमारो5भून्महाबलः |
भार्या सत्यधना नाम हरिश्वन्द्रमजीजनत्॥ २ ॥
हरिश्वन्द्रस्य पुत्रो5भूद रोहितो नाम वीर्यवान्।
हरितो रोहितस्याथ धुन्धुस्तस्य सुतोडभवत्॥ ३ ॥
विजयश्व सुदेवश्च धुन्धुपुत्री बभूवतु:।
विजयस्यथाभवत् पुत्र: कारुको नाम वीर्यवान्॥ ४ ॥
कारुकस्य वृकः पुत्रस्तस्माद् बाहुरजायत।
सगरस्तस्य पुत्रो$भूद् राजा परमधार्मिक:॥ ५ ॥
द्वे भार्ये सगरस्यापि प्रभा भानुमती तथा।
ताभ्यामाराधित: प्रादादौवव ग्रिर्वरमुत्तमम्॥ ६ ॥
एक भानुमती पुत्रमगृह्ादसमञ्जसम्।
प्रभा षष्टिसहस्त्रं तु पुत्राणां जगृहे शुभा॥ ७ ॥
असमज्जस्य तनयो ह्ाांशुमान् नाम पार्थिव: ।
तस्य पुत्रो दिलीपस्तु दिलीपातू तु भगीरथ:॥ ८ ॥
येन भागीरथी गड्ा तपः कृत्वावतारिता।
प्रसादाद् देवदेवस्थ महादेवस्थ धीमतः॥ ९ ॥
भगीरथस्य तपसा देव: प्रीतमना हरः।
बभार शिरसा गड्ढां सोमान्ते सोमभूषण: ॥ १०॥
सूतजी बोले--राजपुत्र त्रिधन्वाने पृथ्वीका धर्मपूर्वक
पालन किया। उसका एक दिद्वान् पुत्र हुआ जो त्रय्यारुण
नामसे प्रसिद्ध हुआ। उसको (त्रय्यारुणको) सत्यब्रत
नामका महान् बलवान पुत्र हुआ। सत्यधना नामक
उसकी पत्नीने हरिश्वन्धको जन्म दिया। हरिश्वन्द्रको
रोहित नामवाला पराक्रमी पुत्र हुआ। रोहितका हरित
और उसका पुत्र धुन्धु हुआ। धुन्धुके विजय और
सुदेव--ये दो पुत्र हुएण। विजयका कारुक नामका वीर
पुत्र हुआ। कारुकका पुत्र वृक और उससे बाहु (नामक
पुत्र) उत्पन्न हुआ। उस बाहुका पुत्र सगर हुआ
जो परम धार्मिक था। सगरकी दो पत्नियाँ थीं--
प्रभा और भानुमती। और्वाग्रनिने उन दोनोंसे पूजित होकर
उन्हें श्रेष्ठ बर प्रदान किया॥ १--६॥
(वरके फलस्वरूप) भानुमतीने असमझस नामक
पुत्रको ग्रहण किया और कल्याणी प्रभाने साठ हजार पुत्रोंको
प्रात किया। असमझसके पुत्र अंशुमान् नामक राजा थे,
उनके पुत्र दिलीप तथा दिलीपसे भगीरथ हुए, जिन्होंने
तपस्या करके देवाधिदेव धीमान् महादेवकी कृपासे भागीरथी
गड्भाको (पृथ्वीपर) अवतारित किया॥ ७--९ ॥
भगीरथकी तपस्यासे प्रसन्न हुए मनवाले चन्द्रभूषण
देव हरने अपने सिरपर स्थित चन्द्रमाके अग्रभागमें
गड़ाको धारण किया॥ १०॥
१३८
भगीरथसुतश्चापि श्रुतो नाम बभूव ह।
नाभागस्तस्य दायादः सिन्धुद्गीपस्ततो5भवत्॥ ११॥
अयुतायु: सुतस्तस्य ऋतुपर्णस्तु तत्सुतः ।
ऋतुपर्णस्य पुत्रो5 भूत् सुदासो नाम धार्मिक: ।
सौदासस्तस्य तनय: ख्यात:ः कल्माषपादकः ॥ १२॥
वसिष्ठस्तु महातेजाः क्षेत्रे कल्माषपादके।
अश्मकं जनयामास तमिक्ष्वाकुकुलध्वजम्॥ १३॥
आअश्मकस्योत्कलायां तु नकुलो नाम पार्थिव: ।
स हि रामभयाद् राजा बन प्राप सुदुःखित:ः ॥ १४॥
विश्रत् स नारीकवचं तस्माच्छतरथो5 भवत् ।
तस्माद् बिलिबिलि: श्रीमान् वृद्धशर्मा च तत्सुत:॥ १५॥
तस्माद् विश्वसहस्तस्मात् खट्वाड़ इति विश्रुतः ।
दीर्घबाहु:ः सुतस्तस्य रघुस्तस्मादजायत॥ १६॥
रघोरज: समुत्पन्नो राजा दशरथस्ततः।
रामो दाशरथिर्वीरो धर्मज्ञो लोकविश्रुतः॥ १७॥
भरतो लक्ष्मणश्चैव शत्र॒ुघ्नश्ष महाबल:।
सर्वे शक्रसमा युद्धे विष्णुशक्तिसमन्विता: ।
जज्ञे रावणनाशार्थ विष्णुरंशेन विश्वकृत्॥ १८॥
रामस्य सुभगा भार्या जनकस्यात्मजा शुभा।
सीता त्रिलोकविख्याता शीलौदार्यगुणान्विता॥ १९॥
तपसा तोषिता देवी जनकेन गिरीन्द्रजा।
प्रायच्छजानकीं सीतां राममेवाश्रिता पतिम्॥ २० ॥
प्रीतश्ष भगवानीशस्त्रिशूली नीललोहितः ।
प्रददौ शत्रुनाशार्थ जनकायादभुतं धनु:॥ २१॥
स राजा जनको दिद्वान् दातुकाम: सुतामिमाम्।
अधोषयदमित्रघ्नो लोकेउस्मिन् द्विजपुंगवा: ॥ २२॥
इृदं धनुः समादातुं यः शक््नोति जगत्तये।
देवो वा दानवो वापि स सीतां लब्धुमरहति॥ २३॥
हि कूर्मपुराण न
भगीरथका भी श्रुत नामक पुत्र हुआ और उसका
पुत्र हुआ नाभाग | उससे सिन्धुद्वीप हुआ। उस सिन्धुद्वीपका
पुत्र अयुतायु और उसका पुत्र ऋतुपर्ण हुआ। ऋतुपर्णका
सुदास नामका धार्मिक पुत्र हुआ। उसका पुत्र सौदास
हुआ जो कल्माषपाद नामसे विख्यात हुआ॥ ११-१२॥
कल्माषपादके क्षेत्रमें महातेजस्वी वसिष्ठने इक्ष्वाकु-
वंशके पताकारूप अश्मक नामक पुत्रको उत्पन्न कराया।
अश्मककी उत्कला नामक पत्नीसे नकुल नामक राजा
उत्पन्न हुआ। वह राजा परशुरामके भयसे अत्यन्त
दुःखित होकर वन चला गया। उसने “नारी-कवच *
धारण कर रखा था। उस (नकुल)-से शतरथ हुआ
और उससे श्रीमान् बिलिबिलि उत्पन्न हुआ। उसका पुत्र
वृद्धशर्मा था। उस वृद्धशर्मासे विश्वसह और उसका पुत्र
खट्वाड़ नामसे विख्यात हुआ। उसका पुत्र दीर्घबाहु
और उससे रघु उत्पन्न हुआ॥ १३--१६॥
रघुका अज उत्पन्न हुआ और उससे राजा दशरथ
हुए। दशरथके पुत्र राम वीर, धर्मज्ञ और लोकमें प्रसिद्ध
हुए। दशरथके ही पुत्र भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न भी थे।
ये सभी महान् बलशाली, युद्धमें इन्द्रके समान और
विष्णुकी शक्तिसे सम्पन्न थे। रावणका विनाश करनेके
लिये विश्वकर्ता विष्णु ही इन लोगोंके रूपमें अंशरूपसे
प्रकट हुए थे॥ १७-१८ ॥
रामकी सौभाग्यशालिनी कल्याणी पत्नी जनककों
पुत्री सीता थीं। वे शील एवं उदारता आदि गुणोंसे
सम्पन्न और तीनों लोकोंमें विख्यात थीं। जनकके द्वारा
तपस्यासे संतुष्ट की गयी गिरिराजपुत्री पार्वतीने उन्हें
जानकी सीताको प्रदान किया। सीताने रामको ही पति
बनाया॥ १९-२० ॥
त्रिशूल धारण करनेवाले, नीललोहित भगवान् ईश
(शंकर)-ने प्रसन्न होकर शत्रुओंके विनाशके लिये
जनकको अद्भुत धनुष प्रदान किया था। श्रेष्ठ द्विजो! उस
विद्वान् शत्रुनाशक राजा जनकने इस कन्याका दान
करनेकी इच्छासे संसारमें यह घोषणा करवायी कि देवता
या दानव जो कोई भी इस धनुषको उठानेमें समर्थ होगा,
वह सीताको प्राप्त कर सकता है॥ २१--२३॥
* परशुरामद्वारा पृथ्वीके क्षत्रियशून्य किये जानेके समय स्त्रियोंक मध्य रहकर नकुलने अपनी रक्षा की थी, इसलिये उसे “नारी-
कवच ' कहा जाता है।
*॑ अध्याय २० *#
विज्ञाय रामो बलवान् जनकस्य गहं प्रभु: ।
भज्जयामास चादाय गत्वासौ लीलयैव हि॥ २४॥
उद्बवाह च तां कन्यां पार्वतीमिव शंकरः |
राम: परमधर्मात्मा सेनामिव च षण्मुख:॥ २५॥
ततो बहुतिथे काले राजा दशरथ: स्वयम्।
राम ज्येष्ठ सुतं वीर॑ राजानं कर्तुमारभत्॥ २६॥
तस्याथ पत्नी सुभगा कैकेयी चारुभाषिणी।
निवारयामास पति प्राह सम्भ्रान्तमानसा॥ २७॥
मत्सुतं भरतं वीरं राजानं कर्तुमहसि।
पूर्वमेव वरो यस्माद् दत्तो मे भवता यतः॥ २८ ॥
स तस्या वचन श्रुत्वा राजा दुःखितमानसः ।
बाढमित्यत्रवीद वाक्य तथा रामो5पि धर्मवित्॥ २९॥
प्रणम्याथ पितु: पादौ लक्ष्मणेन सहाच्युतः ।
ययौ वन॑ सपत्नीकः कृत्वा समयमात्मवान्॥ ३०॥
संवत्सराणां चत्वारि दश चैव महाबल:।
उबास तत्र मतिमान् लक्ष्मणेन सह प्रभु:॥ ३१॥
कदाचिद् वसतो<5रण्ये रावणो नाम राक्षस: ।
परिव्राजकवेषेण सीतां हत्वा ययौ पुरीम्॥ ३२॥
अदृष्टा लक्ष्मणो राम: सीतामाकुलितेन्द्रियौ |
दुःखशोकाभिसंतप्ती. बभूवतुररिंदमौ॥ ३३॥
ततः कदाचित् कपिना सुग्रीवेण द्विजोत्तमा: ।
वानराणामभूत् सख्यं रामस्याक्लिप्टकर्मण: ॥ ३४॥
सुग्रीवस्यानुगो वीरो हनुमान् नाम वानरः।
वायुपुत्रो महातेजा रामस्यासीतू् प्रिय: सदा॥ ३५॥
स कृत्वा परमं धेर्य रामाय कृतनिश्चयः।
आनयिष्यामि तां सीतामित्युक्त्वा विचचार ह॥ ३६॥
महीं सागरपर्यन्तां सीतादर्शनतत्पर:।
जगाम रावणपुरी लट्ढां सागरसंस्थिताम्॥ ३७॥
तत्राथ निर्जने देशे वृक्षमूले शुचिस्मिताम्।
अपश्यदमलां सीतां राक्षसीभि: समावृताम्॥ ३८ ॥
अभ्रुपूर्णेक्षणां हद्यां संस्मरन्तीमनिन्दिताम्।
राममिन्दीवरश्यामं लक्ष्मणं चात्मसंस्थितम्॥ ३९॥
१३९
ऐसा जानकर बलवान प्रभु रामने जनकके घर
जाकर उस धनुषको उठाकर खेल-खेलमें ही तोड़ डाला।
तदनन्तर परम धर्मात्मा रामने उस कन्याका उसी प्रकार
पाणिग्रहण किया, जैसे शंकरने पार्वतीका और कार्तिकेयने
सेना (देवसेना)-का पाणिग्रहण किया॥ २४-२५॥
तदनन्तर बहुत दिन बीत जानेपर राजा दशरथने
स्वयं अपने बड़े पुत्र वीर रामको युवराज बनानेका कार्य
आरम्भ किया। तब उनकी सौभाग्यशालिनी मधुरभाषिणी
कैकेयी नामक पत्नीने भ्रानन््त्मन होकर पतिको (रामके
राज्याभिषेकसे) रोका और कहा कि मेरे वीर पुत्र
भरतको राजा बनायें, क्योंकि आपने पहले मुझे वर दे
रखा है॥ २६--२८॥
उसका वचन सुनकर उस राजाने अत्यन्त दुःखित-
मनसे कहा--' अच्छा, ऐसा ही हो '। तब धर्मको जाननेवाले
आत्मवान् अच्युत राम भी पिताके चरणोंमें प्रणामकर
(वनवासकी) प्रतिज्ञा कर लक्ष्मणके साथ सपत्नीक
बनको चले गये। बुद्धिमान् तथा महाबलवान् प्रभु (श्रीराम)
भी चौदह वर्षतक लक्ष्मणके साथ वहाँ (वनमें) रहे।
बनमें निवास करते समय कभी रावण नामका राक्षस
संन््यासीका वेष धारणकर सीताका हरण कर लिया और
उन्हें अपनी पुरी (लंका)-में ले गया॥ २९--३२॥
शत्रुनाशक राम और लक्ष्मण सीताको न देखकर
दुःख एवं शोकसे अत्यन्त संततत हो गये और उनकी
इन्द्रियाँ व्याकूल हो गयीं॥ ३३॥
द्विजोत्तमो! यथासमय अक्लिष्टकर्मा रामकी कपि
सुग्रीव तथा वानरोंसे मित्रता हो गयी। वायुपुत्र महातेजस्वी
वीर हनुमान् नामक वानर सुग्रीवके अनुगामी और सदा
रामके प्रिय थे। वे परम धैर्य धारणकर “उन सीताकों
लाऊँगा' इस प्रकार रामसे प्रतिज्ञापू्वक कहकर सीताको
देखनेके लिये तत्पर हो गये तथा सागरपर्यन्त सारी
पृथ्वीपर विचरण करने लगे। (इस प्रकार सीताको
ढूँढ़ते-ढूँढ़ते) सागरमें बसी हुई रावणकी पुरी लंकामें
गये। वहाँ उन्होंने राक्षसियोंसे घिरी हुई पवित्र, अश्रुपूर्ण
आँखोंवाली, अनिन्दित, रमणीय तथा पवित्र सीताको
निर्जन देशमें एक वृक्षके नीचे स्थित देखा। वहाँ भगवती
सीता नीलकमलके समान श्यामवर्णवाले राम तथा
आत्मसंयमी लक्ष्मणका स्मरण कर रही थीं॥ ३४--३९ ॥
१४०
* कूर्मपुराण *
निवेदयित्वा चात्मानं सीतायै रहसि स्वयम्
असंशयाय प्रददावस्यै रामाड्गुलीयकम्॥ ४०॥।
दृष्टाडगुलीयकं सीता पत्यु: परमशोभनम्।
मेने समागतं राम॑ प्रीतिविस्फारितेक्षणा॥ ४१॥
समाश्वास्य तदा सीतां दृष्ठा रामस्य चान्तिकम् |
नथिष्ये त्वां महाबाहुरुक्त्वा रामं ययौ पुनः ॥ ४२॥
निवेदयित्वा रामाय सीतादर्शनमात्मवान्।
तस्थौ रामेण पुरतो लक्ष्मणेन च पूजित: ॥ ४३॥
ततः स रामो बलवान् सार्ध हनुमता स्वयम्।
लक्ष्मणेन च युद्धाय बुद्धि चक्रे हि रक्षसाम्॥ ४४ ॥
कृत्वाथ वानरशतैर्लड्डामार्ग महोदधे:।
सेतुं परमधर्मात्मा रावणं हतवानू प्रभु: ॥ ४५॥
सपत्नीक॑ च ससुतं सभ्रातृकमरिंदमः |
आनयामास तां सीतां वायुपुत्रसहायवान्॥ ४६॥
सेतुमध्ये महादेवमीशानं कृत्तिवाससम्।
स्थापयामास लिड्डस्थं पूजयामास राघव: ॥ ४७॥।
तस्य देवो महादेव: पार्वत्या सह शंकरः |
प्रत्यक्षमेव भगवान् दत्तवान् वरमुत्तमम्॥ ४८॥
यत् त्वया स्थापित लिड़ं द्रक्ष्यन्तीह द्विजातय: ।
महापातकसंयुक्तास्तेषां पापं विनश्यतु॥ ४९ ॥
अन्यानि चैव पापानि सन्नातस्यात्र महोदधौ।
दर्शनादेव लिड्रस्य नाशं यान्ति न संशय: ॥ ५० ॥
यावत् स्थास्यन्ति गिरयो यावदेषा च मेदिनी।
यावत् सेतुश्च तावच्च स्थास्याम्यत्र तिरोहित:॥ ५१॥
र्रानं दानं जपः श्राद्ध भविष्यत्यक्षयं कृतम्।
स्मरणादेव लिड्रस्थ दिनपापं प्रणश्यति॥ ५२॥
इत्युक्त्या भगवाउछम्भु: परिष्वज्य तु राघवम्।
सननन््दी सगणो रुद्रस्तत्रैवान्तरधीयत॥ ५३॥
रामो5पि पालयामास राज्यं धर्मपरायण:।
अभिषिक्तो महातेजा भरतेन महाबल:॥ ५४॥
एकान्तमें सीताको स्वयं अपना परिचय देकर
उनका संदेह मिटानेके लिये उन्होंने (श्रीहनुमानने)
रामकी अंगूठी उन्हें प्रदान की ॥ ४० ॥
पतिकी परम सुन्दर अँगूठीको देखकर प्रीतिके
कारण विस्फारित नेत्रोंबाली सीताने रामको (ही) आया
हुआ माना। तब सीताको देखकर उन्होंने आश्वासन दिया
और कहा--'मैं आपको रामके पास ले चलूँगा।' ऐसा
कहकर महाबाहु (हनुमान) पुनः रामके पास चले
आये। आत्मवान् (हनुमान) रामसे सीता-दर्शनकी बात
बताकर सामने खड़े हो गये। राम-लक्ष्मणने उनको
साधुवादसे सत्कृत किया॥ ४१--४३ ॥
तदनन्तर बलवान् रामने हनुमान् तथा लक्ष्मणके
साथ राक्षसोंसे स्वयं युद्ध करनेका निश्चय किया। और
सैकड़ों वानरोंद्वार महासमुद्रमें लंका जानेके लिये
मार्गके रूपमें पुलका निर्माण किया गया तथा उसी
पुलके सहारे महासमुद्रको पारकर शत्रुहन्ता परम धर्मात्मा
प्रभु (श्रीराम)-ने वायुपुत्र हनुमान्की सहायतासे पत्नियों,
पुत्रों तथा भाइयोंसहित रावणको मार डाला और भगवती
सीताको वापस ले आये ॥ ४४--४६ ॥
राघवने सेतुके मध्यमें चर्माम्बर धारण करनेवाले
महादेव ईशानकी लिड्डगरूपमें प्रतिष्ठाकर उनकी पूजा की।
(इस रामेश्वर-प्रतिष्ठाके समय) पार्वतीसहित महादेव
भगवान् शंकरदेवने प्रत्यक्ष रूपमें श्रेष्ठ वर प्रदान करते
हुए श्रीगमसे कहा--'जो द्विजाति तुम्हारे द्वारा स्थापित
इस (रामेश्वर) लिंगका दर्शन करेंगे उनके बड़े-से-
बड़े पाप नष्ट हो जायँगे। महासमुद्रमें स्नान करनेवालेके
अन्य जो भी पाप (अर्थात् उपपातक आदि) हैं वे इस
लिंगके दर्शनमात्रसे ही नष्ट हो जायँगे, इसमें संदेह नहीं
है। जबतक पर्वत स्थित रहेंगे, जबतक यह पृथ्वी रहेगी
और जबतक यह सेतु रहेगा, तबतक मैं गुप्तरूपसे यहाँ
प्रतिष्ठित रहूँगा। यहाँ किया गया स्नान, दान, जप तथा
श्राद्ध अक्षय होगा। इस (रामेश्वर) लिंगके स्मरण करने
मात्र्से ही दिनभरका पाप नष्ट हो जायगा॥ ४७--५२॥
ऐसा कहकर भगवान् शम्भुने रघुवंशी रामका
आलिंगन किया और नन््दी तथा अपने गणोंके साथ वे
रुद्र (शम्भु) वहीं अन्तर्धान हो गये। भरतके द्वारा
अभिषिक्त होकर महाबली, महातेजस्वी तथा धर्मपरायण
रामने भी राज्यका पालन किया॥ ५३-५४॥
* अध्याय २१ *
विशेषाद ब्राह्मणान् सर्वान् पूजयामास चेश्वरम् ।
यज्ञेन यज्ञहन्तारमश्रमेधेन शंकरम्॥ ५५॥।
रामस्य तनयो जज्ञे कुश इत्यभिविश्रुतः।
लवश्व सुमहाभाग: सर्वतत्त्वार्थवित् सुधी: ॥ ५६॥
अतिथिस्तु कुशाजनज्ञे निषधस्तत्सुतो5भवत्।
नलस्तु निषधस्याभून्नभस्तस्मादजायत॥ ५७॥
नभस: पुण्डरीकाख्य: क्षेमधन्वा च तत्सुतः ।
तस्य पुत्रो5भवद् वीरो देवानीकः प्रतापवान्॥ ५८ ॥
अहीनगुस्तस्य सुतो सहस्वांस्तत्सुतो 5 भवत्।
तस्माच्चन्द्रावलोकस्तु तारापीडस्तु तत्सुतः॥ ५९ ॥
तारापीडाच्चन्द्रगिरिर्भानुवित्तस्ततो5भवत् ।
श्रुतायुरभवत् तस्मादेते इश्ष्वाकुवंशजा:।
सर्वे प्राधान्यतः प्रोक्ता: समासेन द्विजोत्तमा: ॥ ६० ॥
य इमं श्रृणुयान्नित्यमिक्ष्वाकोर्वशमुत्तमम्।
१४१
विशेष रूपसे उन्होंने सभी ब्राह्मणोंकी पूजा की
और अश्वमेध यज्ञके द्वारा यज्ञहन्ता* ईश्वर शंकरकी
अर्चना की॥ ५५॥
रामके 'कुश” नामसे विख्यात तथा सुन्दर महान्
भाग्यशाली, सभी तत्त्वार्थोको जाननेवाले बुद्धिमान् 'लव*
नामसे विख्यात दो पुत्र हुए। कुशसे अतिथि उत्पन्न हुआ
और उसका पुत्र निषध हुआ। निषधका पुत्र नल और
उसका पुत्र नभस हुआ। नभससे पुण्डरीक नामवाला
पुत्र हुआ और क्षेमधन्वा उसका पुत्र था। उस क्षेमधन्वाका
देवानीक नामक वीर एवं प्रतापी पुत्र हुआ। उस
(देवानीक)-का पुत्र अहीनगु और उसका पुत्र सहस्वान्
हुआ। उससे चन्द्रावलोक तथा उसका पुत्र तारापीड हुआ।
तारापीडसे चन्द्रगिरि तथा चन्द्रगिरिका भानुवित्त हुआ।
उस (भानुवित्त)-से श्रुतायु नामक पुत्र हुआ। ये सभी
इक्ष्वाकुके वंशज हैं। द्विजोत्तमो! संक्षेपमें इनमें प्रधान-
प्रधान (राजाओं)-को बताया गया है॥ ५६--६० ॥
जो इस श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंशके वर्णनको सुनेगा, वह सभी
सर्वपापविनिर्मुक्तो स्वर्गलोके महीयते॥ ६१॥ | पापोंसे निर्मुक्त होकर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होगा॥ ६१॥
डति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहय्रथां संहितायां पूर्वव्भिगे विंशोउध्यायः ॥ २० ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें बीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २०॥
इक्कीसवों अध्याय
चन्द्रवंशके राजाओंका तवृत्तान्त, यदुवंश-वर्णनमें कार्तवीर्यार्जुनके पाँच पुत्रोंका आख्यान,
परम विष्णुभक्त राजा जयध्वजकी कथा, विदेह दानवका पराक्रम तथा जयध्वजद्धारा
विष्णुके अनुग्रहसे उसका वध, विश्वामित्रद्वारा विष्णुकी आराधनाका जयध्वजको
उपदेश करना और जयध्वजको विष्णुका दर्शन
रोमहर्षण उवाच
ऐलः पुरूरवाश्चाथ राजा राज्यमपालयत्।
रोमहर्षणने कहा--इलाका पुत्र राजा पुरूरवा
राज्यका पालन करने लगा। उसको इन्द्रके समान
तस्य पुत्रा बभूव॒ुर्हि षडिन्द्रसमतेजस:॥ १॥ | तेजस्वी आयु, मायु, अमावायु, वीर्यवान् विश्वायु, शतायु
आयुर्मायुरमावायुर्विश्रायुश्चैव. वीर्यवान्।
शतायुश्च श्रुतायुश्च दिव्याश्चैवोर्वशीसुता: ॥ २॥
आयुषस्तनया बीराः पञ्चैवासन् महौजस: ।
स्वर्भानुतनयायां वै प्रभायामिति नः श्रुतम्॥ ३॥
नहुष:ः प्रथमस्तेषां धर्मजोे लोकविश्रुतः।
नहुषस्थ तु दायादाः: पषडिन्द्रोपमतेजस: ॥ ४॥
तथा श्रुतायु नामवाले छ: पुत्र हुए। ये उर्वशीके दिव्य
पुत्र थे॥ १-२॥
हमने सुना है कि आयुको स्वर्भानु (राहु)-की कन्या
प्रभासे पाँच महान् ओजस्वी पुत्र हुए थे। उनमें नहुष
प्रथम (पुत्र) था, जो धर्मज्ञ और लोकमें विख्यात था।
* भगवान् शंकरने दक्षके यज्ञका विध्वंस कराया था इसलिये उनको यज्ञहन्ता कहा जाता है।
१४२
उत्पन्ना: पितृकन्यायां विरजायां महाबला:।
यतिर्ययाति: संयातिरायति: पञ्चलको5शवकः ॥ ५ ॥
तेषां ययाति:ः पदञ्ञानां महाबलपराक्रम:।
देवयानीमुशनस: सुतां भायामवाप सः।
शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वण:॥ ६ ॥
यदुं च॒ तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।
डुह्युं चानुं च॒ पूरुं च शर्मिष्ठा चाप्पजीजनत्॥ ७ ॥
सो5भ्यषिश्वदतिक्रम्य ज्येष्ठटं यदुमनिन्दितम् ।
पूरुमेव कनीयांसं पितुर्वचनपालकम्॥ ८ ॥
दिशि दक्षिणपूर्वस्यां तुर्वसुं पुत्रमादिशत्।
दक्षिणापरयो राजा यदुं ज्येष्ठ न््ययोजयत्।
प्रतीच्यामुत्तरायां च द्रुह्युं चानुमकल्पयत्॥ ९ ॥
तैरियं पृथिवी सर्वा धर्मतः परिपालिता।
राजापि दारसहितो बनं प्राप महायशा:॥ १९०॥
यदोरप्यभवन् पुत्रा: पञ्ञ देवसुतोपमा:।
सहस््रजित् तथा ज्येष्ठ: क्रोष्टुनीलोडजितो रघु: ॥ ११॥
सहस्त्रजित्सुतस्तद्वच्छतजिन्नाम पार्थिव: ।
सुता: शतजितो5प्यासंस्त्रय: परमधार्मिका: ॥ १२॥
हैहयश्वच हयश्चैव राजा वेणुहय: परः।
हैहयस्याभवतू् पुत्रो धर्म इत्यभिविश्रुत:॥ १३॥
तस्य पुत्रो5भवद् विप्रा धर्मनेत्र: प्रतापवान्।
धर्मनेत्रस्य कीर्तिस्तु संजितस्तत्सुतो5भवत्॥ १४॥
महिष्मान् संजितस्याभूद भद्रश्रेण्यस्तदन्वय: ।
भद्र॒श्रेण्यस्य दायादो दुर्दमो नाम पार्थिव: ॥ १५॥
दुर्दमस्य सुतो धीमान् धनको नाम वीर्यवान्।
धनकस्य तु दायादाश्चवत्वारो लोकसम्मता: ॥ १६॥
कृतवीर्य: कृताग्रिश्च॒ कृतवर्मा तथेव च।
कृतौजाश्च चतुर्थो5भूत् कार्तवीर्योर्जुनो5भवत्॥ १७॥
धनुर्वेदविदां वरः।
तस्य रामो5भवन्यृत्युर्जामदग्न्यो जनार्दन:॥ १८॥
तस्य पञ्ञ॒ तत्र महारथा:।
कृतास्त्रा बलिनः शूरा धर्मात्मानो मनस्विन: ॥ १९॥
* कूर्मपुराण *
पितरोंकी कन्या विरजासे नहुषको यति, ययाति, संयाति,
आयाति तथा पाँचवें अश्वक नामवाले इन्द्रके समान
तेजस्वी महाबलशाली पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। इन
पाँचोंमेंसे ययाति महान् बलशाली और पराक्रमी था।
उसने शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी तथा वृषपर्वाकौ
असुर-वंशमें उत्पन्न शर्मिष्ठा नामकी कन्याको पत्नीरूपमें
प्रात्त किया ॥ ३--६॥
देवयानीने यदु तथा तुर्वसुको जन्म दिया। इसी
प्रकार शर्मिष्ठाने भी द्रुह्मु, अनु तथा पूरुको उत्पन्न किया।
उस (ययाति)-ने अनिन्दित ज्येष्ठ पुत्र यदुका अतिक्रमणकर
पिताके वचनका पालन करनेवाले छोटे पुत्र पूरुको ही
(राजपदपर) अभिषिक्त किया॥ ७-८ ॥
राजा ययातिने दक्षिण-पूर्व दिशामें तुर्वसु नामक
पुत्रको, दक्षिण-पश्चिम दिशामें ज्येष्ठ पुत्र यदुको, पश्चिममें
द्रह्मुको और उत्तर दिशामें अनुको (राजाके रूपमें)
नियुक्त किया। उन्होंने इस सम्पूर्ण पृथ्वीका धर्मपूर्वक
पालन किया। महायशस्वी राजा (ययाति) भी पत्नीसहित
वन चले गये। यदुके भी देवपुत्रोंक समान सहस्नजितू,
क्रोष्ट, नील, अजित तथा रघु नामक पाँच पुत्र हुए, उनमें
सहस्नजित् सबसे बड़ा था॥९--११॥
सहस्नजितृका उसीके समान शतजितू नामका पुत्र
राजा था। शतजितूके भी हैहय, हय और वेणुहय नामक
परम धार्मिक तीन पुत्र थे। हैहयका पुत्र “धर्म” नामसे
विख्यात हुआ॥ १२-१३॥
विप्रो! उसका (धर्मका) धर्मनेत्र नामवाला प्रतापी
पुत्र हुआ। धर्मनेत्रका कीर्ति और उसका पुत्र संजित
हुआ। संजितका महिष्मानू हुआ और उसका पुत्र
भद्रश्रेण्य था। भद्रश्रेण्यका दुर्दम नामका पुत्र राजा था।
दुर्दभका धनक नामवाला बुद्धिमान् और वीर्यवान् पुत्र
था। धनकके लोकमें सम्मानित चार पुत्र हुए--कृतवीर्य,
कृताग्रि, कृतवर्मा तथा चौथा कृतौजा। कृतवीर्यका पुत्र
अर्जुन हुआ। वह हजार बाहुओंवाला, चद्युतिमान् तथा
धनुर्वेद जाननेवालोंमें श्रेष्ठ था। जमदग्रिके पुत्र जनाद्दन
परशुराम उस (सहस््रार्जुन)-के लिये मृत्युरूप हुए।
(अर्थात् परशुरामके द्वारा वह मारा गया) ॥ १४--१८॥
उस (सहसर्रबाहु)-के सौ पुत्र थे, जिनमें पाँच पुत्र
महारथी, अस्त्र-सम्पन्न, बली, शूर, धर्मात्मा तथा
मनस्वी थे॥ १९॥
* अध्याय २१ *
शूरश्च शूरसेनश्व धृष्ण: कृष्णस्तथेव च।
जयध्वजश्वच बलवान् नारायणपरो नृपः॥ २०॥
शू्रसेनादय: सर्वे चत्वार: प्रथितौजस:।
रुद्रभक्ता महात्मानः पूजयन्ति सम शंकरम्॥ २१॥
जयध्वजस्तु मतिमान् देवं नारायणं हरिम्।
जगाम शरणं विष्णुं देवतं धर्मतत्पर:॥ २२॥
तमूचुरितरे पुत्रा नायं धर्मस्तवानघ।
ईश्वराराधनरतः पितास्माकमभूदिति॥ २३॥
तानब्रवीन्महातेजा एव धर्म: परो मम।
विष्णोरंशेन सम्भूता राजानो यन्महीतले॥ २४॥
राज्यं पालयतावश्यं भगवान् पुरुषोत्तम: ।
पूजनीयो यतो विष्णु: पालको जगतो हरि: ॥ २५ ॥
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी च स्वयम्भुव: ।
तिस्त्रस्तु मूर्तय: प्रोक्ता: सृष्टिस्थित्यन्तहेतव: ॥ २६ ॥
सत्त्वात्मा भगवान् विष्णु: संस्थापयति सर्वदा।
सृजेद ब्रह्मा रजोमूर्ति: संहरेत् तामसो हर: ॥ २७॥
तस्मान्महीपतीनां तु राज्यं पालयतामयम्।
आराध्यो भगवान् विष्णु: केशव: केशिमर्दन: ॥ २८ ॥
निशम्य तस्य वचन भ्रातरो5न्ये मनस्विन: ।
प्रोचु: संहारकृद रुद्र: पूजनीयो मुमुक्षुभि: ॥ २९॥
अयं हि भगवान् रुद्र: सर्व जगदिदं शिव: ।
तमोगुणं समाभ्रित्य कल्पान्ते संहरेत् प्रभु: ॥ ३०॥
या सा घोरतरा मूर्तिरस्य तेजोमयी परा।
संहरेद् विद्यया सर्व संसारं शूलभूृत् तया॥ ३१॥
ततस्तानब्रवीद राजा विचिन्त्यासौ जयध्वज: |
सत्तवेन मुच्यते जन्तुः सत्त्वात्मा भगवान् हरि: ॥ ३२॥
तमूचुर्ध्नातरो रुद्रः सेवितः सात्त्विकेर्जने:।
मोचयेत् सत्त्वसंयुक्त: पूजयेशं ततो हरम्॥ ३३॥
अधाब्रवीद् राजपुत्र: प्रहसन् वे जयध्वज: |
स्वधर्मो मुक्तये पन्था नान्यो मुनिभिरिष्यते॥ ३४॥
१४३
शूर, शूरसेन, धृष्ण, कृष्ण तथा पाँचवाँ पुत्र राजा
जयध्वज बलवान् तथा नारायणका भक्त था। शूरसेन
आदि चार पुत्र महात्मा एवं अति तेजस्वी और रुद्रके
भक्त थे। वे सभी शंकरकी पूजा करते थे। धर्मपरायण
एवं बुद्धिमान् जयध्वज नारायण देव हरि विष्णु देवताकी
शरणमें गया। अन्य पुत्रों (उसके चार भाइयों )-ने उससे
कहा--अनघ ! यह तुम्हारा धर्म नहीं है। हमारे पिता
शंकरकी आराधना करते थे॥ २०--२३॥
इसपर महातेजस्वी (जयध्वज)-ने उनसे कहा--
यही मेरा श्रेष्ठ धर्म है। पृथ्वीपर जो भी राजा हुए हैं,
वे सभी विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुए हैं। राज्यका परिपालन
करनेवालोंको चाहिये कि भगवान् पुरुषोत्तमकी अवश्य
आराधना करें। क्योंकि हरि विष्णु संसारके पालनकर्ता
हैं। स्वयम्भू (विष्णु)-की सात्तवकी, राजसी तथा तामसी--
ये तीन मूर्तियाँ कही गयी हैं, जो क्रमश: सृष्टि, पालन
तथा संहार करनेवाली हैं। सत्त्वगुणसम्पन्न भगवान् विष्णु
नित्य पालन करते हैं। रजोमूर्ति ब्रह्मा सृष्टि करते हैं और
तमोगुणात्मक हर संहार करते हैं। अतएवं राज्यका
पालन करनेवाले राजाओंके लिये केशीका मर्दन करनेवाले
केशव भगवान् विष्णु आराधनीय हैं॥ २४--२८ ॥
उस (जयध्वज)-का वचन सुनकर उसके दूसरे
मनस्वी भाइयोंने कहा--मुक्तिप्राप्तिकी इच्छा करनेवालोंके
लिये संहार करनेवाले रुद्र ही पूजनीय हैं। ये ही
कल्याणकारी प्रभु भगवान् रुद्र कल्पान्तमें तमोगुणका
आश्रय लेकर इस सम्पूर्ण जगत्का संहार करते हैं।
इनकी जो अति घोर तेजोमयी परा मूर्ति है, वही विद्या
(ज्ञान-विवेक)-स्वरूप है। शक्ति-रूपमें उसीके द्वारा
त्रिशूल धारण करनेवाले शंकर सम्पूर्ण संसारका संहार
करते हैं॥ २९--३१॥
तब वह राजा जयध्वज कुछ विचार करके उनसे
बोला--सत्त्वगुणद्वारा ही प्राणी मुक्त होता है और वे
भगवान् सत्त्वात्मक हैं॥३२॥
इसपर भाइयोंने उससे कहा--सात्त्विकजनोंके द्वारा
सेवित रुद्र सत्त्वगुणसे सम्पन्न होकर मुक्त करते हैं, अतः
ईश्वर हरकी पूजा करो। तब राजपुत्र जयध्वजने हँसते हुए
कहा--मुक्तिके लिये स्वधर्म-पालन ही एकमात्र मार्ग है।
मुनिलोग अन्य (धर्म)-की इच्छा नहीं करते॥ ३३-३४॥
५्डड
तथा च वैष्णवी शक्तिर्न॒पाणां देवता सदा।
आराधनं परो धर्मों मुरारेरमितौजस:॥ ३५॥
तमब्नवीद राजपुत्र: कृष्णो मतिमतां वरः।
यदर्जुनो5स्मज्जनकः स्वधर्म कृतवानिति॥ ३६॥
एवं विवादे वितते शूरसेनो5ब्लवीद् बच: ।
प्रमाणमृषयो हात्र ब्रूयुस्ते यत् तथेव तत्॥ ३७॥
ततस्ते राजशार्दूला: पप्रच्छुब्रहावादिन: ।
गत्वा सर्वे सुसंरब्धा: सप्तर्षीणां तदाभ्रमम्॥ ३८ ॥
तानब्रुवंस्ते मुनयो वसिष्ठाद्या यथार्थतः।
या यस्याभिमता पुंसः सा हि तस्यैव देवता॥ ३९॥
किन्तु कार्यविशेषेण पूजिताश्चेष्टदा नृणाम् ।
विशेषात् सर्वदा नायं नियमो हान्यथा नृपा: ॥ ४० ॥
नृपाणां देवतं विष्णुस्तथेव च पुरंदरः।
विप्राणामग्रिरादित्यो ब्रह्म चैव पिनाकधृक्ू ॥ ४१॥
देवानां देवतं विष्णुर्दानवानां त्रिशूलभृत्।
गन्धर्वाणां तथा सोमो यक्षाणामपि कथ्यते॥ ४२॥
विद्याधराणां वाग्देवी साध्यानां भगवान् रवि: ।
रक्षसां शंकरो रुद्रः किंनराणां च पार्वती॥ ४३॥
ऋषीणां दैवतं ब्रह्मा महादेवश्व शूलभृत्।
मनूनां स्थादुमा देवी तथा विष्णु: सभास्कर: ॥ ४४॥
गृहस्थानां च सर्वे स्युर्तब्रह्मा वै ब्रह्मचारिणाम्।
वैखानसानामर्कः स्याद यतीनां च महे श्वर: ॥ ४५॥
भूतानां भगवान् रुद्र: कृष्माण्डानां विनायक:।
सर्वेषां भगवान् ब्रह्मा देवदेव: प्रजापति: ॥ ४६ ॥
इत्येवं भगवान् ब्रह्मा स्वयं देवो5भ्यभाषत।
तस्माज्जयध्वजो नूनं॑ विष्ण्वाराधनमहति॥ ४७॥
तान् प्रणम्याथ ते जग्मुः पुरी परमशोभनाम् |
पालयाह्नक्रिरे पृथ्वीं जित्या सर्वरिपून् रणे॥ ४८ ॥
* 'कूर्मपुराण *
साथ ही राजाओंके लिये वैष्णवी शक्ति ही सदा
देवता-रूप है। अमित तेजस्वी मुरारिकी आराधना
करना परम धर्म है॥३५॥
तब बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ राजपुत्र कृष्ण (जयध्वजके
भाई)-ने उससे (जयध्वजसे) कहा--हम लोगोंके पिता
अर्जुनने (सहस्लार्जुन या कार्तवीर्यार्जुनने) जिसे स्वधर्म
माना है (वही हम लोगोंको भी मान्य होना चाहिये)।
इस प्रकार विवादके बढ़ जानेपर शूरसेन (जयध्वजके
दूसरे भाई)-ने यह बात कही--इस विषयमें ऋषि ही
प्रमाण हैं, अत: वे जैसा कहेंगे, हम लोगोंको वैसा हो
करना चाहिये॥ ३६-३७॥
तदनन्तर वे सभी राजदश्रेष्ठ तैयार होकर सप्तर्षियोंके
आश्रममें गये और (उन) ब्रह्मवादियोंसे पूछा-वसिष्ठ
आदि उन मुनियोंने तत्त्वकी बात बताते हुए उनसे
कहा--जिस पुरुषको जो देवता अभिमत हो, वही
उसका अभीष्ट देवता है। किंतु किसी विशेष कार्यसे
पूजित (तत्तद-देवता) मनुष्योंको अभीष्ट फल प्रदान
करते हैं। राजाओ! विशेष अर्थात् किसी उद्देश्यसे की
जानेवाली पूजा सदा नहीं की जाती, क्योंकि कामनापरक
आराधनाके नियम दूसरे प्रकारके होते हैं (वे सदा सब
स्थितियोंमें पालनीय नहीं हो सकते) । राजाओंके देवता
विष्णु और इन्द्र हैं। ब्राह्मणोंके देवता अग्नि, सूर्य, ब्रह्मा
तथा पिनाकधारी शिव हैं। देवताओंके देवता विष्णु और
दानवोंके त्रिशूलधारी शिव हैं। गन्धर्वों और यक्षोंके
देवता सोम कहे गये हैं॥ ३८--४२॥
विद्याधरोंके देवता वाग्देवी तथा साध्योंके भगवान्
सूर्य हैं। राक्षमोंक शंकर रुद्र और किंनरोंकी देवता पार्वती
हैं। ऋषियोंके देवता ब्रह्मा और त्रिशूलधारी महादेव हैं।
मनुष्योंके देवता उमा देवी, विष्णु तथा सूर्य हैं। गृहस्थोंके
लिये सभी देवता (पूज्य) हैं। ब्रह्मचारियोंके देवता
ब्रह्मा, वैखानसोंके सूर्य तथा संन्यासियोंके महेश्वर देवता
हैं। भूतोंके भगवान् रुद्र, कृष्माण्डोंक विनायक और देवाधि-
देव प्रजापति भगवान् ब्रह्मा सभीके देवता हैं॥ ४३--४६॥
(सप्तर्षियोंने कहा) स्वयं भगवान् ब्रह्माने ही यह
कहा है, इसलिये निश्चित ही जयध्वज विष्णुकी आराधना
करनेके योग्य हैं। तब वे सभी उन्हें प्रणामकर परम
सुन्दर अपनी पुरीको चले गये और युद्धमें सभी शत्रुओंको
जीतकर पृथ्वीका पालन करने लगे॥ ४७-४८॥
* अध्याय २९१ *
ततः कदाचिद् विप्रेन्द्रा विदेहो नाम दानव: ।
भीषण: सर्वसत्त्वानां पुरीं तेषां समाययौ॥ ४९॥
दंध्लाकरालो दीसप्तात्मा युगान्तदहनोपम:।
शूलमादाय सूर्याभं नादयन् वे दिशो दश॥ ५० ॥
तन्नादश्रवणान्मर्त्यास्तत्र ये निवसन्ति ते।
तत्यजुर्जीवितं त्वन्ये दुद्गुवुर्भगविद्धला:॥ ५१॥
ततः सर्वे सुसंयत्ता: कार्तवीर्यात्मजास्तदा।
युयुधुर्दानवं शक्तिगिरिकूटासिमुद्गरे: ॥ ५२॥
तानू सर्वान् दानवो विप्रा: शूलेन प्रहसन्निव
वारयामास घोरात्मा कल्पान्ते भेरवो यथा॥ ५३॥
शूरसेनादय: पञ्ञ राजानस्तु महाबला:।
युद्धाय कृतसंरम्भा विदेहं त्वभिदुद्गुवु:॥ ५४॥
शूरोउस्त्रं प्राहिणोद् रौद्र शूरसेनस्तु वारुणम्।
प्राजापत्यं तथा कृष्णो वायव्यं धृष्ण एव च॥ ५५ ॥
जयध्वजश्च कौबेस्मैन्द्रमाग्नेयमेव च।
भज्जयामास शूलेन तान्यस्त्राणि स दानव: ॥ ५६ ॥
ततः कृष्णो महावीययों गदामादाय भीषणाम्।
स्पृष्टा मन्त्रेण तरसा चिक्षेप च ननाद च॥ ५७॥
सम्प्राप्य सा गदाउस्योरो विदेहस्य शिलोपमम्।
न दानवं चालयितुं शशाकान्तकसंनिभम्॥ ५८ ॥
दुब्गुतुस्ते भयग्रस्ता दृष्ठा तस्यातिपौरुषम्।
जयध्वजस्तु मतिमान् सस्मार जगतः पतिम्॥ ५९॥
विष्णुं ग्रसिष्णुं लोकादिमप्रमेयमनामयम् ।
त्रातारं पुरुषं पूर्व श्रीपतिं पीतवाससम्॥ ६०॥
ततः प्रादुरभूच्चक्रं सूर्यायुतसमप्रभम्।
आदेशाद् वासुदेवस्य भक्तानुग्रहकारणात्॥ ६१॥
जग्राह जगतां योनिं स्मृत्वा नारायणं नृप:।
प्राहिणोद वै विदेहाय दानवेभ्यो यथा हरि: ॥ ६२ ॥
सम्प्राप्य तस्य घोरस्य स्कन्धदेशं सुदर्शनम् ।
पृथिव्यां पातयामास शिरो5द्विशिखराकृति॥ ६३॥
तस्मिन् हते देवरिपौ शूराद्या भ्रातरो नृपाः।
समाययु: पुरी रम्यां भ्रातरं चाप्यपूजयनू॥ ६४॥
श्रुत्वाजगाम भगवान् जयध्यजपराक्रमम्।
कार्तवीर्यसुतं द्र॒ष्टुं विश्वामित्रों महामुनि:॥६५॥
१४५
विप्रेन्द्रो !। तदनन्तर किसी दिन सभी प्राणियोंके लिये
भयंकर विदेह नामका दानव उनकी पुरीमें चला आया।
भयंकर दाढोंवाला, प्रलयकालीन अग्रिके समान उद्दीम्त
(वह दानव) सूर्यके समान चमकते हुए शूलको लेकर
दसों दिशाओंमें गरजने लगा। उसकी (भयंकर) गर्जनाको
सुनकर वहाँ रहनेवाले कुछ मनुष्योंने प्राण त्याग दिये
और दूसरे भयसे विह्ल होकर भाग पड़े॥ ४९--५१॥
तब कार्तवीर्यके सभी पुत्र सावधान होकर शक्ति
(सेना), पर्वतशिला, तलवार तथा मुद्गरोंसे उस दानवके
साथ युद्ध करने लगे। ब्राह्मगो! उस भयंकर दानवने
शूलसे उन सभीका हँसते हुए वैसे ही निवारण कर
दिया जैसे प्रलयकालमें भेरव करते हैं। तब महाबली
शूरसेन आदि वे पाँच राजा युद्धके लिये तैयारी कर
विदेह दानवपर टूट पड़े॥ ५२--५४॥
शुरने रौद्रास्त्र, शूरसेनने वारुणास्त्र, कृष्णने प्राजापत्यास्त्र,
धृष्णने वायव्यास्त्र और जयध्वजने कौबेर, ऐन्द्र तथा
आग्रेयास्त्र चलाया, किंतु उस दानवने शूलसे उन सभी
अस्त्रोंको तोड़ डाला। तब महावीर्यशाली कृष्णने भीषण
गदा लेकर मन्त्रसे उसे अभिमन्त्रित कर वेगपूर्वक फेंका
और गर्जना की। वह गदा उस विदेहकी पत्थरके समान
छातीपर लगकर भी यमराज-तुल्य उस दानवको
विचलित करनेमें समर्थ न हो सकी॥ ५५--५८॥
उसके महान् पौरुषको देखकर भयग्रस्त हो वे सभी
भागने लगे। तब बुद्धिमान् जयध्वजने अप्रमेय, अनामय,
लोकादि, ग्रसिष्णु, त्राणकर्ता, पूर्वपुरुष, श्रीपति और
पीताम्बरधारी जगत्पति विष्णुका स्मरण किया। स्मरण
करते ही भक्तपर अनुग्रह करनेके लिये वासुदेवकी आज्ञासे
दस हजार सूर्योके समान प्रकाशमान चक्र प्रकट हुआ।
राजा (जयध्वज)-ने जगद्योनि नारायणका ध्यानकर उस
चक्रको ग्रहण किया और विदेह (दानव)-पर उसी
प्रकार चलाया जैसे विष्णु दानवोंपर चलाते हैं॥ ५९--६२ ॥
सुदर्शनचक्र उस भयंकर दानवके कंधेपर लगा और
उसने उसके पर्वत-शिखरके समान सिरको पृथ्वीपर गिरा
दिया। देवताओंके शत्रु उस (विदेह दानव)-के मारे जानेपर
राजा शूर आदि सभी भाई अपनी रमणीय पुरीमें चले
आये और उन्होंने भाई (जयध्वज)-की पूजा की। महामुनि
भगवान् विश्वामित्र जयध्वजके पराक्रमको सुनकर उस
कीर्तवीर्य पुत्रको देखने आये॥ ६३--६५ ॥
१४६
तमागतमथो दृष्टा राजा सम्भ्रान्तमानस:।
समावेश्यासने रम्ये पूजयामास भावतः॥ ६६॥
उबाच भगवान् घोर: प्रसादाद् भवतो5सुरः ।
निपातितो मया संख्ये विदेहो दानवेश्वर: ॥ ६७॥
त्वद्वाक्याच्छिन्नसंदेहो विष्णुं सत्यपराक्रमम्।
प्रपन्न: शरणं तेन प्रसादो मे कृत: शुभ: ॥ ६८॥
यक्ष्यामि परमेशानं विष्णुं पद्मदलेक्षणम्।
कथं केन विधानेन सम्पूज्यो हरिरीश्वर: ॥ ६९॥
को<5यं नारायणो देव: किम्प्रभावश्च सुत्रत |
सर्वमेतन्ममाचक्ष्व पर॑ कौतूहलं हि मे॥ ७०॥
विश्वामित्र उवाच
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां यस्मिन् सर्वमिदं जगत् ।
स विष्णु: सर्वभूतात्मा तमाश्रित्य विमुच्यते ॥ ७१॥
स्ववर्णाश्रमधर्मेण पूज्यो5यं पुरुषोत्तम: ।
अकामहतभावेन समाराध्यो न चान्यथा॥ ७२॥
एतावदुक्त्वा भगवान् विश्वामित्रो महामुनि: ।
शूराद्येः: पूजितो बिप्रा जगामाथ स्वमालयम्॥ ७३॥।
अथ शूरादयो देवमयजन्त महेश्वरम्।
यज्ञेन यज्ञगम्यं तं॑ निष्कामा रुद्रमव्ययम्॥ ७४॥
तान् वसिष्ठस्तु भगवान् याजयामास सर्ववित्।
गौतमोऊत्रिरगस्त्यश्च सर्वे रुद्रपरायणा:॥ ७५॥
विश्वामित्रस्तु भगवान् जयध्वजमरिंदमम्।
याजयामास भूतादिमादिदेवं॑ जनार्दनम्॥ ७६॥
तस्य यज्ञे महायोगी साक्षात् देव: स्वयं हरि: ।
आविरासीत् स भगवान् तददभुतमिवाभवत्॥ ७७॥
य इमं श्रृणुयातन्नित्यं जयध्वजपराक्रमम्।
सर्वपापविमुक्तात्मा विष्णुलोक॑ स गच्छति॥ ७८ ॥
* कूर्मपुराण *
उनको (विश्वामित्रको) आया देखकर आश्चर्यचकित
मनवाले राजा (जयध्वज)-ने सुन्दर आसनपर उन्हें
बिठाया और भक्तिभावसे उनकी पूजा की तथा कहा--
भगवन्! आपको ही कृपासे मैंने युद्धमें भयंकर असुर
दानवेश्वर विदेहको मार गिराया। आपके कहनेसे मैं
संशयमुक्त होकर सत्यपराक्रमी विष्णुकी शरणमें गया
और उन्होंने मेरे ऊपर शुभ अनुग्रह किया । कमलदलके
समान नेत्रवाले, परम ईशान विष्णुका मैं पूजन करूँगा,
उन ईश्वर हरिका किस विधानसे किस प्रकार पूजन
किया जाना चाहिये। सुब्रत! ये नारायण देव कौन हैं?
उनका क्या प्रभाव है ? यह सब मुझे बतलाइये, मुझे
(इस विषयमें ) अत्यधिक कोतूहल है ॥ ६६--७० ॥
विश्वामित्रने कहा--जिनसे सभी प्राणियोंकी प्रवृत्ति
होती है और जिनमें यह सम्पूर्ण जगत् (प्रतिष्ठित) है,
वे विष्णु सभी प्राणियोंके आत्मरूप हैं, उनका आश्रय
ग्रहण करनेसे मुक्ति प्राप्त होती हैं। अपने-अपने वर्ण
और आश्रमधर्ममें स्थित रहते हुए केवल निष्कामभावसे
उन पुरुषोत्तम (विष्णु)-का पूजन करना चाहिये अन्य
किसी भावसे नहीं॥ ७१-७२॥
इतना कहकर महामुनि भगवान् विश्वामित्र उन
शूरसेन आदिके द्वारा पूजित होकर अपने निवास-
स्थानको चले गये। तदनन्तर शूरसेन आदिने यज्ञके द्वारा
कामनारहित होकर यज्ञ-गम्य उन अव्यय रुद्रदेव
महे ध्वरका यजन किया॥ ७३-७४ ॥
सर्वज्ञ भगवान् वसिष्ठ तथा रुद्रभक्त, गौतम, अत्रि
तथा अगस्त्यने उन लोगोंका यज्ञ कराया। भगवान्
विश्वामित्रने शत्रुओंका दमन करनेवाले जयध्वजसे
प्राणियोंके आदि कारण आदिदेव जनार्दन-सम्बन्धी
(विष्णु) यज्ञ कराया। उस (जयध्वज)-के यक्ञमें
महायोगी देव स्वयं भगवान् हरि साक्षात् प्रकट हुए। यह
एक अद्भुत बात हुई॥ ७५--७७॥
जो जयध्वजके इस पराक्रमको नित्य सुनेगा, वह
सभी पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकको प्राप्त करेगा॥ ७८॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहम्रधां संदहितायां पूर्वक््थिगे एकर्विशोउध्याय: ॥ २९ ॥
इस प्रकार छः हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें इक्कीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २१॥
* अध्याय २२ *
२१४७
बाईसवाँ अध्याय
जयध्वजके वंश-वर्णनमें राजा दुर्जयका आख्यान, महामुनि कण्वद्वारा दुर्जयको
वाराणसीके विश्वेश्वर-लिंगका माहात्म्य बतलाना, दुर्जयका वाराणसी
जाकर पाप-मुक्त होना तथा सहस्त्रजित्ू-वंशका वर्णन
सूत उवाच
जयध्वजस्य पुत्रो 5भूत् तालजद्छू इति स्मृतः ।
शतपुत्रास्तु तस्यासन् तालजद्धा: प्रकीर्तिता:॥ १ ॥
तेषां ज्येष्टो महावीयों वीतिहोत्रो$भवन्नृपः ।
वृषप्रभृतयश्चान्ये यादवा: पुण्यकर्मिण:॥ २ ॥
वृषो वंशकरस्तेषां तस्य पुत्रो$भवन्मधु: ।
मधो: पुत्रशतं त्वासीद वृषणस्तस्य वंशभाक् ॥ ३ ॥
बीतिहोत्रसुतश्चापि विश्रुतोडनन्त इत्युत।
दुर्जयस्तस्य पुत्रो5भूत् सर्वशास्त्रविशारद:॥ ४ ॥
तस्य भार्या रूपवती गुणैः सर्वेरलंकृता।
पतिब्रतासीत् पतिना स्वधर्मपरिपालिका॥ ५ ॥
स कदाचिन्महाभाग: कालिन्दीतीरसंस्थिताम् ।
अपश्यदुर्वशीं देवीं गायन्तीं मधुरस्वनाम्॥ ६ ॥
ततः कामाहतमनास्तत्समीपमुपेत्य वै।
प्रोवाच सुचिरं काल॑ देवि रन्तुं मयाहसि॥ ७ ॥
सा देवी नृपतिं दृष्टवा रूपलावण्यसंयुतम्
रेमे तेन चिरें काल॑ कामदेवमिवापरम्॥ ८ ॥
कालात प्रबुद्धो राजा तामुर्वशी प्राह शोभनाम्
गमिष्यामि पुरी रम्यां हसन्ती साब्रवीद् वच:॥ ९ ॥
न हानेनोपभोगेन भवता राजसुन्दर।
प्रीति: संजायते महां स्थातव्यं वत्सरं पुनः ॥ १०॥
तामब्नवीत् स मतिमान् गत्वा शीघ्रतरं पुरीम्।
आगमभिष्यामि भूयोउत्र तन्मे5नुज्ञातुमहसि॥ ११॥
तमब्नवीत् सा सुभगा तथा कुरु विशाम्पते।
नान्ययाप्सरसा तावद रन्तव्यं भवता पुनः॥ १२॥
ओमित्युक्त्वा ययौ तूर्ण पुरी परमशोभनाम्।
गत्वा पतिक्नतां पत्नीं दृष्ठा भीतो5भवन्नृप:॥ १३॥
सूतजीने कहा--जयध्वजका एक पुत्र था जो
तालजड्ड नामसे प्रसिद्ध था। उसके सौ पुत्र हुए जो
तालजड्ड ही कहलाते थे। उनमें वीतिहोत्र नामका महान्
बलवान् राजा सबसे बड़ा था। दूसरे वृष इत्यादि
नामवाले यादव पुण्यकर्मा थे। उनमें वृष वंशको
बढ़ानेवाला था, उसका मधु नामक पुत्र हुआ। मधुके
सौ पुत्र हुए, किंतु उनमें वृषण ही उस (मधु)-का
वंशधर हुआ। वीतिहोत्रका भी विश्रुत अथवा अनन्त
नामवाला एक पुत्र हुआ। उसका पुत्र दुर्जय हुआ जो
सभी शास्त्रोंका ज्ञाता था। उसकी भार्या रूपवती तथा
सभी गुणोंसे अलंकृत तथा पतिकब्रता थी, वह पति
दुर्जवबके साथ अपने धर्मका पालन करती थी॥ १--५॥
किसी समय उस महाभाग्यशाली (दुर्जय)-ने
कालिन्दी नदीके किनारे बैठी हुई मधुर स्वरमें गीत
गाती हुई देवी उर्वशीको देखा। तब कामके द्वारा
विचलित मनवाला वह उसके समीपमें गया और कहने
लगा--' देवि ! चिरकालतक मेरे साथ रमण करो '। रूप
और लावण्यसे सम्पन्न तथा दूसरे कामदेवके समान उस
राजाको देखकर उस देवीने चिरकालतक उसके साथ
रमण किया॥ ६--८ ॥
बहुत समयके बाद ज्ञान होनेपर राजाने उस रमणीय
उर्वशीसे कहा--' अब मैं अपनी सुन्दर पुरीको जाऊँगा।!
इसपर वह हँसते हुए कहने लगी--राजसुन्दर! आपके
साथ इतने उपभोगसे मुझे प्रसन्नता (संतुष्टि) नहीं हुई है,
अत: पुनः एक वर्षतक यहाँ और ठहरें॥ ९-१० ॥
इसपर बुद्धिमान् (राजा)-ने उस (उर्वशी)-से कहा--
में अपनी पुरीमें जाकर पुनः शीघ्र ही यहाँ वापस
लौटूँगा, इसलिये मुझे जानेकी आज्ञा दो। उस सुभगाने
उससे कहा--राजन्! वैसा ही कीजिये, किंतु तबतक आप
पुन: किसी अन्य अप्सराके साथ रमण न करें। ' अच्छा '
ऐसा कहकर वह शीघ्र ही परम शोभन अपनी पुरीको
चला गया। (पुरीमें) जाकर अपनी पतिक्रता पत्नीको
देखकर वह राजा भयभीत हो गया॥ ११--१३॥
१४८
नर कूर्मपुराण मे
सम्प्रेक्ष्य सा गुणवती भार्या तस्य पतित्रता।
भीतं प्रसन्नया प्राह वाचा पीनपयोधरा॥ १५४॥
स्वामिन् किमत्र भवतो भीतिरद्य प्रवर्तते।
तद् ब्रृहि मे यथा तत्त्वं न राज्ञां कीर्तये त्विदम्॥ १५॥
स तस्या वाक्यमाकर्ण्य लजजावनतचेतन: ।
नोवाच किंचिन्नृपतिज्ञनदृष्ट्या विवेद सा॥ १६॥
न भेतव्यं त्वया स्वामिन् कार्य पापविशोधनम् |
भीते त्वयि महाराज राष्ट्र ते नाशमेष्यति॥ १७॥
तदा स राजा द्युतिमान् निर्गत्य तु पुरात् ततः ।
गत्वा कण्वाश्रमं पुण्यं दृष्ठा तत्र महामुनिम्॥ १८ ॥
निशम्य कण्ववदनात् प्रायश्ञित्तविधिं शुभम्
जगाम हिमवत्पृष्ठ समुदिश्य महाबल: ॥ १९॥
सो5पश्यत् पथि राजेन्द्रो गन्धर्ववरमुत्तमम् ।
भ्राजमानं श्रिया व्योप्लनि भूषितं दिव्यमालया ॥ २० ॥
बीक्ष्य मालाममित्रप्न: सस्माराप्सरसां वराम्
उर्वशीं तां मनश्वक्रे तस्या एवेयमर्हति॥ २१॥
सो5तीव कामुको राजा गन्धर्वेणाथ तेन हि।
चकार सुमहद् युद्ध मालामादातुमुद्यत:॥ २२॥
विजित्य समरे मालां गृहीत्वा दुर्जयो द्विजा: ।
जगाम तामप्सरसं कालिन्दीं द्रष्टमादरात्॥ २३॥
अदृष्टाप्सससं तत्र कामबाणाभिपीडितः।
बश्माम सकलां पृथ्वी सप्तद्वीपसमन्विताम्॥ २४॥
आक्रम्य हिमवत्पाएव॑मुर्वशीदर्शनोत्सुक: ।
जगाम शैलप्रवरं हेमकूटमिति श्रुतम्॥ २५॥
तत्र तत्राप्सरोवर्या दृष्ठा तं॑ सिंहविक्रमम्।
काम॑ संदधिरे घोरं भूषितं चित्रमालया॥ २६॥
संस्मरन्नुर्वशीवाक्यं तस्यां संसक्तमानस:।
न पश्यति सम ता: सर्वा गिरिश्रुड्राणि जग्मिवान्॥ २७॥
उस राजाकी पीन पयोधरोंवाली उस गुणवती तथा
पतित्रता भायने डरे हुए (पति)-को देखकर प्रसन्न
वाणीसे कहा--स्वामिन्! आज आप डर क्यों रहे हैं, जो
भी बात हो मुझे सत्य-सत्य बतलायें। इस प्रकारका भय
राजाओंके लिये कीर्तिकर नहीं है॥ १४-१५॥
उसकी बात सुनकर उस (राजा) -का मन लज्जासे
झुक गया। राजा कुछ भी नहीं बोला, किंतु उस
(रानी) -ने ज्ञानदृष्टिसे (सब कुछ) जान लिया। (वह
बोली-- ) स्वामिन्! आपको डरना नहीं चाहिये। पापका
प्रायश्वित्त (शोधन) करना चाहिये। हे महाराज! आपके
भयभीत रहनेसे आपका राष्ट्र नष्ट हो जायगा॥ १६-१७॥
तब वह झुतिमान् राजा अपने नगरसे बाहर
निकलकर पवित्र कण्वके आश्रममें गया। वहाँ महामुनि
(कण्व)-का दर्शनकर तथा कण्वके मुखसे प्रायश्चित्तकी
कल्याणकारी विधि सुनकर प्रायश्ित्तके द्वारा आत्मशुद्धिके
उद्देश्स्से वह महाबलवान् (राजा दुर्जय) हिमालय
पर्वतकी ओर गया। उस राजेन्द्रने मार्गमें (जाते समय)
आकाशमें अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए गन्धर्वश्रेष्ठोंमें
उत्तम एक गन्धर्वको देखा, जो दिव्य मालासे विभूषित
था। मालाको देखकर शत्रुओंका विनाश करनेवाले (उस
राजाको) श्रेष्ठ अप्सरा उर्वशीका स्मरण हो आया। उसने
मनमें विचार किया कि यह (माला) तो उस (उर्वशी)-
के ही योग्य है॥ १८--२१ ॥
तब माला प्राप्त करनेको उद्यत उस अत्यन्त कामुक
राजाने उस गन्धर्वके साथ महान् युद्ध किया। ब्राह्मणो!
युद्धमें गन्धवोंको जीतकर और माला लेकर वह दुर्जय
उस अप्सराको देखनेके लिये आदरपूर्वक कालिन्दीके
किनारे गया। वहाँ अप्सराको न देखकर कामदेवके
बाणसे अत्यन्त पीड़ित वह सात द्वीपोंसे युक्त सम्पूर्ण
पृथ्वीपर घूमने लगा। उर्वशीके दर्शनके लिये उत्सुक
वह हिमालयके पार्श्रागको पारकर उस श्रेष्ठ पर्वतपर
पहुँचा जो 'हेमकूट' नामसे विख्यात है॥ २२--२५॥
वहाँ उन-उन स्थानोंमें रहनेवाली वे श्रेष्ठ अप्सराएँ
उस विचित्र मालासे विभूषित एवं सिंहके समान पराक्रमवाले
राजाको देखकर अत्यन्त कामासक्त हो गयीं। उर्वशीके
वाक्यका स्मरण करते हुए और उसीमें आसक्त मनवाले
उस राजाने उन सभी (अप्सराओं)-को नहीं देखा और
वह पर्वतोंके शिखरोंपर चला गया॥ २६-२७॥
* अध्याय २२ *
तत्राप्यप्सससं दिव्यामदृष्ठा कामपीडितः।
देवलोक॑ महामेरुं ययौ देवपराक्रम: ॥ २८ ॥
स तत्र मानसं नाम सरस्त्रैलोक्यविश्रुतम्।
भेजे श्रुड्भाण्यतिक्रम्य स्वबाहुबलभावित: ॥ २९॥
स तस्य तीरे सुभगां चरन्तीमतिलालसाम्।
दृष्टवाननवद्याड़ीं तस्ये मालां ददौ पुनः॥ ३०॥
स मालया तदा देवीं भूषितां प्रेक्ष्य मोहित: ।
रेमे कृतार्थमात्मानं जानान: सुचिरं तया॥ ३१॥
अथोर्वशी राजवर्य रतान्ते वाक्यमन्रवीत्।
कि कृतं भवता पूर्व पुरीं गत्वा वृथा नुप॥ ३२॥
स तस्ये सर्वमाचष्ट पत्न्या यत् समुदीरितम्।
कण्वस्य दर्शन॑ चैव मालापहरणं तथा॥ ३३॥
श्रुत्वैतद् व्याहतं तेन गच्छेत्याह हितैषिणी।
शापं दास्यति ते कण्वो ममापि भवतः: प्रिया॥ ३४॥
तयासकृन्महाराज:ः प्रोक्तोडपि मदमोहितः।
न तत्याजाथ तत्पाएंवँ तत्र संन्यस्तमानस: ॥ ३५॥।
तदोर्वशी कामरूपा राज्ञे स्वं रूपमुत्कटम्।
सरोमशं पिड़लाक्षं दर्शबामास सर्वदा॥ ३६॥
तस्यां विरक्तचेतस्कः स्मृत्वा कण्वाभिभाषितम् ।
धिड्मामिति विनिश्चित्य तप: कर्तु समारभत्॥ ३७॥
संवत्सरद्दाशशकं॑ कन्दमूलफलाशन:।
भूय एव द्वादशर्क वायुभक्षो5भवन्नृप:॥ ३८॥
गत्वा कण्वाश्रमं भीत्या तस्मै सर्व न्यवेदयत्।
वासमप्ससा भूयस्तपोयोगमनुत्तमम्॥ ३९॥
वीक्ष्य तं॑ राजशार्दूलं प्रसन्नो भगवानृषि:।
कर्तुकामो हि निर्बीजं तस्याघमिदमब्रवीतू्॥ ४० ॥
१४९
वहाँ भी दिव्य अप्सरा (उर्वशी)-को न देखकर
देवताओंके समान पराक्रमवाला वह कामपीडित (राजा)
देवताओंके स्थान महामेरुपर गया। अपने बाहुबलके
प्रभावसे गिरिशिखरोंकों पार करता हुआ वह तीनों
लोकोंमें विख्यात “मानस” नामक सरोवरपर पहुँचा।
उसने उसके (मानसरोवरके) किनारेपर विचरण करती
हुई सुन्दर अड्भोंवाली अत्यन्त स्नेहमयी सुन्दरी (उर्वशी )-
को देखा और वह माला उसे दे दी॥ २८--३० ॥
तब उस देवीकों मालासे विभूषित देखकर वह
मोहित हो गया तथा अपनेको कृतार्थ समझते हुए उसने
चिरकालतक उसके साथ रमण किया। अनन्तर उर्वशीने
श्रेष्ठ राजासे कहा--राजन्! आपने पहले पुरीमें जाकर
क्या किया, व्यर्थ ही आप वहाँ गये॥ ३१-३२॥
तब उसने पत्नीद्वारा कही गयी वह बात, कण्व
ऋषिका दर्शन तथा मालाका अपहरण--सभी कुछ उसे
बता दिया॥ ३३॥
उसके द्वारा कही गयी इन बातोंको सुनकर
हित चाहनेवाली (उस उर्वशी)-ने 'आप चले जाये'--
ऐसा कहा। अन्यथा आपको कण्व शाप दे देंगे
और आपकी प्रिया भी मुझे शाप दे देगी। बार-बार
उसके कहनेपर भी (कामरूपी) मदसे मोहित हुए
महाराजने उसका साथ नहीं छोड़ा, उसमें ही मन
लगाये रखा॥ ३४-३५ ॥
तदनन्तर इच्छानुसार रूप धारण कर लेनेवाली
उर्वशी राजाको रोमोंसे युक्त, पिड्गनल वर्णके नेत्रोंवाला
अपना उत्कट रूप सदा दिखलाने लगी। (उसका वह
वीभत्स रूप देखकर) उसके प्रति विरक्त मनवाले
राजाने कण्व (मुनि)-द्वारा कही गयी बातका स्मरणकर
'मुझे धिक्कार है” ऐसा निश्चयकर तप करना प्रारम्भ
किया। राजाने बारह वर्षतक कन्द-मूल और फलका
आहार किया और पुनः बारह वर्षोतक केवल वायुका
ही भक्षण किया॥ ३६--३८ ॥
कण्वके आश्रममें जाकर राजाने डरते-डरते अप्सराके
साथ निवास करने और पुन: उत्तम तपस्या करनेकी
सारी बातें उन्हें बता दीं। उस श्रेष्ठ राजाको देखकर प्रसन्न
हुए भगवान् ऋषि (कण्व)-ने उसके पापको समूल नष्ट
करनेकी इच्छासे यह कहा--॥ ३९-४० ॥
२५०
कण्व उवाच
गच्छ वाराणसी दिव्यामी श्वराध्युषितां पुरीम
आस्ते मोचयितुं लोकं तत्र देवो महेश्वर:॥ ४१॥
स्नात्वा संतर्प्य विधिवद् गड़ायां देवता: पितृन्।
दृष्ठा विश्वेश्वर लिड्ं किल्बिषान्मोक्ष्यसेडखिलातू॥ ४२ ॥
प्रणम्य शिरसा कण्वमनुज्ञाप्य च दुर्जयः ।
बाराणस्यां हरं दृष्टा पापान्मुक्तो3भवत् ततः ॥ ४३ ॥
जगाम स्वपुरी शुभ्रां पालयामास मेदिनीम्।
याजयामास तं कण्वो याचितो घृणया मुनि: ॥ ४४ ॥
तस्य पुत्रो5थ मतिमान् सुप्रतीक इति श्रुतः ।
बभूव जातमात्र॑ त॑ राजानमुपतस्थिरे॥| ४५ ॥
उर्वश्यां च महावीर्या: सप्त देवसुतोपमा: ।
कन्या जगृहिरे सर्वा गन्धर्वदयिता द्विजा:॥ ४६॥
एव व: कथित: सम्यक् सहस्त्रजित उत्तम: ।
बंशः पापहरो नृणां क्रोष्टोरपि निबोधत॥ ४७॥
नै कूर्मपुराण मे
कण्व बोले-- ( राजन्! तुम) ईश्वर जहाँ विशेषरूपसे
निवास करते हैं, उस दिव्य वाराणसीपुरीमें जाओ।
संसारको मुक्त करनेके लिये महेश्वर देव वहाँ रहते हैं।
गज्भामें स्नानकर विधिपूर्वक देवताओं एवं पितरोंका
तर्पणकर विश्वेश्वर लिड्रका दर्शन करनेसे तुम सम्पूर्ण
पापोंसे मुक्त हो जाओगे ॥ ४१-४२॥
इसके बाद कण्वको सिरसे प्रणामकर और उनको
आज्ञा प्रातकर वह दुर्जय वाराणसीमें गया और भगवान्
शंकरका दर्शनकर पापसे मुक्त हो गया॥ ४३॥
(तदनन्तर वह ) अपनी सुन्दर पुरीमें जाकर पृथ्वीका
पालन करने लगा। प्रार्थना करनेपर कण्व मुनिने कृपा
करके उसका यज्ञ कराया। उसका बुद्धिमान् पुत्र
'सुप्रतीक' इस नामसे विख्यात हुआ। उत्पन्न होते ही
उसे (लोगोंने) राजा मान लिया। ब्राह्मणो! उर्वशीसे
देवपुत्रोंके समान महान् वीर्यवान् सात पुत्र हुए। उन्होंने
गन्धर्वोकी कनन््याओंको अपनी पत्नी बनाया॥ ४४--४६॥
आप लोगोंसे (मैंने) यह मनुष्योंके पापको नष्ट
करनेवाला सहख्नजित॒का उत्तम वंश भलीभाँति बतलाया।
अब क्रीष्टुके वंशको भी सुनें ॥ ४७॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहग्रधां संहितायां पूर्वविभागे द्वार्विशोउध्याय: ॥ २२ ॥
इस प्रकार छः हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें बाईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २२॥
तेईसवाँ अध्याय
यदुवंश-वर्णनमें क्रोप्टवंशी राजाओंका वृत्तान्त, राजा नवरथकी कथा, सात्त्वतवंश-
वर्णनमें अक्रूरकी उत्पत्ति, राजा आनकदुन्दुभिका आख्यान, कंस एवं
बसुदेव-देवकीकी उत्पत्ति, वसुदेवका वंश-वर्णन, देवकीके अन्य
पुत्रोंकी उत्पत्ति, रोहिणीसे संकर्षण-बलराम तथा देवकीसे
श्रीकृष्णमका आविर्भाव,वासुदेव कृष्णका वंश-वर्णन
सूत उवाच
क्रोष्टोरेको5 भवत् पुत्रो वृजिनीवानिति श्रुति: ।
तस्यथ पुत्रो महान् स्वातिरुशदगुस्तत्सुतो5भवत्॥ १॥
उशदगोरभवत्् पुत्रो नाम्ना चित्ररथो बली।
अथ चैत्ररथिलोंके शशबिन्दुरिति स्मृतः॥ २॥
तस्य पुत्र: पृथुयशा राजाभूद धर्मतत्पर:।
पृथुकर्मा च॒ तत्पुत्रस्तस्मात् पृथुजयो5भवत्॥ ३॥
सूतजीने कहा--क्रोष्टुका एक पुत्र हुआ जो वृजिनीवान्
नामसे प्रसिद्ध हुआ। उसका महान पुत्र स्वाति हुआ और
उसका पुत्र उशदगु हुआ। उशदगुका चित्ररथ नामका
बलवान पुत्र हुआ। चित्ररथका पुत्र लोकमें शशबिन्दु
नामसे विख्यात हुआ। उसका पृथुयशा नामवाला पुत्र
धर्मपरायण राजा हुआ। उसका पुत्र पृथुकर्मा और उससे
पृथुजय हुआ॥ १--३॥
* अध्याय रहे *
पृथुकीर्तिरभूत् तस्मात् पृथुदानस्ततो5भवत्।
१५१
उससे पृथुकीर्ति और उससे पृथुदान हुआ। उसका
पृथुश्रवास्तस्य पुत्रस्तस्यासीत् पृथुसत्तम:॥ ४ ॥ | पुत्र पृथुश्रवा और उसका पुत्र था--पृथुसत्तम ॥ ४॥
उशना तस्य पुत्रो5भूत् सितेषुस्तत्सुतो5भवत्।
तस्याभूद रुक्मकवच: परावृत् तस्य सत्तमा:॥ ५ ॥
परावृतः सुतो जज्ञे ज्यामघो लोकविश्रुतः ।
तस्माद् विदर्भ: संजज्ञे विदर्भात् क्रथकैशिकौ॥ ६ ॥
रोमपादस्तृतीयस्तु बश्रुस्तस्यात्मजो नृपः।
धृतिस्तस्याभवत् पुत्र: संस्तस्तस्याप्यभूत् सुत:॥ ७ ॥
संस्तस्य पुत्रो बलवान् नाम्ना विश्वसहस्तु सः।
तस्य पुत्रो महावीर्य: प्रजावान्ू कौशिकस्ततः ।
अभूत् तस्य सुतो धीमान् सुमन्तुस्तत्सुतोइनल: ॥ ८ ॥
कैशिकस्य सुतश्चेदिश्चैद्यास्तस्याभवन् सुता: ।
तेषां प्रधानो ज्योतिष्मान् वपुष्मांस्तत्सुतो&5भवत्॥ ९ ॥
वपुष्मतो बृहन्मेधा श्रीदेवस्तत्सुतो5भवत्।
तस्य वीतरथो विप्रा रुद्रभ्तो महाबल:॥ १०॥
क्रथस्याप्यभवत् कुन्तिर्वष्णिस्तस्थाभवत् सुतः ।
वृष्णेनिविृत्तिरुत्पन्नो दशाईस्तस्य तु द्विजा:॥ ११॥
दशशाईपुत्रो5प्यारोहो जीमूतस्तत्सुतो5भवत्।
जैमूतिरभवद् वीरो विकृति: परवीरहा॥ १२॥
तस्य भीमरथः पुत्र: तस्मान्नवरथो5भवत्।
दानधर्मरतो नित्यं सम्यकृशीलपरायण: ॥ १३॥
कदाचिन्मृगयां यातो दृष्टा राक्षसमूर्जितम्।
दुद्राव महताविष्टो भयेन मुनिपुंगवा:॥ १४॥
अन्वधावत संक्रुद्धो राक्षसस्तं महाबल:।
दुर्योधनोउग्रिसंकाश: शूलासक्तमहाकरः॥ १५॥
राजा नवरथो भीत्या नातिदूरादनुत्तमम्।
अपश्यत् परम॑ स्थान सरस्वत्या सुगोपितम्॥ १६॥
स तद्वेगेन महता सम्प्राप्प मतिमान् नृपः।
बबन्दे शिरसा दृष्टा साक्षाद देवीं सरस्वतीम्॥ १७॥
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों! उस (पृथुसत्तम)-का पुत्र उशना
हुआ और उसका सितेषु पुत्र हुआ। फिर उसका
रुक्मकवच और उस (रुक्मकवच )-का परावृत् हुआ॥ ५॥
परावृत्ने संसारमें विख्यात ज्यामघ नामक पुत्र
उत्पन्न किया। उससे विदर्भ उत्पन्न हुआ और विदर्भसे
क्रथ, कैशिक और तीसरा रोमपाद नामक पुत्र हुआ।
उस (रोमपाद)-का पुत्र बभ्रु राजा था। धृति उसका पुत्र
हुआ और उसका भी संस्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
संस्तका विश्वसह नामवाला बलवान पुत्र था। उसका
पुत्र महान् पराक्रमी प्रजावान्ू और उसका पुत्र कौशिक
हुआ। उस (कौशिक) -का बुद्धिमान् सुमन्तु नामक पुत्र
था और उसका पुत्र अनल था। कैशिकका पुत्र चेदि
था और उस चेदिके पुत्र चैद्य हुए। उन चेद्योंमें
ज्योतिष्मान् प्रधान था और वपुष्मान् उसका पुत्र हुआ।
वपुष्मानूसे बृहन्मेधा और श्रीदेव उसका पुत्र हुआ।
ब्राह्मणो! उसका वीतरथ नामक पुत्र महान् बलशाली
और रुद्रका भक्त था॥ ६--१०॥
ब्राह्मणो ! क्रथका पुत्र कुन्ति और उसका पुत्र वृष्णि
हुआ। वृष्णिसे निवृत्ति उत्पन्न हुआ और दशा उसका
पुत्र हुआ। दशार्हका पुत्र आरोह था और उसका जीमूत
पुत्र हुआ। जीमूतका विकृति नामक बलवान पुत्र शत्रु-
वीरोंका नाशक था। उसका भीमरथ नामक पुत्र हुआ,
उससे नवरथ हुआ, जो नित्य दानधर्ममें परायण तथा
पूर्णरूपसे शील-सम्पन्न था॥ ११--१३॥
श्रेष्ठ मुनियो! किसी समय आखेटके लिये जाते
हुए वह (नवरथ) एक बलवान् राक्षसको देखकर
अत्यन्त भयभीत होकर भागने लगा। अग्निके समान
प्रजलित वह महाबलवान् दुर्योधन नामक राक्षस
क्ुद्ध होकर अपने विशाल हाथमें शूल लेकर उसके
पीछे दौड़ा॥ १४-१५॥
भयभीत राजा नवरथने समीपमें ही (देवी) सरस्वतीसे
रक्षित एक परम श्रेष्ठ स्थान देखा। वह बुद्धिमान्
राजा अति शीघ्र ही वहाँ पहुँचा और साक्षात् देवी
सरस्वतीका दर्शन करके उसने सिर झुकाकर प्रणाम
किया॥ १६-१७॥
१५२
तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिर्बद्धाउजलिरमित्रजित् ।
पपात दण्डवद भूमौ त्वामहं शरणं गत: ॥ १८॥
नमस्यामि महादेवीं साक्षाद् देवीं सरस्वतीम्।
बाग्देवतामनाहान्तामी श्वरीं ब्रह्मचारिणीम्॥ १९॥
नमस्ते जगतां योनिं योगिनीं परमां कलाम्।
हिरण्यगर्भमहिषीं त्रिनेत्रां चन्द्रशेखराम्॥ २०॥
नमस्ये परमानन्दां चित्कलां ब्रह्मरूपिणीम |
पाहि मां परमेशानि भीतं॑ शरणमागतम्॥ २१॥
एतस्मिन्नन्तरे क्कुद्धो राजानं राक्षसेश्वर:
हन्तुं समागतः स्थान यत्र देवी सरस्वती॥ २२॥
समुद्यम्य तदा शूलं प्रवेष्ट बलदर्पित:।
त्रिलोकमातुस्तत्स्थानं शशाड्रादित्यसंनिभम्॥ २३॥
तदन्तरे महद् भूतं युगान्तादित्यसंनिभम्।
शूलेनोरसि निर्भिद्या पातयामास तं भुवि॥ २४॥
गच्छेत्याह महाराज न स्थातव्यं त्वया पुनः ।
इदानीं निर्भयस्तूर्ण स्थानेउस्मिन् राक्षतो हत: ॥ २५ ॥
ततः प्रणम्य हष्टात्मा राजा नवरथ: पराम्।
पुरी जगाम विप्रेन्द्रा: पुरंदरपुरोपमाम्॥ २६॥
स्थापयामास देवेशीं तत्र भक्तिसमन्वित: ।
ईजे च विविधेर्यज्ञेहोमिर्देवीं सरस्वतीम्॥ २७॥
तस्य चासीद दशरथ: पुत्र: परमधार्मिक: |
देव्या भक्तो महातेजा: शकुनिस्तस्य चात्मज: ॥ २८॥
तस्मात् करम्भः सम्भूतो देवरातो5भवत् ततः ।
ईजे स चाश्रमेथेन देवक्षत्रश्न तत्सुत:॥ २९॥
मधुस्तस्य तु दायादस्तस्मात् कुरुवशो 5 भवत्।
पुत्रद्यमभूत् तस्य सुत्रामा चानुरेव च॥३०॥
पुरुकुत्सो5भूदंशुस्तस्य च रिक्थभाक्।
अथांशो: सत्त्यतो नाम विष्णुभक्त: प्रतापवान्।
महात्मा दाननिरतो धनुर्वेदविदां बर:॥३१॥
स नारदस्य वचनाद वासुदेवार्चनान्वितम्।
शास्त्र प्रवर्तयामास कुण्डगोलादिभि: श्रुतम्॥ ३२॥
न कूर्मपुराण न
उस शनत्नुजयीने हाथ जोड़ते हुए अभीष्ट स्तुतियोंद्वारा
स्तुति की, वह भूमिपर दण्डवत् गिर पड़ा और कहा--
“मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप अनादि, अनन्त,
ब्रह्मचारिणी, ईश्वरी, महादेवी, वाग्देवता साक्षात् देवी
सरस्वतीको नमस्कार करता हूँ। जगत्की मूल कारणरूपा,
परम कलास्वरूपा, तीन नेत्रवाली, मस्तकपर चन्द्रमाको
धारण करनेवाली एवं हिरण्यगर्भकी महिषी योगिनीको
नमस्कार है॥ १८--२० ॥
चित्कलारूप, परमानन्दस्वरूपा ब्रह्मरूपिणीको नमस्कार
है। परमेशानि! भयभीत होकर मैं आपकी शरणमें आया
हूँ, मेरी रक्षा करो॥२१॥
इसी बीच क्रुद्ध वह राक्षसराज राजाको मारनेके
लिये उसी स्थानपर आ पहुँचा, जहाँ देवी सरस्वती
थीं। बलसे दर्पित वह राक्षस शूल उठाकर तीनों
लोकोंकी जननीके उस सूर्य और चन्द्रमाके समान
प्रकाशित स्थानमें प्रवेश करनेकी चेष्टा करने लगा। इसी
बीच किसी प्रलयकालीन सूर्यके समान महान् बलशालीने
शूलसे उसके वक्ष:स्थलको विदीर्ण कर पृथ्वीपर गिरा
दिया और कहा--महाराज! आप अब निर्भय होकर
शीघ्र ही इस स्थानसे चले जाय, यहाँ अब फिर रुके
नहीं, राक्षस मारा जा चुका है॥२२--२५॥
ब्राह्मणो! तब प्रसन्न मनवाला वह नवरथ उन
परादेवीको प्रणामकर इन्द्रकी नगरीके समान अपनी
नगरीको चला गया। वहाँ उसने भक्तियुक्त होकर
देवेश्वरी सरस्वतीकी स्थापना की और विविध यज्ञों
तथा होमोंके द्वारा उन देवीका यजन किया। उसका
दशरथ नामक परम धार्मिक पुत्र था। वह महातेजस्वी
देवीका भक्त था। उसका पुत्र शकुनि था। उससे करम्भ
हुआ, उसका देवरात हुआ, उसने अश्वमेध यज्ञ किया
(जिसके फलस्वरूप) उसको देवक्षत्र नामक पुत्र हुआ।
उस (देवक्षत्र)-का पुत्र मधु हुआ, उससे कुरुवश हुआ।
उसके सुत्रामा तथा अनु नामक दो पुत्र हुए॥ २६--३०॥
अनुका पुरुकुत्स हुआ तथा उसका पुत्र अंशु था।
अंशुका पुत्र सत्त्वत था, जो विष्णुभक्त, प्रतापी, महात्मा,
दानशील और धरनुर्वेद जाननेवालोंमें श्रेष्ठ था। उसने
नारदजीके कहनेपर वासुदेवकी पूजासे युक्त शास्त्रका
प्रवर्तन किया, जिसे कुण्डगोलकोंने* सुना॥३१-३२॥
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* कुण्डगोलक--कुण्ड--पतिके जीवित रहते हुए परपुरुषसे उत्पन्न पुत्र। गोलक-पतिके मर जानेपर परपुरुषसे उत्पन्न पुत्र।
* अध्याय २३ *
तस्य नाम्ना तु विख्यातं सात्त्वतं नाम शोभनम्।
प्रवर्तते महाशास्त्रं कुण्डादीनां हितावहम्॥ ३३॥
सात्त्वतस्तस्य पुत्रो 5 भूत् सर्वशास्त्रविशारद: ।
पुण्यश्लोको महाराजस्तेन बै तत्प्रवर्तितम्॥ ३४ ॥
सात्त्वतः सत्त्वसम्पन्न: कौशल्यां सुषुवे सुतान्।
अन्धकं वे महाभोजं वृष्णिं देवाव॒धं नृपम्।
ज्येष्ठ च भजमानाख्यं धनुर्वेदविदां बरम्॥ ३५॥
तेषां देवावधो राजा चचार परमं तपः।
पुत्र: सर्वगुणोपेतो मम भूयादिति प्रभु:॥ ३६॥
तस्य बश्चुरिति ख्यात: पुण्यश्लोको5भवन्नृप: ।
धार्मिको रूपसम्पन्नस्तत्त्वज्ञानतत: सदा॥ ३७॥
भजमानस्य सृज्जय्यां भजमाना विजक्षिरे।
तेषां प्रधान विख्यातो निमि: कृकण एवं च॥ ३८ ॥
महाभोजकुले जाता भोजा वैमार्तिकास्तथा।
वृष्णे: सुमित्रो बलवाननमित्र: शिनिस्तथा॥ ३९॥
अनमित्रादभून्निक्नो निध्नस्य द्वौ बभूवतुः।
प्रसेनस्तु महाभागः सत्राजिन्नाम चोत्तम:॥ ४०॥
अनमित्राच्छिनिर्जज्ञे कनिष्ठाद वृष्णिनन्दनात्।
सत्यवान् सत्यसम्पन्न: सत्यकस्तत्सुतो5भवत्॥ ४१॥।
सात्यकिर्युयुधानस्तु तस्यासड्रो5 भवत् सुतः ।
कुणिस्तस्य सुतो धीमांस्तस्य पुत्रों युगंधर: ॥ ४२ ॥
माद्र्या वृष्णे: सुतो जज्ञे पृश्निर्वे यदुनन्दनः ।
जज्ञाते तनयौ पृश्ने: श्रफल्कश्लित्रकश्च ह॥ ४३॥
शध्वफल्क: काशिराजस्य सुतां भार्यामविन्दत।
तस्यामजनयत् पुत्रमक्रूर॑ नाम धार्मिकम्।
उपमड्डस्तथा मद्भरन्ये च बहवः सुता:॥ ४४॥
अक्रूरस्य स्मृतः पुत्रों देववानिति विश्रुतः।
उपदेवश्व पुण्यात्मा तयोर्विश्रप्रमाथिनौ॥ ४५ ॥
चित्रकस्याभवत् पुत्र: पृथुर्विपृथुरेव च।
अश्वग्रीव: सुबाहुश्च सुपाश्वकगवेषणौ॥ ४६॥
अन्धकात् काश्यदुहिता लेभे च चतुरः सुतान्।
कुकुरं भजमानं च शुचिं कम्बलबर्हिषम्॥ ४७॥
कुकुरस्य सुतो वृष्णिर्वृष्णेस्तु तनयो5भवत्।
कपोतरोमा विपुलस्तस्य पुत्रों विलोमक:ः॥ ४८ ॥
१५३
उसके नामसे सात्त्वत ऐसा विख्यात कुण्डादिकोंके
लिये कल्याणकारी सुन्दर शास्त्र प्रवर्तित हुआ। उस
(सत्त्तत)-का सभी शास्त्रोंमें पारंगत सात्त्तवत नामक
पुत्र हुआ, वह महाराज पुण्यश्लोक था। उसने उस
सात्त्वत शास्त्रका प्रवर्तन किया। सत्त्वसम्पन्न सात््वतकी
पत्नी कौशल्याने अन्धक, महाभोज, वृष्णि, राजा देवावृध
तथा थधनुर्वेदज्ञोंमें श्रेष्ठ भजमान नामक ज्येष्ठ पुत्रकों जन्म
दिया॥ ३३--३५॥
उनमेंसे राजा देवावृधने “मुझे सभी गुणोंसे सम्पन्न
शक्तिशाली पुत्र हो! इस आशयसे परम तप किया।
उसका पुत्र बभ्रु नामसे विख्यात पुण्यश्लोक राजा हुआ।
वह धर्मात्मा, रूप-सम्पन्न तथा सदा तत्त्वज्ञान-परायण
रहता था। भजमानके सृञ्ञयी (पत्नी)-से भजमान ही
नामवाले (अनेक) पुत्र हुए। उनमेंसे निमि तथा
कृकण--ये दो प्रधान तथा विख्यात थे। महाभोजके
वंशमें भोज तथा वैमार्तिक उत्पन्न हुए। वृष्णिके बलवान्
सुमित्र, अनमित्र तथा शिनि हुए। अनमित्रसे निम्न हुआ
और निष्नके महाभाग्यवान् प्रसेन तथा श्रेष्ठ सत्राजित्
नामवाले दो पुत्र हुए॥३६--४० ॥
कनिष्ठ वृष्णिनन्दन अनमित्रसे शिनि उत्पन्न हुआ।
उसका सत्यक नामक पुत्र हुआ जो सत्य बोलनेवाला
तथा सत्यसम्पन्न था। सत्यकका पुत्र युयुधान और
उसका पुत्र असड्र हुआ। उसका पुत्र बुद्धिमान् कुणि
था और युगन्धर उसका पुत्र हुआ। वृष्णिको माद्रीसे
यदुनन्दन पृश्रि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। पृश्रिको
शधफल्क तथा चित्रक नामवाले दो पुत्र हुए। श्रफल्कने
काशिराजकी पुत्रीको अपनी भार्या बनाया और उससे
अक्रूर नामक धार्मिक पुत्र उत्पन्न किया। उपमन्भु तथा
मज़ु नामवाले उनके बहुतसे पुत्र थे। अक्रूरका देववान्
इस नामसे प्रसिद्ध पुत्र कहा गया है। पुण्यात्मा उपदेव
भी उसका पुत्र हुआ। उन दोनोंको विश्व तथा प्रमाथी
नामक दो पुत्र हुए॥४१--४५॥
चित्रकके पृथु, विपृथु, अश्वग्रीव, सुबाहु, सुपार्थक
तथा गवेषण नामक पुत्र हुए। काश्यकी पुत्रीने अन्धकसे
कुकुर, भजमान, शुचि तथा कम्बलबर्हिंष नामक चार
पुत्रोंको प्राप्त किया। कुकुरका पुत्र वृष्णि हुआ और
वृष्णिका पुत्र कपोतरोमा विपुल हुआ। उसका पुत्र
विलोमक हुआ ॥ ४६--४८ ॥
१५४
हम कूर्मपुराण ्ं
तस्यासीत् तुम्बुरुसखा दिद्वान् पुत्रो नल: किल।
उस (विलोमक)-का विद्वान् नल नामक पुत्र हुआ
ख्यायते तस्य नामानुरनोरानकदुन्दुभि: ॥ ४९॥ | जो तुम्बुरुका मित्र था, अनु भी उसका नाम हुआ।
स॒गोवर्धनमासाद्य तताप विपुलं तपः।
वरं तस्मे ददौ देवो ब्रह्म लोकमहेश्वर: ॥ ५० ॥
वंशस्य चाक्षयां कीर्ति गानयोगमनुत्तमम्।
गुरोरभ्यधिकं विप्रा: कामरूपित्वमेव च॥ ५१॥
स लब्ध्वा वरमव्यग्रो वरेण्यं वृषवाहनम्।
पूजयामास गानेन स्थाणुं त्रिदशपूजितम्॥ ५२॥
तस्य गानरतस्थाथ भगवानम्बिकापति: ।
कन्यारत्नं॑ ददौ देवो दुर्लभं त्रिदशैरपि॥ ५३॥
तया स सड़तो राजा गानयोगमनुत्तमम्।
अशिक्षयदमित्रघ्नः प्रियां तां भ्रान्ललोचनाम्॥ ५४ ॥
तस्यथामुत्पादयामास सुभुजं नाम शोभनम्।
रूपलावण्यसम्पन्नां हीमतीमपि कन््यकाम्॥ ५५॥
ततस्तं जननी पुत्र बाल्ये ववसि शोभनम्।
शिक्षयामास विधिवद् गानविद्यां च कन्यकाम्॥ ५६ ॥
कृतोपनयनो वेदानधीत्य विधिवद् गुरो:।
उद्बवाहात्मजां कन्यां गन्धर्वाणां तु मानसीम्॥ ५७॥
तस्यामुत्पादयामास पश्ञ पुत्राननुत्तमान्।
वीणावादनतत्त्वज्ञान् गानशास्त्रविशारदान्॥ ५८ ॥
पुत्रै: पौत्रे: सपत्नीको राजा गानविशारद: ।
पूजयामास गानेन देवं त्रिपुरनाशनम्॥ ५९॥
हीमती चापि या कन्या श्रीरिवायतलोचना।
सुबाहुर्नाम गन्धर्वस्तामादाय ययौ पुरीम्॥ ६०॥
तस्यामप्यभवन् पुत्रा गन्धर्वस्य सुतेजस: ।
सुषेणवीरसुग्रीवसुभोजनरवाहना: ॥ ६१॥
अथासीदभिजित् पुत्रो वीरस्त्वानकदुन्दुभे: ।
पुनर्वसुश्षाभिजित: सम्बभूवाहुक: सुत:॥ ६२॥
अनुका पुत्र आनकदुन्दुभि हुआ॥ ४९॥
ब्राह्मणो ! उसने गोवर्धन पर्वतपर जाकर महान् तप
किया। तब लोकमहेश्वर देव ब्रह्माने उसे वर प्रदान
किया और कहा--तुम्हारे वंशकी अक्षय कीर्ति होगी
तथा तुम्हें गुरुसे भी अधिक श्रेष्ठ गानयोग (संगीत-
कलाकी स्वाभाविक प्रतिभा) और इच्छानुसार रूप
धारण करनेकी योग्यता प्राप्त होगी॥ ५०-५१॥
वर प्राप्तकर प्रशान्त (मनवाले) उसने देवताओंद्वारा
पूजित, वरणीय और वृषवाहन स्थाणु (शंकर)-की गान
(संगीत)-द्वारा पूजा की | गानमें रत उस ( आनकदुन्दुभि)-
को भगवान् देव अम्बिकापति (शंकर)-ने देवताओंके
लिये भी दुर्लभ विवाह करने योग्य कन्यारूपी रत्न
प्रदान किया। भार्या-रूपमें उसका साथ प्राप्तकर शत्रुनाशक
राजाने उस चञ्ल आँखोंवाली अपनी प्रिया भ्रान्तलोचनाको
श्रेष्ठ गानयोग सिखलाया। (राजाने) उससे सुन्दर भुजावाले
शोभन नामक पुत्र तथा रूप और लावण्यसे सम्पन्न
हीमती नामकी कन्याको उत्पन्न किया॥ ५२--५५॥
तब माता (भ्रान्तलोचना)-ने बाल्यावस्थामें ही उस
शोभन नामक पुत्रको तथा कन्या (हीमती)-को भी
विधिवत गानविद्याकी शिक्षा प्रदान की। उपनयन होनेके
अनन्तर विधिपूर्वक गुरुसे वेदोंका अध्ययनकर (शोभनने)
गन्धर्वोंकी मानसी नामक कन्यासे विवाह किया और
उससे वीणा बजानेका तत्त्व जाननेवाले तथा संगीतशास्त्रमें
पारंगत पाँच श्रेष्ठ पुत्रोंको उत्पन्न किया॥ ५६--५८॥
पुत्र-पौत्र तथा पत्नीसहित गानविद्यामें पारंगत उस
राजाने गायनद्ठारा त्रिपुरका नाश करनेवाले देव (शंकर)-
की पूजा की। लक्ष्मीके सदृश विशाल नेत्रोंवाली जो
हीमती नामकी कन्या थी, सुबाहु नामक गन्धर्व उसे
लेकर अपनी पुरीमें चला गया। अत्यन्त तेजस्वी
गन्धर्वको भी उस (हीमती)-से सुषेण, वीर, सुग्रीव,
सुभोज तथा नरवाहन नामके पुत्र हुए॥५९--६१॥
आनकदुन्दुभिका अभिजित् नामक एक वीौर पुत्र
था। अभिजितूका पुनर्वसु और उससे आहुकका
जन्म हुआ॥ ६२॥
* अध्याय २३ *
आहुकस्योग्रसेनश्वच देवकश्च द्विजोत्तमा:।
देवकस्य सुता बीरा जक्षिरे त्रिदशोपमा:॥ ६३॥
देववानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षित:।
तेषां स्वसार: सप्तासन् वसुदेवाय ता ददौ॥ ६४ ॥
वृकदेवोपदेवा चर तथान्या देवरक्षिता।
श्रीदेवा शान्तिदेवा च सहदेवा चर सुत्रता।
देवकी चापि तासां तु वरिष्ठाभूत् सुमध्यमा ॥ ६५ ॥
उग्रसेनस्य पुत्रो$भून्यग्रोध: कंस एवं च।
सुभूमी राष्ट्रपालश्व तुष्टिमाज्छडःकुरेव च॥ ६६॥
भजमानादभूत् पुत्र: प्रख्यातोडसौ विदूरथ: ।
तस्य शूरः शमिस्तस्मात् प्रतिक्षत्रस्ततो5भवत् ॥ ६७॥
स्वयम्भोजस्ततस्तस्माद् हृदिकः शत्रुतापन: ।
कृतवर्माथ तत्पुत्रो देवरस्तत्सुतः स्मृतः।
स शूरस्तत्सुतो धीमान् वसुदेवो5थ तत्सुत: ॥ ६८ ॥
वसुदेवान्महाबाहुर्वासुदेंवोी. जगदगुरु: ।
बभूव देवकीपुत्रो देवैरभ्यर्थितो हरिः॥ ६९॥
रोहिणी च महाभागा वसुदेवस्य शोभना।
असूत पली संकर्ष राम॑ ज्येष्ठ हलायुधम्॥ ७०॥
स एवं परमात्मासौ वासुदेवो जगन्मय:।
हलायुथ: स्वयं साक्षाच्छेष: संकर्षण: प्रभु: ॥ ७१॥
भुगुशापच्छलेनैब मानयन् मानुषीं तनुम्।
बभूव तस्यां देवक््यां रोहिण्यामपि माधव: ॥ ७२॥
उमादेहसमुदभूता योगनिद्रा च कौशिकी।
नियोगाद् वासुदेवस्य यशोदातनया हाभूत्॥ ७३ ॥
ये चान्ये वसुदेवस्य वासुदेवाग्रजा: सुता:।
प्रागेव कंसस्तान् सर्वान् जघान मुनिपुंगवा: ॥ ७४॥
सुषेणश्र तथोदायी भद्गसेनो महाबल:।
ऋजुदासो भद्रदास: कीर्तिमानपि पूर्वज:॥ ७५॥
हतेष्वेतेषु सर्वेषु रोहिणी वसुदेवतः।
असूत राम॑ लोकेशं बलभद्रं हलायुधम्॥ ७६॥
जाते5थ रामे देवानामादिमात्मानमच्युतम् |
असूत देवकी कृष्णं श्रीवत्साद्डितवक्षसम्॥ ७७॥
रेवती नाम रामस्य भार्यासीत् सुगुणान्विता।
तस्यामुत्पादयामास पुत्रौ द्वो निशठोल्मुकौ॥ ७८ ॥
२५५
द्विजोत्तमो! आहुकके दो पुत्र हुए--उग्रसेन और
देवक। देवकके देवताओंके समान देववान्, उपदेव,
सुदेव तथा देवरक्षित नामवाले चार वीर पुत्र हुए। इनकी
सात बहनें थीं--वृकदेवा, उपदेवा, देवरक्षिता, श्रीदेवा,
शान्तिदेवा, सहदेवा, सुत्रता तथा देवकी। इनमें सुन्दर
मध्यभागवाली देवकी सबसे बड़ी थी। ये सभी
वसुदेवको दी गयीं॥ ६३--६५ ॥
उग्रसेनके न्यग्रोध, कंस, सुभूमि, राष्ट्रपाल, तुष्टिमान्
तथा शह्डू नामवाले पुत्र थे। भजमानका प्रख्यात विदूरथ
नामवाला पुत्र हुआ। उसका पुत्र शूर, उससे शमि और
शमिका प्रतिक्षत्र नामक पुत्र हुआ। उस (प्रतिक्षत्र)-
से स्वयम्भोज और उससे शत्रुओंको ताप पहुँचानेवाला
पुत्र हदिक हुआ। उसका पुत्र कृतवर्मा और उसका
पुत्र देव कहलाया। उस शूरसे धीमान् हुआ और
उसका पुत्र वसुदेव था॥६६--६८ ॥
देवताओंके प्रार्थना करनेपर महाबाहु जगदगुरु वासुदेव
विष्णु वसुदेवसे देवकी-पुत्रके रूपमें प्रकट हुए। वसुदेवकी
महाभाग्यशालिनी सुन्दर रोहिणी नामक पत्नीने हलको
आयुधके रूपमें धारण करनेवाले ज्येष्ठ पुत्र संकर्षण राम
(बलराम)-को जन्म दिया। वह परमात्मा (विष्णु) ही
ये जगन्मय (वसुदेवपुत्र) वासुदेव हैं। हलायुध (बलराम)
संकर्षण स्वयं साक्षात् प्रभु शेष हैं॥६९--७१॥
भूगुके शापके कारण वे माधव विष्णु भी मनुष्य-
शरीर स्वीकार कर उन देवकी तथा रोहिणीसे उत्पन्न
हुए। उमाकी देहसे उत्पन्न योगनिद्रारूप कौशिकीदेवी
वासुदेवकी आज्ञासे यशोदाकी पुत्री हुई॥७२-७३॥
मुनिश्रेष्ठो |! वसुदेवके अन्य जो वासुदेव नामवाले ज्येष्
पुत्र थे उन सबको कंसने पहले ही मार डाला। सुषेण,
उदायी, भद्रसेन, महाबल, ऋजुदास, भद्रदास और पूर्वमें
उत्पन्न कीर्तिमानू--इन सभी (वासुदेवके बड़े भाइयों)-
के मारे जानेपर रोहिणीने वसुदेवसे संसारके स्वामी हलायुध
बलभद्र राम (बलराम)-को जन्म दिया॥ ७४--७६ ॥
राम (बलराम)-के उत्पन्न होनेके पश्चात् देवकीने
देवताओंके आदि कारण, आत्मरूप, श्रीवत्स-चिहसे
सुशोभित वक्ष:स्थलवाले अच्युत कृष्णको जन्म दिया ॥ ७७॥
बलरामकी सुन्दर गुणोंसे युक्त रेवती नामकी भार्या
थीं। उन्होंने उनसे निशठ तथा उल्मुक नामक दो पुत्रोंको
उत्पन्न किया॥ ७८ ॥
५५६
घोडशस्त्रीसहस्त्राणि कृष्णस्याक्लिष्टकर्मण: ।
बभूवुरात्मजास्तासु शतशो5थ सहस्त्रश:॥ ७९॥
चारुदेष्ण: सुचारुश्च चारुवेषो यशोधरः।
चारु श्रवाश्वारुयशाः प्रद्युम्म: शंख एवं च॥ ८० ॥
रुक्मिण्यां वासुदेवस्थ महाबलपराक्रमा:।
विशिष्टा: सर्वपुत्राणां सम्बभूवुरिमे सुता:॥ ८१॥
तान् दृष्टा तनयान् वीरान् रौक्मिणेयाउ्जनार्दनम्।
जाम्बवत्यब्रवीत् कृष्णं भार्या तस्य शुचिस्मिता ॥ ८२॥
मम त्वं पुण्डरीकाक्ष विशिष्ट गुणवत्तमम्।
सुरेशसदूृशं पुत्र देहि. दानवसूदन॥ ८३॥
जाम्बवत्या वच: श्र॒ुत्वा जगन्नाथ: स्वयं हरि: ।
समारेभे तपः कर्त तपोनिधिररिंदम: ॥ ८४॥
तच्छुणुध्वं मुनिश्रेष्ठा यथासौ देवकीसुतः।
दृष्ठा लेभे सुतं रुद्रं तप्त्वा तीत्रं महत् तप: ॥ ८५ ॥
नः कूर्मपुराण न
(वसुदेव-देवकीसे उत्पन्न साक्षात् विष्णु) अक्त्िष्टकर्मा
श्रीकृष्णणी सोलह हजार पत्नियाँ थीं और उनसे सैकड़ों
हजारों पुत्र हुए। वासुदेव श्रीकृष्णकी पत्नी रुक्मिणीसे
चारुदेष्ण, सुचारु, चारुवेष, यशोधर, चारुश्रवा, चारुयशा,
प्रदुम्न तथा शट्ड नामवाले महान् बलशाली और पराक्रम-
सम्पन्न पुत्र हुए। ये पुत्र सभी पुत्रोंमें विशिष्ट हुए्॥ ७९--८१॥
रुक्मिणीसे उत्पन्न इन वीर पुत्रोंको देखकर पवित्र
मुसकानवाली पत्नी जाम्बवतीने अपने पति जनार्दन श्रीकृष्णसे
कहा-पुण्डरीकाक्ष! दानवसूदन! आप मुझे इन्द्रके
समान विशिष्ट गुणवानोंमें श्रेष्ठ पुत्र प्रदान करें। जाम्बवतीका
कथन सुनकर शत्रुओंका दमन करनेवाले तपोनिधि जगन्नाथ
स्वयं हरिने तप करना प्रारम्भ किया॥ ८२--८४॥
मुनिश्रेष्टो ! उन देवकीपुत्र ( श्रीकृष्ण) -ने जिस प्रकार
अत्यन्त तीत्र महान् तपके द्वारा रुद्रका दर्शनकर पुत्र
प्रात्त किया, उस (वृत्तान्त)-को आपलोग सुनें॥ ८५॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्याहस्धां संहितायां पूर्वविभागे त्रयोविशोउध्यायः ॥ २३ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें तेईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २३॥
चोबीसवाँ अध्याय
पुत्र-प्राप्तिक लिये तपस्या करने-हेतु भगवान् श्रीकृष्णका महामुनि उपमन्युके आश्रममें जाना,
महामुनि उपमन्युद्वारा उन्हें पाशुपत-योग प्रदान करना, तपस्यामें निरत कृष्णको
शिव-पार्वतीका दर्शन और श्रीकृष्णद्वारा उनकी स्तुति करना, शिदद्वारा
पुत्रप्रास्िका वर देना तथा माता पार्वतीद्वारा अनेक वर देना
और शिवके साथ श्रीकृष्णका कैलास-गमन
सूत उवाच
अथ देवो हषीकेशो भगवान् पुरुषोत्तम:।
तताप घोरं पुत्रार्थ निदानं तपसस्तपः॥ १॥
स्वेच्छयाप्यवतीर्णों $सौ कृतकृत्यो5पि विश्वधृक् ।
चचार स्वात्मनो मूलं बोधयन् भावमैश्वरम्॥ २॥
जगाम योगिभिर्जुष्टे नानापक्षिसमाकुलम।
आश्रम तूपमन्योवे मुनीन्द्रस्य महात्मन:॥ ३॥
पतत्त्रिराजमारूढ: सुपर्णमतितेजसम्।
सूतजी बोले--हषीकेश भगवान् पुरुषोत्तम देवने
पुत्र-प्राप्तकि लिये तपस्याके निदान*-रूपमें (सर्वोत्कृष्ट )
घोर तपस्या की। अपनी इच्छासे ही अवतीर्ण कृतकृत्य,
विश्वको धारण करनेवाले ये श्रीकृष्ण (अपने) स्वरूपके
मूल ईश्वर-भावका परिज्ञान करानेके लिये (उत्तम तप:-
स्थलके अन्वेषणके बहाने पक्षिराज गरुड़पर आखरूढ
होकर) विचरण करने लगे। हाथोंमें शट्ढु, चक्र, गदा
लिये तथा श्रीवत्सके चिहसे चिहित ( श्रीकृष्ण) योगियोंद्वारा
सेवित, अनेक प्रकारके पक्षिसमूहोंसे व्याप्त मुनीद्ध
शद्धुचक्रगदापाणि: श्रीवत्सकृतलक्षण: ॥ ४॥ | महात्मा उपमन्युके आश्रममें पहुँचे॥१--४॥
न ननन नमन नननन न नमन न» नम नल ट लय नस न «9 +++++> नर पपपए+>+५++++ ७-2 >> 3 3 3 बेल
* जो तपस्या उत्कृष्ट तपस्याके लिये दृष्टान्त होती है, तपस्याकी सत्यताका निकष (कसौटी) होती है, उसे तपस्याका
निदान कहते हैं।
* अध्याय रे४ *
नानाद्रुमलताकीर्ण
ऋषीणामा श्रमैर्जुष्टं
नानापुष्पोपशोभितम् |
वेदघोषनिनादितम्॥ ५ ॥
सिंहर्श्शरभाकीर्ण._ शार्दूलगजसंयुतम् ।
विमलस्वादुपानीयै: सरोभिरुपशोभितम्॥ ६ ॥
आरामैर्विविधेर्जुष्ट देवतायतनै: . शुभे: ।
ऋषिकेैर््षिपुत्रेश्च॒ महामुनिगणैस्तथा॥ ७ ॥
वेदाध्ययनसम्पन्नै: सेवितं चाग्रिहोत्रिभि:।
योगिभिर्ध्याननिरतैर्नासाग्रगतलोचनै: ॥ ८ ॥
उपेतं सर्वतः पुण्यं ज्ञानिभिस्तत्त्वद्शिभि: |
नदीभिरभितो जुष्ट जापकैब्रह्मवादिभि:॥ ९ ॥
सेवितं॑ तापसे: पुण्यैरीशाराधनतत्परे: ।
प्रशान्ते: सत्यसंकल्पैर्नि:शोकैर्निरुपद्रवै: ॥ १० ॥
भस्मावदातसर्वाड्रि:. रुद्रजाप्यपरायणै: ।
मुण्डितेर्जटिलै: शुद्धैस्तथान्यैश्व शिखाजटै: ।
सेवितं तापसैर्नित्यं ज्ञानिभिन्नह्माचारिभि:॥ ११॥
तत्राभ्रमवरे रम्ये सिद्धाश्रमविभूषिते।
गड्डा भगवती नित्यं वहत्येबाघनाशिनी॥ १२॥
स तानन्विष्य विश्वात्मा तापसान् वीतकल्मषान्।
प्रणामेनाथ वचसा पूजयामास माधव: ॥ १३॥
त॑ ते दृष्ठा जगद्योनिं शट्बडुचक्रगदाधरम्।
प्रणेमुर्भक्तिसंयुक्ता योगिनां परमं गुरुम्॥ १४॥
स्तुवन्ति वैदिकैर्मन्त्रे: कृत्वा हदि सनातनम्।
प्रोचुरन्योन्यमव्यक्तमादिदेव॑ महामुनिम्॥ १५॥
अय॑ स॒ भगवानेकः साक्षान्नारायण: परः।
आगच्छत्यधुना देव: पुराणपुरुष: स्वयम्॥ १६॥
अयमेवाव्यय: स्त्रष्टा संहर्ता चैव रक्षक: ।
अमूर्तों मूर्तिमान् भूत्वा मुनीन् द्रष्टमिहागतः ॥ १७॥
एप धाता विधाता च समागच्छति सर्वगः ।
अनादिरक्षयोडनन्तो महाभूतो महेश्वर:॥ १८॥
श्रुत्वा श्रुत्वा हरिस्तेषां वचांसि वचनातिगः ।
ययौ स तूर्ण गोविन्द: स्थान तस्य महात्मन: ॥ १९॥
१५७
वह आश्रम विविध प्रकारके वृक्ष और लताओंसे
व्याप्त, अनेक प्रकारके पुष्पोंसे सुशोभित, ऋषियोंके
आश्रमोंसे युक्त तथा वेदमन्त्रोंकी ध्वनियोंसे निनादित था।
सिंह, भालू, शरभ, व्याप्र और हाथियोंसे व्याप्त था;
स्वच्छ, स्वादयुक्त, पीने योग्य जलवाले सरोवरोंसे सुशोभित
था; विविध प्रकारके उद्यानों तथा शुभ देवमन्दिरोंसे
सम्पन्न था। ऋषियों, ऋषिपुत्रों, महामुनिगणों, वेदाध्ययनसम्पत्न
तथा अग्रिहोत्र करनेवालोंसे सेवित था। नासिकाके अग्रभागमें
जिनकी दृष्टि लगी हुई है, ऐसे ध्यानपरायण योगियोंसे
युक्त, सभी प्रकारसे पवित्र, तत्त्वदर्शी ज्ञानियोंसे सेवित
और चारों ओर नदियोंसे घिरा था। वह आश्रम ब्रह्मवादी
जापकों, शंकरकी आराधनामें निरत पवित्र तपस्वियोंसे
सेवित, सत्यसंकल्पवाले, परम शान्त, शोक तथा
उपद्रवरहित, यथाविधि सभी अड्जोंमें भस्म लगाये हुए
रुद्रके जपमें परायण, मुण्डित या मात्र जटा रखे हुए
तथा जटाके समान शिखावाले अन्य तपस्तवियों, ज्ञानियों
और ब्रह्मचारियोंसे नित्य सेवित था॥५--११॥
वहाँ सिद्धोंके आश्रमोंसे सुशोभित उस रमणीय श्रेष्ठ
आश्रममें पापोंका नाश करनेवाली भगवती गड्ढा नित्य
प्रवाहित रहती थीं। उन विश्वात्मा माधवने उन कल्मषरहित
तपस्वियोंको ढूँढ़-दूँढ़कर उनके समीप जाकर उन्हें सविधि
प्रणाम किया और स्तुतिपूर्वक उनकी पूजा की॥ १२-१३॥
उन शद्'ु, चक्र, गदाधारी, योगियोंके परम गुरु, जगद्योनि
( श्रीकृष्ण)-को देखकर उन्होंने (तपस्वियोंने) भक्तिपूर्वक
प्रणाम किया और अव्यक्त, आदिदेव, महामुनि तथा उन
सनातन (देव)-का हृदयमें ध्यानकर वैदिक मन्त्रोंसे उनकी
स्तुति करने लगे और आपसमें कहने लगे--॥ १४-१५॥
ये वही अद्वितीय परम साक्षात् नारायण भगवान् हैं।
स्वयं पुराणपुरुष देव ही इस समय आये हुए हैं। ये ही
अव्यय हैं, सृष्टि करनेवाले, संहार करनेवाले तथा पालन
करनेवाले ये ही हैं। अमूर्त होते हुए भी ये मूर्तिमान्
होकर मुनियोंको देखनेके लिये यहाँ आये हुए हैं। ये
धाता, विधाता और सर्वव्यापी ही आ रहे हैं। ये अनादि,
अक्षय, अनन्त, महाभूत और महेश्वर हैं॥१६--१८ ॥
वाणीके अगोचर गोविन्द हरि उन (तपस्वियों)-के
वचनोंको सुनते हुए शीघ्र ही उन महात्मा (उपमन्यु)-
के स्थानपर गये॥ १९॥
१५८
उपस्पृश्याथ भावेन तीर्थे तीर्थे स यादव: ।
चकार देवकीसूनुर्देवर्षिपितृतर्पणम्॥ २०॥
नदीनां तीरसंस्थानि स्थापितानि मुनी श्चरैः ।
लिड्रानि पूजयामास शम्भोरमिततेजस: ॥ २१॥
दृष्टा दृष्ठा समायान्तं यत्र यत्र जनार्दनम्।
पूजयाकझ्ञक्रिरे पुष्पैरक्षतेस्तत्र वासिन:॥ २२॥
समीक्ष्य वासुदेवं तं शार्ड्शट्डासिधारिणम् |
तस्थिरे निश्चला: सर्वे शुभाड़ं तन्निवासिन: ॥ २३॥
यानि तत्रारुरुक्षूणां मानसानि जनार्दनम्।
दृष्ठा समाहितान्यासन् निष्क्रामन्ति पुरा हरिम्॥ २४॥
अथावगाह्यम गड़ायां कृत्वा देवादितर्पणम् |
आदाय पुष्पवर्याणि मुनीन्द्रस्याविशद् गृहम्॥ २५ ॥
दृष्ठा तं योगिनां श्रेष्ठ भस्मोद्धूलितविग्रहम् ।
जटाचीरधरं शान्तं ननाम शिरसा मुनिम्॥ २६॥
आलोक्य कृष्णमायान्तं पूजयामास तत्त्ववित्
आसने चासयामास योगिनां प्रथमातिथिम्॥ २७॥
उबाच बचयसां योनिं जानीम: परम॑ पदम्।
विष्णुमव्यक्तसंस्थानं शिष्यभावेन संस्थितम्॥ २८ ॥
स्वागतं ते हषीकेश सफलानि तपांसि नः।
यत् साक्षादेव विश्वात्मा मदगेहं विष्णुरागत: ॥ २९॥
त्वां न पश्यन्ति मुनयो यतन्तो5पि हि योगिन: ।
तादृशस्याथ भवतः किमागमनकारणम्॥ ३०॥
श्रुत्वोपमन्योस्तद् वाक्यं भगवान् केशिमर्दन: ।
व्याजहार महायोगी बचनं प्रणिपत्य तम्॥ ३१॥
श्रीकृष्ण उवाच
भगवन् द्रष्टमच्छामि गिरीशं कृत्तिवाससम् ।
सम्प्राप्तो भवतः स्थानं भगवददर्शनोत्सुकः ॥ ३२॥
कथं स भगवानीशो दृश्यो योगविदां वरः |
मयाचिरेण कुत्राहं द्रक्ष्यामि तमुमापतिम्॥ ३३॥
* कूर्मपुराण *
उन यदुवंशी देवकीपुत्र श्रीकृष्णने प्रत्येक तीर्थमें
श्रद्धापूर्वोक आचमनकर (मार्जनकर) देवता, ऋषि और
पितरोंका तर्पण किया और मुनीश्वरोंके द्वारा नदियोंके
किनारे स्थापित अमिततेजस्वी शंकरके लिड्डरोंकी पूजा
की॥ २०-२१॥
वहाँके निवासियोंने जहाँ-जहाँ भी जनार्दनको
आते हुए देखा, वहाँ-वहाँ पुष्पों तथा अक्षतोंसे उनको
पूजा की। शार््र्धनुष, शट्डु तथा असि धारण करनेवाले
एवं शुभ अड्जोंवाले उन वासुदेवका दर्शनकर वहाँ
रहनेवाले सभी निश्चल-से खड़े हो गये। वहाँ (योगमें)
आरूढ़ होनेके इच्छुक जिन लोगोंके मन समाधिस्थ
थे, वे भी जनार्दन हरिको अपने सम्मुख देखकर उनका
दर्शन करनेके लिये अपनी इन्द्रियोंकों बहिर्मुख कर
लिये॥ २२-- २४ ॥
इधर श्रीकृष्णने गड़ामें अवगाहन करनेके पश्चात्
देवताओं, पितरों आदिका दर्शन, तर्पण आदि कर
उत्तमोत्तम पुष्प आदि लेकर श्रेष्ठ मुनि (उपमन्यु)-के
गृहमें प्रवेश किया। योगियोंमें श्रेष्ठ, भस्मसे अवलिप्त
शरीरवाले, जटा और चीरधारी उन शान्त मुनिको देखकर
( श्रीकृष्णने) सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया॥ २५-२६॥
कृष्णको आते हुए देखकर तत्त्वज्ञ उन मुनिने
योगियोंके प्रथम पूज्य उन्हें आसनपर बिठाया और
उनकी पूजा की॥ २७॥
(मुनिने कहा-- )हम जानते हैं कि वाणीके उत्पत्ति-
स्थान, परमपदरूप, अव्यक्त शरीरवाले विष्णु शिष्यके
रूपमें उपस्थित हुए हैं। हषीकेश ! आपका स्वागत है,
हमारे तप सफल हुए जो साक्षात् विश्वात्मा विष्णु ही
मेरे घर आये हैं। प्रयत्न करते हुए भी योगी तथा मुनिजन
आपको देख नहीं पाते, ऐसे आपके यहाँ आनेका
प्रयोजन क्या है? उपमन्युके उस वाक्यकों सुनकर
केशीका मर्दन करनेवाले महायोगी भगवानने उन्हें
प्रणामकर कहा--॥ २८--३१॥
श्रीकृष्ण बोले-- भगवन्! भगवान् शंकरके दर्शनोंके
लिये उत्सुक में आया हूँ। कृत्तिवासा गिरीश (भगवान्
शंकर)-का दर्शन करनेकी मेरी उत्कट इच्छा है।
योगविदोंमें श्रेष्ठ भगवान् ईशका शीघ्र ही कैसे दर्शन कर
सकता हूँ. उन उमापतिको मैं कहाँ देख पारऊँगा॥ ३२-३३॥
* अध्याय रे *
इत्याह भगवानुक्तो दृश्यते परमेश्वर:।
भकत्या चोग्रेण तपसा तत्कुरुष्वेह यत्नत: ॥ ३४॥
इहेश्वर॑ देवदेवं॑ मुनीन्द्रा ब्रह्मवादिन:।
ध्यायन्तो5त्रासते देवं जापिनस्तापसाश्च ये॥ ३५॥
इह देव: सपत्नीको भगवान् वृषभध्वज:।
क्रीडते विविधेर्भूतर्योगिभि: परिवारितः॥ ३६॥
इहाश्रमे पुरा रुद्रात् तपस्तप्त्वा सुदारुणम्
लेभे महेश्वराद् योगं वसिष्ठो भगवानृषि:॥ ३७॥
इहैव भगवान् व्यास: कुष्णद्वैपायन: प्रभु: ।
दृष्ठा त॑ परमं ज्ञानं लब्धवानीथश्वरेश्वरम्॥ ३८ ॥
इहाअश्रमवरे रम्ये तपस्तप्त्वा कपर्दिन:ः।
अविन्दत् पुत्रकान् रुद्रात् सुरभिर्भक्तिसंयुता॥ ३९॥
इहव देवता: पूर्व कालाद् भीता महेश्वरम् ।
दृष्टवन्तो हर॑ श्रीमन्निर्भया निर्वतिं ययु:॥ ४०॥
इहाराध्य महादेव सावर्णिस्तपतां वरः।
लब्धवान् परम योगं ग्रन्थकारत्वमुत्तमम्॥ ४९१ ॥
प्रवर्तयामास शुभां कृत्वा वे संहितां द्विज: ।
पौराणिकोीं सुपुण्यार्था सच्छिष्येषु द्विजातिषु॥ ४२ ॥
इहेव संहितां दृष्ठा कापेय: शांशपायन:।
महादेव॑ चकारेमां पौराणीं तन्नियोगतः:।
द्वादशैव सहस्त्राणि श्लोकानां पुरुषोत्तम ॥ ४३॥
इह प्रवर्तिता पुण्या द्ृग्रष्टसाहस्त्रिकोत्तरा।
वायवीयोत्तरं नाम पुराणं वेदसम्मितम्।
इहैव ख्यापितं शिष्यै: शांशपायनभाषितम्॥ ४४ ॥
याज्ञवल्क्यो महायोगी दृष्ठात्र तपसा हरम्।
चकार ततन्नियोगेन योगशास्त्रमनुत्तमम्॥ ४५ ॥।
इहैव भृगुणा पूर्व तप्त्वा वै परम तपः।
शुक्रो महे श्वरात् पुत्रो लब्धो योगविदां वर: ॥ ४६ ॥
तस्मादिहेव देवेशं तपस्तप्त्वा महेश्वरम्।
द्रष्टमहसि विश्वेशमुग्र॑ भीम॑ कपर्दिनम्॥ ४७॥
एवमुक्त्वा ददौ ज्ञानमुपमन्युर्महामुनि:।
ब्रतं पाशुपतं योगं कृष्णायाक्लिष्टकर्मणे ॥ ४८ ॥
१५९
ऐसा कहे जानेपर भगवान् (उपमन्यु)-ने कहा--
तीत्र भक्ति एवं तपस्याके द्वारा वे परमेश्वर देखे जा
सकते हैं, इसलिये ऐसा हीं प्रयत्न करो। ब्रह्मवादी
मुनीन्द्र जप करनेवाले तथा जो तपस्वी हैं वे, यहाँ उन
देव ईश्वर देवाधिदेवका ध्यान करते हुए निवास कर रहे
हैं । यहाँ भगवान् देव वृषभध्वज पत्नी (पार्वती )-सहित
तथा विविध भूतों और योगियोंसे घिरे हुए सदा क्रीड़ा
करते हैं॥ ३४--३६॥
प्राचीन कालमें इस आश्रममें कठोर तप करके
भगवान् वसिष्ठ ऋषिने महेश्वर रुद्रसे योग प्राप्त किया
था। यहीं प्रभु कृष्णद्वैपायन भगवान् व्यासने उन ईश्वरोंके
भी ईश्वर (भगवान् शंकर)-का दर्शनकर परम ज्ञान प्राप्त
किया था। इसी रमणीय श्रेष्ठ आश्रममें सुरभिने भक्तिपूर्वक
तपस्या करके जटाधारी रुद्रसे पुत्रोंको प्राप्त किया था।
पूर्वकालमें कालसे भयभीत देवताओंने यहींपर श्रीमान्
हर (महाकाल) -का दर्शनकर भयसे रहित होकर शान्ति
प्राप्त की थी | तपस्वियोंमें श्रेष्ठ द्विज सावर्णिने यहींपर महादेवकी
आराधना करके परम योग तथा उत्तम ग्रन्थरचनाकी शक्ति
प्राप्त की थी। तभी उन्होंने कल्याणकारिणी सुन्दर पुण्य
प्रदान करनेवाली पुराणसंहिताका निर्माणकर सतू-शिष्यों
और द्विजातियोंमें उसका प्रवर्तन किया॥ ३७--४२॥
पुरुषोत्तम |! इसी स्थानपर कापेय शांशपायनने महादेवका
दर्शनकर उनकी आज्ञा प्रात करके बारह हजार श्लोकोंवाली
इस (कूर्मरूपधारी भगवान् विष्णुके द्वारा वर्णित)
पुराणसंहिताका निर्माण किया। वेदसम्मत पुण्य
वायवीयपुराणसंहिताका सोलह हजार श्लोकोंवाला उत्तरभाग
यहींपर प्रवर्तित हुआ। यहींपर शांशपायनद्वारा कही गयी
पुराणसंहिताका प्रचार उनके शिष्योंने किया॥ ४३-४४॥
महायोगी याज्ञवल्क्यने यहींपर तपस्याद्वारा शंकरका
दर्शन करके उनकी आज्ञासे श्रेष्ठ योगशास्त्रका निर्माण
किया था। पूर्वकालमें भृगुने यहीं परम तप करके
महेश्वरसे योगज्ञोंमें श्रेष्ठ शुक्र नामक पुत्रको प्राप्त किया
था। इसलिये यहींपर तपस्या करके देवताओंके ईश,
महेश्वर विश्वेश, उग्र, भीम कपर्दीका आप दर्शन करें।
ऐसा कहकर महामुनि उपमन्युने सुन्दर कर्म करनेवाले
कृष्णको पाशुपत-योग, पाशुपत-ब्रत और पाशुपत-ज्ञान
प्रदान किया ॥ ४५--४८ ॥
१६०
स॒तेन मुनिवर्येण व्याहतो मधुसूदनः।
तत्रैव तपसा देवं रुद्रमाराधयत् प्रभु: ॥ ४९॥
भस्मोद्धूलितसर्वाड्रो मुण्डो वलल््कलसंयुत: ।
जजाप रुद्रमनिशं शिवैकाहितमानसः ॥ ५०॥
ततो बहुतिथे काले सोम: सोमार्थभूषण: |
अदृश्यत महादेवो व्योम्नि देव्या महेश्वर:॥ ५१॥
किरीटिनं गदिनं चित्रमालं
पिनाकिनं शूलिनं देवदेवम्।
शार्दूलचर्माम्बरसंवृताडूं
देव्या महादेवमसौ
परश्रधासक्तकरं त्िनेत्रं
नृसिंहचर्मावृतसर्वगात्रम् |
समुदगिरन्तं प्रणवं बृहन्तं
सहस्त्रसूर्यप्रतिम॑
प्रभुं पुराणं पुरुषं पुरस्तात्
सनातन योगिनमीशितारम्।
अणोरणीयांसमनन्तशक्ति
प्राणेश्वंं शम्भुमसौ ददर्श॥ ५४॥
न यस्य देवा न पितामहो5पि
नेन्द्रो न चाग्रिर्वरूणो न मृत्यु:।
प्रभावमद्यापि वदन्ति रुद्ध
दर्दर्श॥ ५२॥
दर्दर्श ॥ ५३॥
तमादिदेव॑ पुरतो दर्दर्शा। ५५॥
तदान्वपश्यद् गिरिशस्य॒वामे
स्वात्मानमव्यक्तमनन्तरूपम्ू _।
स्तुवन्तमीशं बहुभिर्वचोभि:
शद्डासिचक्रार्पितहस्तमाद्ममू_॥ ५६॥
कृताज्जलिं दक्षिणत: सुरेशं
हंसाधिरूलं॑ पुरुष॑ ददर्श।
स्तुवानमीशस्य ॒परं प्रभाव॑
पितामह॑ लोकगुरुं दिविस्थम्॥ ५७॥
गणेश्वरानर्कसहसत्रकल्पान्
नन्दी श्वरादीनमितप्रभावान् ।
त्रिलोकभर्तुः पुरतोडन्वपश्यत्
कुमारमग्मिप्रतिमं सशाखम्॥ ५८ ॥
न कूर्मपुराण
उन श्रेष्ठ मुनिके कहनेसे वे प्रभु मधुसूदन वहींपर
तपस्याद्वारा रुद्रकी आराधना करने लगे। सभी अड्ोंमें
यथाविधि भस्म धारण करके, मुण्डित एवं वल्कल
वस्त्रधारी होकर अनन्य-मनसे शिवमें चित्तको समाहितकर
निरन्तर रुद्रसम्बन्धी मन्त्रोंका जप करने लगे। तदनन्तर
बहुत समय बीत जानेके बाद अर्धचन्द्रमाको आभूषणरूपमें
धारण किये सोमरूप महादेव महेश्वर देवी पार्वतीके
साथ आकाशमें दिखलायी पड़े॥४९--५१॥
उन श्रीकृष्णने मुकुट, गदा, त्रिशूल, पिनाकधनुष
तथा चित्र-विचित्र माला धारण किये हुए, सिंहके चर्म-
रूपी वस्त्रसे समस्त अड्रोंको आच्छादित किये हुए
देवाधिदेव महादेवको देवी पार्वतीके साथ देखा। हाथमें
परशु धारण किये हुए, नृसिंहके चर्मसे आच्छादित
शरीरवाले, प्रणवका उच्चारण कर रहे तथा सहतसरों
सूर्योके समान श्रेष्ठ त्रिलोचन-- भगवान् शंकरका श्रीकृष्णने
दर्शन किया। उन्होंने ( श्रीकृष्णने) अपने समक्ष पुराणपुरुष,
सनातन प्रभु, योगी, ईश्वर, अणुसे भी सूक्ष्म, अनन्तशक्तियुक्त
प्राणेश्वर शम्भुको देखा। जिन (रुद्र)-के प्रभावका
देवता, पितामह, इन्द्र, अग्नि, वरुण तथा यम भी
आजतक वर्णन नहीं कर पाये, उन आदिदेवको
श्रीकृष्णेन सामने देखा। उस समय उन्होंने भगवान्
शंकरके वामभागमें शझ्लु, तलवार तथा चक्र धारण किये
आत्मरूप, अव्यक्त, अनन्त तथा अनन्तरूपवाले आदिदेव
(विष्णु)-को देखा। वे भी बहुत-सी स्तुतियोंके द्वारा
ईश (शंकर)-की ही स्तुति कर रहे थे॥५२--५६॥
उन (भगवान् शंकर)-के दक्षिण भागमें उन्होंने
(श्रीकृष्णने) हंसपर आसीन, अत्यन्त प्रभाववाले, देवताओंके
स्वामी लोकगुरु पितामहको आकाशमें हाथ जोड़े हुए
ईशकी स्तुति करते देखा। उन्होंने (श्रीकृष्णने) तीनों
लोकोंके स्वामी (श्रीशंकर)-के सम्मुख हजारों सूर्योंके
समान गणेश्वरों, अमित प्रभाववाले नन्दीश्वरादिकों तथा
मयूरसहित अग्नि-सदृश कुमार कार्तिकेयको देखा ॥ ५७-५८॥
* अध्याय रहें *
मरीचिमत्रिं पुलहं पुलस्त्य॑
प्रचेतसं। दक्षमथापि कण्वम्।
पराशरं तत्परतो वसिष्ठे
स्वायम्भुवं॑ चापि मनुं दरदर्श॥ ५९॥
तुष्टाव मन्त्रेरमरप्रधानं
बद्धाञ्जलियवविष्णुरुदारबुद्धि: ।
प्रणम्य देव्या गिरिशं सभकक्त्या
स्वात्मन्यथात्मानमसौ विचिन्त्य॥ ६० ॥
श्रीकृष्ण उवाच
नमोउस्तु ते शाश्रत सर्वयोने
ब्रह्माधिपं._ त्वामृषयो वबदन्ति।
तपश्च सत्त्वं च रजस्तमश्च
त्वामेव सर्व प्रवदन्ति सन््तः॥ ६१॥
त्वं ब्रह्मा हरिरथ विश्वयोनिरग्रि:
संहर्ता दिनकरमण्डलाधिवास: |
प्राणस्त्वं हुतवहवासवादिभेद-
स्त्वामेके शरणमुपैमि देवमीशम्॥ ६२॥
सांख्यास्त्वां विगुणमथाहुरेकरूप॑
योगास्त्वां सततमुपासते हृदिस्थम् ।
वेदास्त्वामभिदधतीह रुद्रमग्निं
त्वामेके शरणमुपैमि देवमीशम्॥ ६३ ॥
त्वत्पादे कुसुममथापि पत्रमेक॑
दत्त्वासौ भवति विमुक्तविश्वबन्ध: ।
सर्वाघं प्रणुदति सिद्धयोगिजुष्टं
स्मृत्वा ते पदयुगलं भवत्प्रसादात्॥ ६४॥
यस्याशेषविभागहीनममलं हृद्यन्तरावस्थितं
तत्त्वं ज्योतिरनन्तमेकमचल सत्य पर सर्वगम् ।
स्थान प्राहुरनादिमध्यनिधन यस्मादिदं जायते
नित्यं त्वाहमुपैमि सत्यविभवं विए्वेश्वरं तं शिवम्॥ ६५॥
3३» नमो नीलकण्ठाय त्रिनेत्राय च रहसे।
महादेवाय ते नित्यमीशानाय नमो नमः॥ ६६॥
नमः पिनाकिने तुभ्यं नमो मुण्डाय दण्डिने।
नमस्ते वज्हस्ताय दिग्वस्त्राय कपर्दिने॥ ६७॥
१६१
उनके पीछेकी ओर मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य,
प्रचेता, दक्ष, कण्व, पराशर, वसिष्ठ तथा स्वायम्भुव
मनुको भी देखा॥ ५९॥
उन उदार बुद्धिवाले विष्णु (कृष्ण)-ने भक्तिपूर्वक
हाथ जोड़ते हुए देवी पार्वतीसहित शंकरको प्रणाम किया
तथा अपने हृदयमें आत्म-स्वरूपका ध्यानकर देवताओंमें
प्रधान शंकरकी मन्त्रोंद्वारा स्तुति कौ--॥ ६० ॥
श्रीकृष्ण बोले--शाश्रत! सबके मूलकारण!
आपको नमस्कार है। ऋषिलोग आपको ब्रह्माका भी
अधिपति कहते हैं| संतजन तप, सत्त्व, रज एवं तमोगुण
और सब कुछ आपको ही बतलाते हैं। आप ब्रह्मा,
विष्णु, विश्वयोनि, अग्नि, संहर्ता और सूर्यमण्डलमें
निवास करनेवाले हैं। प्राण, हुतवह (अग्नि) तथा
इन्द्रादि विविध देव आप ही हैं। मैं अद्वितीय देव
ईशकी शरणमें आया हूँ। सांख्यशास्त्रवाले आपको
एकरूप और गुणातीत कहते हैं। योगिजन हृदयमें
रहनेवाले आपकी सतत उपासना करते हैं। वेद आपको
रुद्र, अग्न नामसे कहते हैं। में आप ईशदेवकी शरणमें
आया हूँ॥६१--६३॥
मनुष्य आपके चरणमें मात्र एक पुष्प अथवा एक
बिल्वपत्र ही चढ़ाकर संसार-बन्धनसे विमुक्त हो जाता
है। सिद्धों तथा योगियोंद्वारा सेवित आपके चरणकमलोंका
स्मरणकर आपको कृपासे मनुष्य सभी पापोंको विनष्ट
कर डालता है। तत्त्वज्ञ लोग जिन्हें सभी प्रकारके विभागसे
रहित, निर्मल, अन्तरईदयमें अवस्थित, ज्योति, अनन्त,
अद्वितीय, अचल, सत्य, पर, सर्वव्यापी तथा आदि, मध्य
और अन्तसे रहित स्थानरूप कहते हैं और यह (संसार)
जिनसे उत्पन्न होता है, ऐसे आप सत्यविभव, सनातन
विश्वेश्वरर शिवकी शरणमें मैं आया हूँ॥ ६४-६५ ॥
प्रणवरूप नीलकण्ठ, त्रिलोचन और शक्तिरूप आपको
नमस्कार है। आप महादेव तथा नित्य ईशानको बार-बार
नमस्कार है। पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले आपको
नमस्कार है, मुण्ड और दण्ड धारण करनेवाले आपको नमस्कार
है। हाथमें वज्र धारण करनेवाले, दिशारूपी वस्त्रवाले कपर्दी
(जटाधारी ) आपको नमस्कार है॥ ६६-६७ ॥
१५६२
नमो भेरवनादाय कालरूपाय दंछ्टिणे।
नागयज्ञोपवीताय नमस्ते वहिरेतसे॥ ६८ ॥
नमोउस्तु ते गिरीशाय स्वाहाकाराय ते नम: ।
नमो मुक्ताइहासाय भीमाय च नमो नमः ॥ ६९॥
नमस्ते कामनाशाय नमः कालप्रमाथिने।
नमो भेरववेषाय हराय चर निषड्धिणे॥ ७०॥
नमोस्तु ते त््यम्बकाय नमस्ते कृत्तिवाससे |
नमोउम्बिकाधिपतये पशूनां पतये नमः॥ ७१॥
नमस्ते व्योमरूपाय व्योमाधिपतये नम: ।
नरनारीशरीराय सांख्ययोगप्रवर्तिने ॥ ७२॥।
नमो दैवतनाथाय देवानुगतलिड़िने।
कुमारगुरवे तुभ्यं देवदेवाय ते नमः॥ ७३॥
नमो यज्ञाधिपतये नमस्ते ब्रह्मचारिणे।
मृगव्याधाय महते ब्रह्माधिपतये नमः॥ ७४॥
नमो हंसाय विश्वाय मोहनाय नमो नमः ।
योगिने योगगम्याय योगमायाय ते नमः ॥ ७५७॥
नमस्ते प्राणपालाय घण्टानादप्रियाय च।
कपालिने नमस्तुभ्यं ज्योतिषां पतये नमः ॥ ७६॥
नमो नमो नमस्तुभ्यं भूय एवं नमो नम: ।
महां सर्वात्मना कामान् प्रयच्छ परमेश्वर॥ ७७॥
एवं हि भक्त्या देवेशमभिष्टय स माधव: ।
पपात पादयोर्विप्रा देवदेव्यो: स दण्डवत्॥ ७८॥
उत्थाप्य भगवान् सोम: कृष्णं केशिनिष्दनम्।
बभाषे मधुरं वाक्यं मेघगम्भीरनि:स्वन:॥ ७९॥
रे कूर्मपुराण कं
भयंकर नाद करनेवाले तथा दाढ़वाले कालस्वरूप
आपको नमस्कार है। नागोंको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण
करनेवाले और अग्रिस्वरूप वीर्यवाले आपको नमस्कार
है। गिरीश! आपको नमस्कार है, स्वाहाकार! आपको
नमस्कार है, उन्मुक्त अट्टटास करनेवाले आपको नमस्कार
है और भीमरूप आपको बार-बार नमस्कार है।
कामदेवका विनाश करनेवाले आपको नमस्कार है,
कालका मन्थन करनेवाले आपको नमस्कार है, भयानक
वेष धारण करनेवाले आपको नमस्कार है और निषड्भ
(तरकस)-धारी हरको नमस्कार है॥६८--७० ॥
तीन आँखोंवाले आपको नमस्कार है, गजदचर्म
धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। अम्बिकाके
स्वामीको नमस्कार है और पशुपतिको नमस्कार है।
आकाशरूप आपको और आकाशके अधिपतिको नमस्कार
है। नर और नारीका शरीर धारण करनेवाले अर्धनारीश्वर
तथा सांख्य और योगका प्रवर्तन करनेवाले आपको
नमस्कार है। देवताओंके स्वामी और देवताओंद्वारा
आराधित लिड़वाले आपको नमस्कार है। कुमारके गुरु
(कार्तिकियके पिता) आपको तथा देवाधिदेव आपको
नमस्कार है। यज्ञके अधिपतिको नमस्कार है, ब्रह्मचारीको
नमस्कार है। महान् मृगव्याध तथा ब्रह्माधिपतिको
नमस्कार है। हंसरूपको नमस्कार है, विश्वरूप तथा
मोहित करनेवालेको बार-बार नमस्कार है। योगी,
योगसे प्राप्त होने योग्य तथा योग ही जिनकी माया है
ऐसे आपको नमस्कार है॥ ७१--७५॥
प्राणोंका पालन करनेवाले (प्राणिमात्रके प्राणरक्षक)
और घंटानादप्रियको नमस्कार है। कपाली आपको
नमस्कार है, नक्षत्रोंके स्वामीको नमस्कार है। आपको
नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है, पुन: आपको
बार-बार नमस्कार है। परमेश्वर! आप मेरी अभीष्ट
इच्छाओंको सभी प्रकारसे मुझे प्रदान करें॥ ७६-७७॥
विप्रो! इस प्रकार वे माधव भक्तिपूर्वक देवेशकी
स्तुतिकर देव और देवी अर्थात् शंकर-पार्वतीके चरणोंमें
दण्डवत् गिर पड़े। मेघके समान गम्भीर ध्वनिवाले
भगवान् शंकरने केशीको मारनेवाले कृष्णको उठाकर
मधुर वचन कहा-- ॥ ७८-७९ ॥
* अध्याय रहें *
किमर्थ पुण्डरीकाक्ष तपस्तप्तं त्वयाव्यय।
त्वमेव दाता सर्वेषां कामानां कामिनामिह ॥ ८०॥
त्वं हि सा परमा मूर्तिर्मम नारायणाह्यया।
नानवाप्तं त्वया तात विद्यते पुरुषोत्तम॥ ८१॥
वेत्थ नारायणानन्तमात्मानं परमेश्वरम् ।
महादेवं॑ महायोगं स्वेन योगेन केशव॥ ८२॥
श्रुत्वा तद्वचनं कृष्ण: प्रहसन् वै वृषध्वजम्।
उबाच वीक्ष्य विश्वेशं देवीं च हिमशेिलजाम्॥ ८३॥
ज्ञातं हि भवता सर्व स्वेन योगेन शंकर।
इच्छाम्यात्मसमं पुत्र त्वद्धक्ते देहि शंकर॥ ८४॥
तथास्त्वित्याह विश्वात्मा प्रहष्टमनसा हरः।
देवीमालोक्य गिरिजां केशवं परिषस्वजे॥ ८५॥
ततः सा जगतां माता शंकरार्धशरीरिणी।
व्याजहार हषीकेशं देवी हिमगिरीन्द्रजा॥ ८६॥
वत्स जाने तवानन्तां निश्चलां सर्वदाच्युत।
अनन्यामीश्वरे भक्तिमात्मन्यपि च केशव ॥ ८७॥
त्वं हि नारायण: साक्षात् सर्वात्मा पुरुषोत्तम: ।
प्राथितो दैवते: पूर्व संजातो देवकीसुत:॥ ८८ ॥
पश्य त्वमात्मनात्मानमात्मीयममलं पदम्।
नावयोर्विद्यते भेद एकं पश्यन्ति सूरय:॥ ८९॥
इमानिमान् वरानिष्टान् मत्तो गृह्लीष्व केशव ।
सर्वज्ञत्वं तथेश्वर्य ज्ञानं तत् पारमेश्वरम्।
ईश्वरे निश्चलां भक्तिमात्मन्यपि पर बलम्॥ ९०॥
एवमुक्तस्तया कृष्णो महादेव्या जनार्दन:।
आशिषं शिरसागृह्ाद देवो5प्याह महेश्वर: ॥ ९१॥
प्रगृह् कृष्णं भगवानथेशः
करेण देव्या सह देवदेवः।
सम्पूज्यमानो मुनिभिः सुरेशै-
जगाम कैलासगिरिं गिरीशः:॥ ९२॥
१६३
पुण्डरीकाक्ष! अव्यय! आपने तप क्यों किया
है। (क्योंकि) आप ही कामना करनेवालोंकी सभी
कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। आप ही मेरी नारायण
नामवाली परम मूर्ति हैं। पुरुषोत्तम ! तात! आपके लिये
कुछ भी अप्राप्य नहीं है। केशव! अपने योगद्वारा आप
अपनेको नारायण, अनन्त, परमेश्वर, महादेव और
महायोगी जानें॥ ८०--८२॥
उनका वह वचन सुनकर हँसते हुए श्रीकृष्णने
विश्वेध्र तथा हिमालय-पुत्री देवी पार्वतीकी ओर
देखकर वृषध्वज शंकरसे कहा--प्रभो शंकर! आपको
अपने योगद्वारा सब कुछ ज्ञात है। में अपने ही समान
ऐसा पुत्र चाहता हूँ, जो आपका भक्त हो, श्रीशंकर! आप
मुझे प्रदान करें। प्रसन्न-मन होकर विश्वात्मा हरने
'तथास्तुः! ऐसा कहकर और देवी पार्वतवीकी ओर
देखकर केशवका आलिड़्नन किया॥ ८३--८५॥
तदनन्तर शंकरके आधे शरीरमें स्थित, संसारकी
माता हिमालय पर्वतकी पुत्री देवी (पार्वती) हषीकेशसे
बोलीं। अच्युत! केशव! वत्स! में ईश्वर (शंकर)-
में तथा मुझमें भी सर्वदा रहनेवाली आपकी अनन्त,
निश्चवल और अनन्य भक्तिको जानती हूँ। आप ही साक्षात्
नारायण और सर्वात्मा पुरुषोत्तम हैं । पूर्वकालमें देवताओंके
द्वारा प्रार्था किये जानेपर आप देवकीके पुत्रके रूपमें
उत्पन्न हुए थे। आप अपने आत्मरूपको तथा अपने
निर्मल पदको स्वयं देखें। हम दोनोंमें कोई भेद नहीं
है। विद्वानू लोग (हम दोनोंको) एक रूपसे देखते हैं।
केशव! आप इन अभीष्ट वरोंको मुझसे ग्रहण करें। आपको
सर्वज्ञता, ऐश्वर्य, वह परमेश्रर-सम्बन्धी ज्ञान, शिवमें निश्चल
भक्ति तथा अपनेमें श्रेष्ठ बल प्राप्त हो॥ ८६--९० ॥
उन महादेवीके द्वारा ऐसा कहे जानेपर जनार्दन
कृष्णने उनके (वररूपी) आशीर्वादको शिरोधार्य किया।
देव महेथ्वरने भी कृष्णसे ऐसा ही कहा अर्थात्
आशीर्वाद प्रदान किया। तब देवताओं तथा मुनियोंसे
पूजित होते हुए देवाधिदेव गिरीश भगवान् शंकर
कृष्णका हाथ पकड़कर देवी पार्वतीके साथ कैलास
पर्वतपर चले गये॥ ९१-९२॥
ड्रति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहम्रां संहितायां पूर्विविभागे च॒तुर्विशो5ध्यायः ॥ २४॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें चौबीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २४॥
१६४
र कूर्मपुराण मं
पचीसवां अध्याय
श्रीकृष्णका कैलास पर्वतपर विहार करना, श्रीकृष्णको द्वारका बुलानेके लिये गरुडका
कैलासपर जाना, श्रीकृष्णका द्वारका-आगमन, द्वारकामें श्रीकृष्णका स्वागत तथा उनका
दर्शन करनेके लिये देवताओं तथा मार्कण्डेय आदि मुनियोंका आना, कृष्णके द्वारा
महर्षि मार्कण्डेयको शिव-तत्त्व तथा लिड्भर-तत्त्वका माहात्म्य बतलाना तथा
स्वयं शिवका पूजन करना, ब्रह्मा-विष्णुद्वारा शिवके महालिड्रका
दर्शन तथा लिड्डस्तुति, लिड्ररर्चनका प्रवर्तन
सूत उवाच
प्रविश्य मेर॒शिखरं कैलासं कनकप्रभम्।
रराम भगवान् सोम: केशवेन महेश्वर:॥ १ ॥
अपश्यंस्तं महात्मानं कैलासगिरिवासिन: |
पूजयाझ्ञक्रिरे कृष्णं देवदेवमथाच्युतम्॥ २ ॥
चतुर्बाहुमुदाराड्रं कालमेघसमप्रभम् |
किरीटिनं शार्ड्रपाणिं श्रीवत्साड्डितवक्षसम् ॥।
दीर्घबाहुं विशालाक्षं पीतवाससमच्युतम्।
दधानमुरसा मालां वैजयन्तीमनुत्तमाम्॥ ४ ॥
भ्राजमानं श्रिया दिव्यं युवानमतिकोमलम्।
पद्माड्चिनयनं चारूु सुस्मितं सुगतिप्रदम्॥ ५ ॥
कदाचित्् तत्र लीलार्थ देवकीनन्दवर्धन: ।
भ्राजमान: शिया कृष्णश्रचचार गिरिकन्दरे॥ ६ ॥
गन्धर्वाप्सरसां मुख्या नागकन्याश्व कृत्स्नश: ।
सिद्धा यक्षाश्र गन्धर्वास्तत्र तत्र जगन्मयम्॥ ७ ॥
दृष्टाश्चर्य॑परं गत्वा हर्षादुत्फुल्ललोचना:।
मुमुचुः पुष्पवर्षाणि तस्य मूर्धि महात्मन:॥ ८ ॥
गन्धर्वकन्यका दिव्यास्तद्वदप्सरसां वरा:।
दृष्ठा चकमिरे कृष्णं स्त्रस्तवस्त्रविभूषणा:॥ ९ ॥
काश्चिद गायन्ति विविधां गीतिं गीतविशारदा: ।
सम्प्रेक्ष्य देवकीसूनुं सुन्दर्य: काममोहिता: ॥ १०॥
काश्चिद्विलासबहुला नृत्यन्ति सम तदग्रत: ।
सम्प्रेक्ष्य संस्थिता: काश्चित् पपुस्तद्वदनामृतम्॥ ११॥
सूतजी बोले--मेरु शिखरके स्वर्णिम कैलास
पर्वतपर पहुँचकर महेश्वर भगवान् शंकर केशव ( श्रीकृष्ण)-
के साथ विहार करने लगे। कैलास पर्वतपर निवास
करनेवालोंने उन देवाधिदेव, अच्युत, महात्मा श्रीकृष्णको
देखकर उनकी पूजा की। उन्होंने चार भुजावाले, उदार
अज्ेंवाले, प्रलयकालीन मेघके समान प्रभावाले, मुकुटधारी,
हाथमें धनुष धारण किये, श्रीवत्ससे सुशोभित वक्ष:स्थलवाले,
दीर्घ भुजावाले, विशाल नेत्रोंवाले, पीताम्बर धारण किये,
वक्ष:स्थलपर उत्तम वैजयन्तीकी माला धारण किये,
शोभासे सुशोभित दिव्य अति कोमल, युवावस्थावाले,
कमल (वर्ण)-के समान (रक्त) चरण एवं नेत्रवाले,
अत्यन्त सुन्दर, मुसकराते हुए अच्छी गति प्रदान
करनेवाले अच्युत (श्रीकृष्ण)-की पूजा कौ॥ १--५॥
वहाँ किसी समय माता देवकीके आनन्दको बढ़ानेवाले
शोभासम्पन्न श्रीकृष्ण लीलाके निमित्त कैलास पर्वतको
गुहामें विचरण करने लगे। सभी प्रमुख गन्धर्विों,
अप्सराओं, नागकन्याओं, सिद्धों, यक्षों तथा गन्धवोने
वहाँ उन जगन्मय (श्रीकृष्ण)-को देखा और परम
आश्चर्यचकित होकर वे आनन्दसे प्रफुलछित नेत्रवाले हो
गये तथा उन महात्माके मस्तकपर पुष्पोंकी वर्षा करने
लगे। दिव्य गन्धर्वोकी कन्याएँ तथा उसी प्रकार श्रैष्ठ
अप्सराएँ कृष्णको देखकर अव्यवस्थित वस्त्राभूषणवाली
होकर उनकी कामना करने लगीं। गायनमें पारंगत कुछ
सुन्दरियाँ काममोहित होकर देवकीपुत्रकी ओर देखकर
विविध प्रकारके गीत गाने लगीं॥ ६--१०॥
कुछ अत्यन्त विलासप्रिय (कन्याएँ) उनके आगे
नृत्य करने लगीं और कुछ वहीं स्थित होकर उनकी
ओर देखकर उनके वदनामृतका पान करने लगीं॥ ११॥
* अध्याय २५ *
काश्चिद् भूषणवर्याणि स्वाड्रादादाय सादरम् ।
भूषयाज्चक्रिरे कृष्णं कामिन््यो लोकभूषणम्॥ १२॥
काश्चिद् भूषणवर्याणि समादाय तदड्ढतः।
स्वात्मानं भूषयामासु: स्वात्मगैरपि माधवम्॥ १३॥
काश्चिदागत्य कृष्णस्य समीपं काममोहिता: ।
चुचुम्बुर्वदनाम्भोज॑. हरेर्मुग्धमृगेक्षणा: ॥ १४॥
प्रगह्म काश्चिद् गोविन्द करेण भवन स्वकम् |
प्रापयामासुलोकादिं मायया तस्य मोहिता: ॥ १५॥
तासां स भगवान् कृष्ण: कामान् कमललोचन: ।
बहूनि कृत्वा रूपाणि पूरयामास लीलया॥ १६॥
एवं वे सुचिरं कालं देवदेवपुरे हरिः।
रेमे नारायण: श्रीमान् मायया मोहयडञ्जगतू॥ १७॥
गते बहुतिथे काले द्वारवत्यां निवासिन:ः।
बभूवुर्विह्ला भीता गोविन्दविरहे जना:॥ १८॥
ततः सुपर्णो बलवान पूर्वमेव विसर्जित:।
कृष्णेन मार्गमाणस्तं हिमवन्तं ययौ गिरिम्॥ १९॥
अदृष्टा तत्र गोविन्दं प्रणम्य शिरसा मुनिम्।
आजगामोपमन्युं तं पुरी द्वारवतीं पुनः॥ २०॥
तदन्तरे महादेत्या राक्षसाश्चातिभीषणा:।
आजममुरद्वरिकां शुभ्रां भीषयन्त: सहस्त्रश:॥ २१॥
स तान् सुपर्णो बलवान् कृष्णतुल्यपराक्रम: ।
हत्वा युद्धेन महता रक्षति सम पुरीं शुभाम्॥ २२॥
एतस्मिन्नेव काले तु नारदो भगवानृषि:।
दृष्टठा केलासशिखरे कृष्णं द्वारवर्ती गत: ॥ २३॥
त॑ दृष्ठा नारदमृषिं सर्वे तत्र निवासिन:ः।
प्रोचुनरायणो नाथ: कुत्रास्ते भगवान् हरि: ॥ २४॥
स तानुवाच भगवान् कैलासशिखरे हरिः।
रमते5उद्य महायोगिन् त॑ दृष्टाहमिहागत:॥ २५॥
तस्योपश्रुत्य वचन सुपर्ण: पततां वरः।
जगामाकाशगो विप्रा: केलासं गिरिमुत्तमम्॥ २६॥
दरदर्श देवकीसूनुं भवने रलमण्डिते।
वरासनस्थं गोविन्दं देवदेवान्तिके हरिम्॥ २७॥
उपास्यमानममरेंदिव्यस्त्रीेभि: समनन््ततः |
महादेवगणै: सिद्धै्योगिभि: परिवारितम्॥ २८ ॥
५१६७
कुछ कामिनियाँ (कन्याएँ) अपने अड्डोंसे श्रेष्ठ
आभूषणोंको उतारकर उनसे लोकभूषण कृष्णको आदरपूर्वक
आभूषित करने लगीं। कुछ उनके अड्ोंसे श्रेष्ठ आभूषणोंको
लेकर अपनेको तथा अपने आभूषणोंसे माधवको सजाने
लगीं। कतिपय मुग्ध मृगके समान नयनोंवाली काम-
मोहित (कन्याएँ) हरि कृष्णके समीपमें जाकर उनके
मुखकमलका स्पर्श करने लगीं। उनकी मायासे मोहित
कुछ अप्सराएँ लोकोंके आदि कारण गोविन्दका हाथ
पकड़कर उन्हें अपने भवनमें ले गयीं॥ १२--१५॥
उन कमललोचन भगवान् श्रीकृष्णने बहुतसे रूप
धारणकर लीलापूर्वक उनकी अभीष्ट कामनाओंकी पूर्ति
की। इस प्रकार श्रीमानू नारायण हरिने संसारको
(अपनी ) मायासे मोहित करते हुए देवाधिदेव शंकरके
नगरमें बहुत समयतक रमण किया॥ १६-१७॥
बहुत दिन व्यतीत होनेपर द्वारिकापुरीके रहनेवाले
लोग गोविन्दके विरहमें भयभीत एवं विह्ल हो गये।
तब पहले कृष्णद्वारा छोड़ दिये गये बलवान् गरुड
उनको ढूँढ़ते हुए उस हिमालय पर्वतपर गये। वहाँ
गोविन्दको न देखकर उन उपमन्युको विनयपूर्वक
प्रणामकर पुन: द्वारवतीपुरीमें लौट आये। इसी बीच
अत्यन्त भयंकर हजारों महादैत्य तथा राक्षस भय उत्पन्न
करते हुए सुन्दर द्वारकामें आ पहुँचे। कृष्णके समान
पराक्रमवाले बलवान सुपर्ण (गरुड)-ने महान् युद्धद्वारा
उन्हें मारकर उस शुभ पुरीकी रक्षा की॥ १८--२२॥
इसी समय भगवान् नारद ऋषि कैलास शिखरपर
श्रीकृष्णका दर्शनकर द्वारकापुरीमें गये। उन नारद
ऋषिको देखकर वहाँ (द्वारकामें) निवास करनेवाले
सभीने पूछा--' नारायण, नाथ, भगवान् हरि कहाँ हैं ?'
उन्होंने (नारदने) उनसे कहा कि भगवान् हरि कैलास
शिखरपर रमण कर रहे हैं, मैं उन महायोगीको देखकर
आज यहाँ आया हूँ॥ २३--२५॥
विप्रो! उनका वचन सुनकर आकाशमें चलनेवाले
पक्षियोंमें श्रेष्ठ वे गरुड श्रेष्ठ पर्वत कैलासपर गये।
उन्होंने देवकीपुत्र गोविन्द हरिको देवाधिदेव (शंकर)-
के समीप रल्मण्डित भवनमें एक श्रेष्ठ आसनपर
विराजमान देखा। (वहाँ) देवता, दिव्य स्त्रियाँ, महादेवके
गण, सिद्ध तथा योगीजन चारों ओरसे घेरकर उनकी
उपासना कर रहे थे॥ २६--२८॥
५१६८६
प्रणम्य दण्डवद् भूमौ सुपर्ण: शंकरं शिवम्।
निवेदयामास हरेः प्रवृत्ति द्वारके पुरे॥२९॥
ततः प्रणम्य शिरसा शंकरं नीललोहितम्।
आजमगाम पुरी कृष्ण: सो3नुज्ञातो हरेण तु॥ ३०॥
आरुह्य कश्यपसुतं स्त्रीगणैरभिपूजित: ।
वचोभिरमृतास्वादैर्मानोतो.. मधुसूदन: ॥ ३१॥
वीक्ष्य यान्तममित्रघ्न॑ गन्धर्वाप्सरसां वरा:।
अन्वगच्छन् महायोगिन् शट्डुचक्रगदाधरम्॥ ३२ ॥
विसर्जयित्वा विश्वात्मा सर्वा एवाड्रना हरि: ।
ययौ स तूर्ण गोविन्दो दिव्यां द्वारवतीं पुरीम्॥ ३३ ॥
गते मुररिपौ नेव कामिन्यो मुनिपुड्रवा:।
निशेव चन्द्ररहिता विना तेन चकाशिरे॥ ३४॥
श्रुत्वा पौरजनास्तूर्ण कृष्णागमनमुत्तमम्।
मण्डयाक्ञक्रिरे दिव्यां पुरी द्वारवर्ती शुभाम्॥ ३५॥
पताकाभिर्विशालाभिध्ध्वजै रत्नपरिष्कृते: ।
लाजादिभि: पुरी रम्यां भूषयाञ्ञक्रिरे तदा॥ ३६॥
अवादयन्त विविधान् वादित्रान् मधुरस्वनान्।
शद्धान् सहस््रशो दध्मुर्वीणावादान् वितेनिरे॥| ३७॥
प्रविष्टमात्रे गोविन्दे पुरी द्वारवतीं शुभाम्।
अगायन् मधुरं गान॑ स्त्रियो यौवनशालिन: ॥ ३८ ॥
दृष्ठा ननृतुरीशानं स्थिता: प्रासादमूर्धसु।
मुमुचुः पुष्पवर्षाण वसुदेवसुतोपरि॥ ३९॥
प्रविश्य भवन कृष्ण आशीर्वादाभिवर्थित: ।
वरासने महायोगी भाति देवीभिरन्वित:ः॥ ४०॥
सुरम्ये मण्डपे शुभ्रे शब्भाद्देः परिवारितः।
आत्मजैरभितो मुख्य: स्त्रीसहस्त्रैश्न संवृतः ॥ ४१॥
तत्रासनवरे रम्ये जाम्बवत्या सहाच्युतः।
भ्राजते मालया देवो यथा देव्या समन्वित: ॥ ४२ ॥
आजम्मुर्देवगन्धर्वा द्रष्टं लोकादिमव्ययम्।
महर्षयः पूर्वजाता मार्कण्डेयादयो द्विजा:॥ ४३॥
ततः स भगवान् कृष्णो मार्कण्डेयं समागतम्।
ननामोत्थाय शिरसा स्वासन च ददौ हरि: ॥ ४४॥
हम कूर्मपुराण ः
गरुडने कल्याणकारी शंकरको भूमिपर दण्डवत्
प्रणाम किया और द्वारकापुरीका समाचार हरिसे निवेदन
किया। तदनन्तर नीललोहित शंकरको विनय पूर्वक
प्रणामकर और उन हरकी आज्ञा प्राप्तकर स्त्रीसमूहोंद्वारा
पूजित और अमृतके समान मधुर स्वादुयुक्त वचनोंसे
सत्कृत वे मधुसूदन श्रीकृष्ण कश्यपपुत्र गरुडपर
आरूढ़ होकर अपनी पुरीको चले। शंख, चक्र तथा
गदाधारी शन्नुहन्ता महायोगीको जाते हुए देखकर गन्धर्व
तथा श्रेष्ठ अप्सराओंने उनका अनुगमन किया। विश्वात्मा
गोविन्द हरि उन सभी अड्भनाओंको विदाकर शीघ्र ही
उस दिव्य पुरी द्वारवतीको गये॥ २९--३३॥
मुनिश्रेष्ठो | उन मुरारिके चले जानेपर वे कामिनियाँ
चन्द्रमारहित रात्रिके समान शोभाहीन हो गयीं | पुरवासियोंने
श्रीकृष्णफेक आगमनके शुभ समाचारको सुनकर शीतघ्र
दिव्य एवं मड़लमयी द्वारवती पुरीको सुसज्जित किया।
श्रीकृष्णफे आमगनसे अति प्रसन्न द्वारकावासियोंने विशाल
पताकाओं और रत्रोंसे जटित ध्वजों तथा लाजा आदि
माड्नलिक वस्तुओंसे सुन्दर पुरीको सजा दिया। मधुर
स्वरवाले विविध वाद्यों, हजारों शंखों तथा वीणाओंको
वे लोग बजाने लगे। गोविन्दके शुभपुरी द्वारवतीमें प्रवेश
करते ही युवती स्त्रियाँ मधुर स्वरमें गान करने लर्गी।
उन ईशान (कृष्ण)-को देखकर वे नृत्य करने लगीं
और महलोंके ऊपर स्थित स्त्रियाँ वसुदेवपुत्र श्रीकृष्णके
ऊपर फूल बरसाने लगीं॥ ३४--३९ ॥
भवनमें प्रवेशकर महायोगी कृष्ण आशीर्वादोंसे
अभिनन्दित होते हुए अत्यन्त रमणीय शुक््लवर्णके
मण्डपमें स्थित एक श्रेष्ठ आसनपर अपनी पत्नियोंके
साथ सुशोभित हुए। वे चारों ओरसे शट्ढु आदि प्रमुख
पुत्रों तथा हजारों स्त्रियोंसे घिरे हुए थे॥४०-४१॥
वैजयन्ती मालासे विभूषित उस रमणीय श्रेष्ठ
आसनपर अच्युत श्रीकृष्ण जाम्बबतीके साथ उसी
प्रकार सुशोभित हुए जैसे देवी उमाके साथ महादेव।
ब्राह्मणणो! उन अव्यय तथा लोकोंके आदि कारण
( श्रीकृष्ण)-का दर्शन करनेके लिये देवता, गन्धर्व और
पूर्वज मार्कण्डेय आदि महर्षि वहाँ आये। तब उन
भगवान् श्रीकृष्ण हरिने मार्कण्डेयजीको आया देखकर
आसनसे उठकर विनयपूर्वक प्रणाम किया और उन्हें
आसन दिया॥ ४२--४४॥
* अध्याय २५७५ *
सम्पूज्य तानृषिगणान् प्रणामेन महाभुज: ।
विसर्जयामास हरिदत्त्ता तदभिवाज्छितान्॥ ४५ ॥।
तदा मध्याहसमये देवदेव: स्वयं हरिः।
स््नात्वा शुक्लाम्बरो भानुमुपातिष्ठत् कृताज्जलि: ॥ ४६ ॥
जजाप जाप्यं विधिवत् प्रेक्षमाणो दिवाकरम्।
तर्पयामास देवेशो देवान् मुनिगणान् पितृन्॥ ४७॥
प्रविश्य देवभवनं मार्कण्डेयेन चैव हि।
पूजयामास लिड्डस्थं भूतेशं भूतिभूषणम्॥ ४८ ॥
समाप्य नियम सर्व नियन्तासौ नृणां स्वयम् |
भोजयित्वा मुनिवरं ब्राह्मणानभिपूज्य च॥ ४९॥
कृत्वात्मयोगं विप्रेन्द्रा मार्कण्डेयेन चाच्युतः ।
कथा: पौराणिकी: पुण्याश्चक्रे पुत्रादिभिर्वुत: ॥ ५० ॥
अथेतत् सर्वमख्लं दृष्ठा कर्म महामुनिः।
मार्कण्डेयो हसन् कृष्णं बभाषे मधुरं वच: ॥ ५१॥
मार्कण्डेय उवाच
कः समाराध्यते देवो भवता कर्मभि: शुभे: ।
ब्रृहि त्वं कर्मभि: पूज्यो योगिनां ध्येय एव च॥ ५२॥
त्वं हि ततू परमं ब्रह्म निर्वाणममलं पदम्।
भारावतरणार्थाय जातो वृष्णिकुले प्रभु:॥ ५३॥
तमब्रवीन्महाबाहु: कृष्णो ब्रह्मविदां बरः।
श्रुण्वतामेव॒पुत्राणां सर्वेषां प्रहसन्निव॥ ५४॥
श्रीभगवानुवाच
भवता कथितं सर्व तथ्यमेव न संशय: ।
तथापि देवमीशानं पूजयामि सनातनम्॥ ५५॥
न मे विप्रास्ति कर्तव्यं नानवाप्तं कथउ्चन।
पूजयामि तथापीशं जानन्नेतत् परं शिवम्॥ ५६॥
न वे पश्यन्ति तं देव॑ मायया मोहिता जना: ।
ततोउहं स्वात्मनो मूलं ज्ञापयन् पूजयामि तम्॥ ५७॥
नच लिक्र्चनात् पुण्य लोकेउस्मिन् भीतिनाशनम् ।
तथा लिड़्रे हितायैषां लोकानां पूजयेच्छिवम्॥ ५८ ॥
१६७
लम्बी भुजाओंवाले हरिने प्रणामके द्वार उन ऋषिगणोंकी
पूजा करके और उनके मनोरथोंको प्रदान करके उन्हें
विदा किया॥ ४५॥
तदनन्तर मध्याहकालमें स्वयं देवाधिदेव हरिने स्नानकर
शुक्ल वस्त्र धारण किये और हाथ जोड़कर सूर्यकी
आराधना की। दिवाकर सूर्यकी ओर देखते हुए उन्होंने
विधिपूर्वक मन्त्रोंका जप किया। उन देवेश्वरने देवताओं,
मुनिगणों और पितरोंका तर्पण किया॥ ४६-४७ ॥
(मुनि) मार्कण्डेयके साथ देवमन्दिरमें प्रवेशकर
उन्होंने लिड्में प्रतिष्ठित भस्मविभूषित भूतेश्वर ( श्रीशंकर)-
की पूजा की। मनुष्योंके नियामक उन्होंने स्वयं सभी
नियमोंको पूर्णकर ब्राह्मणोंकी पूजा की और मुनीश्चर
(मार्कण्डेय)-को भोजन कराया। विप्रेन्द्रों! तदुपरान्त
पुत्रों आदिसे घिरे हुए अच्युतने आत्मनिष्ठ होकर
मार्कण्डेयजीसे पुराणोंकी पुण्यदायिनी कथाको सुना।
इन सारे कर्मोंको देखकर महामुनि मार्कण्डेयने श्रीकृष्णसे
हँसते हुए मधुर वचन कहा-- ॥ ४८--५१॥
मार्कण्डेयजी बोले--(देव!) कर्मोद्दार आपकी
ही पूजा की जाती है और योगियोंके ध्येय भी आप ही
हैं, फिर आप शुभ कमेंके द्वारा किस देवताकी
आराधना कर रहे हैं, यह मुझे बतलायें। आप ही वे
परम ब्रह्म हैं, निर्वाणरूप हैं और निर्मल पद हैं।
(पृथ्वीका) भार उतारनेके लिये आप प्रभु ही वृष्णि-
कुलमें अवतरित हुए हैं। सभी पुत्रोंके सुनते हुए ही
ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महाबाहु कृष्णने उनसे (मार्कण्डेयजीसे )
हँसते हुए कहा-- ॥ ५२--५४॥
श्रीभगवानने कहा--आपने जो कुछ भी कहा, सब
सत्य ही कहा है, इसमें संशय नहीं है तथापि मैं सनातनदेव
ईशान (शंकर)-की पूजा करता हूँ। विप्र! मुझे न तो
कुछ करना है और न मुझे कुछ अप्राप्त है, फिर भी यह
जानते हुए भी मैं परम शिव ईशकी पूजा करता हूँ। मायासे
मोहित लोग उन देव (शंकर)-का साक्षात्कार नहीं कर
पाते। परंतु मैं अपने मूलका* परिचय देते हुए उनकी
पूजा करता हूँ। इस संसारमें लिड्रार्चसे अधिक कोई
पुण्य और भयका नाश करनेवाला (कर्म) नहीं है। अतः:
इन लोकों (प्राणिमात्र)-के कल्याणके लिये लिड्डमें शिवकी
पूजा करनी चाहिये॥ ५५--५८ ॥
* मेरे भी मूल (सर्वाधिष्ठान) महादेव शंकर ही हैं-यह सबको बतानेके लिये मैं लिड्डस्वरूप भगवान् शंकरकी पूजा करता हूँ।
२१६८
यो5हं तल्लिड्गरमित्याहुर्वेदवादविदो जना:।
ततो5हमात्ममीशानं पूजयाम्यात्मनेव तु॥ ५९॥
तस्यैव परमा मूर्तिस्तन्मयो5हं न संशय: |
नावयोर्विद्यते भेदो वेदेष्वेव॑ विनिश्चय: ॥ ६० ॥
एप देवो महादेव: सदा संसारभीरुभि:।
ध्येय: पूज्यश्व वन्द्यश्च ज्ञेयो लिड्रे महेश्वर:ः॥ ६१॥
मार्कण्डेय उवाच
किं तल्लिड़ं सुरश्रेष्ठ लिड़े सम्पूज्यते च कः ।
ब्रृहि कृष्ण विशालाक्ष गहनं होतदुत्तमम्॥ ६२ ॥
श्रीभगवानुवाच
अव्यक्त लिड्रमित्याहुरानन्दं ज्योतिरक्षरम्।
वेदा महेश्वरं देवमाहुलिड्रिनमव्ययम्॥ ६३॥
पुरा चेकार्णवे घोरे नष्टे स्थावरजड्मे।
प्रबोधार्थ ब्रह्मणो मे प्रादुर्भूतः स्वयं शिव: ॥ ६४॥
तस्मात् कालात् समारभ्य ब्रह्मा चाहं सदेव हि।
पूजयावो महादेवं लोकानां हितकाम्यया॥ ६५ ॥
मार्कण्डेय उवाच
कथं लिड्रमभूत् पूर्वमैश्वरं परमं पदम्।
प्रबोधार्थ स्वयं कृष्ण वक्तुमसि साम्प्रतम्॥ ६६ ॥
श्रीभगवानुवाच
आसीदेकार्णव॑ घोरमविभागं तमोमयम्।
मध्ये चैकार्णवे तस्मिन् शट्भुच्क्रगदाधर: ॥ ६७॥
सहस््रशीर्षा भूत्वाहं सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात्।
सहस्त्रबाहुर्युक्तात्मा शयितो5ह॑ सनातन: ॥ ६८ ॥
एतस्मिन्नन्तरे दूरात् पश्यामि ह्ामितप्रभम्।
कोटिसूर्यप्रतीकाशं भ्राजमानं भ्रियावृतम्॥ ६९॥
चतुर्वक्त्रं महायोगिन् पुरुषं काझ्जनप्रभम्।
कृष्णाजिनधरं देवमृग्यजु:सामभि: स्तुतम्॥ ७०॥
* कूर्मपुराण *
वैदिक सिद्धान्तोंको जाननेवाले लोग इस लिड्ढको
मेरा ही स्वरूप कहते हैं। इसीलिये मैं स्वयमेव
आत्मस्वरूप ईशानका पूजन करता हूँ। मैं उन्हों
(शंकर)-की परम मूर्ति हूँ, मैं शिवस्वरूप ही हूँ, इसमें
कोई संदेह नहीं। वेदोंमें ऐसा ही निश्चय किया गया है
कि हम दोनोंमें कोई भेद विद्यमान नहीं है। संसारसे
भयभीत लोगोंको इन देव महादेवका सदा ध्यान, पूजन
और वन्दन करना चाहिये तथा लिड़में महेश्वरको सदा
प्रतिष्ठित समझना चाहिये॥ ५९--६१ ॥
श्रीमार्कण्डेयजीने पूछा--विशाल नेत्रोंवाले देवश्रेष्ठ
कृष्ण! आप इस गूढ़ एवं श्रेष्ठ विषयको बतलायें कि
लिड्ग क्या है और लिड्रमें किसकी पूजा होती है 2॥ ६२॥
श्रीभगवानने कहा--ज्योति:स्वरूप, अक्षर, अव्यक्त
आनन्दको लिड्भ* कहा गया है और वेद महेश्वरदेवको
अव्यय तथा लिड्र धारण करनेवाला कहते हैं। प्राचीन
कालमें जब सर्वत्र जल-ही-जल एकार्णव हो गया और
स्थावर-जड़म सब नष्ट हो गया, तब ब्रह्मा तथा
मुझे प्रबोधित करनेके लिये उसी एकार्णवमें शिवका
प्रादर्भावभ हुआ। उसी समयसे लोकोंके कल्याणकी
कामनासे ब्रह्मा तथा मैं दोनों ही सदा महादेवकी
पूजा करते हैं॥ ६३-६५ ॥
श्रीमार्कण्डेयजी बोले-- श्रीकृष्ण! अब आप यह
बतलायें कि पूर्वकालमें आप लोगोंको ज्ञान देनेके लिये
वह ईश्वरका परम पदरूप लिड्र किस प्रकार स्वयं
प्रकट हुआ॥ ६६ ॥
श्रीभगवानने कहा--(प्रलयकालमें ) विभाग-
रहित, तमोमय भयंकर एकमात्र समुद्र (एकार्णव)
ही था। उस एकार्णवके मध्यभागमें शंख, चक्र,
गदा धारण करनेवाला युक्तात्मा सनातन मैं
हजारों सिर, हजारों आँख, हजारों चरण, हजारों
बाहुवाला होकर शयन कर रहा था। इसी बीच
मैंने दूर स्थित अमित प्रभावाले, करोड़ों सूर्यके
समान प्रकाशमान, शोभासम्पन्न, कृष्णमृगका चर्म
धारण किये हुए, ऋक्, यजु: तथा सामवेदद्वारा
* लिड्रका अर्थ है कारण। यहाँ प्रसंगानुसार लिड्रका अर्थ मूल कारण है। मूल कारण परमेश्वर ही हैं। वे ज्योति:स्वरूप अक्षर
एवं आनन्दस्वरूप हैं, इसीलिये यहाँ लिड्रको ज्योति:स्वरूप, आनन्दरूप कहा है।
* अध्याय २५ *
निमेषमात्रेण स मां प्राप्तो योगविदां वरः।
व्याजहार स्वयं ब्रह्मा स्मयमानो महाद्युति: ॥ ७१॥
कस्त्वं कुतो वा कि चेह तिष्ठसे वद मे प्रभो।
अहं कर्ता हि लोकानां स्वयम्भू: प्रपितामह: ॥ ७२ ॥
एवमुक्तस्तदा तेन ब्रह्मणाहम॒ुवाच ह।
अहं कर्तास्मि लोकानां संहर्ता च॒ पुन: पुन: ॥ ७३॥
एवं विवादे वितते मायया परमेष्टिनः ।
प्रबोधार्थ पर लिड्डं प्रादुर्भूते शिवात्मकम्॥ ७४॥
कालानलसमप्रख्यं ज्वालामालासमाकुलम् |
क्षयवृद्धिविनिर्मुक्तमादिमध्यान्तवर्जितम् ॥ ७५॥
ततो मामाह भगवानधो गच्छ त्वमाशु वै।
अन्तमस्य विजानीम ऊर्ध्व गच्छेडहमित्यज: ॥ ७६ ॥
तदाशु समयं कृत्वा गतावार्ध्वमधश्च द्वौ।
पितामहो>प्यहं नान्तं ज्ञातवन्ती समा: शतम्॥ ७७॥
ततो विस्मयमापन्नौ भीतौ देवस्य शूलिन: ।
मायया मोहितौ तस्य ध्यायन्तौ विश्वमी श्वरम्॥ ७८ ॥
प्रोच्चरन्ती महानादमोद्भारं परमं पदम्।
प्रह्माज्जलिपुटोपेतो शम्भुं तुष्टुवतु: परम्॥ ७९॥
ब्रह्मविष्णू ऊचतु:
अनादिमलसंसाररोगवैद्याय शम्भवे।
नमः शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिड्डमूर्तये॥ ८० ॥
प्रलयार्णवसंस्थाय. प्रलयोदभूतिहेतवे
नमः शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिड्रमूर्तये॥ ८१॥
ज्वालामालावृताड्राय ज्वलनस्तम्भरूपिणे।
नमः शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिड्रमूर्तये॥ ८२॥
आदिमध्यान्तहहीनाय. स्वभावामलदीघ्तये।
नमः शिवाय शानन््ताय ब्रह्मणे लिड्डमूर्तये॥ ८३ ॥
१६९
सस््तुत हो रहे काञझननके समान आभावाले महायोगी
चतुर्मुख देव पुरुषको देखा । क्षणभरमें ही वे योगज्ञानियोंमें
श्रेष्ठ, महाद्युति ब्रह्मा मुसकराते हुए स्वयं मेरे पास आये
और कहने लगे-- ॥ ६७--७१ ॥
प्रभो! मुझे बतलायें कि आप कौन हैं, कहाँसे
आये हैं और किस कारणसे यहाँ स्थित हैं। मैं लोकोंका
निर्माण करनेवाला स्वयम्भू प्रपितामह (ब्रह्मा) हूँ। उन
ब्रह्माके द्वारा ऐसा कहे जानेपर मैंने उनसे (न्रह्मासे)
कहा-में पुनः-पुनः लोकोंकी सृष्टि करनेवाला हूँ
और में ही संहार करनेवाला हूँ। परमेष्ठीकी मायाके
कारण इस प्रकारका विवाद बढ़नेपर (हम लोगोंको)
यथार्थ स्थितिका ज्ञान करानेके लिये (उस समय)
शिवरूप परम लिछ् प्रादुर्भूतन हुआ। वह लिड् प्रलय-
कालीन अग्निके समान अनेक ज्वालामालाओंसे व्याप्त,
क्षय एवं वृद्धिसे मुक्त और आदि, मध्य तथा अन्तसे
रहित था॥७२--७५॥
तब भगवान् शंकरने मुझसे कहा--तुम शीघ्र ही
(इस लिड्रके) नीचेकी ओर जाओ और इसके अन्तका
पता लगाओ और ये अजन्मा ब्रह्मा (इसके) ऊपरकी
ओर जायँ। तदनन्तर शीघ्र ही प्रतिज्ञा करके हम दोनों
ऊपर तथा नीचेकी ओर गये, किंतु पितामह तथा मैं
सैकड़ों वर्षोमें भी उसका अन्त नहीं जान सके।
तदनन्तर त्रिशूलधारी देवकी मायासे मोहित, भयभीत
एवं आश्चर्यचकित हम दोनों उन विश्वरूप ईश्वरका ध्यान
करने लगे और परमपद महानाद ओंकारका उच्चारण
करते हुए नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर श्रेष्ठ शम्भुकी स्तुति
करने लगे-- ॥ ७६--७९ ॥
ब्रह्मा तथा विष्णुने कहा--विविध अनादि विकारोंसे
मुक्त संसाररूपी रोगके अनादि वैद्यस्वरूप शम्भु, शिव,
शान्त, लिड्रमूर्तिवाले ब्रह्मको नमस्कार है। प्रलयकालीन
समुद्रमें स्थित रहनेवाले, सृष्टि और प्रलयके कारणरूप
शिव, शान्त, लिक़मूर्तिधारी ब्रह्मको नमस्कार है।
ज्वालामालाओंसे घिरे हुए शरीरवाले, प्रज्वलित स्तम्भरूप
शिव, शान्त, लिड्मूर्तिवाले ब्रह्मको नमस्कार है। आदि,
मध्य और अन्तसे रहित स्वभावत: निर्मल तेजोरूप
शिव, शान्त तथा लिड्डरूपी मूर्तिकों धारण करनेवाले
ब्रह्मको नमस्कार है॥८०--८३॥
५७०
महादेवाय महते ज्योतिषेडनन्ततेजसे।
नमः शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिड्डमूर्तये॥ ८४ ॥
प्रधानपुरुषेशाय.._ व्योमरूपायवेधसे।
नम: शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिड्रमूर्तये॥ ८५॥
निर्विकाराय सत्याय नित्यायामलतेजसे |
नमः शिवाय शान्न्ताय ब्रह्मणे लिड्रमूर्तये॥ ८६॥
वेदान्ससाररूपाय. कालरूपाय धीमते।
नम: शिवाय शान््ताय ब्रह्मणे लिड्रमूर्तये॥ ८७॥
एवं संस्तूयमानस्तु व्यक्तो भूत्वा महेश्वर:।
भाति देवो महायोगी सूर्यकोटिसमप्रभ: ॥ ८८ ॥
वक्त्रकोटिसहस्त्रेण ग्रसमान इवाम्बरम्।
सहसरत्रहस्तचरण: सूर्यसोमाग्रिलोचन: ॥ ८९ ॥
पिनाकपाणिभर्भगवान् कृत्तिवासास्त्रिशूलभृत्।
व्यालयज्ञोपवीतश्च॒ मेघदुन्दुभिनि:स्वन: ॥ ९०॥
अथोवाच महादेव: प्रीतो5ह॑ सुरसत्तमौ।
पश्येतं॑ मां महादेवं भयं सर्व प्रमुच्यताम्॥ ९१॥
युवां प्रसूती गात्रेभ्यो मम पूर्व सनातनो।
अयं मे दक्षिणे पाएवें ब्रह्मा लोकपितामह: ।
वामपाश्वें चर मे विष्णु: पालको हृदये हर: ॥ ९२॥
प्रीतो5हं युवयो: सम्यक् वर ददि यथेप्सितम् ।
एवमुक्त्वाथ मां देवो महादेव: स्वयं शिव: ।
आलि,ड्डच देवं ब्रह्माणं प्रसादाभिमुखो5भवत्॥ ९३॥
ततः प्रहष्टमनसो प्रणिपत्य महेश्वरम्।
ऊचतुः प्रेक्ष्य तद्बकत्रं नारायणपितामहौ॥ ९४॥
यदि प्रीति: समुत्पन्ना यदि देयो वरश्न नौ।
भक्तिर्भवतु नौ नित्यं त्वयि देव महेश्वरे॥ ९५॥
ततः स भगवानीशः प्रहसन् परमेश्वर: ।
उबाच मां महादेव: प्रीत: प्रीतेन चेतसा॥ ९६॥
देव उवाच
प्रलयस्थितिसर्गाणां कर्ता त्वं धरणीपते।
वत्स वत्स हरे विश्व॑ं पालयैतच्चराचरम्॥ ९७॥
त्रिधा भिन्नोउस्म्यहं विष्णो ब्रह्मविष्णुहराख्यया।
सर्गरक्षालयगुणैर्निगुणोडषपि. निर|ञ्जन:॥ ९८॥
सम्मोहं त्यज भो विष्णो पालयैनं पितामहम्।
भविष्यत्येष भगवांस्तव पुत्र: सनातन:॥ ९९॥
न कूर्मपुराण न
महादेव, महान्, ज्योति:स्वरूप, अनन्त तेजस्वी
लिड्भविग्रह शिव, शान््त, ब्रह्मको नमस्कार है। प्रधान
पुरुषके भी ईश, व्योमस्वरूप, वेधा (ब्रह्म) और
लिड्भविग्रह शिव, शान्त ब्रह्मको नमस्कार है। निर्विकार,
सत्य, नित्य विमल तेजरूप लिड्डविग्रह शान्त, शिव
ब्रह्मको नमस्कार है। वेदान्तसार-स्वरूप, कालरूप,
धीमान् लिड्भमूर्ति शिव, शान्त ब्रह्मको नमस्कार
है ॥ ८४--८७॥
इस प्रकार स्तुति करते रहनेपर महायोगी महेश्वर
देव प्रकट हो गये और हजारों करोड़ मुखसे आकाशको
मानो ग्रास बनाते हुए करोड़ों सूर्यके समान सुशोभित
होने लगे। हजारों हाथ और पैरवाले, सूर्य, चन्द्रमा तथा
अग्रिरूप (तीन) नयनवाले, पिनाकधनुषको हाथमें
धारण करनेवाले, चर्माम्बरधारी, त्रिशूलधारी, सर्पका
यज्ञोपवीत धारण करनेवाले और मेघ तथा दुन्दुभिके
सदृश स्वरवाले भगवान् महादेवने कहा-श्रेष्ठ देवो! मैं
प्रसन्न हूँ। मुझ महादेवकी ओर देखो और समस्त भयका
परित्याग करो। पूर्वकालमें तुम दोनों सनातन (देव) मेरे
शरीरसे उत्पन्न हुए थे। मेरे दक्षिण पार्श्वमें ये लोकपितामह
ब्रह्मा, वाम पार्श्वमें पालनकर्ता विष्णु और हृदयमें हर
स्थित हैं। मैं तुम दोनोंपर भलीभाँति प्रसन्न हूँ, इसलिये
यथेष्ट वर प्रदान करूंगा। ऐसा कहकर महादेव शिव
स्वयं मुझे तथा देव ब्रह्माका आलिज्ग्न कर अनुग्रह
प्रदान करनेके लिये उद्यत हुए॥ ८८--९३॥
तदनन्तर प्रसन्न मनवाले नारायण तथा पितामहने
महेश्वरको प्रणामकर उनके मुखकी ओर देखते हुए
कहा--देव ! यदि प्रीति उत्पन्न हुई है और यदि आप
हम दोनोंको वर देना चाहते हैं तो (यह वर दें कि)
हम दोनोंकी आप महेश्वरमें नित्य भक्ति बनी रहे। तब
उन प्रसन्न हुए परम ईश्वर भगवान् ईश महादेवने प्रसन्न
मनसे हँसते हुए मुझसे कहा-- ॥ ९४--९६॥
देव बोले--धरणीपते! वत्स हरि! तुम सृष्टि,
पालन और प्रलयके कर्ता हो। इस चराचर विश्वका
पालन करो। हे विष्णो! मैं निर्गुण तथा निरञन होते हुए
भी सृष्टि, रक्षा तथा प्रलयके लिये अपेक्षित गुणोंके द्वारा
ब्रह्मा, विष्णु तथा हर नामसे तीन रूपोंमें विभकत हूँ।
विष्णो! मोहका परित्याग करो, इन पितामहका पालन
करो। ये सनातन भगवान् आपके पुत्र होंगे॥ ९७--९९॥
* अध्याय २५ *
अहं च भवतो वक्त्रात् कल्पादौ घोररूपधृक् ।
शूलपाणिभर्भविष्यामि क्रोधजस्तव पुत्रक: ॥ १००॥
एवमुक््त्वा महादेवो ब्रह्माणं मुनिसत्तम।
अनुगृह् च मां देवस्तत्रैवान्तरधीयत।॥ १०१॥
ततः प्रभृति लोकेषु लिड्रार्चा सुप्रतिष्ठिता।
लिड्ढ तल्लयनाद् ब्रह्मन् त्रह्मण: परमं बपु:॥ १०२॥
एतल्लिड्रस्य माहात्म्यं भाषितं ते मयानघ।
एतद् बुध्यन्ति योगज्ञा न देवा न च दानवा:॥ १०३॥
एतद्धि परम॑ ज्ञानमव्यक्ते शिवसडिज्ञतम।
येन सूक्ष्ममचिन्त्यं तत् पश्यन्ति ज्ञानचक्षुष: ॥ १०४॥
तस्मै भगवते नित्यं नमस्कार प्रकुर्महे।
महादेवाय रुद्राय देवदेवाय लिड्डिने॥ १०५॥
नमो वेदरहस्याय नीलकण्ठाय वै नमः ।
विभीषणाय शान्ताय स्थाणवे हेतवे नम: ॥ १०६॥
ब्रह्मणे वामदेवाय त्िनेत्राय महीयसे।
शंकराय महेशाय गिरीशाय शिवाय च॥ १०७॥
नमः कुरुष्व सततं ध्यायस्व मनसा हरम्।
संसारसागरादस्मादचिरादुत्तरिष्यसि ॥१०८॥
एवं स वासुदेवेन व्याहतो मुनिपुड्रवः।
जगाम मनसा देवमीशानं विश्वतोमुखम्॥ १०९॥
प्रणम्थ शिरसा कृष्णमनुज्ञातो महामुनिः।
जगाम चेप्सितं देशं देवदेवस्य शूलिन:॥ ११०॥
य इम॑ श्रावयेन्नित्यं लिड्राध्यायमनुत्तमम्।
श्रुण॒ुयाद वा पठेद् वापि सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ १११॥
श्रुत्वा सकृदपषि होतत् तपश्चरणमुत्तमम्।
वासुदेवस्य विप्रेन्द्रा: पापं मुझ्नति मानव: ॥ ११२॥
जपेद वाहरहर्नित्यं ब्रह्मलोके महीयते।
एवमाह महायोगी कृष्णद्वैपायन: प्रभु:॥ ११३॥
१७१२
कल्पके आदिमें मैं भी आपके मुखसे प्रकट होकर
घोर रूप धारणकर हाथमें शूल धारण किये आपका
क्रोधज पुत्र बनूँगा॥१००॥
मुनिश्रेष्ठड इस प्रकार कहकर भगवान् महादेव
मुझपर तथा ब्रह्मापर कृपा करके वहींपर अनन््तर्धान हो
गये। ब्रह्म! तबसे लोकमें लिड्भरका पूजन प्रतिष्ठित हो
गया। लीन होनेसे वह लिड्गर कहा जाता है। लिड्ढ
ब्रह्मका श्रेष्ठ शरीर है॥ १०१-१०२॥
अनघ! मैंने इस लिड्डका माहात्म्य तुम्हें बताया।
इसे न देवता जानते हैं न दानव, केवल योगज्ञ लोग
ही जानते हैं। यह शिव नामवाला अव्यक्त परम ज्ञान
है। ज्ञानदृष्टिवाले इसीके द्वारा उस सूक्ष्म अचिन्त्य
(तत्त्व)-का दर्शन करते हैं। इस लिड्रस्वरूप देवाधि-
देव महादेव भगवान् रुद्रको हम नित्य नमस्कार
करते हैं॥ १०३--१०५॥
वेदके रहस्यरूप आपको नमस्कार है, नीलकण्ठको
नमस्कार है। विशेष भय* उत्पन्न करनेवाले, शान्त,
स्थाणु तथा कारणरूपको नमस्कार है। वामदेव, त्रिलोचन,
महिमावान्, ब्रह्म, शंकर, महेश, गिरीश तथा शिवको
नमस्कार है। सदा इन्हें नमस्कार करो, मनसे शंकरका
ध्यान करो। इससे शीघ्र ही संसारसागरसे पार हो
जाओगे॥ १०६--१०८ ॥
इस प्रकार वासुदेवके द्वारा कहे जानेपर उन मुनिश्रेष्ठ
(मार्कण्डेय)-ने विश्वतोमुख देव ईशान (शंकर)-का ध्यान
किया। श्रीकृष्णको विनयपूर्वक प्रणामकर उनकी आज्ञा
प्रा्॒तकर महामुनि (मार्कण्डेय) त्रिशूल धारण करनेवाले
देवाधिदेवके अभीष्ट स्थानको चले गये॥ १०९-११० ॥
जो इस श्रेष्ठ लिड्राध्यायको सुनेगा, सुनायेगा अथवा
पढ़ेगा, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जायगा। विदप्रेद्धो!
वासुदेवके इस श्रेष्ठ तपश्चरणको एक बार भी सुननेवाला
मनुष्य पापसे मुक्त हो जाता है अथवा प्रतिदिन इसका
निरन्तर जप करनेसे ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है--ऐसा
महायोगी प्रभु कृष्णद्वैघायनने कहा है॥१११--११३॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्रधां संहितायां पूर्वाविभागे पञ्जविशोउध्याय: ॥ २५ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें पचीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २५॥
* ग्राणीको पापसे विरत करनेके लिये अन्य उपाय न होनेपर भगवान् शंकर भय भी उत्पन्न करते हैं।
१७२
न कूर्मपुराण मं
छब्बीसवाँ अध्याय
श्रीकृष्णकी महेश्वरी कृपासे साम्ब नामक पुत्रकी प्राप्ति, कंसादिका वध, भृगु
आदि महर्षियोंका द्वारकामें आना, भृगु आदि मुनियोंसे श्रीकृष्णद्वारा स्वधामगमनकी
बात बताना, शिवसे द्वेष करनेवालोंको नरककोी प्राप्तिका वर्णन तथा
शिवकी महिमा बताना, नारायणका अपने कुलका संहारकर
स्वधामगमन तथा वंश-वर्णनका उपसंहार
सूत उवाच
ततो लब्धवरः कृष्णो जाम्बवत्यां महे श्वरात् ।
अजीजनन्महात्मानं साम्बमात्मजमुत्तमम्॥ १ ॥
प्रद्युम्नस्याप्यभूत् पुत्रो हानिरुद्धो महाबल: ।
तावुभौ गुणसम्पन्नौ कृष्णस्यैवापरे तनू॥ २ ॥
हत्वा च॒ कंसं नरकमन्यांश्व शतशो5सुरान्।
विजित्य लीलया शक्रं जित्वा बाणं महासुरम्॥ ३ ॥
स्थापयित्वा जगत् कृत्स्न॑ लोके धर्माश्च शाश्रतान्।
चक्रे नारायणो गन्तुं स्वस्थानं बुद्धिमुत्तमाम्॥ ४ ॥
एतस्मिन्नन्तरे विप्रा भग्वाद्या: कृष्णमी श्वरम्।
आजममुद्रिकां द्रष्टं कृतकार्य सनातनम्॥ ५ ॥
स तानुवाच विश्वात्मा प्रणिपत्याभिपूज्य च।
आसनेषूपविष्टान् वे सह रामेण धीमता॥ ६ ॥
गमिष्ये तत् परे स्थानं स्वकीयं विष्णुसंज्ञितम्।
कृतानि सर्वकार्याणि प्रसीदध्व॑ं मुनीधरा:॥ ७ ॥
इदं कलियुग घोर सम्प्राप्मधुनाशुभम्।
भविष्यन्ति जनाः सर्वे हास्मिन् पापानुवर्तिन:॥ ८ ॥
प्रवर्तयध्व॑ मज्ज्ञानं ब्राह्मणानां हितावहम।
येनेमे कलिजै: पापैर्मुच्यन्ते हि द्विजोत्तमा:॥ ९ ॥
ये मां जना: संस्मरन्ति कलौ सकृदपि प्रभुम्।
तेषां नश्यतु ततू पाप॑ं भक्तानां पुरुषोत्तमे॥ १०॥
ये5र्चयिष्यन्ति मां भक्त्या नित्यं कलियुगे द्विजा: ।
विधिना वेददृष्टेन ते गमिष्यन्ति तत् पदम्॥ ११॥
ये ब्राह्मणा वंशजाता युष्माकं वै सहस्रशः ।
तेषां नारायणे भक्तिर्भविष्यति कलौ युगे॥ १२॥
परात् परतरं यान्ति नारायणपरायणा:।
न ते तत्र गमिष्यन्ति ये द्विषन्ति महेश्वरम॥ १३॥
सूतजी बोले--तदनन्तर महेश्वरसे वर प्राप्त किये
हुए कृष्णने जाम्बवतीसे महात्मा साम्ब नामक श्रेष्ठ
पुत्रको उत्पन्न किया। प्रद्यु्को भी महाबलवान् अनिरुद्ध
नामक पुत्र हुआ। गुणोंसे सम्पन्न वे दोनों कृष्णके ही
दूसरे शरीर (-रूप) थे। कंस, नरक तथा अन्य सैकड़ों
असुरोंको मारकर लीलापूर्वक इन्द्रको जीतकर तथा
महान् असुर बाणको पराजितकर, सम्पूर्ण संसारको
प्रतिष्ठितकर और लोकमें शाश्रत धर्मोकी स्थापनाकर
नारायणने अपने धाममें जानेका श्रेष्ठ विचार किया।
ब्राह्मणो! इसी बीच भृूगु आदि (महर्षि) अवतारके
समस्त प्रयोजनोंसे निवृत्त सनातन ईश्वर कृष्णका दर्शन
करनेके लिये द्वारकामें आये॥ १--५॥
विश्वात्मा (कृष्ण)-ने बुद्धिमान्ू बलरामके साथ
आसनोंपर विराजमान भृगु आदि महर्षियोंको प्रणामकर
और पूजनकर उनसे कहा--मुनी श्वरो ! सभी कार्य किये
जा चुके हैं। अब मैं विष्णुसंज़्क अपने उस परमधामको
जाऊँगा, आप लोग प्रसन्न हों। इस समय अशुभ घोर
कलियुग आ गया है। इसमें सभी लोग पापाचरण
करनेवाले हो जायूँगे। श्रेष्ठ ब्राह्मणो! आप लोग न्राह्मणोंके
लिये कल्याणकारी मेरा ज्ञान प्रवर्तित करें, जिससे ये
लोग कलिद्ठारा उत्पन्न पापोंसे मुक्त हो सकें ॥ ६--९॥
कलियुगमें जो लोग एक बार भी मुझ प्रभुका
स्मरण करेंगे, उन पुरुषोत्तमके भक्तोंका पाप नष्ट हो
जायगा। द्विजो! जो कलियुगमें भक्तिपूर्वक वैदिक
विधि-विधानसे नित्य मेरा पूजन करेंगे, वे मेरे पदको
प्राप्त करेंगे॥ १०-११॥
आप लोगोंके वंशमें जो हजारों ब्राह्मण उत्पन्न होंगे,
उनकी कलियुगमें नारायणमें भक्ति होगी। नारायणके
भक्तजन परसे परतर स्थानको प्राप्त करते हैं, किंतु जो
महे धरसे द्वेष रखते हैं, वे वहाँ नहीं जाते॥ १२-१३॥
* अध्याय र६ *
ध्यान होम॑ तपस्तप्तं ज्ञानं यज्ञादिको विधि: ।
तेषां विनश्यति क्षिप्रं ये निन्दन्ति पिनाकिनम्॥ १४॥
यो मां समाश्रयेन्नित्यमेकान्तं भावमाश्रित: ।
विनिन्ध देवमीशानं स याति नरकायुतम्॥ १५॥
तस्मात् सा परिहर्तव्या निन््दा पशुपतौ द्विजा: ।
कर्मणा मनसा वाचा तद्धक्तेष्वपि यत्नतः ॥ १६॥
ये तु दक्षाध्वरे शप्ता दधीचेन द्विजोत्तमा:।
भविष्यन्ति कलौ भक्ते: परिहार्या: प्रयत्नतः ॥ १७॥
द्विषन्तो देवमीशानं युष्माकं॑ वंशसम्भवा:।
शप्ताश्न गौतमेनोरव्या न सम्भाष्या द्विजोत्तमै: ॥ १८ ॥
इत्येवमुक्ता: कृष्णेन सर्व एवं महर्षय:।
ओमित्युक्त्वा ययुस्तूर्ण स्वानि स्थानानि सत्तमा: ॥ १९॥
ततो नारायण: कृष्णो लीलयैव जगन्मय: ।
संहत्य स्वकुलं सर्व ययौ तत् परमं पदम्॥ २०॥
इत्येष व: समासेन राज्ञां वंशो5नुकीर्तितः ।
नशकक्यो विस्तराद वक्तु कि भूय: श्रोतुमिच्छथ॥ २१॥
यः पठेच्छुणुयाद वापि बंशानां कथन शुभम्।
सर्वपापविनिर्मुक्त: स्वर्गलोके महीयते॥ २२॥
१७३
जो पिनाक धारण करनेवाले शिवकी निन्दा करते
हैं, उनका ध्यान, होम, किया गया तप, ज्ञान तथा यज्ञादि
सभी विधान शीघ्र ही नष्ट हो जाता है॥ १४॥
जो ईशान (शंकर) देवकी निन्दा कर नित्य अनन्य
भावसे मेरा आश्रय ग्रहण करता है, वह दस हजार
वर्षोतक नरकमें रहता है। इसलिये द्विजो! मन, वाणी
तथा कर्मसे पशुपति तथा उनके भक्तोंकी भी निन्दाका
प्रयत्रपूर्वक परित्याग करना चाहिये। द्विजोत्तमो! दक्ष
प्रजापतिके यज्ञमें दधीचने आपके वंशमें उत्पन्न जिन
ब्राह्मणोंको देव ईशानसे द्वेष करनेके कारण शाप दिया
था, वे सभी कलियुगमें पृथ्वीपर उत्पन्न होंगे। भक्तोंद्वारा
प्रयत्रपूर्वक्त उनका परित्याग करना चाहिये। महर्षि
गौतमद्दवारा शापप्रास लोगोंसे भी श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको बात
नहीं करनी चाहिये॥ १५--१८ ॥
कृष्णद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वे सभी श्रेष्ठ
महर्षि “ठीक है' ऐसा कहकर शीघ्र ही अपने स्थानोंको
चले गये। तदनन्तर जगन्मय नारायण कृष्ण लीलापूर्वक
अपने सारे कुलका संहारकर अपने परमधामको पधार
गये॥ १९-२० ॥
(सूतजीने ऋषियोंसे कहा--) संक्षेपमें यह राजवंश
आप लोगोंको बताया गया, विस्तारपूर्वक इसका वर्णन
नहीं हो सकता। अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं?
जो इन वंशोंके शुभ वर्णनको पढ़ता है अथवा सुनता
है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा स्वर्गलोकमें
आदर प्राप्त करता है॥ २१-२२॥
ड्रति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहग्रशं संहितायां पूर्वाविभागे बदूविशोउथ्याय: ॥ २६ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें छब्बीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २६॥
१७४
न कूर्मपुराण नः
सत्ताईसवाँ अध्याय
व्यासदेवद्वारा अर्जुनको सत्ययुगादि चारों युगोंके धर्मोका उपदेश, व्यासद्वारा एक
वेद-संहिताका चतुर्धा विभाजन, चारों युगोंमें चतुष्पाद धर्मकी विभिन्न
स्थितिका निदर्शन तथा कलियुगमें धर्मके हासका प्रतिपादन
ऋषय ऊचु:
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिएचेति चतुर्युगम्।
एषां स्वभाव सूताद्य कथयस्व समासत: ॥
सूत उवाच
गते नारायणे कृष्णे स्वमेव परम पदम्।
पार्थ: परमधर्मात्मा पाण्डव: शत्रुतापन:॥ २ ॥
कृत्वा चेैवोत्तरविधिं शोकेन महतावृतः।
अपश्यत् पथि गच्छन्तं कृष्णद्वैपायनं मुनिम्॥ ३ ॥
शिष्ये: प्रशिष्यैरभित: संव॒तं ब्रह्मगादिनम्।
पपात दण्डवद् भूमौ त्यक्त्वा शोक॑ तदार्जुन:॥ ४ ॥
उबाच परमप्रीतः कस्माद देशान्महामुने।
इदानीं गच्छसि क्षिप्रं क॑ वा देशं प्रति प्रभो॥ ५ ॥
संदर्शनाद वै भवतः शोको मे विपुलो गतः ।
इदानीं मम यत् कार्य ब्रूहि पद्मदलेक्षण।॥ ६ ॥
तमुवाच महायोगी कृष्णद्वैपायन: स्वयम्।
उपविश्य नदीतीरे शिष्य: परिवृतों मुनि:॥ ७ ॥
व्यास उवाच
इदं कलियुग घोर सम्प्राप्तं पाण्डुनन्दन।
ततो गच्छामि देवस्य वाराणसी महापुरीम्॥ ८ ॥
अस्मिन् कलियुगे घोरे लोकाः पापानुवर्तिन: ।
भविष्यन्ति महापापा वर्णाश्रमविवर्जिता:॥ ९ ॥
नान््यत् पश्यामि जन्तूनां मुक्त्वा वाराणसी पुरीम्।
सर्वपापप्रशमनं प्रायश्चित्तं कलौ युगे॥१०॥
कृतं त्रेता द्वापरं च सर्वेष्वेतेषु वै नरा:।
भविष्यन्ति महात्मानो धार्मिका: सत्यवादिन: ॥ ११॥
त्वंहि लोकेषु विख्यातो धृतिमाज् जनवत्सल: ।
पालयाद्य पर धर्म स्वकीयं मुच्यसे भयात्॥ १२॥
एवमुक्तो भगवता पार्थ: परपुरञ्जय:।
पृष्टवान् प्रणिपत्यासी युगधर्मान् द्विजोत्तमा: ॥ १३॥
तस्मै प्रोवाच्त सकल॑ मुनिः सत्यवतीसुतः।
प्रणम्य देवमीशानं युगधर्मान् सनातनान्॥ १४॥
शा
ऋषियोंने कहा--सूतजी ! सत्य, त्रेता, द्वापर तथा
कलि--ये चार युग हैं, अब (आप) इनके स्वभावका
संक्षेपमें वर्णन कीजिये॥ १॥
सूतजी बोले--नारायण कृष्णके अपने परमधाम
चले जानेपर शत्रुओंको पीड़ा पहुँचानेवाले परम धर्मात्मा
पाण्डुपुत्र पार्थ (अर्जुन) ओर्ध्वदैहिक क्रिया करके
महान् शोकसे आवृत हो गये। (उन्होंने) मार्गमें जाते हुए
ब्रह्मवादी कृष्णद्वैणञायन (व्यास) मुनिको शिष्यों, प्रशिष्योंसे
चारों ओरसे घिरे हुए देखा। तब शोकका परित्यागकर
अर्जुनने भूमिपर दण्डव॒त् गिरकर प्रणाम किया और
परम प्रीतिसे कहा--महामुने ! प्रभो! आप कहाँसे आ रहे
हैं और किस देशकी ओर इस समय शीघ्रतापूर्वक जा
रहे हैं? आपका दर्शन करनेसे ही मेरा महान् शोक
दूर हो गया है। कमलपत्रके समान नेत्रवाले (व्यासजी
महाराज) ! इस समय मेरा जो कर्तव्य हो, उसे आप
बतलायें। तब शिष्योंसे घिरे हुए महायोगी कृष्णद्वैपायन
मुनिने नदीके किनारे बैठकर स्वयं कहा--॥ २--७॥
व्यासजी बोले--पाण्डुके पुत्र (अर्जुन) ! यह घोर
कलियुग आ गया है। इसलिये मैं भगवान् शंकरकी
महापुरी वाराणसी जा रहा हूँ। इस भयंकर कलियुगमें
लोग पापाचरण करनेवाले, वर्ण तथा आश्रमधर्मसे रहित
महान् पापी होंगे। कलियुगमें सभी पापोंका शमन
करनेके लिये वाराणसीपुरीके सेवनको छोड़कर अन्य
दूसरा कोई प्रायश्चित्त मैं नहीं देखता॥ ८--१०॥
सत्य, त्रेता तथा द्वापर--इन सभी (युगों)-में मनुष्य
महात्मा, धार्मिक तथा सत्यवादी होते हैं। आप संसारमें
प्रजावत्सल तथा धृतिमान्के रूपमें विख्यात हैं, अतः
अपने परम धर्मका पालन करें, इससे आप भयसे मुक्त
हो जायँगे। द्विजोत्तमो! भगवान् (व्यास)-के द्वारा ऐसा
कहनेपर शत्रुके पुरको जीतनेवाले पृथा (कुन्ती)-के
पुत्र पार्थ (अर्जुन)-ने इन्हें प्रणमकर युगधर्मोंको पूछा।
सत्यवतीके पुत्र व्यासमुनिने भगवान् शंकरको प्रणामकर
सम्पूर्ण सनातन युगधर्मोको उन्हें बतलाया॥ ११--१४॥
* अध्याय २७ *
व्यास उवाच
वक्ष्यामि ते समासेन युगधर्मान् नरेश्वर।
न शक्यते मया पार्थ विस्तरेणाभिभाषितुम्॥ १५॥
आइ्य॑ कृतयुगं प्रोक्त ततस्त्रेतायुगं बुधे:।
तृतीयं द्वापरं पार्थ चतुर्थ कलिरुच्यते॥ १६॥
ध्यानं पर॑ कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते।
द्वापे यज्ञमेवाहुर्दाममेव कलौ युगे॥ १७॥
ब्रह्मा कृतयुगे देवस्त्रेतायां भगवान् रविः।
द्वापरे दैवतं विष्णु; कलौ रुद्रो महेश्वरः॥ १८॥
ब्रह्मा विष्णुस्तथा सूर्य: सर्व एव कलिष्वपि।
पूज्यते भगवान् रुद्रश्नतुर्ष्षपि पिनाकधृक् ॥ १९॥
आद्ये कृतयुगे धर्मश्चतुष्पाद: सनातनः।
त्रेतायुगे त्रिपाद: स्याद् द्विपादो द्वापरे स्थित: ।
त्रिपादहीनस्तिष्ये तु सत्तामात्रेण तिष्ठति॥ २०॥
कृते तु मिथुनोत्पत्ति्वृत्ति: साक्षाद रसोललसा।
प्रजास्तृप्ता: सदा सर्वा: सदानन्दाश्च भोगिन:॥ २१॥
अधमोत्तमत्वं नास्त्यासां निर्विशेषा: पुरउ्जय ।
तुल्यमायु: सुख रूप॑ तासां तस्मिन् कृते युगे॥ २२॥
विशोका:ः सत्त्वबहुला एकान्तबहुलास्तथा।
ध्याननिष्ठास्तपपोनिष्ठा. महादेवपरायणा: ॥ २३॥
ता वै निष्कामचारिण्यो नित्यं मुदितमानसा: ।
पर्वतोदधिवासिन्यो हानिकेता: परंतप॥ २४॥
रसोल्लासा कालयोगात् त्रेताख्ये नश्यते ततः ।
तस्यां सिद्धों प्रणष्टायामन्या सिद्धिरवर्तत॥ २५ ॥
अपां सौधछ्ष्म्ये प्रतिहते तदा मेघात्मना तु वै।
मेघेभ्य: स्तनयित्नुभ्य: प्रवृत्त वृष्टिसर्जनम्॥ २६॥
सकृदेव तया वृष्ट्या संयुक्ते पृथिवीतले।
प्रादुरासंस्तदा तासां वृक्षा वे गृहसंज्ञिता:॥ २७॥
सर्वप्रत्युपयोगस्तु तासां तेभ्य: प्रजायते।
वर्तयन्ति सम तेभ्यस्तास्त्रेतायुगमुखे प्रजा: ॥ २८ ॥
१७५
व्यासजी बोले--नरेश्वर ! पार्थ ! संक्षेपमें युगधरमोंको
तुम्हें बतलाता हूँ, मैं विस्तारसे वर्णन नहीं कर सकता
हूँ। पार्थ! दिद्वानोंद्वारा पहला कृतयुग कहा गया है,
तदनन्तर दूसरा त्रेतायुग, तीसरा द्वापर तथा चौथा
कलियुग कहा गया है। कृतयुगमें ध्यान, त्रेतामें ज्ञान,
द्वापरमें यज्ञ तथा कलियुगमें एकमात्र दान ही श्रेष्ठ साधन
बताया गया है। कृतयुगमें ब्रह्मा देवता होते हैं, इसी
प्रकार त्रेतामें भगवान् सूर्य, द्वापरमें देवता विष्णु और
कलियुगमें महेश्वर रुद्र ही मुख्य देवता हैं। ब्रह्मा, विष्णु
तथा सूर्य--ये सभी कलियुगमें पूजित होते हैं, किंतु
पिनाकधारी भगवान् रुद्र चारों युगोंमें पूजे जाते हैं।
सर्वप्रथम कृतयुगमें सनातनधर्म चार चरणोंवाला था,
त्रेतामें तीन चरणोंवाला तथा द्वापरमें दो चरणोंसे स्थित
हुआ, किंतु कलियुगमें तीन चरणोंसे रहित होकर केवल
सत्तामात्रसे स्थित रहता है॥ १५--२० ॥
कृतयुगमें स्त्री-पुरुषके संयोगसे उत्पत्ति होती थी
और लोगोंकी आजीविका साक्षात् (आनन्द) रससे
उललसित रहती थी। सारी प्रजाएँ सर्वदा सात्त्विक
आनन्दसे तृत्त और भोगसे सम्पन्न रहती थीं। पुरञ्जय!
उन प्रजाओंमें उत्तम और अधमका भेद नहीं था, सभी
निर्विशेष थे। उस कृतयुगमें प्रजाकी आयु, सुख और
रूप समान था। सम्पूर्ण प्रजा शोकसे रहित, सत्त्वगुणके
बाहुलयसे युक्त, एकान्तप्रेमी, ध्याननिष्ठ, तपोनिष्ठ तथा
महादेव शंकरकी भक्त थी। परंतप ! वे प्रजाएँ निष्कामकर्म
करनेवाली, नित्य प्रसन्न मनवाली और पर्वतों एवं
समुद्रके किनारे रहनेवाली थीं, उनका कोई घर नहीं
होता था॥ २१--२४॥
तदनन्तर कालके प्रभावसे त्रेता नामक युगमें (सत्य-
युगका) आनन्दोल्लास नष्ट हो जाता है, (कृतयुगकी) उस
सिद्धिका लोप होनेपर अन्य सिद्धि प्रवर्तित होती है।
मेघमें जलकी कमी होनेपर मेघ और विद्युत्से वृष्टि
उत्पन्न हुई।* पृथ्वीतलपर एक बार ही उस वृष्टिका संयोग
होनेसे उन प्रजाओंके लिये गृहसंज्ञक वृक्षोंका प्रादुर्भाव
हुआ। उन (वृक्षों)-से ही उनके सब कार्य सम्पन्न होने
लगे। त्रेतायुगके प्रारम्भमें वह समस्त प्रजा उनसे ही
(अपनी जीविकाका) निर्वाह करती थी॥२५--२८ ॥
* सत्ययुगमें स्वयं मेघ जलमय होते थे। उनमें इतनी जलकी प्रचुरता होती थी कि किसी अन्यके सहयोगके बिना ही वे वृष्टि
करते थे। पर त्रेतायुगमें मेघोंकी जलमयता प्रतिहत हो गयी। फलत: विद्युतंके सहयोगसे ही मेघ वृष्टि कर पाते थे।
१७६
ततः कालेन महता तासामेव विपर्ययात्।
रागलोभात्मको भावस्तदा ह्ाकस्मिको5भवत्॥ २९॥
विपर्ययेण तासां तु तेन तत्कालभाविना।
प्रणश्यन्ति ततः सर्वे वक्षास्ते गृहसंज्ञिता: ॥ ३० ॥
ततस्तेषु प्रणष्टेषु विश्रान्ता मैथुनोद्धवा:।
अभिध्यायन्ति तां सिद्धि सत्याभिध्यायिनस्तदा।॥ ३१॥
प्रादुर्बभूव॒ुस्तासां तु वृक्षास्ते गृहसंज्ञिता:।
वस्त्राणि ते प्रसूयन्ते फलान्याभरणानि च॥ ३२॥
तेष्वेव जायते तासां गन्धवर्णरसान्वितम्।
अमाक्षिकं महावीर्य पुटके पुटके मधु॥ ३३॥
तेन ता वर्तयन्ति सम त्रेतायुगमुखे प्रजा: ।
हृष्टपुष्टास्तया सिद्धया सर्वा वै विगतज्वरा: ॥ ३४॥
ततः कालान्तरेणैव पुनर्लोभावृतास्तदा।
वृक्षांस्तान् पर्यगृहन्त मधु चामाक्षिकं बलात्॥ ३५॥।
तासां तेनापचारेण पुनर्लेभकृतेन वै।
प्रणष्टा मधुना सार्ध कल्पवृक्षा: क्वचित् क्वचित्॥ ३६॥
शीतवर्षातपैस्तीब्रैस्ततस्ता दु:खिता भृशम्।
दन्द्दे: सम्पीड्यमानास्तु चक्कुरावरणानि च॥ ३७॥
कृत्वा द्न्द्घप्रतीिघातान् वार्तोपायमचिन्तयन्।
नष्टेषु मधुना सार्थ कल्पवृक्षेषु वे तदा॥ ३८॥
ततः प्रादुर्बभौ तासां सिद्धिस्त्रेतायुगे पुनः ।
वार्ताया: साधिका हान्या वृष्टिस्तासां निकामत: ॥ ३९॥
तासां वृष्ट्यूदकानीह यानि निम्नैर्गतानि तु।
अवहन् वृष्टिसंतत्या सत्रोत:स्थानानि निम्नगा: ॥ ४० ॥
ये पुनस्तदपां स्तोका आपत्ना: पृथिवीतले।
अपां भूमेश्व संयोगादोषध्यस्तास्तदाभवन्॥ ४१॥
* कर्तव्य-पालनमें प्रमाद होनेसे विपर्यय (करने योग्य कर्मका न करना, न करने योग्य कर्मका करना) होता है। यह विपर्यय
ह कूर्मपुराण न
तदनन्तर बहुत समय व्यतीत होनेपर उन प्रजाओंके
ही विपर्ययसे* उनमें अचानक ही राग और लोभका
भाव उत्पन्न हो गया | तदनन्तर उनके उलट-फेर (दिनचर्यामें
व्यत्यय)-के कारण उस समयके प्रभाववश वे गृह-
संज़्क सभी वृक्ष नष्ट हो गये॥ २९-३० ॥
तब उन (वृक्षों)-के नष्ट हो जानेपर मिथुनधर्मसे
उत्पन्न सत्यका ध्यान करनेवाले वे सभी प्रजाजन
विशभ्रान्त होकर उस पूर्व वर्णित सिद्धिका ध्यान करने
लगे। उस समय (सत्यका ध्यान करनेके कारण) उन
प्रजाओंके (लुप्त) वे गृह-संज्ञक वृक्ष पुनः प्रादुर्भूत हो
गये। वे बस्त्रों, आभूषणों तथा फलोंको उत्पन्न करने
लगे। उन प्रजाओंके लिये उन वृक्षोंके प्रत्येक पत्रपुटोंमें
गन्ध, वर्ण और रससे समन्वित, बिना मधु-मक्खियोंके
बना हुआ महान् शक्तिशाली मधु उत्पन्न होता था। उसी
(मधु)-से त्रेतायुगके आरम्भमें वे प्रजाएँ जीवन-निर्वाह
करती थीं। उस सिद्धिके कारण वे सारी प्रजाएँ हृष्ट-
पुष्ट तथा ज्वरसे रहित थीं। तदनन्तर कालान्तरमें वे सभी
पुन: लोभके वशीभूत हो गये। अब वे उन वृक्षों तथा
उनसे उत्पन्न अमाक्षिक (मक्षिकाद्वारा न बनाये हुए)
मधुको बलपूर्वक ग्रहण करने लगे॥ ३१--३५॥
उनके इस प्रकार पुनः लोभ करनेके कारण उत्पन्न
दुष्कर्मसे वे कल्पवृक्ष कहीं-कहीं मधुके साथ ही नष्ट
हो गये। तब अत्यन्त शीत, वर्षा एवं धूपसे अत्यधिक
दुःखी उन्होंने (शीत-उष्ण आदि) द्वन्द्दोंसे पीड़ित होते
हुए आवरणोंकी रचना की। तब मधुसहित कल्पवृक्षोंके
नष्ट हो जानेपर उन्होंने द्वन्द्ोंके निराकरणका उपाय
विचारकर जीविका-निर्वाहके साधनोंका चिन्तन किया।
तदनन्तर त्रेतायुगमें उन प्रजाओंकी जीविकाको सिद्ध
करनेवाली अन्य सिद्धि पुनः प्रादुर्भूर हुई और उनकी
इच्छाके अनुकूल वृष्टि हुई॥ ३६--३९ ॥
निरन्तर वर्षकि कारण जो जल नीचेकी ओर प्रवाहित
हुआ, उससे उन (प्रजाओं)-के लिये अनेक स्रोतों तथा
नदियोंकी उत्पत्ति हुई। जब पृथ्वीतलपर थोड़ा जल
एकत्र हो गया तो भूमि और जलका संयोग होनेसे
अनेक प्रकारकी औषधियाँ उत्पन्न हो गयीं॥ ४०-४१॥
किशमिश लक लिन नमन नील लीकि नल बला राणा कब इलभनलमन॒मुु रा
ही परम्परया दुर्दृष्टका कारण होता है। यह दुर्दृष्ट ही राग, द्वेष तथा लोभकी भावना उत्पन्न करता है।
* अध्याय २७ *
अफालकृष्शश्चानुप्ता ग्राम्यारण्याश्चतुर्दश ।
ऋतुपुष्पफलैश्चैव वृक्षगुल्माश्च॒ जज्ञिरि॥ ४२॥
ततः प्रादुरभूत् तासां रागो लोभश्व सर्वशः ।
अवश्यं भाविनार्थन त्रेतायुगवशेन वबै॥ ४३॥
ततस्ता: पर्यगृहन्त नदीक्षेत्राणि पर्वतान्।
वृक्षगुल्मौषधीशएचेव प्रसह्ाम तु यथाबलम्॥ ४४ ॥
विपर्ययेण तासां ता ओषध्यो विविशुर्महीम ।
पितामहनियोगेन दुदोह पृथिवीं पृथु:॥ ४५॥
ततस्ता जगहु: सर्वा अन्योन्यं क्रोधमूर्च्छिता: ।
वसुदारधनादांस्तु बलात् कालबलेन तु॥ ४६॥
मर्यादाया: प्रतिष्ठार्थ ज्ञात्वतद् भगवानज: ।
ससर्ज क्षत्रियान् ब्रह्मा ब्राह्मणानां हिताय च॥ ४७॥
वर्णाश्रमव्यवस्थां च त्रेतायां कृतवान् प्रभु: ।
यज्ञप्रवर्त॑ चैव पशुहिंसाविवर्जितम्॥ ४८ ॥
द्वापरेष्वथ विद्यन्ते मतिभेदा: सदा नृणाम्।
रागो लोभस्तथा युद्ध तत्त्वानामविनिश्चय: ॥ ४९ ॥
एको वेदश्चतुष्पादस्त्रेतास्विह विधीयते।
वेदव्यासैश्वतुर्धा तु व्यस्यते द्वापरादिषु॥ ५०॥
ऋषिपुत्रे: पुनर्भदाद् भिद्यन्ते दृष्टिविश्रमै:।
मन्त्रत्नाह्मणविन्यासै:. स्वरवर्णविपर्ययै: ॥ ५१॥
संहिता ऋग्यजु:साम्रां संहन्यन्ते श्रुतर्षिभि: ।
सामान्याद वैकृताच्चेव दृष्टिभेदे: क्वचित् क्वचित्॥ ५२ ॥
ब्राह्मणं कल्पसूत्राणि मन्त्रप्रवचनानि च।
इतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सुत्रत॥ ५३॥
अवृष्टिमरणं चैव तथेब व्याध्युपद्रवा:।
वाड्मनःकायजेर्द:खैर्निवेंदो जायते नृणाम्॥ ५४॥
निर्वेदाजायते तेषां दुःखमोक्षविचारणा।
विचारणाच्च वैराग्यं वैराग्याद दोषदर्शनम्॥ ५५॥
५१५७७
बिना जोते-बोये ही विभिन्न ऋतुओंमें होनेवाले पुष्प
एवं फलोंसे युक्त चौदह प्रकारके ग्राम्य एवं जंगली वृक्ष
और गुल्म उत्पन्न हो गये। तदनन्तर त्रेतायुगके प्रभावसे
भवितव्यतावश उन प्रजाओंमें निश्चितरूपसे सब प्रकारसे
राग और लोभ" व्याप्त हो गया। तदुपरान्त उन लोगोंने अपनी-
अपनी शक्तिके अनुसार बलपूर्वक नदियों, क्षेत्रों, पर्वतों,
वृक्षों, गुल्मों तथा औषधियोंपर अधिकार जमाना प्रारम्भ
किया। उनके विपरीत आचरणके कारण वे सभी
औषधियाँ पृथ्वीमें प्रविष्ट हो गयीं। तब महाराज पृथुने
पितामहके आदेशसे पृथ्वीका दोहन किया ॥ ४२--४५ ॥
तदनन्तर कालके प्रभावसे वे सभी प्रजाएँ क्रोधाभिभूत
होकर एक-दूसरेकी जमीन, धन, स्त्री आदिको बलपूर्वक
ग्रहण करने लगे। ऐसी अव्यवस्था देखकर भगवान्
ब्रह्माने मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये और ब्राह्मणोंके
कल्याणके लिये क्षत्रियोंकी सृष्टि की। प्रभुने त्रेतायुगमें
वर्ण तथा आश्रमकी व्यवस्था और पशुहिंसासे रहित
यज्ञोंका प्रवर्तन किया। द्वापरमें लोगोंमें सदा मतभेद,
राग, लोभ, युद्ध तथा तत्त्वोंके निश्चयका असामर्थ्य रहता
है। एक ही वेद त्रेतामें चार पादोंमें विभक्त किया जाता
है और द्वापर आदि युगोंमें वेदव्यासके द्वारा वही वेद
चार भागोंमें बाँठा जाता है ॥ ४६--५० ॥
ऋषिपुत्रोंने पुनः भ्रान्तदृष्ट्या मन्त्र और ब्राह्मणोंके
विन्यास तथा स्वर एवं वर्णके व्यतिक्रमसे विभक्त वेदोंके
पुनः विभाग किये। वैदिक ऋषियोंने कहीं-कहीं समानता,
विशेषता और दृष्टि-भेदके आधारपर ऋक् , यजु: एवं
साम-संज्ञक मन्त्रोंकी संहिताओंका संकलन किया। हे
सुब्रत ! (उन ऋषियोंने) ब्राह्मण, कल्पसूत्र, मन्त्रों, इतिहास-
पुराण और धर्मशास्त्रोंका उपदेश किया है॥५१--५३॥
अवर्षण, मृत्यु, अनेक व्याधियों, उपद्रवों और मन,
वाणी तथा शरीर-सम्बन्धी दुःखोंके कारण मनुष्योंको
निर्वेद उत्पन्न होता है। फिर निर्वेदके कारण उनमें
दुःखसे मुक्ति पानेका विचार पैदा होता है और विचारसे
वैराग्य उत्पन्न होता है तथा वैराग्यसे अपने दोष
दिखलायी पड़ते हैं॥५४-५५॥
१-सुख-सुविधाकी अधिकता भी राग आदिका कारण बनती है।
२-सत्य एवं त्रेतायुगमें वेद एक ही होता है, उसके पाद चार होते हैं। द्वापर एवं कलियुगमें एक वेद चार वेदके रूपमें विभक्त
हो जाता है। इन चार वेदोंकी ११३ शाखाएँ होती हैं। अध्येताओंके सामर्थ्यकी दृष्टिसे इसे व्यास कहते हैं।
५१७८
दोषाणां दर्शनाच्चेव द्वापरे ज्ञानसम्भव: ।
एषा रजस्तमोयुक्ता तृत्तिवं द्वापरे स्मृता॥ ५६॥
आद्ये कृते तु धर्मोउस्ति स त्रेतायां प्रवर्तते।
द्वापरे व्याकुलीभूत्वा प्रणश्यति कलौ युगे॥ ५७॥
्ः कूर्मपुराण मं
दोष-दर्शनके कारण द्वापरमें ज्ञान उत्पन्न होता है।
द्वापरमें यह वृत्ति रजोगुण और तमोगुणसे युक्त कही
गयी है। आद्य (सर्वप्रथम) कृतयुगमें धर्म प्रतिष्ठित था,
वह त्रेतामें भी रहता है, द्वापरमें व्याकुल होकर वह धर्म
कलियुगमें विलुप्त हो जाता है॥ ५६-५७॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहस्यां संहितायां पूर्विविभागे समर्विशोउध्याय: ॥ २७॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें सत्ताईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २७॥
अट्टाईसवॉ अध्याय
कलियुगके धर्मोका वर्णन, कलियुगमें शिव-पूजनकी विशेष महिमाका ख्यापन,
व्यासकृत शिवस्तुति, व्यासप्रेरित अर्जुनका शिवपुरीमें जाना
और व्यासद्वारा शिवभक्त अर्जुनकी महिमा
व्यास उवाच
तिष्ये मायामसूयां च वधं चैव तपस्विनाम्।
साधयन्ति नरा नित्यं तमसा व्याकुलीकृता: ॥ १॥
कलौ प्रमारको रोग: सततं क्षुद्भयं तथा।
अनावृष्टिभयं घोरं देशानां च विपर्यय:॥ २॥
अधार्मिका अनाचारा महाकोपाल्पचेतस: |
अनुतं वदन्ति ते लुब्धास्तिष्ये जाता: सुदुःप्रजा: ॥ ३॥
दुर्ष्टिर्दुरधीतेश् दुराचारे्दुरागमै: ।
विप्राणां कर्मदोषैश्व प्रजानां जायते भयम्॥ ४॥
नाधीयते कलौ वेदान् न यजन्ति द्विजातय:।
यजन्त्यन्यायतो वेदान् पठन्ते चाल्पबुद्धय: ॥ ५॥
शूद्राणां मन्त्रयौनेश्व सम्बन्धो ब्राह्मणै: सह।
भविष्यति कलौ तस्मिज् शयनासनभोजनै: ॥ ६॥
राजानः शूद्रभूयिष्ठा ब्राह्मणान् बाधयन्ति च।
भ्रूणहत्या वीरहत्या प्रजायेते नरेश्वर॥ ७॥
व्यासजीने कहा--कलियुगमें मनुष्य सदा तमोगुणसे
आवृत रहते हैं, इसीलिये माया, असूया (गुणोंमें
दोषदर्शन) तथा तपस्वियोंके वधमें ही लगे रहते हैं।
कलियुगमें प्राणहन्ता रोग, निरन्तर भूखका कष्ट, अवर्षणका
भयंकर भय तथा देशोंका उलट-फेर होता रहता है।
कलियुगमें उत्पन्न हुए दुष्ट मनुष्य अधार्मिक, सदाचारसे
रहित, अत्यन्त क्रोधी, दुर्बल चित्तवाले तथा लोभी होते
हैं और झूठ बोलते हैं। ब्राह्मणोंके असत् उद्देश्य, असत्
अध्ययन, दुराचार तथा दूषित शास्त्रोंके अभ्यास और बुरे
कर्मके दोषसे प्रजामें भय उत्पन्न होता है। द्विजाति लोग
कलियुगमें वेदोंका अध्ययन नहीं करते और न यज्ञ हो
करते हैं। अल्प बुद्धिवाले (यज्ञ करनेकी योग्यतासे
रहित) लोग यज्ञ करते हैं और अन्यायपूर्वक वेदोंको
पढ़ते हैं॥ १--५॥
कलियुगमें शूद्रोंका ब्राह्मणोंके साथ मन्त्र, योनि,
शयन, आसन और भोजनके द्वारा सम्बन्ध हो जायगा*।
नरेश्वर! अधिकांश राजा शूद्र होंगे, जो वस्तुतः: राजा
होनेके लिये अयोग्य होंगे; वे ब्राह्मणोंको पीड़ित करेंगे।
भ्रूणहत्या और वीरहत्या प्रचलित हो जायगी ॥ ६-७॥
* ब्राह्मणोंके शूद्र छोटे भाई हैं। बड़े भाईका छोटे भाईके प्रति अतिशय स्नेह होता है, अत: ब्राह्मण शूद्रोंसे स्लेहपूर्ण व्यवहार करते
ही हैं और यही अन्य युगोंमें था, पर कलिमें सत्त्गुणकी कमी होनेसे ऐसे व्यवहारका प्राय: अभाव हो जाता है तथा अधिकार, योग्यता
एवं मर्यादाका अतिक्रमण कर लोभ या भयवश ब्राह्मण मन्त्रदीक्षा, योनि (वैवाहिक सम्बन्ध) आदि करने लगते हैं। यह यथार्थतः
अनुचित है ही।
* अध्याय २८ *
स्रानं होम॑ जपं दान॑ देवतानां तथार्चनम्।
अन्यानि चैव कर्माणि न कुर्वन्ति द्विजातय:॥ ८ ॥
विनिन्दन्ति महादेवं ब्राह्मणान् पुरुषोत्तमम् ।
आम्नायधर्मशास्त्राणि पुराणानि कलौ युगे॥ ९ ॥
कुर्वन्त्यवेददृष्टानि कर्माणि विविधानि तु।
स्वधर्मे5डभिरुचिनेव ब्राह्मणानां प्रजायते॥ १०॥
कुशीलचर्या: पाषण्डे्वथारूपै: समावृता: |
बहुयाचनको लोको भविष्यति परस्परम्॥ ११॥
अट्टशूला जनपदा: शिवशूलाश्चतुष्पथा: |
प्रमदा: केशशूलिन्यो भविष्यन्ति कलौ युगे॥ १२॥
शुक्लदन्ता जिनाख्याश्व मुण्डा: काषायवासस: ।
शूद्रा धर्म चरिष्यन्ति युगान्ते समुपस्थिते॥ १३॥
शस्यचौरा भविष्यन्ति तथा चैलाभिमर्षिण: ।
चौराश्लौरस्थ हर्तारो हर्तुईर्ता तथापर:॥ १४॥
दुःखप्रचुरताल्पायुर्देहोत्समाद: सरोगता।
अधर्माभिनिवेशित्वात् तमोव॒त्तं कलौ स्मृतम्॥ १५॥
काषायिणो5थ निर्ग्रन्थास्तथा कापालिकाश्च ये।
वेदविक्रयिणश्वान्ये तीर्थविक्रयिण: परे॥ १६॥
आसनस्थान् द्विजान् दूष्ठा न चलन्त्यल्पबुद्धय: ।
ताडयन्ति द्विजेन्द्रांश्व शूद्रा राजोपजीविन: ॥ १७॥
उच्चासनस्था: शूद्रास्तु द्विजमध्ये परंतप।
ज्ञात्वा न हिंसते राजा कलौ कालबलेन तु॥ १८॥
पुष्पैश्च हसितैश्चैव तथान्यैर्मड्रलैद्विजा: ।
शूद्रानभ्यर्चयन्त्यल्पश्रुतभाग्यबलान्विता: ॥ १९॥
न प्रेक्षन्तेडचिंतांश्चापि शूद्रा द्विजवरान् नृप।
सेवावसरमालोक्य द्वारि तिष्ठन्ति च द्विजा:॥ २०॥
१-पंथ-विशेष। २-अपने पुण्यको बेचनेवाले।
१७९
(कलियुगमें ) द्विजाति लोग स्नान, होम, जप, दान,
देवताओंका पूजन तथा अन्य (शुभ) कर्मोको भी नहीं
करेंगे। कलियुगमें महादेव शंकर, पुरुषोत्तम विष्णु,
ब्राह्मणों, वेदों, धर्मशास्त्रों और पुराणोंकी लोग निन्दा
करते हैं। (सभी लोग) वेदमें अविहित अनेक प्रकारके
कर्मोको करते हैं तथा ब्राह्मणोंकी अपने धर्ममें रुचि नहीं
रहती ॥ ८--१० ॥
लोग कुत्सित आचारवाले एवं व्यर्थके पाखण्डोंसे
युक्त हो जायँंगे और संसार परस्परमें बहुत याचना
करनेवाला हो जायगा। कलियुगमें जनपद अन्नविक्रयी,
चौराहे वेदके विक्रयस्थल तथा स्त्रियाँ वेश्यावृत्तिवाली
हो जायँगी। युगका अन्त आनेपर सफेद दाँतोंवाले, जिन
नामवाले, मुण्डित, काषायवस्त्रधारी शूद्र पर-धर्माचरण
करने लगेंगे। (लोग) अनाज और बवस्त्रकी चोरी
करनेवाले होंगे। चोर लोग चोरोंकी ही चोरी करेंगे और
दूसरे चोर उस चोरका चुरायेंगे। दुःखकी अधिकता
होगी, अल्प आयु होगी, देहमें आलस्य तथा रोग रहेगा।
अधर्ममें विशेष प्रवृत्तिक कारण कलियुगमें सभी
व्यवहार तामस होंगे॥ ११--१५॥
कुछ लोग काषायवस्त्र धारण करनेवाले, कुछ
निर्ग्नथ (यज्ञोपवीत, शिखा आदिसे विहीन पंथवाले),
कापालिक*, वेदविक्रयी तथा कुछ लोग तीर्थविक्रयी"
हो जायँंगे। (कलियुगमें) राजाका संरक्षण प्राप्तकर
अल्पबुद्धिवाले शूद्र आसनपर स्थित द्विजोंको देखकर
नहीं चलते (द्विजोचित व्यवहार नहीं करते) तथा श्रेष्ठ
द्विजोंको प्रताड़ित करते हैं। परंतप! कलियुगमें समयके
प्रभावसे द्विजोंके मध्यमें शूद्र उच्च आसनपर बैठते हैं,
किंतु राजा जानकर भी उन्हें दण्ड नहीं देता। अल्प ज्ञान,
अल्प भाग्य तथा अल्प बलवाले द्विज लोग पुष्पोंके
द्वारा, मनोविनोदके साधन 'हास' आदिसे तथा अन्य
माड्नलिक पदार्थोसे शूद्रोंकी पूजा करते हैं । राजन्! शूद्र
लोग पूजित श्रेष्ठ द्विजोंकी ओर देखतेतक नहीं और द्विज
सेवाके अवसरको प्रतीक्षा करते हुए उनके दरवाजेपर
खड़े रहते हैं॥ १६--२० ॥
३-यदि कोई बड़ा लोभ या भयवश अपनेसे छोटेकी पूजा या अमर्यादित ढंगसे चापलूसी करे तो यह उचित नहीं है, निपिद्ध है।
१२८०
वाहनस्थान् समावृत्य शूद्राज् शूद्रोपजीबिन: ।
सेवन्ते ब्राह्मणास्तत्र स्तुवन्ति स्तुतिभि: कलौ॥ २१॥
अध्यापयन्ति वै वेदाज् शूद्राज् शूद्रोपजीविन: ।
पठन्ति वैदिकान् मन्त्रान् नास्तिक्यं घोरमाअिता: ॥ २२॥
तपोयज्ञफलानां च विक्रेतारो द्विजोत्तमा:।
यतयश्च भविष्यन्ति शतशो5थ सहस्त्रश:॥ २३॥
नाशयन्ति हाधीतानि नाधिगच्छन्ति चानघ।
गायन्ति लोकिकेगनिर्देवतानि नराधिप॥ २४॥
वामपाशुपताचारास्तथा वै पाश्रात्रिका:।
भविष्यन्ति कलौ तस्मिन् ब्राह्मणा: क्षत्रियास्तथा ॥ २५॥।
ज्ञानकर्मण्युपरते लोके निष्क्रियतां गते।
कौटमूषकसर्पाश्व धर्षयिष्यन्ति मानवान्॥ २६॥
कुर्वन्ति चावताराणि ब्राह्मणानां कुलेषु वै।
दधीचशापनिर्दग्धा: पुरा दक्षाध्वरे द्विजा:॥ २७॥
निन्दन्ति च महादेवं॑ तमसाविष्टचेतस: ।
वृथा धर्म चरिष्यन्ति कलौ तस्मिन् युगान्तिके ॥ २८ ॥
ये चान्ये शापनिर्दग्धा गौतमस्य महात्मन: ।
सर्वे ते च भविष्यन्ति ब्राह्मणाद्या: स्वजातिषु॥ २९॥
* कूर्मपुराण *
कलियुगमें शूद्रसे जीविका पानेवाले ब्राह्मण वाहनमें
स्थित शूद्रोंको घेरकर स्तुतियोंद्वारा उनकी प्रशंसा करते
हैं और सेवा करते हैं। शूद्रोंसे जीविका प्राप्त करनेवाले
(ब्राह्मण) शूद्रोंको वेद! पढ़ाते हैं। घोर नास्तिकतावादी
(शूद्र) वैदिक मन्त्रोंको पढ़ते हैं। जिनकी श्रेष्ठ द्विजके
रूपमें समाजमें मान्यता होती है, वे लोग (अपने)
तप एवं यज्ञके फलोंका विक्रय करनेवाले होते हैं।
( आलस्य या प्रतिष्ठाके लिये) सैकड़ों एवं हजारोंकी
संख्यामें लोग संन््यासी हो जायाँगे। हे निष्पाप राजन!
(कलियुगमें लोग) पढ़े हुएको भूल जाते हैं, अध्ययनके
फल ज्ञानके लिये उत्सुक नहीं रहते। (वे) लौकिक
गीतोंसे देवताओंकी स्तुति करते हैं॥२१--२४॥
कलियुगमें ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वाममार्गी, पाशुपताचारी
तथा पाछरात्रिक हो जायूँगे'। ज्ञान तथा कर्मका लोप
हो जाने और लोगोंके निष्क्रिय हो जानेपर कीड़े, चूहे
तथा सर्प लोगोंको कष्ट पहुँचायेंगे। प्राचीन कालमें दक्ष
प्रजापतिके यज्ञमें दधीचके शापसे दग्ध हुए द्विज
ब्राह्मणोंके कुलमें उत्पन्न होंगे। कलियुगके अन्त
समयमें तमोगुणसे व्याप्त मनवाले लोग महादेवकी निन््दा
करेंगे और व्यर्थके धर्मों (धर्माभासों)-का आचरण
करेंगे तथा जो दूसरे महात्मा गौतमके शापसे दग्ध हुए
लोग थे, वे सभी ब्राह्मण आदि अपनी-अपनी जातियोंमें
उत्पन्न होंगे॥ २५--२९॥
१-शृद्र चौथे वर्णका नाम है। शूद्र शब्दसे किसी हीनभावको समझना कथमपि शास्त्रसम्मत नहीं है। अपने छोटे भाईके
प्रति हीनभाव अपनाना सर्वथा अनुचित है। वेदोंके अध्ययनसे विरत रहनेके लिये शूद्रोंकी आदेश अवश्य दिया गया है, पर
इसके मूलमें उनके प्रति कल्याणकी भावना ही निहित है। यह वास्तविकता है कि समग्र वेदोंका यथावत् अध्ययन करनेपर
ही उनके द्वारा वह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, जो अधूरा न होकर परिपूर्ण होता है तथा सही अर्थमें कल्याणका साधन
बनता है। जिन मनीषियोंने समग्र वेदोॉंका आकलन किया है, उन लोगोंने निरपेक्ष-भावसे यह भलीभाँति समझा है तथा परीक्षापूर्वक
अनुभव किया है कि समग्र वेदोंका अध्ययन तीब्रतम तप एवं कठोरतम परिश्रम (सुदीर्घकालिक)-के बिना कथमपि सम्भव
नहीं है और यह सुदीर्घकालिक तीत्रतम तप एवं कठोरतम परिश्रम प्रिय अनुज (छोटे भाई) शूद्र एवं अति कोमल प्रकृतिवाली
स्त्रियाँ कथमपि नहीं कर सकतीं। अतएवं विशेषकर इन्हींके कल्याणके लिये महाभारत तथा अन्यान्य पुराण आदि ग्रन्थोंका
आविर्भाव हुआ। इन ग्रन्थोंमें सरल एवं रोचक पद्धतिसे वे ही ज्ञान-विज्ञान वर्णित हैं, जो वेदोंमें वर्णित हैं। योग्यता, अधिकार
एवं अध्ययनके विधानके अनुसार इन (महाभारत आदि)-को अपनी अपेक्षाके अनुकूल जान-समझकर करनेसे कल्याण अवश्य
ही प्राप्त होता है, जो वेदोंके समग्र अध्ययनसे प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि ज्ञानरूप फलकी दृष्टिसे मानव क्या प्राणिमात्र
अपनी सामर्थ्यके अनुसार समान हैं। अत: वेदोंको पढ़नेके विषयमें जो शास्त्रीय व्यवस्था है, उसके प्रति अन्यथा-दृष्टि अपनाना
भूल है।
आ २-यहाँ वाममार्ग आदिकी निन्दामें तात्पर्य नहीं है। वैदिक मार्गकौ स्तुतिमें तात्पर्य है। शुद्ध सात्त्विक भावकी प्रमुखता वैदिक
मार्गमें है, अत: वैदिक मार्ग प्रशस्ततम है। वाममार्ग आदिमें तो तामस-भाव एवं राजस-भावकी प्रमुखता है। अत: ये प्रशस्त
नहीं हैं।
* अध्याय २८ *
विनिन्दन्ति हषीकेशं ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिन: ।
वेदबाह्मब्रताचारा दुराचारा वृथाश्रमा:॥ ३०॥
मोहयन्ति जनान् सर्वान् दर्शयित्वा फलानि च।
तमसाविष्टमनसो.._ वैडालवृत्तिकाधमा: ॥ ३१॥
कलौ रुद्रो महादेवो लोकानामी श्वरः पर: ।
न देवता भवेन्नृणां देवतानां च दैवतम्॥ ३२॥
करिष्यत्यवताराणि शंकरो नीललोहित:।
श्रौतस्मार्तप्रतिष्ठार्थ भक्तानां हितकाम्यया॥ ३३ ॥
उपदेक्ष्यति तज्ज्ञानं शिष्याणां ब्रह्मसंज्ञितम्।
सर्ववेदान्तसारं हि धर्मान् वेदनिदर्शितान्॥ ३४॥
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनोपचारतः।
विजित्य कलिजान् दोषान् यान्ति ते परमं पदम्॥ ३५॥
अनायासेन सुमहत् पुण्यमाप्नोति मानव:।
अनेकदोषदुष्टस्थ कलेरेष महान् गुण:॥ ३६॥
तस्मातू सर्वप्रयत्नेन प्राप्य माहेश्वरं युगम्।
विशेषाद ब्राह्मणो रुद्रमीशानं शरणं ब्रजेत्॥ ३७॥
ये नमन्ति विरूपाक्षमीशानं कृत्तिवाससम्।
प्रसन्नचेतसो रुद्रं ते यान्ति परमं॑ पदम्॥ ३८॥
यथा रुद्रनमस्कारः सर्वकर्मफलो श्रुवम्।
अन्यदेवनमस्कारान्न तत्फलमवाप्नुयात्॥ ३९॥
एवंविधे कलियुगे दोषाणामेकशोधनम्।
महादेवनमस्कारो ध्यानं दानमिति श्रुति:॥ ४०॥
तस्मादनी श्वरानन्यान् त्यक्त्वा देवं महेश्वरम्।
समाश्रयेद् विरूपाक्ष॑ं यदीच्छेत् परमं पदम्॥ ४१॥
नार्चयन्तीह ये रुद्रं शिवं त्रिदशवन्दितम्।
तेषां दानं तपो यज्ञों वुथा जीवितमेव च॥ ४२॥
नमो रुद्राय महते देवदेवाय शूलिने।
त्यम्बकाय त्रिनेत्राय योगिनां गुरवे नमः॥ ४३॥
१२८१
वेदोंमें निषिद्ध त्रत और आचारका पालन करनेवाले,
दुराचारी तथा व्यर्थका श्रम (धर्म-मोक्षविरोधी अर्थमात्र
साधक काम अथवा दुर्जनतावश लोगोंको पीड़ा देनेवाले
काम) करनेवाले लोग हृषीकेश (श्रीविष्णु) तथा
ब्रह्मवादी ब्राह्मणोंकी निन्दा करेंगे॥ ३० ॥
तमोगुणसे आविष्ट मनवाले तथा दिखावटी धर्माचरण
करनेवाले अधम लोग अनेक प्रलोभनोंको दिखाकर सब
लोगोंको मोहित करेंगे। कलियुगमें लोकोंके ईश्वर,
देवताओंके भी देव श्रेष्ठ महादेव रुद्र मनुष्योंकी दृष्टिमें
देव (आराध्य) नहीं रहेंगे, पर भक्तोंक कल्याणकी कामनासे
तथा श्रौत एवं स्मार्त धर्मकी प्रतिष्ठाके लिये नीललोहित
शंकर अनेक अवतार धारण करेंगे। वे समस्त वेदान्तके
साररूप उस ब्रह्मसंज्ञक ज्ञानको और वेदमें बताये गये
धर्मोकों शिष्योंकों प्रदान करेंगे। जो ब्राह्मण जिस-किसी
भी उपायसे उन (शंकर)-की सेवा करेंगे, वे कलिके
दोषोंको जीतकर परमपदको प्राप्त करेंगे॥ ३१--३५ ॥
अनेक दोषोंसे दूषित कलिका यह महान् गुण है कि
इसके युगमें मनुष्य अनायास महान् पुण्य प्राप्त कर लेता
है। इसलिये महे श्वर-सम्बन्धी युग प्रात्कर विशेषरूपसे
ब्राह्मणोंको सभी प्रकारके प्रयत्रोंसे ईशान रुद्रकी शरण
ग्रहण करनी चाहिये। जो प्रसन्न-मनसे विरूपाक्ष, कृत्तिवासा,
ईशान रुद्रको नमस्कार करते हैं, वे परमपदको प्राप्त
करते हैं। जिस प्रकार रुद्रकों किया गया नमस्कार
निश्चितरूपसे सभी कामनाओंको पूर्ण करता है, उस
प्रकार अन्य देवोंको नमस्कार करनेसे वैसा फल नहीं होता।
इस प्रकारके कलियुगमें दोषोंको दूर करनेका एकमात्र
उपाय है महादेवको नमस्कार, उनका ध्यान और
शास्त्रानुसार दान--ऐसा वेदका मत है॥ ३६--४० ॥
इसलिये यदि परमपद प्राप्त करनेकी इच्छा हो तो
अन्य अनीथ्वरों (महेश्वरकी कृपासे ही शक्ति प्राप्त
करनेवाले अन्य देवों)-को छोड़कर एकमात्र देव
विरूपाक्ष महेश्रका आश्रय ग्रहण करना चाहिये। जो
देवताओंके द्वारा वन्दित रुद्र शिवकी अर्चना नहीं करते
हैं, उनका किया हुआ दान, तप, यज्ञ और जीवन व्यर्थ
ही होता है॥ ४१-४२॥
त्रिशूल धारण करनेवाले देवाधिदेव महान रुद्रको
नमस्कार है। त्र्यम्बक, त्रिलोचन, योगियोंके गुरुके लिये
नमस्कार है॥ ४३॥
१५८२
नमोस्तु वामदेवाय महादेवाय वेधसे।
शम्भवे स्थाणवे नित्यं शिवाय परमेष्ठिने।
नमः सोमाय रुद्राय महाग्रासाय हेतवे॥ ४४॥
प्रपद्ये5ह॑ विरूपाक्षं शरण्यं ब्रह्मचारिणम्।
महादेवं॑ महायोगमीशानं चाम्बिकापतिम्॥ ४५ ॥
योगिनां योगदातारं योगमायासमावृतम्।
योगिनां गुरुमाचार्य योगिगम्यं पिनाकिनम्॥ ४६ ॥
संसारतारणं रुद्रं ह्नह्माणं ब्रह्मणोउधिपम्।
शाश्वतं सर्वगं शान्तं ब्रह्मण्यं न्नाह्मणप्रियम्॥ ४७॥
कपर्दिन॑ कालमूर्तिममूर्ति परमेश्वरम।
एकमूर्ति महामूर्ति वेदवेच्ंं दिवस्पतिम्॥ ४८ ॥
नीलकण्ठं विश्वमूर्ति व्यापिनं विश्वरेतसम्।
कालागिन कालदहनं कामदं कामनाशनम्॥ ४९॥
नमस्ये गिरिशं देवं चन्द्रावयवरभूषणम।
विलोहितं लेलिहानमादित्यं परमेष्टठिनम्।
उग्र॑ पशुपतिं भीम॑ भास्करं तमसः परम्॥ ५०॥
इत्येतल्लक्षणं प्रोक्ते युगानां वे समासत: |
अतीतानागतानां वे यावन्मन्वन्तरक्षय: ॥ ५१॥
मन्वन्तरेण चैकेन सर्वाण्येवान्तराणि वै।
व्याख्यातानि न संदेह: कल्प: कल्पेन चैव हि॥। ५२॥
मन्वन्तरेषु सर्वेषु अतीतानागतेषु वै।
तुल्याभिमानिन: सर्वे नामरूपेर्भवन्त्युत॥ ५३॥
एवमुक्तो भगवता किरीटी श्वेतवाहनः।
बभार परमां भक्तिमीशाने5व्यभिचारिणीम्॥ ५४॥
नमश्बकार तमृषिं कृष्णद्वैपायनं प्रभुम्।
सर्वज्ञ सर्वकर्तार साक्षाद् विष्णुं व्यवस्थितम्॥ ५५ ॥
तमुवाच पुनर्व्यासः पार्थ परपुरञ्जयम्।
कराध्यां सुशुभाभ्यां च॒ संस्पृश्य प्रणतं मुनि: ॥ ५६॥
हम कूर्मपुराण मँः
महादेव, वेधा, वामदेव, शम्भु, स्थाणु, परमेष्ठी
शिवको नित्य नमस्कार है। सोम, रुद्र, महाग्रास
(महाप्रलयमें समस्त प्रपञ्को अपनेमें लीन कर लेनेवाले)
तथा कारणरूपको नमस्कार है॥ ४४॥
मैं विरूपाक्ष, शरण ग्रहण करने योग्य, ब्रह्मचारी,
महायोगस्वरूप, ईशान तथा अम्बिकापति महादेवकौ
शरण ग्रहण करता हूँ। योगियोंको योग प्रदान करनेवाले,
योगमायासे आवृत, योगियोंके गुरु, आचार्य, योगिगम्य
पिनाकी, संसारसे उद्धार करनेवाले, रुद्र, ब्रह्मा, ब्रह्माधिपति,
शाश्वत, सर्वव्यापी, शान्त, ब्राह्मणोंके रक्षक तथा ब्राह्मणप्रिय,
जटाधारी, कालमूर्ति, अमूर्ति, एकमूर्ति, महामूर्ति, वेदवेद्य
और च्युलोकके स्वामी परमेश्वर तथा नीलकण्ठ, विश्वमूर्ति,
सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले, विश्वरेता (जिनके वीर्यसे ही
समस्त विश्वकी उत्पत्ति हुई है), कालाग्रिरूप, कालका
दहन करनेवाले, कामनाओंको प्रदान करनेवाले एवं
कामदेवका नाश करनेवाले, चन्द्रमाके अवयवको अर्थात्
द्वितीयाके चन्द्रमाकों आभूषणके रूपमें धारण करनेवाले
देव गिरिश, विशेषरूपसे रक्तवर्णवाले, ग्रास बना लेनेवाले
(महाप्रलयमें सबको अपने उदरमें डाल लेनेवाले),
आदित्य, उग्र, पशुपति, भीम, भास्कर तथा अन्धकारसे
परे रहनेवाले परमेष्ठीको मैं नमस्कार करता हूँ॥ ४५--५०॥
मन्वन्तरकी समाप्तिपर्यन्त बीते हुए तथा भविष्यमें
आनेवाले युगों (कलियुगों)-का संक्षेपमें यह लक्षण बताया
गया है, नि:संदेह एक मन्वन्तर (-के कथन)-से सभी
मन्वन्तरों तथा एक कल्प (-के कथन) -से अन्य कल्पोंका
भी कथन हो गया। बीते हुए तथा आनेवाले सभी मन्वन्तरोंमें
समान नाम एवं रूपवाले सभी अधिष्ठाता (देवता, सम्तर्षि
तथा इन्द्र आदि) होते हैं॥ ५१--५३ ॥
भगवान् (व्यास)-के ऐसा कहनेपर श्वेतवाहन
किरीटधारी (अर्जुन)-ने ईशान (भगवान् शंकर)-में
निश्चल परम भक्ति धारण की। उन्होंने उन सर्वज्ञ, सब
कुछ करनेवाले, साक्षात् विष्णुके रूपमें अवस्थित प्रभु
कृष्णद्वैपायन ऋषिको नमस्कार किया॥ ५४-५५॥
शत्रुके नगरको जीतनेवाले तथा विनीत उन पार्थ
(अर्जुन)-को व्यासमुनिने अपने दोनों सुन्दर, शुभ
हाथोंसे स्पर्श करते हुए पुनः कहा॥ ५६॥
* अध्याय २८ *
धन्योस्यनुगृहीतो5सि त्वादूशोउन्यो न विद्यते।
त्रैलोक्ये शंकरे नूनं भक्त: परपुरु््जय॥ ५७॥
दृष्टवानसि त॑ देवं विश्वाक्ष॑ं विश्वतोमुखम्।
प्रत्यक्षमेव सर्वेशं रुद्रं सर्वजगदगुरुम्॥ ५८ ॥
ज्ञानं तदैश्वरं दिव्यं यथावद् विदितं त्वया।
स्वयमेव हषीकेश: प्रीत्योवाच सनातन: ॥ ५९॥
गच्छ गच्छ स्वकं स्थान न शोकं कर्तुमईसि।
ब्रजस्व परया भक्त्या शरण्यं शरणं शिवम्॥ ६० ॥
एवमुक्त्ता स भगवाननुगहार्जुनं प्रभु: ।
जगाम शंकरपुरीं समाराधयितुं भवम्॥ ६१॥
पाण्डवेयो5पि तद्वाक्यात् सम्प्राप्प शरणं शिवम्।
संत्यज्य सर्वकर्माणि तद्धक्तिपरमो5$भवत्॥ ६२ ॥
नार्जुनेन सम: शम्भोर्भक्त्या भूतो भविष्यति।
मुक्त्वा सत्यवतीसूनु कृष्णं वा देवकीसुतम्॥ ६३ ॥
तस्मे भगवते नित्यं नमः सत्याय धीमते।
पाराशर्याय मुनये व्यासायामिततेजसे॥ ६४॥
कृष्णद्वेपायन: साक्षाद् विष्णुरेव सनातन: ।
को हान्यस्तत्त्वतो रुद्रं वेत्ति तं परमेश्वरम्॥ ६५॥
नम: कुरुध्वं तमृषिं कृष्णं सत्यवतीसुतम्।
पाराशर्य महात्मानं योगिनं विष्णुमव्ययम्॥ ६६॥
एवमुक्तास्तु मुनयः सर्व एवं समाहिताः।
प्रणेमुस्तं महात्मानं व्यासं सत्यवतीसुतम्॥ ६७॥
१८३३
शत्रुके नगरको जीतनेवाले (अर्जुन!) निश्चय ही
तीनों लोकोंमें तुम्हािरे समान शंकरका भक्त कोई दूसरा
नहीं है, तुम धन्य हो, अनुगृहीत (भगवान् शंकरके
अनुग्रहके भाजन) हो। तुमने सभी ओर नेत्र तथा सभी
ओर मुखवाले, सारे संसारके गुरु, सर्वेश, रुद्रदेवका
प्रत्यक्ष ही दर्शन किया है। ईश्वर (शंकर)-सम्बन्धी
दिव्य ज्ञान तुम्हें यथार्थरूपसे विदित है। स्वयं सनातन
हृषीकेशने प्रीतिपूर्वक तुम्हें सब बतलाया था। शीघ्र
अपने स्थानको जाओ, तुम शोक करने योग्य नहीं हो।
शरणागतवत्सल शिवकी परा भक्तिकी शरण ग्रहण
करो ॥ ५७--६० ॥
ऐसा कहकर वे भगवान् प्रभु (व्यास) अर्जुनपर
कृपा करके शंकरकी आराधना करनेके लिये शंकरकी
पुरीको गये। पाण्डुपुत्र अर्जुन भी उनके कहनेसे शिवकी
शरणमें पहुँचे और सभी कर्मोंका परित्यागकर उनकी
भक्तिमें ही दत्तचित्त हो गये॥ ६१-६२॥
सत्यवतीके पुत्र व्यास या देवकीके पुत्र कृष्णको
छोड़कर अन्य कोई भी अर्जुनके समान शंकरकी भक्ति
करनेवाला न तो हुआ और न होगा। उन सत्यस्वरूप,
धीमान् पराशरके पुत्र अमित तेजस्वी भगवान् व्यासमुनिको
नित्य नमस्कार है। कृष्णद्वैपायन (व्यास) साक्षात्
सनातन विष्णु ही हैं, इनके अतिरिक्त उन परमेश्वर
रुद्रको यथार्थरूपसे अन्य कौन जानता है। इन
सत्यवतीनन्दन, पराशरपुत्र, महात्मा योगी, अव्यय विष्णुस्वरूप
कृष्णद्वैपायन (व्यास) ऋषिको आपलोग नमस्कार करें।
इस प्रकारसे कहे जानेपर सभी मुनियोंने एकाग्रचित्त
होकर सत्यवतीके पुत्र उन महात्मा व्यासको नमस्कार
किया॥ ६३--६७ ॥
डति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहग्रशं संहितायां पूर्वव्भागे अष्टारविशोउब्याय: ॥ २८ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें अट्टाईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २८ ॥
१८४
* कूर्मपुराण *
उनतीसवाँ अध्याय
व्यासजीका वाराणसी-गमन, व्याससे जेमिनि आदि ऋषियोंका धर्मसम्बन्धी प्रश्न,
व्यासका उन्हें शिव-पार्वती-संवाद बताना, अविमुक्तक्षेत्र वाराणसीका
माहात्म्य, वाराणसी-सेवनका विशेष फल
ऋषय ऊचु:
प्राप्य वाराणसी दिव्यां कृष्णद्वैपायनो मुनि: ।
किमकार्षीन्महाबुद्धि: श्रोतुं कौतूहलं हि न:॥ १ ॥
सूत उवाच
प्राप्प वाराणसी दिव्यामुपस्पृश्य महामुनि: ।
पूजयामास जाह्वव्यां देवं विश्वेश्वर शिवम्॥ २ ॥
तमागतं मुनि दृष्टा तत्र ये निवसन्ति वे।
पूजयाज्ञक्रिरे व्यासं मुनयो मुनिपुड्गवम्॥ ३ ॥
पप्रच्छु: प्रणता: सर्वे कथा: पापविनाशिनी: ।
महादेवाश्रया: पुण्या मोक्षधर्मानू सनातनान्॥ ४ ॥
स चापि कथयामास सर्वज्ञो भगवानृषि:।
माहात्म्यं देवदेवस्य धर्मान् वेदनिदर्शितान्॥
तेषां मध्ये मुनीन्द्राणां व्यासशिष्यो महामुनि: ।
पृष्टवान् जैमिनि्व्यासं गूढमर्थ सनातनम्॥ ६ ॥
जैमिनिरुवाच
भगवन् संशयं त्वेकं छेत्तुमईसि तत्त्वतः।
न विद्यते हाविदितं भवता परमर्षिणा॥ ७॥
केचिद् ध्यानं प्रशंसन्ति धर्ममेवापरे जना: ।
अन्ये सांख्यं तथा योगं तपस्त्वन्ये महर्षय:॥ ८ ॥
ब्रह्मचर्यमथोी. मौनमन्ये प्राहुर्महर्षय: ।
अहिंसां सत्यमप्यन्ये संन्यासमपरे विदु:॥ ९ ॥
केचिद् दयां प्रशंसन्ति दानमध्ययनं तथा।
तीर्थयात्रां तथा केचिदन्ये चेन्द्रियनिग्रहम्॥ १०॥
किमेतेषां भवेज्यायः प्रत्रूहि मुनिपुड्रव।
यदि वा विद्यतेउप्यन्यद् गुह्ं तद्कक्तुमहसि॥ ११॥
श्र॒ुत्वा स जैमिनेर्वाक्यं कृष्णद्वैपायनो मुनि: ।
प्राह गम्भीरया वाचा प्रणम्य वृषकेतनम्॥ १२॥
भगवानुवाच
साधु साधु महाभाग यत्पृष्ट भवता मुने।
बक्ष्ये गुह्मतमाद् गुह्मं श्रृण्वन्त्वन्ये महर्षय:॥ १३॥
ऋषियोंने कहा-- ( सूतजी !) महाबुद्धिमान् कृष्ण-
द्वैपवायन (व्यास) मुनिने दिव्य वाराणसीपुरीमें पहुँचकर
क्या किया ? इस विषयको सुननेके लिये हम लोगोंको
कोौतूहल है॥१॥
सूतजी बोले--दिव्य वाराणसीमें पहुँचकर महा-
मुनिने गड़ामें आचमनकर (स््रानकर) विश्वेश्वर देव
शिवका पूजन किया। उन मुनि (व्यासजी)-को आया
देखकर वहाँ निवास करनेवाले मुनियोंने मुनिश्रेष्ठ
व्यासकी पूजा की। उन सभीने महादेवसे सम्बद्ध
पापोंका नाश करनेवाली पुण्यदायिनी कथा तथा सनातन
मोक्षधर्मोकोी विनयपूर्वक पूछा। सर्वज्ञ उन भगवान्
(व्यास) ऋषिने भी देवाधिदेव (शिव)-का माहात्म्य
तथा वेदमें निर्दिष्ट धर्मोका वर्णन किया। उन मुनियोंके
मध्य व्यासके शिष्य महामुनि जैमिनिने व्यासजीसे
सनातन गूढ़ अर्थ पूछा॥ २--६॥
जेमिनिने कहा--भगवन्! एक संशयको आप
यथार्थरूपसे दूर करें, क्योंकि आप परम ऋषिको कुछ
भी अविदित नहीं है। कुछ लोग ध्यानकी प्रशंसा करते
हैं, कुछ दूसरे धर्मकी ही प्रशंसा करते हैं। अन्य लोग
सांख्य तथा योगको, कुछ महर्षि तपको, कोई ब्रह्मचर्यको
और दूसरे महर्षि मौन धारणको, कुछ अहिंसा एवं
सत्यको तथा कुछ दिद्वान् संन्यासको श्रेष्ठ बताते हैं। कुछ
लोग दयाकी प्रशंसा करते हैं तो कुछ दान तथा
अध्ययनकी। इसी प्रकार कुछ तीर्थयात्राको तथा दूसरे
लोग इन्द्रियनिग्रहको महत्त्व देते हैं। मुनिश्रेष्ठ ! इनमेंसे
बतलायें कि कौन सर्वाधिक श्रेष्ठ है अथवा अन्य भी
यदि कोई गुह्य साधन हो तो उसे आप बतलायें॥ ७--११॥
जैमिनिकी बात सुनकर वे कृष्णद्वैपायन मुनि वृषभध्वज
(शंकर)-को प्रणाम करते हुए गम्भीर वाणीमें बोले-- ॥ १२॥
भगवान् ( व्यास )-ने कहा--महाभाग्यशाली मुने!
आप धन्य हैं, धन्य हैं। आपने जो पूछा है, मैं उस
गुह्मतमसे भी गुह्य (तत्त्व)-को कहता हूँ, अन्य सभी
महर्षि भी सुनें-- ॥ १३॥
* अध्याय २९ *
ईश्वरेण पुरा प्रोक्त ज्ञानमेतत् सनातनम्।
गूढमप्राज्ञविद्विष्ट सेवितं सूक्ष्मदर्शिभि: ॥ १४॥
नाश्रहदधाने दातव्यं नाभक्ते परमेष्टिन:।
न वेदविद्विषि शुभ ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्॥ १५॥
मेरुश्रुद्धे पुरा देवमीशानं त्रिपुरद्धिषम्।
देवासनगता देवी महादेवमपृच्छत॥ १६॥
देव्युवाच
देवदेव महादेव भक्तानामार्तिनाशन।
कथं त्वां पुरुषो देवमचिरादेव पश्यति॥ १७॥
सांख्ययोगस्तथा ध्यानं कर्मयोगो5थ वैदिक: ।
आयासबहुला लोके यानि चान्यानि शंकर ॥ १८॥
येन विभ्रान्तचित्तानां योगिनां कर्मिणामपि।
दृश्यो हि भगवान् सूक्ष्म: सर्वेषामथ देहिनाम्॥ १९॥
एतद् गुह्मतमं ज्ञान गूढं ब्रह्मादिसेवितम्।
हिताय सर्वभक्तानां ब्रूहि कामाड्ननाशन॥ २०॥
ईश्वर उवाच
अवाच्यमेतद् विज्ञानं ज्ञानमज़ेर्बहिष्कृतम्।
वक्ष्ये तव यथातत्त्वं यदुक्त परमर्षिभि:॥ २१॥
परं गुह्मतमं क्षेत्र मम वाराणसी पुरी।
सर्वेषामेव भूतानां संसारार्णवतारिणी॥ २२॥
तत्र भक्ता महादेवि मदीयं ब्रतमास्थिता:।
निवसन्ति महात्मानः परं नियममास्थिता: ॥ २३॥
उत्तमं सर्वतीर्थानां स्थानानामुत्तमं च तत्।
ज्ञानानामुत्तमं॑ ज्ञानमविमुक्ते पर मम॥ २४॥
स्थानान्तरं पवित्राणि तीर्थान्यायतनानि च।
श्मशानसंस्थितान्येव दिव्यभूमिगतानि च॥ २५॥
भूलोंके नेव संलग्रमन्तरिक्षे ममालयम्।
अयुक्तास्तन्न पश्यन्ति युक्ता: पश्यन्ति चेतसा ॥ २६॥
श्मशानमेतद् विख्यातमविमुक्तमिति श्रुतम्।
कालो भूत्वा जगदिदं संहराम्यत्र सुन्दरि॥ २७॥
१२८५
अज्ञानी लोग जिससे द्वेष करते हैं और सूक्ष्मदर्शी
जिसका सेवन करते हैं, वह गूढ़ सनातन ज्ञान प्राचीन
कालमें ईश्वर (शंकर)-के द्वारा कहा गया है। जो
श्रद्धारहित हो, परमेष्ठी (शंकर)-का भक्त न हो और
वेदसे द्वेष रखता हो, ऐसे व्यक्तिको सभी ज्ञानोंमें उत्तम
इस शुभ ज्ञानको नहीं प्रदान करना चाहिये। प्राचीन
कालमें मेरु-शिखरपर भगवान् शंकरके साथ एक ही
आसनपर स्थित देवी पार्वतीने त्रिपुरारि देव, ईशान
महादेवसे पूछा-- ॥ १४--१६॥॥
देवीने कहा--देवाधिदेव महादेव! आप भक्तोंके
कष्टको दूर करनेवाले हैं। पुरुष किस प्रकार शीघ्र ही
आप देवका दर्शन कर सकता है? कामदेवका विनाश
करनेवाले शंकर! लोकमें सांख्ययोग, ध्यान, वैदिक
कर्मयोग और अन्य भी अनेक अधिक परिश्रमसाध्य
(उपाय) बतलाये गये हैं। (उनमें) जो ब्रह्मा आदिद्वारा
सेवित उपाय या अत्यन्त गुह्य एवं गूढ़ ज्ञान हो, उसे
आप हम सभी भक्तोंके कल्याणके लिये बतलायें, जिससे
भ्रान्तचित्ततालों अथवा कर्मयोगी मनुष्यों एवं समस्त
देहधारियोंको सूक्ष्म भगवान्का दर्शन हो सके॥ १७--२० ॥
ईश्वर बोले--परम ऋषियोंने जिस विज्ञानको कहा
है, अज्ञानियोंने जिस ज्ञानका विरोध किया है और जो
अकथनीय है, उसे मैं तत्त्वतः तुमसे कहता हूँ। पुरी
वाराणसी मेरा परम गुद्यतम क्षेत्र है। यह सभी प्राणियोंको
संसारसागरसे पार उतारनेवाली है। महादेवि! यहाँ मेरे
ब्रतको धारण करनेवाले भक्त तथा श्रेष्ठ नियमका आश्रय
ग्रहण करनेवाले महात्मा निवास करते हैं। यह मेरा
अविमुक्त (काशीक्षेत्र) सभी तीर्थोमें उत्तम, सभी स्थानोंमें
श्रेष्ठ और सभी ज्ञानोंमें उत्तम ज्ञानरूप है॥ २१--२४॥
इस दिव्य भूमिमें महाश्मशानरूपी* काशीमें अन्य
अनेक पवित्र स्थान, तीर्थ तथा मन्दिर प्रतिष्ठित हैं। मेरा
गृहस्वरूप (यह वाराणसी क्षेत्र) भूलोकसे सम्बद्ध नहीं
है, अपितु अन्तरिक्षमें (अवस्थित) है, अयोगियोंको इसके
दर्शन नहीं होते। जो योगी हैं वे ध्यानमें इसका दर्शन
करते हैं। सुन्दरी ! यह महाश्मशानके नामसे विख्यात है
और इसे अविमुक्त (क्षेत्र) भी कहा जाता है। मैं कालरूप
होकर यहाँ इस संसारका संहार करता हूँ॥ २५--२७॥
* काशीमें मरण होनेपर स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण--इन तीनों शरीरोंका सदाके लिये नाश हो जाता है, इसीलिये काशीको
महाश्मशान कहते हैं।
१८६
देवीदं सर्वगुह्मानां स्थानं प्रियतमं मम।
मद्धक्तास्तत्र गच्छन्ति मामेव प्रविशन्ति ते॥ २८॥
दत्त जप्त हुतं चेष्टे तपस्तप्तं कृतं च यत्।
ध्यानमध्ययनं ज्ञानं सर्व तत्राक्षयं भवेत्॥ २९॥
जन्मान्तरसहस्त्रेष. यत्पापं पूर्वसंचितम्।
अविमुक्त प्रविष्टस्य तत्सर्व व्रजति क्षयम्॥ ३०॥
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्रा ये वर्णसंकरा: ।
स्त्रियो म्लेच्छाश्व ये चान्ये संकीर्णा: पापयोनय: ॥ ३१॥
कीटा: पिपीलिकाश्चैव ये चान्ये मृगपक्षिण: ।
कालेन निधन प्राप्ता अविमुक्ते वरानने॥ ३२॥
चन्द्रार्थभीलयस्त्यक्षा महावृषभवाहना:।
शिवे मम पुरे देवि जायन्ते तत्र मानवा:॥ ३३॥
नाविमुक्ते मृत: कश्चिन्नरकं याति किल्जिषी |
ईश्वरानुगृहीता हि सर्वे यान्ति परां गतिम्॥ ३४॥
मोक्ष सुदुर्लभं मत्वा संसारं चातिभीषणम् |
अश्मना चरणो हत्वा वाराणस्यां वसेन्नर:॥ ३५॥
दुर्लभा तपसा चापि पूतस्य परमेश्वारि।
यत्र तत्र विपन्नस्य गति: संसारमोक्षिणी।॥ ३६॥
प्रसादाजायते होतन्मम शैलेन्द्रनन्दिनि।
अप्रबुद्धा न पश्यन्ति मम मायाविमोहिता: ॥ ३७॥
अविमुक्त न सेवन्ते मूढा ये तमसावृता:।
विण्मूत्ररेतसां मध्ये ते वसन्ति पुनः पुनः॥ ३८॥
हन्यमानो5पि यो विद्वान् वसेद् विष्नशतैरपि।
स याति परम स्थान यत्र गत्वा न शोचति॥ ३९॥
जन्ममृत्युजरामुक्तं पर॑ यान्ति शिवालयम्।
अपुनर्मरणानां हि सा गतिर्मोक्षकाड्क्षिणाम्।
यां प्राप्प कृतकृत्य: स्थादिति मन्यन्ति पण्डिता: ॥ '४०॥
न दानैर्न तपोभिश्व न यज्ञैर्नापि विद्यया।
प्राप्यते गतिरुत्कृष्टा याविमुक्ते तु लभ्यते॥ ४१॥
ह कूर्मपुराण के
देवि! सभी गुह्य स्थानोंमें यह मेरा सर्वाधिक प्रिय
स्थान है। मेरे भक्त यहाँ आते ही मुझमें ही प्रविष्ट हो
जाते हैं। यहाँ किया हुआ दान, जप, होम, यज्ञ, तप,
कर्म, ध्यान, अध्ययन और ज्ञानार्जन--सब कुछ अक्षय
हो जाता है। अविमुक्त क्षेत्रमें प्रविष्ट होनेवालेका हजारों
जन्मान्तरोंमें किया हुआ जो पूर्वसंचित पाप है, वह सब
नष्ट हो जाता है॥ २८--३० ॥
वरानने! अविमुक्त (वाराणसी) क्षेत्रमें कालवश
मृत्युको प्राप्त--ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर,
स्त्री, म्लेच्छ, अन्य संकीर्ण पाप योनिवाले सभी मानव
प्राणी, कीड़े, चींटी तथा जो भी अन्य मृग-पक्षी आदि
हैं-ये सभी सिरपर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले, त्िनेत्र
तथा महावृषभ (नन्दी)- को वाहन बनानेवाले (शिव-
स्वरूप) मानव बनकर मेरे कल्याणमय पुरमें उत्पन्न
होते हैं। अविमुक्त क्षेत्रमें मरा हुआ कोई पापी नरकमें
नहीं जाता है, ईश्वर (शंकर)-से कृपा-प्राप्त वे सभी परम
गति प्राप्त करते हैं। मोक्षको अत्यन्त दुर्लभ और संसारको
अत्यन्त भीषण समझकर पत्थरद्वारा पैरोंको तोड़कर
मनुष्यको वाराणसीमें निवास करना चाहिये॥ ३१--३५॥
परमेश्वरी ! तपस्याद्वारा पवित्र हुए प्राणीके लिये भी
जहाँ-कहीं मरनेपर संसारसे मुक्त करनेवाली गति दुर्लभ
होती है। शैलपुत्री ! मेरे अनुग्रहसे (वह गति) यहाँ
प्राप्त हो जाती है। मेरी मायासे विमोहित अज्ञानी लोग
इस तत्तवको नहीं समझते हैं। अज्ञानसे आवृत मूढ़
लोग अविमुक्त क्षेत्रका सेवन नहीं करते, वे मल-
मूत्र और रजोवीर्य (-से युक्त नरक)-के बीच बार-
बार निवास करते हैं। सैकड़ों विप्लोंसे आहत होनेपर
भी जो विद्वान् (वाराणसीमें) निवास करते हैं, वे उस
परम स्थानको प्राप्त करते हैं, जहाँ जानेपर शोक नहीं
करना पड़ता॥ ३६--३९ ॥
(वे) जन्म, मृत्यु और जरारहित होकर शिवके श्रेष्ठ
निवासस्थानको प्राप्त करते हैं। पुनः मरणको न प्राप्त
करनेवाले मोक्षार्थियोंकी वह सदगति होती है, जिसे
प्रातकर पण्डित लोग (स्वयंको) कृतकृत्य मानते हैं।
अविमुक्त क्षेत्रमें जो उत्कृष्ट गति प्राप्त होती है, वह न
दानोंसे, न विविध तपोंसे, न यज्ञोंसे और न विद्याद्वारा
ही प्राप्त की जा सकती है॥४०-४१॥
* अध्याय २९ *
नानावर्णा विवर्णाश्र चण्डालाद्या जुगुप्सिता:
किल्बिषै: पूर्णदेहा ये विशिष्ट: पातकैस्तथा।
भेषजं॑ परम तेषामविमुक्त॑ विदुर्बुधा: ॥ ४२॥
अविमुक्त परे ज्ञानमविमुक्त परं॑ पदम्।
अविमुक्त परं तत्त्वमविमुक्त पर शिवम्॥ ४३॥
कृत्वा वे नेष्ठिकीं दीक्षामविमुक्ते वसन्ति ये।
तेषां तत्परमं ज्ञानं ददाम्यन्ते परे पदम्॥ ४४॥
प्रयागं नेमिषं पुण्यं श्रीशेलोडथ महालय:।
केदारं भद्रकर्ण च गया पुष्करमेव च॥ ४५॥
कुरुक्षेत्र. रुद्रकोटिर्नर्मदाग्रातके श्वरम् ।
शालिग्रामं च कुब्जाम्रं कोकामुखमनुत्तमम्।
प्रभासं विजयेशानं गोकर्ण भद्गरकर्णकम्॥ ४६॥
एतानि पुण्यस्थानानि त्रेलोक्ये विश्रुतानि ह।
न यास्यन्ति परं मोक्ष वाराणस्यां यथा मृता: ॥ ४७॥
वाराणस्यां विशेषेण गड्ढा त्रिपथगामिनी।
प्रविष्टा नाशयेत् पापं जन्मान्तरशतैः कृतम्॥ ४८ ॥
अन्यत्र सुलभा गड़ा श्राद्ध दानं तपो जप: ।
ब्रतानि सर्वमेवैतद् वाराणस्यां सुदुर्लभम्॥ ४९॥
यजेत जुहुयान्नित्यं ददात्यर्चयते5मरान्।
वायुभक्षश्व सततं वाराणस्यां स्थितो नर: ॥ ५०॥
यदि पापो यदि शठो यदि वा5धार्मिको नरः।
वाराणसीं समासाद्य पुनाति सकल॑ नरः:॥ ५१॥
वाराणस्यां महादेवं येड3र्चयन्ति स्तुवन्ति वै।
सर्वपापविनिर्मुक्तास्ते विज्ञेया गणेश्वरा:॥ ५२॥
अन्यत्र योगज्ञानाभ्यां संन्यासादथवान्यतः।
प्राप्पते तत् परं स्थान सहस्त्रेणेव जन्मना॥ ५३॥
ये भक्ता देवदेवेशे वाराणस्यां वसन्ति वै।
ते विन्दन्ति परं मोक्षमेकेनैव तु जन्मना॥ ५४॥
यत्र योगस्तथा ज्ञानं मुक्तिरेकेन जन्मना।
अविमुक्त समासाद्य नान्यद गच्छेत् तपोवनम्॥ ५५॥
१८७
विद्वानोंका यह कहना है कि अनेक (ब्राह्मणादि)
वर्णवाले मनुष्यों, वर्णहित चण्डालादिकों, घृणित व्यक्तियों
तथा जो पापों तथा विशिष्ट पापों (महापापों)-से युक्त
देहवाले हैं, उनके लिये अविमुक्त क्षेत्र (वाराणसीका
सेवन ही) परम ओषधि है। अविमुक्त (क्षेत्र) परम ज्ञान
है। अविमुक्त (क्षेत्र) परम पद है। अविमुक्त (क्षेत्र)
परम तत्त्व है और अविमुक्त (क्षेत्र) परम कल्याण है।
नैष्ठिकी दीक्षा ग्रहण कर जो अविमुक्त (क्षेत्र)-में निवास
करते हैं, उन्हें में श्रेष्ठ ज्ञान और अन्तमें परम पद प्रदान
करता हूँ॥ ४२--४४॥
प्रयाग, पुण्यदायी नैमिषारण्य, महालय श्रीशैल, केदार,
भद्ग॒कर्ण, गया, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, रुद्रकोटि, नर्मदा, आम्रातकेश्वर,
शालिग्राम, कुब्जाम्र, श्रेष्ठ कोकामुख, प्रभास, विजयेशान,
गोकर्ण तथा भद्रकर्ण--ये सभी पवित्र तीर्थ तीनों लोकोंमें
विख्यात हैं, किंतु जिस प्रकार वाराणसीमें मरे हुए
व्यक्तियोंको परम मोक्ष प्राप्त होता है, वैसा अम्यत्र प्राप्त
नहीं होता। वाराणसीमें प्रविष्ट त्रिपथगामिनी (स्वर्ग,
पाताल एवं भूलोक इस प्रकार तीन पशथोंमें प्रवाहित
होनेवाली) गड्जा सैकड़ों जन्मोंमें किये हुए पापोंको नष्ट
करनेमें अपना विशिष्ट स्थान रखती है॥ ४५--४८ ॥
गड्ढा, श्राद्ध, दान, तप, जप तथा ब्रत वाराणसीमें
सभी सुलभ हैं, परंतु अन्यत्र दुर्लभ हैं। वाराणसीमें
स्थित मनुष्य ऐसा ज्ञान अत्यल्प परिश्रमसे प्राप्त कर लेता
है, जिसके सहारे वायुभक्षी होकर नित्य हवन करता है,
यज्ञ करता है, दान देता है तथा देवताओंकी पूजा करता
है। मनुष्य पापी हो, शठ हो अथवा अधार्मिक हो, तब
भी वाराणसीमें पहुँचकर अपने संसर्गमें रहनेवाले
सबको पवित्र कर देता है। वाराणसीमें जो महादेवकी
स्तुति करते हैं, अर्चना करते हैं, उन्हें सभी पापोंसे मुक्त
(शंकरके) गणेश्वर समझना चाहिये॥ ४९--५२ ॥
दूसरे स्थानमें योग, ज्ञान, संन्यास अथवा अन्य उपायोंसे
हजारों जन्मोंमें वह परमपद--मोक्ष प्राप्त होता है, किंतु
देवदेवेश शंकरके जो भक्त वाराणसीमें निवास करते हैं,
वे एक ही जन्ममें परमपद-मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं।
जहाँ एक ही जन्ममें योग, ज्ञान अथवा मुक्ति मिल जाती
है, उस अविमुक्त (वाराणसी) क्षेत्रमें पहुँचकर फिर
किसी दूसरे तपोवनमें नहीं जाना चाहिये॥ ५३--५५॥
१८८
यतो मया न मुक्त तदविमुक्त ततः स्मृतम्।
तदेव गुहां गुह्मानामेतद् विज्ञाय मुच्यते॥ ५६॥
ज्ञानाज्ञानाभिनिष्ठानां परमानन्दमिच्छताम्।
या गतिर्विहिता सुभ्रु साविमुक्ते मृतस्य तु॥ ५७॥
यानि चैवाविमुक्तस्य देहे तूक्तानि कृत्स्नश: ।
पुरी वाराणसी तेभ्य: स्थानेभ्यो हाधिका शुभा॥ ५८ ॥
यत्र साक्षान्महादेवो देहान्ते स्वयमी श्वर:।
व्याचष्टे तारकं ब्रह्म तत्रेव हाविमुक्तकम्॥ ५९॥
यत् तत् परतरं तत्त्वमविमुक्तमिति श्रुतम्।
एकेन जन्मना देवि वाराणस्यां तदाप्नुयात्॥ ६० ॥
भ्रूमध्ये नाभिमध्ये च हृदये चैव मूर्धनि।
यथाविमुक्तमादित्ये वाराणस्यां व्यवस्थितम्॥ ६१ ॥
वरणायास्तथा चास्या मध्ये वाराणसी पुरी।
तत्रेव संस्थितं तत्त्वं नित्यमेवाविमुक्तकम्॥ ६२ ॥
वाराणस्या: परं स्थान न भूतं न भविष्यति।
यत्र नारायणो देवो महादेवो दिवेश्वर:॥ ६३॥
तत्र देवा: सगन्धर्वा: सयक्षोरगराक्षसा: ।
उपासते मां सततं देवदेवं॑ पितामहम्॥ ६४॥
महापातकिनो ये च ये तेभ्य: पापकृत्तमा: ।
वाराणसी समासाद्य ते यान्ति परमां गतिम्॥ ६५॥
तस्मान्मुमुक्षुर्नियतो बसेद् वे मरणान्तिकम्।
वाराणस्यां महादेवाज्ज्ञानं लब्ध्वा विमुच्यते॥ ६६॥
किन्तु विघ्नला भविष्यन्ति पापोपह्नचेतस:।
ततो नैव चरेत् पापं कायेन मनसा गिरा॥ ६७॥
एतद् रहस्य॑ वेदानां पुराणानां च सुव्रता:।
अविमुक्ताश्रयं ज्ञानं न कश्चिद् वेत्ति तत्त्वत: ॥ ६८ ॥
देवतानामृषीणां च श्रण्वतां परमेष्ठिनाम्।
देव्ये देवेन कथितं सर्वपापविनाशनम्॥ ६९॥
हि कूर्मपुराण मन
चूँकि मैं वाराणसी क्षेत्र कभी नहीं छोड़ता, इसलिये
वह अविमुक्त (क्षेत्र) कहलाता है, यही गुद्योंमें अत्यन्त
गुह्य (ज्ञान) है। इसे जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता
है। हे सुभ्रु (सुन्दर भौंहोंवाली)! ज्ञान* ( ब्रह्मज्ञान)
और अज्ञान (ब्रह्मज्ञाका साधनरूप ज्ञान)-में निरत
तथा परमानन्दकी इच्छा करनेवालोंकी जो गति बतलायी
गयी है, वह अविमुक्त (क्षेत्र)-में मरनेवालोंको प्राप्त
होती है। अविमुक्तरूप देह (विराट्)-में जिन क्षेत्रोंका
वर्णन हुआ है, उन सभी क्षेत्रोंमें वाराणसीपुरी अधिक
शुभ है॥ ५६--५८ ॥
यह अविमुक्त क्षेत्र ऐसा है, जहाँ साक्षात् महादेव
ईश्वर देहान्त होनेके समय तारक ब्रह्मका उपदेश देते हैं।
देवि! जो वह परतर तत्त्व 'अविमुक्त ' नामसे कहा जाता
है, वह वाराणसीमें एक जन्ममें ही प्राप्त हो जाता है।
(विराटके) भौंहोंके मध्य, नाभिके मध्य, हृदयमें, मूर्धामें
तथा आदित्यमें जिस प्रकार अविमुक्त स्थित है, उसी
प्रकार वाराणसीमें अविमुक्त क्षेत्र प्रतिष्ठित है॥ ५९--६१॥
वरुणा और असीके मध्य वाराणसीपुरी है। वहाँ
अविमुक्त नामक नित्य तत्त्व स्थित है। जहाँ नारायण
देव और महादेव दिवेश्वर (सुरलोकके अधिपति)
स्थित हैं, उस वाराणसीसे श्रेष्ठ स्थान न कोई हुआ
है और न कोई होगा। वहाँ गन्धर्वों, यक्षों, नागों तथा
राक्षमोंसहित सभी देवता मुझ देवाधिदेव पितामहकौ
सतत उपासना करते हैं॥६२--६४॥
जो महापापी हैं और उनसे भी जो अधिक पाप
करनेवाले (अतिपातकी) हैं, वे वाराणसी पहुँचकर
परम गतिको प्राप्त करते हैं। इसलिये मोक्षार्थीको
मरणपर्यन्त वाराणसीमें निश्चितरूपसे निवास करना
चाहिये। वाराणसीमें महादेवसे ज्ञान प्राप्तकर मनुष्य मुक्त
हो जाता है। किंतु पापसे आक्रान्त चित्तवालोंको विप्र
होते हैं। इसलिये शरीर, मन और वाणीसे पाप नहीं
करना चाहिये। सुत्रतो ! (उत्तम ब्रतोंका पालन करनेवाले)
यह वेदों और पुराणोंका रहस्य है। अविमुक्तसे सम्बद्ध
ज्ञानको कोई तत्त्वत: जानता नहीं है॥ ६५--६८ ॥
महादेवने देवताओं, ऋषियों तथा परमेष्ठियोंके समक्ष
देवी पार्वतीसे सभी पापोंको विनष्ट करनेवाले इस
ज्ञानको कहा था॥६९॥
* यहाँ मूलमें 'ज्ञान' का अर्थ है विज्ञान (ब्रह्मज्ञान) तथा अज्ञानका अर्थ है किंचित् न्यून ज्ञान (ब्रह्मज्ञाकका साधन ज्ञान)।
* अध्याय २९ *
यथा नारायण: श्रेष्ठो देवानां पुरुषोत्तम:।
यथेश्वराणां गिरिशः स्थानानां चैतदुत्तमम्॥ ७०॥
ये: समाराधितो रुद्र: पूर्वस्मिन्नेव जन्मनि।
ते विन्दन्ति परं क्षेत्रमविमुक्ते शिवालयम्॥ ७१॥
कलिकल्मषसम्भूता येषामुपहता मतिः।
न तेषां वेदितुं शक्यं स्थान तत् परमेष्ठटिन: ॥ ७२॥
ये स्मरन्ति सदा काल॑ विन्दन्ति च पुरीमिमाम्
तेषां विनश्यति क्षिप्रमिहामुत्र च पातकम्॥ ७३॥
यानि चेह प्रकुर्वन्ति पातकानि कृतालया: ।
नाशयेत् तानि सर्वाणि देव: कालतनु: शिव: ॥ ७४॥
आगच्छतामिदं स्थान सेवितु मोक्षकाड्लिणाम्।
मृतानां चर पुनर्जन्म न भूयो भवसागरे॥ ७५॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन वाराणस्यां वसेन्नर:।
योगी वाप्यथवा5योगी पापी वा पुण्यकृत्तम: ॥ ७६॥
न वेदवचनात् पित्रोर्न चैव गुरुवादतः।
मतिरुत्क्रमणीया स्यादविमुक्तगतिं प्रति॥ ७७॥
सूत उवाच
इत्येवमुक्त्वा भगवान् व्यासो वेदविदां वरः ।
सहैव शिष्यप्रवरैर्वाराणस्यां चचार ह॥ ७८॥
२८९
जिस प्रकार देवताओंमें पुरुषोत्तम नारायण श्रेष्ठ
हैं, जिस प्रकार ईश्वरोंमें गिरिश (महादेव) श्रेष्ठ हैं,
वैसे ही सभी स्थानोंमें यह (अविमुक्त क्षेत्र) श्रेष्ठ
है। जिन्होंने पूर्वजन्ममें रुद्रको उपासना की है, वे
ही परम अविमुक्त क्षेत्र नामक शिवके निवासस्थानको
प्राप्त करते हैं। कलिके दोषोंके कारण जिनकी बुद्धि
उपहत हो गयी है, वह परमेष्ठीके उस स्थानको जान
नहीं सकते॥ ७०--७२॥
जो सर्वदा कालरूप शिवका और इस पुरी (वाराणसी)-
का स्मरण करते रहते हैं, उनका इस लोक और अन्य
लोकका पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। यहाँ निवास
करनेवाले जो पाप करते हैं, कालस्वरूप देव शिव उन
सबको नष्ट कर देते हैं॥७३-७४॥
मोक्षकी इच्छासे इस स्थानका सेवन करनेके लिये
जो यहाँ आते हैं, उन्हें मृत्युके अनन्तर पुनः: भवसागरमें
जन्म नहीं लेना पड़ता | इसीलिये चाहे योगी हो, अयोगी
हो अथवा पापी हो या श्रेष्ठ पुण्यकर्मा हो, जैसा भी हो,
उसे सभी प्रयत्रोंसे वाराणसीमें ही निवास करना
चाहिये। वेदके वचनसे, माता-पिताके कहनेसे अथवा
गुरुक वचनसे भी अविमुक्त क्षेत्र--वाराणसीमें आनेके
विचारका परित्याग नहीं करना चाहिये*॥ ७५--७७॥
सूतजी बोले--ऐसा कहकर वेददिदोंमें श्रेष्ठ भगवान्
व्यास प्रधान शिष्योंके साथ वाराणसीमें विचरण करने
लगे॥ ७८ ॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहम्धां संहितायां पूर्वविभागे एकोनर्त्रिशोउध्याय: ॥ २९ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें उनतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २९ ॥
* वाराणसीकी स्तुतिमें तात्पर्य है न कि वेदवाक्यों, माता-पिता एवं गुरुके वचनोंके उल्लइ्डनमें तात्पर्य है।
१९०
न कूर्मपुराण
तीसवाँ अध्याय
वाराणसीके ओंकारेश्रर और कृत्तिवासेश्वर लिड्रोंका माहात्म्य,
शंकरके कृत्तिवासा नाम पड़नेका कृत्तान्त
सूत उवाच
स शिष्ये: संव॒तो धीमान् गुरुद्वैँपायनो मुनि: ।
जगाम विपुलं लिड्डमोंकारं मुक्तिदायकम्॥
तत्राभ्यर्च्य महादेवं शिष्ये: सह महामुनि: ।
प्रोवाच तस्य माहात्म्यं मुनीनां भावितात्मनाम्॥
इदं तद् विमल॑ लिड्रमोंकारं नाम शोभनम्।
अस्य स्मरणमात्रेण मुच्यते सर्वपातके:॥
एतत् परतरं ज्ञानं पश्चायतनमुत्तमम्।
सेवितं सूरिभिर्नित्यं वाराणस्यां विमोक्षदम्॥
अत्र साक्षान्महादेव: पश्ञायतनविग्रहः ।
रमते भगवान् रुद्रो जन्तूनामपवर्गद:॥
यत् तत् पाशुपतं ज्ञानं पज्चञार्थमिति शब्दयते
तदेतद् विमलं॑ लिड्गरमोड्डारे समवस्थितम्॥
शान्त्यतीता तथा शान्तिर्विद्या चैव परा कला।
प्रतिष्ठा च निवृत्तिश्व पद्ञार्थ लिड्रमेश्वरम्॥
पश्जञानामपि देवानां ब्रह्मादीनां सदाश्रयम्।
ओंकारबोधकं लिड्डं पञ्लायतनमुच्यते ॥
संस्मरेदैश्वर॑ लिड्रं. पद्ञायतनमव्ययम्।
देहान्ते तत्परं ज्योतिरानन्दं विशते बुध: ॥
अन्न देवर्षय:ः पूर्व सिद्धा ब्रह्मर्षयस्तथा।
१
२
३
है.
५
द्
हि
८
९
उपास्य देवमीशानं प्राप्ततन्तः परे पदम्॥ १०॥
मत्स्योदर्यास्तटे पुण्यं स्थान गुह्मतमं शुभम्।
गोचर्ममात्र॑ विप्रेन्द्रा ओड्डारेश्वरमुत्तमम्॥ ११॥
कृत्तिवासेश्वर) लिज्गं मध्यमेश्वरमुत्तमम्।
विश्वेश्वर॑ तथोंकारं कपर्दीश्रमेव च॥१२॥
एतानि गुहालिड्रानि वाराणस्यां द्विजोत्तमा: ।
न कश्चिदिह जानाति विना शम्भोरनुग्रहात्॥ १३॥
एवमुक््त्वा ययौ कृष्ण: पाराशर्यों महामुनि:।
कृत्तिवासेश्वरं लिड्डं द्रष्ठुं देवस्य शूलिन:॥ १४॥
* भूमिकी एक विशिष्ट माप।
सूतजी बोले--शिष्योंसे घिरे हुए बुद्धिमान् वे गुरु
द्वैवायन मुनि मुक्ति प्रदान करनेवाले विशाल ओड्डार
लिड़की संनिधिमें गये। शिष्योंके साथ महामुनिने वहाँ
महादेवकी भलीभाँति पूजा करके पवित्र आत्मावाले
मुनियोंको उस ओड्डार लिड्गका माहात्म्य बताया॥ १-२॥
ओड्डार नामवाला यह लिज्ल पवित्र एवं सुन्दर है,
इसके स्मरणमात्रसे सभी पापोंसे मुक्ति मिल जाती है।
वाराणसीमें दिद्वानोंके द्वारा मुक्ति प्रदान करनेवाले इस
अतिश्रेष्ठ ज्ञानरूप उत्तम पञ्चायतनकी नित्य पूजा को
जाती है। यहाँ प्राणियोंको मोक्ष देनेवाले साक्षात् महादेव
भगवान् रुद्र पश्चायतन-शरीर धारणकर रमण करते
रहते हैं॥३--५॥
जो वह पाशुपत ज्ञान 'पद्चार्थ” शब्दसे कहा जाता
है, वही ज्ञान इस पवित्र लिड़के रूपमें ओड्डारमें
अवस्थित है। अतीता शान्ति, शान्ति, उत्कृष्ट कलावाली
विद्या, प्रतिष्ठा और निवृत्ति--इन्हीं पाँच अर्थोके लिये
इनके प्रतिनिधि-रूपमें महादेवका (ओड्डार) लिड्ड
प्रतिष्ठित है। ब्रह्मा आदि पाँच देवोंका भी नित्य
आश्रयरूप यही ओड्ूगरबोधक लिड्र पद्मायतन कहलाता
है। अविनाशी पदञ्चायतनरूप ईश्वरीय लिड्रका स्मरण
करना चाहिये, ऐसा करनेसे मनुष्य देहान्त होनेपर
आनन्दस्वरूप परम ज्योतिमें प्रवेश करता है। पूर्वकालमें
देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों तथा सिद्धोंने यहींपर भगवान् ईशानको
उपासना कर परमपद प्राप्त किया था। विप्रेन्द्रों ! मत्स्योदरीके
किनारे गोचर्म*के बराबर गुह्मतम शुभ पुण्य स्थान है,
वही ओड्डारेश्वरका उत्तम क्षेत्र है॥ ६--११॥
द्विजोत्तमो! कृत्तिवासे श्वर, श्रेष्ठ मध्यमेश्वर, विश्वेश्वर,
ओड्डूरेश्वर तथा कपर्दीध्वर--ये वाराणसीके गुद्य लिड्ढ
हैं, बिना शंकरकी कृपाके कोई इन्हें यहाँ जान नहीं
सकता। ऐसा कहकर पराशरके पुत्र महामुनि कृष्णद्वैपायन
शूलधारी महादेवके कृत्तिवासेश्वर नामक लिड्का दर्शन
करने गये॥ १२--१४॥
* अध्याय ३० *
समभ्यर्च्य तथा शिष्यर्माहात्म्यं कृुत्तिवासस: ।
कथयामास शिष्येभ्यो भगवान् ब्रह्मवित्तम: ॥ १५॥
अस्मिन् स्थाने पुरा देत्यो हस्ती भूत्वा भवान्तिकम् ।
ब्राह्मणान् हन्तुमायातो ये5त्र नित्यमुपासते॥ १६॥
तेषां लिड्भरान्महादेव: प्रादुरासीत् त्रिलोचन: ।
रक्षणार्थ द्विजश्रेष्ठा भक्तानां भक्तवत्सल:॥ १७॥
हत्वा गजाकृतिं दैत्यं शूलेनावज्ञया हरः।
वासस्तस्याकरोत् कत्ति कृत्तिवासेश्वरस्तत: ॥ १८ ॥
अत्र सिद्धि परां प्राप्ता मुनयो मुनिपुंगवा:।
तेनेव च शरीरेण प्राप्तास्तत् परमं पदम्॥ १९॥
विद्या विद्येश्वरा रुद्रा: शिवा ये च प्रकीर्तिता: ।
कृत्तिवासेश्वरं लिड्ढ नित्यमावृत्य संस्थिता: ॥| २० ॥
ज्ञात्वा कलियुगं घोरमधर्मबहुलं॑ जना:।
कृत्तिवासं न मुझ्जन्ति कृतार्थासते न संशय: ॥ २१॥
जन्मान्तरसहस्त्रेण मोक्षोअन्यत्राप्पते न वा।
एकेन जन्मना मोक्ष: कृत्तिवासे तु लभ्यते॥ २२॥
आलय: सर्वसिद्धानामेतत् स्थान वदन्ति हि।
गोपितं॑ देवदेवेन महादेवेन शम्भुना॥ २३॥
युगे युगे छात्र दान्ता ब्राह्मणा वेदपारगा:।
उपासते महादेव॑ जपन्ति शतरुद्रियम्॥ २४॥
स्तुवन्ति सततं देवं त्र्यम्बकं॑ कृत्तिवाससम्।
ध्यायन्ति हृदये देव॑ स्थाणुं सर्वान्तरे शिवम्॥ २५॥
गायन्ति सिद्धाः किल गीतकानि
ये वाराणस्यां निवसन्ति विप्रा:।
तेषामथेकेन भवेन्मुक्ति-
ये कृत्तिवासं शरणं प्रपन्ना:॥ २६॥
सम्प्राप्प लोके जगतामभीष्ट
सुदुर्लभ॑ विप्रकुलेषु जन्म।
ध्याने समाधाय जपन्ति रुद्धं
ध्यायन्ति चित्ते यतयो महेशम्॥ २७॥
* कृत्ति चर्मको कहते हैं।
१९१
ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवान् व्यासने शिष्योंके साथ
लिड्रका पूजनकर शिष्योंको कृत्तिवासेश्वरका माहात्म्य
बतलाया ॥ १५॥
प्राचीन कालमें एक दैत्य हाथीका रूप धारणकर
यहाँ शंकरके समीप नित्य उपासना करनेवाले ब्राह्मणोंको
मारनेके लिये आया। द्विजश्रेष्ठो! उन भक्तोंकी रक्षाके
लिये इस लिड्रसे भक्तवत्सल महादेव त्रिलोचन प्रकट
हुए। हाथीकी आकृतिवाले उस दैत्यको अवज्ञा-
पूर्वक शूलसे मारकर शंकरने उसके चर्मका वस्त्र
धारण किया। उसी समयसे वे कृत्तिवासेश्वर* हो
गये॥ १६--१८ ॥
श्रेष्ठ मुनियो! यहाँ मुनियोंने परम सिद्धि प्राप्त की
और उसी शरीरसे परम पद अर्थात् मोक्ष भी प्राप्त किया।
विद्या, विद्येश्वर, रुद्र एवं शिव नामसे कहे जानेवाले
कृत्तिवासेश्वर लिड्रको सभी देवता नित्य आवृतकर
स्थित रहते हैं। घोर कलियुग और अधार्मिक लोगोंकी
बहुलताको समझकर जो लोग कृत्तिवासे श्वरका परित्याग
नहीं करते वे नि:संदेह कृतार्थ हो जाते हैं। हजारों
जन्मान्तरोंमें भी दूसरे स्थानपर मोक्ष प्रात्त होता हो अथवा
नहीं, किंतु कृत्तिवास-द्षेत्रमें एक जन्ममें ही मोक्ष प्राप्त
हो जाता है॥ १९--२२॥
लोगोंका कहना है कि सभी सिद्धोंका आश्रयरूप
यह स्थान देवाधिदेव महादेव शम्भुके द्वारा सुरक्षित है।
प्रत्येक युगमें वेदमें पारंगत इन्द्रियनिग्रही ब्राह्मण यहाँ
महादेवकी उपासना करते हैं और शतरुद्रियका जप
करते हैं। हृदयमें सर्वान्तरात्मा स्थाणुदेव शिवका ध्यान
करते हुए कृत्तिवासा त््यम्बक देव (त्रिलोचन महादेव)-
की निरन्तर स्तुति करते हैं॥२३--२५॥
विप्रो! सिद्धजन यह गीत गाते हैं कि जो लोग
वाराणसीमें निवास करते हैं और कृत्तिवासा भगवान्
शिवकी शरण ग्रहण करते हैं, उनकी एक ही जन्ममें
मुक्ति हो जाती है। इस लोकमें संसारको अभीष्ट अत्यन्त
दुर्लभ विप्रकुलमें जन्म प्राप्कर संयमी लोग ध्यानमें
समाधिस्थ होकर रुद्रका जप करते हैं और चित्तमें
महेशथ्वरका ध्यान करते रहते हैं॥ २६-२७॥
१९२
आराधयन्ति प्रभुमीशितारं
वाराणसीमध्यगता
यजन्ति यज्ञैरभिसंधिहीना:
स्तुवन्ति रुद्रं प्रणमन्ति शम्भुम्॥ २८ ॥
मुनीन्द्रा: ।
नमो भवायामलयोगधाम्ने
स्थाणुं प्रपद्ये गिरिशं पुराणम्।
स्मरामि रुद्रं हृदये निविष्टं
जाने
रः कूर्मपुराण मं
वाराणसीमें निवास करनेवाले श्रेष्ठ मुनिजन प्रभु
शंकरकी आराधना करते हैं, फलकी आबकांक्षा किये
बिना यक्ञोंद्वा7 (उनका) यजन करते हैं, रुद्र-रूपमें
उनकी स्तुति करते हैं और शम्भु-रूपमें उन्हें प्रणाम
करते हैं ॥ २८ ॥
विशुद्ध योगके आश्रयरूप भवको नमस्कार है, मैं
स्थाणु पुराण गिरिशकी शरण ग्रहण करता हूँ, हृदयमें
अवस्थित रुद्रका स्मरण करता हूँ और महादेवको
महादेवमनेकरूपम्॥ २९ ॥ | अनेक रूपोंमें स्थित मानता हूँ॥२९॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहस्रधां संहितायां पूर्वाविभागे त्रिंश्रोडध्याय: ॥ ३० ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३०॥
एकतीसवाँ अध्याय
वाराणसीके कपर्दीश्वर लिड्रका माहात्म्य, पिशाचमोचन-कुण्डमें स्नान करनेकी
महिमा, वहाँ स्नान करनेसे पिशाचयोनिसे मुक्ति प्राप्त करनेका आख्यान,
शंकुकर्णकी कथा तथा शंकुकर्णकृत ब्रह्मपार-स्तव
सूत उवाच
समाभाष्य मुनीन् धीमान् देवदेवस्य शूलिन: ।
जगाम लिड्ढं तद् द्रष्ट्र कपर्दीश्वरमव्ययम्॥ १॥
र्रात्वा तत्र विधानेन तर्पयित्वा पितृन् द्विजा: |
पिशाचमोचने तीर्थे पूजयामास शूलिनम्॥ २॥
तत्राश्चर्यमपश्यंस्ते मुनयो गुरुणा सह।
मेनिरे क्षेत्रमाहात्म्यं॑ प्रणेमुगिरिशं हरम्॥ ३ ॥
कश्चिदभ्याजगामेदं शार्दूलो घोररूपधृक् ।
मृगीमेकां भक्षयितुं कपर्दीश्वरमुत्तमम्॥ ४॥
तत्र सा भीतहृदया कृत्वा कृत्वा प्रदक्षिणम्।
धावमाना सुसम्भ्रान्ता व्याप्रस्थ वशमागता॥ ५॥
तां विदार्य नखैस्ती&णै: शार्दूल: सुमहाबल: ।
जगाम चान्य॑ विजन देशं दृष्टा मुनीश्वरान्॥ ६॥
मृतमात्रा च सा बाला कपदीशाग्रतो मृगी।
अदृश्यत महाज्वाला व्योप्ति सूर्यसमप्रभा॥ ७॥
सूतजी बोले--मुनियोंसे इस प्रकार कहकर बुद्धिमान्
(व्यासजी) देवाधिदेव त्रिशूली (भगवान् शंकर)-के
कपर्दीश्वर नामक अव्यय लिड्रका दर्शन करने गये।
ब्राह्मणो! वहाँ पिशाचमोचन तीर्थमें स्नानकर विधिपूर्वक
पितरोंका तर्पणकर उन्होंने त्रिशूल धारण करनेवाले
शंकरकी पूजा कौ॥ १-२॥
वहाँ गुरुदेव (व्यास)-के साथ उन मुनियोंने एक
आश्चर्य देखा। उन्होंने इसे क्षेत्रका माहात्म्य समझा और
गिरिश हरको प्रणाम किया। कोई भयंकर रूपवाला
व्याप्र एक मृगीका भक्षण करनेके लिये वहाँ श्रेष्ठ
कपर्दीश्वरके समीपमें आया। भयभीत मनवाली वह
मृगी वहाँ प्रदक्षिणा करते-करते दौड़ती हुई अत्यन्त
व्याकुल हो जानेसे व्याप्रके वशीभूत हो गयी॥ ३--५॥
अपने तीक्ष्ण नखोंसे उसे विदीर्णकर वह महान्
बलशाली व्याप्र उन मुनियोंको देखकर दूसरे जनशूत्य
स्थानकी ओर चला गया। कपर्दीशके समक्ष हो
मृत्युको प्राप्त वह बाल-अवस्थावाली मृगी आकाशमें
चमकते हुए सूर्यके समान प्रभावाली, महाज्वालारूपा,
* अध्याय ३१ *
त्रिनेत्रा नीलकण्ठा च शशाड्डाद्डितमूर्थजा।
वृषाधिरूढा पुरुषैस्तादृशरैव संवृता॥ ८ ॥
पुष्पवृष्टि विमुश्जन्ति खेचरास्तस्य मूर्थनि।
गणेश्वर: स्वयं भूत्वा न दृष्टस्तत्क्षणात् ततः॥ ९ ॥
दृष्टैठदाश्चर्यवर॑ जैमिनिप्रमुखा द्विजा:।
कपर्दी श्वरमाहात्म्य॑ पप्रच्छुर्गुरुमच्युतम्॥ १०॥
तेषां प्रोवाच भगवान् देवाग्रे चोपविश्य सः ।
कपर्दीशस्य माहात्म्यं प्रणम्य वृषभध्वजम्॥ ११॥
इदं देवस्य तल्लिड्“ं कपर्दीश्वरमुत्तमम्।
स्मृत्वैवाशेषपापौघं क्षिप्रमस्य विमुख्ञति॥ १२॥
कामक्रोधादयो दोषा वाराणसीनिवासिनाम् |
विघ्ना: सर्वे विनश्यन्ति कपर्दीश्वरपूजनात्॥ १३॥
तस्मात् सदैव द्रष्टव्यं कपर्दीश्वरमुत्तमम्।
पूजितव्यं प्रयत्नेन स्तोतव्यं बैदिके: स्तवैः ॥ १४॥
ध्यायतामत्र नियतं योगिनां शान्तचेतसाम्।
जायते योगसंसिद्धि: सा षण्मासे न संशय: ॥ १५॥
ब्रह्महत्यादय: पापा विनश्यन्त्यस्य पूजनात्ू।
पिशाचमोचने कुण्डे स्नातस्यात्र समीपत:॥ १६॥
अस्मिन् क्षेत्रे पुरा विप्रास्तपस्वी शंसितत्रत: ।
शंकुकर्ण इति ख्यात: पूजयामास शंकरम्।
जजाप रुद्रमनिशं प्रणवं ब्रह्मरूपिणम्॥ १७॥
पुष्पधूषपादिभि: स्तोत्रेर्नमस्कारै: प्रदक्षिणै: ।
उबास तत्र योगात्मा कृत्वा दीक्षां तु नेष्ठिकोम्॥ १८ ॥
कदाचिदागतं प्रेतं पश्यति स्म क्षुधान्वितम्।
अस्थिचर्मपिनद्धाड़ं; निःश्वसन्तं मुहुर्मुहु:॥ १९॥
त॑ दृष्टा स मुनिश्रेष्ठ; कृपया परया युतः।
प्रोवाच को भवान् कस्माद देशाद देशमिमं भ्रित: ॥ २० ॥
तस्मे पिशाच: क्षुधया पीछ्ायमानो5ब्नवीद् बच: ।
पूर्वजन्मन्यहं॑ विप्रो धनधान्यसमन्वितः |
पुत्रपौन्रादिभिर्युक्त: कुटुम्बभरणोत्सुक: ॥ २१॥
१९३
तीन नेत्रोंवाली, नीलकण्ठवाली, चन्द्रमासे सुशोभित
मस्तकवाली और वृषभपर आरूढ़ तथा शिवके समान
ही पुरुषोंसे समन्वित दिखलायी पड़ी। उसके मस्तकपर
आकाशबचारी (गन्धर्व आदि) फूलोंकी वर्षा कर रहे थे।
तदनन्तर वह स्वयं गणेश्वर होकर तत्क्षण ही अदृश्य
हो गयी। जैमिनि आदि प्रमुख द्विजोंने ऐसा महान्
आश्चर्य देखकर अच्युतस्वरूप गुरु (व्यास)-से
कपर्दीश्वरका माहात्म्य पूछा॥ ६--१० ॥
उन भगवान् व्यासने (कपर्दीश्वर) देवके समीपमें
बैठकर वृषभध्वजको प्रणाम करके कपर्दीशका
माहात्म्य उन्हें बतलाया | यह देवका वही श्रेष्ठ कपर्दी श्वर
नामक लिड्र है, जिसका स्मरणमात्र करनेसे ही
स्मरण करनेवालेका अशेष पापसमूह शीघ्र ही नष्ट हो
जाता है॥ ११-१२॥
वाराणसीमें निवास करनेवाले लोगोंके काम, क्रोध
आदि दोष और सभी विघध्न कपर्दीश्वरका पूजन करनेसे
विनष्ट हो जाते हैं। इसलिये श्रेष्ठ कपर्दीश्वरका सदा
ही दर्शन करना चाहिये, प्रयत्नपूर्वक पूजन करना
चाहिये और वैदिक स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करनी
चाहिये। शान्त चित्तवाले योगियोंको यहाँ नियमित ध्यान
करते हुए छ: महीनेमें ही उत्कृष्ट योगसिद्धि प्राप्त हो
जाती है, इसमें कोई संशय नहीं है॥ १३--१५॥
यहाँ समीपमें स्थित पिशाचमोचन कुण्डमें स्नानकर
इस लिड्भडका पूजन करनेसे ब्रह्महत्या आदि सभी पाप
नष्ट हो जाते हैं। ब्राह्मणो! प्राचीन कालमें शंकुकर्ण
नामसे प्रसिद्ध कठोर ब्रतवाले तपस्वीने इस क्षेत्रमें
शंकरकी पूजा की थी। वह रात-दिन प्रणव एवं
ब्रह्मस्वरूप रुद्रका जप करता था। निष्ठापूर्वक दीक्षा
ग्रहण कर वह योगात्मा पुष्प, धूप आदिसे तथा स्तोत्र,
नमस्कार एवं प्रदक्षिणाके द्वारा (पूजा करता हुआ) वहाँ
रहने लगा। किसी दिन उसने भूखसे व्याकुल अस्थि
एवं चर्मसे व्याप्त शरीरवाले और बार-बार साँस ले रहे
एक आते हुए प्रेतको देखा। उसे देखकर उस श्रेष्ठ
मुनिने अत्यन्त कृपासे युक्त होकर उससे कहा--आप
कौन हैं ? कहाँसे इस देशमें आये हैं 2॥ १६--२० ॥
क्षुधासे पीड़ित पिशाचने उससे कहा--पूर्वजन्ममें मैं
धनधान्यसे सम्पन्न, पुत्र-पौत्रादिकोंसे युक्त, परिवारके
भरण-पोषणमें उत्सुक रहनेवाला एक ब्राह्मण था,
१९४
न पूजिता मया देवा गावो5प्यतिथयस्तथा।
नकदाचित् कृतं पुण्यमल्पं वा स्वल्पमेव वा॥ २२॥
एकदा भगवान् देवो गोवृषेश्वरवाहन: ।
विश्वेश्वरो वाराणस्यां दृष्ट: स्पृष्टो नमस्कृत: ॥ २३॥।
तदाचिरेण कालेन पद्चत्वमहमागत: ।
न दृष्ट तन्मया घोर यमस्य बदन मुने॥ २४॥
ईदृशी योनिमापन्न: पैशाचीं क्षुधयान्वित: ।
पिपासयाधुनाक्रान्तो न जानामि हिताहितम्॥ २५॥।
यदि कंचित् समुद्धर्तुमुपायं पश्यसि प्रभो।
कुरुष्व तं नमस्तुभ्यं त्वामहं शरणं गत: ॥ २६॥
इत्युक्त: शड्नकुकर्णो5थ पिशाचमिदमन्नवीत्।
त्वादृशो न हि लोकेउस्मिन् विद्यते पुण्यकृत्तम: ॥ २७॥
यत् त्वया भगवान् पूर्व दृष्टो विश्वेश्वर: शिव: ।
संस्पृष्टो वन्दितो भूय: को३न्यस्त्वत्सद्शों भुवि॥ २८ ॥
तेन कर्मविपाकेन देशमेतं॑ समागतः।
सन्रानं कुरुष्व शीघ्र त्वमस्मिन् कुण्डे समाहित: ।
येनेमां कुत्सितां योनि क्षिप्रमेत प्रहास्यसि ॥ २९ ॥।
स एवमुक्तो मुनिना पिशाचो
दयालुना देववरं
स्मृत्वा कपर्दीश्वरमीशितारं
चक्रे. समाधाय मनोडवगाहम्॥ ३० ॥
तदावगाढो मुनिसंनिधाने
ममार दिव्याभरणोपपन्न: ।
अदृश्यतार्कप्रतिमे विमाने
शशाइड्डचिह्वाष्डितचारुमौलि:
ब्रिनेत्रम् ।
॥ ३१॥॥।
विभाति रुद्धैरभितो दिविस्थे:
समाव॒तो योगिभिरप्रमेये: ।
सबालरिवल्यादिभिरेष देवो
यथोदये भान्रशेषदेव: ॥ ३२॥
र कूर्मपुराण हु
किंतु मैंने न तो कभी देवताओंकी पूजा की न गायोंकी
और न तो अतिथियोंकी, मैंने कभी छोटे-से भी छोटा
पुण्य नहीं किया। एक बारकी बात है कि वाराणसीमें
मैंने वृषभवाहन भगवान् विश्वेश्वरदेवका दर्शन किया,
स्पर्श किया और उन्हें नमस्कार किया। तदनन्तर बहुत
थोड़े ही समयके बाद मेरी मृत्यु हो गयी। हे मुने ! (इसी
पुण्यके कारण) मुझे यमके भयानक मुखको तो नहीं
देखना पड़ा, पर इस प्रकारकी पिशाचयोनि प्राप्तकर भूख
और प्याससे व्याकुल मैं वाराणसीमें ही भटक रहा हूँ।
इस समय मुझे हित और अहितका कुछ भी ज्ञान नहीं
है। प्रभो! मेरे उद्धारका यदि कोई उपाय आप देखते
हों तो उसे करें, आपको नमस्कार है, मैं आपकी शरणमें
आया हूँ॥ २१--२६॥
ऐसा कहे जानेपर शंकुकर्णने पिशाचसे कहा-
तुम्हारे समान इस संसारमें श्रेष्ठ पुण्य कर्म करनेवाला
और कोई नहीं है, जो कि तुमने पूर्वकालमें विश्वेश्वर
भगवान् शिवका दर्शन किया, उनका स्पर्श किया और
वन्दना की, फिर संसारमें तुम्हारे समान और कौन हो
सकता है? उस कर्मके परिणामस्वरूप ही तुम इस
स्थानपर पहुँचे हो। अब तुम एकाग्रमन होकर इस कुण्डमें
शीघ्र ही स्नान करो। जिससे इस कुत्सित (पिशाचकोौ)
योनिसे तुम शीघ्र ही छुटकारा प्राप्त कर सको॥ २७--२९॥
दयालु मुनिके ऐसा कहनेपर उस पिशाचने
देवश्रेष्ठ त्रिलोचन, अनुशास्ता भगवान् कपर्दीश्वरका
स्मरण कर मनको एकाग्र करते हुए (कुण्डमें) स्नान
किया ॥ ३० ॥
तदनन्तर स्नान किया हुआ वह मुनिके समीप
ही मृत्युको प्राप्त हो गया और पुनः सूर्यके समान
प्रकाशित विमानमें स्थित हो वह दिव्य आभूषणोंको
धारण किये तथा चन्द्रमाके चिहसे सुशोभित सुन्दर
मस्तकसे युक्त (पुरुषके रूपमें) दिखायी पड़ा। वह
आकाशमें स्थित रहनेवाले रुद्रों, अप्रमेय योगियों तथा
बालखिल्य आदि ऋषियोंसे चारों ओरसे आवृत होते
हुए उसी प्रकार सुशोभित हो रहा था, जिस प्रकार
सभी देवताओंके भी देवता सूर्यदेवता उदयकालमें
दिखलायी पड़ते हैं॥३१-३२॥
* अध्याय ३९ *
स्तुवन्ति सिद्धा दिवि देवसड्डा
नृत्यन्ति दिव्याप्सरसोडभिरामा: |
मुझ्न्ति वृष्टि कुसुमाम्बुमिश्रां
गन्धर्वविद्याधरकिंनराद्या:
संस्तूयमानो5थ मुनीन्द्रसड्धै-
रवाप्पय बोधं भगवत्प्रसादात्।
समाविशन्मण्डलमेतद ग्रं
त्रयीमयं यत्र विभाति रुद्र:॥ ३४॥
दृष्ठा विमुक्ते स पिशाचभूत॑
मुनि: प्रहद्श्टों ममसा महेशम्।
विचिन्त्य रुद्रं कविमेकमग्मिं
प्रणम्य॒तुष्ठटाव कपर्दिने तम्॥३५॥
शड्ुकुकर्ण उवाच
कपर्दिनं त्वां परतः परस्ताद्
गोप्तारमेके पुरुष
ब्रजामि योगेश्वरमीशितार-
मादित्यमग्निं- कपिलाधिरूढम्॥ ३६॥
त्वां ब्रह्मपारं हृदि संनिविष्ट
॥ ३३॥।
पुराणम्।
हिरण्मयं योगिनमादिमन्तम् ।
ब्रजामि रुद्रं शरणं दिविस्थ॑
महामुनिं ब्रह्मामयं पवित्रम्॥ ३७॥
सहस््रपादाक्षिशिरो5भियुक्तं
सहसत्रबाहुं तमस: परस्तात्।
त्वां ब्रह्मपारं प्रणमामि शम्भुं
हिरण्यगर्भाधिपतिं त्रिनेत्रम्॥ ३८ ॥
यतः प्रसूतिर्जगतो विनाशो
येनावृतं सर्वमिंदं शिवेन।
त॑ ब्रह्मपारं भगवन्तमीशं
प्रणम्य नित्यं शरणं प्रपद्ये॥ ३९॥
अलिड्रमालोकविहीनरूपं
स्वयम्प्रभं॑ चित्पतिमेकरुद्रम् ।
त॑ ब्रह्मपारं परमेश्वरं त्वां
नमस्करिष्ये न यतोउन्यदस्ति॥ ४०॥
५९५
आकाशमें सिद्ध तथा देवताओंके समूह (उसकी)
स्तुति कर रहे थे। दिव्य सुन्दर अप्सराएँ नृत्य कर रही
थीं और गन्धर्व, विद्याधर तथा किंनर आदि जलसे
स्निग्ध पुष्पोंकी वृष्टि कर रहे थे॥३३॥
मुनियोंके समूहोंसे स्तुति किये जाते हुए उसने
भगवान्की कृपासे ज्ञान प्राप्त्किया और वह उस
त्रयीमय श्रेष्ठ मण्डलमें प्रविष्ट हो गया जहाँ रुद्र
प्रकाशित होते हैं। पिशाचयोनिको प्राप्त उस (पुरुष)-
को मुक्त हुआ देखकर वह मुनि अत्यन्त प्रसन्न-मनसे
महेशका ध्यानकर और कवि अद्वितीय रुद्राग्निको
प्रणामकर उन जटाधारी (शिव)-की स्तुति करने
लगे-- ॥ ३४-३५ ॥
शंकुकर्णने कहा--में परात्पर, अद्वितीय, सबके
रक्षक, पुराणपुरुष, योगेश्वर, नियामक, आदित्य, अग्निरूप
एवं कपिल (वृषभ)-पर अधिष्ठित आप कपर्दीकी
शरण ग्रहण करता हूँ॥ ३६॥
में हृदयमें संनिविष्ट, हिरण्मय, योगी, आदि
एवं अन्तरूप, झुलोकमें स्थित, महामुनि, पवित्र और
ब्रह्मस्वरूप आप ब्रह्मपार रुद्रकी शरणमें जाता हूँ।
में हजारों चरण, नेत्र और सिरोंसे युक्त, हजारों
बाहुवाले, अन्धकारसे परे रहनेवाले, हिरण्यगर्भके
अधिपति और तीन नेत्रवाले आप ज्ञानातीत शम्भुको
प्रणाम करता हूँ। जिनसे संसारकी उत्पत्ति तथा विनाश
होता है और जिन शिवने इस सम्पूर्ण (विश्व)-
को आवृत कर रखा है, उन्हीं ज्ञानातीत भगवान्
ईशको प्रणाम कर में उनकी नित्य शरण ग्रहण
करता हूँ। में अलिजड्र-(निराकार) और आलोकरहित*
रूपवाले, स्वयं प्रभावान्ू, चित्-शक्तिके स्वामी, अद्वितीय
रुद्ररूप, ज्ञासेे अतीत आप परमेश्वरको नमस्कार
करता हूँ, क्योंकि आपसे भिन्न अन्य कुछ है ही
नहीं ॥ ३७--४० ॥
* महेश्वरका रूप किसी भी आलोक (प्रकाश)-से आलोकित (प्रकाशित) नहीं होता, अपितु स्वयं प्रकाशमान है और उसीके
प्रकाशसे समस्त प्रपञ्ञ सूर्य, चन्द्र आदि प्रकाशित हैं।
१९८६
यं योगिनस्त्यक्तसबीजयोगा
लब्ध्वा समाधिं परमार्थभूता: ।
पश्यन्ति देवं प्रणतो5स्मि नित्यं
त॑ ब्रह्मपारं भवतः स्वरूपम्॥ ४१॥
न यत्र नामादिविशेषक्लृप्ति-
न संदृशे तिष्ठति यत्स्वरूपम्।
तं ब्रह्मपारं प्रणतो5स्मि नित्यं
स्वयम्भुव॑ त्वां शरणं प्रपद्ये॥ ४२॥
यद् वेदवादाभिरता विदेहं
सब्नह्मविज्ञानममभेदमेकम् ।
पश्यन्त्यनेक॑ भवतः स्वरूपं
त॑ ब्रह्मपारं प्रणतोडस्मि नित्यम्॥ ४३॥
यत: प्रधानं पुरुष: पुराणों
विवर्तते य॑ं प्रणमन्ति देवा:।
नमामि तं॑ ज्योतिषि संनिविष्टं
काल॑ बृहन्तं भवतः स्वरूपम्॥ ४४॥
ब्रजामि नित्यं शरणं गुहेशं
स्थाणुं प्रपद्ये गिरिशं पुरारिम्।
शिवं प्रपद्ये हरमिन्दुमौलिं
पिनाकिन॑ त्वां शरणं ब्रजामि॥ ४५॥
स्तुत्वैवं शडःकुकर्णोडसौ भगवन्तं कपर्दिनम्
पपात दण्डवद् भूमौ प्रोच्चरन् प्रणवं परम्॥ ४६ ॥
तत्क्षणात् परमं लिड़ं प्रादुर्भूते शिवात्मकम् |
ज्ञानमानन्दमद्देते कोटिकालाग्रिसंनिभम्॥ ४७॥
शड्कुकर्णो5थ मुक्तात्मा तदात्मा सर्वगो5मल: ।
निलिल्ये विमले लिड्रे तददभुतमिवाभवत्॥ ४८ ॥
एतद रहस्यमाख्यातं माहात्म्यं व: कपर्दिन: ।
न कश्िद वेत्ति तमसा दिद्वानप्यत्र मुहाति॥ ४९॥
यहइमां श्रृणुयात्नित्यं कथां पापप्रणाशिनीम् |
भक्त: पापविशुद्धात्मा रुद्रसामीप्यमाप्नुयात्॥ ५०॥
पठेच्च सततं शुद्धो ब्रह्मपारं महास्तवम।
प्रा्मध्याहसमये स योगं प्राप्नुयात् परम्॥ ५१॥
* गुहा (बुद्धि)-के ईश।
हु कूर्मपुराण मं
सबीज योग (सविकल्पक समाधि)-का त्याग
करनेवाले परमार्थभूत योगिजन निर्विकल्पक समाधि
लगाकर आपके जिस रूपका दर्शन करते हैं, में
आपके उसी ज्ञानातीत स्वरूपको नित्य प्रणाम करता
हूँ। जिनमें न तो किसी नाम (तथा रूप) आदि
विशेष (गुणों)-की कोई कल्पना हैं और जिनका
न कोई स्वरूप दिखलायी पड़ता है, प्रणामपूर्वक
उन ब्रह्मपार स्वयम्भूकी शरणमें में जाता हूँ। वैदिक
सिद्धान्तोंके अनुगामी आपके जिस स्वरूपको विदेह,
ब्रह्मविज्ञामय, अभेदरूप (अद्वितीय)--इन अनेक
प्रकारोंसे जानते हैं, आपके उस ब्रह्मपार स्वरूपको
मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। जिसके प्रधान (प्रकृति)
और पुराण पुरुष विवर्त (परिणाम) हैं तथा देवता
जिसे प्रणाम करते हैं, उस ज्योतिमें संनिविष्ट ज्योतिर्मय
आपके बृहत् काल-स्वरूपको में नमस्कार करता
हूँ। में सनातन गुहेशकी* शरणमें जाता हूँ। मैं स्थाणु,
गिरिश पुरारिके शरणागत हूँ, मैं चन्द्रमौलि हर, शिवकी
शरण ग्रहण करता हूँ। मैं पिनाक धारण करनेवाले
आपकी शरणमें जाता हूँ॥४१--४५॥
इस प्रकार भगवान् कपर्दीकी स्तुति कर श्रैष्ठ
ओंकारका उच्चारण करता हुआ वह शुंकुकर्ण दण्डवत्
भूमिपर गिर पड़ा। उसी क्षण ज्ञान और आनन्दस्वरूप,
अद्वितीय, करोड़ों प्रलयकालीन अग्निके समान, शिवात्मक
श्रेष्ठ लिड़ प्रादुर्भूत॒ हुआ। तब मुक्त आत्मावाला,
तादात्म्यस्वरूपवाला, सर्वव्यापी, विशुद्ध हुआ वह शंकुकर्ण
निर्मल लिड्रमें विलीन हो गया। यह एक अद्भुत-सी
बात हुई॥ ४६--४८ ॥
यह मैंने आप लोगोंको कपर्दीका रहस्य एवं
माहात्म्य बतलाया। इसे कोई नहीं जानता। विद्वान् भी
इस विषयमें अज्ञानसे मोहित हो जाते हैं। जो भक्त
पापका नाश करनेवाली इस कथाको नित्य सुनता है,
वह पापसे विमुक्त शुद्धात्मा होकर रुद्रकी समीपताको
प्राप्त कर लेता है-- ॥ ४९-५० ॥
और जो मनुष्य नित्य प्रात: एवं मध्याहकालमें
शुद्धतापूर्वक इस ब्रह्मपार नामक महान् स्तवका पाठ
करेगा, वह परम योगको प्राप्त कर लेगा॥५१॥
* अध्याय ३२ *
इहैव नित्यं वत्स्यामो देवदेवं कपर्दिनम्।
१९७
'मैं यहीं नित्य निवास करूँगा, देवदेव कपर्दीका
द्रक्ष्याम: सततं देवं पूजयामो5थ शूलिनम्॥ ५२॥ | दर्शन करूँगा और त्रिशूल धारण करनेवाले देवकी
इत्युक्वा भगवान् व्यास: शिष्ये: सह महामुनि: ।
निरन्तर पूजा करता रहूँगा।' ऐसा कहकर शिष्योंके साथ
युक्तात्मा महामुनि व्यासने कपर्दीकी पूजा करते हुए वहीं
उवास तत्र युक्तात्मा पूजयन् वै कपर्दिनम्॥ ५३॥ | निवास किया॥ ५२-५३॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहफ्थां संहितायां पूर्वाविधागे एकर्त्रिशोउध्याय: ॥ ३१ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें एकतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३१॥
बत्तीसवाँ अध्याय
व्यासजीद्वारा वाराणसीके मध्यमेश्वर महादेव तथा मन्दाकिनीकी महिमाका वर्णन
सूत उवाच
उषित्वा तत्र भगवान् कपर्दीशान्तिके पुनः।
द्रष्ठू ययौ मध्यमेशं बहुवर्षगणान् प्रभु:॥ १॥
तत्र मन्दाकिनीं पुण्यामृषिसद्धनिषेविताम्।
नदीं विमलपानीयां दृष्ठी हष्टोडभवन्मुनि:॥ २॥
स तामन्वीक्ष्य मुनिभि: सह द्वेपायन: प्रभु: ।
चकार भावपूतात्मा रत्नानं सत्नानविधानवितू॥ ३॥
संतर्प्पय विधिवद् देवानृषीन् पितृगणांस्तथा।
पूजयामास लोकादिं पुष्पैर्नानाविधेर्भवम्॥ ४॥
प्रविश्य शिष्यप्रवरे: सार्थ सत्यवतीसुतः।
मध्यमे श्वरमीशानमर्चयामास शूलिनम्॥ ५॥
ततः पाशुपता: शान्ता भस्मोद्धूलितविग्रहा: ।
द्रष्टू समागता रुद्र मध्यमेश्वरमी श्वरम्॥ ६॥
ओंकारासक्तमनसो._ वेदाध्ययनतत्परा: ।
जटिला मुण्डिताश्रापि शुक्लयज्ञोपवीतिन: ॥ ७॥
केचिदपरे चाप्यवासस: |
शान्ता वेदान्तज्ञानतत्परा: ॥ ८ ॥
कौपीनवसना:
ब्रह्मचर्यरता:
दृष्ठा द्वैपायनं विप्रा: शिष्यैः परिवृतं मुनिम्।
पूजयित्वा यथान्यायमिंदं वचनमन्रुवन्॥ ९॥
सूतजी बोले--वहाँ कपर्दीश (कपर्दीश्वर)-के
समीपमें बहुत वर्षोतक निवास कर भगवान् प्रभु
(वेदव्यास) पुनः मध्यमेश्वर (लिड्र)-का दर्शन करने
गये। वहाँ ऋषि-समूहोंसे सेवित स्वच्छ जलवाली
पवित्र मन्दाकिनी नामक नदीका दर्शन कर मुनि
(व्यास) प्रसन्न हो गये॥ १-२॥
उसे देखकर पवित्र आत्मभाववाले तथा स्नानके
विधानको जाननेवाले उन टद्वेपायन प्रभुने मुनियोंके
साथ स्नान किया। विधिपूर्वक देवताओं, ऋषियों तथा
पितरोंका तर्पण किया और नाना प्रकारके पुष्पोंद्वारा
लोकके आदि कारण भवकी पूजा की। प्रमुख शिष्योंके
साथ सत्यवतीके पुत्र व्यासने (उस क्षेत्रमें) प्रवेशकर
त्रिशूलधारी ईशान मध्यमेश्वरका पूजन किया। तदनन्तर
सारे शरीरमें भस्म धारण किये हुए शान्त पाशुपत लोग
अर्थात् पशुपतिके भक्तगण पाशुपत ईश्वर मध्यमेश्वर
रुद्रका दर्शन करने आये॥ ३--६॥
उनका मन ओगकारके जपमें लगा था, वे सभी
वेदोंके अध्ययनमें तत्पर थे। वे शुक्ल यज्ञोपवीत धारण
किये थे, कोई जटा रखाये थे और कोई मुण्डित थे।
कुछ कौपीन वस्त्र धारण किये थे, तो दूसरे वस्त्ररहित
थे। वे ब्रह्मचर्यपरायण, शान्त और वेदान्तके ज्ञानमें तत्पर
थे। विप्रो! शिष्योंसे घिरे हुए द्वैपायन मुनिको देखकर
यथोकक््त विधिसे उनका पूजनकर उन्होंने (पाशुपत
भक्तोंने) यह वचन कहा-- ॥ ७--९॥
१९८
को भवान् कुत आयात: सह शिष्येर्महामुने |
प्रोचु: पैलादय: शिष्यास्तानृषीन् ब्रह्मभावितान्ू॥ १०॥
अयं सत्यवतीसूनु: कृष्णद्वैपायनो मुनिः।
व्यास: स्वयं हषीकेशो येन वेदा: पृथक कृता: ॥ ११॥
यस्य देवो महादेव: साक्षादेव पिनाकधृक् ।
अंशांशेनाभवत् पुत्रो नाग्ना शुक इति प्रभु:॥ १२॥
यः स साक्षान्महादेवं सर्वभावेन शंकरम्।
प्रपन्न: परया भक्त्या यस्य तज्ज्ञानमैश्वरम्॥ १३॥
ततः पाशुपताः सर्वे हृष्टसर्वतनूरुहा:।
नेमुरव्यग्रमनस: प्रोचु: सत्यवतीसुतम्॥ १४॥
भगवन् भवता ज्ञातं विज्ञानं परमेष्ठिन:।
प्रसादाद देवदेवस्य यत् तन्माहेश्वरं परम्॥ १५॥
तद्गदास्माकमव्यक्त रहस्यथ॑ गुह्ममुत्तमम्।
क्षिप्रं पश्येम तं देवं श्रुत्ता भगवतो मुखात्॥ १६॥
विसर्जयित्वा ताउिछष्यान् सुमन्तुप्रमुखांस्तत: ।
प्रोवाच तत्परं ज्ञानं योगिभ्यो योगवित्तम: ॥ १७॥
तदक्षणादेव विमलं सम्भूतं ज्योतिरुत्तमम्।
लीनास्तत्रेव ते विप्रा: क्षणादन्तरधीयत।॥ १९८ ॥
ततः शिष्यान् समाहूय भगवान् ब्रह्मवित्तम: ।
प्रोवाच मध्यमेशस्य माहात्म्यं पैलपूर्वकान्॥ १९॥
अस्मिन् स्थाने स्वयं देवो देव्या सह महे श्र: ।
रमते भगवान् नित्य रुद्रैश्व परिवारित:॥ २०॥
अन्न पूर्व हृषीकेशो विश्वात्मा देवकीसुतः |
उवबास वत्सरं कृष्ण: सदा पाशुपतैर्वृत:॥ २१॥
भस्मोद्धूलितसर्वाड्री.. रुद्राध्ययनतत्पर: ।
आराधयन् हरिः शम्भुं कृत्वा पाशुपतं त्रतम॥ २२॥
तस्य ते बहव: शिष्या ब्रह्मचर्यपरायणा:।
लब्ध्या तद्बचनाज्ज्ञानं दृष्टवन्तो महेश्वरम्॥ २३॥
तस्य देवो महादेव: प्रत्यक्षं नीललोहितः।
ददौ कृष्णस्यथ भगवान् वरदो वरमुत्तमम्॥ २४॥
येडर्चयिष्यन्ति गोविन्दं मद्धक्ता विधिपूर्वकम्।
तेषां तदैश्वरं ज्ञानमुत्पत्ययति जगन्मय॥ २५॥
मं कूर्मपुराण हि
महामुने! आप कौन हैं? शिष्योंके साथ कहाँसे
आये हैं। तब पैल आदि व्यास-शिष्योंने उन ब्रह्मभावको
प्राप्त ऋषियोंसे कहा--ये सत्यवतीके पुत्र कृष्णद्वैपायन
व्यास मुनि हैं। ये स्वयं हषीकेश हैं, जिन्होंने वेदोंका
विभाजन किया। पिनाकको धारण करनेवाले साक्षात्
प्रभु महादेव ही अपने अंशांशसे इनके शुक नामक पुत्र
हुए। वे सभी भावोंसे, परम भक्तके द्वारा साक्षात्
महादेव शंकरके शरणागत हुए हैं और जिन्हें ईश्वर-
सम्बन्धी परम ज्ञान उपलब्ध है॥ १०--१३॥
तब वे सभी पशुपतिके भक्त प्रसन्न हो गये, उन्हें
रोमाञ्न हो आया। एकाग्रमनसे उन्होंने सत्यवतीके पुत्र
व्यासको प्रणाम किया और कहा--भगवन्! देवदेवकी
कृपासे जो परमेष्ठीका श्रेष्ठ माहेश्वर विज्ञान है, वह
आपको ज्ञात है। अत: आप हमें वह श्रेष्ठ अव्यक्त,
गोपनीय रहस्य बतलायें, ताकि आपके मुखसे उसे सुनकर
हम शीघ्र ही उन देवका दर्शन कर सकें॥ १४--१६॥
तदनन्तर सुमन्तु आदि उन प्रमुख शिष्योंको विदाकर
योगविदोंमें श्रेष्ठ व्यासने उन योगियोंको श्रेष्ठ ज्ञान
बतलाया। विप्रो! उसी क्षण एक निर्मल उत्तम ज्योति
प्रकट हुई और क्षणभरमें ही वे पाशुपत भक्तगण उसीमें
लीन हो गये और अन्तर्धान हो गये॥ १७-१८॥
तदनन्तर पैल आदि प्रमुख शिष्योंको बुलाकर श्रैष्ठ
ब्रह्मज्ञानी भगवान् (व्यास)-ने मध्यमेशका माहात्म्य
उन्हें बतलाया। स्वयं भगवान् महेश्वर देव देवीके
साथ तथा रुद्रगणोंसे घिरे नित्य इस स्थानपर रमण
करते हैं॥ १९-२० ॥
यहींपर पूर्वकालमें देवकीके पुत्र विश्वात्मा हृषीकेश
कृष्ण हरि पाशुपतोंसे आवृत रहते हुए, समस्त शरीरमें
भस्म धारणकर रुद्र-तत्त्वके अनुसंधानमें तत्पर हुए थे
तथा पाशुपत ब्रत धारणकर शम्भुकी आराधना करते हुए
एक वर्षतक निवास किये थे। उनके (व्यासके)
ब्रह्मचर्य-परायण बहुतसे विज्ञ शिष्योंने उनके वचनसे
ज्ञान प्रापततकर महेश्वरका दर्शन किया। वर प्रदान
करनेवाले नीललोहित देव साक्षात् भगवान् 'महादेवने'
उन कृष्णको उत्तम वर प्रदान किया। जगन्मय! जो मेरे
भक्त विधिपूर्वक आप गोविन्दकी अर्चना करेंगे, उन्हें
ईश्वर-सम्बन्धी परम ज्ञान प्राप्त होगा॥ २१--२५॥
* अध्याय ३३४३ *
नमस्योअर्चयितव्यश्व ध्यातव्यो मत्परैर्जने:।
भविष्यसि न संदेहो मत्प्रसादाद द्विजातिभि: ॥ २६॥
येउन्र द्रक्ष्यन्ति देवेशं रत्रात्वा रुद्रं पिनाकिनम्।
ब्रह्महत्यादिकं पापं तेषामाशु विनश्यति॥ २७॥
प्राणांस्त्यजन्ति ये मर्त्या: पापकर्मरता अपि।
ते यान्ति तत् परं स्थान नात्र कार्या विचारणा॥ २८॥
धन्यास्तु खलु ते विप्रा मन्दाकिन्यां कृतोदका: ।
अर्चयन्ति महादेव मध्यमेश्वरमी श्वरम्॥ २९॥
स््नान॑ दान॑ तप: श्राद्ध पिण्डनिर्वपर्णं त्विह।
एकेकश: कृतं विप्रा: पुनात्यासप्तमं कुलम्॥ ३० ॥
संनिहत्यामुपस्पृश्य राहुग्रस्ते दिवाकरे।
यत् फलं लभते मर्त्यस्तस्माद् दशगुणं त्विह॥ ३१॥
एवमुक्त्वा महायोगी मध्यमेशान्तिके प्रभु: ।
उवास सुचिरं काल॑ पूजयन् वै महेश्वरम्॥ ३२॥
१९९
निस्संदेह मेरी कृपासे आप मेरे भक्त द्विजातियोंके
प्रणम्य, आराध्य और ध्येय होंगे। जो यहाँ स्नानकर
पिनाकी रुद्र देवेश्वरका दर्शन करेंगे, उनके ब्रह्महत्या
आदि सभी पाप शीघ्र ही नष्ट हो जायँगे। जो
पापकर्मपरायण भी मनुष्य यहाँ प्राणोंका त्याग करेंगे, वे
परम स्थानको प्राप्त करेंगे, इसमें कोई विचार नहीं
करना चाहिये॥ २६--२८ ॥
विप्रो! वे निश्चय ही धन्य हैं जो मन्दाकिनीमें
सस््नानकर ईश्वर महादेव मध्यमेश्वरकी पूजा करते हैं।
ब्राह्मणो ! यहाँपर एक बार भी किया गया स्नान, दान,
तप, श्राद्ध तथा पिण्डदान सात पीढ़ियोंतक कुलको
पवित्र कर देता है॥ २९-३०॥
सूर्यके राहुसे ग्रस्त किये जानेपर अर्थात् ग्रहणकालमें
संनिहती (कुरुक्षेत्र तीर्थ)-में स्नान करनेसे जो फल
मनुष्यको प्राप्त होता है, उससे दस गुना अधिक फल
यहाँ मन्दाकिनीमें स्नानसे प्राप्त होता है। ऐसा कहकर
महायोगी प्रभु (व्यास)-ने महेश्वरकी पूजा करते हुए
मध्यमेश्वकके समीपमें ही बहुत समयतक निवास
किया॥ ३१-३२ ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहब्रथां संहितायां पूर्वाविभागे द्वात्रिशोउध्याय: ॥ ३२॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें बत्तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३२॥
तैंतीसवाँ अध्याय
वाराणसी-माहात्म्यके प्रसंगमें व्यासजीका शिष्योंके साथ विभिन्न तीर्थोमें गमन, ब्रह्मतीर्थका
आख्यान, व्यासजीद्वारा विश्वेश्वर लिड्गरका पूजन तथा वहाँ रहते हुए शिवाराधना, एक
दिन भिक्षा न मिलनेपर क्रोधाविष्ट व्यासजीका वाराणसीके निवासियोंको शाप
देनेके लिये उद्यत होना, उसी समय देवी पार्वतीका प्रकट होना, देवीका
व्यासको वाराणसी त्यागनेकी आज्ञा, पुनः स्तुतिसे प्रसन्न देवीके द्वारा
चतुर्दशी तथा अष्टमीको वहाँ ( वाराणसीमें ) रहनेकी अनुमति देना
सूत उवाच
ततः सर्वाणि गुह्मानि तीर्थान्यायतनानि च।
जगाम भगवान् व्यासो जैमिनिप्रमुखेर्बृत:॥ १॥
प्रयाग॑ परमं तीर्थ प्रयागादधिकं शुभम्।
विश्वरूप॑ तथा तीर्थ तालतीर्थमनुत्तमम्॥ २॥
आकाशाख्यं महातीर्थ तीर्थ चैवार्षभं परम्।
स्व्नील॑ च महातीर्थ गौरीतीर्थमनुत्तमम्॥ ३॥
सूतजी बोले--तदनन्तर जैमिनि आदि प्रमुख
शिष्योंसे आवृत भगवान् व्यास सभी गुद्य तीर्थों
और देवमन्दिरोंमें गये। द्विजश्रेष्ठो! वे परम तीर्थ
प्रयाग, प्रयाग्से भी अधिक शुभ तीर्थ विश्वरूप,
श्रेष्ठ तालतीर्थ,, आकाश नामक महातीर्थ, श्रेष्ठ
आर्षभ तीर्थ, स्वर्नील नामक महातीर्थ, श्रेष्ठ गौरीतीर्थ,
२००
हा कूर्मपुराण तर
प्राजापत्यं तथा तीर्थ स्वर्गद्वारं तथेव च।
जम्बुके श्वरमित्युक्ते धमख्य॑ तीर्थमुत्तमम्॥ ४ ॥
गयातीर्थ महातीर्थ तीर्थ चैव महानदी।
नारायणं पर तीर्थ वायुतीर्थमनुत्तमम्॥ ५ ॥
ज्ञानतीर्थ परं गुह्ां वाराहं तीर्थमुत्तमम्।
यमतीर्थ महापुण्यं तीर्थ संवर्तक॑ शुभम्॥ ६ ॥
अग्रितीर्थ द्विजश्रेष्ठा: कलशेश्वरमुत्तमम्।
नागतीर्थ सोमतीर्थ सूर्यतीर्थ तथेव च।॥ ७ ॥
पर्वताख्यं महागुह्यं मणिकर्णमनुत्तमम् ।
घटोत्कचं तीर्थवरं श्रीतीर्थ च पितामहम्॥ ८ ॥
गड्ढातीर्थ तु देवेशं ययातेस्तीर्थमुत्तमम्।
कापिलं चैव सोमेशं ब्रह्मतीर्थमनुत्तमम्॥ ९ ॥
अत्र लिड्ढ पुरानीय ब्रह्मा रत्रातुं यदा गत: ।
तदानीं स्थापयामास विष्णुस्तल्लिड्रमैश्वरम्॥ १० ॥
ततः स््रात्वा समागत्य ब्रह्मा प्रोवाच तं हरिम्।
मयानीतमिदं लिड्रं कस्मात् स्थापितवानसि ॥ ११॥।
तमाह विष्णुस्त्वत्तोडपि रुद्रे भक्ति्दृढा मम।
तस्मात् प्रतिष्ठितं लिड्ढं नाप्ना तव भविष्यति॥ १२॥
भूतेश्वरं तथा तीर्थ तीर्थ धर्मसमुद्भवम्।
गन्धर्वतीर्थ परमं॑ वाह्नेयं तीर्थमुत्तमम्॥ १३॥
दौर्बासिकं व्योमतीर्थ चन्द्रतीर्थ द्विजोत्तमा: ।
चित्राडुदेश्वरं पुण्यं पुण्यं विद्याधरेश्वरम्॥ १४॥
केदारतीर्थमुग्राख्यं कालज्जरमनुत्तमम्।
सारस्वतं प्रभासं च भद्रकर्ण हुदं शुभम्॥ १५॥
लौकिकाख्यं महीतीर्थ तीर्थ चेव महालयम्।
हिरण्यगर्भ गोप्रेक्ष्य॑ तीर्थ चेव वृषध्वजम्॥ १६॥
उपशान्तं शिवं चैव व्याप्रेश्वरमनुत्तमम्।
बत्रिलोचन महातीर्थ लोलार्क चोत्तराह्ययम्॥ १७॥
कपालमोचनं तीर्थ ब्रह्महत्याविनाशकम्।
शुक्रे धर महापुण्यमानन्दपुरमुत्तमम्॥ १८॥
एवमादीनि तीर्थानि प्राधान्यात् कथितानि तु।
न शकयं विस्तराद वक्तुं तीर्थसंख्या द्विजोत्तमा: ॥ १९॥
तेषु सर्वेषु तीर्थेषु र््नात्वाभ्यर्च्य पिनाकिनम् |
उपोष्य तत्र तत्रासौ पाराशर्यों महामुनि:॥ २०॥
प्राजापत्य तीर्थ, स्वर्गद्वार, जम्बुकेश्वर, धर्म (धर्मारिण्य)
नामवाले उत्तम तीर्थ, गया तीर्थ, महातीर्थ, महानदीतीर्थ,
परम नारायण तीर्थ, श्रेष्ठ वायु तीर्थ, परम गुद्य ज्ञानतीर्थ,
श्रेष्ठ वाराह तीर्थ, महान् पवित्र यमतीर्थ, शुभ संवर्तक
तीर्थ, अग्नितीर्थ, उत्तम कलशेश्वर, नागतीर्थ, सोमतीर्थ,
सूर्यतीर्थ, महागुह्य पर्वत नामक तीर्थ, अनुत्तम मणिकर्ण,
तीर्थश्रेष्ठ घटोत्कच तीर्थ, श्रीतीर्थ, पितामह तीर्थ, गज्जातीर्थ,
देवेश तीर्थ, उत्तम ययातितीर्थ, कपिल तीर्थ, सोमेश
तीर्थ तथा अनुत्तम ब्रह्मतीर्थमें गये॥१--९॥
प्राचीन कालमें जब ब्रह्मा यहाँ (ब्रह्मतीर्थमें) लिड्
लाकर स्नान करने चले गये, तब विष्णुने उस ईश्वरके
लिड्रको यहाँ स्थापित कर दिया। जब स्नान करके ब्रह्मा
आये तो उन्होंने विष्णुसे पूछा--मेरे द्वारा लाये गये इस
लिजड्गको आपने क्यों स्थापित कर दिया। इसपर विष्णुने
उनसे कहा-मेरी रुद्रमें आपसे भी अधिक दृढ़ भक्ति
है, इसलिये मैंने लिड्रको यहाँ प्रतिष्ठित कर दिया, यह
आपके नामसे हो प्रसिद्ध होगा॥ १०--१२॥
द्विजोत्तमो! (व्यासजी पुनः: आगे कहे जानेवाले
तीर्थोमें गये) भूतेश्वर तीर्थ, धर्मसमुद्धव तीर्थ, परम
गन्धर्वतीर्थ, उत्तम वाह्नेयतीर्थ, दौर्वासिक तीर्थ, व्योमतीर्थ,
चन्द्रतीर्थ, पवित्र चित्राड्रदेश्वरतीर्थ, पवित्र विद्याधरेश्वर
तीर्थ, केदारतीर्थ, उग्र नामक तीर्थ, अनुत्तम कालझर
तीर्थ, सारस्वत तीर्थ, प्रभासतीर्थ, भद्रकर्णहद नामक
शुभ तीर्थ, लौकिक नामक महातीर्थ, महालयतीर्थ,
हिरण्यगर्भ तीर्थ, गोप्रेक्ष्य तीर्थ, वृषध्वजतीर्थ, उपशान्त
तीर्थ, शिवतीर्थ, अनुत्तम व्याप्रेश्वरतीर्थ, त्रिलोचनतीर्थ,
महातीर्थ, लोलार्क तीर्थ, उत्तर नामक तीर्थ, ब्रह्महत्या-
विनाशक कपालमोचन तीर्थ, महापतवित्र शुक्रेश्वर
तीर्थ और उत्तम आनन्दपुर तीर्थ आदि मुख्य-मुख्य
तीर्थोका वर्णन किया गया है, तीर्थोकी संख्याका
विस्तार नहीं बताया जा सकता। पराशरके पुत्र
महामुनि (व्यास) इन सभी तीर्थोमें स्नानकर पिनाकी
(भगवान् शंकर)-की पूजाकर, वहाँ-वहाँ उपवासकर
* अध्याय ३३४३ *
तर्पयित्वा पितृन् देवान् कृत्वा पिण्डप्रदानकम्
जगाम पुनरेवापि यत्र विश्वेश्वरः शिव:॥ २१॥
स्ात्वाभ्यर्च्य पर लिड़ं शिष्ये: सह महामुनि: ।
उवाच शिष्यान् धर्मात्मा स्वान् देशान् गन्तुमहथ ॥ २२॥
ते प्रणम्य महात्मानं जग्मु: पैलादयो द्विजा:।
वासं च तत्र नियतो वाराणस्यां चकार सः ॥ २३॥
शान्तो दान्तस्त्रिषवर्णं स्नात्वाभ्यर्च्य पिनाकिनम्
भेक्षाहारो विशुद्धात्मा ब्रह्मचर्यपरायण: ॥ २४॥
कदाचिद् वसता तत्र व्यासेनामिततेजसा।
भ्रममाणेन भिक्षा तु नेव लब्धा द्विजोत्तमा: ॥ २५॥
ततः क्रोधावृततनुर्नराणामिह वासिनाम्।
विघ्न॑ सृजामि सर्वेषां येन सिद्धिर्विहीयते॥ २६॥
तत्क्षणे सा महादेवी शंकरार्धशरीरिणी।
प्रादुरासीत् स्वयं प्रीत्या वेष॑ कृत्वा तु मानुषम्॥ २७॥
भो भो व्यास महाबुद्धे शप्तव्या भवता न हि।
गृहाण भिक्षां मत्तस्त्वमुक्त्वैवं प्रददौ शिवा॥ २८ ॥
उवाच च महादेवी क्रोधनस्त्वं भवान् यतः ।
इह क्षेत्रे न वस्तव्यं कृतप्लोडसि त्वया सदा॥ २९॥
एवमुक्त: स भगवान् ध्यानाज्ज्ञात्वा परां शिवाम् ।
उवाच प्रणतो भूत्वा स्तुत्वा च प्रवरे: स्तवे: ॥ ३०॥
चतुर्दश्यामथाष्ट म्यां प्रवेशं देहि शांकरि।
एवमस्त्वित्यनुज्ञाय- देवी चान्तरधीयत॥ ३१॥
एवं स भगवान् व्यासो महायोगी पुरातन: ।
शात्वा क्षेत्रगुणान् सर्वान् स्थितस्तस्याथ पाशवत: ॥ ३२॥
एवं व्यासं स्थित ज्ञात्वा क्षेत्र सेवन्ति पण्डिता: ।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन वाराणस्यां वसेन्नरः॥ ३३॥
२०१
देवताओं तथा पितरोंका तर्पणकर और उन्हें पिण्ड-दान
कर पुनः वहीं गये, जहाँ विश्वेश्वर शिव स्थित
हैं ॥ १३--२१॥
शिष्योंके साथ धर्मात्मा महामुनिने स्नानकर उस
परम (विश्वेश्वर) लिड्रकी पूजा की और शिष्योंसे
कहा--अब आप अपने-अपने स्थानोंको जा सकते हैं।
द्विजो! महात्मा (व्यास)-को प्रणाम कर वे पैल आदि
(शिष्य) चले गये और उन व्यासजीने नियमित-रूपसे
वाराणसीमें वास किया। वे शान्त, जितेन्द्रिय, विशुद्धात्मा
एवं ब्रह्मचर्य-परायण होकर तीनों संध्याओंमें स्नान करते
थे तथा भिक्षाद्वारा प्राप्त आहार करते हुए पिनाकीकी
आराधनामें लगे रहते थे॥ २२--२४॥
द्विजोत्तमो ! वहाँ रहते हुए एक दिन अमित तेजस्वी
व्यासजीको भ्रमण करते रहनेपर भी भिक्षा नहीं प्राप्त
हुई। तब उनका शरीर क्रोधाविष्ट हो गया, (उन्होंने
विचार किया कि) यहाँ रहनेवाले मनुष्योंके लिये ऐसे
विघ्नकी सृष्टि करूँ, जिससे उनकी सिद्धि नष्ट हो
जाय, पर तत्क्षण ही शंकरकी अर्धाड्रिनी साक्षात्
महादेवी (पार्वती) मानुष-वेष धारणकर प्रसन््न-मुद्रामें
प्रकट हो गयीं। (और बोलीं--) ॥ २५--२७॥
हे महाबुद्धिमान्ू व्यास! आप शाप न दें। आप
मुझसे भिक्षा ग्रहण करें। ऐसा कहकर पार्वतीने (उन्हें)
भिक्षा दीं॥ २८ ॥
महादेवीने कहा--मुने! आप क्रोधी तथा कृतघ्न
हैं, अत: आपको सदा इस क्षेत्रमें नहीं रहना चाहिये।
ऐसा कहे जानेपर व्यासजीने ध्यानद्वारा “ये श्रेष्ठ
पार्वती हैं --ऐसा समझकर प्रणाम किया और श्रेष्ठ
स्तुतियोंसे स्तुति कर उनसे कहा--हे शंकरवल्लभे!
चतुर्दशी तथा अष्टमीको यहाँ (वाराणसीमें) प्रवेश
करने दें। "ऐसा ही हो” ऐसी आज्ञा देकर देवी
अन्तर्धान हो गयीं॥ २९--३१॥
इस प्रकार महायोगी भगवान् व्यासजी क्षेत्र
(वाराणसी)-के सभी गुणों (विशेषताओं )-को समझते
हुए उस (वाराणसी)-के पार्श्वभागमें रहने लगे। इस
प्रकार व्यासजीको स्थित हुआ जानकर विद्वान् लोग
(उस) क्षेत्रका सेवन करते हैं। अत: मनुष्यको सभी
प्रयत्नकर वाराणसीमें निवास करना चाहिये॥ ३२-३३ ॥
सूत उवाच
यः पठेदविमुक्तस्य माहात्म्यं श्रुणुयादपि।
श्रावयेद् वा द्विजान् शान्तान् सो5पि याति परां गतिम्।। ३४॥
श्राद्धे वा देविके कार्य रात्रावहनि वा द्विजा: ।
नदीनां चैव तीरेषु देवतायतनेषु च॥३५॥
सत्रात्वता समाहितमना दम्भमात्सर्यवर्जित: ।
मन कूर्मपुराण मं
सूतजी बोले--जो अविमुक्त (क्षेत्र वाराणसी)-
का माहात्म्य पढ़ता है, सुनता है अथवा शान्त द्विजोंको
सुनाता है, वह भी परम गतिको प्राप्त करता है। द्विजो!
जो स्नान करनेके अनन्तर श्राद्धमें, देवकार्यमें, रात
अथवा दिनमें, नदियोंके किनारोंपर अथवा देवमन्दिरोंमें
मनको एकाग्र कर दम्भ तथा मात्सर्यसे रहित होकर
नमस्कारपूर्वक ईश (शिव)-का जप करता है, उसे
जपेदीशं नमस्कृत्य स याति परमां गतिम्॥ ३६॥ | परमगति प्राप्त होती है॥ ३४--३६ ॥
डति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहर््रधां संहितायां पूर्वाविभागे त्रयस्त्रिशोउध्याय: ॥ ३३ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें तैंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३३॥
चोंतीसवाँ अध्याय
प्रयागका माहात्म्य, मार्कण्डेय-युधिष्ठिर-संवाद, प्रयागमें संगम-स्नानका फल
ऋषय ऊचु:
माहात्म्यमविमुक्तस्थ यथावत् तदुदीरितम्।
इदानीं तु प्रयागस्य माहात्म्यं ब्रूहि सुत्रत॥ १॥
यानि तीर्थानि तत्रैव विश्रुतानि महान्ति वै।
इदानीं कथयास्माकं सूत सर्वार्थविद् भवान्॥ २॥
सूत उवाच
श्रणुध्वमृषय: सर्वे विस्तरेण ब्रवीमि वः।
प्रयागस्थ च माहात्म्यं यत्र देव: पितामह:॥ ३॥
मार्कण्डेयेन कथितं कौन्तेयाय महात्मने।
यथा युधिष्टिरायैतत् तद्बक्ष्ये भवतामहम्॥ ४॥
निहत्य कौरवान् सर्वान् भ्रातृभि: सह पार्थिव: ।
शोकेन महताविष्टो मुमोह स युधिष्ठिर: ॥ ५॥
अचिरेणाथ कालेन मार्कण्डेयो महातपा:।
सम्प्राप्तो हास्तिनपुरं राजद्वारे स तिष्ठति॥ ६॥
द्वारपालो5पि त॑ दृष्ठा राज्ञ: कथितवान् द्रुतम्।
मार्कण्डेयो द्रष्टमिच्छंस्त्वामास्ते द्वार्यसौ मुनि: ॥ ७॥
त्वरितो धर्मपुत्रस्तु द्वारमेत्याह तत्परम्।
स्वागतं ते महाप्राज्ञ स्वागतं ते महामुने॥ ८॥
अद्य मे सफलं जन्म अद्य मे तारितं कुलम्।
अद्य मे पितरस्तुष्टास्त्वयि तुष्टे महामुने॥ ९॥
ऋषियोंने कहा--सुब्रत ! अविमुक्त ( (क्षेत्र वाराणसी)-
के माहात्म्यका आपने भलीभाति वर्णन किया। अब इस
समय प्रयागका माहात्म्य बतलायें। सूतजी ! आप समस्त
अर्थोको जाननेवाले हैं, अब आप वहाँ (प्रयाग)-के जो
महान् प्रसिद्ध तीर्थ हैं, उन्हें हमें बताइये ॥ १-२॥
सूतजी बोले--ऋषियो! आप सभी सुनें। मैं
विस्तारसे आप लोगोंको प्रयागका माहात्म्य बतलाता हूँ,
जहाँ पितामह देव स्थित हैं। (महर्षि) मार्कण्डेयने
कुन्तीके पुत्र महात्मा युधिष्ठिरसे जो कुछ कहा था, वही
मैं आपलोगोंको बताता हूँ॥ ३-४॥
भाइयोंके साथ सभी कौरवोंको मारनेके उपरान्त
राजा युधिष्ठिर महान् शोकसे आविष्ट होकर मोहसे
ग्रस्त हो गये। तदनन्तर थोड़े ही समय बाद महान्
तपस्वी मार्कण्डेय मुनि हस्तिनापुरमें आये और राजमहलके
द्वारपर खड़े हो गये॥ ५-६॥
उन्हें देखकर द्वारपालने भी शीघ्र जाकर राजा
(युधिष्ठिर) -से कहा--आपके दर्शनकी इच्छासे मुनि
मार्कण्डेय द्वारपर खड़े हैं। धर्मपुत्र युधिष्ठिर शीघ्र ही
तत्परतापूर्वक द्वारपर गये और कहने लगे--महाप्राज्ञ!
महामुने। आपका स्वागत है, स्वागत है। आज मेरा जन्म
सफल हो गया, आज मेरा कुल तर गया। महामुने! आपके
प्रसन्न होनेपर आज मेरे पितृगण संतुष्ट हो गये॥७--९॥
* अध्याय ३४ *
सिंहासनमुपस्थाप्य पादशौचार्चनादिभि: ।
युधिष्ठिरो महात्मेति पूजयामास तं॑ मुनिम्॥ १०॥
मार्कण्डेयस्ततस्तुष्ट: प्रोवाच स युधिष्ठिरम्।
किमर्थ मुहासे विद्वन् सर्व ज्ञात्वाहमागत:॥ ११॥
ततो युधिष्ठिरों राजा प्रणम्याह महामुनिम्।
कथय त्वं समासेन येन मुच्येत किल्जिषै: ॥ १२॥
निहता बहवो युद्धे पुंसो निरपराधिन:।
अस्माभि: कौरवे: सार्ध प्रसड्रान्मुनिपुंगव॥ १३॥
येन हिंसासमुदभूताज्जन्मान्तरकृतादपि।
मुच्यते पातकादस्मात् तद् भवान् वक्तुमहति॥ १४॥
मार्कण्डेय उवाच
श्रुणु राजन् महाभाग यन्मां पृच्छसि भारत।
प्रयागगमन श्रेष्ठ नराणां पापनाशनम्॥ १५॥।
तत्र देवो महादेवो रुद्रो विश्वामरेश्वर:।
समास्ते भगवान् ब्रह्मा स्वयम्भूरपि दैवते:॥ १६॥
युधिष्ठिर उवाच
भगवज्च्छोतुमिच्छामि प्रयागगमने फलम्।
मृतानां का गतिस्तत्र सत्नातानामपि कि फलम्॥ १७॥
ये वसन्ति प्रयागे तु ब्रृहि तेषां तु किं फलम्।
भवता विदितं होतत् तन्मे ब्रूहि नमो5स्तु ते॥ १८ ॥
मार्कण्डेय उवाच
कथयिष्यामि ते वत्स या चेष्टा यच्च तत्फलम्।
पुरा महर्षिभि: सम्यक् कथ्यमानं मया श्रुतम्॥ १९॥
एतत् प्रजापतिक्षेत्रं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
अत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्ते5पुनर्भवा: ॥ २०॥
तत्र ब्रह्मादयो देवा रक्षां कुर्वन्ति संगता:।
बहून्यन्यानि तीर्थानि सर्वपापापहानि तु॥ २१॥
कथितुं नेह शक्नोमि बहुवर्षशतैरपि।
संक्षेपेण प्रवक्ष्यामि प्रयागस्येह कीर्तनम॥ २२॥
२०३
महात्मा युधिष्ठिरने उन मुनिको सिंहासनपर बैठाकर
पादप्रक्षालन, पूजन इत्यादिके द्वारा उनका सम्मान
किया ॥ १० ॥
तब प्रसन्न होकर मार्कण्डेयने युधिष्ठिसससे कहा--
विद्वन्! आप मोह क्यों कर रहे हैं ? सभी कुछ जानकर
ही मैं यहाँ आया हूँ। तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने
प्रणामकर महामुनिसे कहा--आप संक्षेपमें (कोई उपाय)
बतलायें, जिससे में पापोंसे मुक्त हो सकूँ॥ ११-१२॥
हे मुनिश्रेष्ठ! हमने (युद्धके) प्रसंगवश कोौरवोंके
साथ अनेक निरपराध मनुष्योंको युद्धमें मारा है, अत:
आप वह (कोई उपाय) बतलायें, जिससे हिंसाजनित
दोष एवं जन्मान्तरमें किये गये पापों तथा इस पापसे भी
मुक्ति मिले॥ १३-१४॥
मार्कण्डेयने कहा--हे राजन् ! भारत! महाभाग !
आप जो मुझसे पूछते हैं उसे सुनें--मनुष्योंके लिये
पापको नष्ट करने-हेतु प्रयागकी यात्रा करना श्रेष्ठ
(उपाय) है। वहाँ सभी देवताओंके ईश्वर महादेव
रुद्रदेव और स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा देवताओंके साथ
विराजमान हैं ॥ १५-१६॥
युधिष्ठिर बोले-- भगवन्! मैं सुनना चाहता हूँ कि
प्रयाग जानेका क्या फल है? वहाँ मरनेवालोंकी कौन
गति होती है और वहाँ स्नान करनेवालोंको क्या फल
मिलता है ? जो प्रयागमें निवास करते हैं, उन्हें क्या फल
मिलता है, आपको यह सब कुछ ज्ञात है, अत: मुझे
वह सब बतायें, आपको नमस्कार है॥ १७-१८॥
मार्कण्डेयने कहा--वत्स! प्राचीन कालमें
महर्षियोंद्वार कही गयी (प्रयागकी महिमा) एवं
प्रयाग-निवासका फल आदि जो कुछ मेंने सुना है,
उसे मैं भलीभाँति आपको बतलाऊँगा। यह प्रजापति-
क्षेत्र तीनों लोकोंमें विख्यात है। यहाँपर स्नान करनेवाले
स्वर्गलोकमें जाते हैं और जो यहाँ मृत्युको प्राप्त होते
हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। यहाँ ब्रह्मा आदि देवता
मिलकर (प्रयाग-निवासियोंकी) रक्षा करते हैं और
सभी पापोंको दूर करनेवाले अन्य भी अनेक तीर्थ
यहाँ हैं। मैं सैकड़ों वर्षोमें भी उनका वर्णन नहीं कर
सकता तथापि संक्षेपमें ही प्रयाग (-की महिमा)-का
कीर्तन करता हूँ॥ १९--२२॥
२०४
न कूर्मपुराण मः
घष्टिर्धनु:सहस्त्राणि यानि रक्षन्ति जाह्नवीम् ।
साठ हजार धनुष जाह्वी (गड्भा)-कौ रक्षा करते
यमुनां रक्षति सदा सविता सप्ततवाहन: ॥ २३॥ | हैं और सात अश्वोंको वाहन बनानेवाले सवितादेव सदा
प्रयागे तु विशेषेण स्वयं वसति वासव:।
मण्डलं रक्षति हरिः सर्वदेवैश्ष सम्मितम्॥ २४॥
न्यग्रोधं॑ रक्षते नित्यं शूलपाणिर्महेश्वर:।
स्थान रक्षन्ति वे देवा: सर्वपापहरं शुभम्॥ २५॥
स्वकर्मणाव॒तो लोको नैव गच्छति तत्पदम् ।
स्वल्पं स्वल्पतरं पापं यदा तस्य नराधिप।
प्रयागं स्मरमाणस्य सर्वमायाति संक्षयम्॥ २६॥
दर्शनात् तस्य तीर्थस्य नाम संकीर्तनादपि।
मृत्तिकालम्भनाद् वापि नरः पापात् प्रमुच्यते।। २७॥
पतञ्ञ कुण्डानि राजेन्द्र येषां मध्ये तु जाह्नवी ।
प्रयागं विशत: पुंसः पापं नश्यति तत्क्षणात् ॥ २८॥
योजनानां सहस्त्रेषु गड्ां यः स्मरते नरः।
अपि दुष्कृतकर्मासौ लभते परमां गतिम्॥ २९॥
कीर्तनान्मुच्यते पापाद दृष्टा भद्राणि पश्यति।
तथोपस्पृश्य राजेन्द्र स्वर्गलोके महीयते॥ ३०॥
व्याधितो यदि वा दीन: क्रुद्धो वापि भवेन्नर: ।
गड्ढायमुनमासाद्य त्यजेत् प्राणान् प्रयत्तनत: ॥ ३१॥
दीप्रकाक्ननवर्णाभेविमानैर्भानुवर्णिभि: ।
ईप्सिताँललभते कामान् वदन्ति मुनिपुंगवा:॥ ३२॥
सर्वरत्नम्यैर्दिव्यैर्नानाध्वजसमाकुलै:. ।
बराड्भरनासमाकी्णैमोंदते शुभलक्षण: ॥ ३३॥
गीतवादित्रनिर्धोषि: प्रसुप्तः प्रतिबुध्यते।
यावत्न स्मरते जन्म तावत् स्वर्गे महीयते॥ ३४॥
यमुनाकी रक्षा करते हैं। प्रयागमें विशेषरूपसे इन्द्र स्वयं
निवास करते हैं। समस्त देवोंसे युक्त विष्णु प्रयागमण्डलको
रक्षा करते हैं॥२३-२४॥
(प्रयागके विशाल) वटवृक्षकी रक्षा हाथमें त्रिशूल
धारण करनेवाले महेश्वर नित्य करते हैं और सभी
पापोंको हरनेवाले इस शुभ स्थानकी रक्षा सभी देवता
करते हैं। हे नराधिप! जो लोग अपने कर्मोसे घिरे हैं
तथा जिनका छोटेसे भी छोटा पाप बचा रहता है, वे लोग
उस मोक्ष-पदको प्राप्त नहीं करते, किंतु प्रयागका
स्मरण करनेवालेका यह सभी कुछ (पाप एवं कर्म)
नष्ट हो जाता है॥ २५-२६॥
इस (प्रयाग) तीर्थके दर्शन करनेसे, नामका संकीर्तन
करनेसे अथवा यहाँकी मिट्टीका स्पर्श करनेसे भी
मनुष्य पापसे मुक्त हो जाता है। राजेन्द्र | यहाँ (प्रयागमें)
पाँच कुण्ड हैं, जिनके बीचमें जाह्नवी (गड़ा) स्थित है।
प्रयागमें प्रवेश करनेवालेका पाप तत्क्षण ही नष्ट हो
जाता है। सहस्नों योजन दूरसे भी जो मनुष्य गड्जाका
स्मरण करता है, वह दुष्कृत करनेवाला होनेपर भी परम
गतिको प्राप्त करता है॥ २७--२९॥
हे राजेन्द्र! (प्रयागका नाम-) कीर्तन करनेसे
(मनुष्य) पापसे मुक्त हो जाता है और इसका दर्शन
करनेसे (उसे सर्वत्र) मड्रल-ही-मड्गरल दिखलायी
पड़ता है तथा यहाँ आचमन (इसके जलसे स्नान)
करनेसे स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त होती है॥३०॥
कोई मनुष्य व्याधिग्रस्त हो, दीन हो अथवा क्रुद्ध
हो, यदि वह प्रयतपूर्वक गड़ा-यमुनाके समीप पहुँचकर
प्राण-त्याग करता है तो वह सूर्यके समान उद्दीप्त, स्वर्णिम
आभावाले विमानोंसे युक्त होकर अभीष्ट पदार्थोको प्राप्त
करता है--ऐसा श्रेष्ठ मुनिजनोंका कहना है॥ ३१-३२॥
वह शुभ लक्षणोंवाला (मनुष्य) सभी रत्लोंसे युक्त
अनेक प्रकारकी दिव्य ध्वजाओंसे परिपूर्ण और वराड्रनाओंसे
समन्वित होकर आनन्दित होता है। शयन करनेपर वह
गीत और वाद्यकी ध्वनिसे जगाया जाता है, जबतक वह
जन्मका स्मरण नहीं करता, तबतक स्वर्गमें प्रतिष्ठित
रहता है॥ ३३-३४॥
* अध्याय ३४ *
तस्मात् स्वर्गात् परिभ्रष्ट: क्षीणकर्मा नरोत्तम |
हिरण्यरत्नसम्पूर्ण समृद्धे जायते कुले॥ ३५॥
तदेव स्मरते तीर्थ स्मरणात् तत्र गच्छति।
देशस्थो यदि वारण्ये विदेशे यदि वा गृहे॥ ३६॥
प्रयागं स्मरमाणस्तु यस्तु प्राणान् परित्यजेत्।
ब्रह्मलोकमवाप्नोति वदन्ति मुनिपुंगवा:॥ ३७॥
सर्वकामफला वृक्षा मही यत्र हिरण्मयी।
ऋषयो मुनय: सिद्धास्तत्र लोके स गच्छति॥ ३८ ॥
स्त्रीसहस्त्राकुले रम्ये मन्दाकिन्यास्तटे शुभे।
मोदते मुनिभिः सार्ध स्वकृतेनेह कर्मणा॥ ३९॥
सिद्धचारणगन्धर्वें: पूज्यते दिवि दैवतै:।
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टो जम्बूद्वीपपतिर्भवेत्॥| ४० ॥
ततः शुभानि कर्माणि चिन्तयान: पुनः पुनः ।
गुणवान् वित्तसम्पन्नो भवतीह न संशय: ।
कर्मणा मनसा वाचा सत्यधर्मप्रतिष्ठित:॥ ४१॥
गड्जायमुनयोम॑ध्ये यस्तु ग्रामं प्रतीच्छति।
सुवर्णमथ मुक्तां वा तथेवान्यान् प्रतिग्रहान्॥ ४२॥
स्वकार्ये पितृकार्ये वा देवताभ्यर्चनेडपि वा।
निष्फलं तस्य तत् तीर्थ यावत् तत्फलमएनुते॥ ४३ ॥
अतस्तीर्थ न गृह्नीयात् पुण्येष्वायतनेषु च।
निमित्तेषु च सर्वेषु अप्रमत्तो द्विजो भवेत्॥ ४४॥
कपिलां पाटलावर्णा यस्तु थेनुं प्रयच्छति।
स्वर्णश्रृड़ी रौप्पखुरां चैलकण्ठां पयस्विनीम्॥ ४५॥
यावदरोमाणि तस्या वै सन्ति गात्रेषु सत्तम।
तावदवर्षसहस्त्राणि रुद्रलोके महीयते॥ ४६॥
२०५
नरोत्तम! (पुण्य) करमोके क्षीण होनेपर स्वर्गसे च्युत
होकर वह स्वर्ण तथा रत्नोंसे परिपूर्ण समृद्ध कुलमें जन्म
लेता है और इसी तीर्थ (प्रयाग)-का स्मरण करता है।
स्मरण होनेपर पुन: वहाँ जाता है। अपने देश, विदेश,
अरण्य अथवा घरमें जो प्रयागका स्मरण करते हुए
प्राणोंका परित्याग करता है, वह ब्रह्मलोक प्राप्त करता
है, ऐसा श्रेष्ठ मुनि कहते हैं। वह उस लोकमें जाता
है, जहाँके सभी वृक्ष इच्छानुसार फल देते हैं, जहाँकी
भूमि स्वर्णमयी है और जहाँ ऋषि, मुनि तथा सिद्धजन
रहते हैं॥ ३५--३८ ॥
अपने किये कर्मोके कारण वह सहस्तनों स्त्रियोंसे रमणीय
मन्दाकिनीके शुभ तटपर मुनियोंके साथ आनन्द प्राप्त
करता है। वह स्वर्गमें सिद्ध, चारण, गन्धर्व तथा देवताओंसे
पूजित होता है, तदनन्तर स्वर्गसे च्युत होनेपर वह (पुरुष)
जम्बूद्दीपका स्वामी होता है| तदुपरान््त वह बार-बार शुभ
कर्मोका चिन्तन करता हुआ गुणवान् तथा धनसम्पन्न हो
जाता है और मन, वाणी तथा कर्मसे सत्यधर्मपर प्रतिष्ठित
रहता है, इसमें कोई संशय नहीं है॥ ३९--४१ ॥
जो व्यक्ति स्वकार्य, पितृकार्य अथवा देवताकी पूजा
करते समय गड्जा और यमुनाके मध्यमें ग्राम, सुवर्ण, मोती
या अन्य कोई पदार्थ प्रतिग्रह (दान)-में लेता है, उसे
तीर्थका पुण्य उस समयतक नहीं मिलता है, जबतक वह
दानमें लिये हुए पदार्थका भोग करता रहता है *। अत: तीर्थों
तथा पवित्र मन्दिरोंमें दान नहीं लेना चाहिये । द्विजको सभी
प्रकारके प्रयोजनोंमें सावधान रहना चाहिये ॥ ४२--४४॥
श्रेष्ठ (युधिष्ठिर) ! जो व्यक्ति (प्रयागमें) कपिल
अथवा पाटलवर्णकी, सुवर्णमण्डित सींगवाली, रजतमण्डित
खुरोंवाली, वस्त्रसे आच्छादित कण्ठवाली पयस्विनी
गायका दान करता है, वह उतने हजार वर्षोतक
रुद्रलोकमें पूजित होता है, जितने उस गायके शरीरमें
रोम होते हैं॥ ४५-४६ ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहब्रशंं संहितायां पूर्वविधागे चतुल्तरिशोउध्याय: ॥ ३४॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें चौंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३४॥
___+ इसका तात्पर्य यह है कि तीर्थमं निवास अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ही होता है, अतः लोभरहित होकर अनासक्त-भावसे
तीर्थमें निवास करना चाहिये। इसीलिये तीर्थमें यदि कोई लोभवश या आसक्तिवश दान लेता है तो यह प्रतिग्रह लोभको बढ़ायेगा तथा
अन्त:करणकी शुद्धिमें बाधक होगा। अत: दाताके कल्याणमात्रके लिये भले ही दान लिया जाय, पर लोभवश दान नहीं लेना चाहिये।
साथ ही जप-तप आदि प्रायश्चित्तद्वारा इसका निराकरण भी करना चाहिये।
२०६
न कूर्मपुराण हम
पेंतीसवाँ अध्याय
प्रयाग-माहात्म्य, प्रयागके विभिन्न तीर्थोकी महिमा, त्रिपथगा
गड्डाका माहात्म्य, गड़ारन्नानका फल
मार्कण्डेय उवाच
'कथयिष्यामि ते वत्स तीर्थयात्राविधिक्रमम् ।
आर्षेण तु विधानेन यथा दृष्टे यथा श्रुतम्॥
प्रयागतीर्थयात्रार्थी यः प्रयाति नर: क्वचित्।
बलीवर्द समारूढ: श्रूणु तस्यापि यत्फलम्॥
नरके वसते घोरे समा: कल्पशतायुतम्।
ततो निवर्तते घोरो गवां क्रोधो हि दारुण: ।
सलिलं च न गुहन्ति पितरस्तस्य देहिन: ॥
यस्तु पुत्रांस्तथा बालान् स्नापयेत् पाययेत् तथा ।
यथात्मना तथा सर्वान् दानं विप्रेषु दापयेत्॥
ऐश्वर्याल्लोभमोहाद् वा गच्छेद् यानेन यो नरः।
निष्फलं तस्य तत् तीर्थ तस्माद् यान॑ विवर्जयेत् ॥
गड्भायमुनयोममध्ये यस्तु कनन््यां प्रयच्छति।
आर्षेण तु विवाहेन यथाविभवविस्तरम्॥
न स पश्यति तं घोरं नरकं तेन कर्मणा।
उत्तरानू स कुरून् गत्वा मोदते कालमक्षयम्॥।
बटमूलं समाभ्रित्य यस्तु प्राणान् परित्यजेत्।
सर्वलोकानतिक्रम्य रुद्रलोक॑ स गच्छति॥
तत्र ब्रह्मादयो देवा दिशश्व सदिगीश्वरा:।
लोकपालाश्च सिद्धाश्च पितरो लोकसम्मता: ॥
सनत्कुमारप्रमुखास्तथा .ब्रह्मर्षयोउपरे।
नागा: सुपर्णा: सिद्धाश्व तथा नित्यं समासते।
२१॥।
२॥।
हे ॥
४ ॥
ा।!
६ ॥॥।
ही ।
८ ॥
९॥।
हरिश्च॒ भगवानास्ते प्रजापतिपुरस्कृत: ॥ १०॥
गड़ायमुनयोर्मध्ये पृथिव्या जघन स्मृतम्।
प्रयागं राजशार्दूल त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्॥ ११॥
* नाभिके नीचेका स्त्रियोंका कोमल भाग जघन है।
मार्कण्डेयने कहा--वत्स ! ऋषियोंके द्वारा प्रतिपादित
विधानके अनुसार तीर्थयात्राकी विधिके क्रमको मैंने
जैसे देखा और सुना, वह तुमसे कहता हूँ॥१॥
प्रयागतीर्थकी यात्रा करनेवाला कोई मनुष्य यदि
कहीं बैलपर आरूढ़ होकर गमन करता है तो उसका
भी फल सुनो-- वह व्यक्ति दस हजार कल्पोंतक घोर
नरकमें वास करता है, क्योंकि गौका भयंकर दारुण
क्रोध इसके बाद ही दूर होता है। बैलको सवारी
बनानेवाले मनुष्यके पितर उसका (तर्पण आदियें
दिया) जल ग्रहण नहीं करते हैं। जो अपने सभी पुत्रों
एवं बालकोंको अपने ही समान यहाँ (प्रयागमें) ररान
कराता है तथा उन्हें (गड़ा-यमुनाका) जल पिलाता है
और उनके हाथों ब्राह्मणोंको दान कराता है (उसे उत्तम
गति प्राप्त होती है) | जो मनुष्य ऐश्वर्य, लोभ या मोहवश
यानद्वारा (तीर्थमें) जाता है, उसकी वह तीथ्थयात्रा
निष्फल होती है, इसलिये (तीर्थयात्रामें) यानका परित्यांग
करना चाहिये॥ २--५॥
जो व्यक्ति गड़ा-यमुनाके मध्य आर्ष विवाहपद्धतिसे
अपने ऐश्वर्यके अनुकूल धनका व्ययकर कन्याका दान
करता है, वह उस कर्मके कारण घोर नरकका दर्शन
नहीं करता और उत्तर कुरुमें जाकर अनन्त कालतक
आनन्दोपभोग करता है॥६-७॥
(प्रयागमें अक्षय) वटवृक्षेके नीचे जाकर जो
प्राणोंका परित्याग करता है, वह सभी लोकोंका अतिक्रमण
कर रुद्रलोकको जाता है। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता,
दिक््पालोंसहित दिशाएँ, लोकपाल, सिद्ध, लोकमें मान्य
पितर, सनत्कुमार आदि प्रमुख तथा दूसरे ब्रह्मर्षि, नाग,
सुपर्ण एवं सिद्धनण तथा भगवान् हरि और प्रजापति
प्रभति नित्य निवास करते हैं॥ ८--१०॥
गड़ा-यमुनाके मध्यको पृथ्वीका जघन* कहा
गया है। हे राजशार्दूल! प्रयाग तीनों लोकोंमें विख्यात
है॥ ११॥
* अध्याय ३५ *
२०७
तत्राभिषेक॑ यः कुर्यात् संगमे संशितत्रतः।
तुल्यं फलमवाप्नोति राजसूयाश्वमेधयो: ॥ १२॥
न मातृवचनात् तात न लोकवचनादपि।
मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयागगमन प्रति॥ १३॥
दश तीर्थसहस्त्राणि षष्टिकोट्यस्तथापरे।
तेषां सांनिध्यमत्रेव तीर्थानां कुरुनन्दन॥ १४॥
या गतियोंगयुक्तस्य सत्त्वस्थस्य मनीषिण: ।
सा गतिस्त्यजतः प्राणान् गड़गयमुनसंगमे ॥ १५॥
न ते जीवन्ति लोके5स्मिन् यत्र तत्र युधिष्ठिर।
ये प्रयागं न सम्प्राप्तास्त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्॥ १६॥
एवं दृष्ठा तु ततू तीर्थ प्रयागं परम पदम्।
मुच्यते सर्वपापेभ्य: शशाड्ड इब राहुणा॥ १७॥
कम्बलाश्वतरी नागौ यमुनादक्षिणे तटे।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च मुच्यते सर्वपातकै: ॥ १८ ॥
तत्र गत्वा नरः स्थान महादेवस्थ धीमतः।
आत्मानं तारयेत् पूर्व दशातीतान् दशापरान्॥ १९॥
कृत्वाभिषेकं तु नर: सो5श्वमेधफलं लभेत्।
स्वर्गलोकमवाप्नोति यावदाहूतसम्प्लवम्॥ २०॥
पूर्वपाए्वे तु गड्रायास्त्रेलोक्ये ख्यातिमान् नृप।
अवटः सर्वसामुद्र: प्रतिष्ठानं च विश्रुतम्॥ २१॥
ब्रह्मचारी जितक्रोधस्त्रिरात्रं यदि तिष्ठति।
सर्वपापविशुद्धात्मा सोउइश्वमेधफलं लभेत्॥ २२॥
उत्तरेण प्रतिष्ठानं भागीरथ्यास्तु सव्यतः।
हंसप्रपतनं नाम तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम्॥ २३॥
अश्वमेधफलं तत्र स्मृतमात्रात् तु जायते।
यावच्चन्द्रश्न सूर्यश्च तावत् स्वर्गे महीयते॥ २४॥
वहाँ (गड़ा-यमुनाके) संगमपर जो कठोर ब्रत
धारणकर अभिषेक--स्रान करता है, वह अश्वमेध तथा
राजसूय-यज्ञोंक समान फल प्राप्त करता है॥ १२॥
हे तात! माताके कहने अथवा अन्य लोगोंके
कहनेपर भी प्रयाग जानेकी बुद्धिका उत्क्रमण (परित्याग)
नहीं करना चाहिये*। हे कुरुनन्दन! यहाँपर प्रमुख
दस हजार तीर्थ तथा साठ करोड़ दूसरे तीर्थोंका
सांनिध्य है। योगयुक्त सत्त्वगगुणी मनीषीकी जो गति होती
है, वही गति गड़ा-यमुनाके संगमपर प्राण त्याग
करनेवालेकी होती है। हे युधिष्ठिर! तीनों लोकोंमें
विख्यात प्रयागमें जो नहीं पहुँचते, जहाँ-कहीं भी निवास
करनेवाले वे लोग इस संसारमें जीवित रहते हुए भी
मृतकके तुल्य हैं॥ १३--१६॥
इस प्रकार परम पदरूप इस प्रयागतीर्थका
दर्शनकर मनुष्य सभी पापोंसे उसी प्रकार मुक्त हो जाता
है, जैसे चन्द्रमा राहुसे मुक्त हो जाता है। यमुनाके दक्षिण
किनारेपर कम्बल और अश्वतर नामक दो नाग स्थित
हैं। वहाँ स्नान करने और जल पीनेसे सभी पापोंसे मुक्ति
हो जाती है॥ १७-१८॥
धीमान् महादेवके उस स्थानपर जाकर मनुष्य
अपनेको तथा दस पूर्वकी और दस बादकी सभी
पीढ़ियोंको तार देता है। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य
अश्वमेधका फल प्राप्त करता है तथा महाप्रलयपर्यन्त
स्वर्गलोक प्राप्त करता है॥ १९-२० ॥
हे राजन्! गड्ढाके पूर्वी तटपर तीनों लोकोंमें
विख्यात सर्वसामुद्र नामक गह्दर तथा प्रतिष्ठान प्रसिद्ध
है। वहाँ ब्रह्मचर्यपूर्वक तथा क्रोधजयी होकर तीन रात्रि
निवास करनेवाला (मनुष्य) सभी पापोंसे निर्मुक्त होकर
अश्वमेधका फल प्राप्त करता है। प्रतिष्ठान नामक
स्थानके उत्तर तथा भागीरथीकी बायीं ओर तीनों लोकोंमें
विख्यात हंसप्रपतन नामक तीर्थ है। उसके स्मरणमात्रसे
अश्वमेधका फल प्राप्त होता है और (वहाँ जानेवाला
व्यक्ति) जबतक सूर्य एवं चन्द्रमा हैं, तबतक स्वर्गमें
प्रतिष्ठा प्राप्त करता है॥ २१--२४॥
* इसका तात्पर्य प्रयागमें निवास करनेसे है न कि माता आदि गुरुजनोंके वचनका उल्लंघन करनेमें।
२०८
उर्वशीपुलिने रम्ये विपुले हंसपाण्डुरे।
परित्यजति य: प्राणान् श्रुणु तस्थापि यत् फलम्॥ २५॥
षष्टिवर्षसहस्त्राणि षष्टिवर्षघततानि च।
आस्ते स पितृभि: सार्ध स्वर्गलोके नराधिप॥ २६॥
अथ संध्यावटे रम्ये ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय:।
नरः शुचिरुपासीत ब्रह्मलोकमवाप्नुयात्॥ २७॥
कोटितीर्थ समाश्रित्य यस्तु प्राणान् परित्यजेत् ।
कोटिवर्षसहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते॥ २८ ॥
यत्र गड़ा महाभागा बहुतीर्थतपोवना।
सिद्धक्षेत्रं हि तज्ज्ञेयं नात्र कार्या विचारणा॥ २९॥
क्षितो तारयते मर्त्यान् नागांस्तारयते5प्यध: ।
दिवि तारयते देवांस्तेन त्रिपथगा स्मृता॥ ३०॥
यावदस्थीनि गड्ढायां तिष्ठन्ति पुरुषस्य तु।
तावदवर्षसहस्त्राण स्वर्गलोके महीयते॥ ३१॥
तीर्थानां परम तीर्थ नदीनां परमा नदी।
मोक्षदा सर्वभूतानां महापातकिनामपि॥ ३२॥
सर्वत्र सुलभा गड्डा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।
गड्ढाद्वो प्रयागे च गड्ासागरसंगमे॥ ३३॥
सर्वेषामेव भूतानां पापोपहतचेतसाम्।
गतिमन्वेषमाणानां नास्ति गड्रासमा गति: ॥ ३४॥
पवित्राणां पवित्र च मड्भलानां च मड्रलम्।
माहेश्वरात् परिभ्रष्टा सर्वपापहरा शुभा॥ ३५॥
कृते युगे तु तीर्थानि त्रेतायां पुष्कर परम्।
द्वापरे तु कुरुक्षेत्र कलौ गड्ढा विशिष्यते॥ ३६॥
गड़ामेव निषेवेत प्रयागे तु विशेषतः।
नान्यत् कलियुगोदभूत॑ं मल॑ हन्तुं सुदुष्कृतम्॥ ३७॥
मर कूर्मपुराण न
जो व्यक्ति उर्वशीके* हंसके समान अति धवल
रम्य, विस्तृत तटपर प्राणोंका परित्याग करता है, उसका
भी जो फल है, वह सुनो--हे नराधिप ! वह व्यक्ति साठ
हजार साठ सौ वर्षोतक पितरोंके साथ स्वर्गलोकमें
निवास करता है। रमणीय संध्यावट (प्रवागके वट-
विशेष) -के नीचे जो मनुष्य जितेन्द्रिय होकर ब्रह्मचर्यपूर्वक
पवित्रतासे उपासना करता हे, वह ब्रह्मलोक प्राप्त करता
है। जो कोटितीर्थ (प्रयागमें स्थित तीर्थ)-में पहुँचकर
प्राणोंका परित्याग करता है, वह हजार करोड़ वर्षोतक
स्वर्गलोकमें पूजित होता है। जहाँ बहुतसे तीर्थों एवं
तपोवनोंसे युक्त महाभागा गड़्ग विद्यमान हैं, उस क्षेत्रको
सिद्धक्षेत्र जानना चाहिये, इसमें किसी भी प्रकारका
विचार (संशय) करना उचित नहीं है। गज्जा पृथ्वीपर
मनुष्योंको तारती है, नीचे पाताल लोकमें नागोंको तारती
है और च्युलोकमें देवताओंको तारती है, इसलिये यह
त्रिपधगा कही जाती है॥ २५--३० ॥
जितने वर्षतक पुरुषकी अस्थियाँ गड्ढमें रहती
हैं, उतने हजार वर्षोतक वह स्वर्गलोकमें पूजित होता
है। (गड़ा) सभी तीर्थोमें परम तीर्थ और नदियोंमें
श्रेष्ठ नदी है, वह सभी प्राणियों, यहाँतक कि महापातकियोंको
भी मोक्ष प्रदान करनेवाली है। गड़ा (स््रान) सर्वत्र
सुलभ होनेपर भी गड्ज़ाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग एवं
गड्भासागर--इन तीन स्थानोंमें दुर्लभ होती है। (उत्तम)
गतिकी इच्छा करनेवाले तथा पापसे उपहत चित्तवाले
सभी प्राणियोंके लिये गड़ाके समान और कोई दूसरी
गति नहीं है॥३१--३४॥
यह सभी पवित्र वस्तुओंसे अधिक पवित्र और
सभी मड़लकारी पदार्थोंसे अधिक माड्रलिक है।
महेश्वर (-के मस्तक)-से होकर इस लोकमें आनेके
कारण यह सभी पापोंका हरण करनेवाली और शुभ है।
सत्ययुगमें अनेक तीर्थ होते हैं, त्रेताका श्रेष्ठ तीर्थ पुष्कर
है, द्वापरका कुरुक्षेत्र है और कलियुगमें गद्भाकी ही
विशेषता है। गड़ाकी ही सेवा करनी चाहिये, विशेष-
रूपसे प्रयागमें गड़ाकी सेवा करनी चाहिये। कलियुगमें
उत्पन्न अत्यन्त कठिन पापको दूर करनेमें कोई अन्य
तीर्थ समर्थ नहीं है॥ ३५--३७॥
* प्रयाग-संगमके समीप कोई तट-विशेष।
* अध्याय ३६ *
अकामो वा सकामो वा गड्ढायां यो विपद्यते।
२०९
इच्छा अथवा अनिच्छापूर्वक जो गड़़में मृत्यु प्राप्त
स मृतो जायते स्वर्गे नरक॑ च न पश्यति॥ ३८ ॥ | करता है, वह मृत व्यक्ति स्वर्ग जाता है और नरकका
दर्शन नहीं करता॥ ३८ ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहम्रधां संहितायां पूर्वविभागे पक्ञत्रिंशोउध्याय: ॥ ३५ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें पैंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३५॥
छत्तीसवाँ अध्याय
प्रयाग-माहात्म्य, माघमासमें संगमस्नानका फल, त्रिमाघीकी महिमा,
प्रयागमें प्राण-त्याग करनेका फल
मार्कण्डेय उवाच
षष्टिस्तीर्थसहसत्राणि षष्टिस्तीर्थशतानि च।
माघमासे गमिष्यन्ति गड्जायमुनसंगमम्॥ १॥
गवां शतसहस्त्रस्य सम्यग दत्तस्य यत् फलम्।
प्रयागे माघमासे तु ज््यहं स्नातस्य तत् फलम्॥ २॥
गड्जायमुनयोर्मध्ये कार्षाग्निं यस्तु साधयेत्।
अहीनाड्रो5प्यरोगश्च पउ्चेन्द्रियसमन्वित: ॥ ३॥
यावन्ति रोमकूपाणि तस्य गात्रेषु मानद।
तावदवर्षसहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते॥ ४॥
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टो जम्बूद्वीपपतिर्भवेत्।
स भुक्त्वा विपुलान् भोगांस्तत् तीर्थ भजते पुन: ॥ ५॥
जलप्रवेशं यः कुर्यात् संगमे लोकविश्रुते।
राहुग्रस्तो यथा सोमो विमुक्तः सर्वपातकै:ः॥ ६॥
सोमलोकमवाप्नोति सोमेन सह मोदते।
षष्टिं वर्षसहस्त्राणि षष्टिं वर्षमतानि च॥७॥
स्वर्गतः शक्रलोकेडसौ मुनिगन्धर्वसेवित:।
ततो भ्रष्टस्तु राजेन्द्र समृद्धे जायते कुले॥ ८॥
अध:शिरास्त्वयोधारामूर्ध्पपाद: . पिबेन्नरः।
शत वर्षसहस्त्राण स्वर्गलोके महीयते॥ ९॥
मार्कण्डेयने कहा-- (युधिष्ठिर !) गड़ा और यमुनाके
संगमपर माघ महीनेमें साठ हजार साठ सौ तीर्थ जाते
हैं। सौ हजार गौओंका भलीभाँति दान करनेका जो फल
होता है, वही फल प्रयागमें माघमासमें तीन दिन स्ान
करनेका होता है। गड़ा और यमुनाके संगमपर जो
करीषाग्नरिका* सेवन करता है, वह अहीनाड़ (हीन
अड़से रहित) अर्थात् सम्पूर्ण अवयवोंसे सम्पन्न, रोगरहित
तथा पाँचों इन्द्रियोंसे युक्त होता है॥ १--३॥
मान देनेवाले (युधिष्ठिर)! उस मनुष्यके शरीरमें
जितने रोमकूप होते हैं, उतने हजार वर्षोतक वह
स्वर्गलोकमें पूजित होता है। तदनन्तर स्वर्गसे भ्रष्ट होनेपर
वह जम्बूह्ीपका स्वामी होता है और विपुल भोगोंका
उपभोग करनेके अनन्तर वह पुन: इस तीर्थ (प्रयाग)-
को प्राप्त करता है॥ ४-५॥
(गड़ा-यमुनाके) लोक-प्रसिद्ध संगमपर जो जलमें
प्रवेश करता है, वह जिस प्रकार राहुसे ग्रस्त चन्द्रमा
मुक्त हो जाता है, वैसे ही सभी पापोंसे मुक्त हो जाता
है। वह चन्द्रलोकमें जाता है और साठ हजार साठ सौ
वर्षोतक चन्द्रमाके साथ आनन्दोपभोग करता है। हे
राजेन्द्र! तदुपरान्त मुनियों एवं गन्धवोसे सेवित वह
स्वर्गलोकसे इन्द्रलोकमें जाता है और वहाँसे भ्रष्ट होनेपर
इस लोकमें आकर धनवानोंके कुलमें जन्म लेता है। जो
मनुष्य (यहाँ प्रयागमें) पैर ऊपर और सिर नीचे करके
लोहेकी धाराका पान (तपस्या-विशेष) करता है, वह
सौ हजार वर्षोंतक स्वर्गलोकमें पूजित होता है॥ ६--९ ॥
* करीष--सूखा गोमय। इससे अग्नि बनाकर उसके मध्य तपस्या करना।
२१५० ः कूर्मपुराण मे
तस्माद् भ्रष्टस्तु राजेन्द्र अग्निहोत्री भवेन्नर:। राजेन्द्र! वहाँसे भ्रष्ट होनेपर वह मनुष्य अग्निहोत्री
भुक्त्वा तु विपुलान् भोगांस्तत् तीर्थ भजते पुन: ॥ १०॥ | होता है और विपुल भोगोंका उपभोग करके पुनः इस
(प्रयाग) तीर्थका सेवन करता है। जो अपना शरौर
काटता' है अथवा पक्षियोंको देता है, ऐसे पक्षियोंद्वारा
यः स्वदेहं विकर्तेद वा शकुनिभ्य: प्रयच्छति। खाये गये (मांसवाले) उस पुरुषकों भी जो फल प्राप्त
विहगैरुपभुक्तस्य श्रूणु तस्यापि यत्फलम्॥ ११॥ | होता है, उसे सुनो--॥ १०-११॥
शतं वर्षसहस्नाणि सोमलोके महीयते। वह सौ हजार वर्षोतक चन्द्रलोकमें पूजित होता है,
ततस्तस्मात् परिभ्रष्टो राजा भवति धार्मिक: ॥ १२॥ | तदनन्तर वहाँसे च्युत होनेपर धार्मिक, गुणवान्, रूपसम्मन्न,
गुणवान् रूपसम्पन्नो विद्वान सुप्रियवाक्यवान्। विद्वान् और सुन्दर तथा प्रिय वचन बोलनेवाला राजा
भुकत्वा तु विपुलान् भोगांस्तत् तीर्थ भजते पुन: ॥ १३॥ | होग है एवं विपुल भोगोंको भोगकर पुनः इस तीर्थका
उत्ते यमुनातीरे प्रयागस्य तु दक्षिणे। सेवन करता है। प्रयागके दक्षिणमें यमुनाके उत्तरी तटपर
ऋणप्रमोचन नाम तीर्थ तु परम स्मृतम्॥ १४॥ ऋणप्रमोचन नामका एक श्रेष्ठ तीर्थ कहा गया है। वहाँ
हि प स्वृतम। ३ ४ | आानकर एकरात्रिपर्यनत निवास करनेवाला पुरुष ऋणोंसे
एकरात्रोषित: स्नात्वा ऋणैस्तत्र प्रमुच्यते। मुक्त हो जाता है, सूर्यलोक प्राप्त करता है तथा सदाके
सूर्यलोकमवाप्नोति अनुणश्र सदा भवेत् ॥ १५७५॥ | लिये ऋणमुक्त हो जाता है॥ १२--१५॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षट्साहस़्यां संहितायां पूर्वविभागे षर्त्रिंगोउध्याय: ॥ ३६ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें छत्तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३६॥
सैंतीसवाँ अध्याय
प्रयाग-माहात्म्य, यमुनाकी महिमा, यमुनाके तटवर्ती तीर्थोका वर्णन, गड्ढममें
सभी तीर्थोकी स्थिति, मार्कण्डेय-युधिष्ठटिर-संवादकी समाप्ति
मार्कण्डेय उवाच मार्कण्डेयने कहा--(राजन् युधिष्ठिर!) सूर्यकी तीनों
लोकोंमें विख्यात पुत्री महाभागा देवी यमुना नदी यहाँपर
मिली हैं। जिस मार्गसे गड़ा प्रवाहित हुई हैं, उस मार्गसे
यमुना भी गयी हैं। सहस्नों योजन दूरपर भी (यमुना)
येनेव नि:ःसृता गड़ग तेनेव यमुना गता। नाम लेनेसे पापोंको नष्ट कर देनेवाली है। युधिष्ठिर! इस
योजनानां सहस्त्रेषु कीर्तनात् पापनाशिनी॥ २॥ | यमुनामें स्नान करने तथा इसका जल पीनेसे मनुष्य सभी
पापोंसे मुक्त होकर अपने सात पीढ़ियोंके कुलोंको
पवित्र कर देता है। जो यहाँ प्राणोंका परित्याग करता
है, वह परम गतिको प्राप्त करता है। यमुनाके दक्षिणी
तटपर अग्रनितीर्थ नामका एक विख्यात तीर्थ है। यमुनाके
अग्नितीर्थमिति ख्यातं यमुनादक्षिणे तटे। पश्चिमी भागमें धर्मराजका 'अनरक '' नामक तीर्थ कहा
पश्चिमे धर्मराजस्य तीर्थ त्वनरकं स्मृतम्। गया है। यहाँ स्नान करनेवाले स्वर्ग जाते हैं और जो यहाँ
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेउपुनर्भवा: ॥ ४ ॥ | मृत्युको प्राप्त होते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता॥ १--४॥
तपनस्य सुता देवी त्रिषु लोकेषु विश्रुता।
समागता महाभागा यमुना यत्र निम्नगा॥ १॥
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च यमुनायां युधिष्टिर।
सर्वपापविनिर्मुक्त: पुनात्यासप्तमं कुलम्।
प्राणांस्तथजति यस्तत्र स याति परमां गतिम्॥ ३॥
१-ज्ञानकी पराकाष्टामें शरीरके प्रति ममताका सर्वथा अभाव हो जाता है। ऐसी स्थितिमें शरीरका काटना या अपने शरीरका मांस
पक्षियोंको समर्पित करना (प्राणि-कल्याण-बुद्धिमात्रसे) विशेष तप है। दधीचि, शिवि, जीमूतवाहन आदिके दृष्टान्त द्रष्टव्य हैं।
२-न नरकल्अनरक इस तीर्थमें स्नान आदि करनेसे नरकमें नहीं जाना पड़ता, इसलिये इसका नाम 'अनरक' है।
* अध्याय ३७%
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां स्नात्वा संतर्पयेच्छुचि: ।
धर्मराज॑ महापापेर्मुच्यते नात्र संशयः:॥ ५॥
दश तीर्थसहस्त्राणि त्रिशत्कोट्यस्तथापरा: ।
प्रयागे संस्थितानि स्युरेवमाहुर्मनीषिण:॥ ६ ॥
तिरत्र: कोट्यो3र्धकोटी च तीर्थानां वायुरब्रवीत् ।
दिवि भूम्यन्तरिक्षे च तत्सर्व जाह्नवी स्मृता॥ ७ ॥
यत्र गड़ा महाभागा स देशस्तत् तपोवनम्।
सिद्धिक्षेत्रं तु तज्ज्ेयं गड्रातीरसमाश्रितम्॥ ८ ॥
यत्र देवो महादेवो देव्या सह महेश्वरः ।
आस्ते वरटेश्वरो नित्यं तत् तीर्थ तत् तपोवनम्॥ ९ ॥
इदं सत्यं द्विजातीनां साधूनामात्मजस्य च।
सुहृदां च जपेत् कर्णे शिष्यस्यानुगतस्य तु॥ १०॥
इृदं धन्यमिदं स्वर्ग्यमिदं मेध्यमिदं सुखम्।
इदं पुण्यमिदं रम्यं पावन धर्म्यमुत्तमम्॥ ११॥
महर्षीणामिदं गुह्ां सर्वपापप्रमोचनम्।
अत्राधीत्य द्विजो5ध्यायं निर्मलत्वमवाप्नुयात्॥ १२॥
यछ्चेदं श्रुणुयान्नित्यं तीर्थ पुण्यं सदा शुचि: ।
जातिस्मरत्वं लभते नाकपृष्ठे च मोदते॥ १३॥
प्राप्यन्ते तानि तीर्थानि सद्धिः शिष्टानुदशिभि: ।
सस््नाहि तीर्थेषु कौरव्य न च वक्रमतिर्भव॥ १४॥
एवमुक्त्वा स भगवान् मार्कण्डेयो महामुनि: ।
तीर्थानि कथयामास पृथिव्यां यानि कानिचित्॥ १५॥
भूसमुद्रादिसंस्थानं प्रमाण ज्योतिषां स्थितम् ।
पृष्ट: प्रोवाच सकलमुक्त्वाथ प्रययौ मुनि:॥ १६॥
य इदं कल्यमुत्थाय पठते5थ श्रुणोति वा।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो रुद्रलोक॑ स गच्छति॥ १७॥
२११
यहाँ (अनरक तीर्थमें) कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको स्नान
करके पवित्रतापूर्वक जो धर्मराजका तर्पण करता है, वह
निस्संदेह महापापोंसे मुक्त हो जाता है। मनीषी लोगोंका
यह कहना है कि प्रयागमें दस हजार (प्रधान) तीर्थ और
तीस करोड़ दूसरे (अप्रधान) तीर्थ स्थित हैं॥ ५-६॥
वायुने कहा है कि चुलोक, भूलोक और अन्तरिक्षमें
साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं और जाह्वी उन सभी तीर्थोसे
युक्त कही गयी है। जहाँ महाभागा गड्ढा होती हैं, वही
(पवित्र) देश है और वही तपोवन होता है। गड्भाके
तटपर स्थित उस स्थानको सिद्धिक्षेत्र समझना चाहिये।
जहाँ देवीके साथ महादेव महेश्वरदेव वटेश्वर* स्थित हैं
वह स्थान नित्य तीर्थ है और वह तपोवन है। इस
सत्यको द्विजातियों, साधुओं, मित्रों, अपने पुत्र तथा
अनुगामी शिष्यके कानमें कहना चाहिये॥७--१०॥
यह (प्रयाग) धन्य हे, स्वर्गफलप्रद (स्वर्गरूप
'फलको देनेवाला) है, यह पवित्र, सुख, पुण्य, रमणीय,
पावन और उत्तम धर्मयुक्त है। यह महर्षियोंके लिये
गोपनीय रहस्य है। सभी पापोंको नष्ट करनेवाला है।
यहाँ द्विज वेदका स्वाध्याय कर निर्मल हो जाता है। जो
व्यक्ति नित्य पवित्रतापूर्वक इस पुण्यप्रद तीर्थका वर्णन
सुनता है, वह जन्मान्तरकी बातोंको स्मरण करनेवाला हो
जाता है और स्वर्गलोकमें आनन्द प्राप्त करता है। शिष्ट
मार्गका अनुसरण करनेवाले सज्जन पुरुष ऐसे तीथोॉमें
जाते हैं । कुरुक वंशधर (युधिष्ठिर) ! तीर्थोमें स्नान करो।
इस विषयमें विपरीत बुद्धिवाले मत होओ॥ ११--१४॥
ऐसा कहकर उन भगवान् मार्कण्डेय महामुनिने
(युधिष्ठटिरके द्वारा) पूछे जानेपर पृथ्वीमें जो कोई भी
तीर्थ थे उन्हें बतलाया और पृथ्वी तथा समुद्र आदिकी
स्थिति एवं नक्षत्रोंकी स्थितिका सम्पूर्ण वर्णन कर वे
मुनि चले गये॥ १५-१६॥
प्रातःकाल उठकर जो इस (प्रयाग-माहात्म्य)-का
पाठ करता है अथवा इसे सुनता है, वह सभी पापोंसे
मुक्त होकर रुद्रलोकमें जाता है॥ १७॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहर्रयां संहितायां पूर्वविभागे सम्तत्रिशोउध्याय: ॥ ३७॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें सैंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३७॥
* प्रयागमें स्थित विशाल वटवृक्षके नीचे प्रतिष्ठित लिड्र वटेश्वर लिड़ है।
२१२
कं कूर्मपुराण नः
अड़तीसवाँ अध्याय
भुवनकोश-वर्णनमें राजा प्रियत्रतके वंशका वर्णन, प्रियत्रतके पुत्र राजा अग्मीश्नके
वंशका वर्णन, जम्बू आदि सात द्वीपोंका तथा वर्षोका वर्णन, जम्बूद्वीपके
नौ वर्षोर्में राजा अग्रीश्चके नाभि, किंपुरुष आदि नौ पुत्रोंका आधिपत्य
श्रीकूर्म उवाच
एवमुक्तास्तु मुनयो नेमिषीया महामतिम्।
पप्रच्छुरुत्तर'ं सूतं पृथिव्यादिविनिर्णयम्॥ १ ॥
ऋषय ऊचु:
कथितो भवता सूत सर्ग: स्वायम्भुव: शुभ: ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामस्त्रिलोकस्यास्य मण्डलम्॥
यावन्त: सागरा द्वीपास्तथा वर्षाणि पर्वता: ।
वनानि सरितः: सूर्यग्रहाणां स्थितिरिव च॥
यदाधारमिदं कृत्स्नं येषां पृथ्वी पुरा त्वियम्।
नृपाणां तत्समासेन सूत वक्तुमिहाईसि॥
सूत उवाच
बक्ष्ये देवादिदेवाय विष्णवे प्रभविष्णवे।
नमस्कृत्वाप्रमेघाय यदुक्ते तेन धीमता॥
स्वायम्भुवस्य तु मनोः प्रागुक्तो यः प्रियत्नतः ।
पुत्रस्तस्याभवन् पुत्रा: प्रजापतिसमा दश॥
अभ्नैश्चश्चाग्रिबाहुश्च वपुष्मान् द्युतिमांस्तथा।
मेथधा मेधातिथिईव्य: सवनः पुत्र एव च॥
ज्योतिष्मान् दशमस्तेषां महाबलपराक्रम:।
धार्मिको दाननिरतः सर्वभूतानुकम्पकः ॥
मेधारिनबाहुपुत्रास्तु त्रयो योगपरायणा:।
है.
६
हि
८
जातिस्मरा महाभागा न राज्ये दधिरे मतिम॥ ९ ॥
प्रियव्नतो5भ्यषिज्नद वै सप्तद्वीपेषु सप्त तान्।
जम्बूद्वीपे धरं
प्लक्षद्वीपेश्वरश्चैव तेन मेधातिथि: कृत: ।
पुत्रमग्नीक्षमकरोन्नृप: ॥ १०॥
शाल्मलेशं वपुष्मन्तं नरेन्द्रमभिषिक्तवान्॥ ११॥
ज्योतिष्मन्तं कुशद्वीपे राजानं कृतवान् प्रभु: ।
झुतिमन्तं च राजान॑ क्रौकृद्वीपे समादिशत्॥ १२॥
शाकद्दवीपेश्वरं चापि हव्यं चक्रे प्रियत्नतः।
पुष्कराधिपतिं चक्रे सबनं च प्रजापति:॥ १३॥
श्रीकूर्मने कहा--ऐसा कहे जानेपर नैमिषारण्यमें
निवास करनेवाले मुनियोंने महाबुद्धिमान् सूतजीसे पृथ्वी
आदिके सम्बन्धमें निर्णय पूछा-- ॥ १॥
ऋषियोंने कहा--हे सूतजी! आपने स्वायम्भुव
मन्वन्तरकी शुभ सृष्टिको बतलाया, अब इस समय हम
लोग तज्रैलोक्य-मण्डलका वर्णन सुनना चाहते हैं। जितने
सागर, द्वीप, वर्ष, पर्वत, वन तथा नदियाँ हैं और सूर्य
आदि ग्रहोंकी जो स्थिति है, इन सभीका वर्णन करें। है
सूतजी! यह सब कुछ जिसके आधारपर टिका है और
प्राचीन कालमें यह पृथ्वी जिन राजाओंके अधिकारमें रही है,
उन सभी विषयोंका संक्षेपमें आप वर्णन करें॥ २--४॥
सूतजीने कहा--देवोंके आदिदेव, अप्रमेय, प्रभविष्णु
विष्णुको नमस्कार कर मैं उन धीमान्द्वारा जो कुछ कहा
गया है, उसे बताता हूँ--॥ ५॥
पूर्वमें स्वायम्भुव मनुके जिस प्रियत्रत नामक पुत्रका
वर्णन किया गया है उस (प्रियब्रत)-को प्रजापतिके
समान दस पुत्र हुए। अग्रीभ्र, अग्निबाहु, वपुष्मान्,
चुतिमानू, मेधा, मेधातिथि, हव्य, सवन और पुत्र तथा
महान् बलशाली एवं पराक्रमी, धार्मिक, दानपरायण
और सभी प्राणियोंपर दया करनेवाला ज्योतिष्मान् नामक
दसवाँ पुत्र था। मेधा, अग्रिबाहु तथा पुत्र-ये तीनों
योगपरायण थे। पूर्वजन्मोंका स्मरण करनेवाले इन
महाभाग्यशालियों (विरक्तों)-का मन राज्यकार्यमें नहीं
लगा। (अतः) प्रियत्रतने (अपने अन्य) उन सात पुत्रोंको
सात द्वीपोंमें अभिषिक्त कर दिया। राजाने अग्नीभ्र नामक
पुत्रको जम्बूद्वीपका स्वामी बनाया। उन्होंने मेधातिथिको
प्लक्षद्वीपका राजा बनाया और वपुष्मान्को शाल्मलि-
द्वीपमें राजाके रूपमें अभिषिक्त किया॥ ६--११॥
प्रभु (प्रियत्रत)-ने ज्योतिष्मान्को कुशद्वीपका राजा
बनाया और झुतिमान्को क्रौद्यद्वीपका राजा बननेका
आदेश दिया। प्रजापति प्रियत्रतने हव्यको शाकद्ठीपका
स्वामी बनाया और सवनको पुष्करद्वीपका अधिपति
बनाया॥ १२-१३ ॥
* अध्याय रे८ *
पुष्करे सवनस्यापि महावीतः सुतो5भवत्।
धातकिश्चैव द्वावेतौ पुत्रौ पुत्रवतां वरो॥ १४॥
महावीतं स्मृतं वर्ष तस्य नाम्ना महात्मन: |
नाम्ना तु धातकेश्वापि धातकीखण्डमुच्यते॥ १५॥
शाकद्दीपेश्वरस्थाथ हव्यस्याप्यभवन् सुता: ।
जलदश्व कुमारश्च सुकुमारो मणीचक:।
कुसुमोत्तरो5थ मोदाकिः सप्तम: स्यान्महाद्रुम: ॥ १६॥
जलदं जलदस्याथ वर्ष प्रथममुच्यते।
कुमारस्य तु कौमारं तृतीयं सुकुमारकम्॥ १७॥
मणीचकं चतुर्थ तु पञ्ञषमं कुसुमोत्तरम्।
मोदाकं षष्ठमित्युक्ते सप्तमं तु महाद्रुमम्॥ १८॥
क्रौद्धद्वीपेश्वरस्यापि सुता झ्ुतिमतो5भवन्।
कुशल: प्रथमस्तेषां द्वितीयस्तु मनोहर:॥ १९॥
उष्णस्तृतीयः सम्प्रोक्तश्नतुर्थ: प्रवर: स्मृतः ।
अन्धकारो मुनिश्चैव दुन्दुभिश्चेव सप्तम: ।
तेषां स्वनामभिर्देशा: क्रौक्धद्वीपाश्रया: शुभा: ॥ २०॥
ज्योतिष्मतः कुशद्वीपे सपैवासन् महौजस: ।
उदभेदो वेणुमांश्चैवा श्ररथो लम्बनो धृति:।
षष्ठ: प्रभाकरश्चापि सप्तम: कपिल: स्मृत:॥ २१॥
स्वनामचिद्वितान् यत्र तथा वर्षाणि सुब्रता: ।
ज्ञेयानि सप्त तान्येषु द्वीपेष्वेवं नयो मतः॥ २२॥
शाल्मलद्दीपनाथस्य सुताश्चासन् वपुष्मत:।
श्वेतश्न हरितश्चैव जीमूतो रोहितस्तथा।
वैद्युतो मानसश्चैव सप्तम: सुप्रभो मतः॥ २३॥
प्लक्षद्वीपेश्वरस्थापि सप्त मेधातिथे: सुताः।
ज्येप्ठट: शान्तभयस्तेषां शिशिरश्न सुखोदय: ।
आनन्दश्न शिवश्चैव क्षेमकश्व श्रुवस्तथा॥ २४॥
प्लक्षद्वीपादिषु ज्ेयः शाकद्वीपान्तिकेषु वै।
वर्णाश्रमविभागेन स्वधर्मो मुक्तये द्विजा:॥ २५॥
जम्बूद्वीपे श्वरस्यापि पुत्रास्त्वासन् महाबला: ।
अग्नीक्रस्य द्विजश्रेष्ठास्तन्नामानि निबोधत॥ २६॥
नाभि: किंपुरुषश्चेव तथा हरिरिलावृतः।
रम्यो हिरण्वांश्व कुरुर्भद्राश्व: केतुमालक: ॥ २७॥
जम्बूद्वीपेश्ररो राजा स चाग्नीध्ो महामति: |
विभज्य नवधा तेभ्यो यथान्यायं ददौ पुनः ॥ २८ ॥
२१३
पुष्करमें सवनको भी महावीत तथा धातकि नामक
दो पुत्र हुए। पुत्रवानोंके पुत्रोंमें ये दोनों ही पुत्र श्रेष्ठ थे।
उन महात्मा (महावीत)-के नामसे उस वर्षको महावीतवर्ष
कहा गया है और धातकिके भी नामसे धातकिखण्ड
कहा जाता है। शाकद्ठीपके राजा हव्यको जलद, कुमार,
सुकुमार, मणीचक, कुसुमोत्तर तथा मोदाकि एवं सातवाँ
महाद्रुम नामक पुत्र हुआ॥ १४--१६॥
(इन सातों पुत्रोंके राज्यक्षेत्र इनके नामसे एक-एक
वर्ष कहलाये--इसीलिये) जलदका जलद नामक प्रथम
वर्ष कहा जाता है। कुमारका कौमार नामक वर्ष, इसी
प्रकार तीसरा सुकुमारक (वर्ष), चौथा मणीचक,
पाँचवाँ कुसुमोत्त, छठा मोदाक और सातवाँ महाद्वुम
नामक वर्ष है। क्रौदद्वीपके राजा चुतिमान्को भी पुत्र
हुए। उनमें कुशल पहला, मनोहर दूसरा, उष्ण तीसरा
पुत्र कहा गया है और चौथा पुत्र प्रवर नामसे जाना जाता
है। इसी प्रकार अन्धकार (पाँचवाँ), मुनि (छठा) तथा
दुन्दुभि सातवाँ पुत्र था। उनके (अपने ही) नामसे
प्रसिद्ध सुन्दर देश क्रौद्धद्वीपमें स्थित हैं। कुशद्दीपमें
ज्योतिष्मान्कों महान् ओजस्वी सात पुत्र हुए। उदभेद,
वेणुमान्ू, अश्वरथ, लम्बन, धृति तथा छठा प्रभाकर और
सातवाँ कपिल कहा गया है॥ १७--२१॥
हे सुत्रतो! इस (कुशद्वीप)-में उनके नामसे युक्त
वर्ष हैं। इसी प्रकार उन अन्य द्वीपोंमें भी स्थिति समझनी
चाहिये। शाल्मलद्ठीपके स्वामी वपुष्मानके श्वेत, हरित,
जीमूत, रोहित, वैद्युत और मानस तथा सातवें सुप्रभ
नामक पुत्र थे। प्लक्षद्वीपके राजा मेधातिथिके भी सात
पुत्र हुए। उनमें ज्येष्ट पुत्र शान्तभय था। इसके अतिरिक्त
शिशिर, सुखोदय, आनन्द, शिव, क्षेमक तथा धुव
नामक पुत्र थे॥ २२--२४॥
द्विजो! प्लक्षद्वीप आदिसे लेकर शाकद्वीपतक वर्ण
और आश्रमके भेदसे स्वधर्म (पालन)-को मुक्तिका
साधन समझना चाहिये। हे श्रेष्ठ द्विजो ! जम्बूद्दीपके अधिपति
अग्रीध्रके भी महान् बलशाली पुत्र थे, उनके नाम सुनो--
नाभि, किंपुरुष, हरि, इलावृत, रम्य, हिरण्वान्ू, कुरु,
भद्राश्व॒ तथा केतुमालक नामक नौ पुत्र थे॥ २५--२७॥
जम्बूद्दीपेश्वर महामति उन राजा अग्रीप्नने (जम्बूद्दीपको)
नौ भागोंमें बाँटकर न्यायानुसार उन (पुत्रों)-को दे
दिया॥ २८ ॥
२१४
नाभेस्तु दक्षिणं वर्ष हिमाह्वं प्रददौ पुनः ।
हेमकूटं ततो वर्ष ददौ किंपुरुषाय तु॥ २९॥
तृतीयं नैषधं वर्ष हरये दत्तवान् पिता।
इलावृताय प्रददीौ मेरुमध्यमिलावृतम्॥ ३०॥
नीलाचलाश्रितं वर्ष रम्याय प्रददौ पिता।
श्वेतं यदुत्तरं वर्ष पित्रा दत्त हिरण्वते॥ ३१॥
यदुत्तरं श्रुद्रवतो वर्ष तत् कुरुवे ददौ।
मेरो: पूर्वेण यद् वर्ष भद्राशएवाय न््यवेदयत्।
गन्धमादनवर्ष तु केतुमालाय दत्तवान्॥ ३२॥
वर्षष्वेतेषु तान् पुत्रानभिषिच्य नराधिपः।
संसारकष्टतां ज्ञात्वा तपस्तेपे वनं गत:॥ ३३॥
हिमाह्यं तु यस्यैतन्नाभेरासीन्महात्मन: ।
तस्थर्षभो5भवत् _ पुत्रो मरुदेव्यां महाद्युति:॥ ३४॥
ऋषभाद भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रज:।
सो5भिषिच्यर्षभ: पुत्र॑ भरतं पृथिवीपति:।
वानप्रस्थाश्रमं गत्वा तपस्तेपे यथाविधि॥ ३५॥
तपसा कर्षितोउत्यर्थ कुशो धमनिसंततः।
ज्ञानयोगरतो भूत्वा महापाशुपतो5भवत्॥ ३६॥
सुमतिर्भरतस्याभूत् पुत्र: परमधार्मिक: ।
सुमतेस्तैजसस्तस्मादिन्द्रद्मुममो) व्यजायत॥ ३७॥
परमेष्ठी सुतस्तस्मात् प्रतीहारस्तदन्वय: ।
प्रतिहर्तेति विख्यात उत्पन्नस्तस्य चात्मज:॥ ३८ ॥
भवस्तस्मादथोद्गीथ: प्रस्तावस्तत्सुतो5भवत्।
पृथुस्ततस्ततो रक्तो रक्तस्यापि गयः सुतः॥ ३९॥
नरो गयस्य तनयस्तस्य पुत्रो विराडभूत्।
तस्य पुत्रो महावीयों धीमांस्तस्मादजायत॥ ४०॥।
महान्तो5पि ततश्चाभूद भौवनस्तत्सुतो5 भवत्।
त्वष्टा त्वष्टश्न विरजो रजस्तस्याप्यभूत् सुत: ॥ ४१॥
* कूर्मपुराण *
(अग्नीध्रने) नाभिको दक्षिण दिशामें स्थित हिम
नामक वर्ष प्रदान किया। तदनन्तर किंपुरुषको हेमकूट
नामक वर्ष दिया। पिता (अग्नीश्र)-ने हरिको तृतीय
नैषध नामक वर्ष प्रदान किया और इलावृतको मेरुके
मध्यमें स्थित इलावृत (नामक वर्ष) दिया। पिताने रम्यको
नीलाचलयुक्त वर्ष प्रदान किया और जो उत्तरमें स्थित
श्वेतवर्ष है, उसे हिरण्वान्को दिया। श्रृंगवान् पर्वतके उत्तरमें
स्थित (उत्तरकुरु नामक) वर्ष कुरुको दिया और मेरुके पूर्वमें
स्थित (भद्राश्व नामक) वर्ष भद्राश्वको दिया तथा गन्धमादन
नामक वर्ष केतुमालको प्रदान किया॥ २९--३२॥
इन वर्षोमें अपने पुत्रोंकी अभिषिक्त कर राजा (अग्रीध्र)
संसारके कष्टको जानकर तपस्या करनेके लिये वनमें
चले गये। जिन महात्मा नाभिके पास हिम नामक वर्ष
था, उन्हें मरुदेवीसे महान् द्युतिमान् ऋषभ नामक पुत्र
हुआ | ऋषभको सौ पुत्रोंमें सबसे ज्येष्ठ भरत नामक वीर
पुत्र उत्पन्न हुआ। भरत नामक पुत्रको पृथ्वीके अधिपतिके
रूपमें अभिषिक्त कर राजा ऋषभ वानप्रस्थाश्रमका आश्रय
लेकर यथाविधि तप करने लगे। तपस्यासे अत्यन्त क्षीण
होनेके कारण वे इतने कृश हो गये कि उनके शरीरकौ
नाड़ियाँ दीखती थीं। (तप:पूत वे) ज्ञानयोगपरायण होकर
महापाशुपत* हो गये॥ ३३--३६ ॥
(उन) भरतको भी सुमति नामक परम धार्मिक पुत्र
हुआ | सुमतिका पुत्र तेजस और उस (तैजस)-से इन्द्रब्य॒प्
उत्पन्न हुआ। उस इन्द्रद्युम्नका पुत्र परमेष्ठी हुआ और उस
(परमेष्ठी )-का पुत्र प्रतीहार हुआ। उस प्रतीहारका जो
पुत्र उत्पन्न हुआ, वह प्रतिहतकि नामसे विख्यात हुआ।
उससे भव, भवसे उद्गीथ तथा उस (उद्गीथ) -से प्रस्ताव
नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। उस (प्रस्ताव)-से पृथु एवं
पृथुसे रक्त उत्पन्न हुआ और रक्तको भी गय नामक पुत्र
हुआ। गयका पुत्र नर और उसका पुत्र विराट हुआ। उस
(विराट)-का पुत्र महावीर्य और उससे धीमान् (नामक
पुत्र) उत्पन्न हुआ॥ ३७--४० ॥
उस (धीमान्)-से महान्त नामक पुत्र हुआ और
उसका पुत्र भौवन हुआ। उस (भौवन)-का त्वष्ट
हुआ। उस (त्वष्टा)-से विरज तथा विरजसे रज नामक
पुत्र उत्पन्न हुआ॥ ४१॥
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* पाशुपत (पशुपति--महादेवको परम ध्येय माननेवाला) ब्रत है। इसमें पूर्ण परिनिष्ठित परम विरक्त मनुष्य महापाशुपत कहा
जाता है।
* अध्याय ३९ *क
शतजिद् रजसस्तस्य जज्ञे पुत्रशतं द्विजा:।
२१५७
द्विजो! उस रजसूको शतजित् नामक पुत्र हुआ
तेषां प्रधानो बलवान् विश्वज्योतिरिति स्मृत:॥। ४२॥ | और उसके सौ पुत्र हुए। उनमें जो प्रधान और बलवान्
आरशाध्य देवं ब्रह्माणं क्षेमकं नाम पार्थिवम्।
था, वह विश्वज्योति नामसे प्रसिद्ध हुआ। देव ब्रह्माकी
आराधना कर (विश्वज्योतिने) क्षेमक नामके महाबाहु
और शकत्नुमर्दन तथा धर्मज्ञ राजाको पुत्ररूपमें उत्पन्न
असूत पुत्र धर्मज्ञं महाबाहुमरिंदमम्॥ ४३ ॥ | किया॥ ४२-४३ ॥
एते पुरस्ताद राजानो महासत्त्वा महौजस: ।
एषां वंशप्रसूतेश्च भुक्तेयं पृथिवी पुरा॥४४॥
पूर्वकालमें ये महासत्त्वसम्पन्न और महान् ओजस्वी
राजा थे। इनके वंशमें उत्पन्न लोगोंने प्राचीन कालमें इस
पृथ्वीका उपभोग किया॥ ४४॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षपद्साहरत्रधां संहितायां पूर्वव्भागे अट्टात्रिशोउध्याय: ॥ ३८ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें अड़तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३८॥
उनतालीसवा अध्याय
'भू' आदि सात लोकोंका वर्णन, ग्रह-नक्षत्रोंकी स्थितिका वर्णन तथा उनका
परिमाप, सूर्यरथका वर्णन, पूर्व आदि दिशाओंमें स्थित इन्द्रादि देवोंकी
अमरावती आदि पुरियोंका नाम-निर्देश, सूर्यकी महिमा
सूत उवाच
अतः परं प्रवक्ष्यामि संक्षेपेण द्विजोत्तमा:।
त्रैलोक्यस्यास्य मानं वो न शकक्यं विस्तरेण तु॥ १॥
भूलोको5थ भुवर्लोक:ः स्वर्लोको5थ महस्तत: ।
जनस्तपश्च सत्यं च लोकास्त्वण्डोद्धवा मता:॥ २॥
सूर्याचन्द्रमसोर्यावत्ू. किरणैरवभासते।
ताबद् भूलोक आख्यात: पुराणे द्विजपुंगवा: ॥ ३ ॥
यावत्प्रमाणो भूलोंको विस्तरात् परिमण्डलात्।
भुवर्लोको5पि तावान् स्यान्मण्डलाद भास्करस्य तु॥ ४॥
ऊर्ध्वयन्मण्डलाद् व्योम ध्रुवो यावद् व्यवस्थित: ।
स्वर्लोक: स समाख्यातस्तत्र वायोस्तु नेमय: ॥ ५॥
आवह: प्रवहश्चैब तथेवानुवह: परः।
संवहो विवहश्चाथ तदूर्ध्व स्थात् परावहः॥ ६॥
तथा परिवहश्नोर्ध्व॑ वायोबें सप्त नेमय:।
भूमेयोंजनलक्षे तु भानोर्वें मण्डल स्थितम्॥ ७॥
सूतजीने कहा--हे द्विजोत्तमो! अब मैं आप
लोगोंसे संक्षेपमें इस त्रैलोक्यके परिमाणका वर्णन
करूँगा, क्योंकि इसका विस्तारसे वर्णन नहीं किया जा
सकता। (सृष्टिके आदिमें) भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक,
महलोंक, जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक--ये
(सातों) लोक अण्डसे उत्पन्न बताये गये हैं॥१-२॥
द्विजश्रेष्ठो ! सूर्य और चन्द्रमाकी किरणोंसे जहाँतकका
भाग प्रकाशित होता है, उतने भागको पुराणमें भूलोक
कहा गया है। सूर्यके परिमण्डलसे भूलोकका जितना
परिमाण है, उतना ही विस्तार भुवर्लोकका भी सूर्यके
मण्डलसे है। आकाशमें ऊपरकी ओर जहाँ ध्रुव (तारा)
स्थित है, वहाँतकके मण्डलको स्वलोक कहा जाता है।
वहाँ वायुकी नेमियाँ* हैं। आवह, प्रवह, अनुवह, संवह,
विवह तथा उसके ऊपर परावह और उसके ऊपर
परिवह नामक वायुकी सात नेमियाँ हैं। भूमिसे एक
लाख योजन ऊपर सूर्यका मण्डल स्थित है॥ ३--७॥
* चक्र (रथके पहिया)-के ऊपर लोहेकी गोलाकार हाल (परिधि) लगी होती है, इसीके कारण चक्र बिखरता नहीं है। इसी
गोलाकार हाल (परिधि)-को नेमि कहते हैं।
२१६
* कूर्मपुराण *
लक्षे दिवाकरस्यापि मण्डलं शशिनः स्मृतम्।
नक्षत्रमण्डलं कृत्स्नं तल्लक्षेण प्रकाशते॥ ८ ॥
द्वे लक्षे ह्युत्ते विप्रा बुधो नक्षत्रमण्डलात्।
तावत्प्रमाणभागे तु बुधस्याप्युशना स्थित:॥ ९ ॥
अड्भारको5पि शुक्रस्य तत्प्रमाणो व्यवस्थित: ।
लक्षद्वयेन भौमस्य स्थितो देवपुरोहित:ः॥ १०॥
सौरिद्विलक्षेण गुरोग्रहाणामथ मण्डलम्।
सप्तर्षिमण्डलं तस्माल्लक्षमात्रे प्रकाशते॥ ११॥
ऋषीणां मण्डलादूर्ध्व लक्षमात्रे स्थितो ध्रुव: ।
मेढीभूत: समस्तस्य ज्योतिश्चक्रस्य वै ध्रुव: ।
तत्र धर्म: स भगवान् विष्णुर्नारायण: स्थित: ॥ १२॥।
नवयोजनसाहस्त्रो विष्कम्भ: सवितुः स्मृतः ।
त्रिगुणस्तस्य विस्तारो मण्डलस्य प्रमाणत: ॥ १३॥
द्विगुणस्तस्य विस्ताराद् विस्तार: शशिनः स्मृतः।
तुल्यस्तयोस्तु स्वर्भानुरभूत्वा$धस्तात् प्रसर्पति॥ १४॥
उद्धृत्य पृथिवीच्छायां निर्मितो मण्डलाकृति: ।
स्वर्भानोस्तु बहत् स्थान तृतीय यत् तमोमयम्॥ १५॥
चन्द्रस्य घोडशो भागो भार्गवस्य विधीयते।
भार्गवात् पादहीनस्तु विज्ञेयो वै बृहस्पति: ॥ १६॥
बृहस्पते: पादहीनो वक्रसौरावुभौ स्मृतो।
विस्तारान्मण्डलाच्चैव पादहीनस्तयोर्बुध: ॥ १७॥
तारानक्षत्ररूपाणि वपुष्मन्तीह यानि वे।
बुधेन तानि तुल्यानि विस्तारान्मण्डलातू तथा।॥ १८ ॥
तारानक्षत्ररूपाणि हीनानि तु परस्परात्।
शतानि पशञ्ञ चत्वारि त्रीणि द्वे चैव योजने॥ १९॥
सर्वावरनिकृष्टानि तारकामण्डलानि तु।
योजनान्यर्धमात्राणि तेभ्यो हस्वं न विद्यते॥ २० ॥
उपरिष्टात् त्रयस्तेषां ग्रहा ये दूरसर्पिण:।
सौरोउड्विराश्व वक़श्व ज्ेया मन्दविचारिण:॥ २१॥
तेभ्यो5धस्ताच्च चत्वार: पुनरन्ये महाग्रहा: ।
सूर्य: सोमो बुधश्चैब भार्गवश्चैव शीघ्रगा: ॥ २२॥
सूर्यसे भी एक लाख (योजन) ऊपरके भागमें चन्रमाका
मण्डल कहा गया है। उससे एक लाख योजनपर स्थित
सम्पूर्ण नक्षत्र-मण्डल प्रकाशित होता है॥ ८॥
हे विप्रो! नक्षत्रमण्डलसे उत्तर दो लाख योजनको
दूरीपर बुध है। बुधसे उतने प्रमाणकी दूरीपर शुक्र
स्थित है। शुक्रसे उतने ही प्रमाणपर मंगलकी स्थिति है।
मंगलसे दो लाख योजनकी दूरीपर देवताओंके पुरोहित
बृहस्पति स्थित हैं। बृहस्पतिसे दो लाख योजन दूर
सूर्यपुत्र शनैश्चर स्थित है। यह ग्रहोंका मण्डल है।
ग्रहोंके उस मण्डलसे लाख योजनकी दूरीपर सप्त्ि-
मण्डल प्रकाशित होता है। ऋषियोंके मण्डल (सप्त्ि-
मण्डल) -से एक लाख योजन ऊपर ध्रुव स्थित है। धुव
सम्पूर्ण ज्योतिश्रक्रका केन्द्र-रूप है। वहाँ धर्मरूप
नारायण भगवान् विष्णु स्थित हैं ॥ ९--१२॥
सूर्यका व्यास नौ हजार योजन कहा गया है। उसका
तीन गुना सूर्यमण्डलका विस्तार है। सूर्यके विस्तारका
दो गुना चन्द्रमाका विस्तार कहा गया है। उन दोनोंके
तुल्य राहु उन दोनोंके नीचे भ्रमण करता है। पृथ्वीको
छायाको लेकर मण्डलाकारनिर्मित राहुका जो तीसरा
बृहत् स्थान है, वह तमोमय है। चन्द्रमाका सोलहवाँ
भाग शुक्रका है। शुक्रसे चतुर्थांश कम बृहस्पति (-का
विस्तार) जानना चाहिये। बृहस्पतिसे चतुर्थाश कम
मंगल एवं शनि--इन दोनोंका मण्डल कहा गया है। इन
दोनोंके मण्डल तथा विस्तारसे चतुर्थांश कम बुधका
मण्डल है। तारा और नक्षत्ररूपी* जो शरीरधारी हैं, वे
सभी मण्डल एवं विस्तारसे बुधके तुल्य हैं॥ १३--१८॥
जो तारा एवं नक्षत्र-रूप हैं, वे एक-दूसरेसे पाँच,
चार, तीन या दो सौ योजन कम विस्तारवाले हैं। सभी
छोटे-बड़े ताराओंका मण्डल (ग्रह-पिण्डोंसे छोटे और
एक) योजन या आधे योजन परिमाणवाले हैं, उनसे
छोटा कोई विद्यमान नहीं है। उनसे ऊपर दूरगामी जो
शनि, बृहस्पति तथा मंगल हैं, उन्हें मन्दगतिसे विचरण
करनेवाला समझना चाहिये। उनसे नीचे जो दूसरे सूर्य,
चन्द्रमा, बुध तथा शुक्र--चार महाग्रह हैं, ये शीघ्र
गतिवाले हैं॥ १९--२२॥
* ज्योतिषमें अश्विनी आदि २७ अथवा 'अभिजत्! नामके नक्षत्रको लेकर २८ नक्षत्र प्रसिद्ध हैं--ये ही आकाशमें नक्षत्र नामसे
विद्यमान हैं। इनके अतिरिक्त आकाशमें अगणित ज्योतिष्पिण्ड हैं, वे ही 'तारा' कहे जाते हैं।
* अध्याय ३९ +*+
दक्षिणायनमार्गस्थो यदा चरति रश्मिमान्।
तदा सर्वग्रहाणां स सूर्यो5धस्तात् प्रसर्पति ॥ २३॥
विस्तीर्ण मण्डल कृत्वा तस्योर्ध्व चरते शशी ।
नक्षत्रमण्डलं कृत्स्नं सोमादूर्ध्व प्रसर्पति॥ २४॥
नक्षत्रेभ्यो बुधश्रोर्ध्व॑ बुधादूर्ध्व तु भार्गव: ।
वक्रस्तु भार्गवादूर्ध्व वक्रादूर्ध्ध बृहस्पति: ॥ २५॥
तस्माच्छनैश्वरोउप्यूध्व तस्मात् सप्तर्षिमण्डलम् ।
ऋषीणां चैव सप्तानां ध्रुवश्चोर्ध्व व्यवस्थित: ॥ २६॥
योजनानां सहस्त्राणि भास्करस्य रथो नव।
ईषादण्डस्तथेव स्याद् द्विगुणो द्विजसत्तमा: ॥ २७॥
सार्थकोटिस्तथा सप्त नियुतान्यधिकानि तु।
योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्र प्रतिष्ठितम्॥ २८ ॥
त्रिनाभिमति पद्ञारे षण्णेमिन्यक्षयात्मके।
संवत्सरमये कृत्स्नं कालचक्रं प्रतिष्ठितम्॥ २९ ॥
चत्वारिंशत् सहस््राणि द्वितीयो5क्षो विवस्वतः।
पश्चान्यानि तु सार्धानि स्यन्दनस्य द्विजोत्तमा: ॥ ३०॥
अक्षप्रमाणमुभयो: प्रमाणं तद् युगार्धयो: ।
हस्वो5क्षस्तदुगार्धन श्रुवाधारे रथस्य तु॥३९१॥
द्वितीये5क्षे तु तच्चक्र'ं संस्थितं मानसाचले।
हयाश्र सप्त छन्दांसि तन्नामानि निबोधत॥ ३२॥
गायत्री च बृहत्युष्णिक् जगती षड्मक्तरेव च।
अनुष्ठप् त्रिष्ट॒बित्युक्ताश्छन्दांसि हरयो हरे: ॥ ३३॥
मानसोपरि माहेन्द्री प्राच्यां दिशि महापुरी।
दक्षिणेन यमस्याथ वरुणस्य तु पश्चिमे॥ ३४॥
उत्तेण तु सोमस्य तन्नामानि निबोधत।
अमरावती संयमनी सुखा चैव विभा क्रमात्॥ ३५॥
काष्टां गतो दक्षिणतः श्षिप्तेषुरिव सर्पति।
ज्योतिषां चक्रमादाय देवदेव: प्रजापति: ॥ ३६॥
२९२७
जब सूर्य दक्षिणायनके मार्गमें विचरण करता है,
तब वह (सूर्य) सभी ग्रहोंके निम्र भागोंमें भ्रमण करता
है। उसके ऊपर विस्तृत मण्डल बनाकर चन्द्रमा
विचरण करता है। सम्पूर्ण नक्षत्र-मण्डल चन्द्रमासे ऊपर
भ्रमण करता है॥ २३-२४॥
नक्षत्रोंसे ऊपर बुध, बुधसे ऊपर शुक्र, शुक्रसे ऊपर
मंगल और मंगलसे ऊपर बृहस्पति है। उस बृहस्पतिसे
भी ऊपर शनैश्वर, उससे ऊपर सप्तर्षि-मण्डल तथा
सप्तर्षि-मण्डलके ऊपर ध्रुव स्थित है॥ २५-२६॥
हे श्रेष्ठ द्विजो! भास्करका रथ नौ हजार योजनका
है। उसका ईषादण्ड' उसी प्रकार दो गुना (अर्थात्
अठारह हजार योजनका) है। उसका धुरा डेढ़ करोड़
सत्तर लाख योजनका है और उसीमें चक्र (रथका
पहिया) प्रतिष्ठित है। तीन नाभि, पाँच अरे" और छ:
नेमियोंवाले संवत्सरमय उस अक्षय चक्रमें यह सम्पूर्ण
कालचक्र प्रतिष्ठित है। द्विजोत्तमो! सूर्यके रथका दूसरा
अक्ष (चक्र या धुरा) चालीस तथा साढ़े पाँच हजार
योजनका है॥ २७--३०॥
दोनों ओरके युगार्ध (जूआ)-का प्रमाण उस अक्ष
(धुरे)-के परिमाणके बराबर है। धुरेके आधारमें स्थित
हस्व अक्ष उस युगार्ध (जूआ)-के बराबर है। द्वितीय
अक्षमें स्थित उस (रथ)-का चक्र मानसाचलपर स्थित
है। सात छन्द (उस रथके) अश्व हैं। उनके नाम
सुनो--॥ ३१-३२ ॥
गायत्री, बृहती, उष्णिकू, जगती, पंक्ति, अनुष्टप् तथा
त्रिष्टपु--ये (सात) छन््द सूर्यके (सात) अश्व कहे गये
हैं। मानसाचलपर पूर्व दिशामें महेन्द्रकी महापुरी है।
दक्षिणमें यमकी, पश्चिममें वरुणकी, उत्तरमें सोमकी
नगरी है, उनके (भी)नाम सुनो--अमरावती, संयमनी,
सुखा तथा विभा--ये क्रमसे इन्द्रादिकी महापुरियाँ हैं।
दक्षिण दिशामें स्थित देवोंके भी देव प्रजापति (सूर्य)
ज्योतिश्रक्रको ग्रहणकर प्रक्षित बाणके समान भ्रमण
करते हैं॥ ३३--३६॥
१-ईषादण्ड--यह रथका अवयव-विशेष है। यह अवयव-विशेष उन दो लम्बे दण्डोंको समझना चाहिये जो रथके आगे होते
हैं। इन्होंके मध्य एक या अपेक्षानुसार एकसे अधिक अश्व जोड़े जाते हैं।
२-नाभि--रथके चक्रके बीचका भाग, जिसमें चारों ओरसे कारष्ठ जुड़े रहते हैं।
३-नाभिके चारों ओर जो काष्ठ जुड़े रहते हैं, वे ही 'अर' या 'आर' कहे जाते हैं।
४-नेमि--रथके चक्रके ऊपरवाली लोहेकी परिधि (हाल)
२९१८
दिवसस्य रविर्मध्ये सर्वकालं व्यवस्थित: ।
सह्तद्वीपेषु विप्रेन्द्रा निशामध्यस्य सम्मुखम्॥ ३७॥
उदयास्तमने चैव सर्वकालं तु सम्मुखे।
अशेषासु दिशास्वेव तथेव विदिशासु च॥ ३८ ॥
कुलालचक्रपर्यन्तोी भ्रमन्नेष यथेश्वरः ।
करोत्यहस्तथा रात्रि विमुझ्जन् मेदिनीं द्विजा: ॥ ३९॥
दिवाकरकरैरेतत्_ पूरितं भुवनत्रयम्।
त्रैलोक्यं कथितं सद्धिलोंकानां मुनिपुंगवा: ॥ ४०॥
आदित्यमूलमखिलं त्रिलोकं नात्र संशय: ।
भवत्यस्मात् जगत् कृत्स्नं सदेवासुरमानुषम्॥ ४१॥
रुद्रेन्द्रोपेन्द्रचन्द्राणां विप्रेन्द्राणां दिवोकसाम्।
झुतिद्यतिमतां कृत्स्न॑ यत्तेज: सार्वलौीकिकम्॥ ४२॥
सर्वात्मा सर्वलोकेशो महादेवः प्रजापति: ।
सूर्य एव त्रिलोकस्य मूल परमदेवतम्॥ ४३॥
द्वादशान्ये तथादित्या देवास्ते येडधिकारिण: ।
निर्वहन्ति पदं तस्य तदंशा विष्णुमूर्तय:॥ ४४॥
सर्वे नमस्यन्ति सहस््रभानुं
गन्धर्वदेवोरगकिन्नराद्या: ।
यजन्ति यज्लैविविथेद्विजेन्द्रा-
श्छन्दोमयं ब्रह्ममयं पुराणम्॥ ४५॥
ह कूर्मपुराण कं
विप्रेन्द्रों! सात द्वीपोंमें दिनके मध्य एवं रात्रिके
अर्धभागमें सूर्य सदा सम्मुख रहता है, उदय और
अस्तके समय भी सदा सम्मुख रहता है। ये ईश्वर
(सूर्य) कुम्हारके चक्रके समान सभी दिशाओं तथा
विदिशाओंमें भ्रमण करते हैं। हे द्विजो! पृथ्वीका
त्याग करते हुए ये दिन और रात्रिका निर्माण करते हैं।
ये तीनों भुवन सूर्यकी किरणोंसे व्याप्त हैं। हे मुनिश्रेष्ठो!
विद्वानोंने (समस्त) लोकोंको त्रैलोक्यके नामसे कहा
है ॥ ३५७--४० ॥
सम्पूर्ण त्रिलोकीके मूल सूर्य ही हैं, इसमें संशय
नहीं। देवता, असुर तथा मनुष्योंसे युक्त सम्पूर्ण जगत्
इन्हींसे उत्पन्न होता है। रुद्र, इन्द्र, उपेन्द्र, चन्द्रमा एवं
श्रेष्ठ विप्रों तथा समस्त देवताओंका जो तेज है,
झुतिमानोंका जो प्रकाश है और समस्त लोकोंका जो
सम्पूर्ण तेज है, (वह सूर्यका ही तेज है) | सूर्य ही सभी
लोकोंके स्वामी, सर्वात्मा, प्रजापति, महान् देव, तीनों
लोकोंके मूल और परम देवता हैं। इसी प्रकार
अधिकारी-रूपमें जो अन्य बारह आदित्य देवता हैं, वे
उन्हीं सूर्यके अंश हैं और विष्णुके मूर्तिरूप हैं। वे
उन्हींके पद (कार्य)-को सम्पन्न करते हैं॥४१--४४॥
गन्धर्व, देवता, नाग तथा किन्नर आदि सभी हजाएं
किरणोंवाले सूर्यको नमस्कार करते हैं। श्रेष्ठ द्विज
विविध यज्ञोंके द्वारा छन््दोमय एवं ब्रह्मस्वरूप पुरातन
सूर्यदेवका यजन करते हैं॥४५॥
ड़ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्रयां संहितायां पूर्विविधागे एकोनचत्वारिशोउथ्याय: ॥ ३९ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें उनतालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३९॥
* अध्याय ४० *
२१९
चालीसवाँ अध्याय
सूर्य-रथ तथा द्वादश आदित्योंके नाम, सूर्य-रथके अधिष्ठटातृ देवता
आदिका वर्णन, सूर्यकी महिमा
सूत उवाच
स रथो<5थिष्ठितो देवैरादित्यैर्वसुभिस्तथा।
गन्धवैरप्सरोभिश्च॒ ग्रामणीसर्पराक्षसै:॥ १ ॥
धातार्यमाथ मित्रश्च वरुण: शक्र एव च।
विवस्वानथ पूषा च पर्जन्यश्लांशुरेव च॥ २ ॥
भगस्त्वष्टा च विष्णुश्न द्वादशैते दिवाकरा: ।
आप्याययन्ति वे भानुं वसन्तादिषु वै क्रमात्॥ ३ ॥
पुलस्त्य: पुलहश्चात्रिर्वसिष्ठश्चाड्रिरा भृगुः।
भरद्वाजो गौतमश्च कश्यप: क्रतुरेव च॥ ४॥
जमदग्नमि: कौशिकश्न मुनयो ब्रह्मवादिनः।
स्तुवन्ति देव॑ विविधेश्छन्दोभिस्ते यथाक्रमम्॥ ५ ॥
रथकृच्च रथौजाश्न रथचित्र: सुबाहुकः |
रथस्वनो5थ वरुण: सुषेण: सेनजित् तथा॥ ६ ॥
तार्ष्यश्षारिष्टनेमिश्व रथजित् सत्यजित् तथा।
ग्रामण्यो देवदेवस्य कुर्वते5भीशुसंग्रहम्॥ ७ ॥
अथ हेति: प्रहेतिश्न पौरुषेयो वधस्तथा।
सर्पो व्याप्रस्तथापश्च वातो विद्युदू दिवाकर: ॥ ८ ॥
ब्रह्मोपेतश्चव विप्रेन्द्रा यज्ञोपेतस्तथेव च।
राक्षसप्रवरा होते प्रयान्ति पुरतः क्रमात्॥ ९ ॥
वासुकिः कड्डूनीरश्च तक्षकः सर्पपुंगव:।
एलापत्र:._ शद्भुपालस्तथेरावतसंज्ञित:॥ १०॥
धनंजयो महापद्ास्तथा कर्कोटको द्विजा:।
कम्बलाश्वतरश्चेव वहन्त्येनं यथाक्रमम्॥ ११॥
तुम्बुरुनारदोी हाहा हूहूविश्वावसुस्तथा।
उग्रसेनो वसुरुचिरवावसुरथापरः ॥ १२॥
चित्रसेनस्तथोर्णायुर्ध॑तराष्ट्री. द्विजोत्तमा:।
सूर्यवर्चा द्वादशैते गन्धर्वा गायतां वबराः।
गायन्ति विविधेगनिर्भानुं पदजादिभि: क्रमात्॥ १३॥
क्रतुस्थलाप्सरोवर्या तथान्या पुज्जिकस्थला।
मेनका सहजन्या च प्रम्लोचा च द्विजोत्तमा: ॥ १४॥
* अग्रणी (नेता)।
सूतजीने कहा--वे (सूर्यदेव)/ (सभी) देवों,
(द्वादश) आदित्यों, (अष्ट) वसुओं, गन्धर्वों, अप्सराओं,
ग्रामणी*, सर्पों तथा राक्षसरोंसहित उस रथपर अधिष्ठित
रहते हैं। धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, इन्द्र, विवस्वान्,
पूषा, पर्जन्य, अंशु, भग, त्वष्टा तथा विष्णु--ये बारह
आदित्य हैं। ये क्रमश: वसन्त आदि ऋतुओंमें भानुको
आप्यायित करते हैं। पुलस्त्य, पुलह, अत्रि, वसिष्ठ,
अंगिरा, भुगु, भरद्वाज, गौतम, कश्यप, क्रतु, जमदग्रि
तथा कौशिक--ये ब्रह्मवादी मुनि अनेक प्रकारके छन््दों
(वैदिक मन्त्रों)-के द्वारा क्रमश: सूर्यदेवकी स्तुति
करते हैं॥ १--५॥
रथकृत्, रथौजा, रथचित्र, सुबाहुक, रथस्वन, वरुण,
सुषेण, सेनजित्ू, ताक्ष्य, अरिष्टनेमि, रथजित् और
सत्यजितू--ये (बारह) ग्रामणी देवोंके देव सूर्यकी
रश्मियोंका संग्रह करते हैं। हे विप्रेन्द्रो! हेति, प्रहेति,
पौरुषेय, वध, सर्प, व्याप्र, आप, वात, विद्युतू, दिवाकर,
ब्रह्मोपेत और यज्ञोपेत--ये (बारह) श्रेष्ठ राक्षस क्रमसे
सूर्यके आगे-आगे चलते हैं। हे द्विजो! वासुकि,
कड्डूनीर, तक्षक, सर्पपुड्रव, एलापत्र, शंखपाल,
ऐरावत, धनंजय, महापद्म, कर्कोटक, कम्बल तथा
अश्वतर--ये (बारह) नाग क्रमश: इन सूर्यदेवको वहन
करते हैं॥६--११॥
द्विजोत्तमो! तुम्बुरु, नारद, हाहा, हूहू, विश्वावसु,
उग्रसेन, वसुरुचि, अर्वावसु, चित्रसेन, उर्णायु,
धृतराष्ट्र और सूर्यवर्चा-ये (बारह) श्रेष्ठ गायन
करनेवाले गन्धर्व क्रमश: षड्ज आदि स्वरोंके द्वारा
विविध प्रकारके गीतोंसे सूर्यके समीप गान करते
रहते हैं। हे द्विजोत्तमो! अप्सराओंमें श्रेष्ठ अप्सरा--
क्रतुस्थला, पुञझ्िक-स्थला, मेनका, सहजन्या, प्रम्लोचा,
२२०
अनुम्लोचा घृताची च विश्वाची चोर्वशी तथा।
अन्या च पूर्वचित्ति: स्थादन्या चैव तिलोत्तमा॥ १५॥
ताण्डवैर्विविधेरेन॑ वसन्तादिषु वे क्रमात्।
तोषयन्ति महादेव भानुमात्मानमव्ययम्॥ १६॥
एवं देवा वसतत्यके द्वौ द्वौ मासो क्रमेण तु।
सूर्यमाप्याययन्त्येते तेजसा तेजसां निधिम्॥ १७॥
ग्रथिते: स्वैर्वचोभिस्तु स्तुवन्ति मुनयो रविम्।
गन्धर्वाप्सरसश्चैनं नृत्यगेयरुपासते ॥ १८ ॥
ग्रामणीयक्षभूतानि कुर्वते3भीषुसंग्रहम्।
सर्पा वहन्ति देवेशं यातुधाना: प्रयान्ति च॥ १९॥
बालखिल्या नयन्त्यस्तं परिवार्योदयाद् रविम्।
एते तपन्ति वर्षन्ति भान्ति वान्ति सृजन्ति च।
भूतानामशुभं कर्म व्यपोहन्तीह कीर्तिता:॥ २०॥
एते सहैव सूर्येण भ्रमन्ति दिवि सानुगा:।
विमाने च स्थिता नित्यं कामगे वातरंहसि॥ २१॥
वर्षन्तश्न तपन्तश्चन ह्ादयन्तश्न वै प्रजा: ।
गोपयन्तीह भूतानि सर्वाणीहायुगक्षयात् ॥ २२॥
एतेषामेव देवानां यथावीर्य यथातप:।
यथायोगं यथासत्त्वं स एब तपति प्रभु:॥ २३॥
अहोरात्रव्यवस्थानकारणं स॒ प्रजापति: ।
पितृदेवमनुष्यादीन् स सदाप्याययेद् रवि: ॥ २४॥
तत्र देवो महादेवो भास्वान् साक्षान्महे श्वर: ।
भासते वेदविदुषां नीलग्रीव: सनातन:॥ २५७॥
स एप देवो भगवान् परमेष्ठी प्रजापति: ।
स्थान तद् विदुरादित्यं वेदज्ञा वेदविग्रहम्॥ २६॥
्ः कूर्मपुराण ः
अनुम्लोचा, घृताची, विश्वाची, उर्वशी, पूर्वचित्ति, अन्या
और तिलोत्तमा--ये (बारह) अप्सराएँ क्रमश: वसन्त
आदि ऋतुओंमें विविध ताण्डव आदि (नृत्यों)-के द्वारा
इन अव्यय, आत्मस्वरूप महान् देवता भानुको संटृष्ट
करती हैं॥ १२--१६॥
इस प्रकार ये देवता क्रमश: दो-दो महोनोंमें
(वसन्त आदि ६ ऋतुओंमें) सूर्यमें प्रतिष्ठित रहते हुए
तेजोनिधि सूर्यको अपने तेजसे आप्यायित करते हैं।
मुनिगण स्वयंरचित स्तुतियोंसे सूर्यकी स्तुति करते रहते
हैं और अप्सराएँ एवं गन्धर्व नृत्य तथा गीतोंके द्वारा
इनकी उपासना करते हैं॥ १७-१८॥
ग्रामणी, यक्ष और भूतगण (सूर्यदेवसे) रश्मियोंका
संग्रह करते हैं, सर्प देवताओंके ईश (सूर्य )-को वहन
करते हैं और राक्षस (उनके आगे-आगे) चलते हैं।
बालखिल्य नामक मुनिगण सूर्यको आवृतकर उदयाचलसे
अस्ताचलतक ले जाते हैं। (पूर्वमें कहे गये) ये (द्वादश
आदित्य) तपते, बरसते, प्रकाश करते, बहते एवं
सृष्टि करते हैं। इनका कीर्तन करनेपर ये प्राणियोंके
अशुभ कर्मोको दूर करते हैं। ये नित्य कामचारी तथा
वायुके समान गतिवाले विमानपर सूर्यके साथ अपने
अनुचरोंसहित आकाशमें भ्रमण करते हैं। ये क्रमशः
वर्षा, ताप एवं प्रजाको आनन्द प्रदान करते हुए
प्रलयपर्यन्त सभी प्राणियोंकी रक्षा करते हैं। ये प्रभु
सूर्य इन्हीं देवोंके वीर्य, तप, योग और सत्त्वके अनुसार
(प्राणिमात्रको ) ताप देते हैं॥ १५९--२३॥
वे प्रजापति (सूर्य) दिन और रात्रिकी व्यवस्थाके
कारण हैं। ये सूर्य पितरों, देवों तथा मनुष्य आदि
सभीको सदा आप्यायित करते हैं। वेदज्ञोंक (आराध्य)
सनातन, नीलग्रीव, महादेव साक्षात् देव महादेव
महेश्वर ही सूर्यके रूपमें प्रकाशित होते हैं। वेदज्ञ लोग
आदित्य (सूर्य)-को वेदका विग्रह (शरीर ही) मानते
हैं और यही वेदविग्रह आदित्य, देव भगवान् परमेष्ठी
प्रजापति हैं॥ २४--२६ ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षदट्साहस्त्रधां संहितायां पूर्वाविभागे चत्वारिंशोउध्याय: ॥ ४० ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें चालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥४०॥
* अध्याय ४९१ *
२२१
एकतालीसवाँ अध्याय
सूर्यकी प्रधान सात रश्मियोंके नाम, इनके द्वारा ग्रहोंका आप्यायन, सूर्यकी अन्य हजारों
नाडियोंका वर्णन तथा उनका कार्य, बारह महीनोंके बारह सूर्योके नाम तथा छः:
ऋतुओंमें उनका वर्ण, आठ ग्रहोंका वर्णन, सोमके रथका वर्णन, देवोंद्वारा
चन्द्रकलाओंका पान करना, पितरोंद्वारा अमावस्याको चन्द्रमाकी
कलाका पान, बुध आदि ग्रहोंके रथका वर्णन
सृत उवाच
एवमेष महादेवो देवदेव:ः पितामहः।
करोति नियतं काल॑ कालात्मा हौश्वरी तनु: ॥ १ ॥
तस्य ये रश्मयो विप्रा: सर्वलोकप्रदीपका: ।
तेषां श्रेष्ठा: पुनः सप्त रश्मयो ग्रहयोनय:॥ २ ॥
सुषुम्नो हरिकेशश्व विश्वकर्मा तथेव च।
विश्वव्यचा: पुनश्चान्य: संयद्वसुरतः पर:॥ ३ ॥
अर्वावसुरिति ख्यात: स्वराडन्य: प्रकीर्तित: ।
सुषुम्र: सूर्यरश्मिस्तु पुष्णाति शिशिरद्युतिम्॥ ४ ॥
तिर्यगूर्ध्यप्रचारोइसौ सुषुम्न: परिपठ्ाते।
हरिकेशस्तु यः प्रोक्तो रश्मर्नक्षत्रपोषक:॥ ५ ॥
विश्वकर्मा तथा रश्मिर्बुधं पुष्णाति सर्वदा।
विश्वव्यचास्तु यो रश्मि: शुक्र पुष्णाति नित्यदा॥ ६ ॥
संयद्वसुरिति ख्यात: स पुष्णाति च लोहितम्
बृहस्पतिं प्रपुष्णाति रश्मिरवावसु: प्रभो:।
शनैश्वरं प्रपुष्णाति सप्तमस्तु सुराद तथा॥ ७ ॥
एवं सूर्यप्रभावेण सर्वा नक्षत्रतारका:।
वर्धन्ते वर्धिता नित्यं नित्यमाप्याययन्ति च॥ ८ ॥
दिव्यानां पार्थिवानां च नैशानां चैव सर्वश: ।
आदाना न्नित्यमादित्यस्तेजसां तमसां प्रभुः॥ ९ ॥
आदत्ते स तु नाडीनां सहस्रेण समंततः।
नादेयांश्चेव सामुद्रान् कृप्यांश्चेव सहसत्रदूक् ।
स्थावराज्जड्रमांश्चेव यच्च कुल्यादिकं पय: ॥ १०॥
तस्य रश्मिसहस्त्रं तच्छीतवर्षोष्णनिरत्रवम्।
तासां चतु:शतं नाड्यो वर्षन्ते चित्रमूर्तय:॥ ११॥
वन्दनाश्चेव याज्याश्व केतना भूतनास्तथा।
अमृता नाम ता: सर्वा रश्मयो वृष्टिसर्जना:॥ १२॥
सूतजी बोले--इस प्रकार ये महादेव कालात्मा
ऐश्वर्यमय विग्रहवाले देवाधिदेव पितामह (सूर्य) कालका
नियमन करते हैं। विप्रो! सभी लोकोंको प्रकाशित
करनेवाली उनकी जो रश्मियाँ हैं, उनमें भी ग्रहोंकी
योनिरूप सात रश्मियाँ अत्यन्त श्रेष्ठ हैं॥ १-२॥
सुषुम्र, हरिकेश, विश्वकर्मा, विश्वव्यचा, संयद्वसु,
अर्वावसु तथा स्वराड--ये सात रश्मियाँ कही गयी हैं।
सुषुम्र नामक सूर्यकी रश्मि चन्द्रमाकी चाँदनीको पुष्ट
करती है। यह सुषुम्र रश्मि तिरछे रूपसे ऊपरको जानेवाली
कही गयी है। हरिकेश नामक जो रश्मि कही गयी है,
वह नक्षत्रोंका पोषण करनेवाली है। विश्वकर्मा नामक
रश्मि सदा बुध (ग्रह)-का पोषण करती है। विश्वव्यचा
नामकी जो रश्मि है, वह नित्य शुक्र (ग्रह)-का पोषण
करती है। संयद्वसु नामसे प्रसिद्ध रश्मि मंगलका पोषण
करती है और प्रभु सूर्यकी अर्वावसु नामक रश्मि
बृहस्पतिका पोषण करती है तथा सातवीं सुराट् (स्वराड)
नामक रश्मि शनेश्ररा पोषण करती है॥ ३--७॥
इस प्रकार सूर्यके प्रभावसे सभी नक्षत्र एवं तारे
नित्य बढ़ते हैं तथा वृद्धि प्रात्कर नित्य दूसरोंको
आप्यायित करते हैं| चुलोक एवं पृथ्वीसे सम्बद्ध समस्त
तेज-समूह और निशा-सम्बन्धी तम--अन्धकारका नित्य
आदान अर्थात् ग्रहण करनेके कारण प्रभु (सूर्य)-को
आदित्य कहा जाता है। हजारों नेत्रवाले वे अपनी हजारों
नाडियों (किरणों)-द्वारा चारों ओरके नदियों, समुद्रों,
कूृपों, स्थावर तथा जड़म और नहरों आदिके जलका
ग्रहण करते हैं। उनकी हजारों रश्मियाँ शीत, वर्षा एवं
उष्णताकी सृष्टि करनेवाली हैं और उनमें चार सौ
विचित्र मूर्तिस्वरूपा रश्मियाँ वर्षा करती हैं बन्दना,
याज्या, केतना और भूतना--ये अमृता नामवाली सभी
रश्मियाँ वर्षा करनेवाली हैं ॥८--१२॥
२२२
हिमोद्वाहाश्व ता नाड्यो रश्मयस्त्रिशतं पुनः ।
रश्म्यो मेष्यश्व पौष्यश्व ह्ादिन्यो हिमसर्जना: ।
चअन्द्रास्ता नामतः सर्वा पीताभा: स्युर्गभस्तय: ॥ १३ ॥
शुक्राश्न ककुभश्चेव गावो विश्वभृतस्तथा |
शुक्रास्ता नामत: सर्वास्त्रिविधा घर्मसर्जना: ॥ १४॥
सम॑ बिभर्ति ताभि:ः स मनुष्यपितृदेवता:।
मनुष्यानौषधेनेह स्वधया च पितृनपि।
अमृतेन सुरान् सर्वास्क्रिभिस्त्रींस्तर्पयत्यसौ॥ १५॥
बसतन्ते ग्रैष्मिके चेव शते: स तपति त्रिभि:।
शरद्यपि च वर्षासु चतुर्भि: सम्प्रवर्षति।
हेमन्ते शिशिरे चैेव हिममुत्सूजति त्रिभि:॥ १६॥
वरुणो माघमासे तु सूर्य: पूषा तु फाल्गुने।
चैत्रे मासि भवेदंशों धाता वैशाखतापन: ॥ १७॥
ज्येप्ठामूले भवेदिन्द्र:ः आषाढे सविता रवि: ।
विवस्वान् श्रावणे मासि प्रौष्ठपद्मयां भग: स्मृत: ॥ १८ ॥
पर्जन्यो5 श्चयुजि त्वष्टा कार्तिक मासि भास्कर: ।
मार्गशीर्षे भवेन्मित्र: पौषे विष्णु: सनातन: ॥ १९॥
पञ्चरश्मिसहसत्राणि वरुणस्यार्ककर्मणि।
षदड्भिः सहस्त्रे: पूषा तु देवोंइश: सप्तभिस्तथा | २० ॥
धाताष्टभि: सहस्त्रैस्तु नवभिस्तु शतक्रतुः ।
विवस्वान् दशभि: पाति पात्येकादशभिर्भग: ॥ २१॥
सप्तभिस्तपते मित्रस्त्वष्टा चेवाष्टभिस्तपेत्।
अर्यमा दशभि:ः पाति पर्जन्यो नवभिस्तपेत्
षड़्भी रश्मिसहस्त्रैस्तु विष्णुस्तपति विश्वसृक्॥ २२॥
वसन्ते कपिल: सूर्यो ग्रीष्मे काज्ननसप्रभ: ।
एवेतो वर्षासु वर्णेन पाण्दुर: शरदि प्रभु: ।
हेमन्ते ताम्रवर्ण: स्याच्छिशिरे लोहितो रवि: ॥ २३॥
ओषधीषु बल॑ धत्ते स्वधामपि पितृष्वथ।
सूर्योडमरत्वममृते त्रयं त्रिषु नियच्छति॥ २४॥
* कूर्मपुराण *
नाडीस्वरूपिणी तीन सौ रश्मियाँ हिमकी सृष्टि करती
हैं। मेषी, पौषी तथा ह्ादिनी नामकी रश्मियाँ हिमकी सृष्टि
करनेवाली हैं। ये सभी रश्मियाँ पीत वर्णकी और चन्द्रा
नामवाली हैं। शुक्रा, ककुभ् और विश्वभृत् नामक सभी
रश्मियोंका नाम शुक्रा है। ये तीनों प्रकारकी रश्मियाँ
धूपकी सृष्टि करनेवाली हैं॥ १३-१४॥
उनके द्वारा वे (सूर्य) समान-रूपसे मनुष्यों, पितरों
तथा देवताओंका पोषण करते हैं। वे (इन किरणोंके
माध्यमसे ) मनुष्योंको औषधके द्वारा, पितरोंको स्वधाके
द्वारा और देवताओंको अमृतके द्वारा-इस प्रकार
तीनोंको तीन पदार्थोद्वारा संतृत्त करते हैं॥१५॥
वे (सूर्य) वसन्त एवं ग्रीष्म ऋतुमें तीन सौ किरणोंसे
तपते हैं। शरद् और वर्षा ऋतुमें चार सौ रश्यमियोंके द्वारा
वर्षा करते हैं तथा हेमनत एवं शिशिर ऋतुमें तीन सौ
रश्मियोंसे हिम प्रदान करते हैं। माघमासमें सूर्यका नाम
वरुण होता है, फाल्गुनमें वे पूषा कहलाते हैं। सूर्य चेत्र-
मासमें अंश, वैशाखमें धाता, ज्येष्ठा-मूल अर्थात् ज्येष्ठ-
मासमें इन्द्र, आषाढ़में सविता, श्रावणमें विवस्वान् तथा
भाद्रपदमासमें भग कहे जाते हैं। (ये ही) सूर्य आश्विनमें
पर्जन्य, कार्तिकमें त्वष्टा, मार्गशीर्षमें मित्र और पौषमें
सनातन विष्णु कहलाते हैं॥ १६--१९॥
वरुण (नामक सूर्य)-की पाँच हजार रश्मियाँ
सूर्यका कार्य सम्पादित करती हैं। इसी प्रकार पूषा छः
हजार, अंश देव सात हजार, धाता आठ हजार, शतक्रतु
इन्द्र नौ हजार, विवस्वान् दस हजार और भग ग्यारह
हजार रश्मियोंसे पालन करते हैं। मित्र नामक सूर्य सात
हजार और त्वष्टा आठ हजार रश्मियोंसे तपते हैं। अर्यमा
दस हजार रश्मियोंसे पालन करते हैं और पर्जन्य नौ
हजार रश्मियोंसे ताप प्रदान करते हैं। विश्वकी सृष्टि
करनेवाले विष्णु (नामक सूर्य) छ: हजार रश्मियोंसे
तपते हैं॥ २०--२२॥
प्रभु सूर्य वसन्त ऋतुमें कपिल (भूरे) वर्णके,
ग्रीष्ममें स्वर्णके समान, वर्षामें श्वेत, शरदमें पाण्डुर
(सफेद-मिश्रित पीले) रंगके, हेमन्तमें ताॉबेके समान
वर्णवाले और शिशिरमें सूर्य लोहित (लाल) वर्णके होते
हैं। सूर्य ओषधियोंमें बलका आधान करते हैं, पितरोंको
स्वधा और देवताओंको अमरत्व--इस प्रकार तीनोंको
तीन पदार्थ प्रदान करते हैं॥ २३-२४॥
* अध्याय ४२१ *
अन््ये चाष्टो ग्रहा ज्ञेया: सूर्यणाधिष्ठिता द्विजा: ।
चन्द्रमा: सोमपुत्रश्च शुक्रश्चैव बृहस्पति: ।
भौोमो मन्दस्तथा राहु: केतुमानपि चाष्टम: ॥ २५॥
सर्वे ध्रुवे निबद्धा वे ग्रहास्ते वातरश्मिभि: ।
भ्राम्यमाणा यथायोगं भ्रमन्त्यनुदिवाकरम्॥ २६॥
अलातचक्रवद् यान्ति वातचक्रेरिता द्विजा: ।
यस्माद् वहति तान् वायु: प्रवहस्तेन स स्मृत: ॥ २७॥
रथस्त्रिचक्र: सोमस्य कुन्दाभास्तस्य वाजिन: ।
वामदक्षिणतो युक्ता दश तेन निशाकर:॥ २८॥
वीथ्या श्रयाणि चरति नक्षत्राणि रविर्यथा।
हासवृद्धी च विप्रेन्द्रा धुवाधाराणि सर्वदा॥ २९॥
स सोम: शुक्लपक्षे तु भास्करे परत: स्थिते।
आपूर्यते परस्यान्तः सततं दिवसक्रमात्॥ ३०॥
क्षीणायितं सुरै:ः सोममाप्याययति नित्यदा।
एकेन रश्मिना विप्रा: सुषुम्नाख्येन भास्कर: ॥ ३१॥
एषा सूर्यस्य वीर्येण सोमस्याप्यायिता तनु: ।
पौर्णमास्यां स दृश्येत सम्पूर्णे दिवसक्रमात् ॥ ३२॥
सम्पूर्णमर्धभासेन त॑ सोमममृतात्मकम्।
पिबन्ति देवता विप्रा यतस्तेडमृतभोजना: ॥ ३३ ॥
ततः पञठ्चदशे भागे किंचिच्छिष्टे कलात्मके ।
अपराह्न पितृगणा जघन्यं पर्युपासते॥ ३४॥
पिबन्ति द्विकलं कालं॑ शिष्टा तस्य कला तु या।
सुधामृतमयी पुण्यां तामिन्दोरमृतात्मिकाम्॥ ३५॥
नि:सृतं तदमावास्यां गर्भस्तिभ्य: स्वधामृतम्
मासतृप्तिमवाप्याग्रद्यां पितर: सन्ति निर्वृता: ॥ ३६॥
न सोमस्य विनाश: स्यात् सुधा देवैस्तु पीयते।
एवं सूर्यनिमित्तस्य क्षयो वृद्धिश्व सत्तमा:॥ ३७॥
सोमपुत्रस्य चाष्टाभिवाजिभिर्वायुवेगिभि: ।
वारिजे: स्यन्दनो युक्तस्तेनासौ याति सर्वतः ॥ ३८॥
२२३
हे द्विजो! अन्य आठ ग्रहोंको सूर्यसे अधिष्ठित
जानना चाहिये। चन्द्रमा, चन्द्रमाका पुत्र बुध, शुक्र,
बृहस्पति, मंगल, शनि, राहु तथा केतु नामक आठवाँ
ग्रह है। वातरश्मियोंके द्वारा धुवमें आबद्ध वे सभी ग्रह
(अपनी कक्षामें) भ्रमण करते हुए यथास्थान सूर्यकी
परिक्रमा करते हैं। द्विजो! वायुचक्रसे प्रेरित (ग्रहगण)
अलातचक्रके समान भ्रमण करते हैं। चूँकि वायु उनका
वहन करती है, इसलिये उसे “प्रवह”' कहा जाता है।
सोमका रथ तीन चक्रोंवाला है। उसके वाम और दक्षिण
भागमें कुन्द पुष्पके समान वर्णवाले दस अश्व जुते हैं,
इसी रथसे निशाकर चन्द्रमा सूर्यके समान (अपनी)
कक्षामें स्थित होकर नक्षत्रोंके मध्य परिभ्रमण करता है।
हे विप्रेन्द्रों! चन्द्रमाकी रश्मियोंकी क्रमश: हास और
वृद्धि होती रहती है। दिनके क्रमानुसार शुक्लपक्षमें
चन्द्रमाके परभागमें स्थित सूर्य सोम (चन्द्र )-को निरन्तर
आपूरित करता है॥ २५--३० ॥
हे विप्रो! देवताओंद्वारा (अमृत) पान किये जानेके
कारण क्षीण हुए चन्द्रमाको सूर्य सुषुम्र नामक एक रश्मि
(किरण)-से नित्य आप्यायित करते हैं। सूर्यके तेजसे
चन्द्रमाका यह (क्षीण) शरीर पुष्ट होता है, अतएव
दिनके क्रमानुसार पूर्णिमाको वह चन्द्रमा सम्पूर्ण रूपसे
दिखायी देता है। हे विप्रो! देवता उस अमृतस्वरूप
सम्पूर्ण सोमका आधे महीनेतक पान करते हैं, क्योंकि
वे (देवता) अमृतका भोजन करनेवाले होते हैं।
तदनन्तर पंद्रहवें भागके किंचित् कलात्मक भाग शेष
बचनेपर अपराह्ममें पितृगण उस अन्तिम भागका सेवन
करते हैं। पितृगण चन्द्रमाकी अवशिष्ट अमृतस्वरूपिणी
अमृतमयी तथा पवित्र सुधा नामक कलाका दो लव
(कालविशेष)-तक पान करते हैं॥३१--३५॥
अमावस्याके दिन (चन्द्रमाकी) किरणोंसे निकलनेवाले
स्वधा नामक अमृतका पान करनेसे पितर महीनेभरके
लिये तृप्ति प्राप्त कर स्वस्थ हो जाते हैं। देवताओंके द्वारा
(चन्द्रमाके) अमृतका पान किये जानेपर सोमका
विनाश नहीं होता। श्रेष्ठ जनो! इस प्रकार सूर्यके कारण
चन्द्रमाके क्षय एवं वृद्धिका क्रम चलता है। सोमके पुत्र
(बुध)-के रथमें वायुके समान वेगवाले जलसे उत्पन्न
आठ घोड़े जुते रहते हैं। वह बुध उसी रथसे सर्वत्र
गमन करता है॥ ३६-३८ ॥
२२४ * कूर्मपुराण *
शुक्रस्य भूमिजैरश्वै: स्यन्दनो दशभिर्वृतः । शुक्रका रथ भूमिसे उत्पन्न दस घोड़ोंसे और
अष्टाभिश्चाथ भौमस्य रथो हैमः सुशोभन:ः ॥ ३९॥ | मंगलका स्वर्णमय अत्यन्त सुन्दर रथ आठ घोड़ोंसे युक्त
रहता है। बृहस्पतिका भी आठ घोड़ोंवाला रथ स्वर्णसे
बहस्पतेरथाष्टाश्व: स्यन्दनो हेमनिर्मितः। निर्मित है। शनिका लोहेसे बना हुआ रथ तमोमय है
रथस्तमोमयोषष्टाश्रो मन्दस्यायसनिर्मितः । और आठ घोड़ोंवाला है। सूर्यके शत्रु राहु और केतुके
स्वर्भानोर्भास्करारेश्व तथा षड्भिईयेर्वृतः ॥ ४०॥ | रथ छ:-छ: अश्रोंसे युक्त हैं॥३९-४०॥
एते महाग्रहाणां वे समाख्याता रथा नव। इस प्रकार महाग्रहोंके नौ रथोंका वर्णन किया गया।
सर्वे ध्रुवे महाभागा निबद्धा वातरश्मिभिः ॥ ४१॥ | ये सभी महाभाग (ग्रह) वायुकी रश्मियोंके द्वारा धुवमें
आबड्ध हैं। सभी ग्रह, नक्षत्र और तारागण भी धुव्में
ग्रहर्क्षताराधिष्ण्यानि श्रुवे बद्धान्यशेषतः। पूर्णतः निबद्ध हैं। वायुकी रश्मियोंद्वारा परिचालित होकर
भ्रमन्ति भ्रामयन्त्येनं सर्वाण्यनिलरश्मिभि: ॥ ४२॥ | ये सभी परिभ्रमण करते रहते हैं॥४१-४२॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पदट्साहम्रधां संहितायां पूर्वविभागे एकचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४९१ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें एकतालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ४१॥
बयालीसवाँ अध्याय
महः आदि सात लोकों तथा सात पातालोंका और वहाँके निवासियोंका वर्णन,
बवैष्णवी तथा शाम्भवी शक्तियोंका वर्णन
सूत उवाच सूतजी बोले--हे द्विजश्रेष्टठो! ध्रुवके ऊपर एक
ध्रुवादूर्ध महलोंक:ः कोटियोजनविस्तृतः करोड़ योजन विस्तारवाला महलोंक है। वहाँ कल्पके
कल्पाधिकारिणस्तत्र संस्थिता द्विजपुंगवा:॥ १॥ | अधिकारीगण निवास करते हैं। इसी प्रकार महलोंकसे
जनलोको महलोंकात् तथा कोटिद्दयात्मक: । ऊपर दो करोड़ योजनवाला जनलोक है। वहाँ ब्रह्माके
सनन्दनादयस्तत्र संस्थिता ब्रह्मण: सुता:॥ २॥ | ( मानस) पुत्र सनन््दन आदि रहते हैं। जनलोकसे हक
जनलोकात् तपोलोकः कोटित्रयसमन्वितः बगल की कह का. यह आह
वैराज नामक देवता रहते हैं। प्राजापत्यलोक अर्थात्
वैराजास्तत्र वे देवा: स्थिता दाहविवर्जिता:॥ ३॥ | पोलोकके ऊपर छ.: करोड़ योजनका सत्यलोक है।
प्राजापत्यात् सत्यलोक: कोटिषदकेन संयुत: । वहाँ अपुनर्मारक (जन्म-मरणसे रहित जन) रहते हैं।
अपुनर्मारकास्तत्र ब्रह्मलोकस्तु स॒ स्मृत: ॥ ४॥ | वह ब्रह्मतोक कहा गया है। यहाँ परम योगामृतका पान
अत्र लोकगुरुब्ह्या विश्वात्मा विश्वतोमुख: । कर विश्वतोमुख विश्वात्मा लोकगुरु ब्रह्मा योगियोंके साथ
आस्ते स योगिभिर्नित्यं पीत्वा योगामृतं परम्॥ ५॥ | नित्य निवास करते हैं॥१--५॥
विशन्ति यतयः शानन््ता नेष्ठिका ब्रह्मचारिण: । शान्त स्वभाववाले यतिगण, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, योगी,
योगिनस्तापसा:ः सिद्धा जापकाः परमेष्ठिनम्॥ ६॥ | तपस्वी, सिद्ध तथा परमेष्ठीका जप करनेवाले यहाँ प्रवेश
करते हैं। परमपदको प्राप्त करनेवाले योगियोंका वह एकमात्र
द्वारं तझोगिनामेक॑ गच्छतां परम पदम्। द्वार है। वहाँ पहुँचकर (लोग) शोक नहीं करते। वही
तत्र गत्या न शोचन्ति स विष्णु: स च शंकरः ॥ ७॥ | (यहाँ निवास करनेवाला) विष्णु है, शंकर है॥ ६-७॥
* दाह-तापसे रहित (दैहिक, दैविक, भौतिक तापोंसे सर्वथा मुक्त)।
* अध्याय ४२ *
सूर्यकोटिप्रतीकाशं पुरे तस्य दुरासदम्।
न मे वर्णयितुं शकक््यं ज्वालामालासमाकुलम्॥ ८ ॥
तत्र नारायणस्यापि भवनं ब्रह्मणः पुरे।
शेते तत्र हरि: श्रीमान् मायी मायामयः पर: ॥ ९ ॥
स विष्णुलोकः कथित: पुनरावृत्तिवर्जित: |
यान्ति तत्र महात्मानो ये प्रपन्ना जनार्दनम्॥ १०॥
ऊर्ध्व तद् ब्रह्मसदनात् पुरं ज्योतिर्मयं शुभम्।
बह्िना च परिक्षिप्तं तत्रास्ते भगवान् भव: ॥ ११॥
देव्या सह महादेवश्चिन्त्यमानो मनीषिभिः।
योगिभि: शतसाहस्त्रेर्भूति रुद्रेश्व संवृतः॥ १२॥
तत्र ते यान्ति नियता द्विजा वै ब्रह्मचारिण: ।
महादेवपरा: शान््तास्तापसा ब्रह्मवादिन:ः॥ १३॥
निर्ममा निरहंकारा: कामक्रोधविवर्जिता: ।
द्रक्ष्यन्ति ब्रह्मणा युक्ता रुद्रलोक:ः स वे स्मृत: ॥ १४॥
एते सप्त महालोका: पृथिव्या: परिकीर्तिता: ।
महातलादयश्चाध: पाताला: सन्ति बे द्विजा: ॥ १५॥
महातलं च पातालं सर्वरत्नोपशोभितम्।
प्रासादैर्विविधे:. शुभ्रेदेवतायतनैर्युतम्॥ १६॥
अनन्तेन च संयुक्त मुचुकुन्देन धीमता।
नृपेण बलिना चैव पातालस्वर्गवासिना॥ १७॥
शैलं रसातलं विप्रा: शार्करं हि तलातलम्।
पीत॑ सुतलमित्युक्त नितलं विद्वुमप्रभम्।
सितं हि वितलं प्रोक्त तलं चेव सितेतरम्॥ १८ ॥
सुपर्णेन मुनिश्रेष्ठास्तथा वासुकिना शुभम्।
रसातलमिति ख्यातं तथान्यैश्व निषेवितम्॥ १९॥
विरोचनहिरण्याक्षतक्षकाद्येश्व॒ सेवितम्।
तलातलमिति ख्यातं सर्वशोभासमन्वितम्॥ २० ॥
वैनतेयादिभिश्चैव_ कालनेमिपुरोगमै:।
पूर्वदेवे: समाकीर्ण सुतलं च तथापरै:॥ २१॥
नितलं यवनाद्यैश्व॒ तारकाग्रिमुखैस्तथा।
महान्तकाद्यैनगिश्व प्रह्मदेनासुरुण च॥ २२॥
वितल॑ चैव विख्यातं कम्बलाही-न्द्रसेवितम् ।
महाजम्भेन वीरेण हयग्रीवेण वे तथा॥ २३॥
शंकुकर्णेन सम्भिन्न॑ तथा नमुचिपूर्वके:।
तथान्येविविधेनगिस्तल॑ चैब सुशोभनम्॥ २४॥
२२५
करोड़ों सूर्यके समान उन (ब्रह्मा)-का वह पुर
अत्यन्त दुर्गग है। अग्निेशिखाकी मालाओंसे समन्वित
उस पुरका मैं वर्णन नहीं कर सकता। ब्रह्माके उस पुरमें
नारायणका भी भवन है। वहाँ मायामय परम मायावान्
श्रीमानू हरि शयन करते हैं। पुनरागमनसे रहित वह
विष्णुलोक कहा गया है। जो जनार्दनके शरणागत हैं,
वे महात्मा वहाँ जाते हैं। उस ब्रह्म-सदनसे ऊपर
ज्योतिर्मय, अग्निसे व्याप्त कल्याणकारी पुर है। वहाँ
सैकड़ों-हजारों योगियों, भूतों तथा रुद्रोंसे परिवृत,
मनीषियोंके द्वारा ध्यान किये जाते हुए वे भगवान् भव
महादेव देवी पार्वतीके साथ निवास करते हैं॥ ८--१२॥
वहाँ वे ही जाते हैं जो संयमी ब्राह्मण हैं, ब्रह्मचारी
हैं, महादेवपरायण हैं, शान्त, तपस्वी और ब्रह्मवादी हैं,
ममत्वरहित, अहंकारशून्य तथा काम-क्रोधसे रहित हैं।
ब्रह्मज्ञानसम्पन्न ये (व्यक्ति इस लोकका) दर्शन करते हैं।
उस लोकको रुद्रलोक कहा गया है॥ १३-१४॥
हे द्विजो! पृथ्वीके ये सात महालोक कहे गये हैं।
(पृथ्वीके) अधोभागमें महातल आदि (सात) पाताल
हैं। महातल नामक पाताल सभी रलोंसे सुशोभित और
अनेक प्रकारके महलों और शुभ्र देवमन्दिरोंसे सम्पन्न
है। वह (महातल) अनन्त (नाग), धीमान् मुचुकुन्द
एवं पाताल-स्वर्गवासी राजा बलिसे युक्त है। हे विप्रो!
रसातल शैलमय है, तलातल शर्करामय है। सुतल पीत
वर्णका कहा गया है। नितल विद्रुम (मूँगे)-के समान
वर्णवाला, वितल श्वेत वर्णका और तल कृष्ण वर्णका
कहा गया है॥ १५--१८ ॥
हे मुनिश्रेष्ठो! शुभ रसातल गरुड, वासुकि (नाग)
तथा अन्य (महात्माओं)-से सेवित कहा गया है। सभी
शोभाओंसे युक्त तलातल विरोचन, हिरण्याक्ष तथा
तक्षक आदिके द्वारा सेवित कहा गया है। सुतल वैनतेय
आदि पक्षी, कालनेमि प्रभृति दूसरे श्रेष्ठ असुरोंसे
समाकीर्ण है। तारक, अग्निमुख आदि यवन और महान्
अन्तक आदि नागों तथा असुर प्रह्मदसे नितल नामक
पाताल सेवित है। वितल नामक प्रसिद्ध पाताल कम्बल
नामक नागराज, महाजम्भ और वीर हयग्रीवसे सेवित
है। तल नामक पाताल शंकुकर्णसे युक्त तथा प्रधान
नमुचि आदि दैत्यों और अन्य विविध प्रकारके नागोंसे
सुशोभित है॥ १९--२४॥
२२६
* कूर्मपुराण *
तेषामधस्तान्नरका मायाद्या: परिकीर्तिता:।
पापिनस्तेषु पच्यन्ते न ते वर्णयितुं क्षमा:॥ २५॥
पातालानामथधश्चास्ते शेषाख्या वैष्णवी तनु: ।
कालाग्रिरुद्रो योगात्मा नारसिंहो 5पि माधव: ॥| २६॥।
योडनन्त: पठ्ाते देवो नागरूपी जनार्दन:।
तदाधारमिदं सर्व स कालाग्रिमपाश्रित: ॥ २७॥
तमाविश्य महायोगी कालस्तद्वदनोत्थित: ।
विषज्वालामयो<न्तेडसौ जगत् संहरति स्वयम्॥ २८ ॥
सहस्त्रमायो5प्रतिम: संहर्ता शंकरोद्धव:।
तामसी शाम्भवी मूर्ति: कालो लोकप्रकालन: ॥ २९॥
उन (पातालों)-के नीचे माया आदि नरक कहे
गये हैं, उनमें पापी लोग यातना पाते हैं। उनका वर्णन
नहीं किया जा सकता। पाताललोकके नीचे शेष
नामवाली वैष्णवी मूर्ति विद्यमान है। जिसे कालाग्रि रुद्र,
योगात्मा, नारसिंह, माधव, अनन्त, देव और नागरूपी
जनार्दन भी कहा जाता है। यह सब उन्हींके आधारपर
(टिका) है और वे कालाग्रिके आश्रित हैं। उनमें
प्रविष्ट होकर और उनके मुखसे प्रकट हुई विषको
ज्वालारूप होकर महायोगी काल स्वयं अन्तमें जगतूका
संहार करते हैं॥ २५--२८ ॥
हजारों मायावाला एवं शंकरसे उत्पन्न अद्वितीय
(काल) संहार करनेवाला है। वह शम्भुकी तामसी मूर्ति
है। काल ही लोकोंका संहार करता है॥ २९॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षट्साहक्रथां संहितायां पूर्वविभागे द्विचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४२ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली अश्रोकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें बयालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥४२॥
तैंतालीसवाँ अध्याय
सात महाद्वीपों और सात महासागरोंका परिमाण, जम्बूद्वीप तथा मेरुपर्वतकी स्थिति, भारत
तथा किंपुरुष आदि वर्षोका वर्णन, वर्षपर्वतोंकी स्थिति, जम्बूद्वीपके नाम पड़नेका
कारण, जम्बूद्वीपके नदी एवं पर्वतोंका और वहाँके निवासियोंका वर्णन
सूत उवाच
एतद् ब्रह्माण्डमाख्यातं चतुर्दशविधं महत्।
अतः परं प्रवक्ष्यामि भूलोकस्यास्य निर्णयम्॥ १॥
जम्बुद्वीप: प्रधानो5यं प्लक्ष: शाल्मल एव च।
कुशः क्रौद्धश्चन शाकश्च पुष्करश्चैव सप्तम: ॥ २॥
एते सप्त महाद्वीपा: समुद्रे: सप्तभिर्वृताः:।
द्वीपाद द्वीपो महानुक्त: सागरादपि सागर:॥ ३॥
क्षारोदेक्षुसोदश्च॒ सुरोदश्ष॒ घृतोदकः।
दध्योद: क्षीरसलिल: स्वादूदश्चेति सागरा: ॥ ४॥
पश्चाशत्कोटिविस्तीर्णा ससमुद्रा धरा स्मृता।
द्वीपैश्व सप्तभिर्युक्ता योजनानां समासतः॥ ५॥
जम्बूद्वीप: समस्तानां द्वीपानां मध्यत: शुभ: |
तस्य मध्ये महामेरुविश्रुतः कनकप्रभ:॥ ६॥
सूतजी बोले--इस चौदह (सात पाताल तथा सात
ऊर्ध्वलोक) प्रकारके महान् ब्रह्माण्डका वर्णन
किया गया। इसके बाद इस भूलोकके निर्णयको
कहूँगा। ( भूलोकमें) जम्बूद्दीप प्रधान है। (इसके अतिरिक्त)
प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौज्ध, शाक तथा सातवां
पुष्कर द्वीप है। ये सातों महाद्वीप सात समुद्रोंसे घिरे हैं,
एक द्वीपसे दूसरा द्वीप तथा एक सागरसे दूसरा
सागर महान् कहा गया है। क्षारोदक, इक्षुरसोदक, सुरोदक,
घृतोदक, दध्योदक, क्षीरोदक तथा स्वादूदक--ये (सात)
महासागर हैं। संक्षेपमें समुद्रसहित यह पृथ्वी पचाप्
करोड़ योजन विस्तारवाली कही जाती है। यह
सात द्वीपोंसे परिवेष्टित है समस्त द्वीपोंके मध्यमें शुभ
जम्बूद्वीप स्थित है। उसके बीचमें स्वर्णके समान आभावाला
महामेरु कहा गया है॥ १--६॥
* अध्याय ४३ *
चतुरशीतिसाहस्त्रो योजनैस्तस्यथ चोच्छुय: ।
प्रविष्ट: षोडशाधस्ताद् द्वात्रिंशन्मूर्ध्नि विस्तृत:॥ ७ ॥
मूले षोडशसाहस्त्रो विस्तारस्तस्य सर्वतः।
भूपदास्यास्य शैलोडसौ कर्णिकात्वेन संस्थित: ॥ ८ ॥
हिमवान् हेमकूटश्व निषधश्चास्य दक्षिणे।
नील: शवेतश्व श्रुड्री च उत्तरे वर्षपर्वता:॥ ९ ॥
लक्षप्रमाणो द्वोौ मध्ये दशहीनास्तथा परे।
सहस्त्रद्वितयोच्छायास्तावद्विस्तारिणश्वच ते॥ १०॥
भारतं दक्षिणं वर्ष ततः किंपुरुषं स्मृतम्।
हरिवर्ष तथेवान्यन्मेरोर्दक्षिणतो द्विजा:॥ ११॥
रम्यक॑ चोत्तरं वर्ष तस्यैवानुहिरण्मयम्।
उत्तरा: कुरवश्चैव यथेते भरतास्तथा॥ १२॥
नवसाहस्त्रमेकेकमेतेषां द्विजसत्तमा: ।
इलावृतं च तन्मध्ये तन्मध्ये मेरुरुच्छित:॥ १३॥
मेरोश्वतुर्दिशं तत्र नवसाहस्त्रविस्तृतम।
इलावृतं॑ महाभागाश्चत्वारस्तत्र पर्वता:।
विष्कम्भा रचिता मेरोयोजनायुतमुच्छिता: ॥ १४॥
पूर्वण मन्दरो नाम दक्षिणे गन्धमादन:।
विपुल: पश्िमे पाशवें सुपार्श्व क्षोत्तरे स्मृत: ॥ १५॥
कदम्बस्तेषु जम्बूश्न पिप्पलो वट एवं च।
जम्बूद्वीपप्प सा जम्बूर्नामहेतुर्महर्षय: ॥ १६॥
महागजप्रमाणानि जम्ब्वास्तस्या: फलानि च।
पतन्ति भूभृतः पृष्ठे शीर्यमाणानि सर्वतः ॥ १७॥
रसेन तस्या: प्रख्याता तत्र जम्बूनदीति वे।
सरित् प्रवर्तते चापि पीयते तत्र वासिभि:॥ १८ ॥
नसस््वेदो न च दौर्गन्ध्यं न जरा नेन्द्रियक्षय: ।
तत्पानात् सुस्थमनसां नराणां तत्र जायते॥ १९॥
तीरमृत् तत्र सम्प्राप्प वायुना सुविशोषिता।
जाम्बूनदाख्यं भवति सुवर्ण सिद्धभूषणम्॥ २०॥
२२७
उसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है। नीचेकी
ओर यह सोलह योजनतक प्रविष्ट है और ऊपरकी ओर
बत्तीस योजन विस्तृत है। उस पर्वतके मूलमें सभी ओर
सोलह हजार योजनका विस्तार है। यह पर्वत इस
पृथ्वीरूप कमलकी कर्णिकाके रूपमें अवस्थित है।
इसके दक्षिणमें हिमवानू, हेमकूट तथा निषध और
उत्तरमें नील, श्वेत एवं श्रृंगी नामक वर्षपर्वत हैं। इनमें
दो (हिमवान् एवं हेमकूट वर्षपर्वत ) एक लाख योजन
परिमाणवाले हैं और अन्य (वर्षपर्वत) दस योजन कम
विस्तारवाले हैं। इनकी ऊँचाई दो हजार योजनकी है
और उनका विस्तार भी उतना ही है॥ ७--१०॥
हे द्विजो! मेरुके दक्षिण भागमें प्रथम भारतवर्ष,
तदनन्तर किंपुरुषवर्ष और फिर हरिवर्ष तथा अन्य
भी वैसे ही स्थित हैं। उसके उत्तरमें रम्यक, हिरण्मय
एवं उत्तरकुरुवर्ष स्थित हैं। ये सभी भारतवर्षके
समान हैं॥ ११-१२॥
द्विजश्रेष्टो ! इनमेंसे प्रत्येक नौ हजार योजनका है।
इनके मध्यमें इलावृतवर्ष है और इसके मध्यमें उन्नत
मेरु पर्वत है। हे महाभागो! वहाँ मेरुके चारों ओर नौ
हजार योजनका इलावृत नामक वर्ष है। वहाँ चार पर्वत
हैं। मेरुके व्यासके रूपमें विरचित इनकी ऊँचाई दस
हजार योजन है। इसके पूर्वमें मन्दर, दक्षिणमें गन्धमादन,
पश्चिम पार्थ्में विपुल और उत्तरमें सुपार्थ नामक पर्वत
कहा गया है॥ १३--१५॥
उसमें (सुपार्श्व पर्वतमें) कदम्ब, जम्बू, पीपल और
वट वृक्ष हैं। हे महर्षियो! यही जम्बूवृक्ष जम्बूद्वीप नाम
पड़नेका कारण है। उस जम्बूवृक्षेके फल महान् हाथीके
प्रमाणवाले होते हैं। पर्वतके पृष्ठपर गिरनेसे वे विशीर्ण
हो जाते हैं। वहाँ उनके रससे प्रवाहित होनेवाली नदी
जम्बूनदीके नामसे विख्यात है। वहाँके निवासी उस
रसका पान किया करते हैं। वहाँ उस रस (जल)-का
पान करनेसे स्वस्थ मनवाले मनुष्योंको न स्वेद (पसीना)
होता है, न उनमें दुर्गन्धि होती है, न वृद्धावस्था आती
है और न ही उनकी इन्द्रियाँ क्षीण होती हैं। उस (जम्बू
नदी)-के तटपर स्थित मिट्टीके रसका वायु शोषण कर
लेता है, जिससे जाम्बूनद नामक सुवर्ण होता है,
सिद्धगण उसीका आभूषण धारण करते हैं॥ १६--२० ॥
२२८
* कूर्मपुराण *
भद्राश्च: पूर्वतो मेरो: केतुमालश्व पश्चिमे।
वर्ष द्वे तु मुनिश्रेष्ठास्तयोर्मध्ये इलावृतम्॥ २१॥
वन चेत्ररथं पूर्व दक्षिणे गन्धमादनम्।
वैश्राज॑ पश्चिमे विद्यादुत्ते सवितुर्वनम्॥ २२॥
अरुणोदं महाभद्रमसितोदं॑ च मानसम्।
सरांस्येतानि चत्वारि देवभोग्यानि सर्वदा॥ २३॥
सितान्तश्च कुमुद्वांश्व कुरुरी माल्यवांस्तथा।
बैकड्डो मणिशैलश्व ऋक्षवांश्वाचलोत्तमा:॥ २४॥
महानीलो5थ रुचकः सबिन्दुर्मन्दरस्तथा।
वेणुमांश्चैव मेघश्वच निषधो देवपर्वतः।
इत्येते देवरचिता: सिद्धावासा: प्रकीर्तिता: ॥ २५॥।
अरुणोदस्य सरसः पूर्वतः केसराचल:।
त्रिकूटशिखरश्चैव पतड्रो रुचकस्तथा॥ २६॥
निषधो वसुधारश्च कलिड्रस्त्रशिख: शुभ: ।
समूलो वसुधारश्च कुरवश्चेव सानुमान्॥ २७॥
ताम्रातश्च विशालश्च कुमुदो वेणुपर्वतः।
एकश्रुड्रो महाशैलो गजशैल: पिशाचक: ॥ २८॥
पञ्ञशैलो5थ कैलासो हिमवांश्चाचलोत्तम: ।
इत्येते देवचरिता उत्कटा: पर्वतोत्तमा:॥ २९॥
महाभद्रस्थय सरसो दक्षिणे केसराचल:ः।
शिखिवासश्च वैदूर्य: कपिलो गन्धमादन: ॥ ३० ॥
जारुधिएच सुगन्धिएच श्री श्रुद्एचाचलोत्तम: ।
सुपाए्वश्च सुपक्षएशच कड्ड: कपिल एव च॥ ३१॥
पिज्जरो भद्रशैलश्च सुरसश्च महाबल:।
अज्जनो मधुमांस्तद्वत् कुमुदो मुकुटस्तथा॥ ३२॥
सहस्त्रशिखरश्चेव पाण्डुरः कृष्ण एव च।
पारिजातो महाशैलस्तथेव कपिलोदक: ॥ ३३॥
सुषेण: पुण्डरीकश्च महामेघस्तथेव च।
एते पर्वतराजान: सिद्धगन्धर्वसेविता: ॥ ३४॥
असितोदस्य सरसः पश्चिमे केसराचल:।
शट्डुकूटो5थ वृषभो हंसो नागस्तथा पर:॥ ३५॥
कालाञ्जन: शुक्रशैलो नील: कमल एवं च।
पुष्पकश्च सुमेघश्च वाराहो विरजास्तथा।
मयूर: कपिलश्चैव महाकपिल एवं च॥ ३६॥
इत्येते. देवगन्धर्वसिद्धसड्डनिषेविता:।
सरसो मानसस्येह उत्तर केसराचल:॥ ३७॥
मेरुके पूर्वमें भद्राश्च, पश्चिममें केतुमाल नामक दो
वर्ष हैं। मुनिश्रेष्ठो! उन दोनोंके मध्य इलावृत वर्ष है।
पूर्वमें चैत्रथ नामक वन, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें
वैभ्राज और उत्तरमें सवितृवन स्थित है। उन (वरनों)-
में अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस नामक--
ये चार सरोवर हैं। ये सदा देवताओंद्वारा उपभोग किये
जाने योग्य हैं। सितान््त, कुमुद्दवानू, कुरुरी, माल्यवान्,
वैकड्ड, मणिशैल, ऋक्षवान्ू, महानील, रुचक, सबिब्दु,
मन्दर, वेणुमान्, मेघ, निषध एवं देवपर्वत--इन सभी
श्रेष्ठ पर्वतोींकी रचना देवताओंद्वारा हुई है और इन्हें
सिद्धोंका आवास कहा जाता है॥ २१--२५॥
अरुणोद सरोवरके पूर्वमें केसराचल, त्रिकूट-
शिखर, पतड़, रुचक, निषध, वसुधार, कलिंग, शुभ
त्रेशिख, समूल, वसुधार, कुरव, सानुमान्ू, ताम्रात,
विशाल, कुमुद, वेणुपर्वत, एकश्रृंग, महाशैल, गजशैल,
पिशाचक, पञ्मशशैल, कैलास और पर्वतोंमें उत्तम
हिमवानू--ये सभी देवताओंद्वारा सेवित अत्यन्त श्रैष्ठ
पर्वत हैं॥ २६--२९॥
महाभद्र सरोवरके दक्षिणमें--केसराचल, शिखिवास,
वैदूर्य, कपिल, गन्धमादन, जारुधि, सुगन्धि, उत्तम पर्वत
श्रीश्रृंग, सुपार्थ, सुपक्ष, कड्ढ, कपिल, पिञ्जर, भद्रशैल,
सुरस, महाबल, अञ्न, मधुमान्ू, कुमुद, मुकुट,
सहस्नशिखर, पाण्डुर, कृष्ण, पारिजात, महाशैल, कपिलोदक,
सुषेण, पुण्डकीक और महामेघ--ये सभी पर्वतराज
सिद्धों और गन्धर्वोंसे सेवित हैं॥३०--३४॥
असितोद सरोवरके पश्चिममें केसराचल, शंखकूठ,
वृषभ, हंस, नाग, कालाझन, शुक्रशैल, नील, कमल,
पुष्पक, सुमेघ, वाराह, विरजा, मयूर, कपिल तथा
महाकपिल--ये सभी (पर्वत) देव, गन्धर्व और सिद्धोंके
समूहोंद्वारा सेवित हैं। मानसरोवरके उत्तरमें केसराचल
नामक पर्वत है॥ ३५--३७॥
* अध्याय ४४ *
एतेषां शैलमुख्यानामन्तरेषु यथाक्रमम्।
२२९
इन प्रधान शैलोंके मध्य क्रमानुसार घाटियाँ, सरोवर
सन्ति चेवान्तरद्रोण्य: सरांसि च वनानि च॥ ३८ ॥ | और अनेक वन हैं। वहाँ प्रसन्न, रजोगुणरहित और सभी
वसन्ति तत्र मुनयः सिद्धाश्न ब्रह्मभाविता: ।
दुःखोंसे विनिर्मुक्त ब्रह्मगादी मुनि और सिद्ध निवास
प्रसन्ना: शान्तरजस: सर्वदुःखविवर्जिता:॥ ३९ ॥ | करते हैं॥३८-३९॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षट्साहर्रयां संहितायां पूर्वविभागे त्रिचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४३ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें तैंतालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ४३॥
चौवालीसवाँ अध्याय
ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि देवताओंकी पुरियोंका तथा वहाँके निवासियोंका
वर्णन, गड़ाकी चार धाराओं और आठ मर्यादापर्वतोंका वर्णन
सूत उवाच
चतुर्दशसहस्त्राण योजनानां महापुरी।
मेरोरुपरि विख्याता देवदेवस्थ वेधस:॥ १ ॥
तत्रास्ते भगवान् ब्रह्म विश्वात्मा विश्वभावन: ।
उपास्यमानो योगीन्द्रेर्मुनीन्द्रोपेन्द्रशंकरै: ॥ २ ॥
तत्र देवेश्वेशानं विश्वात्मानं प्रजापतिम्।
सनत्कुमारो भगवानुपास्ते नित्यमेव हि॥ ३ ॥
स सिद्धैर्क्रषिगन्धर्व: पूज्यमान: सुरैरपि।
समास्ते योगयुक्तात्मा पीत्वा तत्परमामृतम्॥ ४ ॥
तत्र देवादिदेवस्थ शम्भोरमिततेजस: ।
दीप्तमायतनं शुभ्र॑ पुरस्ताद् ब्रह्मण: स्थितम्॥ ५ ॥
दिव्यकान्तिसमायुक्त चतुर्द्वारें सुशोभनम्।
मह्षिंगणसंकीर्ण ब्रह्मविद्धिर्निषेवितम्॥ ६ ॥
देव्या सह महादेव: शशाझ्डूर्काग्रिलोचन:।
रमते तत्र विश्वेश: प्रमथे: प्रमथेश्वर:॥ ७ ॥
तत्र वेदविदः शान्ता मुनयो ब्रह्मचारिण:।
पूजयन्ति महादेवं॑ तापसा: सत्यवादिन:॥ ८ ॥
तेषां साक्षान्महादेवो मुनीनां ब्रह्मवादिनाम् |
गृह्ति पूजां शिरसा पार्वत्या परमेश्वरः॥ ९ ॥
तत्रैव पर्वतवरे शक्रस्थ परमा पुरी।
नाग्नाउमरावती पूर्वे सर्वशोभासमन्विता॥ १०॥
तमिन्द्रमप्सर:सड्भराः गन्धर्वा गीततत्परा:।
उपासते सहतस्त्राक्ष देवास्तत्र सहस्त्रशः:॥ ११॥
ये धार्मिका वेदविदों यागहोमपरायणाः।
तेषां तत् परमं स्थान देवानामपि दुर्लभम्॥ १२॥
सूतजी बोले--देवाधिदेव ब्रह्माकी मेरु पर्वतके
ऊपर चौदह हजार योजन विस्तारवाली महापुरी विख्यात
है। वहाँ विश्वभावन विश्वात्मा भगवान् ब्रह्मा रहते हैं।
योगीन्द्र, मुनीन्द्र, उपेन्द्र (विष्णु) और शंकर उनकी
उपासना करते रहते हैं। वहाँ भगवान् सनत्कुमार नित्य
ही ईशान देवेश्वर विश्वात्मा प्रजापतिकी उपासना करते
हैं। वे (सनत्कुमार) योगात्मा सिद्ध, ऋषि, गन्धर्व तथा
देवताओंसे पूजित होते हुए परम अमृतका पान करते
हैं और वहाँ निवास करते हैं॥ १--४॥
वहाँ देवोंके आदिदेव अमित तेजस्वी शंकरका शुभ्र
एवं दीप्तियुक्त मन्दिर है, जो ब्रह्माके (आयतनके ) सामने
स्थित है। (यह मन्दिर) दिव्य कान्तिसे सुसम्पन्न, चार
द्वारोंसे युक्त, अत्यन्त सुन्दर, महर्षियोंसे पूर्ण और ब्रह्मज्ञानियोंद्ारा
सेवित है। चन्द्रमा, सूर्य एवं अग्निस्वरूप (तीन) नेत्रोंवाले
प्रमथेश्वर विश्वेश महादेव देवी (पार्वती) एवं प्रमथगणोंके
साथ वहाँ रमण करते हैं ॥५--७॥
वहाँ वेदज्ञ शान्तचित्त मुनि, ब्रह्मचारी, तपस्वी और
सत्यवादी लोग महादेवकी पूजा करते हैं। इन ब्रह्मवादी
मुनियोंकी पूजाको पार्वतीके साथ साक्षात् परमेश्वर
महादेव सिरसे आदरपूर्वक स्वीकार करते हैं। वहीँ श्रेष्ठ
पर्वत (मेरु)-पर पूर्वकी ओर इन्द्रकी सभी शोभाओंसे
समन्वित अमरावती नामकोी श्रेष्ठ पुरी है॥ ८--१०॥
अप्सराओंका समूह, गान-परायण गन्धर्व तथा हजारों
देवता हजार नेत्रोंवाले इन्द्रकी वहाँ उपासना करते हैं। जो
धार्मिक हैं, वेदज्ञ हैं, यज्ञ एवं होमपरायण हैं, उनका वह
परम स्थान देवताओंके लिये भी दुर्लभ है॥ ११-१२॥
२३०
तस्य दक्षिणदिग्भागे वह्लेरमिततेजस:।
तेजोवती नाम पुरी दिव्याश्चर्यसमन्विता॥ १३॥
तत्रास्ते भगवान् वह्लि््राजमानः स्वतेजसा।
जपिनां होमिनां स्थान दानवानां दुरासदम्॥ १४॥
दक्षिणे पर्वतवरे यमस्यापि महापुरी।
नाम्ना संयमनी दिव्या सिद्धगन्धर्वसेविता॥ १५॥
तत्र बैवस्वतं देवं देवाद्या: पर्युपासते।
स्थान तत् सत्यसंधानां लोके पुण्यकृतां नुणाम्॥ १६॥
तस्यास्तु पश्चिमे भागे निर््रतेस्तु महात्मन: ।
रक्षोवती नाम पुरी राक्षसै: सर्वतो वृता॥ १७॥
तत्र तं निर्क्रतिं देवं राक्षसा: पर्युपासते।
गच्छन्ति तां धर्मरता ये वे तामसवृत्तय:॥ १८॥
पश्चिमे पर्वतवरे वरुणस्थ महापुरी।
नाम्ना शुद्धवती पुण्या सर्वकामर्द्धिसंयुता॥ १९॥
तत्राप्सरोगणै: सिद्धै: सेव्यमानो5मराधिप: ।
आस्ते स वरुणो राजा तत्र गच्छन्ति येउम्बुदा: ।
तीर्थयात्रापरा नित्यं ये च लोकेउघमर्षिण: ॥ २०॥
तस्या उत्तरदिग्भागे वायोरपि महापुरी।
नाप्ला गन्धवती पुण्या तत्रास्तेडसौ प्रभव्जन: ॥ २१॥
अप्सरोगणगन्धर्वै: सेव्यमानो5मरप्रभु: ।
प्राणायामपरा मर्त्या स्थान तद यान्ति शाश्रतम्॥ २२॥
तस्याः पूर्वेण दिग्भागे सोमस्य परमा पुरी।
नाम्ना कान्तिमती शुक्ना तत्र सोमो विराजते॥ २३॥
तत्र ये भोगनिरता स्वधर्म पर्युपासते।
तेषां तद रचितं स्थानं नानाभोगसमन्वितम्॥ २४॥
तस्याश्च पूर्वदिग्भागे शंकरस्य महापुरी।
नाम्ना यशोवती पुण्या सर्वेषां सुदुरासदा॥ २५॥
तत्रेशानस्थ भवन रुद्रविष्णुतनो: शुभम्।
गणेश्वरस्यथ विपुलं तत्रास्ते स गणैर्वृतः॥ २६॥
१-विवस्वानू-विव-रश्मि-किरणसे युक्त सूर्य |
न कूर्मपुराण न
उसके दक्षिण दिशामें अमित तेजस्वी अग्निकी
दिव्य आश्चर्योंसे युक्त तेजोवती नामकी पुरी स्थित है।
भगवान् वह्लि अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए वहाँ रहते
हैं। जप करनेवालों तथा होम करनेवालोंका वह स्थान
दानवोंके लिये दुष्प्राप्प है॥ १३-१४॥
श्रेष्ठ (मेरु) पर्वतपर दक्षिण भागमें यमराजकीौ भी
सिद्धों तथा गन्धर्वोसे सेवित संयमनी नामक दिव्य
महापुरी है। वहाँ देवादिगण विवस्वान्* (सूर्य) देवकी
उपासना करते रहते हैं। वह स्थान संसारमें पुण्य
करनेवाले सत्यब्रती मनुष्योंका है। उसके पश्चिम
भागमें महात्मा निर्क्रतिकी रक्षोवती नामक पुरी है, जो
चारों ओरसे राक्षसोंसे घिरी है। वहाँ राक्षस निर्क्रतिदेवकी
उपासना करते हैं तथा जो तमोगुणी जीविकावाले होते
हुए भी धार्मिक होते हैं, वे उसी पुरीमें जाते हैं।
पश्चिममें इस श्रेष्ठ पर्वतपर सभी प्रकारकी कामनाओंकी
समृद्धिसे समन्वित वरुणकी शुद्धवती नामको पुण्य
महापुरी है॥ १५--१९॥
यहाँ अप्सराओं तथा सिद्धोंसे सेवित अमराधिप
राजा वरुण रहते हैं। यहाँ वे ही मनुष्य जाते हैं, जो
संसारमें नित्य जलदान करते हैं, तीर्थयात्रा-परायण रहते
हैं और जो अघमर्षण किया करते हैं॥ २०॥
उस (शुद्धवती पुरी)-के उत्तरभागमें वायु देवताकी
भी गन्धवती नामवाली पवित्र महापुरी स्थित है। वहाँ
प्रभझ्नन (वायुदेवता) निवास करते हैं। देवोंके स्वामी
इन वायुदेवताकी अप्सराओंके समूह और गन्धर्व सेवा
करते रहते हैं। जो प्राणायाम-परायण मनुष्य हैं, वे इस
शाश्रत स्थानमें जाते हैं॥ २१-२२॥
उसके पूर्व दिशामें सोम (चन्द्रमा)-की कान्तिमती
नामवाली शुभ श्रेष्ठ पुरी है, वहाँ चन्द्रमा विराजमान
रहते हैं, जो भोगपरायण रहते हुए अपने धर्मका
पालन करते हैं उन्हींके लिये वहाँपर अनेक प्रकारके
भोगोंसे युक्त स्थान बना' है। उसके पूर्वकी ओर
(भगवान् शंकरकी यशोवती नामक पवित्र महापुरी है,
जो सभीके लिये दुर्लभ है, वहाँ रुद्र एवं विष्णुमय
शरीरवाले गणाधिपति ईशान (शंकर)-का विशाल भवन है
२-कुछ लोग ऐसे होते हैं जो धर्मनिष्ठ होते हैं, पर जन्म-जन्मान्तरके संस्कारवश उनमें मृत्युके समय भोगवासना शेष रह जाती
है, ऐसे लोग चन्द्रलोकको प्राप्त करते हैं।
* अध्याय ४ं४ *
तत्र भोगाभिलिप्सूनां भक्तानां परमेष्ठिनः ।
निवास: कल्पितः पूर्व देवदेवेन शूलिना॥ २७॥
विष्णुपादाद विनिष्क्रान्ता प्लावयित्वेन्दुमण्डलम् ।
समन्ताद् ब्रह्मण: पुर्या गड़ा पतति वै दिव:ः ॥ २८॥
सा तत्र पतिता दिक्षु चतुर्धा ह्मभवद् द्विजा: ।
सीता चालकनन्दा च सुचक्षुर्भद्रनामिका॥ २९॥
पूर्वेण सीता शैलात् तु शैलं यात्यन्तरिक्षत: ।
ततश्च पूर्ववर्षण भद्राश्वेनेति चार्णबम्॥ ३०॥
तथेवालकनन्दा च दक्षिणादेत्य भारतम्।
प्रयाति सागर भित्त्वा सप्तभेदा द्विजोत्तमा:॥ ३१॥
सुचक्षु: पश्चिमगिरीनतीत्य सकलांस्तथा।
पश्चिम केतुमालाख्यं वर्ष गत्वैति चार्णवम्॥ ३२॥
भद्रा तथोत्तरगिरीनुत्तरांश्च तथा कुरून्।
अतीत्य चोत्तराम्भोधिं समभ्येति महर्षय:॥ ३३॥
आनीलनिषधायामोौ माल्यवान् गन्धमादनः ।
तयोम॑ध्यगतो मेरु: कर्णिकाकारसंस्थित: ॥ ३४॥
भारता: केतुमालाश्च भद्राश्रा: कुरवस्तथा।
पत्राणि लोकपदास्य मर्यादाशैलबाह्मतः ॥ ३५॥
जठरो देवकूटश्च मर्यादापर्वतावुभौ।
दक्षिणोत्तरमायामावानीलनिषधायता.. ॥ ३६॥
गन्धमादनकैलासौ पूर्वपश्चायतावुभौ।
अशीतियोजनायामावर्णवान्तर्व्यवस्थितोा ॥३७॥
निषध: पारियात्रएच मर्यादापर्वताविमौ।
मेरो: पश्चिमदिग्भागे यथापूर्वी तथा स्थितौ॥ ३८ ॥
त्रिशूड्रों जारुथिस्तद्वदुत्ते वर्षपर्वतो।
पूर्वपश्चायतावेतो अर्णवान्तर्व्यवस्थितौ॥ ३९॥
मर्यादापर्वता: प्रोक्ता अष्टाविह मया द्विजा: ।
जठराद्या: स्थिता मेरोश्चतुर्दिक्षु महर्षय: ॥ ४० ॥
२३१
गणोंसे आवृत (शंकरदेव) उसमें रहते हैं। पूर्वकालमें
देवोंके देव शूल धारण करनेवाले शंकरने वहाँपर परमेष्ठीके
भोगाभिलाषी भक्तोंका निवास-स्थान बनाया था। विष्णुके
चरणसे निकली हुई गड्जा चन्द्रमण्डलको आप्लावित कर
स्वर्गसे ब्रह्मपुरीके चारों ओर गिरती हैं॥ २३--२८ ॥
द्विजो! वे वहाँ गिरकर सीता, अलकनन्दा, सुचक्षु
एवं भद्रा नामसे चार भागोंमें (दिशाओंमें) विभक्त हो
गयी हैं। अन्तरिक्षसे निकलकर सीता नामक गड़ा एक
शैलसे दूसरे शैलपर जाती हुई पूर्व दिशामें भद्राश्ववर्षमें
प्रवाहित होती हुई समुद्रमें जाती हैं॥ २९-३० ॥
हे द्विजोत्तमो! इसी प्रकार अलकनन्दा नामक गड्ढा
दक्षिण दिशासे भारतवर्षमें आनेके बाद सात भागोंमें
विभक्त होकर सागरमें जाती हैं। ऐसे ही सुचक्षु नामक
गड़ा पश्चिम दिशाके सभी पर्वतोंका अतिक्रमण करके
पश्चिम दिशाके केतुमाल नामक वर्षमें प्रवाहित होकर
समुद्रमें जाती हैं। महर्षियो! भद्रा नामक गड्ढा उत्तर
दिशाके पर्वतों और उत्तरकुरुवर्षका अतिक्रमण कर
उत्तर समुद्रमें मिलती हैं। माल्यवान् तथा गन्धमादन
पर्वत नील तथा निषध पर्वतोंके समान विस्तारवाले हैं।
उन दोनोंके मध्यमें कर्णषिकाके आकारके समान मेरु
(पर्वत) स्थित है। इन मर्यादापर्वतोंके बाहरकी ओर
संसाररूपी कमलके पत्रोंके रूपमें भारतवर्ष, केतुमाल,
भद्राश्व और कुरुवर्ष स्थित हैं॥३१--३५॥
जठर एवं देवकूट नामक दो मर्यादापर्वत नील और
निषध पर्वतोंतक दक्षिणोत्तर-दिशामें फैले हुए हैं। गन्धमादन
और कैलास नामक दोनों पर्वत पूर्व-पश्चिममें फैले हुए
हैं, (ये) अस्सी योजन विस्तारवाले हैं और समुद्रके
अंदरतक स्थित हैं। निषध और पारियात्र नामक दो
मर्यादापर्वत मेरुकी पश्चिम दिशामें पूर्वके पर्वतोंके समान
स्थित हैं। इसी प्रकार उत्तरमें त्रिश्ुद्भ और जारुधि नामक
दो वर्षपर्वत हैं। ये पूर्व-पश्चिममें फैले हुए हैं तथा
समुद्रके भीतरतक स्थित हैं॥३६--३९ ॥
हे द्विजो! मैंने यहाँ इन आठ मर्यादापर्वतोंको
बतलाया। हे महर्षियो! मेरुके चारों दिशाओंमें जठर
आदि (वर्षपर्वत) स्थित हैं॥४०॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहर्रशं संहितायां पूर्वाविभागे चतुश्नत्वारिशोउथ्याय: ॥ ४४॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें चौवालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ४४॥
२३२
* कूर्मपुराण *
पेंतालीसवाँ अध्याय
केतुमाल, भद्राश्च, रम्यकवर्ष तथा वहाँके निवासियोंका वर्णन, हरिवर्षमें स्थित विष्णुके
विमानका वर्णन, जम्बूद्वीपके वर्णनमें भारतवर्षके कुलपर्वतों, महानदियों, जनपदों
और वहाँके निवासियोंका वर्णन, भारतवर्षमें चार युगोंकी स्थितिका प्रतिपादन
सूत उवाच
केतुमाले नरा: कालाः सर्वे पनसभोजना: ।
स्त्रियशचोत्पलपत्राभा जीवन्ति च वर्षायुतम्॥
भद्राश्वे पुरुषा: शुक्ला: स्त्रियश्नन्धांशुसंनिभा: ।
दश वर्षसहस्त्राणि जीवन्ते आप्रभोजना:॥।
रम्यके पुरुषा नार्यों रमन्ते रजतप्रभा:।
दश्वर्षसहस्त्राणि शतानि दश पउञ्च च।
जीवन्ति चैव सत्त्वस्था न्यग्रोधफलभोजना: ॥।
हिरण्मये हिरण्याभा: सर्वे च लकुचाशना: ।
एकादशसहस्त्राणि शतानि दश पञ्ञ च।
जीवन्ति पुरुषा नार्यों देवलोकस्थिता इब॥
त्रयोदशसहस्त्राणि शतानि दश पक्ष च।
जीवन्ति कुरुवर्षे तु श्यामाड्र:ः क्षीरभोजना: ॥
सर्वे ते मैथुनाज्जाता: नित्यं सुखनिषेविन: ।
चन्द्रद्वीप महादेव॑ यजन्ति सततं शिवम्॥
तथा किम्पुरुषे विप्रा मानवा हेमसंनिभा: ।
दशवर्षसहस्त्राणि जीवन्ति प्लक्षभोजना:॥
यजन्ति सततं देवं चतुर्मूर्ति चतुर्मुखम।
ध्याने मनः समाधाय सादर भक्तिसंयुता:॥
तथा च हरिवर्षे तु महारजतसंनिभा:।
रे
२
डरे
है."
ज्
६
हि
८
दशवर्षसहस्नाणि_ जीवन्तीक्षुसाशिन:॥ ९ ॥
तत्र नारायणं देवं विश्वयोनिं सनातनम्।
सूतजीने कहा--केतुमालवर्षके पुरुष कृष्णवर्णके
होते हैं और सभी पनस (कटहल)-का भोजन करनेवाले
होते हैं। वहाँकी स्त्रियाँ कमलपत्रके समान वर्णवाली
होती हैं। ये सभी दस हजार वर्षतक जीवित रहते हैं।
भद्राश्ववर्षके पुरुष शुक्ल वर्णके होते हैं और स्त्रियां
चन्द्रमाकी किरणों (चाँदनी)-के समान वर्णवाली होती
हैं। ये सब आमका आहार करते हैं तथा दस हजार
वर्षवक जीवित रहते हैं। रम्यकवर्षके पुरुष और
स्त्रियाँ--सभी चाँदीकी प्रभाके समान दिखायी देते हैं।
ये सत्त्वभावमें स्थित रहनेवाले होते हैं तथा बटवृक्षके
फलका भोजन करते हैं और ग्यारह हजार पाँच सौ
वर्षोतक जीवित रहते हैं। हिरण्मयवर्षमें सोनेकी आभावाले
निवास करते हैं, सभी लकुच (बड़॒हरके फल)-का
भोजन करते हैं और बारह हजार पाँच सौ वर्षतक सभी
स्त्री-पुरुष उसी प्रकार जीवित रहते हैं, जैसे कि
देवलोकमें स्थित हों॥ १--४॥
कुरुवर्षमें दुग्धाहार करनेवाले श्यामवर्णके (स्त्री-
पुरुष) चौदह हजार पाँच सौ वर्षतक जीवित रहते
हैं। वे सभी मैथुनसे उत्पन्न होते हैं, नित्य सुखोपभोगी
होते हैं और चन्द्रद्दीपमें महादेव शिवकी निरन्तर
उपासना करते हैं। हे विप्रो। इसी प्रकार किंपुरुषवर्षके
मनुष्य स्वर्ण-वर्णके समान होते हैं। पाकड़ वृक्षके
फलोंका भोजन करनेवाले ये दस हजार वर्षतक जीवित
रहते हैं। ये भक्तियुक्त होकर आदरसहित मनको ध्यानमें
समाधिस्थकर चतुर्मूर्ति चतुर्मुख देव (ब्रह्मा)-की निरन्तर
उपासना करते रहते हैं। इसी प्रकार हरिवर्षमें रहनेवाले
महारजत* (स्वर्ण)-के समान आभावाले होते हैं। वे
दस हजार वर्षतक जीवित रहते हैं। ईखके रसका
भोजन करते हैं। यहाँ ये मनुष्य विष्णुकी भावनासे
भावित होकर विश्वयोनि नारायणदेव विष्णुकी सदा
उपासते सदा विष्णुं मानवा विष्णुभाविता: ॥ ९० ॥ | उपासना करते हैं॥५--१०॥
* महारजत शब्द स्वर्णका पर्याय है। (अमरकोश २। ९। ९५)
* अध्याय ४ए *
तत्र चन्द्रप्रभं शुभ्र॑ं शुद्धस्फटिकनिर्मितम्।
विमानं वासुदेवस्य पारिजातवनाभितम्॥ ११॥
चतुर्द्वारमनौपम्यं चतुस्तोरणसंयुतम् ।
प्राकारैर्दशभिर्युक्ते. दुराधर्ष सुदुर्गमम्॥ १२॥
स्फाटिकैर्मण्डपैर्युक्ते देवराजगृहोपमम्।
स्वर्णस्तम्भसहरत्रश्न॒ सर्वतः समलंकृतम्॥ १३॥
हेमसोपानसंयुक्त॑ नानारत्नोपशोभितम्।
दिव्यसिंहासनोपेत॑ सर्वशोभासमन्वितम्॥ १४॥
सरोभि: स्वादुपानीयैर्नदीभिश्चोपशोभितम् |
नारायणपरै: शुद्धैर्वेदाध्ययनतत्परै: ॥ १५॥
योगिभिश्च समाकीर्ण ध्यायद्धि: पुरुष हरिम्।
स्तुवद्धि: सततं मन्त्रेनमस्यद्धिश्च माधवम्॥ १६ ॥
तत्र देवादिदेवस्थ विष्णोरमिततेजसः ।
राजान: सर्वकालं तु महिमानं प्रकुर्वते॥ १७॥
गायन्ति चेव नृत्यन्ति विलासिन्यो मनोरमा: ।
स्त्रियो यौवनशालिन्य: सदा मण्डनतत्परा: ॥ १८ ॥
इलावृते पद्मवर्णा जम्बूफलरसाशिनः |
त्रयोदश सहस्त्राणि वर्षाणां वे स्थिरायुष:॥ १९॥
भारते तु स्त्रिय: पुंसो नानावर्णा: प्रकीर्तिता: ।
नानादेवार्चने युक्ता नानाकर्माणि कुर्वते।
परमायु: स्मृतं तेषां श्ं वर्षाणि सुत्रता:॥ २०॥
नानाहाराश्च जीवन्ति पुण्यपापनिमित्तत: |
नवयोजनसाहस्नं॑ वर्षमेतत् प्रकीर्तितम्।
कर्मभूमिरियं विप्रा नराणामधिकारिणाम्॥ २१॥
महेन्द्रो मलय: सहा: शुक्तिमानृक्षपर्वत:।
विश्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वता: ॥ २२॥
इन्द्रद्युस्न: कशेरुमांस्ताप्रवर्णों गभस्तिमान्।
नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुण:॥ २३ ॥
अय॑ तु नवमस्तेषां द्वीप: सागरसंवृतः।
योजनानां सहस्त्ं तु द्वीपो5यं दक्षिणोत्तर:॥ २४॥
पूर्वे किरातास्तस्यान्ते पश्चिमे यवनास्तथा।
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या मध्ये शूद्रास्तथेव च॥ २५ ॥
२३३
वहाँ पारिजातके वनमें शुद्ध स्फटिकका बना हुआ
चन्द्रमाकी शुभ्र कान्तिके समान कान्तिवाला वासुदेवका
एक विमान है। चार द्वारों, चार तोरणोंसे समन्वित तथा
दस प्राकारोंसे युक्त (वह विमान) अनुपम, दुराधर्ष और
दुर्गम है। यह स्फटिकके मण्डपोंसे युक्त देवराजके
भवनके समान है तथा सभी ओरसे हजारों स्वर्ण-
स्तम्भोंसे अलंकृत है। इसमें सोनेकी सीढ़ियाँ हैं। यह
दिव्य सिंहासनोंसे समन्वित, सभी प्रकारकी शोभाओंसे
सम्पन्न तथा नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित है।
स्वादिष्ट जलवाले सरोवरों और नदियोंसे शोभित है।
वह स्थान नारायण-परायण, पवित्र, वेदाध्ययनमें तत्पर,
पुरुष हरिका ध्यान करनेवाले लोगों तथा निरन्तर
मन्त्रोंद्ारा माधवकी स्तुति करनेवाले और उन्हें नमस्कार
करनेवाले योगियोंसे व्याप्त रहता है॥ ११--१६॥
वहाँ राजा लोग देवोंके आदिदेव अमित तेजस्वी
विष्णुकी महिमाका सभी कालोंमें कीर्तन करते रहते
हैं *। श्रृंगार करनेमें तत्पर युवावस्थावाली एवं विलासिनी
मनोरम स्त्रियाँ यहाँ सदा नृत्य एवं गान करती रहती हैं।
इलावृतवर्षमें कमलके समान वर्णवाले जामुनके फलके
रसका सेवन करनेवाले तथा तेरह हजार वर्षकी स्थिर
आयुवाले व्यक्ति निवास करते हैं। भारतवर्षके स्त्री और
पुरुष अनेक वर्णके बताये गये हैं। ये विविध प्रकारके
देवताओंकी आराधनामें निरत रहते हैं और अनेक
प्रकारके कर्मोको करते हैं। हे सुत्रतो! इनकी परम आयु
सौ वर्षकी कही गयी है। अनेक प्रकारका आहार
करनेवाले वे अपने पुण्य-पापके निमित्तसे जीवित रहते
हैं। यह वर्ष नौ हजार योजन विस्तारवाला कहा गया है।
हे विप्रो! यह अधिकारी पुरुषोंकी कर्मभूमि है॥ १७--२१॥
महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमानू, ऋक्ष, विन्ध्य तथा
पारियात्र--ये सात कुलपर्वत यहाँ हैं। इन्द्रद्युम्न, कशेरुमान्,
ताम्रवर्ण, गभस्तिमान्ू, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व तथा
वारुण--(इन आठ द्वीपोंके अतिरिक्त) यह नवाँ द्वीप
सागरसे घिरा हुआ है। यह द्वीप दक्षिणोत्तरमें एक हजार
योजनमें फैला हुआ है। उसके पूर्वमें किरात, पश्चिममें
यवन और मध्यमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूुद्र
रहते हैं॥ २२--२५॥
* देवताओंके विमान एक अति श्रेष्ठ प्रासादके समान ही सभी सुविधाओंसे युक्त होते हैं-जैसे पुष्पक विमान, कपिलके द्वारा
देवहूतिको दिया गया कामग विमान आदि।
२३४
इज्यायुद्धवाणिज्याभिर्वर्तयन्त्यत्र मानवा: ।
सत्रवन्ते पावना नद्यः पर्वतेभ्यो विनिःसृता: ॥ २६॥
शतद्रुश्चन्धरभागा च सरयूर्यमुना तथा।
इरावती वितस्ता च विपाशा देविका कुहू: ॥ २७॥
गोमती धूतपापा च बाहुदा च दृषद्वती।
कौशिकी लोहिता चैव हिमवत्पादनि:सृता: ॥ २८ ॥
वेदस्मृतिर्वेदवती ब्रतघ्नी त्रिदिवा तथा।
पर्णाशा बन्दना चैव सदानीरा मनोरमा॥ २९॥
चर्मण्वती तथा दूर्या विदिशा वेत्रवत्यपि।
शिग्रु: स्वशिल्पापि तथा पारियात्राश्रया: स्मृता: ॥ ३०॥
नर्मदा सुरसा शोणा दशार्णा च महानदी।
मन्दाकिनी चित्रकूटा तामसी च पिशाचिका॥ ३१॥
चित्रोत्पला विपाशा च मज्जुला वालुवाहिनी ।
ऋक्षवत्पादजा नद्य: सर्वपापहरा नृणाम्॥ ३२॥
तापी पयोष्णी निर्विन्ध्या शीघ्रोदा च महानदी ।
वेण्या वैतरणी चैव बलाका च कुमुद्वती ॥ ३३॥
तोया चैव महागौरी दुर्गा चान्त:शिला तथा।
विन्ध्यपादप्रसूतास्ता नद्य: पुण्यजला: शुभा: ॥ ३४॥
गोदावरी भीमरथी कृष्णा वर्णा च मत्सरी।
तुड्भभद्रा सुप्रयोगा कावेरी च द्विजोत्तमा:।
दक्षिणापथगा नद्यः सहापादविनि:सृता:॥ ३५॥
ऋतुमाला ताम्रपर्णी पुष्पवत्युत्पलावती।
मलयात्नि:ःसृता नद्य: सर्वा: शीतजला: स्मृता: ॥ ३६॥
ऋषिकुल्या त्रिसामा च मन्दगा मन्दगामिनी।
रूपा पालासिनी चेव ऋषिका वंशकारिणी |
शुक्तिमत्पादसंजाता: सर्वपापहरा नृणाम्॥ ३७॥
आसां नद्युपनद्यश्च॒ शतशो द्विजपुंगवा:।
सर्वपापहरा: पुण्या: स्नानदानादिकर्मसु॥ ३८॥
तास्विमे कुरुपाञ्लाला मध्यदेशादयो जना:
पूर्वदवेशादिकाश्चैव. कामरूपनिवासिन: ॥ ३९॥
पुण्ड्रा: कलिड्डा मगधा दाक्षिणात्याश्व कृत्सनश: ।
तथापरान्ता: सौराष्ट्रा: शूद्राभीरास्तथार्बुदा: ॥| ४० ॥
मालका मालवाश्चैव पारियात्रनिवासिन:।
सौवीरा: सैन्धवा हूणा शाल्वा: कल्पनिवासिन: ॥ ४१॥
* कूर्मपुराण *
यहाँके मनुष्य यज्ञ, युद्ध और वाणिज्यद्वारा जीवन-
निर्वाह करते हैं। (यहाँ) पर्वतोंसे निकली हुई पवित्र
नदियाँ प्रवाहित होती हैं। शतद्गु, चन्द्रभागा, सरयू,
यमुना, इरावती, वितस्ता, विपाशा, देविका, कुहू,
गोमती, धूतपापा, बाहुदा, दूषद्वती, कोशिकी तथा लोहिता--
ये सभी नदियाँ हिमालयकी तलहटीसे निकली हैं।
वेदस्मृति, वेदवती, ब्रतघ्नी, त्रिदिवा, पर्णाशा, वन्दना,
सदानीरा, मनोरमा, चर्मण्वती, दूर्या, विदिशा, वेत्रवती,
शिग्रु तथा स्वशिल्पा-ये नदियाँ पारियात्र पर्वतका
आश्रय लेनेवाली कही गयी हैं॥ २६--३० ॥
नर्मदा, सुरसा, शोणा, दशार्णा, महानदी, मन्दाकिनी,
चित्रकूटा, तामसी, पिशाचिका, चित्रोत्पला, विपाशा,
मझुला तथा वालुवाहिनी नामक ये ऋक्षवान् पर्वतके
नीचेके भागसे निकली हुई नदियाँ मनुष्योंके सभी
पापोंका हरण करनेवाली हैं। तापी, पयोष्णी, निर्विन्ध्या,
शीघ्रोदा, महानदी, वेण्या, वेतरणी, बलाका, कुमुद्ठती,
तोया, महागौरी, दुर्गा और अन्त:शिला नामकी ये नदियाँ
विन्ध्यके निचले भागसे निकली हैं और शुभ हैं तथा
पवित्र जलवाली हैं। हे द्विजोत्तमो! गोदावरी, भीमरथी,
कृष्णा, वर्णा, मत्सरी, तुड्गभभद्रा, सुप्रयोगा तथा कावेरी--
ये नदियाँ दक्षिणजी ओर जानेवाली तथा सहापर्वतके
पादमूलसे निकली हैं॥ ३१--३५॥
ऋतुमाला, ताम्रपर्णी, पुष्पतती और उत्पलावती-
मलय पर्वतसे निकली ये सभी नदियाँ शीतल जलवाली
कही गयी हैं| ऋषिकुलल्या, त्रिसामा, मन्दगा, मन्दगामिनी,
रूपा, पालासिनी, ऋषिका तथा बंशकारिणी--ये नदियाँ
शुक्तिमान् पर्वतके निम्न भागसे उत्पन्न हैं और मनुष्योंके
सभी पापोंको हरण करनेवाली हैं॥ ३६-३७॥
हे द्विजश्रेष्ठो!। इन सभी (महानदियों)-की सैकड़ों
नदियाँ और उपनदियाँ हैं, जो सभी पापोंको हरनेवाली
तथा स्नान, दान आदि कर्मोमें पवित्र हैं। उनमें ये कुरु,
पाञ्चाल, मध्यदेश आदिके लोग, पूर्वके देशोमें
रहनेवाले, कामरूपके निवासी, पुण्डू, कलिड्भर तथा
मगध देशके लोग, समस्त दाक्षिणात्य तथा (इनके
अतिरिक्त) सौराष्ट्रवासी, शूद्र, आभीर, अर्बुद (पर्वतीय
जाति-विशेषके लोग), मालक, मालव, पारियात्रमें
रहनेवाले, सौवीर, सैन्धव, हूण, शाल्व, कल्पनिवासी,
* अध्याय ४६ +*
मद्रा रामास्तथाम्बष्ठा: पारसीकास्तथेव च।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा॥ ४२॥
चत्वारि भारते वर्ष युगानि कवयोउब्नुवन्।
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चान्यत्र न क्वचित्॥ ४३ ॥
यानि किंपुरुषाद्यानि वर्षाण्यष्टी महर्षय:।
न तेषु शोको नायासो नोद्वेग: क्षुद्धयं न च॥ ४४॥
स्वस्था: प्रजा निरातड्डगः सर्वदुःखबिवर्जिता: ।
२३५
मद्र, राम, अम्बष्ठ तथा पारसी लोग इन नदियोंके
किनारे रहते हैं और इन (नदियों)-का जल पीते
हैं॥ ३८--४२ ॥
कवियों (मनीषियों)-ने भारतवर्षमें--कृत (सत्य),
त्रेता, द्वापर तथा कलि--इन चार युगोंको बताया है। ये
(युग) अन्यत्र कहीं नहीं होते॥ ४३ ॥
हे महर्षियो ! किंपुरुष आदि जो आठ वर्ष हैं, उनमें
न शोक है, न परिश्रम है, न उद्वेगश है और न भूखका
भय है। (वहाँ) सारी प्रजा स्वस्थ, आतड्ू-रहित तथा
सभी प्रकारके दुःखोंसे मुक्त रहती है। सभी स्थिर
यौवनवाले होते हैं और अनेक प्रकारके भावोंसे रमण
रमन्ति विविधेर्भावै: सर्वाएच स्थिरयौवना: ॥ ४५ ॥ | करते रहते हैं ॥ ४४-४५ ॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहरत्रधां संहितायां पूर्वव्धिगे पञ्चचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४५ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें पैंतालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ४५॥
छियालीसवाँ अध्याय
विभिन्न पर्वतोंपर स्थित देवताओंके पुरोंका वर्णन तथा वहाँके निवासियों, नदियों,
सरोवरों और भवनोंका वर्णन, जम्बूद्वीपके वर्णनका उपसंहार
सूत उवाच
हेमकूटगिरे: श्रड्े महाकूटै: सुशोभनम्।
स्फाटिकं॑ देवदेवस्य विमान परमेष्ठटिन:॥ १॥
अथ देवादिदेवस्यथ भूतेशस्य त्रिशूलिन:।
देवा: सिद्धगणा यक्षा: पूजां नित्य॑ प्रकुर्वते॥ २॥
स देवो गिरिश: सार्थ महादेव्या महेश्वरः ।
भूते: परिव॒ृतो नित्यं भाति तत्र पिनाकधृक् ॥ ३॥
विभक्तचारुशिखर: कैलासो यत्र पर्वतः।
निवास: कोटियक्षाणां कुबेरस्थ च धीमतः।
तत्रापि देवदेवस्यथ भवस्यायतनं महत्॥ ४॥
मन्दाकिनी तत्र दिव्या रम्या सुविमलोदका।
नदी नानाविधे: पदोरनेके: समलंकृता॥ ५॥
देवदानवगन्धर्वयक्षराक्षसकिंनरै: ।
उपस्पृष्टनलला नित्यं सुपुण्या सुमनोरमा॥ ६॥
अन्याश्व नद्य: शतशः स्वर्णपदौरलंकृता:।
तासां कूलेषु देवस्य स्थानानि परमेष्टिनः।
देवर्षिगणजुष्टानि तथा नारायणस्य च॥७॥
सूतजी बोले--हेमकूट पर्वतके शिखरपर बड़े-
बड़े गुंबदोंसे सुशोभित स्फटिकसे बना हुआ देवाधिदेव
परमेष्ठी (शिव)-का एक विमान है। वहाँ देवता,
सिद्धगण तथा यक्ष देवोंके आदिदेव भूतेश त्रिशूलीकी
नित्य पूजा करते हैं। वे पिनाक धारण करनेवाले गिरिश
महेश्वर महादेवीके साथ भूतगणोंसे आवृत होते हुए
नित्य वहाँ सुशोभित होते हैं॥ १--३ ॥
जहाँ अलग-अलग सुन्दर शिखरोंवाला कैलास
पर्वत है तथा जहाँ करोड़ों यक्षों तथा बुद्धिमान् कुबेरका
निवास है, वहींपर देवाधिदेव शंकरका विशाल मन्दिर
है। वहाँ नाना प्रकारे अनेक कमलोंसे अलंकृत
अत्यन्त स्वच्छ जलवाली दिव्य एवं रमणीय मन्दाकिनी
नदी है। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षत और किंनर
उस अत्यन्त पवित्र तथा मनोरम नदीके जलका नित्य
स्पर्श (स्नान, आचमन आदि) करते हैं॥४--६॥
अन्य भी स्वर्णकमलोंसे सुशोभित वहाँ सैकड़ों
नदियाँ हैं। इनके तटोंपर देवताओं तथा ऋषिगणोंसे
सेवित परमेष्ठी देव और नारायणके मन्दिर हैं॥७॥
२३६
* कूर्मपुराण *
सितान्तशिखरे चापि पारिजातवनं शुभम्।
तत्र शक्रस्य विपुलं भवनं रत्नमण्डितम्।
स्फाटिकस्तम्भसंयुक्ते हेमगोपुरसंयुतम्॥ ८ ॥
तत्राथ देवदेवस्य विष्णोर्विश्वामरेशितु: ।
सुपुण्यं भवनं रम्यं सर्वरत्नोपशोभितम्॥ ९ ॥
तत्र नारायण: श्रीमान् लक्ष्म्या सह जगत्पति: ।
आस्ते सर्वामरश्रेष्ठ; पूज्यमान: सनातन:॥ १०॥
तथा च वसुधारे तु वसूनां रत्नमण्डितम्।
स्थानानामष्टकं॑ पुण्यं दुराधर्ष सुरद्विषाम्॥ ११॥
रत्नधारे गिरिवरे सप्तर्षीणां महात्मनाम्।
सप्ताश्रमाणि पुण्यानि सिद्धावासयुतानि तु॥ १२॥
तत्र हैमं चतुर्द्वरें वद्ननीलादिमण्डितम्।
सुपुण्यं सुमहत् स्थान ब्रह्मणो5व्यक्तजन्मन: ॥ १३॥
तत्र देवर्षयो विप्रा: सिद्धा ब्रह्मर्षयो5परे।
उपासते सदा देवं पितामहमज परम्॥ १४॥
स तेः सम्पूजितो नित्यं देव्या सह चतुर्मुख: ।
आस्ते हिताय लोकानां शान्तानां परमा गति: ॥ १५॥
अधेकश्रद्शिखे_ महापद्येरलंकृतम् |
स्वच्छामृतजलं पुण्यं सुगन्धं सुमहत् सर:॥ १६॥
जैगीषव्याश्रमं तत्र योगीन्द्रैरुपशोभितम्।
तत्रासौ भगवान् नित्यमास्ते शिष्ये: समावृतः ।
प्रशान्तदोषैरक्षुद्रेर््नह्मविद्धिर्महात्मभि:. ॥ १७॥
शट्बभों मनोहरशए्चेव कौशिक: कृष्ण एवं च।
सुमना वेदनादश्च शिष्यास्तस्य प्रधानत:॥ १८॥
सर्वे योगरता: शान्ता भस्मोद्धूलितविग्रहा: ।
उपासते महावीर्या ब्रह्मविद्यापरायणा:॥ १९॥
तेषामनुग्रहार्थाय यतीनां शान्तचेतसाम्।
सांनिध्यं कुरुते भूयो देव्या सह महेश्वरः॥ २०॥
अन्यानि चाश्रमाणि स्युस्तस्मिन् गिरिवरोत्तमे।
मुनीनां युक्तमनसां सरांसि सरितस्तथा॥ २१॥
तेषु योगरता विप्रा जापकाः संयतेन्द्रिया: ।
ब्रह्मण्यासक्तमनसो रमन्ते ज्ञानतत्परा:॥ २२॥
(हेमकूटके) अन्तिम शुभ्र शिखरपर पारिजात
वृक्षोंका सुन्दर वन है। वहाँ स्फटिकोंसे बने हुए खम्भोंसे
युक्त, स्वर्णसे बना गोपुरवाला इन्द्रका रत्नमण्डित एक
विशाल भवन है। वहाँपर समस्त देवताओंके नियामक
देवाधिदेव विष्णुका एक अत्यन्त पवित्र और रमणीय
भवन है, जो सभी रत्नोंसे सुशोभित है। वहाँ संसारके
स्वामी, सभी देवताओंमें श्रेष्ठ, पूज्यमान, सनातन श्रीमान्
नारायण लक्ष्मीके साथ निवास करते हैं॥८--१०॥
इसी प्रकार वसुधार नामक पर्वतपर (आठ) वसुओंके
रत्नोंसे मण्डित, देवताओंसे द्वेष करनेवाले असुरोंके
लिये अपराजेय पवित्र आठ स्थान हैं। रत्नधार नामक
श्रेष्ठ पर्वतपर सिद्धोंक आवाससे युक्त महात्मा सप्तर्षियोंके
पवित्र सात आश्रम हैं। वहाँ अव्यक्तजन्मा ब्रह्माका सोनेसे
बना हुआ चार द्वारोंवाला, हीरे एवं नील मणि आदिसे
मण्डित अत्यन्त पवित्र विशाल स्थान है॥ ११--१३॥
हे विप्रो! वहाँ देवर्षि, ब्रह्मर्षि, सिद्ध तथा दूसरे लोग
अजन्मा परम पितामह देवकी सदा उपासना करते हैं।
उनके द्वारा नित्य भलीभाँति पूजित शान्तचित्तवालोंके
परम गतिरूप वे चतुर्मुख ब्रह्मा देवीके साथ लोकोंके
कल्याणके लिये वहाँ रहते हैं॥ १४-१५॥
(उस हेमकूटके) एक ऊँचे शिखरपर महापकोंसे
अलंकृत, सुगन्धित, स्वच्छ एवं अमृतके समान जलवाला
एक पवित्र विशाल तालाब है। वहाँपर (महर्षि) जेगीषव्यका
योगीन्द्रोंसे सुशोभित एक आश्रम है। शान््त दोषोंवाले
महान् ब्रह्मविज्ञानी एवं महात्मास्वरूप शिष्योंसे
आवृत भगवान् (जैगीषव्य) वहाँ नित्य निवास करते
हैं॥ १६-१७॥
शट्डू, मनोहर, कौशिक, कृष्ण, सुमना तथा वेदनाद
उनके प्रधान शिष्य हैं। योगपरायण, शान्त, भस्मसे उपलिप्त
शरीरवाले, महावीर्य (उत्कृष्ट शक्तिसम्पन्न) तथा ब्रह्मविद्या-
परायण वे सभी (भगवान्की) उपासना करते हैं। उन
शान्तचित्त यतियोंपर अनुग्रह करनेके लिये महेश्वर देवीके
साथ (उस स्थानपर) निवास करते हैं॥ १८--२०॥
उस उत्तम गिरिश्रेष्ठपर योगयुक्त मनवाले मुनियोंके
अन्य कई आश्रम तथा सरोवर और नदियाँ हैं। उनमें
योग-परायण, जप करनेवाले, संयत इन्द्रियोंवाले एवं
ब्रह्मनिष्ठ मनवाले, ज्ञानतत्पर विप्रगण रमण करते हैं
* अध्याय ४६ * २३७
आत्मन्यात्मानमाधाय शिखान्तान्तरमास्थितम्
ध्यायन्ति देवमीशानं येन सर्वमिंदं ततम्॥ २३॥
सुमेघे वासवस्थानं सहस्त्रादित्यसंनिभम्।
तत्रास्ते भगवानिन्द्र: शच्या सह सुरेश्वर:॥ २४॥
गजशैले तु दुर्गाया भवनं मणितोरणम्।
आस्ते भगवती दुर्गा तत्र साक्षान्महेश्वरी ॥ २५॥
उपास्यमाना विविधे: शक्तिभेदैरितस्ततः।
पीत्वा योगामृतं लब्ध्वा साक्षादानन्दमैश्वरम्॥। २६ ॥
सुनीलस्य गिरे: श्रड्े नानाधातुसमुज्ले।
राक्षसानां पुराणि स्यु: सरांसि शतशो द्विजा:॥ २७॥
तथा पुरशतं विप्रा शतश्रुद्धे महाचले।
स्फाटिकस्तम्भसंयुक्त यक्षाणाममितौजसाम्॥ २८ ॥
श्वेतोदरगिरे: श्रुद्े सुपर्णस्य महात्मन:।
प्राकारगोपुरोपेते मणितोरणमण्डितम्॥ २९॥।
स तत्र गरुड: श्रीमान् साक्षाद् विष्णुरिवापर: ।
ध्यात्वास्ते तत् पर ज्योतिरात्मानं विष्णुमव्ययम्॥ ३० ॥
अन्यच्च भवन पुण्य श्रीश्रड़े मुनिपुंगवा:।
श्रीदेव्या: सर्वरत्नाढ्यं हैमं सुमणितोरणम्॥ ३१॥
तत्र सा परमा शक्तिर्विष्णोरतिमनोरमा।
अनन्तविभवा लक्ष्मीर्जगत्सम्मोहनोत्सुका॥ ३२॥
अध्यास्ते देवगन्धर्वसिद्धचारणवन्दिता।
विचिन्त्य जगतो योनि स्वशक्तिकिरणोज्वला ॥ ३३॥
तत्रेव देवदेवस्यथ विष्णोरायतनं महत्।
सरांसि तत्र चत्वारि विचित्रकमलाश्रया॥ ३४॥
तथा सहस््रशिखरे विद्याधरपुराष्टटकम्।
रतलसोपानसंयुक्त सरोभिश्चोपशोभितम्॥ ३५॥
(समाधिस्थ रहते हैं)। (वे) स्वयंमें आत्मनिष्ठ होकर
शिखाके अन्तिम मूलभागए( ब्रह्मरन्ध )-में स्थित ईशान
देवका ध्यान करते हैं, जिनसे इस सम्पूर्ण (जगत्)-
का विस्तार हुआ है। सुमेघ (नामक पर्वत)-पर हजारों
सूर्योके समान प्रकाशमान इन्द्रका एक स्थान है।
देवताओंके राजा भगवान् इन्द्र शवीके साथ वहाँ निवास
करते हैं। गजशैलपर दुर्गाका मणियोंसे बने तोरणवाला
एक भवन है। साक्षात् महेश्वरी भगवती दुर्गा वहाँ
निवास करती हैं | योगामृतका पान करके अर्थात् योगको
आत्मसात् कर लेनेके कारण साक्षात् योगेश्वरी और
(ईश्वर अर्धनारीश्वर महेश्वरकी अर्धाड्रिनी होनेके
कारण) ईश्वरका साक्षात् आनन्द प्राप्तरः विविध
प्रकारकी शक्तियोंके रूपमें इतस्तत: उपासित होती
रहती हैं॥ २१--२६ ॥
हे द्विजो! विविध धातुओंसे देदीप्यमान सुनील
पर्वतके शिखरपर राक्षसोंके नगर तथा सैकड़ों सरोवर
हैं। विप्रो! इसी प्रकार शतश्रृंग नामक महान् पर्वतपर
स्फटिक स्तम्भोंसे बने हुए अमित तेजस्वी यक्षोंके सौ
नगर हैं। श्वेतोदर पर्वतके शिखरपर महात्मा सुपर्ण
(गरुड)-का अनेक प्राकार और गोपुरोंसे युक्त तथा
मणियोंसे बने तोरणोंसे मण्डित पुर है। वहाँ साक्षात्
दूसरे विष्णुके समान वे श्रीमानू गरुइ उन परम
ज्योति:स्वरूप आत्मरूप अव्यय विष्णुका ध्यान करते
रहते हैं॥ २७--३० ॥
मुनिश्रेष्ठो ! श्रीश्रृागपर श्रीदेवीका दूसरा भी एक
पवित्र भवन है, जो सभी रत्नोंसे पूर्ण तथा स्वर्णसे बना
हुआ है और सुन्दर मणियोंसे बने तोरणवाला है। वहाँ
विष्णुकी अति मनोरम परम शक्ति (वे लक्ष्मी)
संसारके मूल कारण (विष्णु)-का चिन्तन करती हुई
विशेषरूपसे निवास करती हैं। वे लक्ष्मी अनन्त
ऐश्वर्यवाली, संसारको मोहित करनेमें उत्सुक, देवताओं,
गन्धर्वों, सिद्धों तथा चारणोंसे वन्दित हैं और अपनी
शक्तिकी किरणोंसे प्रकाशित हैं। वहीं देवाधिदेव
विष्णुका विशाल भवन है तथा वहींपर विचित्र
कमलोंवाले चार सरोवर हैं। इसी प्रकार सहस्शिखर
(पर्वत)-पर रत्नोंकी सीढ़ियोंसे बने हुए और सरोवरोंसे
सुशोभित विद्याधरोंके आठ पुर हैं॥३१--३५॥
२३८
नद्यो विमलपानीयाश्चित्रनीलोत्पलाकरा: ।
कर्णिकारवनं दिव्यं तत्रास्ते शंकरोमया।॥ ३६॥।
पारियात्रे महाशैले महालक्ष्म्या: पुरं शुभम्।
रम्यप्रासादसंयुक्ते. घण्टाचामरभूषितम्॥ ३७॥
नृत्यद्धिरप्सर:सट्डेरितश्चेतश्च शोभितम्।
मृदड़मुरजोदघुष्ट _ वीणावेणुनिनादितम्॥ ३८ ॥
गन्धर्वकिंनराकीर्ण संवृतं सिद्धपुंगव: ।
भास्वद्धित्तिसमाकीर्ण महाप्रासादसंकुलम्॥ ३९॥
गणेश्वराड्डनाजुष्टे धार्मिकाणां सुदर्शनम्।
तत्र सा बसते देवी नित्यं योगपरायणा॥ ४०॥
महालक्ष्मीमहादेवी त्रिशूलवरधारिणी।
त्रिनेत्रा सर्वशक्तीभि: संव॒ृता सदसन्मया।
पश्यन्ति तत्र मुनयः सिद्धा ये ब्रह्मवादिन: ॥ ४१॥।
सुपाश्व स्योत्ते भागे सरस्वत्या: पुरोत्तमम्।
सरांसि सिद्धजुष्टानि देवभोग्यानि सत्तमा: ॥ ४२॥
पाण्डुरस्य गिरे: श्रृड्धे विचित्रद्गुमसंकुले।
गन्धर्वाणां पुरशतं दिव्यस्त्रीभि: समावृतम्॥ ४३ ॥
तेषु नित्यं मदोत्सिक्ता वरनार्यस्तथेव च।
क्रीडन्ति मुदिता नित्यं विलासैभोंगतत्परा: ॥ ४४॥
अज्जनस्य गिरे: श्रृड़े नारीणां पुरमुत्तमम्।
वसन्ति तत्राप्सरसो रम्भाद्या रतिलालसा: ॥ ४५७॥
चित्रसेनादयो यत्र समायान्त्यथिन: सदा।
सा पुरी सर्वरताह्या नैकप्रस्त्रवणैर्युता॥ ४६॥
अनेकानि पुराणि स्युः कौमुदे चापि सु्रता: ।
रुद्राणां शान्तरजसामी श्वरापितचेतसाम्॥ ४७॥
तेषु रुद्रा महायोगा महेशान्तरचारिण:।
समासते पर ज्योतिरारूढा: स्थानमुत्तमम्॥ ४८ ॥
* कूर्मपुराण *
वहाँ स्वच्छ जलवाली नदियाँ तथा अनेक प्रकारके
प्रफुल्ति नीलकमल हैं और कर्णिकारका* एक दिव्य
वन है, उमाके साथ शंकर वहाँ विराजमान रहते हैं।
पारियात्र नामक महाशैलपर महालक्ष्मीका सुन्दर पुर है,
जो रमणीय प्रासादोंसे युक्त, घण्टा एवं चामरसे अलंकृत,
इतस्तत: नृत्य करती हुई अप्सराओंके समूहसे सुशोभित,
मृदंग एवं मुरजकी ध्वनिसे गुज्जित, वीणा तथा वेणुकी
झंकारसे निनादित, गन्धर्व तथा किंनरोंसे आकीर्ण, श्रेष्ठ
सिद्धोंसे आवृत, चमकते हुए दीवालोंसे पूर्ण, बड़े-बड़े
महलोंसे घनीभूत, गणेश्वरोंकी अड्भरनाओंसे सेवित और
धार्मिक जनोंके द्वारा सरलतापूर्वक प्रत्यक्ष करने योग्य
है। वहाँ योगपरायण, श्रेष्ठ त्रिशूल धारण करनेवाली,
तीन नेत्रवाली, सभी शक्तियोंसे आवृत और सदसन्मयी
देवी महालक्ष्मी महादेवी नित्य निवास करती हैं।
वहाँ जो ब्रह्मवादी मुनि और सिद्ध हैं--वे उनका दर्शन
करते हैं॥ ३६--४१ ॥
सुपाश्वके उत्तरभागमें सरस्वतीका उत्तम पुर है।
श्रेष्ठ जनो ! वहाँ देवताओंके उपभोग करने योग्य तथा
सिद्धोंस सेवित अनेक सरोवर हैं। पाण्डुर पर्वतके
शिखरपर अनेक प्रकारके वृक्षोंसे भरे हुए और दिव्य
स्त्रियोंसे परिपूर्ण गन्धवोके सौ पुर हैं। उनमें अनेक
प्रकारके भोगोंमें तत्पर और काम-मदसे उन्मत्त श्रैष्ठ
स्त्रियाँ तथा पुरुष अनेक प्रकारके विलासोंद्वारा भोगमें
तत्पर रहते हैं और प्रसन्नतापूर्वक सदा क्रीडा (मनोविनोद)
करते रहते हैं॥४२--४४॥
अज्नगिरिके शिखरपर स्त्रियोंका श्रेष्ठ पुर है,
जिसमें रतिकी इच्छा करनेवाली रम्भा आदि अप्सराए
निवास करती हैं। चित्रसेन आदि (गन्धर्व) जहाँ सदा
अभिलाषीके रूपमें आया करते हैं, वह पुरी सभी रलोंसे
परिपूर्ण तथा अनेक झरनोंसे सम्पन्न है॥४५-४६॥
हे सुत्रतो ! कौमुद (पर्वत)-पर भी शान्त रजोगुणवाले
(रजोगुणके कारण होनेवाली चंचलतासे रहित) तथा
शंकरमें अर्पित चित्तवाले रुद्रोंके अनेक पुर हैं, उनमें
परम ज्योति अर्थात् परब्रह्मका प्रत्यक्ष करनेवाले तथा
महेशके अन्तरमें विचरण करनेवाले महायोगी रुद्रगण
रहते हैं, यह स्थान बहुत उत्तम है॥ ४७-४८॥
* कर्णिकार--वृक्षविशेष, कठचम्पा या कर्णियार नामसे कई जगहोंमें प्रसिद्ध ।
२३९
* अध्याय ४६ *
पिज्जरस्य गिरे: श्रेड़े गणेशानां पुरत्रयम्।
नन्दीश्वरस्य कपिले तत्रास्ते सुयशा यति:॥ ४९॥
तथा च जारुधे: श्रुद्भे देवदेवस्थ धीमत:।
दीप्तमायतनं पुण्यं भास्करस्यामितौजस: ॥ ५०॥
तस्यैवोत्तरदिग्भागे चन्द्रस्थानमनुत्तमम्।
रमते तत्र रम्योडइसौ भगवान् शीतदीधिति: ॥ ५१॥
अन्यच्च भवन दिव्यं हंसशैले महर्षय:।
सहसत्रयोजनायामं॑ सुवर्णमणितोरणम्॥ ५२॥
तत्रास्ते भगवान् ब्रह्मा सिद्धसड्डे रभिष्टत: ।
सावित्र्या सह विश्वात्मा वासुदेवादिभिर्युत: ॥ ५३ ॥
तस्य दक्षिणदिग्भागे सिद्धानां पुरमुत्तमम्।
सनन्दनादयो यत्र वसन्ति मुनिपुंगवा:॥ ५४॥
पञ्चशैलस्य शिखरे दानवानां पुरत्रयम्।
नातिदूरेण तस्याथ देैत्याचार्यस्य धीमत:॥ ५५ ॥
सुगन््धशैलशिखरे सरिद्धिरुपशोभितम् |
कर्दमस्याश्रमं पुण्यं तत्रास्ते भगवानृषि:॥ ५६॥
तस्थेव पूर्वदिग्भागे किल्ञिद् वे दक्षिणाश्रिते |
सनत्कुमारो भगवांस्तत्रास्ते ब्रह्मवित्तम:॥ ५७॥
सर्वेष्वेतेषु शैलेषु तथान्येषु मुनीश्चरा: ।
सरांसि विमला नद्यो देवानामालयानि च॥ ५८॥
सिद्धलिड्रानि पुण्यानि मुनिभिः स्थापितानि तु।
वन्यान्याश्रमवर्याणि संख्यातुं नेव शक्नुयाम्॥ ५९॥
एष संक्षेपतः प्रोक्तो जम्बूद्वीपस्य विस्तर:।
न शकयं विस्तराद वक्तुं मया वर्षशतैरपि॥ ६० ॥
पिझर गिरिके शिखरपर गणेशोंके तीन पुर तथा
(वहीं) कपिल(शिखर)-पर नन्दीश्वरकी पुरी है, वहाँ
उत्तम यशवाले यतिगण निवास करते हैं। इसी प्रकार
जारुधि पर्वतके शिखरपर अमित तेजस्वी बुद्धिमान्
देवाधिदेव भास्करका दीपियुक्त पवित्र भवन है।
उसीके उत्तर दिग्भागमें चन्द्रमाका उत्तम स्थान है,
वहाँ शीत किरणोंवाले ये रम्य भगवान् (चन्द्रमा)
रहते हैं॥४९--५१॥
हे महर्षियो! हंसशैलपर एक दूसरा दिव्य भवन है,
जो एक हजार योजन विस्तारवाला है और सुवर्ण तथा
मणिसे निर्मित तोरणवाला है। वहाँ सिद्धोंके समूहसे
सेवित और वासुदेव आदिसे युक्त विश्वात्मा भगवान्
ब्रह्मा सावित्रीके साथ रहते हैं । उसके दक्षिण दिग्विभागमें
सिद्धोंका श्रेष्ठ पुर है, जहाँ सनन्दन आदि श्रेष्ठ मुनि
रहते हैं॥५२--५४॥
पञ्चशैलके शिखरपर दानवोंके तीन पुर हैं। उसके
समीप ही सुगन्ध शैलके शिखरपर दैत्योंके आचार्य
बुद्धिमानू भगवान् कर्दम ऋषिका नदियोंसे सुशोभित
एक पवित्र आश्रम है॥ ५५-५६॥
उसीके पूर्व दिग्भागमें कुछ दक्षिण दिशाकी ओर
ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवान् सनत्कुमार रहते हैं। हे
मुनीश्वरो! इन सभी शैलों तथा अन्य शैलोंमें भी
अनेक सरोवर, स्वच्छ जलवाली नदियाँ और देवताओंके
भवन हैं। वहाँ जो मुनियोंद्वारा स्थापित पवित्र सिद्ध
लिड्र, वन तथा श्रेष्ठ आश्रम हैं, उनकी गणना मैं
नहीं कर सकता। यह संक्षेपमें जम्बूद्वीपका विस्तार
बतलाया गया, सैकड़ों वर्षोमें भी मैं इसके विस्तारका
वर्णन नहीं कर सकता॥ ५७--६० ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहर््रधां संहितायां पूर्वव्धाये बद्चत्वारिशोउध्याय: ॥ ४६ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें छियालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ४६॥
२४०
* कूर्मपुराण *
सैंतालीसवाँ अध्याय
प्लक्ष आदि महाद्वीपों, वहाँके पर्वतों, नदियों तथा निवासियोंका वर्णन, एवेतद्वीपमें
स्थित नारायणपुरका वर्णन, वहाँ बैकुण्ठमें रहनेवाले लक्ष्मीपति
शेषशायी नारायणकी महिमाका ख्यापन
सूत उवाच
जम्बूद्वीपस्य विस्ताराद् द्विगुणेन समन्ततः।
संवेष्टयित्वा क्षारोदं प्लक्षद्वीपो व्यवस्थित: ॥ १ ॥
प्लक्षद्वीपे च विप्रेन्द्रा: सप्तासन् कुलपर्वता: ।
ऋज्वायता: सुपर्वाण: सिद्धसड्भधनिषेविता: ॥
गोमेद: प्रथमस्तेषां द्वितीयश्चवन्द्र उच्यते।
नारदो दुन्दुभिश्चेव सोमश्च ऋषभस्तथा।
वैशज्वाज: सप्तम: प्रोक्तो त्रह्मणो5त्यन्तवल्लभ: ॥
तत्र देवर्षिगन्धवें: सिद्धैशच्च भगवानज:।
उपास्यते स विश्वात्मा साक्षी सर्वस्य विश्वसृक् ॥।
तेषु पुण्या जनपदा नाधयो व्याधयो न च।
न तत्र पापकर्तार: पुरुषा वा कथज्ञन॥
तेषां नद्यरच सप्तैव वर्षाणां तु समुद्रगा:।
तासु ब्रह्मर्षयो नित्यं पितामहमुपासते॥
अनुतप्ता शिखी चैव विपापा त्रिदिवा कृता।
अमृता सुकृता चैव नामतः परिकीर्तिता:॥
क्षुद्रनद्यस्त्वसंख्याता: सरांसि सुबहून्यपि।
न चैतेषु युगावस्था पुरुषा वे चिरायुष:॥
आर्यकाः कुरवाश्चैव विदशा भाविनस्तथा।
२
ड
द
हि
ब्रह्मक्षत्रियविदशूद्रास्तस्मिन् द्वीपे प्रकीर्तिता: ॥ ९ ॥
इज्यते भगवान् सोमो वर्णैस्तत्र निवासिभि: ।
तेषां च सोमसायुज्यं सारूप्यं मुनिपुंगवा:॥ १०॥
सर्वे धर्मपरा नित्यं नित्यं मुदितमानसा:।
पशञ्चनवर्षसहस्त्राणि जीवन्ति चर निरामया:॥ ११॥
प्लक्षद्वीपप्रमाणं तु द्विगुणेन समन्ततः।
संवेष्टधेक्षुससाम्भोधिं शाल्मलि: संव्यवस्थित:॥ १२॥
सप्त वर्षाणि तत्रापि सप्तैव कुलपर्वता:।
ऋण्वायता: सुपर्वाण: सप्त नद्यश्च सुब्रता:॥ १३॥
सूतजी बोले--जम्बूद्वी पके विस्तारसे दुगुने विस्तारमें
चारों ओरसे क्षार सागरको आवृतकर प्लक्षद्वीप स्थित है।
श्रेष्ठ विप्रो! प्लक्षद्वीपमें सीधे विस्तारवाले, सुन्दर
पर्वोवाले तथा सिद्धोंके समूहोंसे सेवित सात कुलपर्वत
हैं। उनमें गोमेद पहला है, दूसरा चन्द्र पर्वत कहलाता
है। इसी प्रकार नारद, दुन्दुभि, सोम, ऋषभ तथा सातवा
वैभ्राज नामक पर्वत कहा गया है, जो ब्रह्माको अत्यन्त
प्रिय है। वहाँ देवर्षियों, गन्धर्वों तथा सिद्धोंके द्वारा सबके
साक्षी, विश्वकी सृष्टि करनेवाले विश्वात्मा भगवान्
अज (ब्रह्मा)-की उपासना की जाती है॥ १--४॥
उन (पर्वतों)-में पवित्र जनपद हैं। वहाँ न कोई
आधि है, न कोई व्याधि। वहाँ रहनेवाले पुरुष किसी
भी प्रकारका पाप नहीं करते हैं। समुद्रकी ओर
जानेवाली उन वर्षपर्वतोंकी सात नदियाँ हैं, उनमें ब्रह्मर्ष
नित्य पितामहकी उपासना करते हैं। (वे नदियाँ)
अनुतप्ता, शिखी, विपापा, त्रिदिवा, कृता, अमृता और
सुकृता नामवाली कही गयी हैं॥५--७॥
इनके अतिरिक्त असंख्य छोटी-छोटी नदियाँ तथा
बहुतसे सरोवर भी वहाँपर हैं। यहाँ (सत्य, त्रेता आदि
रूपमें )युगोंकी व्यवस्था नहीं है और सभी पुरुष दीर्घावु
होते हैं। इस द्वीपमें आर्यक, कुरव, विदश तथा भावी
नामक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र कहे गये हैं॥ ८-९॥
हे मुनिश्रेष्ठो! यहाँ रहनेवाले विभिन्न वर्णवालोंके
द्वारा भगवान् सोमकी पूजा की जाती है, उन्हें सोमका
सायुज्य और सारूप्य (नामक मोक्ष) प्राप्त होता है।
वहाँके सभी लोग नित्य धर्मपरायण और नित्य
प्रसन्नचित्त रहते हैं तथा रोगरहित होकर पाँच हजार
वर्षतक जीवित रहते हैं। प्लक्षद्वीपके दुगुने प्रमाणमें
चारों ओर इक्षुससके समुद्रको आवेष्टितकर शाल्मलि
नामक द्वीप स्थित है। वहाँ भी सात वर्ष और सात
ही कुलपर्वत हैं, (वे पर्वत) सीधे फैले हुए और
सुन्दर पर्वोवाले हैं। हे सुब्रतो! (वहाँ) सात नदियाँ
भी हैं॥१०--१३॥
* अध्याय ४७9 +
कुमुदश्चोत्नतश्चैव तृतीयश्च बलाहक:ः।
द्रोण: कड्ढस्तु महिष: ककुद्वान् सप्त पर्वता:॥ १४॥
योनी तोया वितृष्णा च चन्द्रा शुक्ला विमोचिनी।
निवृत्तिश्चेति ता नद्य: स्मृता पापहरा नुणाम्॥ १५॥
नतेषु विद्यते लोभ: क्रोधो वा द्विजसत्तमा: ।
न चैवास्ति युगावस्था जना जीवन्त्यनामया:॥ १६॥
यजन्ति सततं तत्र वर्णा वायुं सनातनम्।
तेषां तस्याथ सायुज्यं सारूप्यं च सलोकता॥ १७॥
कपिला ब्राह्मणा: प्रोक्ता राजानश्वारुणास्तथा।
पीता वैश्या: स्मृता: कृष्णा द्वीपेडस्मिन् वृषला द्विजा:॥ १८ ॥
शाल्मलस्य तु विस्ताराद द्विगुणेन समन्ततः ।
संवेष्ट्य तु सुरोदाब्धिं कुशद्वीपो व्यवस्थित: ॥ १९॥
विद्यमश्नेव हेमश्न द्युतिमान् पुष्पवांस्तथा।
कुशेशयो हरिश्चाथ मन्दर: सप्त पर्वता:॥ २०॥
धुतपापा शिवा चैव पवित्रा सम्मता तथा।
विद्युदम्भा मही चेति नद्यस्तत्र जलावहा:॥ २१॥
अन्याश्व शतशो विप्रा नद्यो मणिजला: शुभा:।
तासु ब्रह्माणमीशानं देवाद्या: पर्युपासते॥ २२॥
ब्राह्मणा द्रविणो विप्रा: क्षत्रिया: शुष्मिणस्तथा।
वैश्या: स्नेहास्तु मन्देहा: शूद्रास्तत्र प्रकीर्तिता: ॥ २३॥
सर्वे विज्ञानसम्पन्ना मैत्रादिगुणसंयुता:।
यथोक्तकारिण: सर्वे सर्वे भूतहिते रता:॥ २४॥
यजन्ति विविधेरय॑ज्ञेत्रह्माणं परमेष्टिनम ।
तेषां च ब्रह्मसायुज्यं सारूप्यं च सलोकता॥ २५॥
कुशद्वीपस्य विस्ताराद द्विगुणेन समन्ततः ।
क्रौद्धद्वीपस्ततो विप्रा वेष्टयित्वा घृतोदधिम्॥ २६ ॥
क्रौज्चो वामनकश्चैव तृतीयश्चान्धकारक: ।
देवावृच्च विविन्दश्च पुण्डरीकस्तथैव च।
नाम्ना च सप्तम: प्रोक्त: पर्वतो दुन्दुभिस्वन: ॥ २७॥
गौरी कुमुद्बती चैव संध्या रात्रिर्मनोजवा।
ख्यातिश्न पुण्डरीका च नद्यः प्राधान्यतः स्पृता: ॥ २८ ॥
पुष्करा: पुष्कला धन्यास्तिष्यास्तस्य क्रमेण वै।
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्राश्चैव द्विजोत्तमा: ॥ २९॥
२४१
कुमुद, उन्नत, तीसरा बलाहक, द्रोण, कड्ढू, महिष
तथा ककुद्वानू--ये सात (कुल) पर्वत हैं। योनी, तोया,
वितृष्णा, चन्द्रा, शुक्ला, विमोचिनी तथा निवृत्ति-ये
सात नदियाँ मनुष्योंका पाप हरण करनेवाली कही गयी
हैं। हे द्विजश्रेष्ठो! उनमें (यहाँके निवासियोंमें) न लोभ
है, न क्रोध है और न (यहाँ) युगकी व्यवस्था ही है।
यहाँके सभी लोग रोगरहित होकर जीवित रहते हैं।
यहाँके सभी वर्णोके लोग निरन्तर सनातन वायुदेवका
यजन करते हैं, इन्हें उन (वायुदेव)-का सायुज्य, सारूप्य
तथा सालोक्य (नामक मोक्ष) प्राप्त होता है॥ १४--१७॥
हे द्विजो! इस (शाल्मलि) द्वीपमें ब्राह्मण कपिल
वर्णके और क्षत्रिय अरुण वर्णके कहे गये हैं। वैश्य
पीतवर्णके तथा वृषल (शूद्र) कृष्ण वर्णके बतलाये गये
हैं। शाल्मलद्वीपके दुगुने विस्तारमें चारों ओरसे सुरोदसागरको
आवेष्टित कर कुशद्दवीप स्थित है। विद्रुम, हेम, द्युतिमान्,
पुष्पवानूु, कुशेशय, हरि तथा मन्दर--ये सात (कुल)
पर्वत हैं । यहाँ धुतपापा, शिवा, पवित्रा, संमता, विद्युदम्भा
और मही (नामक) जलसे पूर्ण नदियाँ हैं ॥ १८--२१॥
हे विप्रो! यहाँ मणिके समान स्वच्छ जलवाली
अन्य भी सैकड़ों नदियाँ हैं। इनमें देवता आदि ईशान
ब्रह्माकी उपासना करते हैं। विप्रो! वहाँके ब्राह्मण द्रविण,
क्षत्रिय शुष्मिण, वैश्य स्नेह तथा शूद्र मन्देह कहे गये
हैं । यहाँके सभी लोग विशिष्ट ज्ञानसे सम्पन्न, मैत्री आदि
गुणोंसे समन्वित, विहित कर्मोको करनेवाले तथा सभी
प्राणियोंक हित-चिन्तनमें लगे रहते हैं। ये विविध
यज्ञोंद्वारा परमेष्ठी ब्रह्माका यजन करते हैं और उन्हें
ब्रह्माका सायुज्य, सारूप्य तथा सालोक्य (मोक्ष) प्राप्त
होता है॥ २२--२५॥
हे विप्रो! कुशद्वीपके दुगुने विस्तारमें चारों ओर
घृतसमुद्रको आवेष्टित करके क्रौछद्वीप स्थित है।
क्रौज्ध, वामनक, अन्धकारक, देवावृत्, विविन्द, पुण्डरीक
तथा दुन्दुभिस्वन नामक सात पर्वत यहाँ कहे गये
हैं। गौरी, कुमुद्बती, संध्या, रात्रि, मनोजवा, ख्याति
तथा पुण्डरीक--ये प्रधान नदियाँ यहाँ कही गयी हैं।
हे द्विजोत्तमो! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-ये
क्रमश: पुष्कर, पुष्कल, धन्य तथा तिष्य नामसे यहाँ
कहे जाते हैं॥ २६--२९॥
२४२
अर्चयन्ति महादेवं॑ यज्ञदानसमाधिभि: ।
ब्रतोषवासैर्विविधेहों मि: स्वाध्यायतर्पणै: ॥ ३० ॥
तेषां वे रुद्रसायुज्यं सारूप्यं चातिदुर्लभम्।
सलोकता च सामीप्यं जायते तत्प्रसादत: ॥ ३१॥
ऋौद्धद्वीपस्य विस्ताराद द्विगुणेन समन्ततः ।
शाकद्दवीप: स्थितो विप्रा आवेष्ट्य दधिसागरम्॥ ३२॥
उदयो रैवतश्चैव श्यामाको5स्तगिरिस्तथा।
आम्बिकेयस्तथा रम्य: केशरी चेति पर्वता: ॥ ३३॥
सुकुमारी कुमारी च नलिनी रेणुका तथा।
इक्षुका धेनुका चैव गभस्तिश्चेति निम्नगा: ॥ ३४॥
आसां पिबन्त: सलिलं जीवन्ते तत्र मानवा: |
अनामया ह्ाशोकाश्च रागद्वेषविवर्जिता: ॥ ३५॥
मगाश्चन मगधाश्चैव मानवा मन्दगास्तथा।
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्राश्चात्र क्रमेण तु॥। ३६ ॥
यजन्ति सततं देवं सर्वलोकेकसाक्षिणम्।
ब्रतोपवासैर्विविधे्देबदेव॑. दिवाकरम्॥ ३७॥
तेषां सूर्येण सायुज्यं सामीप्यं च सरूपता।
सलोकता च विप्रेन्द्रा जायते तत्प्रसादत:॥ ३८ ॥
शाकद्दीपं समावृत्य क्षीरोद: सागर: स्थित: ।
श्वेतद्वीपश्च॒ तन्मध्ये नारायणपरायणा:॥ ३९॥
तत्र पुण्या जनपदा नानाश्चर्यसमन्विता: |
श्वेतास्तत्र नरा नित्यं जायन्ते विष्णुतत्परा: ॥ ४० ॥
नाधयो व्याधयस्तत्र जरामृत्युभयं न च।
क्रोधलोभविनिर्मुक्ता मायामात्सर्यवर्जिता: ॥ ४१॥
नित्यपुष्टा निरातड्डरा नित्यानन्दाश्व भोगिन: ।
नारायणपरा: सर्वे नारायणपरायणा: ॥ ४२॥
केचिद् ध्यानपरा नित्यं योगिन: संयतेन्द्रिया: ।
केचिजपन्ति तप्यन्ति केचिद विज्ञानिनोउपरे॥ ४३ ॥
अन्ये निर्बीजयोगेन ब्रह्मभावेन भाविता:।
ध्यायन्ति तत् परं व्योम वासुदेवं पर॑ पदम्॥ ४४॥
एकान्तिनो निरालम्बा महाभागवता: परे।
पश्यन्ति परम॑ ब्रह्म विष्णवाख्यं तमस: परम्॥ ४५ ॥
* कूर्मपुराण *
ये यज्ञ, दान, समाधि, व्रत, उपवास, विविध होम,
स्वाध्याय एवं तर्पणद्वारा महादेवकी अर्चना करते हैं।
इन्हें महादेवकी कृपासे उनका (रुद्रका) अति दुर्लभ
सायुज्य, सारूप्य, सालोक्य तथा सामीप्य (मोक्ष) प्राप्त
होता है ॥ ३०-३१ ॥
हे विप्रो! क्रौद्धद्वीपके दुगुने व्स्तारमें चारों ओरसे
दधिसमुद्रकों आवृतकर शाकद्ठीप स्थित है। (यहाँ)
उदय, रेवत, श्यामाक, अस्तगिरि, आम्बिकेय, रम्य तथा
केशरी--ये पर्वत हैं। यहाँ सुकुमारी, कुमारी, नलिनी,
रेणुका, इक्षुका, धेनुका और गभस्ति-ये नदियाँ हैं।
इनका जल पीकर यहाँके मनुष्य (सुखमय) जीवन
व्यतीत करते हैं। ये रोगरहित, शोकविहीन और राग-
ट्वेषसे मुक्त रहते हैं॥३२--३५॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र--ये क्रमश: मग,
मगध, मानव तथा मन्दग कहलाते हैं। ये सभी लोकोंके
एकमात्र साक्षी देवाधिदेव सूर्यदेवका विविध ब्रत एवं
उपवासोंद्वारा निरन्तर यजन करते हैं। हे विप्रेन्द्रों ! सूर्यके
अनुग्रहसे इन्हें उनकी सायुज्यता, सामीप्यता, सारूप्यता
और सालोक्यता प्राप्त होती है॥ ३६--३८ ॥
शाकद्ठवीपको आवृत करके क्षीरोद सागर स्थित है,
उसके मध्यमें श्वेतद्वीप है। वहाँ नारायण-परायण लोग
रहते हैं। वहाँ नाना आश्वर्योसे समन्वित अनेक पवित्र
जनपद हैं। वहाँके मनुष्य श्वेतवर्णे और नित्य
विष्णुकी भक्तिमें तत्पर रहते हैं॥ ३९-४० ॥
वहाँ न कोई आधि-व्याधि है, न वृद्धावस्था
है तथा न मृत्युका भय ही है। सभी लोग नारायणके
भक्त तथा क्रोध-लोभसे रहित, माया एवं मात्सर्यसे
मुक्त, नित्य पुष्ट, आतड्डूरहित, नित्य आनन्दयुक्त,
भोग करनेवाले तथा नारायण-परायण रहते हैं। वहाँके
कुछ निवासी जितेन्द्रिय एवं नित्य ध्यानपरायण योगी
हैं, कोई जप करते हैं, कोई तप करते हैं और
कुछ लोग विशिष्ट ज्ञान-सम्पन्न हैं। दूसरे निर्बीज
योगके द्वारा ब्रह्मभावसे भावित होकर उन परम
व्योमरूप, परमपद वासुदेवका ध्यान करते हैं। कुछ
दूसरे अनन्यचेता, अन्य आश्रयरहित महाभागवत लोग
तम (अज्ञान)-से परे विष्णु नामक परम ब्रह्मका
दर्शन करते हैं॥ ४॒१--४५ ॥
* अध्याय ४9 +
सर्वे चतुर्भुजाकारा: शद्धुचक्रगदाधरा:।
सुपीतवासस: सर्वे श्रीवत्साड्डितवक्षस:॥ ४६॥
अन्ये महेश्वरपरास्त्रिपुण्ड्राद्धितमस्तकाः ।
स्वयोगोद्धूतकिरणा_ महागरुडवाहनाः ॥ ४७॥
सर्वशक्तिसमायुक्ता नित्यानन्दाश्च निर्मला: ।
वसन्ति तत्र पुरुषा विष्णोरन्तरचारिण:॥ ४८ ॥
तत्र नारायणस्थान्यद् दुर्गम॑ दुरतिक्रमम्।
नारायणं नाम पुरं व्यासाधैरुपशोभितम्॥ ४९॥
हेमप्राकारसंयुक्ते स्फाटिकैर्मण्डपैर्युतम् ।
प्रभासहस्रलकलिलं दुराधर्ष सुशोभनम्।
हर्म्यप्राकारसंयुक्तमह्ठालकसमाकुलम्ू ॥५०॥
हेमगोपुरसाहस्न्ैनानारत्नोपशोभितै: ह
शुभ्रास्तरणसंयुक्त॑ विचित्रे: समलंकृतम्॥ ५१॥
नन््दनेर्विविधाकारै: सत्रवन्तीभिश्चव शोभितम्
सरोभि: सर्वतो युक्त वीणावेणुनिनादितम्॥ ५२॥
पताकाभिर्विचित्राभिरनेकाभिश्च शोभितम्
वीथीभि: सर्वतो युक्त सोपाने रलभूषिते: ॥ ५३॥
नारीशतसहस्त्राह्यं _दिव्यगेयसमन्वितम्।
हंसकारण्डवाकीर्ण चक्रवाकोपशोभितम् |
चतुर्द्धारमनौपम्यमगम्यं देवविद्विषाम्॥ ५४॥
तत्र तत्राप्सरःसड्डेन॑त्यद्धिरुपशोभितम्।
नानागीतविधानन्लैरदेवानामपि दुर्लभ: ॥ ५५॥
नानाविलाससम्पन्नै: कामुकैरतिकोमलै:।
प्रभूतचन्द्रवदनेर्नूपुरारावसंयुतै: ॥ ५६ ॥
ईषत्स्मिते: सुबिम्बोष्ठेर्बालमुग्धमृगेक्षणै: ।
अशेषविभवो पेतैर्भूषितैस्तनुमध्यमै: ॥ ५७॥
सुराजहंसचलने: सुवेषेर्मधुरस्वने: ।
संलापालापकुशलैरदिव्याभरणभूषितै:_ ॥ ५८ ॥
हे गोपुर--नगरका बड़ा फाटक अथवा फाटक मात्र ।
२४३
ये सभी चार भुजाओंवाले, शंख, चक्र तथा गदा
धारण करनेवाले, सुन्दर पीताम्बर धारण करनेवाले एवं
श्रीवत्ससे अद्धित वक्ष:स्थलवाले हैं॥ ४६॥
अन्य (कुछ) लोग महेश्वरके भक्त हैं। वे मस्तकपर
त्रिपुण्ड़् धारण करते हैं। वे अपने योगसे उत्पन्न
रश्मियोंसे लोकको प्रकाशित करते हैं और महागरुड
उनके वाहन हैं। सभी शक्तियोंसे सम्पन्न, नित्य आनन्दसे
पूर्ण, शुद्धान्त:करण तथा विष्णुके अन्तरमें विचरण
करनेवाले पुरुष वहाँ रहते हैं ॥ ४७-४८ ॥
वहाँ व्यास आदिसे सुशोभित नारायणका दूसरा
दुर्गग तथा दुर्लड्ू्य नारायण नामक एक पुर है।
वह पुर सोनेके परकोटेसे युक्त, स्फटिकके मण्डपोंसे
समन्वित, हजारों प्रकारकी प्रभाओंसे अलंकृत, अत्यन्त
सुन्दर और दुराधर्ष हे तथा सोनेके प्रासादोंसे युक्त
एवं अनेक बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओंसे व्याप्त है। वह
पुर स्वर्णसे बने हजारों विचित्र गोपुरों” और नाना
प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित है, साथ ही वह स्वच्छ
आसनोंसे युक्त एवं विविध प्रकारसे अलंकृत है।
वह पुर विविध प्रकारके उद्यानों और नदियोंसे शोभित
है। सब ओरसे सरोवरोंसे युक्त और वीणा तथा वेणुकी
ध्वनिसे निनादित है। विचित्र प्रकारकी अनेक पताकाओंसे
शोभित है। सब ओरसे वीथियों और रत्नसे विभूषित
सीढ़ियोंसे युक्त है॥४९--५३॥
सैकड़ों, हजारों स्त्रियोंसे सम्पन्न तथा दिव्य गानसे
समन्वित है। हंस एवं सारस पक्षियोंसे व्याप्त है,
चक्रवाकोंसे सुशोभित हैं। उसमें अनुपमेय चार द्वार
हैं तथा वह सुरद्रेषी असुरोंक लिये अगम्य है। (वह
पुर) विविध प्रकारके गीतोंको जाननेवाले देवताओंके
लिये भी दुर्लभ, नाना विलासोंसे सम्पन्न, कामके
अभिलाषी, अतिकोमल, पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाले,
नूपुरकी ध्वनिसे युक्त, मन्द मुसकानवाले, सुन्दर बिम्बके
समान ओठवाले, मुग्ध मृगशावकके समान नेत्रवाले,
सम्पूर्ण ऐश्वर्योसे सम्पन्न, अलंकृत, क्षीण कटिभागवाले,
राजहंसके समान सुन्दर चालवाले, अच्छे वेषवाले,
मधुर स्वरवाले, बोल-चालमें प्रवीण, दिव्य अलड्ारोंसे
२४४
स्तनभारविनम्रैश्च मदघूर्णितलोचने: ।
नानावर्णविचित्राड्रैननाभोगरतिप्रिये: ॥ ५९॥
प्रफुल्लकुसुमोद्यानेरितश्चेतश्च शोभितम्।
असंख्येयगुणं शुद्धमगम्यं त्रिदशैरपि॥ ६०॥
श्रीमत्पवित्र देवस्य श्रीपतेरमितौजस: ।
तस्य मध्येडतितेजस्कमुच्चप्राकारतोरणम्॥ ६१॥
स्थान तद् वैष्णव दिव्यं योगिनामपि दुर्लभम् |
तन्मध्ये भगवानेकः पुण्डरीकदलद्युति:।
शेतेडशेषजगत्सूति: शेषाहिशयने हरि:॥ ६२॥
विचिन्त्यमानो योगीन्द्रै: सननन््दनपुरोगमै:।
स्वात्मानन्दामृतं पीत्वा पर तत् तमस: परम्॥ ६३॥
सुपीतवसनो5नन्तो महामायो महाभुज:।
क्षीरोदकन्यया नित्यं गृहीतचरणद्वय: ॥ ६४॥
सा च देवी जगद्वन्या पादमूले हरिप्रिया।
समास्ते तन्मना नित्यं पीत्वा नारायणामृतम्॥ ६५ ॥
न तत्राधार्मिका यान्ति न च देवान्तरा श्रया: ।
बैकुण्ठं नाम तत् स्थान त्रिदशैरपि वन्दितम्॥ ६६॥
न मेउत्र भवति प्रज्ञा कृत्स्नशस्तन्निरूपणे।
एतावच्छक्यते वक्तुं नारायणपुरं हि तत्॥ ६७॥
स एवं परम॑ ब्रह्म वासुदेवः सनातन:।
शेते नारायण: श्रीमान् मायया मोहयड्जगत्।॥ ६८ ॥
नारायणादिदं जात॑ तस्मिन्नेव व्यवस्थितम् ।
तमेवाभ्येति कल्पान्ते स एव परमा गति:ः॥ ६९॥
* कूर्मपुराण *
विभूषित, स्तनके भारसे कुछ झुके हुए, मदके कारण
चझ्जल नेत्रोंबाले, अनेक वर्णोके अड्भरागसे सुशोभित
अड्जोंवाले, नाना प्रकारके भोग और रतिमें अनुराग
रखनेवालों और जहाँ-तहाँ नृत्य करते हुए अप्सण-
समूहोंसे सुशोभित हैं॥ ५४--५९ ॥
प्रफुछ्लित फूलोंवाले इधर-उधर विद्यमान सुन्दर
उद्यानोंसे सुशोभित असंख्य गुणोंवाला वह पवित्र पुर
देवताओंके लिये भी अगम्य है। अमित तेजस्वी
लक्ष्मीपति (विष्णु) देवका वह पुर श्रीसे सम्पन्न और
पवित्र है। उसके मध्यमें अत्यन्त तेजसे सम्पन्न, ऊँचे
प्राकार तथा तोरणोंसे युक्त और योगियोंके लिये भी
दुर्लभ विष्णुका दिव्य स्थान है। उसके मध्यमें कमलदलके
समान चद्युतिवाले, सम्पूर्ण जगत्के उत्पादक, भगवान् हरि
शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं ॥६०--६२॥
स्वात्मानन्दरूपी अमृतका पान करते हुए सनन्दन
आदि योगीन्द्रोंद्वारा तमोगुणसे अतीत श्रेष्ठ उन ( श्रीहरि)-
का चिन्तन किया जाता है। क्षीरसागरकी कन्या लक्ष्मी
सुन्दर पीताम्बर धारण करनेवाले, अनन्त, महामायाके
अधिपति तथा महान् भुजाओंवाले विष्णुके दोनों चरण
नित्य पकड़े रहती हैं। जगत्की वन्दनीया हरिप्रिया वे.
देवी नारायणामृतका पानकर उन्हींमें मन लगाकर उनके
चरणमूलमें नित्य विराजमान रहती हैं॥ ६३--६५॥
वहाँ (श्वेतद्वीपके नारायणपुरमें) न अधार्मिक जा
पाते हैं और न दूसरे देवका आश्रय ग्रहण करनेवाले।
देवताओंसे भी वन्दित वह स्थान वैकुण्ठ नामसे प्रसिद्ध
है। उसका सम्पूर्ण रूपसे वर्णन करनेमें मेरी बुद्धि समर्थ
नहीं है। उस नारायणपुरका मैं इतना ही वर्णन कर
सकता हूँ। परम ब्रह्म सनातन वासुदेव श्रीमान् नारायण
अपनी मायाद्वारा संसारको मोहित करते हुए वहाँ शयन
करते हैं। यह सब कुछ नारायणसे ही उत्पन्न है, उन्होंमें
स्थित है और कल्पान्तमें उन्हींको प्राप्त होता है। वे ही
परम गति हैं॥ ६६-६९ ॥
ड्ति श्रीकूर्मपराणे पद्साहर्रधां संहितायां पूर्वविधागे सम्तरचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४७॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें सैंतालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ४७॥
* अध्याय ४८ *
२४५
अड़तालीसवाँ अध्याय
पुष्करद्वीपकी स्थिति तथा विस्तारका वर्णन, संक्षेपमें अव्यक्तसे सृष्टिका प्रतिपादन
सूत उवाच
शाकद्दीपस्य विस्ताराद द्विगुणेन व्यवस्थित: ।
क्षीरार्णवं समाश्रित्य द्वीप: पुष्करसंवृत:॥ १ ॥
एक एवात्र विप्रेन्द्रा: पर्वतो मानसोत्तर:।
योजनानां सहस्त्राणि सार्थ पञ्चाशदुच्छित: ।
तावदेव च विस्तीर्ण: सर्वतः परिमण्डलः ॥
स एव द्वीपः पश्चार्थ मानसोत्तरसंज्ञित: |
एक एव महासानु: संनिवेशाद द्विधा कृतः॥ ३ ॥
तस्मिन् द्वीपे स्मृतौ द्वौ तु पुण्यौ जनपदों शुभौ।
अपरो मानसस्याथ पर्वतस्यानुमण्डलौ।
महावीतं स्मृतं वर्ष धातकीखण्डमेव च।॥ ४ ॥
स्वादूदकेनोदधिना पुष्कर: परिवारितः।
तस्मिन् द्वीपे महावृक्षो न्यग्रोधोडमरपूजित:॥ ५ ॥
तस्मिन् निवसति ब्रह्मा विश्वात्मा विश्वभावन: ।
तत्रेव मुनिशार्दूुला: शिवनारायणालय:॥ ६ ॥
वसत्यत्र महादेवो हरोडर्धहरिरव्यय: ।
सम्पूज्यमानो ब्रह्माद्ये: कुमाराद्येश्व योगिभि: ।
गन्धर्वे: किंनरैर्यक्षेरीश्वरः कृष्णपिड्रल:॥ ७ ॥
स्वस्थास्तत्र प्रजा: सर्वा ब्रह्मणा सदृशत्विष: |
निरामया विशोकाश्च रागद्वेषविवर्जिता:॥ ८ ॥
सत्यानृते न तत्नास्तां नोत्तमाधममध्यमा:।
न वर्णाश्रमधर्माश्च न नद्यो न च पर्वता:॥ ९ ॥
परेण पुष्करस्याथ समावृत्य स्थितो महान्।
स्वादूदकसमुद्रस्तु समन्ताद् द्विजसत्तमा:॥ १०॥
परेण तस्य महती दृश्यते लोकसंस्थिति:।
काश्ननी द्विगुणा भूमि: सर्वा चैव शिलोपमा॥ ११॥
तस्या: परेण शैलस्तु मर्यादात्मात्ममण्डल: ।
प्रकाशश्वाप्रकाशश्व लोकालोक: स उच्यते॥ १२॥
योजनानां सहस्त्राणि दश तस्योच्छुय: स्मृतः ।
तावानेव च विस्तारो लोकालोको महागिरि: ॥ १३॥
सूतजी बोले--शाकटद्ठीपके दुगुने विस्तारमें क्षीरसागरके
अश्रित पुष्कर नामक द्वीप स्थित है। हे विप्रेन्द्रों! यहाँ
मानसोत्तर नामक एक ही पर्वत है। यह साढ़े पचास
हजार योजन ऊँचा है और चारों ओर विस्तारमें इसका
परिमण्डल अर्थात् घेरा भी उतने ही परिमाणका है। इस
द्वीपके ही पश्चिमकी ओर आधे भागमें मानसोत्तर नामसे
एक ही महापर्वत अपनी विशेष स्थितिके कारण दो
भागोंमें बँटा है। इस द्वीपमें दो शुभ एवं पवित्र जनपद
कहे गये हैं। वे दोनों मानस पर्वतके अनु-मण्डल हैं।
(ये) महावीत तथा धातकी खण्ड नामक वर्ष कहे गये
हैं। पुष्करद्वीप (स्वादूदक समुद्र) स्वादिष्ट जलवाले
समुद्रसे चारों ओरसे घिरा है। उस द्वीपमें देवताओंद्वारा
पूजित न्यग्रोध (वट)-का एक महान् वृक्ष है॥ १--५॥
उसी (द्वीप)-में विश्वभावन विश्वात्मा ब्रह्मा रहते
हैं। मुनिश्रेष्ठो ! वहींपर शिवनारायणका मन्दिर है। यहाँ
आधे भागमें हर (एवं आधेमें) अव्यय हरिके रूपमें
(अर्थात् हरिहरात्मक रूपमें) महादेव निवास करते हैं।
यहाँ ब्रह्मा आदि देवताओं, कुमार (सनत्कुमार) आदि
योगियों, गन्धर्वों तथा किंनरों एवं यक्षोंद्वारा ईश्वर
कृष्णपिड़ल पूजित होते हैं। यहाँकी सारी प्रजा स्वस्थ
है, ब्रह्माके समान प्रभावान् है और रोग, शोक, राग तथा
द्वेषसे रहित है। वहाँ सत्य, असत्य, उत्तम, मध्यम,
अधम (-का विभेद) नहीं है। न वर्णाश्रम धर्म है, न
नदियाँ हैं और न पर्वत हैं। हे द्विजसत्तमो! पुष्कर द्वीपके
परे उसे चारों ओरसे घेरते हुए महान् स्वादूदक सागर
स्थित है॥ ६--१० ॥
उसके अनन्तर महती लोकस्थिति दिखलायी
पड़ती है। वहाँकी द्विगुणित समस्त भूमि स्वर्णमयी
और शिलाके समान है। उसके आगे सूर्यमण्डलकी
मर्यादास्वरूप एक मर्यादा पर्वत है। (इसका एक भाग)
प्रकाशित (तथा दूसरा) अप्रकाशित रहता है। इसीलिये
वह लोकालोक (पर्वत) कहलाता है, लोकालोक
नामक इस महान् पर्वतकी ऊँचाई दस हजार योजन
कही गयी है और उतना ही इसका विस्तार (फैलाव)
भी है॥ ११--१३॥
२४६
समावृत्य तु तं शैलं सर्वतो वै तम: स्थितम्
तमश्वाण्डकटाहेन समन््तात् परिवेष्टितम्॥ १४॥
एते सप्त महालोकाः पाताला: सप्त कीर्तिता: ।
ब्रह्माण्डस्यैष विस्तार: संक्षेपेण मयोदित: ॥ १५॥
अण्डानामीदूशानां तु कोट्यो ज्ञेया: सहस्त्रश: ।
सर्वगत्वात् प्रधानस्य कारणस्याव्ययात्मन: ॥ १६॥
अष्डेष्वेतेषु सर्वेषु भुवनानि चतुर्दश।
तत्र तत्र चतुर्वक्त्रा रुद्रा नारायणादय:॥ १७॥
दशोत्तरमथैकैकमण्डावरणसप्तकम् ।
समन्तात् संस्थितं विप्रा यत्र यान्ति मनीषिण: ॥ १८ ॥
अनन्तमेकमव्यक्तमनादिनिधनं.. महत्।
अतीत्य वर्तते सर्व जगत् प्रकृतिरक्षरम्॥ १९॥
अनन्तत्वमनन्तस्य यत: संख्या न विद्यते।
तदव्यक्तमिति ज्ञेयं तद् ब्रह्म परमं पदम्॥ २०॥
अनन्त एष सर्वत्र सर्वस्थानेषु पठ्यते।
तस्य पूर्व मयाप्युक्ते यत्तन्माहात्म्यमव्ययम्॥ २१॥
गतः स एष सर्वत्र सर्वस्थानेषु वर्तते।
भूमौ रसातले चैव आकाशे पवनेड5नले।
अण्विषु च सर्वेषु दिवि चैव न संशय: ॥ २२॥
तथा तमसि सत्तवे च एप एवं महाद्युतिः।
अनेकधा विभक्ताडुः क्रीडते पुरुषोत्तम:॥ २३॥
महेश्वर: परोडव्यक्तादण्डमव्यक्तसम्भवम्।
अण्डाद ब्रह्मा समुत्पन्नस्तेन सृष्टमिंदं जगत्॥ २४॥
* कूर्मपुराण *
इस पर्वतको सभी ओरसे आवृतकर अन्धकार
स्थित है और यह अन्धकार अण्डकटाह (चारों ओर
विद्यमान ब्रह्माण्डरूपी कटाह)-के द्वारा चारों ओरसे
परिवेष्टित हैं। यह अण्डकटाह ही सात महालोक और
सात पातालके रूपमें प्रसिद्ध है। मैंने संक्षेपमें ब्रह्माण्डका
यह विस्तार बतलाया। प्रधान, कारणरूप और अव्ययात्माके
सर्वव्यापी होनेके कारण इस प्रकारके हजारों करोड़
ब्रह्माण्ड हैं, ऐसा समझना चाहिये॥ १४--१६॥॥
इन सभी ब्रह्माण्डोंमें चौदह भुवन होते हैं, इन
सभीमें चतुर्मुख ब्रह्मा, रुद्र तथा नारायण आदि होते
हैं। हे विप्रो। (ब्रह्माण्डके) चारों ओर सात आवरण
हैं, वे परिमाणमें क्रमश: एक दूसरेसे दस गुना अधिक
हैं। यहाँ मनीषी लोग जाते हैं। अनन्त, अद्वितीय,
अव्यक्त, अनादिनिधन, महत् और जगतृके प्रकृतिस्वरूप
अक्षर (ब्रह्म) इन सभी (आवरणों)- का अतिक्रमण-
कर विद्यमान रहते हैं। इनकी कोई संख्या नहीं होती,
इसीलिये इन्हें अनन्त कहा जाता है। इन्हें ही अव्यक्त
समझना चाहिये। ये ही ब्रह्म परम पद (अन्तिम
प्राप्तत्य) हैं ॥ १७--२० ॥
ये अनन्त सर्वत्र सभी स्थानोंमें हैं, ऐसा कहा गया
हैं। इनका जो अव्यय माहात्म्य है, मैंने भी पूर्वमें उसका
वर्णन किया है। वही ये (परमात्मा) ही भूमि, रसातल,
आकाश, वायु, अग्नि, सभी समुद्रों तथा स्वर्ग-- सर्वत्र,
सभी स्थानोंमें विद्यमान हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। ये
ही महाद्युतिमान् पुरुषोत्तम अन्धकार तथा (प्रकाशात्मा)
सत्त्वमें विद्यमान होते हुए अपने अड्रोंको अनेक रूपोंमें
विभक्तकर क्रीडा करते हैं। महेश्वर अव्यक्तसे परे हैं।
अण्ड अव्यक्तसे उत्पन्न होता है। अण्डसे ब्रह्मा उत्पन
हैं और उन्होंने इस संसारकी सृष्टि की है॥ २१--२४॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहस्थां संहितायां पूर्विविधागे अष्टचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४८ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें अड्तालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥४८॥
* अध्याय ४९ *
२४७
उनचासवां अध्याय
स्वारोचिषसे वैवस्वत मन्वन्तरतकके देवता, सप्तर्षि, इन्द्र आदिका वर्णन,
नारायणद्वारा ही विभिन्न मन्वन्तरोंमें सृष्टि आदिका प्रतिपादन, भगवान्
विष्णुकी चार मूर्तियोंका विवेचन, विष्णुका माहात्म्य
ऋषय ऊचु:
अतीतानागतानीह यानि मन्वन्तराणि तु।
तानि त्वं कथयास्माकं व्यासांश्च द्वापरे युगे।। १ ॥
वेदशाखाप्रणयनं देवदेवस्थ धीमत:।
तथावतारान् धर्मार्थमीशानस्य कलौ युगे॥ २ ॥
कियन्तो देवदेवस्य शिष्या: कलियुगेषु वे ।
एतत् सर्व समासेन सूत वक्तुमिहाईसि॥
सूत उवाच
मनु: स्वायम्भुव: पूर्व तत: स्वारोचिषो मनु: ।
उत्तमस्तामसश्चैव. रेवतश्चाक्षुषस्तथा॥ ४ ॥
षडेते मनवो5तीता साम्प्रतं तु रवे: सुतः।
वैवस्वतो5यं यस्यैतत् सप्तमं वर्ततेडन्तरम्॥ ५ ॥
स्वायम्भुवं तु कथितं कल्पादावन्तरं मया।
अत ऊर्ध्व निबोधध्वं मनो: स्वारोचिषस्य तु॥ ६ ॥
पारावताश्च तुषिता देवा: स्वारोचिषे3न्तरे।
विपश्चिन्नाम देवेन्द्रो बभूवासुरसूदन:॥ ७ ॥
ऊर्जस्तम्भस्तथा प्राणो दान्तो5थ वृषभस्तथा।
तिमिरश्चार्वरीवांश्च सप्त सप्तर्षघो5डभवन्॥ ८ ॥
चैत्रकिंपुरुषाद्याश्च सुता: स्वारोचिषस्य तु।
द्वितीयमेतदाख्यातमन्तरं श्रूणु चोत्तरम्॥ ९ ॥
तृतीयेउप्यन्तरे विप्रा उत्तमो नाम वे मनुः।
सुशान्तिस्तत्र देवेन्द्रो बभूवामित्रकर्षण:॥ १०॥
सुधामानस्तथा सत्या: शिवाश्चाथ प्रतर्दना: ।
वशवर्तिनश्व पञ्चैते गणा द्वादशका: स्मृता: ॥ ११॥
रजोर्ध्वश्चोर्ध्वबाहुश्ब॒ा सबलश्चानयस्तथा।
सुतपा: शुक्र इत्येते सप्त सप्तर्षयो5भवन्॥ १२॥
तामसस्यान्तरे देवा: सुरा वाहरयस्तथा।
सत्याश्न सुधियश्चैव सप्तविंशतिका गणा: ॥ १३॥
शिबिरिद्रस्तथेवासीच्छतयज्ञोपलक्षण: ।
बभूव शंकरे भक्तो महादेवार्चने रत:॥ १४॥
ऋषियोंने कहा--(सूतजी !) आप हमें बीते हुए
तथा आनेवाले जो मन्वन्तर हैं, उन्हें (बतलाइये) और
द्वापर युगके व्यासोंकों भी बतलायें। सूतजी! वेदकी
शाखाओंका प्रणयन केसे हुआ, धर्म (-की स्थापना)-
के लिये कलियुगमें हुए देवाधिदेव बुद्धिमान् ईशान
(व्यास)-के कितने अवतार हुए और कलियुगोंमें
देवाधिदेव (व्यास)-के कितने शिष्य हुए--यह सब भी
आप संक्षेपमें बतलायें॥ १--३ ॥
सूतजी बोले--पहले स्वायम्भुव मनु थे। तदनन्तर
स्वारोचिष मनु हुए। पुनः उत्तम, तामस, रेवत तथा
चाक्षुष मनु हुए। ये छः: बीते हुए मनु हैं। इस समय
सूर्यके पुत्र वैवस्वतका यह सातवाँ मन्वन्तर प्रवृत्त है।
कल्पके आदिमें होनेवाले स्वायम्भुव मन्वन्तरका वर्णन
मैंने किया। इसके अनन्तर स्वारोचिष मनुका वर्णन
सुनो ॥ ४--६॥
स्वारोचिष मन्वन्तरमें पारावत तथा तुषित नामके
देवता और असुरोंका विनाश करनेवाले विपश्चित्
नामके देवेन्द्र हुए। ऊर्ज, स्तम्भ, प्राण, दान्त, वृषभ,
तिमिर और अर्वरीवान--ये सात सप्तर्षि हुए॥७-८॥
स्वारोचिषके चैत्र और किंपुरुष आदि पुत्र थे। इस
प्रकार दूसरे मन्वन्तरकों मैंने बतलाया, अब इसके
परवर्ती (मन्वन्तर)-का वर्णन सुनिये। हे विप्रो! तीसरे
मन्वन्तरमें उत्तम नामके मनु और शत्रुनाशक सुशान्ति
नामवाले देवेन्द्र हुए। सुधामा, सत्य, शिव, प्रतर्दन और
वशवर्ती--बारह-बारह देवताओंवाले--ये पाँच गण कहे
गये हैं। रज, ऊर्ध्व, ऊर्ध्वबाहु, सबल, अनय, सुतपा
और शुक्र--ये सात सप्तर्षि हुए॥९--१२॥
तामस मन्वन्तरमें सुर, वाहरि, सत्य तथा सुधी--ये
सत्ताईस-सत्ताईसकी संख्यावाले गणदेवता थे। इसी प्रकार
सौ यज्ञोंको करनेवाले शिबि नामक इन्द्र थे ।वे शंकरके भक्त
और महादेवकी आराधनामें रत रहते थे॥ १३-१४॥
२४८
ज्योतिर्धर्मा पृथु: काव्यश्चेत्रोउग्निर्वनकस्तथा।
पीवरस्त्वृषयो होते सप्त तत्रापि चान्तरे॥ १५॥
पञ्ञमे चापि विप्रेन्द्रा रबतो नाम नामतः।
मनुर्वसुश्ष॒ तत्रेन्द्रों बभूवासुरमर्दन:॥ १६॥
अमिताभा भूतरया वैकुण्ठा: स्वच्छमेधस: ।
एते देवगणास्तत्र चततुर्दश चतुर्दश॥ १७॥
हिरण्यरोमा वेदश्रीरूरध्वबाहुस्तथेव च।
वेदबाहु: सुधामा च पर्जन्यश्व महामुनि:।
एते सप्तर्षयो विप्रास्तत्रासन् रैवतेउन्तरे॥ १८ ॥
स्वारोचिषश्चोत्तमश्च॒ तामसो रैवतस्तथा।
प्रियत्रतान्वया होते चत्वारों मनवः स्मृता:॥ १९॥
षष्ठे मन्वन्तरे चासीच्चाश्षुषस्तु मनुद्विजा:।
मनोजवस्तथेवेन्द्रो देवानपि निबोधत॥ २०॥
आद्या: प्रसूता भाव्याश्र पथुगाश्न दिवौकस: ।
महानुभावा लेख्याश्व पञ्चैते हाष्टका गणा:॥ २१॥
सुमेधा विरजाश्चैव हविष्मानुत्तमो मधु: ।
अतिनामा सहिष्णुशएच सप्तासन््तृषय: शुभा: ॥ २२॥
विवस्वत:ः सुतो विप्रा: श्राद्धदेवो महाद्युति: ।
मनु: स वर्तते धीमान् साम्प्रतं सप्तमेउन्तरे॥ २३॥
आदित्या वसवो रुद्रा देवास्तत्र मरुदृणा:।
पुरंदरस्तथेवेन्रो बभूव परवीरहा॥ २४॥
वसिष्ठट: कश्यपश्चात्रिर्जममदग्रिश्व गौतम: ।
विश्वामित्रो भरद्वाज: सप्त सप्तर्षयो5भवन्॥ २५॥
विष्णुशक्तिरनौपम्या सत्त्वोद्रिक्ता स्थिता स्थितौ ।
तदंशभूता राजान: सर्वे चर त्रिेदिवोकस: ॥ २६॥
स्वायम्भुवेउन्तरे पूर्वमाकृत्यां मानस: सुतः ।
रुचे: प्रजापतेर्यज्ञस्तदंशेनाभवद् द्विजा:॥ २७॥
ततः पुनरसौ देव: प्राप्ते स्वारोचिषेउन्तरे।
तुषितायां समुत्यन्नस्तुषिते: सह दैवतै:॥ २८॥
औत्तमेउप्यन्तरे विष्णु: सत्यै: सह सुरोत्तमै: ।
सत्यायामभवत् सत्यः सत्यरूपो जनार्दन:॥ २९॥
तामसस्यान्तरे चैव सम्प्राप्ते पुनरेव हि।
ह॒र्यायां :॥ ३०॥
* कूर्मपुराण *
उस मन्वन्तरमें भी ज्योतिर्धर्मा, पृथु, काव्य, चैत्र,
अग्नि, वनक और पीवर नामक--ये सात ऋषि हुए।
विप्रेन्द्रों ! पाँचवें मन्वन्तरमें रेवत नामवाले मनु और असुरोंका
मर्दन करनेवाले वसु नामवाले इन्द्र हुएण। अमिताभ,
भूतरय, वैकुण्ठ और स्वच्छमेधा--ये चौदह-चौदहकी
संख्यावाले (चार) गणदेवता थे। हे विप्रो ! रैवत मन्वन्तरमें
हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य
और महामुनि--ये सप्तर्षि हुए। स्वारोचिष, उत्तम,
तामस तथा रैवत--ये चार मनु प्रियत्रतके वंशज कहे
जाते हैं॥ १५--१९ ॥
हे द्विजो ! छठे मन्वन्तरके मनु चाक्षुष हैं। इस मन्वन्तरके
इन्द्रका नाम मनोजव है। (अब) देवताओंको सुनो-
आद्य, प्रसूत, भाव्य, पृुथुण और लेख्य--ये पाँच
महानुभाव आठ-आठकी संख्यावाले देवताओंके गण हैं।
सुमेधा, विरजा, हविष्मानू, उत्तम, मधु, अतिनाम और
सहिष्णु--ये सात कल्याणकारी ऋषि हैं ॥ २०--२२॥
विप्रो ! विवस्वान्के पुत्र बुद्धिमान् एवं महान् तेजस्वी
श्राद्धदेव इस समय सातवें मन्वन्तरके मनु हैं। आदित्य,
वसुगण, रुद्र तथा मरुद्रण इसमें देवता हैं । इसी प्रकार वीर
शत्रुओंका नाश करनेवाले पुरन्दर नामवाले (इस मन्वन्तरके)
इन्द्र हैं। वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र
तथा भरद्वाज--ये सात सप्तर्षि हैं। (इस मन्वन्तरमें)
विष्णुकी अनुपम सत्त्वगुणमयी शक्ति (सृष्टि)-की रक्षाके
लिये स्थित है। सभी राजा और सभी देवगण इसी
(विष्णुशक्ति)-के अंशसे उत्पन्न हैं। द्विजो! स्वायम्भुव
मन्वन्तरमें सर्वप्रथम प्रजापति रुचिका आकृति (नामक
पत्नी)-से यज्ञ नामक मानस पुत्र हुआ, यह विष्णुका
अंश था। तदनन्तर पुनः वे ही देव (विष्णु) स्वारोचिष
मन्वन्तरके आनेपर तुषितासे तुषित नामके देवताओंके
साथ उत्पन्न हुए॥ २३--२८ ॥
औत्तम मन्वन्तरमें सत्यरूप जनार्दन विष्णु सत्य
नामक श्रेष्ठ देवताओंके साथ सत्य नामधारी सत्यासे
उत्पन्न हुए और तामस नामक मन्वन्तर आनेपर
साक्षात् ये हरि ही हरि नामक देवताओंके साथ हयसिे
हरि इस नामसे उत्पन्न हुए॥ २९-३०॥
* अध्याय ४९ *
रैवते5प्यन्तरे चैव सम्भूत्यां मानसो5भवत्।
सम्भूतो मानस: सार्थ देव: सह महाद्युति:॥ ३१॥
चाक्षुषेउप्यन्तरे चेव वैकुण्ठः पुरुषोत्तम:।
विकुण्ठायामसौ जज्ञे बैकुण्ठैदेवतेः सह॥ ३२॥
मन्वन्तरेडत्र सम्प्राप्ते तथा बैवस्वते3न्तरे।
वामनः कश्यपाद् विष्णुरदित्यां सम्बभूव ह॥ ३३॥
त्रिभि: क्रमेरिमॉल्लोकाजि्जित्वा येन महात्मना।
पुर्दराय त्रेलोक्यं दत्त निहतकण्टकम्॥ ३४॥
इत्येतास्तनवस्तस्थ सप्त मन्वन्तरेषु वै।
सप्त चेवाभवन् विप्रा याभि: संरक्षिता: प्रजा: ॥ ३५॥
यस्माद् विष्टमिदं कृत्स्न॑ वामनेन महात्मना।
तस्मातू स वे स्मृतो विष्णुर्विशेर्धातो: प्रवेशनात्॥ ३६॥
एघष सर्व सृजत्यादौ पाति हन्ति च केशव: ।
भूतान्तरात्मा भगवान् नारायण इति श्रुति: ॥ ३७॥
एकांशेन जगत् सर्व व्याप्पय नारायण: स्थित: ।
चतुर्धा संस्थितो व्यापी सगुणो निर्गुणो5पि च॥ ३८ ॥
एका भगवतो मूर्तिज्ञानरूपा शिवामला।
वासुदेवाभिधाना सा गुणातीता सुनिष्कला॥ ३९॥
द्वितीया कालसंज्ञान्या तामसी शेषसंज्ञिता।
निहन्ति सकल॑ चान्ते वैष्णवी परमा तनु: ॥ ४०॥
सत्त्वोद्रिक्ता तथेवान्या प्रद्युम्नेति च संज्ञिता।
जगत् स्थापयते सर्व स विष्णु: प्रकृतिर्शुवा॥ ४१॥
चतुर्थी वासुदेवस्य मूर्तिब्राह्ीति संज्ञिता।
राजसी चानिरुद्धाख्या प्रद्युम्न: सृष्टिकारिका॥ ४२॥
यः स्वपित्यरिब्रलं भूत्वा प्रद्युम्नेन सह प्रभु: ।
नारायणाख्यो ब्रह्माउसौ प्रजास्ग करोति सः ॥ ४३ ॥
या सा नारायणतनुः प्रद्युम्नाख्या मुनी श्वरा: |
तया सम्मोहयेद विश्व सदेवासुरमानुषम्॥ ४४॥।
२४९
रैवत मन्वन्तरमें भी मानस नामक देवताओंके साथ
महान् द्युतिमान् हरि सम्भूतिसे मानस नामसे उत्पन्न हुए।
चाक्षुष मन्वन्तरमें भी वे पुरुषोत्तम वैकुण्ठ नामक देवताओंके
साथ विकुण्ठासे वैकुण्ठ नामसे उत्पन्न हुए और वैवस्वत
नामक मन्वन्तर आनेपर वे विष्णु कश्यप और अदितिसे
वामन नामसे उत्पन्न हुए। इन्हीं महात्माने अपने तीन
पगोंसे समस्त लोकोंको जीतकर पुरन्दर इन्द्रको निष्कण्टक
त्रैलोक्य (-का राज्य) प्रदान किया॥ ३१--३४॥
हे विप्रो! सात मन्वन्तरोंमें ये ही सात उन (विष्णु)-
के विग्रह हुए, जिनसे प्रजाओंकी रक्षा हुई। महात्मा
वामनने इस सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त किया था, इसीलिये
“विश! धातुका प्रवेश अर्थ होनेके कारण वे (वामन)
विष्णु कहलाये। ये केशव प्रारम्भमें समस्त प्रपञ्नकी
सृष्टि करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं और (अन्तमें)
उसका संहार करते हैं। भगवान् नारायण सभी प्राणियोंकी
अन्तरात्मा हैं--ऐसा वेदका कथन है॥ ३५--३७॥
ये नारायण अपने एक अंशसे सम्पूर्ण संसारको
व्याप्तकर प्रतिष्ठित रहते हैं। ये निर्गुण होते हुए भी सगुण
रूपसे चार भागोंमें विभक्त होकर सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले
हैं। (ये ही चार भाग भगवान् नारायणकी चार मूर्तियाँ
हैं। इनमें) भगवान्की वासुदेव नामवाली पहली मूर्ति
ज्ञानरूप, कल्याणकारिणी, निर्मल, गुणातीत और कलारहित
है। दूसरी काल और शेष नामवाली वह तामसी मूर्ति
विष्णुकी परम विग्रहरूपा मूर्ति है। यही अन्तमें सबका
संहार करती है। इसी प्रकार सत्त्वगुणमयी प्रद्युम्न
नामवाली अन्य (तीसरी) मूर्ति सम्पूर्ण जगत्की स्थापना
(पालन) करती है, यही विष्णुकी ध्रुवा प्रकृति है। इन
तीनों मूर्तियोंके अतिरिक्त वासुदेवकी ब्राह्मी तथा अनिरुद्ध
नामवाली चौथी राजसी मूर्ति है, यह प्रद्युम्न नामक मूर्ति
सृष्टि करनेवाली है॥ ३८--४२॥
जो प्रभु सम्पूर्ण (सृष्टि)-के रूपमें होकर प्रद्युम्नके
साथ शयन करते हैं, नारायण नामवाले वे ही ब्रह्मा
प्रजाकी सृष्टि करते हैं। मुनीश्वरो! वह जो प्रद्युम्न नामवाली
नारायणकी मूर्ति है, उसके द्वारा वे (नारायण) देवता, असुर
तथा मनुष्योंसे युक्त विश्वको मोहित करते हैं॥ ४३-४४॥
२५०
सैव सर्वजगत्सूति: प्रकृति: परिकीर्तिता।
वासुदेवो ह्ानन्तात्मा केवलो निर्गुणो हरि: ॥ ४५॥
प्रधान पुरुष॑ कालस्तत्त्वत्रयमनुत्तमम् ।
वासुदेवात्मकं नित्यमेतद् विज्ञाय मुच्यते॥ ४६॥
एकं वेदं चतुष्पादं चतुर्धा पुनरच्युतः।
बिभेद वासुदेवो5सौ प्रद्युस्नो हरिरव्यय:॥ ४७॥
कृष्णद्वैपायनो व्यासो विष्णुर्नारायण: स्वयम्।
अपान्तरतमा: पूर्व स्वेच्छया ह्ाभवद्धरि:॥ ४८॥
अनाचछमन्तं पर ब्रह्म न देवा नर्षयो विदुः।
एको<यं वेद भगवान् व्यासो नारायण: प्रभु: ॥ ४९॥
इत्येतद् विष्णुमाहात्म्यमुक्ते वो मुनिपुंगवा: ।
एतत् सत्यं पुनः सत्यमेवं ज्ञात्वा न मुहाति॥ ५०॥
* कूर्मपुराण *
वही सम्पूर्ण संसारको उत्पन्न करनेवाली प्रकृति
कहे गये हैं। अनन्तात्मा वासुदेव हरि अद्वितीय एवं
निर्गुण हैं। प्रधान, पुरुष और काल--ये श्रेष्ठ तौन
तत्त्व नित्य वासुदेवमय हैं। इनको जान लेनेपर मुक्ति
हो जाती है॥ ४५-४६ ॥
उन अच्युत वासुदेव नामक प्रद्युम्न अव्यय हरिने
चतुष्पादात्मक एक वेदको चार भागोंमें विभक्त किया।
पूर्वकालमें स्वयं अपान्तरतमा* नारायण हरि विष्णु ही
स्वेच्छासे कृष्णद्वैपायन व्यास हुए। आदि और अन्तरहित
परम ब्रह्मको न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही,
एकमात्र प्रभु नारायणरूप ये भगवान् व्यास ही उउ्ें
जानते हैं ॥ ४७--४९ ॥
हे मुनिश्रेष्ठो! मैंने आप लोगोंको यह विष्णुका
माहात्म्य बतलाया, यह सत्य है, पुनः सत्य है, ऐसा
जाननेसे मोह नहीं होता॥ ५० ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहद्रथां संहितायां पूर्वविभागे एकोनपञ्ञाशोउध्याय: ॥ ४९ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें उनचासवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ४९॥
पचासवाँ अध्याय
अट्ठाईस व्यासोंका वर्णन, अट्टाईसवें कृष्णद्वैपायनद्वारा वेदसंहिताका विभाजन तथा पुराणेतिहासकी
रचना, वेदकी शाखाओंका विस्तार तथा विष्णुके माहात्म्यका कथन
सूत उवाच
अस्मिन् मन्वन्तरे पूर्व वर्तमाने महान् विभु:।
द्वापरे प्रथमे व्यासो मनुः स्वायम्भुवो मतः॥ १॥
बिभेद बहुधा वेदं नियोगाद् ब्रह्मण: प्रभो:।
द्वितीये द्वापरे चेव वेदव्यास: प्रजापति:॥ २॥
तृतीये चोशना व्यासश्चतुर्थ स्थाद् बृहस्पति: ।
सविता पञ्ञमे व्यास: षष्टे मृत्यु: प्रकीर्तित:॥ ३॥
सप्तमे च तथेैवेन्द्रो वसिष्ठश्राप्टमे मतः।
सारस्वतश्च नवमे त्रिधामा दशमे स्मृतः॥ ४॥
एकादशे तु त्रिवृष: शततेजास्ततः परः।
त्रयोदशे तथा अधर्मस्तरक्षुस्तु चतुर्दशे॥ ५॥
सूतजी बोले--इस वर्तमान मन्वन्तरके प्रारम्भिक
प्रथम द्वापरमें महान् विभु स्वायम्भुव मनुको व्यास माना
गया है। प्रभु ब्रह्माकी आज्ञासे उन्होंने वेदका अनेक
प्रकारसे विभाजन किया। दूसरे द्वापरमें प्रजापति वेदव्यास
हुए। तीसरेमें शुक्राचार्य व्यास हुए और चौथेमें बृहस्पति
(व्यास) हुए। पाँचवेंमें सूर्य व्यास हुए और छठेमें
मृत्युको व्यास कहा गया है। इसी प्रकार साततवेंमें इन्द्र
और आवठतवेंमें वसिष्ठ (व्यास) माने गये हैं। नवेंमें
सारस्वत तथा दसतेंमें त्रिधामा (व्यास) माने गये
हैं। ग्यारहवेंमें त्रिवृष तदनन्तर (बारहवेंमें) शततेजा,
तेरहवेंमें धर्म और चौदहवेंमें तरक्षु (व्यास) कहे
गये हैं॥ १--५॥
2....०नमन--मम मनन ++ कान ५५3५3 कक+33+3७3333त3-णह_नी-।नत !ि वि खच यश्2:_ञ:::5अ्ै5क्क्5 'ँ|"ँऑचक्््|ौौाौ+>3333सओस ओकफडऋ एसफफ५अभफ/फ/अउ कक अब अ अअअबअबइअ अ अ अफ लसलखखअअअडडबडसससअअइअइ पफहूाोनतिित ता ते 8 सअ स छ छ छऋऔ&#ीाीाीास
#* अपान्तरतमा--यह आर्षप्रयोग 'अपू5जलके अन्तरतम अर्थात् जलके अन्तस्तलमें शयन करनेवालेके' अर्थमें हो सकता है।
यदि 'अपारान्ततमा' पाठ हो तो जिनका अन्ततम-सर्वान्तिम शेष अपार है--अगम्य है--यह अर्थ मानकर प्रस्तुत प्रसंग समझस हो
सकता है।
* अध्याय ५५० *
त्यारुणिवँ पत्लदशे षोडशे तु धनझ्लय:।
कृतझ्लय: सप्तदशे ह्ाष्टादइशे ऋतज्ञयः॥ ६ ॥
ततो व्यासो भरद्वाजस्तस्मादूर्ध्व तु गौतम: ।
राजश्रवाश्चैकविंशस्तस्माच्छुष्मायण: पर: ॥ ७ ॥
तृणबिन्दुस्त्रयोविंशे वाल्मीकिस्तत्पर: स्मृतः ।
पञ्जविंशे तथा शक्ति: षद्विंशे तु पराशर:॥ ८ ॥
सप्तविंशे तथा व्यासो जातूकर्णो महामुनि: ।
अष्टाविंशे पुनः प्राप्ते ह्मस्मिन् वे द्वापरे द्विजा: ।
पराशरसुतो व्यास: कृष्णद्वेपायनो$भवत्॥ ९ ॥
स॒ एव सर्ववेदानां पुराणानां प्रदर्शक:।
पाराशर्यों महायोगी कृष्णद्वैपायनो हरि: ॥ १०॥
आराध्य देवमीशान दृष्टा साम्बं त्रिलोचनम्।
तत्प्रसादादसौ व्यासं वेदानामकरोत् प्रभु:॥ ११॥
अथ शिष्यान् प्रजग्राह चतुरो वेदपारगान्।
जैमिनिं च सुमन्तुं च वैशम्पायनमेव च।
पैलं तेषां चतुर्थ च पञ्ञमं मां महामुनि:॥ १२॥
ऋग्वेदआवकं पैलं जग्राह स महामुनिः।
यजुर्वेदप्रवक्तार'॑ वैशम्पायनममेव च॥ १३॥
जेमिनिं सामवेदस्य श्रावकं सोउन्वपद्यत।
तथेवाथर्ववेदस्य सुमन्तुमृषिसत्तमम् ।
इतिहासपुराणानि प्रवक्तुं मामयोजयत्॥ १४॥
एक आसीछचनजुर्वेदस्तं चतुर्धा व्यकल्पयत्
चातुहोत्रमभूद् यस्मिस्तेन यज्ञमथाकरोत्॥ १५॥
आध्वर्यवं यजुर्णमि: स्यादृग्भिहोंत्र द्विजोत्तमा: ।
औद्ात्रं सामभिश्चक्रे ब्रह्मत्वं चाप्यर्थर्वभि: ॥ १६॥
ततः स ऋच उद्धृत्य ऋग्वेदं कृतवान् प्रभु: ।
यजूंषि च यजुर्वेदं सामवेदं च सामभि:॥ १७॥
एकविंशतिभेदेन ऋग्वेदं कृतवान् पुरा।
शाखानां तु शतेनेव यजुर्वेदमथाकरोत्॥ १८॥
२५१२
पंद्रहवेंमें त््यारणि, सोलहवेंमें धनंजय, सत्रहवेंमें
कृतंजय और अठारहवेंमें ऋतंजयको व्यास कहा गया
है। तदनन्तर (उनन्नीसवेंमें) भरद्वाज व्यास हुए। उससे
आगे (बीसवेंमें) गौतम हुए। राजश्रवा इक्कीसवें (द्वापर)-
में और फिर (बाईसवेंमें) श्रेष्ठ शुष्मायण व्यास हुए।
तेईसवेंमें तृणबिन्दु और उसके बाद (चौबीसवेंमें)
वाल्मीकिको व्यास कहा गया है| पच्चीसवेंमें शक्ति और
छब्बीसवेंमें पराशर ही व्यास हुए॥ ६--८ ॥
हे द्विजो! सत्ताईसवेंमें महामुनि जातूकर्ण व्यास हुए
और फिर इस अट्ठाईसवें द्वापर युगमें पराशरके पुत्र
कृष्णद्वेंपायन व्यास हुए। वे ही सभी वेदों और पुराणोंके
प्रदर्शक हैं। पराशरके पुत्र महायोगी कृष्णद्वैपायन हरिने
पार्ववीके साथ त्रिलोचन शंकरकी आराधना करके
उनका दर्शन किया और उन्हींके अनुग्रहसे उन प्रभु
व्यासने वेदोंका विभाग किया। तदनन्तर उन महामुनिने
वेदके पारंगत चार शिष्योंको ग्रहण किया। (ये चार
शिष्य) जैमिनि, सुमन्तु, वैशम्पायन और चौथे पैल हैं।
मुझे अपना पाँचवाँ शिष्य बनाया॥ ९--१२॥
उन महामुनिने ऋग्वेदके श्रोता पैलको ऋग्वेद और
यजुर्वेदके प्रवक्ता वेशम्पायनको यजुर्वेद ग्रहण कराया।
इसी तरह उन्होंने सामवेदके श्रोता जैमिनिको सामवेद
तथा अथर्ववेदके श्रोता ऋषिश्रेष्ठ सुमन्तुको अथर्ववेदका
ग्रहण कराया। ऐसे ही इतिहास तथा पुराणोंके प्रवचनमें
मुझे श्रीकृष्णद्वेपायनने नियुक्त किया॥ १३-१४॥
(प्रारम्भमें) यजुर्वेद एक ही था। उसका चार भाग
हुआ। उसीसे चारतुर्होत्रकी उत्पत्ति हुई और उससे
(श्रीव्यासने) यज्ञ किया। द्विजोत्तमो! (उस यज्ञमें)
यजुर्वेदके मन्त्रोंद्वारा अध्वर्युसे सम्बद्ध कर्म, ऋक्-
मन्त्रोंसे होताका कर्म, साममन्त्रोंसे उद्गाताका कर्म और
अथर्वमन्त्रोंके द्वारा ब्रह्माका कर्म सम्पन्न हुआ। तदनन्तर
उन प्रभुने ऋचाओंको अलग कर कर्वेदका प्रणयन
किया। इसी प्रकार यजुर्मन्त्रोंक समूहको यजुर्वेद* और
साममन्त्रोंक समूहको सामवेदसंहिता बनायी। पहले
उन्होंने ऋग्वेदको इक्कीस भागों (शाखाओं)-में और
यजुर्वेदको सौ शाखाओंमें विभक्त किया॥ १५--१८॥
* यहाँ यजुर्वेद एवं सामवेदसे यजु:संहिता एवं सामसंहिता समझनी चाहिये। वेदका दूसरा भाग “ब्राह्मण” होता है। वह केवल
मन्त्रोंका संग्रह नहीं है। 'वेद' शब्द मन्त्र एवं ब्राह्मण--दोनोंका बोधक होता है।
२५७२
* कूर्मपुराण *
सामवेदं सहस्त्रेण शाखानां प्रबिभेद सः।
अथर्वाणमथो वबेदं बिभेद नवकेन तु॥१९॥
भेदैरष्टादशैव्यास: पुराणं कृतवान् प्रभु:।
सो5यमेक श्चतुष्पादो वेद: पूर्व पुरातनात्॥ २०॥
ओड्डारो ब्रह्मणो जातः सर्वदोषविशोधन: ।
वेदवेद्यो हि भगवान् वासुदेवः सनातन: ॥ २१॥
स गीयते परो वेदे यो वेदेनं स वेदवित्।
एतत् परतरं ब्रह्म ज्योतिरानन्दमुत्तमम्॥ २२॥
वेदवाक्योदितं तत्त्वं वासुदेव: परं॑ पदम्।
वेदवेद्यमिमं वेत्ति वेदं बेदपरो मुनि:॥ २३॥
अबेदं परम वेत्ति वेदनिष्ठ: सदेश्वर:।
स॒ वेदवेद्यो भगवान् वेदमूर्तिमहेश्वरः ।
स एव वेदो वेद्यश्चन तमेवाश्रित्य मुच्यते॥ २४॥
इत्येदक्षर वेद्यमोड्टारं वेदमव्ययम् |
अवेद्यं च विजानाति पाराशर्यों महामुनि:॥ २५॥
इसी प्रकार उन्होंने सामवेदको हजार शाखाओंमें
विभक्त किया तथा अथर्ववेदको नौ भागों (शाखाओं)-
में बाँटा॥ १९॥
प्रभु व्यासने पुराणसंहितांके अठारह भेद किये।
पूर्वकालमें सभी दोषोंको दूर करनेवाला पुरातन वही
चतुष्पाद प्रणवरूप एक वेद ब्रह्मासे आविर्भूत हुआ।
सनातन भगवान् वासुदेव वेदोंद्वारा जानने योग्य हैं।
बेदोंद्वारा उन्हीं परम (पुरुष)-का गान किया जाता है।
जो इन्हें (परम पुरुषको) जानता है, वही वेदको
जाननेवाला है। ये ही परात्पर ब्रह्म, ज्योतिरूप और श्रैष्ठ
आनन्द हैं। वेदवाक्योंद्वारा प्रतिपादित तत्त्व वासुदेव ही
परमपद हैं | वेदपरायण मुनि वेदोंद्वारा जानने योग्य इन्हीं
(वासुदेवरूप) वेदको जानते हैं॥२०--२३॥
जो परम अवेद्यको जानते हैं तथा वेदनिष्ठ, सदेश्वर,
वेदमूर्ति, महेश्वर हैं, वे भगवान् वेदोंद्वारा ज्ञात होने योग्य
हैं। वे ही भगवान् वेद हैं, वे ही (वेदसे) जानने योग्य
हैं और उन्हींका आश्रय ग्रहण करनेसे मुक्ति मिलती है।
पराशरके पुत्र महामुनि वेदव्यास (ही) इस अविनाशी,
जानने योग्य, प्रणवस्वरूप अव्यय वेद और अवेद
अर्थात् ज्ञात न हो सकने योग्य (परमतत्त्व)-को भी
जानते हैं॥ २४-२५॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहक्यां संहितायां पूर्वविधागे पञ्माशोउध्याय: ॥५०॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें पचासवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥५०॥
* अध्याय ५१९ *
२५३
इक्यावनवाँ अध्याय
कलियुगमें महादेवके अवतारों तथा उनके शिष्योंका वर्णन, भविष्यमें होनेवाले सात
मन्वन्तरोंका नाम-परिगणन, कूर्मपुराणके पूर्वविभागका उपसंहार
सूत उवाच
बेदव्यासावताराणि द्वापरे कथितानि तु।
महादेवावताराणि कलौ श्रूणुत सुब्रता:॥ ९ ॥
आद्ये कलियुगे श्वेतो देवदेवो महाद्युति:
नाम्ना हिताय विप्राणामभूद् वैवस्वतेउन्तरे॥ २ ॥
हिमवच्छिखरे रम्ये छगले पर्वतोत्तमे।
तस्य शिष्या: शिखायुक्ता बभूवुरमितप्रभा:॥ ३ ॥
श्वेत: श्वेतशिखश्चेव एवेतास्थ: एवेतलोहित: ।
चत्वारस्ते महात्मानो ब्राह्मणा वेदपारगा:॥ ४ ॥
सुभानो दमनश्चाथ सुहोत्र: कड्भुणस्तथा।
लोकाक्षिरथ योगीन्द्रो जैगीषव्यस्तु सप्तमे॥ ५ ॥
अष्टमे दथिवाह: स्यान्नवमे वृषभ: प्रभु: ।
भृगुस्तु दशमे प्रोक्तस्तस्मादुग्र: पर: स्मृत:॥ ६ ॥
द्वादशेअत्रि: समाख्यातो बली चाथ त्रयोदशे
चतुर्दशी गौतमस्तु वेदशीर्षा ततः परम्॥ ७ ॥
गोकर्णश्राभवत् तस्माद् गुहावास: शिखण्झाथ।
जटामाल्यटहासश्व दारुको लाड्ली क्रमात्॥ ८ ॥
श्वेतस्तथा परः शूली डिण्डी मुण्डी च वै क्रमात्।
सहिष्णु: सोमशर्मा च नकुलीशोउन्तिमे प्रभु:॥ ९ ॥
वैवस्वतेउन्ते शम्भोरवतारास्त्रिशूलिन: ।
अष्टाविंशतिराख्याता हान्ते कलियुगे प्रभो: ।
तीर्थे कायावतारे स्थाद देवेशो नकुली श्वर: ॥ १०॥
तत्र देवादिदेवस्य चत्वार: सुतपोधना:।
शिष्या बभूवुश्चान्येषां प्रत्येक मुनिपुंगवा: ॥ ११॥
प्रसन्नमनसो दान्ता ऐश्वरीं भक्तिमाश्रिता:।
क्रमेण तान् प्रवक्ष्यामि योगिनो योगवित्तमान्॥ १२॥
सूतजी बोले---सुत्रतो ! द्वापरमें (होनेवाले) वेदव्यासके
अवतारोंको कहा गया, अब (आपलोग) कलियुगमें
होनेवाले महादेवके अवतारोंको सुनें--वैवस्वत मन्वन्तरके
पहले कलियुगमें विप्रोंके हितार्थ अतितेजस्वी देवाधिदेव
(शंकर) श्वेत नामसे पर्वतोंमें श्रेष्ठ हिमालयके रमणीय
छगल नामक शिखरपर अवतरित हुए। उनके शिष्य
शिखायुक्त और अमित प्रभावाले हुए। श्वेत, श्वेतशिख,
श्वैतास्य तथा श्वेतलोहित--ये चार वेदके पारंगत महात्मा
ब्राह्मण (प्रथम कलियुगमें) थे॥ १--४॥
सुभान, दमन, सुहोत्र, कड्डूण और योगीन्द्र लोकाक्षिके
रूपमें क्रमश: दूसरेसे छठे कलियुगतक महादेवका
अवतार हुआ तथा सातवें (कलियुग)-में जैगीषव्य
नामसे महादेवका अवतार हुआ। आवठववेंमें दधिवाह,
नवेंमें प्रभु वृषभ, दसवेंमें भूुगु और उसके आगे
(ग्यारहवें कलियुगमें) उग्रके रूपमें महादेवका अवतार
हुआ। बारहवेंमें अत्रि, तेरहवेंमें बली, चौदहवेंमें गौतम
और उसके बाद (पंद्रहवें कलियुगमें) वेदशीर्षाके
रूपमें महादेव अवतरित हुए॥ ५--७॥
तदनन्तर क्रमश: गोकर्ण, गुहावास, शिखण्डी, जयमाली,
अट्टहास, दारुक, लाड्रली और इनके बाद श्वेत, शूली,
डिण्डी, मुण्डी, सहिष्णु, सोमशर्मा तथा अन्तिम प्रभु
नकुलीशके रूपमें महादेवका अवतार हुआ॥ ८-९॥
वैवस्वत मन्वन्तरमें त्रिशूल धारण करनेवाले प्रभु
शम्भुके अट्टाईइस अवतार कहे गये हैं। अन्तिम कलियुगमें
कायावतार नामक तीर्थमें देवेश्वर नकुलीश्वरके रूपमें
महादेवका अवतार होगा। मुनिपुंगवो ! उस समय देवोंके
आदिदेव (महादेव)-के तीबत्र तपस्याके धनी चार शिष्य
हुए। अन्य अवतारोंमें भो प्रत्येकके (चार) शिष्य हुए।
वे सभी प्रसन्न मनवाले, इन्द्रियनिग्रही और ईश्वरकी
भक्ति करनेवाले थे। उन श्रेष्ठ योग जाननेवाले योगियोंका
मैं क्रमश: वर्णन करता हँ--॥ १०--१२॥
२५४
श्वेत: एवेतशशिखएचेव श्वेतास्यथ: श्वेतलोहित: ।
दुन्दुभि: शतरूपश्च ऋचीक: केतुमांस्तथा।
विकेश श्र विशोक श्चव विशाप: शापनाशन: ॥ १३॥
सुमुखो दुर्मुखश्चेव दुर्दमो दुरतिक्रम:।
सन: सनातनश्चैव कुमारश्च सनन्दन:॥ १४॥
दालभ्यश्व महायोगी धर्मात्मानो महौजस: ।
सुधामा विरजाश्चैव शह्डुपात्रज एव च॥ १५॥
सारस्वतस्तथा मेघो घनवाह: सुवाहन:।
कपिलकश्चासुरिश्चेव वोढु: पञचशिखो मुनि: ॥ १६॥।
पराशरएच गर्गश्च भार्गवश्चाड्रिरास्तथा।
बलबबचब्धुर्निरामित्र: केतुश्चड्रस्तपोधन: ॥ १७॥
लम्बोदरश्न लम्बश्न लम्बाक्षो लम्बकेशक: ।
सर्वज्ञ: समबुद्धिश्व साध्य: सत्यस्तथेव च॥ १८ ॥
सुधामा काश्यपश्चैव वसिष्ठटो विरजास्तथा |
अक्रिरुग्रस्तथा चैव श्रवणो5थ श्रविष्ठकः ॥ १९॥
कुणिश्च कुणिबाहुश्च॒ कुशरीरः कुनेत्रकः।
कश्यपो ह्युशना चैव च्यवनो5थ बृहस्पति: ॥ २० ॥
उतथ्यो वामदेवश्च महाकायो महानिल:।
वाचश्रवा: सुपीकश्च श्यावाश्र: सपथी श्वर: ॥ २१॥
हिरण्यनाभ: कौशल्यो लोकाक्षि: कुथुमिस्तथा।
सुमन्तुर्वर्चरी विद्वानू कबन्ध: कुशिकन्धर:॥ २२॥
प्लक्षो दार्भायणिश्चैव केतुमान् गौतमस्तथा।
भल्लापी मधुपिड्गशएच श्वेतकेतुस्तपोनिधि: ॥ २३ ॥
उशिजो बृहदुक्थश्च देवल: कपिरेव च।
शालिहोत्रोउग्निवेश्यश्व युवनाश्र: शरद्वसु:॥ २४॥
छगल: कुण्डकर्णश्व॒ कुम्भश्चैव प्रवाहक: ।
उलूको विद्युतश्चेव शाद्वलो ह्ाश्वलायन:॥ २५॥
अक्षपाद: कुमारश्च उलूको वत्स एव च।
कुशिकश्चैव गर्गश्च मित्रको ऋष्य एवं च॥ २६॥
शिष्या एते महात्मान: सर्वावर्तेषु योगिनाम्
विमला ब्रह्मभूयिष्ठा ज्ञानयोगपरायणा:॥ २७॥
कुर्वन्ति चावताराणि ब्राह्मणानां हिताय हि।
योगेश्वराणामादेशाद वेदसंस्थापनाय बै॥ २८॥
* कूर्मपुराण *
श्वेत, श्वेतशिख, श्वेतास्य, श्वेतलोहित, दुन्दुभि,
शतरूप, ऋचीक, केतुमान्, विकेश, विशोक, विशाप,
शापनाशन, सुमुख, दुर्मुख, दुर्दम, दुरतिक्रम, सनक,
सनातन, सनत्कुमार, सनन्दन, महायोगी दालभ्य, सुधामा,
विरजा और शक्लुपात्रज-ये धर्मात्मा और महान्
ओजस्वी थे॥ १३--१५॥
(ऐसे ही) सारस्वत, मेघ, घनवाह, सुवाहन,
कपिल, आसुरि, वोढु, मुनि, पद्चशिख, पराशर, गर्ग,
भार्गव, अड्विरा, बलबन्धु, निरामित्र, तपोधन, केतुश्रंग,
लम्बोदर, लम्ब, लम्बाक्ष, लम्बकेशक, सर्वज्ञ, समबुद्धि,
साध्य, सत्य, सुधामा, काश्यप, वसिष्ठ, विरजा,
अत्रि, उग्र, श्रवण, श्रविष्ठक, कुणि, कुणिबाहु,
कुशरीर, कुनेत्रक, कश्यप, उशना, च्यवन, बृहस्पति,
उतथ्य, वामदेव, महाकाय, महानिल, वाचश्रवा,
सुपीक, श्यावाश्व और सपथीश्वर (नामक शिष्य
महादेवके अवतारोंके थे)॥ १६--२१॥
(इनके अतिरिक्त) हिरण्यनाभ, कौशल्य, लोकाक्षि,
कुथुमि, सुमन्तु, वर्चरी, विद्वान कबन्ध, कुशिकन्धर,
प्लक्ष, दार्भायणि, केतुमान, गौतम, भल्लापी, मधुपिड़,
तपोनिधि श्वेतकेतु, उशिज, बृहदुक्थ, देवल, कपि,
शालिहोत्र, अग्निवेश्य, युवनाश्व, शर्धसु, छगल, कुण्डकर्ण,
कुम्भ, प्रवाहक, उलूक, विद्युत, शाद्वल, आश्वलायन,
अक्षपाद, कुमार, उलूक, वत्स, कुशिक, गर्ग, मित्रक
और ऋष्य (नामक शिष्य थे)॥ २२--२६॥
योगियोंके* समस्त अवतारोंकी आवृत्तिमें ये ही
महात्मा शिष्य होते हैं। ये सभी शुद्ध, ब्रह्मभूयिष्ठ और
ज्ञान-योगपरायण हैं। ब्राह्मणोंके कल्याणके लिये तथा
वेदोंकी स्थापनाके लिये योगेश्वर( परब्रह्म )-के आदेशसे
(ये महात्मा) अवतार धारण करते हैं॥२७-२८॥
* योगी-महादेव-विष्णु आदि। ये लोग परम योगी हैं।
* अध्याय ५१९ *
ये ब्राह्मणा: संस्मरन्ति नमस्यन्ति च सर्वदा।
तर्पयन्त्यर्चयन्त्येतान् ब्रह्मविद्यामवाप्नुयु: ॥ २९॥
इृदं वैवस्वतं प्रोक्तमन्तरं विस्तरेण तु।
भविष्यति च सावर्णों दक्षसावर्ण एव च॥ ३०॥
दशमो ब्रह्मसावर्णो धर्मसावर्ण एव च।
द्वाइशो रुद्रसावर्णों रोचमानस्त्रयोदश:।
भौत्यश्चतुर्दश: प्रोक्तो भविष्या मनव: क्रमात्॥ ३१॥
अय॑ व: कथितो ह्ाांशः पूर्वों नारायणेरित: ।
भूतभव्यर्वर्तमानैराख्यानैरुपबंहितः ॥ ३२॥
य: पठेच्छुणुयाद् वापि श्रावयेद् वा द्विजोत्तमान्।
स सर्वपापनिर्मुक्तो ब्रह्मणा सह मोदते॥ ३३॥
पठेद् देवालये स्नात्वा नदीतीरेषु चैव हि।
नारायणं नमस्कृत्य भावेन पुरुषोत्तमम्॥ ३४॥
नमो देवादिदेवाय देवानां परमात्मने।
पुरुषाय पुराणाय विष्णवे कूर्मरूपिणे॥ ३५॥
२५५७५
जो ब्राह्मण सर्वदा इनका स्मरण करते हैं, इन्हें
नमस्कार करते हैं, इनका तर्पण करते हैं और इनकी
पूजा करते हैं, वे ब्रह्मविद्याको प्राप्त कर लेते हैं। वैवस्व॒त
मन्वन्तरका विस्तारसे वर्णन किया। सावर्ण (आठवाँ)
तथा (नवाँ) दक्षसावर्ण मन्वन्तर भविष्यमें होंगे।
दसवाँ ब्रह्मसावर्ण, ग्यारहवाँ धर्मसावर्ण, बारहवाँ
रुद्रसावर्ण तथा तेरहवाँ रोचमान मन्वन्तर है। चौदहवाँ
भौत्य मन्वन्तर कहा गया है। ये मनु क्रमसे भविष्यमें
होंगे॥ २९--३१ ॥
मैंने नारायणद्वारा कहे गये भूत, भविष्य तथा
वर्तमानके आख्यानोंसे उपबृंहित इस पूर्वभागको आप
लोगोंसे कहा। जो (ब्राह्मण) इसे पढेगा, सुनेगा अथवा
श्रेष्ठ द्विजोंको* सुनायेगा, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर
ब्रह्मेके साथ आनन्द प्राप्त करेगा। स्नान करनेके अनन्तर
नदियोंके किनारोंपर अथवा देवमन्दिरमें भक्तिभावसे
पुरुषोत्तम नारायणको नमस्कार कर इसका पाठ करना
चाहिये। देवोंके आदिदेव, देवोंके परमात्मा, पुराण पुरुष
कूर्मरूपी विष्णुकों नमस्कार है॥३२--३५॥
जति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहम्धां संहितायां पूर्वव्भागे एकपञ्ञाशोउध्याय: ॥ ५९ ॥
॥ पूर्वविभागः समाप्त: ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके पूर्वविभागमें इक््यावनवाँ अध्याय समासत हुआ॥५१॥
वनससा-ास मा ब्प खा पक ०००००८- हैक 07 किंन्:००८०---पीसाकपऋरा०न्न्>«+न+++9++.
* द्विजोंको आगे करके पुराण- श्रवण करानेकी विधि है। पुराण-श्रवणका अधिकार अन्य वर्णोको भी है। द्विज मुख्यरूपसे सात्तिक
वृत्तिके होते हैं तथा प्राणिमात्रका कल्याण ही इनका लक्ष्य होता है, इसीलिये इसकी प्रमुखता है।
( २५६ )
्थ जा ग्रय डा * ४२ क हे
[ उपरिविभाग ]
पहला अध्याय
ईश्वर (शिव ) तथा ऋषियोंके संवादमें ईश्वरगीताका उपक्रम
( इश्विर्गीता प्रारम्भ )
ऋषय ऊचु:
भवता कथित: सम्यक् सर्ग: स्वायम्भुवस्तत: ।
ब्रह्माण्डस्यास्य विस्तारो मन्वन्तरविनिश्चय: ॥ १ ॥
तत्रेश्वेश्रो देवो वर्णिभिर्धर्मतत्परै:।
ज्ञानयोगरतैर्नित्यमाराध्य:. कथितस्त्वया॥ २ ॥
तद्ददाशेषसंसारदुःखनाशमनुत्तमम् ।
ज्ञानं ब्रहोकविषयं येन पश्येम तत्परम्॥ ३ ॥
त्वं हि नारायणात् साक्षात् कृष्णद्वैपायनात् प्रभो।
अवाप्ताखिलविज्ञानस्तत्त्वां पृच्छामहे पुनः॥ ४ ॥
श्रुत्वा मुनीनां तद वाक्य कृष्णद्वैपायन प्रभुम ।
सूतः पौराणिक: स्मृत्वा भाषितुं ह्युपचक्रमे ॥ ५ ॥
अधास्मिन्नन्तरे व्यास: कृष्णद्वेपायन: स्वयम्।
आजगाम मुनिमश्रेष्ठा यत्र सत्र समासते॥ ६ ॥
त॑ दृष्ठा वेदविद्वांस कालमेघसमद्युतिम्।
व्यासं कमलपत्राक्ष॑ प्रणेमुद्दधिजपुंगवा:॥ ७ ॥
पपात दण्डवद् भूमौ दृष्टासो रोमहर्षण:।
प्रदक्षिणीकृत्य गुरु प्राउजलि: पार्श्वगो$भवत्॥ ८ ॥
पृष्टास्तेडइनामयं विप्रा: शौनकाद्या महामुनिम् ।
समाश्चास्यासन तस्मै तदयोग्यं समकल्पयन्॥ ९ ॥
अधेतानब्रवीद् वाक्यं पराशरसुतः प्रभुः।
कच्चिन्न तपसो हानि: स्वाध्यायस्य श्रुतस्य च॥ १० ॥
3] (पा ?ण्थ्ा_5९८०_0_[_गगा।
ऋषियोंने कहा--(सूतजी!) आपने स्वायम्भुव
मन्वन्तरकी सृष्टि तदुपरान्त इस ब्रह्माण्डका विस्तार और
(अन्य विभिन्न) मन्वन्तरोंके विषयमें भलीभाँति बतलाया
तथा उन (मन्वन्तरों )-में धर्मपरायण ज्ञानयोगी वर्णधर्मके
अनुयायियोंके नित्य आराध्य ईश्वरोंक ईश्वर देवका भी
वर्णन आपने किया। इसीके साथ ही आपने सम्पूर्ण
संसारके दुःखोंको नष्ट करनेवाले एकमात्र ब्रह्मविषयक
उस उत्तम ज्ञानका भी वर्णन किया, जिसके द्वारा हम उस
परम तत्त्वको देख सकते हैं। प्रभो! आपने साक्षात् नारायण
कृष्णद्वैपायन (व्यासजी)-से सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान प्राप्त किया
है, इसलिये हम आपसे पुन: पूछते हैं॥ १--४॥
मुनियोंके उस वाक्यकों सुनकर पौराणिक सूतजीने
प्रभु कृष्ण-द्वैपायनका स्मरणकर कहना प्रारम्भ किया।
इसी बीच कृष्ण-द्वैपायन व्यास स्वयं वहाँ पहुँच गये
जहाँ श्रेष्ठ मुनिजन यज्ञ कर रहे थे। कृष्ण मेघके
समान द्युतिवाले तथा कमलपत्रके समान नेत्रवाले उन
बेदके विद्वान् व्यासजीको देखकर श्रैष्ठ द्विजोंने उन्हें
प्रणाम किया॥ ५--७॥
रोमहर्षण सूतजीने भी उन्हें देखकर भूमिपर गिरकर
दण्डवत् प्रणाम किया और गुरुकी प्रदक्षिणाकर हाथ
जोड़ते हुए उनके पार्श्वभागमें खड़े हो गये। महामुनि
(व्यास)-के द्वारा आरोग्यके विषयमें प्रश्न पूछे जानेपर
उसका यथोचित उत्तर देकर शौनक आदि महामुनियोंने
व्यासजीको आश्वस्त किया तथा उनके योग्य आसन
उन्हें प्रदान किया॥ ८-९॥
तदनन्तर पराशरजीके पुत्र प्रभु (व्यास)-ने उनसे
पूछा--क्या आप लोगोंके तप, स्वाध्याय तथा श्रवण
किये गये वेदादिकी हानि तो नहीं हो रही है?
२५८
* कूर्मपुराण *
तब उन सूतने अपने गुरु महामुनि (व्यास)-को प्रणामकर
ततः स सूतः स्वगुरुं प्रणम्याह महामुनिम्।
ज्ञानं तद् ब्रह्मविषयं मुनीनां वक्तुमहसि॥ ११॥
इमे हि मुनयः शान्तास्तापसा धर्मतत्परा:।
शुश्रूषा जायते चैषां वक्तुमहसि तत्त्वत:॥ १२॥
ज्ञान विमुक्तिदं दिव्यं यन्मे साक्षात् त्वयोदितम्।
मुनीनां व्याहतं पूर्व विष्णुना कूर्मरूपिणा॥ १३॥
श्रुत्वा सूतस्य वचन मुनि: सत्यवतीसुतः।
प्रणम्य शिरसा रुद्रं वच: प्राह सुखावहम्॥ १४॥
व्यास उवाच
वक्ष्ये देवो महादेव: पृष्टो योगीश्वरे: पुरा।
सनत्कुमारप्रमुखै: स्वयं यत् समभाषत॥ १५॥
सनत्कुमार: सनकस्तथेव च सनन्दन:।
अड्विरा रुद्रसहितो भृगुः परमधर्मवित्॥ १६॥
कणाद: कपिलो योगी वामदेवो महामुनि: ।
शुक्रो वसिष्ठो भगवान् सर्वे संयतमानसा:॥ १७॥
परस्परं विचार्येते संशयाविष्टचेतस: ।
तप्तवन्तस्तपो घोरं पुण्ये बदरिकाश्रमे॥ १८॥
अपश्यंस्ते महायोगमृषिं धर्मसुतं शुच्रिम्।
नारायणमनाहन्तं नेण सहित॑ तदा॥ १९॥
संस्तूय विविधे: स्तोत्रे: सर्वे वेदसमुद्धवे: |
प्रणेमुर्भक्तिसंयुक्ता योगिनो योगवित्तमम्॥ २०॥
विज्ञाय वाउिछतं तेषां भगवानपि सर्ववित्।
प्राह गम्भीरया वाचा किमर्थ तप्यते तप: ॥ २१॥
अब्लुवन् हष्टमनसो विश्वात्मानं सनातनम्।
साक्षान्नारायणं देवमागतं सिद्धिसूचकम्॥ २२॥
बयं संशयमापत्ना: सर्वे वे ब्रह्मवादिन:।
भवन्तमेक॑ शरणं प्रपन्ना: पुरुषोत्तमम्॥ २३॥
त्वं हि तद वेत्थ परम॑ सर्वज्ञों भगवानृषि:।
नारायण: स्वयं साक्षात् पुराणो5व्यक्तपूरुष: ॥ २४॥
नहानयो विद्यते वेत्ता त्वामृते परमेश्वर।
शुश्रूषास्माकमखिलं संशय छेत्तुमहसि॥ २५॥
किं कारणमिदं कृत्स्न॑ं को5नुसंसरते सदा।
कश्चिदात्मा च का मुक्ति: संसार: किंनिमित्तक: ॥ २६॥
कहा--आप ब्रह्मविषयक ज्ञान मुनियोंको बतलायें। ये
मुनि शान्त, तपस्वी तथा धर्मपरायण हैं। इन्हें सुननेकी
इच्छा है, आप (कृपया) यथार्थरूपसे ब्रह्मविषयक
सर्वोच्च ज्ञानका उपदेश करें। मोक्ष प्रदान करनेवाले
जिस दिव्य ज्ञानको आपने मुझे तथा पूर्वकालमें कूर्मरूप
धारणकर विष्णुने मुनियोंकों बतलाया था (इस समय
आप उसी ज्ञानका उपदेश दें)। सूतके वचन सुनकर
सत्यवतीके पुत्र मुनि (व्यास)-ने रुद्रको मस्तकद्ठारा
प्रणमकर सुखदायक वचन कहा--॥ १०--१४॥
व्यासजी बोले-- प्राचीन कालमें सनत्कुमार आदि
प्रमुख योगीश्वरोंद्वारा पूछनेपर स्वयं प्रभु महादेवने जो
कहा था, उसीको मैं कहता हूँ। सनत्कुमार, सनक,
सनन्दन, अंगिरा, रुद्रसहित परम धर्मकज्ञ भगु, कणाद,
कपिल, योगी महामुनि वामदेव, शुक्र तथा भगवान्
वसिष्ठ--इन सभी संयमित चित्तवाले मुनियोंने संशयान्वित
होनेपर परस्पर परामर्श करके पवित्र बदरिकाश्रममें
घोर तप किया। तब उन लोगोंने आदि और अन्तसे
रहित धर्मपुत्र महायोगी पवित्र नारायण नामक ऋषिका
नरके साथ दर्शन किया। उन भक्तिसम्पन्न योगियोंने
बेदोंमें वर्णित विविध स्तोत्रोंद्वारा स्तुति करके उन
श्रेष्ठ योगीको प्रणाम किया सर्वज्ञ भगवान् (नारायण)-
ने उनके अभीष्टको जानकर पुनः गम्भीर वाणीमें
उनसे पूछा कि आपलोग किस प्रयोजनसे तपस्या कर
रहे हैं 72॥ १५--२१॥
प्रसन्नन मनवाले ऋषियोंने जिनका शुभ आगमन
अभीष्ट-सिद्धिकी निश्चित सूचना देता है (ऐसे) उन
विश्वात्मा, सनातन साक्षात् नारायणदेवसे कहा-- ॥ २२॥
( भगवन्!) हम सभी ब्रह्मवादी संशयमें पड़ गये हैं।
आप पुरुषोत्तम हैं, हम एकमात्र आपकी शरणमें आये हैं।
आप उस परम तत्त्वको जाननेवाले हैं, सर्वज्ञ, भगवान्,
ऋषि तथा स्वयं साक्षात् नारायण अव्यक्त पुराणपुरुष हैं।
परमेश्वर ! आपको छोड़कर अन्य कोई दूसरा जाननेवाला
नहीं है, हमें सुननेकी इच्छा है, आप सम्पूर्ण संशयको दूर
करनेमें समर्थ हैं। इस सम्पूर्ण (कार्यरूप जगत्)-का
कारण क्या है? कौन नित्य गतिशील रहता है ? आत्मा
कौन है ? मुक्ति क्या है और संसार (-की रचना)-का क्या
प्रयोजन है ? इस संसारका चलानेवाला शासक कौन हैं ?
* अध्याय २१ *
कः संसारयतीशान: को वा सर्व प्रपश्यति।
कि तत् परतरं ब्रह्म सर्व नो वक्तुमईहसि॥ २७॥
एवमुक्ते तु मुनयः प्रापश्यन् पुरुषोत्तमम्।
विहाय तापसं रूप॑ संस्थितं स्वेन तेजसा॥ २८ ॥
विभ्राजमानं विमलं प्रभामण्डलमण्डितम्।
श्रीवत्सवक्षस॑ देवं॑ तप्तजाम्बूनदप्रभम्॥ २९॥
शट्डुचक्रगदापाणिं शार्ड्रहस्तं अयावुतम्।
न दृष्टस्तत्क्षणादेव नरस्तस्यैव त्तेजसा॥ ३०॥
तदन्ते महादेव: शशाड्डाड्ड्तिशेखर:।
प्रसादाभिमुखो रुद्र: प्रादुरासीन्महेश्वर: ॥ ३१॥
निरीक्ष्य ते जगन्नाथं त्रिनेत्रं चन्द्रभूषणम्।
तुष्टवुई'ष्टममसो भक्त्या तं॑ परमेश्वरम्॥ ३२॥
जयेश्रर महादेव जय भूतपते शिव।
जयाशेषमुनीशान तपसाभिप्रपूजित॥ ३३॥
सहस्त्रमूर्ते विश्वात्मन्_ जगद्यन्त्रप्रवर्तक ।
जयानन्त जगज्न्मत्राणसंहारकारण ॥ ३४॥
सहस्त्रचरणेशान शम्भो योगीन्द्रवन्दित।
जयाम्बिकापते देव नमस्ते परमेश्वर॥ ३५॥
संस्तुतो भगवानीशस्त््यम्बको भक्तवत्सल:।
समालिड्ल्ब् हषीकेशं प्राह गम्भीरया गिरा॥ ३६॥
किमर्थ पुण्डरीकाक्ष मुनीन्द्रा ब्रह्मवादिन: ।
इमं समागता देशं कि वा कार्य मयाच्युत॥ ३७॥
आकर्णर्य भगवदवाक्यं देवदेवो जनार्दन: ।
प्राह देवो महादेवं प्रसादाभिमुखं स्थितम्॥ ३८ ॥
इमे हि मुनयो देव तापसा: क्षीणकल्मषा: ।
अभ्यागता मां शरणं सम्यग् दर्शनकाड्लिण: ॥ ३९॥
यदि प्रसन्नो भगवान् मुनीनां भावितात्मनाम्।
संनिधौ मम तज्ज्ञानं दिव्यं वक्तुमिहाहसि।॥ ४० ॥
त्वं हि वेत्थ स्वमात्मानं न हान्यो विद्यते शिव ।
ततस्त्वमात्मनात्मानं मुनीन्द्रेभ्य: प्रदर्शय॥ ४१॥
एवमुक्त्वा हृषीकेश: प्रोवाच मुनिपुड्वान्।
प्रदर्शयन् योगसिद्धि निरीक्ष्य वृषभध्वजम्॥ ४२॥
संदर्शनान्महेशस्य शंकरस्याथ शूलिनः।
कृतार्थ स्वयमात्मानं ज्ञातुमहथ तत्त्वतः॥ ४३॥
२५९
अथवा सबका द्र॒ष्टा कौन है ? परात्पर ब्रह्म क्या है ? यह
सब आप हमें बतलायें ॥ २३--२७ ॥
ऐसा कहे जानेपर मुनियोंने तपस्वी-रूपका परित्याग
किये हुए, अपने तेजद्दारा प्रतिष्ठित, प्रकाशमण्डलसे
मण्डित, वक्ष:स्थलमें श्रीवत्स धारण किये हुए, तप्त स्वर्णके
समान आभावाले और हाथोंमें शंख, चक्र, गदा तथा शार्ड्र
नामका धनुष धारण किये हुए लक्ष्मीसहित विमल एवं
दुतिमान् पुरुषोत्तम देवका दर्शन किया । उस समय उन्हींके
तेजके कारण नर (ऋषि) नहीं दिखलायी पड़े॥ २८--३० ॥
उसी समय चन्द्रमासे अंकित मस्तकवाले महादेव
महेश्वर रुद्र प्रसन्नतापूर्वक प्रकट हुए। चन्द्रभूषण जगन्नाथ
त्रिलोचनका दर्शनकर प्रसन्न मनवाले वे सभी (मुनि)
भक्तिपूर्वक उन परमेश्वरकी स्तुति करने लगे--॥ ३१-३२॥
ईश्वरकी जय हो। भूतपति महादेव शिवकी जय हो।
सभी मुनियोंके स्वामी तथा तपस्याद्वारा भलीभाँति प्रपूजित
होनेवाले आपकी जय हो | सहस्रमूर्ति ! विश्वात्मन् ! संसाररूपी
यन्त्रके प्रवर्तकत और संसारके जन्म, रक्षा और संहारके
कारण हे अनन्त! आपकी जय हो। हजारों चरणवाले,
ईशान, शम्भु, योगीन्द्रोंद्रारा वन्दित अम्बिकापति ! आपकी
जय हो। परमेश्वरदेव! आपको नमस्कार है॥ ३३--३५॥
इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भक्तवत्सल भगवान्
ज्यम्बक ईशने हषीकेशका आलिंगनकर गम्भीर वाणीमें
कहा- हे अच्युत ! पुण्डरीकाक्ष ! ये ब्रह्मवादी मुनीन्द्र किस
कारणसे इस स्थानपर आये हैं अथवा मुझे क्या करना है ?
भगवान्के वाक्यको सुनकर देवाधिदेव जनार्दनदेवने कृपा
करनेके लिये उद्यत सामने स्थित महादेवसे कहा--देव !
ये सभी मुनिगण तपस्वी और निष्पाप हैं, ये लोग भलीभाँति
तत्त्वदर्शनकी इच्छासे मेरी शरणमें आये हैं। हे भगवन्!
यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरे समीप इन भावनामय मुनियोंको
वह दिव्य ज्ञान प्रदान करें॥ ३६--४० ॥
शिव! केवल आप ही अपने-आपको जानते हैं
दूसरा कोई आपको जाननेवाला नहीं है। अत: आप
स्वयं इन मुनीन्द्रोंकोी अपना स्वरूप दिखलायें। ऐसा
कहकर हृषीकेशने योगसिद्धियोंको दिखाते हुए वृषभध्वजकी
ओर देखकर श्रेष्ठ मुनियोंसे कहा--(हे मुनिगणो।)
त्रिशूल धारण करनेवाले शंकर महेशके दर्शनसे आपलोग
अपने-आपको कृतार्थ समझें। आपलोग यशथार्थरूपसे
२६०
प्रष्टमर्हथ विश्वेशं प्रत्यक्ष॑ पुरत: स्थितम्।
ममेैव संनिधावेष यथावद् वक्तुमीश्रवर:॥ ४४॥
निशम्य विष्णुवचनं प्रणम्य वृषभध्वजम्।
सनत्कुमारप्रमुखा: पृच्छन्ति सम महेश्वरम्॥ ४५॥
अथास्मिन्नन्तरे दिव्यमासनं विमलं शिवम्।
किमप्यचिन्त्यं गगनादीश्वराह समुद्ब॒भौ॥ ४६॥
तत्राससाद योगात्मा विष्णुना सह विश्वकृत् ।
तेजसा पूरयन् विश्वं भाति देवो महेश्वर: ॥ ४७॥
तं ते देवादिदेवेशं शंकरं ब्रह्मवादिन:ः।
विभ्राजमानं विमले तस्मिन् ददृशुरासने ॥ ४८ ॥
यं प्रपश्यन्ति योगस्था: स्वात्मन्यात्मानमी श्वरम् ।
अनन्यतेजसं शान्तं शिवं ददृशिरि किल॥ ४९॥
यतः प्रसूतिर्भूतानां यत्रैतत् प्रविलीयते।
तमासनस्थं भूतानामीशं ददृशिरि किल॥ ५०॥
यदन्तरा सर्वमेतद् यतो5भिन्नमिदं जगत्।
स वासुदेवमासीनं तमीशं ददृूशुः किल॥ ५१॥
प्रोवाच पृष्टो भगवान् मुनीनां परमेश्वर: ।
निरीक्ष्य पुण्डरीकाक्ष स्वात्मयोगमनुत्तमम्॥ ५२॥
तच्छुणुध्व॑ यथान्यायमुच्यमानं मयानघा:।
प्रशान्तमानसा: सर्वे ज्ञानमीश्ररभाषितम्॥ ५३॥
* कूर्मपुराण *
ज्ञान प्राप्त करने योग्य हैं, सामने प्रत्यक्ष स्थित विश्वेशसे
(उस तत्त्वज्ञानके विषयमें) पूछें। मेरी संनिधिमें ये
यथार्थरूपसे वर्णन करनेमें समर्थ हैं। विष्णुका (यह)
वचन सुनकर तथा वृषभध्वजको प्रणामकर सनत्कुमार
आदि (ऋषियों )-ने महेश्वरसे पूछा-- ॥ ४१--४५॥
इसी बीच आकाशसे ईश्वरके योग्य एक अचिन्त्य
दिव्य निर्मल आसन प्रकट हुआ। विश्वकर्ता वे योगात्मा
(महेश्वर) विष्णुसहित उस आसनपर बैठ गये। अपने
तेजसे विश्वको पूरित करते हुए महेश्वर देव वहाँ सुशोभित
हो रहे थे। उन ब्रह्मवादियोंने उन प्रकाशमान देवाधिदेव
शंकरका उस निर्मल आसनपर सुशोभित होते हुए दर्शन
किया। योगमें स्थित लोग अपनी आत्मामें जिन आत्मस्वरूप
ईश्वरका दर्शन करते हैं, उन्हीं अनन्य तेजस्वी शान्तस्वरूप
शिवको उन ब्रह्मवादियोंने देखा, जिनसे समस्त प्राणियोंको
उत्पत्ति होती है और जिनमें यह सब विलीन हो जाता है,
उन प्राणियोंके ईशको ब्रह्मवादियोंने आसनपर विराजमान
देखा। जिनके भीतर यह सम्पूर्ण संसार है और यह जगत्
जिनसे अभिन्न है, उन परमेश्वरको वासुदेवके साथ आसनपर
विराजमान देखा ॥ ४६--५१ ॥
मुनियोंके पूछनेपर परमेश्वर (महेश्वर) भगवान्
पुण्डरीकाक्ष (विष्णु)-की ओर देखकर अपने श्रैष्ठ
योगका वर्णन करने लगे। शान्त मनवाले अनघ मुनियो!
आप सभी लोग सुनें--में ईश्वरद्वारा कहे गये ज्ञानका
वर्णन यथोचितरूपसे कर रहा हूँ॥५२-५३॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहस्रधां संहितायामुपारिविभागे (ईश्चरगीतासु ) प्रधमोउध्याय: ॥ १॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) प्रथम अध्याय समाप्त हुआ॥१॥
दूसरा अध्याय
आत्मतत्त्वके स्वरूपका निरूपण, सांख्य एवं योगके ज्ञानका अभेद,
आत्मसाक्षात्कारके साधनोंका वर्णन
ईश्वर उवाच
अवाच्यमेतद विज्ञानमात्मगुहां सनातनम्।
यन्न देवा विजानन्ति यतन्तोड5पि द्विजातय:॥ १॥
इदं ज्ञानं समाश्रित्य ब्रह्मभूता द्विजोत्तमा: ।
ईश्वरने कहा--द्विजो! देवता लोग प्रयत्न करनेपर
भी जिसे नहीं जान पाते हैं, मेरा यह विज्ञान अत्यन्त
गुह्य है, सनातन है एवं बतलाने योग्य (भी) नहीं है।
इस ज्ञानका आश्रय ग्रहणकर श्रेष्ठ द्विजगणोंने ब्रह्मभावको
प्राप्त किया है। (इस ज्ञानके कारण) पूर्वकालमें भी
ब्रह्मवादियोंको पुनः संसारमें आना नहीं पड़ा (अर्थात्
न संसारं प्रपद्चन्ते पूर्वेडपि ब्रह्मवादिन:॥ २॥ | इस ज्ञानसे ब्रह्मभाव अवश्य प्राप्त होता है और ब्रह्मभाव
* अध्याय २ *
गुह्याद् गुह्मतमं साक्षाद् गोपनीयं प्रयत्नतः।
वक्ष्ये भक्तिमतामद्य युष्माकं ब्रह्मवादिनाम्॥ ३॥
आत्मा यः: केवल: स्वस्थ: शान्त:ः सूक्ष्म: सनातन: ।
अस्ति सर्वान्तर: साक्षाच्चिन्मात्रस्तमस: पर: ॥ ४ ॥
सोउन्तर्यामी स पुरुष: स प्राण: स महे श्वर: ।
स कालो5ग्रिस्तदव्यक्त स एवेदमिति श्रुति: ॥ ५॥
अस्माद् विजायते विश्वमत्रेव प्रविलीयते।
स मायी मायया बद्धः करोति विविधास्तनू: ॥ ६॥
न चाप्ययं संसरति न च संसारयेत् प्रभुः।
नाय॑ पृथ्वी न सलिलं न तेज: पवनो नभः ॥ ७॥
न प्राणो न मनो5व्यक्त न शब्द: स्पर्श एव च।
न रूपरसगन्धाश्व नाहं कर्ता न वागपि॥ ८ ॥
न पाणिपादौ नो पायुर्न चोपस्थं द्विजोत्तमा: ।
नकर्तान च भोक्ता वा न च प्रकृतिपूरुषौ।
न माया नेव च प्राणश्चैतन्यं परमार्थतः॥ ९ ॥
यथा प्रकाशतमसो: सम्बन्धो नोपपद्चते।
तद्ददेक्यं न सम्बन्ध: प्रपञ्ञलपरमात्मनो:॥ १०॥
छायातपौ यथा लोके परस्परविलक्षणोौ।
तद्बत् प्रपक्ञषपुरुषा विभिन्नौ परमार्थत:॥ ११॥
यद्यात्मा मलिनो3स्वस्थो विकारी स्यात् स्वभावत: ।
नहि तस्य भवेन्मुक्तिर्जन्मान्तशतैरपि॥ १२॥
पश्यन्ति मुनयो युक्ता: स्वात्मानं परमार्थतः ।
विकारहीनं निर्दुःखमानन्दात्मानमव्ययम्॥ १३॥
अहं कर्ता सुखी दुःखी कृशः स्थूलेति या मति: ।
सा चाहंकारकर्त॑त्वादात्मन्यारोप्यते जनेः॥ १४॥
वदन्ति वेदविद्वांस: साक्षिणं प्रकृते: परम्।
भोक्तारमक्षरं शुद्ध सर्वत्र समवस्थितम्॥ १५॥
२६१
प्राप्त करनेके अनन्तर पुनः संसारमें आगमन नहीं होता) ।
यह ज्ञान गुह्मसे भी गुह्मतम है, इस साक्षात् ज्ञानको
प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना चाहिये। आप भक्तिसम्पन्न
ब्रह्मवादियोंको आज मैं यह ज्ञान बतलाऊँगा॥ १--३॥
जो आत्मा अद्वितीय, स्वस्थ, शान्त, सूक्ष्म, सनातन,
सभीका अन्तरतम साक्षात् चिन्मात्र और तमोगुणसे परे
है, वही (आत्मा) अन्तर्यामी है, पुरुष है, वही प्राण है,
वही महेश्वर है, वही काल तथा अग्नि है और वही
अव्यक्त है--ऐसा श्रुतिका कथन है॥ ४-५॥
इसीसे संसार उत्पन्न होता है और इसीमें विलीन हो
जाता है। वह मायाका नियामक मायासे आबद्ध होकर
अपनी इच्छासे मायाको अड्रीकार कर विविध शरीरोंको
उत्पन्न करता है। यह प्रभु आत्मा न तो गतिशील है और
न गतिप्रेरक है। न यह पृथ्वी है, न जल है, न तेज है, न
वायु है और न आकाश ही है॥ ६-७॥
यह न प्राण है, न मन है, न अव्यक्त है, न शब्द है, न
स्पर्श है, न रूप, न रस और न गन्ध ही है।न अभिमानी *
है, न वाणी ही है। द्विजोत्तमो! यह न हाथ, न पैर, न पायु
(शौचेन्द्रिय) और न उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय), न कर्ता, न भोक्ता
तथा प्रकृति-पुरुष भी नहीं है। माया भी नहीं है, प्राण भी
नहीं है, अपितु परमार्थत: चैतन्यमात्र है॥ ८-९ ॥
जिस प्रकार प्रकाश और अन्धकारका कोई सम्बन्ध
नहीं हो सकता, उसी प्रकार (सांसारिक) प्रपञ्ञ और परमात्माका
भी कोई ऐक्य (अभेद्य आदि) सम्बन्ध नहीं हो सकता॥ १० ॥
जिस प्रकार संसारमें धूप और छाया एक-दूसरेसे
विलक्षण हैं, वैसे ही पुरुष तथा प्रपञ्ञ भी तत्त्वत:
एक-दूसरेसे भिन्न हैं। यदि आत्मा स्वभावसे मलिन,
अस्वस्थ तथा विकारयुक्त होता तो उसकी मुक्ति सैकड़ों
जन्मोंमें भी नहीं होती। योगयुक्त मुनिजन परमार्थत:
अपने विकाररहित, दुःखशून्य, आनन्दस्वरूप, अव्यय
आत्माका दर्शन करते हैं॥११-१३॥
मैं कर्ता हूँ, सुखी, दुःखी, कृश एवं स्थूल हँ--
इस प्रकारकी जो बुद्धि है, वह मनुष्योंके द्वारा अहंकारके
कारण ही अपनी आत्मामें आरोपित है। वेदके विद्वान्
लोग (आत्माको) साक्षी, प्रकृतिसे परे, भोक्ता, अक्षर,
शुद्ध तथा सर्वत्र सम रूपसे व्याप्त बतलाते हैं। अतएव
* 'अहम्' इस शब्दका प्रयोक्ता नहीं है, न 'अहम्' यह शब्द ही है।
२६२
* कूर्मपुराण *
तस्मादज्ञानमूलो हि संसार: सर्वदेहिनाम्।
अज्ञानादन्यथा ज्ञानं तच्च प्रकृतिसड्भतम्॥ १६॥
नित्योदित: स्वयं ज्योति: सर्वग: पुरुष: पर: ।
अहंकाराविवेकेन कत्तहमिति मन्यते॥ १७॥
पश्यन्ति ऋषयो5व्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् |
प्रधान प्रकृतिं बुद्धवा कारणं ब्रह्मगादिन: ॥ १८ ॥
तेनायं संगतो ह्ात्मा कूटस्थो5पि निरञ्जन: ।
स्वात्मानमक्षरं ब्रह्म नावबुद्धयेत तत्त्वतः॥ १९॥
अनात्मन्यात्मविज्ञानं तस्माद दुःखं तथेतरम् ।
रागद्वेषादयो दोषा: सर्वे भ्रान्तिनिबन्धना: ॥ २० ॥
कर्मण्यस्य भवेद् दोषः पुण्यापुण्यमिति स्थिति: ।
तद्दशादेव सर्वेषां सर्वदेहसमुद्धव: ॥ २१॥
नित्य: सर्वत्रगो ह्यात्मा कूटस्थो दोषवर्जित: ।
एक: स भिद्यते शक्त्या मायया न स्वभावत: ॥ २२॥
तस्मादद्वैतमेवाहुर्मुनय: परमार्थतः ।
भेदो व्यक्तस्वभावेन सा च मायात्मसंश्रया॥ २३॥
यथा हि धूमसम्पर्कान्नाकाशो मलिनो भवेत्।
अन्त:करणजैभविरात्मा तद्बन्न लिप्यते॥ २४॥
यथा स्वप्रभया भाति केवल: स्फटिको5मल: ।
उपाधिहीनो विमलस्तथेवात्मा प्रकाशते॥ २५॥
ज्ञानस्वरूपमेवाहुर्जनदेतद्._ विचक्षणा:।
अर्थस्वरूपमेवाज्ञा: पश्यन्त्यन्ये कुदृष्टय:॥ २६॥
कूटस्थो निर्गुणो व्यापी चैतन्यात्मा स्वभावत:।
दृश्यते हार्थरूपेण पुरुषेर्ध्रान्तदृष्टिभि: ॥ २७॥
यह संसार सभी प्राणियोंके अज्ञानके कारण ही है।
अज्ञानसे अन्यथा (विपरीत) ज्ञान होता है अर्थात्
अज्ञानका नाश ज्ञानसे ही होता है और यह प्रकृतिसंगत
(प्राणियोंके मूल स्वभावके सर्वथा अनुकूल शाश्वत
शान्तिरूप) होता है॥ १४--१६॥
अहंकारसे उत्पन्न अविवेकके कारण स्वयं ज्योतिरूप,
नित्य प्रकाशयुक्त सर्वव्यापी परम पुरुष अपनेको मैं
कर्ता हूँ” ऐसा मानता है। ब्रह्मवगादी ऋषिगण प्रधान,
प्रकृति और कारणको समझकर सत् एवं असत्-स्वरूप,
अव्यक्त नित्यतत्त्वका साक्षात्कार करते हैं। कूटस्थ एवं
निरञ्ञन होते हुए भी यह आत्मा उस (प्रधान, प्रकृति
आदि) -से संगत होकर स्वात्मस्वरूप अक्षर ब्रह्मका
यथार्थरूपसे ज्ञान नहीं कर पाता॥ १७--१९॥
अनात्मतत्त्वमें आत्मविषयक विज्ञानसे ही दुःख होता
है तथा इसी प्रकारकी भ्रान्तिके कारण ही राग, द्वेष आदि
सभी दोष उत्पन्न होते हैं। इसके ( भ्रान्त पुरुषके) कर्ममें
ही दोष होता है, इसी कारण पाप-पुण्यकी स्थिति बनती
है और उन कर्मोके अनुसार ही सभी प्रकारके देहकी
उत्पत्ति होती है। यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, कूटस्थ
और दोषोंसे रहित है। यह अद्वितीय आत्मा मायारूप
शक्तिके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, स्वभावत:
इसमें भेद नहीं है॥ २०--२२॥
इसी कारण मुनिजन आत्माको परमार्थत: अद्ठित ही
कहते हैं। व्यक्त ( महत्तत्त्व, अहंतत्त्व आदि) -के स्वभावसे
जो भेद दिखलायी पड़ता है और यह भेद मूलत: माया
(प्रकृति)-के कारण ही है तथा यह आत्मा (पुरुष)-के
आश्रित होकर ही सब कुछ करती है। जैसे धुएँके सम्पर्कसे
आकाश मलिन नहीं होता, वैसे ही अन्त:करणसे उत्पन
होनेवाले भावोंसे आत्मा लिप्त नहीं होता। जैसे अद्वितीय
शुद्ध स्फटिक अपनी आभासे प्रकाशित होता है, वैसे ही
उपाधियोंसे रहित निर्मल आत्मा (अपने ही प्रकाशसे)
प्रकाशित होता है। विद्वान लोग इस संसारको ज्ञानस्वरूप
ही कहते हैं, परंतु दूसरे कुत्सित दृष्टि रखनेवाले अज्ञानी
लोग इसे अर्थस्वरूप (विषयस्वरूप) मानते हैं॥ २३--२६॥
भ्रान्त दृष्टिवाले पुरुषोंके द्वारा स्वभावत: कूटस्थ,
निर्गुण, सर्वव्यापी और चैतन्य आत्मा अर्थरूपसे हो
देखा जाता है। जिस प्रकार शुद्ध स्फटिक गुझा आदि
* अध्याय २ *
यथा संलक्ष्यते रक्त: केवल: स्फटिको जने: ।
रक्तिकाह्मुपधानेन तद्?बत्ू परमपूरुष: ॥ २८ ॥
तस्मादात्माक्षरः शुद्धो नित्य: सर्वगतो5व्यय: ।
उपासितव्यो मन्तव्य: श्रोतव्यश्व मुमुक्षुभि: ॥ २९॥
यदा मनसि चैतन्यं भाति सर्वत्रगं सदा।
योगिनो5व्यवधानेन तदा सम्पद्यते स्वयम्॥ ३०॥
यदा सर्वाणि भूतानि स्वात्मन्येवाभिपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥३१॥
यदा सर्वाणि भूतानि समाधिस्थो न पश्यति।
एकीभूत:ः परेणासौ तदा भवति केवल: ॥ ३२॥
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येउस्य हृदि स्थिता: ।
तदासावमृतीभूतः क्षेम॑ गच्छति पण्डित: ॥ ३३॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एवं चर विस्तार ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥ ३४॥
यदा पश्यति चात्मानं केवलं परमार्थत: ।
मायामात्र जगत् कृत्स्न॑ तदा भवति निर्वृतः॥ ३५॥
यदा जन्मजरादु:खव्याधीनामेकभेषजम्।
केवलं ब्रह्मविज्ञानं जायतेडसौ तदा शिव: ॥ ३६॥
यथा नदीनदा लोके सागरेणैकतां ययु:।
तद्गदात्माक्षेणासौ निष्कलेनैकतां ब्रजेत्॥ ३७॥
तस्माद विज्ञानमेवास्ति न प्रप्ञो न संसृति: ।
अज्ञानेनावृतं लोको विज्ञानं तेन मुहाति॥ ३८ ॥
तज्ज़ानं निर्मल सूक्ष्म निर्विकल्पं यदव्ययम्।
अज्ञानमितरतू् सर्व विज्ञानमिति मे मतम्॥ ३९॥
एतद् वः परम॑ सांख्यं भाषितं ज्ञानमुत्तमम्।
सर्ववेदान्ससारं हि योगस्तत्रैकचित्तता॥ ४०॥
२६३
उपाधिके कारण लोगोंको लाल वर्णका-सा दिखलायी
पड़ता है, वैसे ही परम पुरुष भी (मायाके द्वारा नाम-
रूपात्मक उपाधियुक्त प्रतीत होनेके कारण अनेक रूपोंमें
दिखलायी पड़ता) है। इस कारण मोक्षके अभिलाषियोंको
अक्षर, शुद्ध, नित्य, सर्वव्यापी तथा अव्यय उस आत्माका
श्रवण, मनन तथा उपासना करनी चाहिये। (जिससे माया
(अज्ञान)-की निवृत्ति हो तथा शुद्ध आत्मतत्त्वका ज्ञान
प्राप्त हो) योगीके मनमें जब सर्वत्र व्याप्त रहनेवाला चैतन्य
सदा प्रकाशित होता है, तब वह योगी बिना किसी
व्यवधानके आत्मभाव प्राप्त कर लेता है॥ २७--३०॥
(योगी) जब सभी प्राणियोंको अपनी आत्मामें अच्छी
प्रकार स्थित देख लेता है और सभी प्राणियोंमें अपनेको
स्थित देखता है, तब उसे ब्रह्मभावकी प्राप्ति हो जाती है। जब
(योगी) समाधिकी अवस्थामें किसी भी प्राणीको (अपनेसे
भिन्न) नहीं देखता (अर्थात् समस्त प्रपञ्ञमें आत्मदर्शन
करता है), तब वह उस परतत्त्वसे एकात्मभाव प्राप्त कर
लेता है और अद्वितीय हो जाता है। उसके हृदयमें स्थित
सभी कामनाएँ जब समाप्त हो जाती हैं तब वह पण्डित
अमृतस्वरूप होकर (परम) कल्याण प्राप्त कर लेता है।(योगी)
जब प्राणियोंके पार्थक्यको एक तत्त्वमें स्थित देखता है और
उसी (तत्त्व)-से उनका विस्तार होना समझता है, तब उसे
ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। जब वह परमार्थत: (सर्वत्र)
केवल अद्वितीय आत्माको ही देखता है और सम्पूर्ण जगत्को
मायामात्र समझता है, तब वह मुक्त हो जाता है॥ ३१--३५॥
जब योगीको जन्म, जरा, दुःख और समस्त व्याधियोंके
एकमात्र औषध अद्वितीय ब्रह्मका ज्ञान हो जाता है, तब
वह शिवरूप हो जाता है। जिस प्रकार संसारमें नद
एवं नदियाँ सागरके साथ एकरूपताको प्राप्त करती हैं,
उसी प्रकार यह आत्मा (जीवात्मा) निष्कल अक्षर
(ब्रह्म )-के साथ एकत्व प्राप्त करता है॥ ३६-३७॥
इसलिये विज्ञानका ही अस्तित्व है, प्रपश्न और संसरणशील
संसारका अस्तित्व नहीं है। विज्ञान अज्ञानसे आवृत रहता
है, इसीसे संसार (जीव) मोहमें पड़ता है। ज्ञान निर्मल, सूक्ष्म,
निर्विकल्पषक और अव्यय है, अज्ञानके अतिरिक्त जो
कुछ है, वह विज्ञान है--ऐसा मेरा मत है। यह आप लोगोंको
सांख्य नामक परमोत्तम ज्ञान बतलाया। यह सम्पूर्ण वेदान्तका
सार है। इसमें चित्तकी एकाग्रता ही योग है॥ ३८--४० ॥
र२घ४ढ
योगात् सज्जायते ज्ञानं ज्ञानाद योग: प्रवर्तते।
योगज्ञानाभियुक्तस्य नावाप्यं विद्यते क्वचित्॥ ४१॥
यदेव योगिनो यान्ति सांख्येस्तदधिगम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः: पश्यति स तत्त्ववित्॥ ४२ ॥
अन्ये च योगिनो विप्रा ऐश्वर्यासक्तचेतस: ।
मज्जन्ति तत्र तत्रेव न त्वात्मैघामिति श्रुति: ॥ ४३॥
यत्तत् सर्वगतं दिव्यमैश्वर्यमचलं महत्।
ज्ञानयोगाभियुक्तस्तु देहान्ते तदवाप्नुयात्॥ ४४॥
एप आत्माहमव्यक्तो मायावी परमेश्वर: ।
कीर्तितः सर्ववेदेषु सर्वात्मा सर्वतोमुख:॥ ४५॥
सर्वकाम: सर्वरसः सर्वगन्धो5जरो5मरः।
सर्वतः पाणिपादो5हमन्तर्यामी सनातन: ॥ ४६॥
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता हृदि संस्थित: ।
अचक्षुरपि पश्यामि तथाकर्ण: श्रुणोम्यहम्॥ ४७॥
बेदाहं सर्वमेवेदं न मां जानाति कश्चन।
प्राहुर्महान्तं पुरुषं मामेक॑ तत्त्वदर्शिन: ॥ ४८ ॥
पश्यन्ति ऋषयो हेतुमात्मन: सूक्ष्मदर्शिनः ।
निर्गुणामलरूपस्थ उत्तदैश्वर्यमुत्तमम्॥ ४९॥
यन्न देवा विजानन्ति मोहिता मम मायया।
वक्ष्ये समाहिता यूय॑ श्रृणुध्वं॑ ब्रह्मगादिन: ॥ ५०॥
नाहँ प्रशास्ता सर्वस्य मायातीत: स्वभावत: ।
प्रेरयामि तथापीदं कारणं सूरयो विदुः॥ ५१॥
यन्मे गुहातमं देहं सर्वर तत्त्वदर्शिन:।
प्रविष्टा मम सायुज्यं लभन्ते योगिनो5व्ययम्॥ ५२ ॥
तेषां हि वशमापतन्ना माया मे विश्वरूपिणी।
लभसन्ते परमां शुद्धि निर्वाणं ते मया सह॥ ५३॥
* कूर्मपुराण *
योगसे ज्ञान उत्पन्न होता है और ज्ञानसे योग प्रवर्तित
(स्थिर) होता है। योग तथा ज्ञानसम्पन्न (पुरुष)-के
लिये कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। योगी
जिसे प्राप्त करते हैं, सांख्यवेत्ताओंके द्वारा भी वही प्राप्त
किया जाता है। जो सांख्य और योगको एक ही समझता
है, वह तत्त्वज्ञानी होता है॥४१-४२॥
विप्रो! ऐश्वर्य (आठ प्रकारकी सिद्धियों एवं अन्य
वैभव आदि) -में आसक्तचित्त अन्य योगीजन उसीमें डूबे
रहते हैं, अतएवं उन्हें आत्मतत्त्व प्राप्त नहीं होता-ऐसा
श्रुतिवचन है। जो सर्वव्यापी, दिव्य ऐश्वर्यरूप, अचल और
महत् (सर्वश्रेष्ठ) है, उसे ज्ञान और योगसम्पन्न पुरुष देहान्त
होनेपर प्राप्त करते हैं । सम्पूर्ण वेदोंमें सर्वात्मा, सर्वतोमुखके
रूपमें प्रतिपादित, अव्यक्त, मायावी (मायाका अधिष्ठाता)
तथा परमेश्वरस्वरूप मैं ही यह आत्मा हूँ॥ ४३--४५॥
मैं अन्तर्यामी, सनातन, सर्वकाम, सर्वरस, सर्वगन्ध,
अजर, अमर और सभी ओर हाथ-पैरवाला हूँ। हाथ और
पैरके बिना भी मैं गति करने एवं ग्रहण करनेवाला हूँ।
(सभी प्राणियोंके) हृदयमें स्थित हूँ। बिना नेत्रोंके भी देखता
हूँ और बिना कानोंके भी मैं सुनता हूँ। में इस समस्त
प्रपश्चको जानता हूँ, परंतु मुझे कोई नहीं जानता। तत्त्वदर्श
लोग मुझे अद्वितीय महान् पुरुष कहते हैं। सूक्ष्मदर्शी ऋषि
गुणरहित और विशुद्धरूप आत्माके हेतुस्वरूप उस श्रैष्ठ
ऐश्वर्य (सर्वोत्कृष्ट ज्ञान)-का दर्शन (साक्षात्कार) करते हैं।
ब्रह्मवादियो! मेरी मायासे मोहित होनेके कारण देवता भी
जिस (तत्त्व)-को नहीं जानते उसे मैं कहता हूँ, आप लोग
ध्यान लगाकर सुनें-- ॥ ४६--५० ॥
मायातीत मैं स्वभावत: सबका अनुशास्ता नहीं हूँ,
तथापि इस जगतको मैं प्रेरित करता हूँ, विद्वान् लोग
इसका कारण जानते हैं (वह कारण अहैतुकी कृपा ही
है।) | मेरा जो अत्यन्त गुह्मतम तथा सर्वव्यापी देह है,
तत्त्वदर्शी योगीजन उसमें प्रविष्ट होते हैं और मेरे अविनाशी
सायुज्य (नामक मोक्ष)-को प्राप्त करते हैं। मेरी विश्वरूपिणी
माया उनके वशमें रहती है। वे मेरे साथ (मेरा सायुज्य
प्रात्कर) परम शुद्धि और निर्वाणको प्राप्त करते हैं।
* अध्याय ह *
न तेषां पुनरावृत्ति: कल्पकोटिशतैरपि।
२६५
मेरी कृपासे सैकड़ों-करोड़ों कल्पोंमें भी उनका पुनर्जन्म
प्रसादान््मम योगीन्द्रा एतद् वेदानुशासनम्॥ ५४ ॥ | नहीं होता। योगीद्धो |! यह वेदोंका अनुशासन है॥ ५१--५४॥
नापुत्रशिष्ययोगिभ्यो दातव्यं ब्रह्मवादिभि:।
ब्रह्मवादियोंको चाहिये कि वे मेरे द्वारा कहे गये
इस सांख्य-योग-समन्वित विज्ञानको (अपने) पुत्र*,
शिष्य एवं योगियोंके अतिरिक्त और किसी दूसरेकों
मदुक्तमेतद् विज्ञानं सांख्ययोगसमाश्रयम्॥ ५५ ॥ | प्रदान न करें॥ ५५॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहस्रधां संहितायामुपरिविभागे (ईश्वरगीतासु ) द्वितीयोउध्याय: ॥ २ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) दूसरा अध्याय समाप्त हुआ॥२॥
तीसरा अध्याय
अव्यक्त शिवतत्त्वसे सृष्टिका कथन, परमात्माके स्वरूपका वर्णन तथा प्रधान, पुरुष
एवं महदादि तत्त्वोंसे सृष्टिका क्रम-वर्णन, शिवस्वरूपका निरूपण
ईश्वर उवाच
अव्यक्तादभवत् काल: प्रधान पुरुष: परः।
तेभ्य: सर्वमिदं जातं तस्माद् ब्रह्ममयं जगत्॥ १॥
सर्वत: पाणिपादं तत् सर्वतो5श्चिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमललोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥ २॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् |
सर्वाधारं- सदानन्दमव्यक्त द्वैतवर्जितम्॥ ३॥
सर्वोपमानरहितं प्रमाणातीतगोचरम् |
निर्विकल्पं निराभासं सर्वावासं परामृतम्॥ ४॥
अभिन्न भिन्नसंस्थानं शाश्वतं श्रुवमव्ययम्।
निर्गुणं परमं व्योम तज्ज्ानं सूरयो विदुः॥ ५॥
स आत्मा सर्वभूतानां स बाह्याभ्यन्तरः परः।
सो5हं सर्वत्रग: शान्तो ज्ञानात्मा परमेश्वर: ॥ ६॥
मया ततमिदं विश्वं॑ जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि यस्तं वेद स वेदवित्॥ ७॥
प्रधान पुरुष॑ चैव तत्त्वद्वयमुदाहतम्।
तयोरनादिरुद्रिष्ट: काल: संयोजक: परः॥ ८॥
ईश्वरने कहा--अव्यक्त (तत्त्व)-से काल, प्रधान
तथा परम पुरुष उत्पन्न हुए। उन (कालादि)-से यह
समस्त जगत् उत्पन्न हुआ, इसलिये यह जगत् ब्रह्ममय
है। जिसके हाथ और पैरका प्रसार सर्वत्र है, जिसके
नेत्र, मस्तक, मुख एवं कर्ण सर्वत्र वर्तमान हैं एवं
जो समस्त (विश्व)-को आवृतकर स्थित है, वही
(ब्रह्म) है॥ १-२॥
वह सभी इन्द्रियोंके गुणोंक आभासवाला है, अर्थात्
सभी इन्द्रियोंके गुण उसमें प्रतीत होते हैं; किंतु सभी
इन्द्रियोंसे रहित है। वह सभीका आधार है, सदा
आनन्दस्वरूप, अव्यक्त और द्वेतसे रहित (अद्दैत तत्त्व)
है। वह सभी उपमानोंसे रहित (निरुपमेय) इन्द्रियोंद्वारा
प्रमाणोंसे ज्ञात न होने योग्य, निर्विकल्प, निराभास,
सभीका आश्रय, परम अमृतस्वरूप, अभिन्न, भिन्नरूपसे
स्थित (प्रतीत), शाश्वत, ध्रुव, अव्यय, निर्गुण और
परम व्योमरूप है, उसे विद्वान् लोग जानते हैं॥ ३--५॥
वह सभी प्राणियोंका आत्मा है, वह बाहर- भीतर सर्वत्र
व्याप्त रहनेवाला परम तत्त्व है। मैं (भी) वही सर्वव्यापी,
शान्त, ज्ञानात्मा परमेश्वर हूँ। मुझ अव्यक्त स्वरूपवालेके
द्वारा ही इस विश्वका विस्तार हुआ है। सभी प्राणी मुझमें ही
अवस्थित हैं, जो उसे जानता है, वह वेदज्ञ है प्रधान और
पुरुष--ये ही दो तत्त्व कहे गये हैं। अनादि उत्कृष्ट कालको
ही उन दोनोंका परम संयोजक कहा गया है॥ ६--८ ॥
* ब्रह्मवादीका पुत्र अनुशासित ही होगा, इसलिये पुत्रको ज्ञाकका अधिकारी माना गया है।
२६८६
त्रयमेतदनाद न्तमव्यक्ते समवस्थितम् ।
तदात्मकं तदन्यत् स्यात् तद्गूपं मामकं विदु:॥ ९ ॥
महदाद्य॑ विशेषान्तं सम्प्रसूतेडखखिलं जगत्।
या सा प्रकृतिरुद्दधिष्टा मोहिनी सर्वदेहिनाम्॥ १० ॥
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुद्क्ते यः प्राकृतान् गुणान्।
अहंकारविमुन्तत्वात् प्रोच्यते पलञ्चविंशक: ॥ ११॥
आद्यो विकार: प्रकृतेरमहानात्मेति कथ्यते।
विज्ञानश क्तिर्विज्ञाता ह्ाहंकारस्तदुत्थित:॥ १२॥
एक एवं महानात्मा सो5हंकारो5भिधीयते।
स जीव: सो<न्तरात्मेति गीयते तत्त्वचिन्तकै: ॥ १३॥
तेन बेदयते सर्व सुखं दुःखं च जन्मसु।
स विज्ञानात्मकस्तस्य मन: स्यादुपकारकम्॥ १४॥
तेनाविवेकतस्तस्मात् संसार: पुरुषस्य तु।
स चाविवेकः प्रकृती सक़त् कालेन सो35भवत्॥ १५॥
काल: सृजति भूतानि काल: संहरति प्रजा: ।
सर्वे कालस्य वशगा न काल: कस्यचिद् वशे॥ १६॥
सोउन्तरा सर्वमेवेदं नियच्छति सनातन: ।
प्रोच्यते भगवान् प्राण: सर्वज्ञ: पुरुषोत्तम: ॥ १७॥
सर्वेन्द्रयिभ्य: परमं॑ मन आहुर्मनीषिण: ।
मनसश्वाप्यहंकारमहंकारान्महानू_ परः॥ १८॥
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुष: परः।
पुरुषाद भगवान् प्राणस्तस्य सर्वमिदं जगत्॥ १९॥
प्राणात् परतरं व्योम व्योमातीतोग्रिरी श्वर: ।
सो5हं सर्वत्रगः शान्तो ज्ञानात्मा परमेश्वर: ।
नास्ति मत्तः परं भूतं मां विज्ञाय विमुच्यते॥ २०॥
न कूर्मपुराण न
(प्रधान, पुरुष और काल--) ये तीनों तत्त्व अनादि,
अन्तरहित, अव्यक्त (परम तत्त्व)-में स्थित हैं। वह
(परम तत्त्व) तदात्मक (प्रधान आदिका प्रेरक होते
हुए भी) तद्धिन््न (उनसे सर्वथा असंस्पृष्ट) है, वह
(परम तत्त्व) मेरा ही रूप है, यह विद्वान् लोग ही
जानते हैं। जो महत् (तत्त्व)-से लेकर विशेषपर्यन्त
समस्त संसारको उत्पन्न करती है, वह सभी देहधारियोंको
मोहित करनेवाली प्रकृति कही गयी है। जो प्रकृतिस्थ
होकर प्रकृतिके गुणोंका उपभोग करता है, वह पुरुष
है। अहंकार (अहं-तत्त्व)-से विमुक्त होनेके कारण
वह पुरुष पचीसवाँ तत्त्व कहा गया है॥९-११॥
प्रकृतिके प्रथम विकारको महान् आत्मा (महत्तत्त्व)
कहते हैं। उस विज्ञानशक्तिसे सम्पन्न विज्ञाता ('अहम्'
अर्थात् अभिमानका मूल कारण) अहंकार उत्पन्न होता
है। वही एक महान्* आत्मा 'अहंकार' कहलाता है।
तत्त्वचिन्तकोंके द्वारा वह “जीव” तथा ' अन्तरात्मा' इस
नामसे कहा गया है॥ १२-१३॥
जीवनमें उसीके द्वारा सुख एवं दुःख आदि सभीका
अनुभव होता है। वह विज्ञानस्वरूप (विविध सांसारिक
ज्ञानका मूल) है। उस (अहंकार)-का उपकारक मन
है। उससे अविवेक उत्पन्न होता है और फिर उस
अविवेकसे पुरुषका संसार बनता है। ' प्रकृति 'से कालका
सम्पर्क होनेसे वह अविवेक उत्पन्न होता है। काल
ही प्राणियोंकी सृष्टि करता है और काल ही प्रजाओंका
संहार करता है। सभी कालके वशीभूत हैं, काल
किसीके वशमें नहीं है॥ १४--१६॥
वह सनातन (काल) अन्त:प्रविष्ट होकर इस सम्पूर्ण
(विश्व)-का नियमन करता है। इस कालको भगवान्,
प्राण, सर्वज्ञ तथा पुरुषोत्तम कहा जाता है। मनीषियोंने
मनको सभी इन्द्रियोंसे उत्कृष्ट एवं मनसे अधिक उत्कृष्ट
अहंकारको और अहंकारसे उत्कृष्ट महान्को (महत्तत्त्व)
बतलाया है। महतूसे उत्कृष्ट अव्यक्त, अव्यक्तसे उत्लृष्ट
पुरुष तथा पुरुषसे उत्कृष्ट भगवान् प्राण हैं। यह सम्पूर्ण
संसार उसीसे है। प्राणसे परतर व्योम है और व्योमसे
अतीत अग्नि ईश्वर है। में वही सर्वव्यापी, शान्त, ज्ञानस्वरूप
परमेश्वर हूँ । मुझसे उत्कृष्ट और कोई तत्त्व नहीं है। मुझे
जान लेनेसे मुक्ति हो जाती है॥ १७--२० ॥
* सृष्टिमें अहंकारका महत्त्वपूर्ण स्थान होनेसे उसके लिये “महान् आत्मा' यह लाक्षणिक प्रयोग है।
* अध्याय ४ *
नित्यं हि नास्ति जगति भूतं स्थावरजड्रमम्।
२६७
इस संसारमें एकमात्र मुझ अव्यक्त, व्योमरूप
ऋते मामेकमव्यक्तं व्योमरूपं महेश्वरम्॥ २९१॥ | महेश्वरको छोड़कर कोई भी स्थावर-जंगमात्मक तत्त्व
सो5हं सृजामि सकल॑ संहरामि सदा जगत्।
मायी मायामयो देव: कालेन सह सड़्तः॥ २२॥
मत्संनिधावेष काल: करोति सकल॑ जगत्।
नित्य नहीं है अर्थात् महेश्ववको छोड़कर सब कुछ
अनित्य है। वही मैं मायावी तथा मायामय देव कालके
संसर्गसे सम्पूर्ण (संसार)-की सदा सृष्टि करता हूँ
और (फिर) संहार करता हूँ। मेरे सांनिध्यमें ही यह
काल (तत्त्व) सम्पूर्ण जगत॒की (सृष्टि) करता है।
वेदका यह कथन है कि अनन्तात्मा ही उस (काल)-
नियोजयत्यनन्तात्मा होतद् वेदानुशासनम्॥ २३॥ | को (इस कार्यमें) नियोजित करता है॥२१--२३॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहस्रथां संहितायामुपरिविभागे (इश्वर्गीतासु 2 तृतीयोउध्याय: ॥ ३ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) तीसरा अध्याय समाप्त हुआ॥ ३॥
चओऔथा अध्याय
शिव-भक्तिका माहात्म्य, शिवोपासनाकी सुगमता, ज्ञानरूप शिवस्वरूपका वर्णन,
शिवकी तीन प्रकारकी शक्तियोंका प्रतिपादन, शिवके परम तत्त्वका निरूपण
ईश्वर उवाच
वक्ष्ये समाहिता यूय॑ श्र॒णुध्वं ब्रह्मवादिन:।
माहात्म्य॑ देवदेवस्य येनेदं॑ सम्प्रवर्तते॥ १॥
नाहं तपोभिर्विविधे्न दानेन न चेज्यया।
शक्यो हि पुरुषैज्ञातुमृते भक्तिमनुत्तमाम्॥ २॥
अहं हि सर्वभावानामन्तस्तिष्ठामि सर्वग:।
मां सर्वसाक्षिणं लोको न जानाति मुनीश्चरा: ॥ ३॥
यस्यान्तरा सर्वमिदं यो हि सर्वान्तरः परः।
सो5हं धाता विधाता च कालोउगिनिर्विश्वतोमुख: ॥ ४॥
न मां पश्यन्ति मुनयः सर्वेडपि त्रिदिवौकस: ।
ब्रह्मा च मनव: शक्रो ये चान्ये प्रथितौजस: ॥ ५॥
गृणन्ति सततं वेदा मामेक॑ परमेश्वरम्।
यजन्ति विविधेरग्निं ब्राह्मणा वैदिकेर्मखै: ॥ ६॥
सर्वे लोका नमस्यन्ति ब्रह्मा लोकपितामहः ।
ध्यायन्ति योगिनो देवं भूताधिपतिमीश्वरम्॥ ७॥
अहं हि सर्वहविषां भोक्ता चैव फलप्रदः ।
सर्वदेवतनुर्भूत्ता सर्वात्मा सर्वसंस्थित: ॥ ८॥
ईश्वर बोले--हे ब्रह्मवादियो! आपलोग ध्यान
लगाकर सुनें। जिससे यह सभी प्रवर्तित होता है, उस
देवाधिदेवके माहात्म्यको मैं बताता हूँ॥ १॥
मैं न तो विविध प्रकारके तपसे, न दानसे और न
यज्ञोंसे ही जानने योग्य हूँ। बिना उत्तम भक्तिके मनुष्य
मुझे जान नहीं सकता। सर्वत्र व्याप्त रहनेवाला मैं सभी
भावोंके अन्तःमें प्रविष्ट रहता हूँ। परंतु मुनीश्वरो! मुझ
सर्वसाक्षीको संसार जान नहीं पाता। जिसके भीतर यह
सब प्रतिष्ठित है और जो परम तत्त्व सभीके अन्तःमें स्थित
है, मैं वही धाता, विधाता, काल, अग्नि तथा सभी ओर
मुखवाला हूँ। सभी मुनि, देवता, ब्रह्मा, मनु, इन्द्र और जो
अत्यन्त तेजस्वी हैं, वे भी मुझे नहीं देख पाते ॥ २--५॥
वेद मुझ अद्वितीय परमेश्वरकी निरन्तर स्तुति किया
करते हैं। ब्राह्मण अनेक प्रकारके वैदिक यज्ञोंके द्वारा
अग्निस्वरूप मेरा यजन करते हैं। सभी लोक तथा
लोकपितामह ब्रह्मा मुझे नमस्कार करते हैं। योगी जन
सभी प्राणियोंक अधिपति (मुझ) ईश्वर देवका ध्यान
करते हैं। सबकी आत्मा और सर्वव्यापी मैं ही सभी
देवोंके शरीरोंको धारण कर सम्पूर्ण हवियोंका भोक्ता
एवं सभी फलोंका प्रदाता हूँ॥६--८॥
२६८
मां पश्यन्तीह विद्वांसो धार्मिका वेदवादिन: ।
तेषां संनिहितो नित्यं ये भक्त्या मामुपासते॥ ९ ॥
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या धार्मिका मामुपासते।
तेषां ददामि तत् स्थानमानन्दं परम पदम्॥ १०॥
अन्येडपि ये विकर्मस्था: शूद्राद्या नीचजातय: ।
भक्तिमन्त: प्रमुच्यन्ते कालेन मयि संगता: ॥ ११॥
नमद्धक्ता विनएयन्ति मद्धक्ता वीतकल्मषा: ।
आदावेतत् प्रतिज्ञातं न मे भक्त: प्रणश्यति॥ १२॥
यो वै निन्दति तं मूढो देवदेवं स निन्दति।
यो हि त॑ पूजयेद् भक्त्या स पूजयति मां सदा ॥ १३॥
पत्र॑ पुष्प॑ फलं तोयं मदाराधनकारणात्।
यो मे ददाति नियत: स मे भक्त: प्रियो मत: ॥ १४॥
अहं हि जगतामादौ ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्।
विधाय दत्तवान् वेदानशेषानात्मनि:सृतान्॥ १५॥
अहमेव हि सर्वेषां योगिनां गुरुरव्यय:।
धार्मिकाणां च गोप्ताहं निहन्ता वेदविद्विषाम्॥ १६॥
अहंँ वे सर्वसंसारान््मोचको योगिनामिह।
संसारहेतुरेवाहं सर्वसंसारवर्जित: ॥ १७॥
अहमेव हि संहर्ता सरत्रष्टाहं परिपालक:।
मायावी मामिका शक्तिर्माया लोकविमोहिनी ॥ १८ ॥
ममैत च परा शक्तिर्या सा विद्येति गीयते।
नाशयामि तया मायां योगिनां हृदि संस्थित: ॥ १९॥
अहं हि सर्वशक्तीनां प्रवर्तकनिवर्तक:ः |
आधारभूतः सर्वासां निधानममृतस्य च॥ २०॥
एका सर्वान्तरा शक्ति: करोति विविध जगत्।
आस्थाय ब्रह्मणो रूपं मन््मयी मदथधिष्टिता॥ २१॥
अन्या च शक्तिर्विपुला संस्थापयति मे जगत्।
भूत्वा नारायणोउनन्तो जगन्नाथो जगन्मय:॥ २२॥
* कूर्मपुराण *
धार्मिक वेदनिष्ठ विद्वान् मेरा दर्शन करते हैं। जो
भक्तिपूर्वक मेरी उपासना करते हैं, मैं नित्य उनके
समीपमें रहता हूँ। धार्मिक ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य
मेरी उपासना करते हैं। मैं उन्हें आनन्दस्वरूप परमपद
नामक स्थान प्रदान करता हूँ॥९-१०॥
अन्य भी जो विपरीत कर्म करनेके कारण शूृद्र
आदि निम्न जातियोंमें हैं, भक्तिपरायण होनेपर वे भी
मुक्त हो जाते हैं और यथासमय मुझमें लीन हो जाते
हैं । मेरे भक्त विनाशको प्राप्त नहीं होते, मेरे भक्त पापोंसे
रहित हो जाते हैं। मैंने प्रारम्भमें ही यह प्रतिज्ञा कर
रखी है कि मेरे भक्तका विनाश नहीं होता। जो उस
(भक्त)-की निन्दा करता है, वह मूढ देवाधिदेव (शंकर)-
की ही निनन्दा करता है और जो उस (भक्त)-कौ
भक्तिपूर्वक पूजा करता है, (समझो कि) वह सदा मेरी
ही पूजा करता है। मेरी आराधनाके लिये जो नियमपूर्वक
पत्र, पुष्प, फल तथा जल मुझे प्रदान करता है, वह
मेरा प्रिय भक्त है, ऐसा समझना चाहिये॥ ११--१४॥
मैंने ही संसारकी सृष्टिके प्रारम्भमें परमेष्ठी ब्रह्माकी
सृष्टिकर अपनेसे प्रादुर्भूत सम्पूर्ण वेदोंको उन्हें प्रदान
किया। मैं ही सभी योगियोंका अव्यय गुरु, धार्मिक
जनोंका रक्षक तथा वेदसे द्वेष रखनेवालोंको विनष्ट
करनेवाला हूँ॥ १५-१६॥
मैं ही योगियोंकों समस्त संसारसे मुक्त करनेवाला
हूँ। में ही संसारका कारण और सम्पूर्ण संसारसे विवर्जित
(असंसृष्ट) हूँ। मैं ही संहार करनेवाला और मैं ही सृष्टि
तथा पालन करनेवाला मायावी हूँ। मेरी शक्ति माया है,
वह संसारको मोहित करनेवाली है॥ १७-१८॥
मेरी ही जो पराशक्ति है, वह “विद्या” इस नामसे
कही जाती है। योगियोंके हृदयमें रहते हुए मैं उस
मायाको नष्ट कर देता हूँ। सभी शक्तियोंका प्रवर्तन
करनेवाला तथा निवर्तन करनेवाला मैं ही हूँ। मैं सभीका
आधार और अमृतका आश्रय-स्थान हूँ। मुझमें अधिष्ठित
और मेरी स्वरूपभूता जो सबके अन्तरमें स्थित
अद्वितीय शक्ति है, वह ब्रह्माका रूप धारणकर विविध
प्रकारके संसारकी सृष्टि करती है और जो मेरी दूसरी
विपुल शक्ति है, वह अनन्त, जगन्नाथ, जगन्मय और
नारायणका रूप धारणकर संसारकी स्थापना (पालन
आदि कार्य) करती है॥ १९--२२॥
* अध्याय ४ *
तृतीया महती शक्तिर्निहन्ति सकलं॑ जगत्।
तामसी मे समाख्याता कालाख्या रुद्ररूपिणी ॥ २३॥
ध्यानेन मां प्रपएयन्ति केचिज्ज्ञानेन चापरे।
अपरे भक्तियोगेन कर्मयोगेन चापरे॥ २४॥
सर्वेधामेव भक्तानामिष्ठ: प्रियतरो मम।
यो हि ज्ञानेन मां नित्यमाराधयति नान्यथा॥ २५॥
अन्ये च ये त्रयो भक्ता मदाराधनकाड्क्षिण: ।
तेषपि मां प्राप्नुवन्त्येव नावर्तन्ते च वै पुनः ॥ २६॥
मया ततमिदं कृत्स्न॑ प्रधानपुरुषात्मकम्।
मय्येव संस्थितं विश्वं मया सम्प्रे्यते जगत्॥ २७॥
नाहं प्रेरयिता विप्रा: परम॑ योगमाश्रितः ।
प्रेरयामि जगत्कृत्स्नमेतद्यों वेद सोउमृतः ॥ २८ ॥
पश्याम्यशेषमेवेद॑ वर्तमानं स्वभावत: ।
करोति कालो भगवान् महायोगेश्वर: स्वयम्॥ २९॥
योग: सम्प्रोच्यते योगी माया शास्त्रेषु सूरिभि: ।
योगेश्वरोडइसौ भगवान् महादेवो महान् प्रभु: ॥ ३० ॥
महत्त्वं सर्वतत्त्वानां परत्वात् परमेष्ठिन:।
प्रोच्यते भगवान् ब्रह्मा महान् ब्रह्ममयो5मल: ॥ ३१॥
यो मामेव॑ विजानाति महायोगेश्वरेश्वरम्।
सो5विकल्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय: ॥ ३२॥
सो5हं प्रेरयिता देव: परमानन्दमाश्रितः।
नृत्यामि योगी सततं यस्तद् वेद स वेदवित्॥ ३३॥
इति गुह्तमं ज्ञानं सर्ववेदेषु निष्ठितम्।
प्रसन्नचेतसे देयं थार्मिकायाहिताग्रये॥ ३४॥
२६९
मेरी तीसरी जो रुद्ररूपिणी काल नामक महती
तामसी शक्ति है, वह समस्त जगत्का संहार करती है
कुछ लोग ध्यानद्वारा, कुछ दूसरे लोग ज्ञानद्वारा, कुछ
भक्तियोगके द्वारा और कुछ कर्मयोगके द्वारा मेरा दर्शन
करते हैं। जो किसी अन्य प्रकारसे नहीं, अपितु केवल
ज्ञानद्वारा नित्य मेरी आराधना करता है, वह सभी
भक्तोंमें मुझे प्रिय हैं, प्रियतर है अर्थात् अत्यन्त प्रिय है।
अन्य भी जो मेरी आराधना करनेके अभिलाषी तीन
(प्रकारके) भक्त हैं, वे भी मुझे ही प्राप्त करते हैं और
उनका पुनर्जन्म नहीं होता। मेरे द्वारा ही यह सम्पूर्ण
प्रधान और पुरुषरूप संसार व्याप्त है। यह विश्व मुझमें
ही स्थित है और मेरे द्वारा ही संसार प्रेरित किया जाता
है ॥ २३--२७॥
हे विप्रो! परम योगमें ही सदा निरत रहनेवाला
मैं प्रेरक नहीं हूँ, तथापि सम्पूर्ण जगत्को मैं प्रेरित
करता हूँ, इस (रहस्य)-को जो जानता है, वह अमर
हो जाता* है। अपने स्वभाववश प्रवर्तमान समस्त
जगतका मैं साक्षीमात्र हूँ। महायोगेश्वर भगवान् काल
स्वयं ही (जगत्की सृष्टि) करते हैं। विद्वानोंने शास्त्रोंमें
जिसे योग, योगी और माया कहा है, वह सब प्रभु
महादेव भगवान् महायोगेश्वर ही हैं अर्थात् योगेश्वर
महादेवमें ही यह सब कल्पित है॥ २८--३० ॥
परमेष्ठी सभी तत्त्वोंसे परे हैं अत: सभी तत्त्वोंका
महत्त्व ही भगवान् ब्रह्माके रूपमें प्रसिद्ध है और ये
भगवान् ब्रह्मा ब्रह्ममय एवं अमल हैं। जो मुझे ही
महायोगेश्वरोंका भी ईश्वर समझता है, वह निर्विकल्प
(समाधि)-योगसे युक्त होता है, इसमें संदेह नहीं।
परमानन्दका आश्रयण करनेवाला वही में प्रेरित
करनेवाला देवता हूँ। मैं योगी निरन्तर नृत्य करता
(प्राणिमात्रके हृदयमें सदा विद्यमान) रहता हूँ, जो ऐसा
जानता है वह वेदज्ञ हे यह अत्यन्त गुह्य ज्ञान सभी
वेदोंमें प्रतिष्ठित है। इसे प्रसन्नचित्त, धार्मिक तथा
अग्निहोत्रीको प्रदान करना चाहिये॥ ३१--३४॥
ज़ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहय्शं संहितायामुपरिविभागे (ईश्वरगीतासु 2 चतुर्थोउध्याय: ॥ ४॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) चौथा अध्याय समाप्त हुआ॥४॥
* इसका आशय यह है कि महेश्वर प्रेरक होते हुए भी प्रेरणाकी आसक्तिसे सर्वथा रहित हैं। अहैतुकी कृपावश ही प्रेरक बनते हैं।
२७०
* कूर्मपुराण *
पाँचवाँ अध्याय
ऋषियोंको दिव्य नृत्य करते हुए भगवान् शंकरका आकाशमें दर्शन,
मुनियोंद्वारा महेश्वरकी भावपूर्ण स्तुति करना
व्यास उवाच
एतावदुक्क्त्वा भगवान् योगिनां परमेश्वर: ।
ननर्त परम भावमैश्वर॑ सम्प्रदर्शयन्॥
तं ते ददृशुरीशानं तेजसां परम॑ निधिम्।
नृत्यमानं महादेवं॑ विष्णुना गगनेडउमले॥
यं विदुर्योगतत्त्वज्ञा योगिनो यतमानसा:।
तमीशं सर्वभूतानामाकाशे ददृशुः किल॥
यस्य मायामयं सर्व येनेदं प्रेर्यते जगत्।
नृत्यमान:ः स्वयं विप्रैर्विश्वेश: खलु दृश्यते ॥
यत्पादपड्डूजं स्मृत्वा पुरुषो5ज्ञानजं भयम्।
जहाति नृत्यमानं तं भूतेशं ददृूशुः किल॥
य॑ विनिद्रा जितश्रासा: शान्ता भक्तिसमन्विता: ।
ज्योतिर्मयं प्रपश्यन्ति स योगी दृश्यते किल॥
योऊज्ञानान्मोचयेत् क्षिप्रं प्रसन्नो भक्तवत्सल: ।
तमेव मोचकं रुद्रमाकाशे ददृशुः परम्॥
सहस्त्रशिर्सं देव॑ सहरत्रचरणाकृतिम्।
सहस्तरबाहुं जटिल चन्द्रार्थक्कशिखरम्॥
बसान॑ चर्म वैयाप्रं शूलासक्तमहाकरम्।
है.
ज्
ध
दण्डपाणिं त्रयीनेत्रं सूर्यससोमाग्रिलोचनम्॥ ९ ॥
ब्रह्माण्डं तेजसा स्वेन सर्वमावृत्य च स्थितम्।
दंष्टाकरालं॑ दुर्धर्ष॑ सूर्यकोटिसमप्रभम्॥ १०॥
अण्डस्थं चाण्डबाह्मस्थं बाह्ममभ्यन्तरं परम्।
सृजन्तमनलज्वालं॑ दहन्तमखिलं जगत्।
नृत्यन्त॑ ददृशुर्देवे विश्वकर्माणमी श्वरम्॥ ११॥
महादेव॑ महायोगं देवानामपि दैवतम्।
पशूनां पतिमीशान ज्योतिषां ज्योतिरव्ययम्॥ १२॥
पिनाकिनं विशालाक्ष॑ भेषजं भवरोगिणाम्
कालात्मानं कालकालं देवदेवं महेश्वरम्॥ १३॥
व्यासजी बोले--इतना कहकर योगियोंके परमेश्वर
भगवान् (शिव) परम ऐश्वर्यमय भाव प्रदर्शित करते
हुए नृत्य करने लगे। उन मुनियोंने परम तेजोनिधि
ईशान महादेवको विष्णुके साथ नृत्य करते हुए स्वच्छ
आकाशमें देखा। योगके तत्त्वको जाननेवाले संयतचित्त
योगी ही जिन्हें जान पाते हैं, उन सभी प्राणियोंके ईशको
आकाशमें मुनियोंने देखा। यह (सम्पूर्ण जगत्) जिनकी
मायासे निर्मित है और जिनके द्वारा यह जगतृ प्रेरित
होता है, उन साक्षात् विश्वेशको विप्रोंने नृत्य करते
हुए देखा। जिनके चरण-कमलका स्मरण करके पुरुष
अज्ञानसे उत्पन्न भयसे छुटकारा पा लेता है, उन्हीं
भूतेशको मुनियोंने नृत्य करते हुए देखा॥ १--५॥
निद्रारहित, श्वासजयी, शान्त और भक्तिपरायण
लोग जिनके ज्योतिर्मय स्वरूपका दर्शन करते हैं,
(विप्रजनोंको) वे ही योगी दिखलायी पड़े। जो भक्तवत्सल
(देव) प्रसन्न होनेपर शीघ्र ही अज्ञानसे मुक्त कर देते
हैं, उन्हीं मुक्त करनेवाले परम रुद्रको (उन्होंने)
आकाशमें देखा। (ब्राह्मणोंने) हजारों सिरवाले, हजाएं
चरणोंकी आकृतिसे युक्त, हजारों बाहुवाले, जटायुक्त,
अर्धचन्द्रको मस्तकपर धारण करनेवाले, व्याप्नके चर्मको
वस्त्ररूपमें धारण करनेवाले, महान भुजामें त्रिशूल धारण
करनेवाले, हाथमें दण्ड धारण किये, वेदत्रयीरूप
तीन नेत्रवाले, सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूप नेत्रधारी,
अपने तेजसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको आवृतकर स्थित हुए,
भयंकर दाढ़ोंवाले, दुर्धर्ष, करोड़ों सूर्योके समान आभावाले,
अण्डके अंदर स्थित और अण्डके बाहर स्थित, परम
(सर्वोत्कृष्ट), बाहर-भीतर सर्वत्र व्याप्त, अग्निज्वाला
उत्पन्न करनेवाले और सम्पूर्ण जगत्को जलानेवाले
विश्वकर्मा (समस्त कर्मोके अधिष्ठाता) देवको नृत्य
करते हुए देखा॥ ६--११॥
ब्रह्मवादी मुनियोंने महादेव, महायोगस्वरूप, देवोंके
भी देव, पशुपति ईशान, ज्योतियोंक भी अविनश्वर
ज्योति:स्वरूप, पिनाकी, विशालाक्ष, भव-रोगियोंके औषध,
कालात्मा, कालके भी काल, देवाधिदेव, महेश्वर,
* अध्याय ५ +
उमापतिं विरूपाक्षं॑ं योगानन्दमयं परम्।
ज्ञानवैराग्यनिलयं ज्ञानयोगं सनातनम्॥ १४॥
शाश्रतैश्वर्थविभव॑ धर्माधारं दुरासदम्।
महेन्द्रोपेन्द्रनमितं महर्षिगणवन्दितम्॥ १५॥
आधार सर्वशक्तीनां महायोगेश्वरेश्वरम्।
योगिनां परमं ब्रह्म योगिनां योगवन्दितम्।
योगिनां हृदि तिष्ठन्तं योगमायासमावृतम्॥ १६॥
क्षणेन जगतो योनिं नारायणमनामयम्।
ईश्वरणैकतापन्नमपश्यनू _ब्रह्मवादिन:॥ १७॥
दृष्ठा तदैश्वर॑ं रूपं रुद्रनारायणात्मकम्।
कृतार्थ मेनिरे सन्त: स्वात्मानं ब्रह्मवादिन: ॥ १८ ॥
सनत्कुमार: सनको भृगुश्न
सनातनश्चैव सनन्दनश्च।
रुद्रोडड्रिरा वामदेबो5थ शुक्रो
महर्षिरत्रि. कपिलो मरीचि:॥ १९॥
वृष्ठाथ रुद्रं जगदीशितारं
तं पद्मनाभाश्रितवामभागम् |
ध्यात्वा हृदिस्थं प्रणिपत्य मूर्श्ा
बद्ध्वाञ्जलिं स्वेषु शिरःसु भूय:॥ २० ॥
ओड्डारमुच्चार्य विलोक्य देव-
मन्तःशरीरे निहितं
समस्तुवन् ब्रह्ममयेर्वचोभि-
रानन्दपूर्णायतमानसास्ते
मुनय ऊचु:
त्वामेकमीशं पुरुषं पुराणं
प्राणेश्वरं रुद्रमनन्तयोगम्।
नमाम सर्वे हृदि संनिविष्ट
प्रचेतसं. ब्रह्ममयं
त्वां पश्यन्ति मुनयो ब्रह्मयोनिं
दान्ता: शान्ता विमल॑ं रुकक््मवर्णम्।
ध्यात्वात्मस्थमचलं स्वे शरीरे
कवि परेभ्य: परमं तत्परं च॥२३॥
त्वत्त: प्रसूता जगतः प्रसूतिः
सर्वात्मभूस्त्वं परमाणुभूत: ।
अणोरणीयान् महतो महीयां-
स्त्वामेव सर्व प्रवदन्ति सनन््तः॥ २४॥
गुहायाम्।
॥ २१॥।
पवित्रम्॥ २२॥
२७१
उमापति, विरूपाक्ष, परम योगानन्दमय, ज्ञान-वैराग्यके
निधान, सनातन ज्ञानयोग, शाश्वत ऐश्वर्य एवं विभवरूप,
धर्मके आधार, दुरासद (दुष्प्राप्प), महेन्द्र तथा उपेन्द्र
(विष्णु)-द्वारा नमस्कृत, महर्षिगणोंद्वारा वन्दित, सभी
शक्तियोंके आधार, महायोगेश्वरोंके भी ईश्वर, योगियोंके
परम ब्रह्म, योगियोंके योगद्वारा वन्दित, योगियोंके हृदयमें
स्थित, योगमायासे समावृत, जगत्के योनिरूप तथा
अनामय नारायणको क्षणमात्रमें ईश्वर अर्थात् शंकरके साथ
एकाकार होते हुए देखा॥ १२--१७॥
रुद्रके उस ऐश्वर्यमय नारायणात्मक रूपको देखकर
ब्रह्मवादी संतोंने अपने-आपको कृतार्थ माना। सनत्कुमार,
सनक, भृगु, सनातन, सनन्दन, रुद्र, अंगिरा, वामदेव,
शुक्र, महर्षि अत्रि, कपिल तथा मरीचि--इन ऋषियोंने
यद्मनाभ विष्णुको वामभागमें विराजित किये हुए उन
जगत्के नियामक रुद्रका दर्शन किया और हृदयमें
स्थित उनका ध्यान करके सिरसे विनयपूर्वक प्रणामकर
पुन: अपने मस्तकपर अझलि बाँधकर प्रणाम
किया॥ १८--२० ॥
ओंकारका उच्चारण करनेके उपरान्त अपने शरीरके
भीतर (हृदयरूपी) गुहामें निहित उन देवका दर्शन
करके आनन्दसे परिपूर्ण विस्तृत आत्मावाले वे (मुनिगण)
वैदिक मन्त्रोंके द्वारा (उन देवकी) स्तुति करने लगे॥ २१ ॥
मुनियोंने कहा--आप एकमात्र ईश्वर, पुराणपुरुष,
प्राणेश्व,, अनन्त योगरूप, हृदयमें संनिविष्ट, प्रचेता,
पवित्र एवं ब्रह्ममय रुद्रको हम सभी प्रणाम करते हैं।
इन्द्रियोंका दमन करनेवाले तथा शान्त मुनिगण ध्यानके
द्वारा अपने ही शरीरमें अचल, निर्मल, स्वर्णके समान
वर्णवाले, ब्रह्मययोनि, उत्कृष्टसे भी अत्यन्त उत्कृष्ट
(प्राणिमात्रके दृदयमें विद्यमान) आप कविका दर्शन
करते हैं। संसारकी सृष्टि आपसे ही हुई है। आप
सभीके आत्मरूप और परम अणुरूप हैं। महापुरुष
आपको ही सब कुछ और सुक्ष्ससे भी सूक्ष्म तथा
महानूसे भी महान् कहते हैं॥२२--२४॥
२७२
हिरण्यगर्भो जगदन्तरात्मा
त्वत्तोडधिजातः पुरुष: पुराण:।
संजायमानो भवता विदसृष्टो
यथाविधानं सकल॑ ससर्ज॥ २५॥
त्वत्तो वेदा: सकला: सम्प्रसूता-
स्त्वय्येवान्ते संस्थितिं ते लभन््ते।
पश्यामस्त्वां जगतो हेतुभूतं
नृत्यन्तं स्वे हृदये संनिविष्टम॥ २६॥
त्वयैवेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रं
मायावी त्वं जगतामेकनाथ: ।
नमामस्त्वां शरणं सम्प्रपन्ना
योगात्मानं चित्पतिं दिव्यनृत्यम्॥ २७॥
पश्यामस्त्वां परमाकाशमध्ये
नृत्यन्त॑ ते महिमानं स्मराम:।
सर्वात्मानं बहुधा संनिविष्टं
ब्रह्मानन्दमनुभूयानुभूय ॥ २८ ॥
3»कारस्ते वाचको मुक्तिबीजं
त्वमक्षर प्रकृतो गूढरूपम्।
तत्त्वां सत्यं प्रवदन््तीह सन्त:
स्वयम्प्रभं भवतो यत्प्रकाशम्॥ २९॥
स्तुवन्ति त्वां सततं सर्ववेदा
नमन्ति त्वामृषय: क्षीणदोषा:।
शान्तात्मान: सत्यसंधा वरिष्ठ
विशन्ति त्वां यतयो ब्रह्मनिष्ठा:॥ ३०॥
एको वेदो बहुशाखो हानन्त-
स्त्वामेवेक बोधयत्येकरूपम् |
वेद्यं त्वां शरणं ये प्रपन्ना-
स्तेषां शान्ति: शाश्रती नेतरेषाम्॥ ३१॥
भवानीशो5नादिमांस्तेजोराशि-
ब्रह्म विश्व परमेष्ठी वरिष्ठः।
स्वात्मानन्दमनुभूयाधिशेते
स्वयं ज्योतिरचलो नित्यमुक्त:॥ ३२॥
एको रुद्रस्त्व॑ करोषीह विश्वं
त्यं पालयस्यरिबलं विश्वरूप:।
त्यामेवान्ते निलय॑ विन्दतीदं
नमामस्त्यां शरणं सम्प्रपन्ना:॥ ३३॥
ह कूर्मपुराण रः
जगत्के अन्तरात्मा-स्वरूप हिरण्यगर्भ पुराणपुरुष
आपसे उत्पन्न हुए हैं। आपद्ठारा उत्पन्न किये गये
उस (पुराणपुरुष)-ने उत्पन्न होते ही यथाविधि सम्पूर्ण
संसारकी सृष्टि की। आपसे ही सभी वेद उत्पन्न हुए
हैं और अन्तमें आपमें ही वे स्थिति पाते हैं। हम
अपने हृदयमें स्थित जगत्के कारणरूप आपको नृत्य
करते हुए देख रहे हैं। आपके द्वारा ही इस ब्रह्मचक्रको
चलाया जाता है, आप मायावी और जगत्के एकमात्र
स्वामी हैं। हम दिव्य नृत्य करनेवाले आप योगात्मा
चित्पतिकी शरणमें आये हैं, आपको हम नमस्कार
करते हैं। परम आकाशके मध्यमें नृत्य कर रहे आपका
हम दर्शन करते हैं और आपकी महिमाका स्मरण
करते हैं। अनेक रूपोंमें स्थित सर्वात्मा ब्रह्मानन्दका
हम बार-बार अनुभव कर रहे हैं॥ २५-२८ ॥
आपका वाचक ओसइ्डार मुक्तिका बीज है, आप
अक्षर तथा प्रकृतिमें गृढ्रूपसे स्थित हैं। इसीलिये
संतजन आपको सत्यस्वरूप और आपके प्रकाशको
स्वयं प्रकाशित बताते हैं। सभी वेद सतत आपको
स्तुति करते हैं। दोषरहित ऋषिगण आपको नमस्कार
करते हैं तथा शान्त-चित्त, सत्यसंध ब्रह्मनिष्ठ यतिजन
आप सर्वश्रेष्ठमें प्रवेश करते हैं॥२९-३०॥
बहुत शाखाओंवाला एक अनन्त वेद आपके
अद्वितीय एवं एकरूपका बोध कराता है। जो लोग
जानने योग्य आपकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हींको
शाश्रत शान्ति प्राप्त होती है, अन्य किसीको नहीं। आप
ईश, अनादि, तेजोराशि, ब्रह्मा, विश्वरूप, परमेष्ठी और
वरिष्ठ हैं। नित्य मुक्त और स्वयं ज्योतिरूप अचल
(योगी) स्वात्मानन्दका अनुभव कर (आपमें) प्रविष्ट
होते हैं॥३१-३२॥
आप अद्वितीय रुद्र ही इस विश्वकी सृष्टि करते
हैं। विश्वरूप आप सबका पालन करते हैं और यह
(विश्व) अन्तमें आपमें ही विलीन हो जाता है। हम
आपको नमस्कार करते हैं और आपके शरणागत हैं॥ ३३॥
* अध्याय ७ *
त्वामेकमाहु: कविमेकरुद्रं
प्राणं बृहन्त॑ हरिमग्निमीशम्।
इन्द्र मृत्युमनिलं चेकितानं
धातारमादित्यमनेकरूपम्
त्वमक्षर परम वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्थ परं निधानम्।
त्वमव्यय: शाश्रतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्व॑ पुरुषोत्तमोडईसि ॥ ३५ ॥
त्वमेव विष्णुश्चतुराननस्त्वं
त्वमेव रुद्रो भगवानधीशः।
त्वं विश्वनाभि: प्रकृति: प्रतिष्ठा
सर्वेश्चरस्त्वं परमेश्वरोडसि ॥ ३६॥
त्वामेकमाहु: पुरुषं पुराण-
मादित्यवर्ण तमसः: परस्तात्।
चिन्मात्रमव्यक्तमचिन्त्यरूपं
खं ब्रह्म शून्यं प्रकृतिं निर्गुणं च॥ ३७॥
यदन्तरा सर्वमिदं विभाति
यदव्ययं निर्मलमेकरूपम् ।
किमप्यचिन्त्यं तव रूपमेतत्
॥ ३४॥॥।
तदन्तरा यत्प्रतिभाति तत्त्वम्॥ ३८ ॥
योगेश्वरं रुद्रमनन्तशक्तिं
परायणं ब्रह्मतनुं. पवित्रम्।
नमाम सर्वे शरणार्थिनस्त्वां
प्रसिीद भूताधिपते. महेश॥ ३९॥
त्वत्पादपदास्मरणादशेष-
संसारबीज॑ विलय प्रयाति।
मनो नियम्य प्रणिधाय काय॑
प्रसादयामो वयमेकमीशम्॥ ४० ॥
नमो भवायास्तु भवोद्धवाय
कालाय सर्वाय हराय तुभ्यम्।
नमोउस्तु रुद्राय कपर्दिने ते
नमो5ग्नये देव नमः शिवाय॥ ४१॥
ततः स भगवान् देव: कपदी वृषवाहन:।
संहृत्य परमं रूप॑ प्रकृतिस्थो3डभवद् भव: ॥ ४२॥
२७३
आपको अद्वितीय, कवि, एक रुद्र, प्राण, बृहत्,
हरि, अग्नि, ईश, इन्द्र, मृत्यु, अनिल, चेकितान, धाता,
आदित्य, और अनेकरूप कहा जाता है। आप अविनाशी
और परम जानने योग्य हैं। आप ही इस विश्वके
परम आश्रय हैं। आप अव्यय, शाश्वत धर्मरक्षक,
सनातन और पुरुषोत्तम हैं। आप ही विष्णु और आप
ही चतुर्मुख ब्रह्मा हैं। आप ही प्रधान स्वामी भगवान्
रुद्र हैं। आप विश्वकी नाभि, प्रकृति, प्रतिष्ठा, सर्वेश्वर
और परम ईश्वर हैं॥ ३४--३६ ॥
आपको अद्वितीय, पुराणपुरुष, आदित्यके समान
वर्णवाला, तमोगुणसे अतीत, चिन्मात्र, अव्यक्त, अचिन्त्यरूप,
आकाश, ब्रह्म, शून्य, प्रकृति और निर्गुण कहते हैं।
जिसके भीतर यह सम्पूर्ण (जगत्) प्रकाशित होता है
तथा जो विकाररहित निर्मल और अद्वितीय रूप है,
वह आपका रूप अचिन्त्य है और उसके भीतर समस्त
तत्त्व प्रतीत होते हैं॥ ३७-३८ ॥
हम सभी योगेश्वर, अनन्तशक्ति रुद्र, उत्कृष्ट
आश्रयस्वरूप पवित्र ब्रह्ममूर्ति (आप)-को नमस्कार
करते हैं। भूतोंके अधिपति महेश! प्रसन्न होइये, हम
आपकी शरणमें हैं। आपके चरणकमलका स्मरण
करनेसे सम्पूर्ण संसारका बीज (अर्थात् कर्म) नष्ट हो
जाता है। मनका नियमन कर, शरीरको संयमित कर
हम सभी अद्वितीय ईश्वर आपको प्रसन्न करते हैं।
भव, भवोद्धव, काल, सर्व तथा हर आपको नमस्कार
है। जटाधारी आप रुद्रको नमस्कार है। अग्निरूप देव
शिव! आपको नमस्कार है, इस प्रकार स्तुति करनेपर
उन भगवान् कपदी वृषवाहन देव भवने (अपने उस)
उत्कृष्ट (विराट)-रूपको समेट लिया और वे अपनी
प्रकृतिमें स्थित हो गये॥ ३९--४२॥
२७४
* कूर्मपुराण *
ते भवं भूतभव्येशं पूर्ववत् समवस्थितम्।
दृष्ठा नारायणं देवं विस्मिता वाक्यमन्नुवन्॥ ४३ ॥
भगवन् भूतभव्येश गोवृषाद्धितशासन।
दृष्ठा ते परमं रूप॑ निर्वताः: सम सनातन॥ ४४॥
भवत्प्रसादादमले परस्मिन् परमेश्वरे।
अस्माकं जायते भक्तिस्त्वय्येवाव्यभिचारिणी ॥ ४५ ॥
इदानीं श्रोतुमिच्छामो माहात्म्यं तव शंकर।
भूयो5पि तब यतज्नित्यं याथात्म्यं परमेष्ठिन: ॥ ४६॥
स तेषां वाक्यमाकर्णय योगिनां योगसिद्ध्धिद: ।
प्राह गम्भीरया वाचा समालोक्य च माधवम्॥ ४७॥।
मुनियोंने पहलेके समान स्थित भूतभव्येश भव और
नारायणदेवको देखकर आश्चर्यचकित होकर यह वाक्य
कहा-- ॥ ४३ ॥
भगवन्! भूतभव्येश! गोवृषाड्ध्तिशासन! सनातन!
आपके परम रूपका दर्शन कर हमलोग संतुष्टचित्त हो
गये हैं। आपकी कृपासे हम सभीको निर्मल, परात्पर,
परमेश्वरस्वरूप आपकी अव्यभिचारिणी भक्ति उत्पन
हुई है। शंकर! इस समय हमलोग आप परमेष्ठीके
उस माहात्म्यको एवं जो नित्य यथार्थस्वरूप है (उसे)
पुन: सुनना चाहते हैं॥ ४४--४६॥
योगसिद्धियोंको प्रदान करनेवाले उन्होंने (महेश्वरने)
उन योगियोंका वचन सुनकर तथा विष्णुकी ओर
देखकर गम्भीर वाणीमें कहा-- ॥ ४७॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्यां संहितायामुपरिविभागे (ईश्वरगीतासु > पठ्चमोउध्याय: ॥ ५ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥५॥
जा कि शकत.ैक_----7
छठा अध्याय
ईश्वर (शंकर )-द्वारा ऋषिगणोंको अपना सर्वव्यापी स्वरूप बतलाना तथा अपनी
भगवत्ताका और इस ज्ञानसे मुक्तिकी प्राप्तिका निरूपण करना
ईश्वर उवाच
श्रणुध्वमृषय: सर्वे यथावत् परमेष्टिन: ।
वक्ष्यामीशस्य माहात्म्यं यत्तद्वेदविदो विदु:॥ १॥
सर्वलोकैकनिर्माता सर्वलोकैकरक्षिता।
सर्वलोकेकसंहर्ता सर्वात्माह॑ं सनातन:॥ २॥
सर्वेषामेव वस्तूनामन्तर्यामी पिता हाहम।
मध्ये चान्तः स्थितं सर्व नाहं सर्वत्र संस्थित: ॥ ३॥
भवद्धिरदभुतं दृष्टे यत्स्वरूपं तु मामकम।
ममैषा ह्युपमा विप्रा मायया दर्शिता मया॥ ४॥
सर्वेषामेव भावानामन्तरा समवस्थित: |
प्रेरयामि जगत् कृत्स्त॑ क्रियाशक्तिरियं मम॥ ५॥
ययेद॑ं चेष्टते विश्वं॑ तत्स्वभावानुवर्ति च।
सो5हं कालो जगत् कृत्स्न॑ प्रेरयामि कलात्मकम्॥ ६॥
ईश्वरने कहा--हे ऋषिगणो! आप सभी सुनें। में
परमेष्ठी ईशके उस माहात्म्यका यथावत् वर्णन कर रहा
हूँ, जिसे वेदज्ञ लोग जानते हैं॥ १॥
मैं सनातन सर्वात्मा सभी लोकोंका एकमात्र निर्माण
करनेवाला, सभी लोकोंका एक अद्वितीय रक्षक और
सभी लोकोंका एकमात्र संहार करनेवाला हूँ। सभी
वस्तुओंका अन्तर्यामी पिता मैं ही हूँ। मध्य तथा अन्त
सब कुछ मुझमें स्थित है, किंतु मैं सर्वत्र स्थित नहीं
हूँ अर्थात् मेरी कोई सीमा नहीं है॥ २-३॥
विप्रो! आप लोगोंने मेरे जिस अद्भुत रूपको देखा
है, वह केवल मेरी उपमा (प्रतीक) है, जिसे मैंने
(अपनी) मायाद्वारा दिखलाया। मैं सभी पदार्थोंके भीतर
स्थित (व्याप्त) रहते हुए सम्पूर्ण जगतूको प्रेरित करता
हूँ। यह मेरी क्रियाशक्ति है। यह विश्व जिसके द्वार
चेष्य करता है और जिसके स्वभावका अनुसरण करता
है, कालरूप वही मैं सम्पूर्ण कलात्मक (अपने
अंशरूप) जगत्को प्रेरित करता हूँ॥४--६॥
* अध्याय ६ *
एकांशेन जगत् कृत्स्नं करोमि मुनिपुंगवा:
संहराम्येकरूपेण द्विधावस्था ममैव तु॥ ७ ॥
आदिमध्यान्तनिर्मुक्तो मायातत्त्वप्रवर्तक:।
क्षोभयामि च सर्गादौ प्रधानपुरुषावुभौ॥ ८ ॥
ताभ्यां संजायते विशवं संयुक्ताभ्यां परस्परम्।
महदादिक्रमेणेव मम तेजो विजुम्भते॥ ९ ॥
यो हि सर्वजगत्साक्षी कालचक्रप्रवर्तक:ः ।
हिरण्यगर्भो मार्तण्ड: सो5पि मद्देहसम्भव: ॥ १०॥
तस्मे दिव्यं स्वमैश्वर्य ज्ञानयोगं सनातनम्।
दत्तवानात्मजान् वेदान् कल्पादौ चतुरो द्विजा:॥ ११॥
स मन्नियोगतो देवो ब्रह्मा मद्धावभावित:।
दिव्यं तन्मामकेै श्वर्य सर्वदा वहति स्वयम्॥ १२॥
स सर्वलोकनिर्माता मन्नियोगेन सर्ववित्।
भूत्वा चतुर्मुखः सर्ग सृजत्येवात्मसम्भव: ॥ १३॥
यो5पि नारायणो5नन्तो लोकानां प्रभवाव्यय: |
ममैव परमा मूर्ति: करोति परिपालनम्॥ १४॥
यो3न्तकः सर्वभूतानां रुद्र: कालात्मकः प्रभु: ।
मदाज्ञयासाौ सततं संहरिष्यति मे तनुः॥ १५॥
हव्यं वबहति देवानां कव्यं कव्याशिनामपि।
पाकं च कुरुते वह्धिः सोडपि मच्छक्तिचोदित: ॥ १६॥
भुक्तमाहारजातं॑ च पचते तदहर्निशम्।
वैश्वानरोउग्रिर्भगवानी श्वरस्थ नियोगतः ॥ १७॥
यो5पि सर्वाम्भसां योनिर्वरुणो देवपुंगव:।
सो5पि संजीवयेत् कृत्स्नमीशस्यैव नियोगत: ॥ १८ ॥
योअन्तस्तिष्ठति भूतानां बहिर्देव: प्रभव्जन: ।
मदाज्ञयासौ भूतानां शरीराणि बिभर्ति हि॥ १९॥
योध5पि संजीवनो नृणां देवानाममृताकरः।
सोम: स मन्नियोगेन चोदितः किल वर्तते॥ २०॥
२७५
मुनिश्रेष्ठो! में एक अंशसे सम्पूर्ण संसारकी रचना
करता हूँ और दूसरे रूप(अंश)-से संहार करता हूँ--
इस प्रकारकी ये दोनों अवस्थाएँ मेरी ही हैं। आदि,
मध्य और अन्तरहित माया-तत्त्वका प्रवर्तन करनेवाला
में सृष्टिके आरम्भमें प्रधान तथा पुरुष--दोनोंको क्षुब्ध
(प्रेरित) करता हूँ। उन दोनोंके परस्पर संयोगसे विश्व
उत्पन्न होता है। महत्-तत्त्वादिके क्रमसे मेरा ही तेज
विस्तारको प्राप्त होता है। जो सारे संसारके साक्षी और
कालचक्रको चलानेवाले हिरण्यगर्भ मार्तण्ड (सूर्य) हें
वे भी मेरे ही शरीरसे उत्पन्न हुए हैं॥७--१०॥
द्विजो! कल्पके आदियमें मैंने ही उन्हें अपना दिव्य,
ऐश्वर्यमय सनातन ज्ञानयोग और अपनेसे उत्पन्न चारों
बेद प्रदान किये। वे मेरे भावसे भावित देव ब्रह्मा मेरे
आदेशसे मेरे उस दिव्य ऐश्वर्यको स्वयं सदा वहन
करते हैं। सभी लोकोंका निर्माण करनेवाले और सब
कुछ जाननेवाले आत्मसम्भव (मुझसे ही उत्पन्न) वे
(ब्रह्मा) मेरे निर्देशसे चार मुखवाले होकर सृष्टिकी
रचना करते हैं। जो लोकोंको उत्पन्न करनेवाले अव्यय
अनन्त नारायण हैं और जगत्का परिपालन करते हैं,
वे भी मेरी ही परम मूर्ति हैं॥११--१४॥
सभी प्राणियोंका संहार करनेवाले जो प्रभु कालात्मक
रुद्र हैं, वे मेरी ही आज्ञासे निरन्तर संहार करते रहते
हैं, वे भी मेरी मूर्ति हैं॥१५॥
जो देवताओंको हव्य (हवनीय द्रव्य) पहुँचाते हैं
और कव्य ग्रहण करनेवाले पितरोंको कव्य पहुँचाते हैं
तथा जो पाकमें (सब कुछ पचा लेनेमें) समर्थ हैं, वे
अग्निदेव भी मेरी ही शक्तिसे प्रेरित होकर यह सब
करते हैं। ईश्वर (शंकर)-के निर्देशसे ही भगवान्
वैश्वानर अग्नि रात-दिन ग्रहण किये गये आहारको
पचाते रहते हैं॥ १६-१७॥
सम्पूर्ण जलके मूल कारण जो देवश्रेष्ठ वरुण हैं, वे
भी ईश्वरके ही निर्देशसे सम्पूर्ण विश्वको जीवन
(जल) प्रदान करते हैं, जो प्राणियोंके भीतर और बाहर
वर्तमान रहनेवाले वायुदेव हैं, वे भी मेरी आज्ञासे
प्राणियोंके शरीरोंको धारण करते हैं। मनुष्योंको जीवित
रखनेवाले जो देवताओंके अमृतके निधान सोमदेव
(चन्द्रमा) हैं, वे भी मेरे ही निर्देशसे प्रेरित होकर कार्य
करते हैं॥ १८--२० ॥
२७६८
यः स्वभासा जगत् कृत्स्न॑ं प्रकाशयति सर्वदा।
सूर्यो वृष्टिं वितनुते शास्त्रेणेव स्वयम्भुव: ॥ २१॥
यो5प्यशेषजगच्छास्ता शक्र: सर्वामरेश्वर: ।
यज्वनां फलदो देवो वर्ततेडसौ मदाज्ञया।॥ २२॥।
यः प्रशास्ता हासाधूनां वर्तते नियमादिह।
यमो बैवस्वतो देवो देवदेवनियोगत: ॥ २३॥
यो5पि सर्वधनाध्यक्षो धनानां सम्प्रदायकः ।
सो5पीश्वरनियोगेन कुबेरो वर्तते सदा॥ २४॥
यः सर्वरक्षसां नाथस्तामसानां फलप्रद:।
मन्नियोगादसौ देवो वर्तते निर्क्रति: सदा॥ २५॥
बेतालगणभूतानां स्वामी भोगफलप्रद:।
ईशान: किल भक्तानां सो5पि तिष्ठन्ममाज्ञया ॥ २६ ॥
यो वामदेवो5ड्रिरस: शिष्यो रुद्रगणाग्रणी: ।
रक्षको योगिनां नित्य॑ं वर्ततेइसौ मदाज्ञया।। २७॥
यश्व सर्वजगत्पूज्यो वर्तते विघ्चकारकः।
विनायको धर्मनेता सो5पि मद्बच्चनात् किल॥ २८ ॥
योउपि ब्रह्मविदां श्रेष्ठो देवसेनापति: प्रभु: ।
स्कन्दोउसौ वर्तते नित्यं स्वयम्भूविधिचोदित: ॥ २९॥
ये च प्रजानां पतयो मरीच्याद्या महर्षय:।
सृजन्ति विविधं लोक॑ परस्यैव नियोगतः ॥ ३०॥
या च श्री: सर्वभूतानां ददाति विपुलां भ्रियम्।
पत्नी नारायणस्यासौ वर्तते मदनुग्रहात्॥ ३१॥
वाचं ददाति विपुलां या च देवी सरस्वती।
सापीशएवरनियोगेन चोदिता सम्प्रवर्तते॥। ३२॥
याशेषपुरुषान् घोरान्नरकात् तारयिष्यति।
सावित्री संस्मृता देवी देवाज्ञानुविधायिनी॥ ३३॥
पार्वती परमा देवी ब्रह्मविद्याप्रदायिनी।
यापि ध्याता विशेषेण सापि मद्बचनानुगा॥ ३४॥
योउनन्तमहिमानन्तः: शेषो5शेषामरप्रभु: ।
दधाति शिरसा लोकं सो5पि देवनियोगत: ॥ ३५॥
* कूर्मपुराण *
जो अपने प्रकाशसे सम्पूर्ण संसारको सदा प्रकाशित
करते हैं, वे सूर्यदेव भी स्वयम्भू (ईश्वर)-की आज्ञासे
वृष्टिका विस्तार करते हैं। जो सारे संसारके शासक,
सभी देवताओंके ईश्वर तथा यज्ञ करनेवालोंको फल
प्रदान करनेवाले इन्द्रदेव हैं, वे भी मेरी आज्ञासे प्रवृत्त
होते हैं। जो दुष्टोंके शासक हैं और नियमके अनुसार
व्यवहार करनेवाले विवस्वान्के पुत्र यमदेव हैं, वे भी
देवाधिदेव (शंकर)-के निर्देशसे व्यवहार करते हैं। जो
सभी प्रकारके सम्पत्तियोंके स्वामी और धन प्रदान करनेवाले
कुबेर हैं, वे भी ईश्वरके नियोगसे ही सदा प्रवृत्त होते
हैं। जो सभी राक्षसोंके स्वामी हैं तथा तमोगुणियोंको
(अपने कर्मका) फल प्रदान करनेवाले हैं, वे निर्क्रतिदेव
मेरे ही निर्देशसे सदा प्रवर्तित होते हैं॥२१--२५॥
जो बेतालगणों और भूतोंके स्वामी और भक्तोंको
भोगरूपी फल प्रदान करनेवाले ईशानदेव हैं, वे भी
मेरी आज्ञामें स्थित रहते हैं। जो अड्धिराके शिष्य, रुद्रदेवके
गणोंमें अग्रगण्य और योगियोंके रक्षक हैं, वे वामदेव
भी मेरी ही आज्ञाद्वारा नित्य व्यवहार करते हैं। जो
सम्पूर्ण संसारके पूज्य, विघ्नकारक धर्मनेता विनायक
हैं, वे भी मेरे आदेशसे चलते हैं। जो ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ
देवोंके सेनापति स्वयम्भू प्रभु स्कन्द हैं, वे भी नित्य
विधिकी प्रेरणासे प्रेरित होते हैं। जो प्रजाओंके पति
मरीचि आदि महर्षि हैं, वे भी परात्पर (परमेश्वर)-की
आज्ञासे ही विविध लोकोंकी सृष्टि करते हैं॥ २६--३०॥
जो सभी प्राणियोंकी श्री (शोभा) हैं और विपुल
ऐश्वर्य प्रदान करती हैं, वे नारायणकी पत्नी (लक्ष्मी)
मेरे ही अनुग्रहसे व्यवहार करती हैं। जो सरस्वतीदेवी
विपुल वाणी प्रदान करती हैं, वे भी ईश्वरके नियोगसे
प्रेरित होकर प्रवर्तित होती हैं। जो सभी पुरुषोंको
घोर नरकोंसे तारनेवाली सावित्रीदेवी कही गयी हैं,
वे भी देवकी आज्ञाके अनुसार चलनेवाली हैं। ध्यान
करनेपर ब्रह्मविद्याको प्रदान करनेवाली जो श्रेष्ठ पार्वती-
देवी हैं, वे भी विशेषरूपसे मेरे ही वचनोंका पालन
करती हैं॥ ३१--३४॥
अनन्त महिमावाले और सभी देवताओंके स्वामी
जो अनन्त शेष हैं, वे भी देव (शंकर)-के निर्देशसे
ही संसारको सिरपर धारण करते हैं॥३५॥
* अध्याय ६ *
योउग्रि: संवर्तको नित्यं वडवारूपसंस्थित: ।
२७७
जो संवर्तक अग्नि नित्य वडवाके रूपमें स्थित
पिबत्यखिलमम्भोधिमी श्ररस्थ नियोगतः ॥ ३६॥ | हैं, वे भी ईश्वरकी आज्ञासे ही सम्पूर्ण समुद्रको पीते
ये चतुर्दश लोके5स्मिन् मनव: प्रथधितौजस: ।
पालयन्ति प्रजा: सर्वास्तेषपि तस्य नियोगत: ॥ ३७॥
आदित्या वसवो रुद्रा मरुतश्च तथाश्रिनौ।
अन्याश्व देवता: सर्वा मच्छास्त्रेणेव धिष्ठिता: ॥ ३८ ॥।
गन्धर्वा गरुडा ऋक्षा: सिद्धा: साध्याश्व चारणा: ।
यक्षरक्ष:पिशाचाश्व स्थिता: शास्त्रे स्वयम्भुव: ॥ ३९॥
कलाकाष्टानिमेषा श्व मुहूर्ता दिवसा: क्षपा: ।
ऋतव: पक्षमासाश्च स्थिता: शास्त्रे प्रजापते: ॥ ४० ॥
युगमन्वन्तराण्येवः मम तिष्ठन्ति शासने।
पराश्चेव परार्धाश्च कालभेदास्तथा परे॥ ४१॥
चतुर्विधानि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
नियोगादेव वर्तन्ते देवस्यथ परमात्मन: ॥ ४२॥
पातालानि च सर्वाणि भुवनानि च शासनात्।
ब्रह्माण्डानि च वर्तन्ते सर्वाण्येव स्वयम्भुव: ॥ ४३॥
अतीतान्यप्यसंख्यानि ब्रह्माण्डानि ममाज्ञया।
प्रवृत्तानि पदार्थोघे: सहितानि समन्ततः ॥ ४४॥
ब्रह्मण्डानि भविष्यन्ति सह वस्तुभिरात्मगै: ।
वहिष्यन्ति सदैवाज्ञां परस्यथ परमात्मन:॥ ४५॥
भूमिरापो5नलो वायु: खं मनो बुद्धिरिव च।
भूतादिरादिप्रकृतिर्नियोगे. मम वर्तते॥ ४६॥
याशेषजगतां योनिर्मोहिनी सर्वदेहिनाम्।
माया विवर्तते नित्यं सापीश्वरनियोगत:॥ ४७॥
यो वे देहभृतां देव: पुरुष: पठाते परः।
आत्मासौ वर्तते नित्यमीश्वरस्थ नियोगत: ॥ ४८ ॥
विधूय मोहकलिलं यया पश्यति तत् पदम्।
सापि विद्या महेशस्य नियोगवशवर्तिनी॥ ४९ ॥
बहुनात्र किमुक्तेन मम शकत्यात्मकं जगत्।
मयेव प्रेर्यते कृत्स्नं मय्येव प्रलयं ब्रजेत्॥ ५० ॥
रहते हैं। इस संसारमें अत्यन्त तेजस्वी जो चौदह मनु
हैं, वे सभी मुझ (ईश्वर)-के आदेशसे सभी प्रजाओंका
पालन करते हैं। आदित्य, वसुगण, रुद्र, मरुद्गण,
अश्विनीकुमार तथा अन्य सभी देवता मेरी ही आज्ञामें
प्रतिष्ठित हैं। गन्धर्व, गरुड, ऋक्ष, सिद्ध, साध्य, चारण,
यक्ष, राक्षत तथा पिशाच--ये सभी स्वयम्भूकी आज्ञामें
ही स्थित हैं। कला, काष्ठा, निमेष, मुहूर्त, दिन, रात,
ऋतुएँ, पक्ष तथा मास--ये मुझ प्रजापति (शिव)-के
शासनमें स्थित हैं॥ ३६--४० ॥
युग, मन्वन्तर, पर तथा परार्ध--ये सभी तथा अन्य
कालके सभी भेद मेरे ही शासनमें स्थित रहते हैं।
(स्वेदज, अण्डज, उद्भिज् तथा जरायुज-ये) चार
प्रकारके प्राणी और स्थावर-जंगमात्मक जगत् मुझ
परमात्मा देवके निर्देशसे ही प्रवर्तित होते हैं। सभी
पाताल और भुवन, सभी ब्रह्माण्ड स्वयम्भू परमेश्वरकी
आज्ञासे प्रवर्तित हैं। बीते हुए भी जो पदार्थोके समूहोंसहित
असंख्य ब्रह्माण्ड थे, वे मेरी ही आज्ञासे सर्वत्र प्रवृत्त
थे। आगे भी जो ब्रह्माण्ड होंगे, वे भी सदेव परात्पर
परमात्माकी आज्ञाका आत्मगत (अपने अधीन) वस्तुओंके'
द्वारा पालन करेंगे। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश,
मन, बुद्धि, भूतादि' (तामस अहंकार) और आदि प्रकृति--
ये सभी मेरी आज्ञासे कार्य करते हैं॥४१--४६॥
जो सम्पूर्ण संसारकी योनि और सभी देहधारियोंको
मोहित करनेवाली माया है, वह भी ईश्वरके निर्देशसे
ही नित्य (विभिन्न रूपोंमें) विवर्तित होती रहती
है। जो देहधारियोंके आत्मस्वरूप परात्पर पुरुष देव
कहे जाते हैं, वे भी नित्य ईश्वरके नियोगसे ही
कार्य करते हैं॥ ४७-४८ ॥
जिसके द्वारा मोहरूपी कल्मषको धोकर उस
परमपदका दर्शन होता है, वह विद्या भी महेशकी
आज्ञाके वशमें रहनेवाली है। इस विषयमें और अधिक
क्या कहा जाय, यह संसार मेरी ही शक्तिसे शक्तिमान्
है। मेरे द्वारा ही सम्पूर्ण (जगत्) प्रेरित किया जाता है
और मुझमें ही उसका लय भी हो जाता है॥ ४९-५० ॥
१-अपने अधीन जो भी सामग्री होगी, उसमें पूर्ण समर्पणभावसे आज्ञापालन करना यहाँ अभिप्रेत है।
२-तामस अहंकारकी भूतादि संज्ञा सांख्यशास्त्रमें प्रसिद्ध है--भूतादेस्तन्मात्र........' । (सांख्यकारिका २५)
२७८ * कूर्मपुराण *
अहं हि भगवानीशः स्वयं ज्योति: सनातन: । मैं ही भगवान्, ईश, स्वयं प्रकाश, सनातन और
परमात्मा परं ब्रह्म मत्तो हान्यन्न विद्यते॥ ५१ ॥ | परमात्मा परम ब्रह्म हूँ, मुझसे अतिरिक्त और कुछ
भी नहीं है॥५१॥
इस प्रकार यह परम ज्ञान मैंने आप लोगोंसे कहा,
इत्येतत् परम॑ ज्ञान युष्माकं कथितं मया। इसे जान लेनेसे प्राणी जन्म तथा संसारके बन्धनसे
ज्ञात्वा विमुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात्॥ ५२॥ | मुक्त हो जाता है॥५२॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहस््यां संहितायामुपरिविभागे (ईश्ररगीतासु 2 षपष्ठलोउध्याय: ॥ ६ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) छठा अध्याय समाप्त हुआ॥६॥
सातवाँ अध्याय
ईश्वर (शंकर )-द्वारा अपनी विभूतियोंका वर्णन तथा प्रकृति, महत् आदि चौबीस
तत्त्वों, तीन गुणों एवं पशु, पाश और पशुपति आदिका विवेचन
ईश्वर उवाच ईश्वर बोले--ऋषियो! आप सभी परमेष्टीके
श्रृणुध्वमृषय: सर्वे प्रभाव॑ परमेष्ठिन: । प्रभावको सुनें, जिसे जानकर पुरुष मुक्त हो जाता है
य॑ ज्ञात्वा पुरुषो मुक्तो न संसारे पतेत् पुन-.॥ १ ॥ | और फिर संसारमें नहीं गिरता॥१॥
परात् परतरं ब्रह्म शाश्वतं निष्कलं श्रुवम्। जो परसे परतर, शाश्वत, निष्कल, ध्रुव, नित्यानन्द,
नित्यानन्दं निर्विकल्पं तद्धाम परमं मम॥ २ ॥ | निर्विकल्प ब्रह्म है, वह मेरा परम धाम है। मैं
अहँ ब्रह्मविदां ब्रह्मा स्वयम्भूविश्वतोमुख: । ब्रह्मज्ञानियोंमें सर्वतोमुख स्वयम्भू ब्रह्मा हूँ। मायावियोंमें
मायाविनामहं देव: पुराणो हरिरव्यय:॥ ३ ॥ | मैं अव्यय पुराण देव हरि हूँ। योगियोंमें मैं शम्भु
योगिनामस्म्यहं शम्भुः स्त्रीणां देवी गिरीद्धजा। और स्त्रियोंमें गिरिराज पुत्री पार्वती हूँ। मैं (द्वादश)
आदित्यानामहं विष्णुर्वसूनामस्मि पावक:॥ ४ ॥ | आदित्योंमें विष्णु तथा (अष्ट) वसुओंमें पावक हूँ।
रुद्राणां शंकरश्रवाहं गरुड: पततामहम्। मैं रुद्रोंमें शंकर, उड़नेवाले पक्षियोंमें गरुड, गजेद्नोंमें
ऐरावतो गजेन्द्राणां राम: शस्त्रभतामहम॥ ५ ॥ | ऐरावत तथा शस्त्रधारियोंमें परशुराम हूँ॥२-५॥
ऋषीणां च वसिष्ठो5हं देवानां च शतक्रतुः । ऋषियोंमें मैं वसिष्ठ, देवताओंमें इन्द्र, शिल्पियोंमें
शिल्पिनां विश्वकर्मा प्रह्मदो5स्म्यमरद्विषाम्। ६ ॥ | विश्वकर्मा और सुरद्वेषी राक्षसोंमें प्रहमद हूँ। मैं मुनियोंमें
मुनीनामप्यहं व्यासो गणानां च विनायक:। व्यास, गणोंमें विनायक, वीरोंमें वीरभद्र और सिद्धोंमें
वीराणां वीरभद्रो5हं सिद्धानां कपिलो मुनि:॥।। ७ ॥
पर्वतानामहं मेरुन॑क्षत्राणां च चन्द्रमा:।
बच्ध॑ प्रहरणानां च ब्रतानां सत्यमस्म्यहम्॥ ८ ॥
कपिल मुनि हूँ। में पर्वतोंमें सुमेरु, नक्षत्रोंमें चन्द्रमा,
प्रहार करनेवाले शस्त्रोंमें वज्र और ब्रतोंमें सत्य ब्रत
अनन्तो भोगिनां देव: सेनानीनां च पावकि: । हूँ। मैं सर्पोमें अनन्तदेव, सेनानियोंमें कार्तिकेय, आश्रमोंमें
आश्रमाणां च गाईस्थमीश्वराणां महेश्वर:॥ ९ ॥ | गृहस्थाश्रम और ईश्वरोंमें महेश्वर हूँ। मैं कल्पोंमें
महाकल्पश्च कल्पानां युगानां कृतमस्म्यहम् । महाकल्प, युगोंमें सत्ययुग, सभी यक्षोंमें कुबेर और
कुबेर: सर्वयक्षाणां गणेशानां च वीरक: ॥ १०॥ | गणेश्वरोंमें वीरक हूँ॥६--१०॥
प्रजापतीनां दक्षो5ह॑ निरर्ति: सर्वरक्षसाम्। मैं प्रजापतियोंमें दक्ष, सभी राक्षसोंमें निर्क्रति
वायुर्बलवतामस्िसमि द्वीपानां पुष्करोउस्म्यहम्॥ ११॥ | बलवानोंमें वायु और द्वीपोंमें पुष्कर द्वीप हूँ॥११॥
* अध्याय ७ *
मृगेन्द्राणां च सिंहो5हं यन्त्राणां धनुरेव च।
बेदानां सामवेदो5हं यजुषां शतरुद्रियम्॥ १२॥
सावित्री सर्वजप्यानां गुह्यानां प्रणवोउस्म्यहम् ।
सूक्तानां पौरुषं सूक्त ज्येष्ठररमाम च सामसु॥ १३॥
सर्ववेदार्थविदुषां मनुः स्वायम्भुवो5स्म्यहम् ।
ब्रह्मावर्तस्तु देशानां क्षेत्राणामविमुक्तकम्॥ १४॥
विद्यानामात्मविद्याहं ज्ञानानामैश्वर परम्।
भूतानामस्म्यहं व्योम सत्त्वानां मृत्युरेव च॥ १५॥
पाशानामस्म्यहं माया काल: कलयतामहम् |
गतीनां मुक्तिरेवाह॑ परेषां परमेश्वर:॥ १६॥
यच्चान्यदपि लोकेउस्मिन् सत्त्वं तेजोबलाधिकम्।
तत्सर्व प्रतिजानीध्व॑ मम तेजोविजुम्भितम्॥ १७॥
आत्मान: पशव: प्रोक्ता: सर्वे संसारवर्तिन: ।
तेषां पतिरहं॑ देव: स्मृतः पशुपतिर्बुधे:॥ १८॥
मायापाशेन बध्नामि पशूनेतान् स्वलीलया।
मामेव मोचकं प्राहु: पशूनां वेदवादिन:॥ १९॥
मायापाशेन बद्धानां मोचकोउन्यो न विद्यते।
मामृते परमात्मानं भूताधिपतिमव्ययम्॥ २०॥
चतुर्विशतितत्त्वानि माया कर्म गुणा इति।
एते पाशा: पशुपते: क्लेशाश्व पशुबन्धना: ॥ २१॥
मनो बुद्धिरहंकार: खानिलाग्रिजलानि भू: ।
एता प्रकृतयस्त्वष्टी विकाराश्च तथापरे॥ २२॥
श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्ना प्राणं चैव तु पदञ्चमम् ।
पायूपस्थं करो पादौ वाक् चैव दशमी मता॥ २३॥
शब्द: स्पर्शश्व रूपं च रसो गन्धस्तथेव च।
त्रयोविंशतिरेतानि तत्त्वानि प्राकृतानि तु॥ २४॥
चतुर्विशकमव्यक्त प्रधानं गुणलक्षणम्।
अनादिमध्यनिधनं कारणं जगत: परम्॥ २५॥
सत्तं:ं रजस्तमएचेति गुणत्रयमुदाहतम्।
साम्यावस्थितिमेतेषामव्यक्ते प्रकृतिं बिदु:॥ २६॥
२७९
मैं मृगेन्द्रोंमें सिंह, यन्त्रोंमें धनुष, वेदोंमें सामवेद
और अयजुर्मनत्रोंमें शतरुद्रिय हूँ, मैं जपनीय सभी
मन्त्रोंमें सावित्री मन्त्र, गोपनीयोंमें प्रणब, (वैदिक)
सूक्तोंमें पुरुषसूक्त, साममन्त्रोंमें ज्येष्ठमाम हूँ। मैं सभी
वेदके अर्थको जाननेवाले दिद्वानोंमें स्वायम्भुव मनु,
देशोंमें ब्रह्मावर्त और क्षेत्रोंमें अविमुक्त (वाराणसी)
क्षेत्र हूँ। मैं विद्याओंमें आत्मविद्या, ज्ञानोंमें परम
ईश्वरीय ज्ञान, (पञ्च) भूतोंमें आकाश और सत्त्वोंमें
मृत्यु, हूँ॥ १२--१५॥
मैं (बन्धनकारक) पाशोंमें माया, संहार करनेवालोंमें
काल, गतियोंमें मुक्ति और उत्तकृष्टोंमें परमेश्वर हूँ।
इस संसारमें अन्य जो कुछ भी अधिक तेज और
बलसे सम्पन्न सत्त्व पदार्थ हैं, उन सबको मेरे ही
तेजसे सम्पन्न जानना चाहिये। संसारमें रहनेवाले सभी
जीवोंको पशु" कहा गया है, मैं देव उनका पति
(स्वामी) हूँ, इसलिये दिद्वानोंद्वारा 'पशुपति!” कहा
जाता हूँ। मैं मायारूपी पाशके द्वारा अपनी लीलासे
इन पशुओं (जीवों)-को बन्धनमें डालता हूँ। वेदज्ञ
लोग मुझे ही पशुओंको मुक्त करनेवाला मोचक कहते
हैं। मायांके पाशसे आबद्ध जीवोंको मुक्त करनेवाला
मुझ भूतोंके अधिपति अव्यय परमात्माको छोड़कर
अन्य कोई नहीं है॥ १६--२०॥
(प्रकृति-महत्-अहंकार आदि) चौबीस तत्त्व, माया,
कर्म तथा गुण--ये पशुपतिके पाश और पशुओं (जीवों)-
को बन्धनमें डालनेवाले क्लेश हैं। मन, बुद्धि, अहंकार,
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश--ये आठ प्रकृति
हैं और दूसरे सभी पदार्थ विकार या विकृति हैं। कान,
त्वचा, नेत्र, जीभ तथा पाँचवीं नासिका, गुदा, जननेन्द्रिय,
हाथ, पैर तथा दसवीं इन्द्रिय वाणी और शब्द, स्पर्श,
रूप, रस तथा गन्ध-ये तेईस तत्त्व प्राकृत अर्थात्
प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले हैं॥२१--२४॥
चौबीसवाँ तत्त्व अव्यक्त किंवा प्रधान है, वह
गुणोंसे लक्षित होनेवाला आदि, मध्य तथा अन्तसे रहित
और जगतूका परम कारण है। सत्त्त, रज और तम--
ये तीन गुण कहे गये हैं। इन तीनों गुणोंकी साम्यावस्थाको
अव्यक्त प्रकृति जानना चाहिये॥ २५-२६॥
१-यहाँ मृत्युसे यमराज या धर्मराजको समझना चाहिये, जो प्राणिमात्रकी अन्तिम गतिके कारण एवं निर्णायक हैं।
२-अज्ञानसे आवृत होनेके कारण जीव पशु हैं।
२८० * कूर्मपुराण *
सत्त्वं ज्ञानं तमोऊज्ञानं रजो मिश्रमुदाहतम्। सत्त्वगुणको ज्ञानस्वरूप, तमोगुणको अज्ञानस्वरूप
गुणानां बुद्धिवैषम्याद वैषम्यं कवयो विदु: ॥ २७॥ | और रजोगुणको मिश्ररूप अर्थात् ज्ञान और अज्ञान
दोनोंका मिश्रित रूप कहा गया है। बुद्धिकी विषमतासे
गुणोंका भी वैषम्य होता है, ऐसा विद्वान् लोग कहते
हैं ॥ २७ ॥
धर्माधर्माविति प्रोक्तौ पाशौ द्वो बन्धसंज्ञितो बन्ध नामवाले दो पाशोंको धर्म और अधर्प कहा
मय्यर्पितानि कर्माणि निबन्धाय विमुक्तये॥ २८॥ | गया है। मुझे अर्पित किये गये कर्म बन्धनसे युक्तिके
लिये होते हैं। आत्माका बन्धन करनेवाले अविद्या,
अविद्यामस्मितां रागं द्वेष चाभिनिवेशकम् | अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश--इन क्लेश नामवाले
क्लेशाख्यानचलान् प्राहु: पाशानात्मनिबन्धनान्॥ २९॥ | पाँच अचल (दीर्घकालतक स्थायी-सा रहनेवाले)
तत्त्वोंकी पाश कहा गया है। मायाको इन (वाँचों)
एतेषामेव पाशानां माया कारणमुच्यते। पाशोंका कारण कहा जाता है। अव्यक्त मूलप्रकृतिरूप
मूलप्रकृतिरव्यक्ता सा शक्तिर्मयि तिष्ठति॥ ३०॥ | शक्ति मुझमें प्रतिष्ठित रहती है॥ २८--३०॥
स एवं मूलप्रकृति: प्रधानं पुरुषोडपि च। यह मूल प्रकृति, प्रधान, पुरुष, महत्, अहंकार आदि
विकारा महदादीनि देवदेव: सनातन:ः॥ ३१॥ | विकारयुक्त तत्त्त--ये सब देवाधिदेव सनातनके ही रूप
स एव बन्ध: स च बन्धकर्ता हैं। यही (सनातन पुरुष) बन्धन है, यही बन्धनमें डालनेवाला
स एव पाश: पशव: स एव। है। यही पाश और यही पशु है। यही सब कुछ जानता
स वेद सर्व न च तस्य वेत्ता है, परंतु इसे जाननेवाला कोई नहीं है। इसे ही आदि
तमाहुरफ्र्य॑ पुरुष॑ं पुराणम्॥ ३२॥ | पुराणपुरुष कहा जाता है*॥ ३१-३२॥
डति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहक्धां संहितायामुपारिविभागे (ईश्ररगीतासु 2 सम्मोउध्याय: ॥ ७॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) सातवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥७॥
आठवाँ अध्याय
महेश्वरका अद्वितीय परमेश्वरके रूपमें निरूपण, सांख्य-सिद्धान्तसे तत्त्वोंका सृष्टिक्रम,
महेश्वरके छः: अड्भ, महेश्वरके स्वरूपके ज्ञानसे परमपदकी प्राप्ति
ईश्वर उवाच ईश्वर बोले--श्रेष्ट ब्राह्मणो! मैं दूसरे गुह्मतम
अन्यद् गुह्मतमं ज्ञानं वक्ष्ये ब्राह्मणपुंगवा:। ज्ञानको बताता हूँ, जिससे यह प्राणी घोर संसार-सागरको
येनासौ तरते जन्तुर्घोरे संसारसागरम्॥ १॥ | पार कर लेता है॥१॥
अहं ब्रह्ममय: शान्तः शाश्वतो निर्मलो5व्यय: । मैं ब्रह्ममय, शान्त, शाश्वत, निर्मल, अव्यय, एकाकी,
एकाकी भगवानुक्त: केवल: परमेश्वर:॥ २॥ | अद्वितीय परमेश्वर तथा भगवान् कहलाता हूँ। महद्गह्म
मम योनिर्महद ब्रह्म ततन्न गर्भ दधाम्यहम्। मेरी योनिरूप है, मैं उसमें मूल माया नामक गर्भ धारण
३ मायाभिधान तु ततो जातमिदं जगत् करता हूँ और उससे यह संसार उत्पन्न हुआ है।
मूल मायाभिधान तु हे थे (उसीसे) प्रधान, पुरुष, आत्मा, महत्तत्त्व, भूतादि
प्रधानं पुरुषो ह्यात्मा महान् भूतादिरिव च। (तामस अहंकार), तन्मात्राएँ, पञ्चमहाभूत तथा इन्द्रिय
तन्मात्राणि महाभूतानीन्द्रियाणि च जज्षिरे॥ ४॥ | उत्पन्न हुईं॥ २--४॥
+ यहाँ बन्धन आदिको सनातनपुरुषमें कल्पितमात्र बताकर अद्दैतभावकी प्रतिष्ठा की गयी है।
* अध्याय ८ *
ततो5ण्डमभवद्धैमं॑ सूर्यकोटिसमप्रभम्।
तस्मिन् जज्ञे महाब्रह्मा मच्छक्त्या चोपबुंंहित: ॥ ५ ॥
ये चानये बहवो जीवा मन्मया: सर्व एव ते।
न मां पश्यन्ति पितर मायया मम मोहिता: ॥ ६ ॥
याश्व योनिषु सर्वासु सम्भवन्ति हि मूर्तय: ।
तासां माया परा योनि्मामेव पितरं विदुः॥ ७ ॥
यो मामेवं विजानाति बीजिन पितरं प्रभुम्।
स धीरः सर्वलोकेषु न मोहमधिगच्छति॥ ८ ॥
ईशान: सर्वविद्यानां भूतानां परमेश्वरः।
ओड्डारमूर्तिरभगवानहं ब्रह्मा प्रजापति:॥ ९ ॥
सम॑ सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्त परमेश्वरम्।
विनशए्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति॥ १०॥
सम॑ पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमी श्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥ ११॥
विदित्वा सप्त सूक्ष्माणि षडड़ं च महेश्वरम् ।
प्रधानविनियोगज्ञ: पर ब्रह्माधिगच्छति॥ १२॥
सर्वज्ञता तृप्तिनादिबोध:
स्वतन्त्रता ._ नित्यमलुप्तशक्ति: ।
अनन्तशक्तिश्च विभोर्विदित्वा
द्त्वि
षडाहुरड्रानि महे श्वरस्थ ॥ १३॥
तन्मात्राणि मन आत्मा च तानि
झते प्रकोत सप्त तत्त्वात्मकानि।
यासा
बन्ध:ः प्रोक्तो विनियोगोडपि तेन॥ १४॥
या सा शक्ति: प्रकृतो लीनरूपा
वेदेष्क्ता कारणं ब्रह्मयोनि:।
तस्या एक: परमेष्ठी परस्ता-
न्महेश्वरः पुरुष: सत्यरूप:॥ १५॥
ब्रह्म योगी परमात्मा महीयान्
व्योमव्यापी वेदवेद्य: पुराण:।
एको रुद्रो मृत्युरव्यक्तमेकं
बीज॑ विश्वं देव एकः स एव॥ १६॥
२८१
तदनन्तर करोड़ों सूर्यके समान प्रकाशमान हिरण्मय
अण्ड उत्पन्न हुआ। उस अण्डमें मेरी शक्तिसे उपबंहित
महाब्रह्मा उत्पन्न हुए। अन्य भी जो बहुतसे प्राणी हैं,
वे सभी मेरे ही स्वरूप हैं। मेरी मायासे मोहित होनेके
कारण वे पितामह-स्वरूपको नहीं देख पाते। सभी
योनियोंमें जो मूर्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उनकी योनि
परा माया है और मुझे ही पितृस्वरूप विद्वान् लोग
जानते हैं। इस प्रकार जो मुझे ही बीजरूप पितृस्वरूप
प्रभु जानता है, वह सभी लोकोंमें धीर होता है और
मोहको प्राप्त नहीं होता॥ ५--८ ॥
में ही सभी विद्याओंका स्वामी, प्राणियोंका परम
ईश्वर, ओड्डारमूर्ति, प्रजापति भगवान् ब्रह्मा हूँ। जो पुरुष
विनष्ट होनेवाले सभी (चराचर) भूतोंमें परमेश्वरको
नाशरहित और समभावसे देखता है, वही यथार्थ देखता
है। जो पुरुष सबमें समभावसे स्थित परमेश्वरको
समानरूपसे देखता है, वह स्वयंद्वारा स्वयंको नष्ट नहीं
करता; इस कारण वह परम गति प्राप्त करता है। सात
सूक्ष्म तत्त्तों एवं छ: अज्ोंवाले महेश्वरको जानकर
प्रधान तथा विनियोगकों जाननेवाला परम ब्रह्मको प्राप्त
करता है॥९--१२॥
सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादि ज्ञान, स्वतन्त्रता, नित्य
अलुप्त-शक्ति तथा अनन्तशक्ति-ये विभु महेश्वरके छ:
अड्गभ कहे गये हैं। पाँच तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप,
रस तथा गन्ध), मन और आत्मा-ये सात सूक्ष्म
तत्त्व कहे गये हैं। जो हेतुरूपा प्रकृति है, वह प्रधान
है और उससे होनेवाले बन्धनको ही विनियोग कहा
जाता है। प्रकृतिमें लीन रहनेवाली जो शक्ति है, उसे
वेदोंमें ब्रद्ययोनि और कारणरूप कहा गया है।
अद्वितीय, परमेष्ठी, परात्पर, सत्यरूप महेश्वर उसके
पुरुष हैं॥१३--१५॥
वे ही अद्वितीय देव ब्रह्मा, योगी, परमात्मा,
महीयान्, व्योमव्यापी, वेदोंद्वारा ज्ञात होने योग्य, पुराण,
पुरुष अद्वितीय रुद्र, मृत्यु, अव्यक्त, एक बीज और
विश्वरूप हैं॥ १६॥
२८२
* कूर्मपुराण *
तमेवैकं प्राहुरन्येडप्यनेकं
त्वेकात्मानं केचिदन्यत्तथाहुः ।
अणोरणीयान् महतोउसौ महीयान्
महादेव: प्रोच्यते वेदविद्धि:॥ १७॥
एवं हि यो वेद गुहाशयं परं
प्रभुं पुराणं पुरुषं विश्वरूपम्।
हिरण्मयं बुद्धिमतां परां गति
उन्हें ही कोई एक और कोई अनेक कहते हैं।
दूसरे कुछ लोग उन्हें ही अद्वितीय आत्मा कहते हैं।
वेदज्ञ लोग उन्हें अणुसे अणुतर और महानूसे भी महत्तर
महादेव कहते हैं। हृदयरूप गुहामें स्थित, परात्पर,
पुराणपुरुष, विश्वरूप, हिरण्मय और बुद्धिमानोंको
परमगति प्रभुको जो इस प्रकार जानता है, वह बुद्धिमान्
पुरुष बुद्धिको पार कर जाता है अर्थात् परमपद प्राप्त
स बुद्धिमान् बुद्धिमतीत्य तिष्ठति॥ १८ ॥ | करता है॥ १७-१८॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहय्रधां संहितायामृपरिविभागे (ईश्वरगीतासु 2 अष्टमोउध्याय: ॥ ८ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) आठवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥८॥
नवाँ अध्याय
महादेवके विश्वरूपत्वका वर्णन तथा ईश्वर-सम्बन्धी ज्ञानका प्रतिपादन
ऋषय ऊचु:
निष्कलो निर्मलो नित्यो निष्क्रिय: परमेश्वर: ।
तन्नो वद महादेव विश्वरूप: कथं भवान्॥ १॥
ईश्वर उवाच
नाहं विश्वो न विश्वं च मामृते विद्यते द्विजा:।
मायानिमित्तमत्रास्ति सा चात्मानमपाश्रिता॥ २॥
अनादिनिधना शक्तिर्मायाव्यक्तसमाश्रया।
तन्निमित्त: प्रपद्चोड्यमव्यक्तादभवत् खलु॥ ३॥
अव्यक्त कारणं प्राहुरानन्दं ज्योतिरक्षरम्।
अहमेव परं ब्रह्म मत्तो हान्यन्न विद्यते॥ ४॥
तस्मान्से विश्वरूपत्वं निश्चितं ब्रह्मवादिभि:।
एकत्वे च पृथक्त्वे चर प्रोक्तमेतन्निदर्शनम्॥ ५॥
अहं तत् परमं ब्रह्म परमात्मा सनातन:।
अकारणं द्विजा: प्रोक्तो न दोषो हयात्मनस्तथा॥ ६॥
ऋषियोंने पूछा--महादेव ! आप परमेश्वर निष्कल,
निर्मल, नित्य तथा निष्क्रिय होनेपर भी विश्वरूप कैसे
हैं, इसे हम लोगोंको बतलायें॥१॥
ईश्वर बोले--द्विजो! मैं विश्व नहीं हूँ और मुझसे
अतिरिक्त विश्व भी नहीं है। यह सब मायाके निमित्तसे
है और वह माया भी आत्माको आश्रित कर रहती
है। आदि और अन्तसे रहित शक्तिरूप माया अव्यक्त
(परमात्मा)-के आश्रित है, उसी (माया)-के कारण
अव्यक्तसे यह प्रपञ्जरूप संसार उत्पन्न हुआ है। (मुझ)
अव्यक्तको कारण कहा जाता है। मैं ही आनन्दस्वरूप,
प्रकाशरूप, अक्षर परम ब्रह्म हूँ। मुझसे अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं है। इसी कारण ब्रह्मवादियोंने मेरा
विश्वरूपत्व निश्चित किया है। एक रूप तथा भिन्नरूपके
विषयमें इस उदाहरणका* वर्णन किया गया है। द्विजो!
मैं कारणरहित, सनातन, परम ब्रह्म परमात्मा हूँ, अत:
मुझमें कोई दोष नहीं है। तात्पर्य यह है कि जगतूमें
विषमता, क्रूरता आदि दोषोंका असाधारण कारण
मनुष्यकृत कर्म है, ईश्वर नहीं। ईश्वर तो सामान्य कारण
है, अत: वह दोषरहित है॥ २--६॥
* विवर्त विश्वकी दृष्टिसे महादेव अनेक रूप हैं तथा परमार्थत: एक होनेसे एक रूप हैं।
* अध्याय ९ *
अनन्ता शक्तयो5व्यक्ते मायाद्या: संस्थिता श्रुवा: ।
तस्मिन् दिवि स्थितं नित्यमव्यक्त भाति केवलम्॥ ७ ॥
याभिस्तल्लक्ष्यते भिन्नमभिन्न॑ तु स्वभावत: ।
एकया मम सायुज्यमनादिनिधनं शथ्रुवम्॥ ८ ॥
पुंसो5भूदन््यया भूतिरन्यया तत्तिरोहितम्।
अनादिमध्यं तिष्ठन्तं युज्यतेडविद्याया किल॥ ९ ॥
तदेतत् परमं व्यक्त प्रभामण्डलमण्डितम्।
तदक्षरं परं ज्योतिस्तद् विष्णो: परमं पदम्॥ १० ॥
तत्र सर्वमिदं प्रोतमोतं चैवाखिलं जगत्।
तदेव च जगत् कृत्स्नं तद् विज्ञाय विमुच्यते॥ ११ ॥
यतो वाच्ो निवर्तन्ते अप्राप्पय मनसा सह।
आनद्दं ब्रह्मणो विद्वान् बिभेति न कुतश्चन॥ १२॥
बेदाहमेतं पुरुषं महान्त-
मादित्यवर्ण तमसः परस्तात्।
तद् विज्ञाय परिमुच्येत विद्वान्
नित्यानन्दी भवति ब्रह्मभूतः॥ १३॥
यस्मात् परं॑ नापरमस्ति किस्ञित्
यज्योतिषां ज्योतिरेक॑ दिविस्थम्।
तदेवात्मानं मन्यमानो5थ विद्वा-
नात्मानन्दी भवति ब्रह्मभूत:॥ १४॥
तद॒व्ययं कलिलं गूढदेहं
ब्रह्मानन्दममृतं
वदन्त्येवं ब्राह्मणा ब्रह्मनिष्ठा
यत्र गत्वा न निरवर्तेत भूयः॥ १५॥
हिरण्मये परमाकाशतत्त्वे
यदर्चिषि प्रविभातीव तेजः।
तद्विज्ञाने परिपश्यन्ति धीरा
विभ्राजमानं विमल॑ व्योम धाम॥ १६॥
विश्वधाम ।
ततः पर परिपश्यन्ति धीरा
आत्मन्यात्मानमनुभूयानुभूय.. ।
स्वयम्प्रभ: परमेष्ठी महीयान्
ब्रह्मानन्दी भगवानीश एष:॥ १७॥
२८३
अव्यक्तमें ही माया आदि अनन्त ध्रुव शक्तियाँ
प्रतिष्ठित हैं और वह अव्यक्त अकेले ही विशुद्ध
शब्दतन्मात्रारूप आकाशतत्त्वमें स्थित रहते हुए सदा
प्रकाशित रहता है। स्वभावत: वह अभिन्न (अव्यक्त)
तत्त्व जिनके द्वारा अनेक रूपोंमें प्रतिभासित होता है,
उनकी मूल एक (परम) शक्तिसे आदि और अन्तरहित
मेरा ध्रुव सायुज्य प्राप्त होता है। पुरुषकी दूसरी शक्तिसे
भूति (ऐश्वर्य)-की उत्पत्ति तथा अन्य शक्तिसे उसका
( भूतिका) लोप होता है। आदि एवं मध्यरहित सर्वत्र
विद्यमान (पुरुष) ही अविद्यासे (स्वेच्छया) युक्त होता
है। प्रभामण्डलसे मण्डित वह परम व्यक्त, अक्षर, परम
ज्योतिरूप है और वह विष्णुका परमपद है। उसमें
ही यह सारा जगत् ओतप्रोत है। वही सम्पूर्ण जगत् है।
उसे जान लेनेसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है॥७--११॥
मनके साथ वाणी जिसे न पाकर लौट आती है
उस आनन्दस्वरूप ब्रह्माको जाननेवाला कहीं भयभीत
नहीं होता। में इस तमोगुणसे परे आदित्यके समान
वर्णवाले अर्थात् प्रकाशयुक्त महान् पुरुषको जानता हूँ,
इसे जानकर दिद्वान् मुक्त हो जाता है और नित्य
आनन्दस्वरूप तथा ब्रह्ममय हो जाता है॥ १२-१३॥
जिससे परे और भिन्न कुछ भी नहीं है और
जो द्युलोकमें स्थित सभी ज्योतियोंका एकमात्र प्रकाशक
है, उसीको आत्मा माननेवाला विद्वान् नित्य आनन्द-
स्वरूप ब्रह्ममय हो जाता है। ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण उसे
अविनाशी, कलिल, गूढदेह, ब्रह्मानन्द, अमृत तथा
विश्वधाम कहते हैं। वहाँ पहुँचनेपर फिर लौटना नहीं
पड़ता॥ १४-१५॥
हिरण्मय प्रकाशयुक्त परम आकाशतत्त्वमें जो तेजके
समान प्रतिभासित होता है, धीर जन (आत्मस्थ)
विज्ञानमें उस प्रकाशमान निर्मल व्योम (ब्रह्म) एवं
धाम (परम प्राप्तव्य)-का दर्शन करते हैं। तदनन्तर
अपने आत्मामें आत्माका बार-बार अनुभव करके
धीर पुरुष परम तत्त्वका दर्शन करते हैं और उन्हें
यह ज्ञान होता है--यही (आत्मतत्त्व) स्वयं प्रकाशमान,
परमेष्ठी, महान् ब्रह्मानन्दस्वरूप भगवान् ईशके रूपमें
है॥ १६-१७॥
२८४
* कूर्मपुराण *
एको देव: सर्वभूतेषु गूढः
सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा |
तमेवैक॑ ये5नुपश्यन्ति धीरा-
स्तेषां शान्ति: शाश्वती नेतरेषाम्॥ १८॥
सर्वाननशिरोग्रीव:ः सर्वभूतगुहाशय: ।
सर्वव्यापी च भगवान् न तस्मादन्यदिष्यते॥ १९॥
इत्येतदेश्वरं ज्ञानमुक्ते वो मुनिपुंगवा:।
सभी प्राणियोंके अन्तरात्मा, सर्वव्यापी एक देव
ही सभी प्राणियोंमें छिपे हुए हैं। जो धीर पुरुष उन
एक अद्वितीयका दर्शन करते हैं, उन्हें ही शाश्वत शान्ति
प्राप्त होती है, दूसरोंकों नहीं। वे भगवान् सभी ओर
मुख, सिर तथा ग्रीवावाले, सभी प्राणियोंके (हृदयरूपी)
गुहामें स्थित और सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले हैं। उनसे भिन्न
कुछ नहीं है॥ १८-१९॥
मुनिश्रेष्ठो! इस प्रकार यह आपको ईश्वर-सम्बन्धी
ज्ञान बतलाया। यह विशेषरूपसे गोपनीय है और
गोपनीयं विशेषेण योगिनामपि दुर्लभम्॥ २०॥ | योगियोंके लिये भी दुर्लभ है॥२०॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्रथां संहितायामुपरिविभागे (ईश्वरगीतासु 2 नवमोउध्याय: ॥ ९ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) नवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥९॥
दसवाँ अध्याय
ईश्वरद्वारा परम तत्त्व तथा परम ज्ञानके स्वरूपका निरूपण
और उसकी प्राप्तिके साधनका वर्णन
ईश्वर उवाच
अलिड्डमेकमव्यक्त लिड्ढं ब्रहोति निश्चितम्।
स्वयंज्योतिः परं तत्त्व परे व्योम्नि व्यवस्थितम्॥ १॥
अव्यक्त कारणं चयत्तदक्षर॑ परम॑ पदम्।
निर्गुणं शुद्धविज्ञानं तद् वै पश्यन्ति सूरय:॥ २॥
तन्निष्ठा: शान्तसंकल्पा नित्यं तद्धावभाविता: ।
पश्यन्ति तत् परं ब्रह्म यत्तल्लिड्रमिति श्रुति: ॥ ३॥
अन्यथा नहि मां द्रष्ट शक्यं वे मुनिपुंगवा:।
नहि तद् विद्यते ज्ञानं यतस्तज्ज्ञायते परम्॥ ४॥
एतत्तत्परमं ज्ञानं केवल कवयो विदु:।
अज्ञानमितरत् सर्व यस्मान्मायामयं जगत्॥ ५॥
यज्ज्ञानं निर्मल सूक्ष्म निर्विकल्पं यद॒व्ययम्।
ममात्मासाौ तदेवेदमिति प्राहुर्विपश्चित:॥ ६॥
येउप्यनेकं प्रपश्यन्ति तेडपि पश्यन्ति तत्परम्।
आश्रिताः परमां निष्ठां बुद्ध्वेक तत्त्वमव्ययम्॥ ७॥
ईश्वने कहा--अलिड्गरः (चिह्रहित), अद्वितीय,
अव्यक्त, लिड्ढरको ब्रह्म कहा गया है। वह स्वयं प्रकाशरूप
परम तत्त्व परम व्योममें अवस्थित है। जो निर्गुण, विशुद्ध
विज्ञानरूप, अक्षर और अव्यक्त कारण-रूप है, उस
परमपदका विद्वान् लोग साक्षात्कार करते हैं। जिसे वेदमें
तल्लिड़ अर्थात् हेतुरूप कहा गया है, उस परम ब्रह्मका
शान्तसंकल्पवाले, तत्परायण और नित्य उनके भावसे
भावित लोग साक्षात्कार करते हैं॥ १--३॥
मुनिश्रेष्ठो! अन्य किसी प्रकार मेरा दर्शन नहीं हो
सकता। ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं है, जिससे उस परम
तत्त्वको जाना जा सके। इस परम ज्ञानको केवल विद्दान्
ही जानते हैं। इसके अतिरिक्त सभी कुछ अज्ञानस्वरूप
है, जिससे यह मायामय जगत् (उत्पन्न) है॥४-५॥
जो निर्मल, सूक्ष्म, निर्विकल्प तथा अव्यय ज्ञान
है, वही मेरा आत्मरूप है--ऐसा विद्वानोंका कहना है।
जो उसे (उस परम तत्त्वको) अनेक रूपसे देखते
हैं, वे भी परम निष्ठा (भक्ति)-का आश्रय ग्रहणकर
अद्वितीय अविनाशी तत्त्वका ज्ञान प्रातकर उसी परम
तत्त्वको देखते हैं॥६-७॥
* अध्याय १० *+
ये पुनः परम तत्त्वमेक॑ वानेकमीश्वरम्।
भक्त्या मां सम्प्रपश्यन्ति विज्ञेयास्ते तदात्मका: ॥ ८ ॥
साक्षादेव प्रपश्यन्ति स्वात्मानं परमेश्वरम्।
नित्यानन्दं निर्विकल्पं सत्यरूपमिति स्थिति: ॥ ९ ॥
भजन्ते परमानन्दं सर्वगं यत्तदात्मकम्।
स्वात्मन्यवस्थिता: शान्ता: परेष्व्यक्ते परस्य तु॥ १०॥
एषा विमुक्ति: परमा मम सायुज्यमुत्तमम्।
निर्वाणं ब्रहाणा चेक््यं केवल्यं कवयो विदु: ॥ ११॥
तस्मादनादिमध्यान्तं वस्त्वेक॑ परमं शिवम्।
स ईश्वरो महादेवस्तं विज्ञाय विमुच्यते॥ १२॥
न तत्र सूर्य: प्रविभातीह चन्द्रो
न नक्षत्राणि तपनो नोत विद्युत्।
तद्घधासेदमखिलं भाति नित्य
तन्नित्यभासमचलं
नित्योदितं संविदा निर्विकल्पं
शुद्ध बहन्त॑ परम यद्विभाति।
अत्रान्तरं ब्रह्मविदो5थ नित्यं
पश्यन्ति तत्त्वमचलं यत् स ईशः ॥ १४॥
नित्यानन्दममृतं सत्यरूपं
शुद्ध वदन्ति पुरुष सर्ववेदा:।
तमोमिति प्रणवेनेशितारं
ध्यायन्ति वेदार्थविनिश्चितार्था:॥ १५॥
न भूमिरापो न मनो न वहिः
प्राणोईनिलो गगन॑ नोत बुद्धि:।
न चेतनोउन्यत् परमाकाशमध्ये
विभाति देवः शिव एव केवल: ॥ १६॥
इत्येतदुक्त परमं रहस्य
ज्ञानामृतं सर्ववेदेषु
जानाति योगी विजने5थ देशे
युञ्जीत योगं प्रयतो हाजरत्रम्॥ १७॥
सद्दिभाति॥ १३॥
गूढम्।
२८५
और जो दूसरे लोग पुनः: एक या अनेक रूपोंमें
परम तत्त्वरूप ईश्वरका भक्तिद्वारा साक्षात्कार करते
हैं, उन्हें तदात्मक अर्थात् उस ब्रह्मका स्वरूप ही
जानना चाहिये॥ ८॥
वे वस्तुत: नित्यानन्दस्वरूप, निर्विकल्१प तथा
सत्यस्वरूप साक्षात् परमेश्वरको अपनी आत्मामें देखते
हैं यह वस्तुस्थिति है। अपने अव्यक्त परम आत्तमामें
अवस्थित शान्त (योगीजन), श्रेष्ठ परम तत्त्वके परमानन्द-
स्वरूप, सर्वव्यापी तदात्मक तत्त्वकी उपासना करते हैं।
यही परम मुक्ति है, विद्वान् इसे मेरा उत्तम सायुज्य
(नामक मोक्ष), निर्वाण ब्रह्मके साथ ऐक्य और कैवल्यरूपसे
जानते हैं । ये परम शिव आदि, मध्य और अन्तसे रहित
अद्वितीय तत्त्व हैं। ये ही महादेव हैं, ईश्वर हैं, इसलिये
इन्हें जाननेसे मुक्ति मिल जाती है॥९--१२॥
वहाँ (परम तत्त्व परमेश्वरमें) न सूर्य प्रकाशित
होता है, न चन्द्रमा, न नक्षत्र, न अग्ने और न ही
विद्युत्। उसीके प्रकाशसे सम्पूर्ण (विश्व) प्रकाशित होता
है। वह नित्य प्रकाश अचल एवं सदरूपसे प्रकाशित
होता है। जो परम बृहत् विशुद्ध तत्त्व निर्विकल्प
ज्ञानस्वरूप और नित्य उदित हुआ ज्ञानसे ही प्रकाशित
होता है, उसीमें ब्रह्मज्ञानगा लोग जिस नित्य अचल
तत्त्वका दर्शन करते हैं, वही ईश हैं॥ १३-१४॥
सभी वेद पुरुषको नित्य आनन्दरूप, अमृतरूप
और विशुद्ध सत्यस्वरूप कहते हैं। वेदार्थका निश्चय
किये हुए लोग '३»' इस प्रणवके द्वारा उस नियामकका
ध्यान करते हैं। परम आकाशके मध्यमें एकमात्र
अद्वितीय देव शिव ही प्रकाशित होते हैं; वहाँ न भूमि
है, न जल है, न मन है और न अग्नि ही है। इसी
प्रकार प्राण, वायु, आकाश, बुद्धि तथा अन्य कोई
चेतन-तत्त्व वहाँ नहीं है॥ १५-१६॥
यह मैंने सभी वेदोंमें निहित परम रहस्यमय
ज्ञारूपी अमृतका वर्णन किया। किसी निर्जन प्रदेशमें
निरन्तर प्रयत्रपूर्वक्त साधना करनेवाला योगी ही इस
ज्ञानको जानता है॥१७॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहग्रशं संहितायामुपरिविभागे (ईश्वरगीतासु 2 दशमोउथ्यायः ॥ ९० ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १०॥
२८६
* कूर्मपुराण *
ग्यारहवां अध्याय
योगकी महिमा, अष्टाड्रयोग, यम, नियम आदि योगसाधनोंका लक्षण, प्राणायामका
विशेष प्रतिपादन, ध्यानके विविध प्रकार, पाशुपत-योगका वर्णन, वाराणसीमें
प्राणत्यागकी महिमा, शिव-आराधनकी विधि, शिव और विष्णुके
अभेदका प्रतिपादन, शिवज्ञान-योगकी परम्पराका वर्णन,
ईश्वरगीताकी फलश्रुति तथा उपसंहार
ईश्वर उवाच
अतः परं प्रवक्ष्यामि योगं परमदुर्लभम्।
येनात्मानं प्रपश्यन्ति भानुमन्तमिवेश्वरम्॥
योगाग्रिर्दहति क्षिप्रमशोष॑ पापपजथ्जरम्।
प्रसन्न॑ जायते ज्ञानं साक्षात्रिर्वाणसिद्धिदम्॥
योगात् संजायते ज्ञानं ज्ञानाद योग: प्रवर्तते।
योगज्ञानाभियुक्तस्थ प्रसीदति महेश्वरः॥
एककाल द्विकालं वा त्रिकालं नित्यमेव वा।
ये युञ्जन्तीह मद्योगं ते विज्ञेया महेश्वरा: ॥
योगस्तु द्विविधो ज्ञेयो हाभाव: प्रथमो मत: ।
अपरस्तु महायोग: सर्वयोगोत्तमोत्तम: ॥
शून्यं सर्वनिराभासं स्वरूप॑ यत्र चिन्त्यते।
अभावयोगः स प्रोक्तो येनात्मानं प्रपश्यति।॥
यत्र पश्यति चात्मानं नित्यानन्दं निरञ्जनम्।
मयैक्यं स महायोगो भाषितः परमेश्वर:॥
ये चान्ये योगिनां योगाः श्रूयन्ते ग्रन्थविस्तरे।
सर्वे ते ब्रह्ययोगस्य कलां नाईन्ति षोडशीम्॥
यत्र साक्षात् प्रपश्यन्ति विमुक्ता विश्वमी श्वरम्।
सर्वेधामेव योगानां स योग: परमो मतः॥
सहस््रशो5थ शतशो ये चेश्वरबहिष्कृता: ।
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न ते पश्यन्ति मामेक॑ योगिनो यतमानसा: ॥ १०॥
ईश्वरने कहा--इसके अनन्तर उस परम दुर्लभ
योगको कहता हूँ, जिससे सूर्यके समान ईश्वररूप
आत्माका दर्शन होता है अर्थात् सूर्यका जैसे प्रत्यक्ष
हो रहा है, वैसे ही ईश्वरका प्रत्यक्ष होता है॥१॥
योगरूपी अग्नि शीघ्र ही सम्पूर्ण पापपञ्जरको भस्म
कर देता है और (उसके बाद) साक्षात् मुक्तिरूप सिद्धि
प्रदान करनेवाला प्रसन्न (निर्मल) ज्ञान उत्पन्न हो जाता
है। योगसे ज्ञान उत्पन्न होता है और ज्ञानसे योग प्रवर्तित
होता है। योग तथा ज्ञानसे सम्पन्न व्यक्तिपर महे श्वर प्रसन्न
होते हैं। जो नित्य एक समय, दो समय या तीनों
समय मेरे योगका साधन करते हैं, उन्हें महेश्वर समझना
चाहिये ॥ २--४॥ हि
योग दो प्रकारका समझना चाहिये, पहला अभावयोग
है और दूसरा सभी योगोंमें उत्तमोत्तम महायोग कहलाता
है। जिसमें सभी आभासोंसे रहित शून्यमय (निर्विकल्पक)
स्वरूपका चिन्तन होता है और जिसके द्वारा आत्माका
साक्षात्कार होता है, वह अभावयोग कहा गया है।
जिसमें नित्यानन्दस्वरूप निरञ्ञन आत्माका दर्शन होता
है और मेरे साथ एकता होती है, वह परमेश्वररूप
महायोग कहा गया है॥५--७॥
अन्य जिन योगियोंके योगोंका ग्रन्थोंमें विस्तार
हुआ है, वे सभी ब्रह्मयोगकी सोलहवीं कलाके भी
बराबर नहीं हैं। जिस योगमें मुक्त पुरुष विश्वको
साक्षात् ईश्वरके रूपमें देखते हैं, वह सभी योगोंमें
श्रेष्ठ योग माना जाता है। जो सैकड़ों, हजारों अन्य
प्रकाकेक मनको संयमित करनेवाले ईश्वरबहिष्कृत
(वेदबाह्मय) योगी हैं, वे मुझ अद्वितीयका दर्शन
नहीं करते॥ ८--१० ॥
* अध्याय १५९ *
प्राणायामस्तथा ध्यान प्रत्याहारो5थ धारणा।
समाधिश्च मुनिश्रेष्ठा यमो नियम आसनम्॥ ११॥
मस्येकचित्ततायोगो वृत्त्यन्तरनिरोधतः ।
तत्साधनान्यष्टधा तु युष्माकं कथितानि तु॥ १२॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ
यमा: संक्षेपतः प्रोक्ताश्चित्तशुद्धिप्रदा नृगाम्॥ १३॥
कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा।
अक्लेशजननं प्रोक्त॑ त्वहिंसा परमर्षिभि:॥ १४॥
अहिंसाया: परो धर्मो नास्त्यहिंसा पर सुखम्
विधिना या भवेद्धिसा त्वहिंसेव प्रकीर्तिता ॥ १५ ॥
सत्येन सर्वमाप्नोति सत्ये सर्व प्रतिष्ठितम्।
यथार्थकथनाचारः सत्यं प्रोक्त द्विजातिभि: ॥ १६॥
परद्रव्यापहरणं चौर्याद् वाथ बलेन वा।
स्तेयं॑ तस्यानाचरणादस्तेयं धर्मसाधनम्॥ १७॥
कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।
सर्वत्र मैथुनत्यागं ब्रह्मचर्य॑ प्रचक्षते॥ १८ ॥
द्रव्याणामप्यनादानमापद्यपि यथेच्छया।
अपरिग्रह इत्याहुस्तं प्रयत्नेन पालयेत्॥ १९॥
तपःस्वाध्यायसंतोषा: शौचमीश्वरपूजनम्।
समासान्नियमा: प्रोक्ता योगसिद्ध्रिप्रदायिन: ॥ २०॥
उपवासपराकादिकृच्छुचान्द्रायणादिभि: ।
शरीरशोषणं प्राहुस्तापसास्तप उत्तमम्॥ २१॥
वेदान्तशतरुद्रीयप्रणवादिजपं. बुधा:।
सत्तरशुद्धिकरं पुंसां स्वाध्यायं परिचक्षते॥ २२॥
स्वाध्यायस्य त्रयो भेदा वाचिकोपांशुमानसा: ।
उत्तरोत्तरवैशिष्टयं प्राहुवेंदार्थवेदिन: ॥ २३॥
यः शब्दबोधजनन: परेषां श्रृण्वतां स्फुटम्।
स्वाध्यायो वाचिक: प्रोक्त उपांशोरथ लक्षणम्॥ २४॥
२८७
मुनिश्रेष्ठो ! अन्य वृत्तियोंका निरोधकर मेरेमें एकचित्तता
ही योग है और इस योगके जो आठ साधन मैंने आप
लोगोंको बताये हैं वे ये हैं--प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार,
धारणा, समाधि, यम, नियम तथा आसन*॥ ११-१२॥
अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य
तथा अपरिग्रह--संक्षेपमें इन्हें यम कहा गया है। ये
मनुष्योंके चित्तकी शुद्धि करनेवाले हैं। मन, वाणी तथा
कर्मसे सभी प्राणियोंको सर्वदा किसी भी प्रकारका
क्लेश प्रदान न करना--इसे श्रेष्ठ ऋषियोंने अहिंसा कहा
है। अहिंसासे श्रेष्ठ (कोई) धर्म नहीं है और अहिंसासे
बढ़कर कोई सुख नहीं है। वेदविहित हिंसाको अहिंसा
ही कहा गया है। सत्यके द्वारा सब कुछ प्राप्त हो
जाता है, सत्यमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। द्विजातियोंके
द्वारा यथार्थ कथनके आचारको सत्य कहा गया है।
चोरीसे अथवा बलपूर्वक दूसरेके द्रव्यका अपहरण
करना स्तेय है, उसका (स्तेयका) आचरण न करना
अस्तेय है, यह धर्मका साधन है। मन, वाणी तथा
कर्मद्वारा सभी अवस्थाओंमें सर्वदा सर्वत्र मैथुनका त्याग
करना ब्रह्मचर्य कहलाता है॥ १३--१८॥
आपत्तिकालमें भी इच्छापूर्वक द्रव्योंका ग्रहण न
करना “अपरिग्रह” कहा गया है। प्रयत्रपूर्वक उस
अपरिग्रहका पालन करना चाहिये। तप, स्वाध्याय, संतोष,
शौच तथा ईश्वरका पूजन--संक्षेपमें नियम बतलाये गये
हैं, ये योगसिद्धि प्रदान करनेवाले हैं । तपस्वियोंने पराक
आदि उपवासों तथा कृच्छूचान्द्रायणादि (ब्रतों)-के द्वारा
शरीरके शोषणको उत्तम तप कहा है॥ १९--२१॥
विद्वान् लोगोंने वेदान्तशास्त्र, शतरुद्रिय और प्रणव
आदिके जपको पुरुषोंके लिये सत्त्वकी शुद्धि करनेवाला
'स्वाध्याय' कहा है। स्वाध्यायके तीन भेद हैं--वाचिक,
उपांशु और मानस । वेदार्थ जाननेवालोंने इन तीनोंमें उत्तरोत्तरका
वैशिष्टय कहा है अर्थात् वाचिक स्वाध्यायसे उपांशु स्वाध्याय
श्रेष्ठ और उपांशु स्वाध्यायसे मानस स्वाध्याय श्रेष्ठ है।
दूसरे सुननेवालेको स्पष्टरूपसे शब्दका ज्ञान उत्पन्न करानेवाला
स्वाध्याय 'वाचिक' कहलाता है। (अर्थात् वह स्वाध्याय
वाचिक है जो दूसरोंको स्पष्ट सुनायी पड़े।) अब उपांशुका
लक्षण बतलाया जाता है॥ २२--२४॥
* यद्यपि अष्टाड्रयोगके साधन ऊपर निर्दिष्ट क्रमसे ही मूलमें वर्णित हैं, पर यह वर्णन छन्दकी दृष्टिसे है। वास्तवमें
साधनोंका क्रम इस प्रकार है--यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि।
२८८
रू कूर्मपुराण कं
ओष्ठयो: स्पन्दमात्रेण परस्याशब्दबोधक:ः ।
उपांशुरेष निर्दिष्ट: साहस्त्रो वाचिकाज्जप: ॥ २५॥।
यत्पदाक्षरसड्रत्या. परिस्पन्दनवर्जितम्।
चिन्तन सर्वशब्दानां मानसं तं॑ जपं विदुः॥ २६॥
यदृच्छालाभतो नित्यमलं पुंसो भवेदिति।
या धीस्तामृषयः प्राहु: संतोष सुखलक्षणम्॥ २७॥
बाह्माभ्यन्तरं शौच द्विधा प्रोक्त द्विजोत्तमा: ।
मृजलाभ्यां स्मृतं बाह्य मन:शुद्धिरथान्तरम्॥ २८ ॥
स्तुतिस्मरणपूजाभिर्वाड्मन:कायकर्मभि: ।
सुनिश्चला शिवे भक्तिरेतदीश्वरपूजनम्॥ २९॥
यमा: सनियमाः प्रोक्ता: प्राणायाम निबोधत।
प्राण: स्वदेहजो वायुरायामस्तन्निरोधनम्॥ ३०॥
उत्तमाधममध्यत्वात् त्रिधायं प्रतिपादित: ।
स एव द्विविध: प्रोक्त: सगर्भोड्गर्भ एव च॥ ३१॥
मात्राद्दाशशको मन्दश्चतुर्विशतिमात्रिक:।
मध्यम: प्राणसंरोध: षदत्रिंशन्मात्रिकोत्तम: ॥ ३२॥
प्रस्वेदकम्पनोत्थानजनकत्व॑ यथाक्रमम्।
मन्दमध्यममुख्यानामानन्दादुत्तमोत्तम:. ॥ ३३॥
सगर्भमाहु: सजपमगर्भ विजपं बुधा:।
एतद वै योगिनामुक्तं प्राणायामस्य लक्षणम्॥ ३४॥
सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह।
ब्रिर्जपेदायतप्राण: प्राणायाम: स उच्यते॥ ३५॥
रेचकः: पूरकश्चैव प्राणायामो5थ कुम्भकः ।
प्रोच्यते सर्वशास्त्रेषु योगिभिर्यतमानसे:॥ ३६॥
ओठोंमें केवल स्पन्दन होनेके कारण दूसरेको शब्दका
बोध न करानेवाला स्वाध्याय 'उपांशु' कहा गया है।
यह वाचिक जपसे हजार गुना श्रेष्ठ है। (अर्थात् वही
स्वाध्याय उपांशु है जिसमें ओठोंमें मात्र स्पन्दन हो,
शब्दोंका उच्चारण न हो।) स्पन्दनरहित अक्षर एवं उस
पदकी संगतिके अनुसार सभी शब्दोंके चिन्तनको विद्वात्
मानस जप कहते हैं (अर्थात् मानस जप (स्वाध्याय)
वही है जिसमें स्वाध्यायके शब्दोंपर केवल मत
केन्द्रित हो बाकी सर्वथा व्यापारशून्य हो) | पुरुषको जो
यदृच्छापूर्वक मिल जाता है, उसे ही पर्याप्त समझने-
वाली बुद्धिको ऋषिलोग नित्य सुख लक्षणवाला संतोष
कहते हैं॥ २५--२७ ॥
द्विजश्रेष्ठो! बाह्य और आभ्यन्तर-भेदसे शौच दो प्रकारका
कहा गया है। मिट्टी और जलसे होनेवाला शौच बाह्य
शौच और मनकी शुद्धि आभ्यन्तर शौच है। मन, वाणी
तथा कर्मद्वारा स्तुति, स्मरण तथा पूजा करते हुए शिवमें
अचल भक्ति रखना-यह ईश्वरका पूजन है। नियमोंके
साथ यमोंको बतलाया गया, अब प्राणायामके विषयमें
सुनो--अपनी देहसे उत्पन्न वायुको प्राण कहते हैं और
उस वायुका निरोध करना आयाम है। उत्तम, मध्यम
तथा अधमके भेदसे यह तीन प्रकारका कहा गया है।
वही सगर्भ और अगर्भ-भेदसे दो प्रकारका है। द्वादश
मात्रा (अर्थात् प्रणणका बारह बार जप करनेतक)-के
कालको मन्द प्राणायाम, चौबीस मात्रा (-के प्राणनिरोध)-
को मध्यम और छत्तीस मात्रातकके कालतक प्राणनिरोधको
उत्तम प्राणायाम कहा जाता है॥ २८--३२॥
मन्द, मध्यम तथा मुख्य अर्थात् उत्तम नामके
प्राणायामोंमें क्रमसे प्रस्वेद (पसीना) कम्पन तथा उत्थान
होता है। इनसे तत्त्व-प्राप्तिमें क्रमश: आनन्दातिशयकी
अनुभूति होती है। विद्वान् जपयुक्त प्राणायामको सगर्भ
और जप-रहितको अगर्भ कहते हैं। योगियोंके प्राणायामका
यही लक्षण कहा गया है। प्राणधारणपूर्वक व्याहति
(भू, भुवः स्व:, मह:, जन:, तपः, सत्यम्), प्रणव
और शीर्षमन्त्रसहित गायत्रीका तीन बार जप (सगर्भ)
प्राणायाम कहा जाता है। मनको संयत करनेवाले
योगियोंने सभी शास्त्रोंमें रेचक, पूरक और कुम्भक
प्राणायामका वर्णन किया है॥ ३३--३६ ॥
* अध्याय १९ *
रेचको5जस्त्रनि: ध्रासात् पूरकस्तन्निरोधतः ।
साम्येन संस्थितिर्या सा कुम्भकः परिगीयते॥ ३७॥
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु स्वभावत:।
निग्रहः प्रोच्यते सद्धधि: प्रत्याहारस्तु सत्तमा: ॥ ३८ ॥
हत्पुण्डरीके नाभ्यां वा मूर्थ्नि पर्वतमस्तके ।
एवमादिषु देशेषु धारणा चित्तबन्धनम्॥ ३९॥
देशावस्थितिमालम्ब्य बुद्धेर्या वृत्तिसंतति: |
वृत्त्यन्तेरसंसृष्टा तद्धयानं सूरयो विदुः॥ ४०॥
एकाकारः समाधि: स्याद् देशालम्बनवर्जित: |
प्रत्ययो ह्ार्थमात्रेण योगसाधनमुत्तमम्॥ ४१॥
धारणा द्वादशायामा ध्यान द्वादइश धारणा: ।
ध्यानं द्वादश्क॑ यावत् समाधिरभिधीयते।॥ ४२ ॥
आसन स्वस्तिकं प्रोक्त पद्ममर्धासनं तथा।
साधनानां च सर्वेषामेतत्साधनमुत्तमम्॥ ४३॥
ऊर्वोरुपरि विप्रेन्द्रा: कृत्वा पादतले उभे।
समासीतात्मन:. पद्दामेतदासनमुत्तमम्॥ ४४॥
एकं पादमथेकस्मिन् विन्यस्योरुणि सत्तमा: ।
आसीतार्धासनमिदं योगसाधनमुत्तमम्॥ ४५॥
उभे कृत्वा पादतले जानूर्वोरन्तरेण हि।
समासीतात्मनः प्रोक्तमासनं स्वस्तिकं परम्॥ ४६॥
अदेशकाले योगस्य दर्शन हि न विद्यते।
अग्न्यभ्याशे जले वापि शुष्कपर्णचये तथा ॥ ४७॥
जन्तुव्याप्ते श्मशाने च जीर्णगोष्ठे चतुष्पथे।
सशब्दे सभये वापि चैत्यवल्मीकसंचये॥ ४८ ॥
अशुभे दुर्जनाक्रान्ते मशकादिसमन्विते।
नाचरेद् देहबाधे वा दौर्मनस्यादिसम्भवे।॥ ४९॥
सुगुप्ते सुशुभे देशे गुहायां पर्वतस्य तु।
नद्यास्तीरे पुण्यदेशे देवतायतने तथा॥५०॥
गृहे वा सुशुभे रम्ये विजने जन््तुवर्जिते।
युञज्जीत योगी सततमात्मानं मत्परायण:॥ ५१॥
नमस्कृत्य तु योगीन्द्रान् सशिष्यांश्व विनायकम्।
गुरं चैवाथ मां योगी युड्जीत सुसमाहित:॥ ५२॥
२८९
वायुके सतत बाहर निकालनेको रेचक और उसके
रोकनेको पूरक तथा बादकी सम अवस्थाकी जो स्थिति
है, उसे कुम्भक कहा गया है। श्रेष्ठ मुनियो! सज्जनोंने
स्वभावत: विषयोंमें विचरण करनेवाली इन्द्रियोंके निग्रहको
प्रत्याहार कहा है। हदयकमल, नाभिदेश, मूर्धा तथा
पर्ववतशिखर आदि स्थानोंमें चित्तके बन्धनको धारणा
कहा जाता है। किसी देश (स्थान)-विशेषका अवलम्बनकर
उसमें बुद्धिकी जो एकतान वृत्ति बनी रहती है और
दूसरी वृत्तियोंसे कोई भी सम्बन्ध नहीं रहता है, उसे
विद्वानोंने ध्यान कहा है। किसी देश या अन्य आलम्बनसे
रहित चित्तकी एकाकारता समाधि है। इसमें ध्येयमात्रका
भान होता है। यह योगका उत्तम साधन है। बारह
प्राणायामपर्यन्त धारणा, बारह धारणापर्यन्त ध्यान और
बारह ध्यानपर्यन्त समाधि कही जाती है॥ ३७--४२ ॥
स्वस्तिकासन, पद्मासन तथा अर्धासन-भेदसे आसन
(तीन प्रकारका) कहा गया है। सभी साधनोंमें यह
साधन उत्तम है। विप्रेन्द्रो! अपने दोनों ऊरुओंके ऊपर
दोनों पादतलोंको रखकर बैठनेको उत्तम पद्म नामक
आसन कहा गया है। श्रेष्ठ मुनियो! एक पैरको दूसरे
जाँघके ऊपर रखकर बैठनेको अर्धासन कहा जाता
है। यह योगका उत्तम साधन है। दोनों पैरोंको जानुओं
एवं ऊरुओंके भीतर करके बेैठनेको श्रेष्ठ स्वस्तिक
नामक आसन कहा जाता है॥४३--४६॥
विपरीत देश (स्थान) और विपरीत कालमें योगतत्त्वका
दर्शन भी नहीं होता। अग्नरिके समीप, जलमें, सूखे
पत्तोंके ढेरके मध्य, जन्तुओंसे भरे स्थानमें, श्मशानमें,
पुराने गोष्ठमें, चौराहेमें, कोलाहल और भययुक्त
स्थानमें, चैत्यके समीप, दीमकोंसे पूर्ण स्थान, अशुभ
स्थान, दुर्जनोंसे व्याप्त और मच्छर आदिसे भरे स्थान
तथा देह-सम्बन्धी कष्ट और मनकी अस्वस्थताकी
दशामें योग-साधन नहीं करना चाहिये। अच्छी प्रकार
रक्षित, शुभ स्थान, पर्वतकी गुफा, नदीके किनारे,
पुण्यदेश, देवमन्दिर, घर, शुभ, रमणीय, जनशून्य,
जन्तुओंसे रहित स्थानोंमें योगीको सतत अपनेको मेरे
परायण रखते हुए योग-साधना करनी चाहिये।
योगीको चाहिये कि वह शिष्योंसहित श्रेष्ठ योगियों,
विनायक, गुरु तथा मुझे प्रणाम करके समाहित-मन
होकर योग-साधना करे॥४७--५२॥
२९०
* कूर्मपुराण *
आसन स्वस्तिकं बद्धवा पद्ममर्धमथापि वा।
नासिकाग्रे समां दृष्टिमीषदुन्मीलितेक्षण: ॥ ५३॥
कृत्वाथ निर्भय: शान्तस्त्यक्त्वा मायामयं जगत्।
स्वात्मन्यवस्थितं देवं चिन्तयेत् परमेश्वरम्॥ ५४॥।
शिखाग्रे द्वादशाड्ग्गुल्ये कल्पयित्वाथ पड्डूजम्।
धर्मकन्दसमुदभूतं॑ ज्ञाननालं॑ सुशोभनम्॥ ५५ ॥
ऐश्वर्याष्टदलं श्वेतं परं वैराग्यकर्णिकम्।
चिन्तयेत् परम कोशं कर्णिकायां हिरण्मयम्॥ ५६ ॥
सर्वशक्तिमयं साक्षाद् य॑ प्राहुर्टिव्यमव्ययम् ।
ओंकारवाच्यमव्यक्ते रश्मिजालसमाकुलम्॥ ५७॥
चिन्तयेत् तत्र विमलं परं ज्योतिर्यदक्षरम्।
तस्मिन् ज्योतिषि विन्यस्य स्वात्मानं तदभेदत: ॥ ५८ ॥
ध्यायीताकाशमध्यस्थमीशं परमकारणम्|।
तदात्मा सर्वगो भूत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥ ५९॥
एतद् गुह्मतमं ध्यानं ध्यानान्तरमथोच्यते।
चिन्तयित्वा तु पूर्वोक्ते हृदये पद्ममुत्तमम्॥ ६०॥
आत्मानमथ कर्तारें_ तत्रानलसमत्विषम्।
मध्ये वह्िशिखाकारं पुरुषं पञ्ञविंशकम्॥ ६१॥
चिन्तयेत् परमात्मानं तन्मध्ये गगन परम्।
ओंकारबोधितं तत्त्वं शाश्वतं शिवमच्युतम्॥ ६२॥
अव्यक्त प्रकृती लीन पर ज्योतिरनुत्तमम्।
तदन्त: परम॑ तत्त्वमात्माधारं निरञउ्जनम्॥ ६३॥
ध्यायीत तन्मयो नित्यमेकरूपं महेश्वरम्।
विशोध्य सर्वतत्त्वानि प्रणवेनाथवा पुनः ॥ ६४॥
संस्थाप्य मयि चात्मानं निर्मले परमे पदे।
प्लावयित्वात्मनो देहं तेनेव ज्ञानवारिणा॥ ६५॥
मदात्मा मन्मयो भस्म गृहीत्वा हाग्निहोत्रजम्।
तेनोद्धत्य तु सर्वाड्िमग्निरित्यादिमन्त्रत: ।
चिन्तयेत् स्वात्मनीशानं परं ज्योति:स्वरूपिणम्॥ ६६।
स्वस्तिक, पद्म अथवा अर्धासन बाँधकर नासिकाके
अग्रभागमें कुछ-कुछ खुली हुई आँखोंसे दृष्टिको
स्थिर करके निर्भय तथा शान्त होकर मायामय संसार
(-के चिन्तन)-का परित्यागकर अपने आत्मामें स्थित
परमेश्वर देवका चिन्तन करना चाहिये॥ ५३-५४॥
शिखाके अग्रभागमें बारह अंगुलके प्रदेशमें धर्मस्वरूप
कन्दसे प्रादुर्भूत, ज्ञानरूप नालवाले, ऐश्वर्यरूप आठ
दलोंवाले, वैराग्यरूपी कर्णिकासे युक्त अत्यन्त श्वेत
एवं सुन्दर कमलकी कल्पना करे और उस कमलको
कर्णिकामें हिरण्मय श्रेष्ठ कोशका ध्यान करे। उस
(कोश)-में विशुद्ध अविनाशी साक्षात् परम ज्योतिका
ध्यान करे, जिसे सर्वशक्तिसम्पन्न, दिव्य, अव्यय,
ओंकारसे वाच्य, अव्यक्त और प्रकाशकी किरण-
मालाओंसे व्याप्त कहा गया है। उस ज्योतिमें अपने
आत्माकी अभेदभावना कर आकाशके मध्यमें स्थित
परम कारणस्वरूप परमेश्वरका ध्यान करे और परमेश्वररूप
एवं सर्वव्यापी होकर किसी भी अन्य वस्तुका चिन्तन
न करे॥ ५५--५९ ॥
यह अत्यन्त गुह्य ध्यान है। अब दूसरा ध्यान कहा
जाता है। अपने हृदयदेशमें पूर्वमें कहे गये उत्तम
कमलका चिन्तननकर उस कमलमें अग्निके समान
तेजस्वी, कतरूप, पचीसवें तत्त्व पुरुषात्मक परमात्मरूप
आत्माका चिन्तन करना चाहिये। उस परमात्माके भीतर
परम आकाश (अवकाश) है (क्योंकि परमेश्वर विभु
विराट् हैं)। ओंकारसे बोधित सनातन तत्त्व अच्युत
शिव कहलाता है ॥६०--६२॥
उसके भीतर अव्यक्त, प्रकृतिमें लीन, उत्तम परम
ज्योति, परम तत्त्व, आत्माधार, निरञ्ञन, नित्य, एकरूप
महेश्वरका तन््मय होकर ध्यान करना चाहिये। अथवा
प्रणवके द्वारा पुन: सभी तत्त्वोंका शोधनकर विशुद्ध
परमपदरूप मुझमें अपने आत्माको स्थापित करे और
उसी ज्ञानरूपी जलसे अपनी देहको आप्लावित करके
मुझमें चित्त आसक्त करे तथा मेरे परायण होकर
अग्निहोत्रका भस्म ग्रहण करे और 'अग्गि०' इत्यादि
मन्त्रके द्वारा भस्मसे अपने सम्पूर्ण शरीरको उपलिपत
कर अपने आत्मामें परम ज्योतिस्वरूप ईशानका
चिन्तन करे॥ ६३--६६ ॥
* अध्याय १९ *
एष पाशुपतो योग: पशुपाशविमुक्तये।
सर्ववेदान्तसारो5यमत्या श्रममिति श्रुतिः॥ ६७॥
एतत्ू परतरं गुहां मत्सायुज्योपपादकम्।
द्विजातीनां तु कथितं भक्तानां ब्रह्मचारिणाम्॥ ६८ ॥
ब्रह्मचर्यमहिंसा च क्षमा शौच तपो दमः।
संतोष: सत्यमास्तिक्यं ब्रताड़गानि विशेषत: ॥ ६९॥
एकेनाप्यथ हीनेन ब्रतमस्य तु लुप्यते।
तस्मादात्मगुणोपेतो मदब्र॒तं वोढुमरहति॥ ७०॥
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाभशिता:।
बहवो5नेन योगेन पूता मद्धावमागता:॥ ७१॥
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथेव भजाम्यहम्।
ज्ञानयोगेन मां तस्माद् यजेत परमेश्वरम्॥ ७२॥
अथवा भक्तियोगेन वैराग्येण परेण तु।
चेतसा बोधयुक्तेन पूजयेन्मां सदा शुचि:॥ ७३॥
सर्वकर्माणि संनन््यस्य भिक्षाशी निष्परिग्रह: ।
प्राणोति मम सायुज्यं गुहामेतन्मयोदितम्॥ ७४॥
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एवं च।
निर्ममो निरहंकारो यो मद्धक्त: स मे प्रिय: ॥ ७५॥
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यपितमनो बुद्धिि्यों मद्धक्त: स मे प्रिय: ॥ ७६॥
यप्मन्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्ती य: स हि मे प्रिय: ॥ ७७॥
२९१
जीवको बन्धनरूप पाशसे मुक्त करनेके लिये यह
पाशुपत नामक योग कहा गया है। यह सम्पूर्ण वेदान्तका
सार है और श्रुतिमें इस योगकी अवस्थाको सभी
आश्रमोंकी अवस्थासे अतीत अवस्था (उत्कृष्ट अवस्था)
बतलाया गया है। इसे अत्यन्त गुह्य और द्विजातियों,
भक्तों एवं ब्रह्मचारियोंके लिये मेरा सायुज्य प्रदान
करनेवाला कहा गया है। ब्रह्मचर्य, अहिंसा, क्षमा, शौच,
तप, दम, संतोष, सत्य तथा आस्तिकता--ये सभी (इस
पाशुपत) ब्रतके विशेष अज्ग हैं। इनमेंसे एक (अड्भ)-
के भी न होनेसे इस (योग)-का ब्रत लुप्त हो जाता
है। इसलिये इन आत्मगुणों (ब्रह्मचर्य, अहिंसा आदि
नौ ब्रतके अड्भों)-से युक्त साधक ही मेरा (पाशुपत)
ब्रत धारण कर सकता है॥६७--७० ॥
राग, भय और क्रोधसे रहित, मत्परायण और
मेरे आश्रित अनेक लोग इस (पाशुपत) योगके द्वारा
मेरा भाव प्राप्तकर पवित्र हो गये हैं। जो जिस प्रकार
मेरे पास आते हैं, में भी उसी प्रकार उन्हें स्वीकार
करता हूँ। इसलिये ज्ञानयोगके द्वारा मुझ परमेश्वरकी
आराधना करनी चाहिये। अथवा भक्तियोग, परम वेराग्य
एवं ज्ञानयुक्त चिक्तके द्वारा पवित्रतापूर्वक सदा मेरा
पूजन करना चाहिये। सभी कर्मोंका परित्यागकर,
भिक्षाका अन्न ग्रहण करते हुए अन्य कुछ भी संग्रह
न करते हुए (साधना करनेवाला) साधक मेरा सायुज्य
(नामक मोक्ष) प्राप्त करता है। यह मैंने गुह्य बात
बतलायी ॥ ७१--७४ ॥
जो सभी प्राणियोंसे द्वेपष न करनेवाला, मित्रता
करनेवाला, करुणायुक्त, ममतारहित और अहंकारसे
रहित है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है। जो संतुष्ट
रहनेवाला, निरन्तर योग-साधना करनेवाला, संयमित-
चित्त, दृढ़निश्रयी और मुझमें मन तथा बुद्धि अर्पण
करनेवाला है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है। जिससे
किसी भी प्राणीको उद्बेग प्राप्त नहीं होता और किसी
भी प्राणीसे जो उद्ठिग्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष
और भयसे होनेवाले उद्बेगोंस रहित है, वह मुझे
प्रिय है॥ ७५--७७॥
२९२
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारम्भपरित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रिय: ॥ ७८ ॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मोनी संतुष्टो येन केनचित्।
अनिकेत: स्थिरमतिर्मद्धक्तो मामुपैष्यति॥ ७९॥
सर्वकर्मण्यपि सदा कुर्वाणो मत्परायण:।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं परम॑ पदम्॥ ८०॥
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
निराशीरनिर्ममो भूत्वा मामेक॑ शरणं ब्रजेत्॥ ८१॥
त्यक्त्वा कर्मफलासड़ं नित्यतृप्तो निराश्रय: ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोषपि नेव तेन निबध्यते॥ ८२॥
निराशीर्यतचित्तात्मात्यक्तसर्वपरिग्रह: |
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति तत्पदम्॥ ८३॥
यदृच्छालाभटतुष्टस्य द्वन्द्रातीतस्य चैव हि।
कुर्वतो मत्प्रसादार्थ कर्म संसारनाशनम्॥ ८४॥
मन्मना मन्नमस्कारो मद्याजी मत्परायण:।
मामुपैष्यति योगीशं ज्ञात्वा मां परमेश्वरम्॥ ८५॥
मदबुद्धयों मां सततं बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्न मां नित्यं मम सायुज्यमाप्नुयु:॥ ८६॥
एवं नित्याभियुक्तानां मायेयं कर्मसान्वगम्।
नाशयामि तमः कृत्स्नं ज्ञानदीपेन भास्वता॥ ८७॥
* कूर्मपुराण *
जो किसी भी प्रकारकी अपेक्षा न रखनेवाला, पवित्र,
कुशल (वेदशास्त्र-निषिद्धके त्यागमें सावधान) पक्षपातसे
(शत्रु-मित्रभावसे ) रहित, दुःखसे आक्रान्त होनेपर भी
व्यथाका अनुभव न करनेवाला और सभी प्रकारके
आरम्भोंका परित्याग करनेवाला है, वह भक्तियुक्त पुरुष
मेरा प्रिय है। जो निन््दा एवं स्तुतिको समान समझनेवाला,
मननशील, जिस किसी भी पदार्थसे संतुष्ट रहनेवाला,
गृहसे (गृहासक्तिसे) रहित है, वह स्थिर बुद्धिवाला
मेरा भक्त मुझे प्राप्त करता है। मुझमें परायण रहनेवाला
सभी कर्मोको सदा करते हुए भी मेरी कृपासे शाश्वत
परमपद प्राप्त करता है॥७८--८०॥
चित्तसे सभी कर्मोको मुझमें अर्पितकर मत्परायण
होते हुए आशा एवं ममताकी आसक्तिसे रहित होकर
एकमात्र मेरी ही शरण ग्रहण करना चाहिये। कर्मफलको
आसक्तिका सर्वथा परित्यागकर नित्य संतृप्त और
(अन्य) आश्रयरहित (एकमात्र परमेश्वरको ही आश्रय
समझनेवाला) व्यक्ति कर्मोमें प्रवृत्त होते हुए भी उन
कर्मोके द्वारा बन्धनमें नहीं पड़ता। आशारहित, संयमित
चित्तवाला, सब प्रकारके परिग्रहों (संचयों)-का परित्याग-
कर केवल शरीर (रक्षा)-के निमित्त कर्म करते हुए
भी (व्यक्ति) उस पद (मोक्ष)-को प्राप्त कर लेता
है॥ ८१--८३ ॥
अनायास जो उपलब्ध हो उसीमें संतुष्ट रहनेवाले
और सभी प्रकारके सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंसे रहित रहनेवाले
पुरुषके द्वारा केवल मेरी प्रसन्नताके लिये किये गये
कर्म संसार (रूपी बन्धन)-का विनाश करनेवाले हैं।
मुझमें मन लगानेवाला, मुझे नमस्कार करनेवाला, मेरा
पूजन करनेवाला और मुझे ही अपना परम अयन
(आश्रय) समझनेवाला (योगी) मुझ योगके ईश परमेश्वरको
जानकर मुझे प्राप्त कर लेता है। मुझमें बुद्धि रखनेवाले
(साधक) सतत परस्पर मेरा बोध कराते हुए और
नित्य मेरा वर्णन करते हुए मेरा सायुज्य प्राप्त करते
हैं। इस प्रकार नित्य योगयुक्त पुरुषके माया (अज्ञान)-
से उत्पन्न तथा उनसे भी उत्पन्न कर्मरूप समस्त
अन्धकारका प्रकाशमान ज्ञानरूपी दीपकके द्वारा मैं नाश
कर देता हूँ॥ ८४--८७॥
* अध्याय १५९१ *
मदबुद्धयो मां सततं पूजयन्तीह ये जना:।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेम॑ वहाम्यहम्॥ ८८ ॥
येडन्ये च कामभोगार्थ यजन्ते हान्यदेवता: ।
तेषां तदन्तं विज्ञेयं देवतानुगतं फलम्॥ ८९॥
ये चान्यदेवताभक्ता: पूजयन्तीह देवता: ।
मद्भावनासमायुक्ता मुच्यन्ते तेषपि भावत:॥ ९०॥
तस्मादनी श्वरानन्यांस्त्यक्त्वा देवानशेषतः |
मामेव संश्रयेदीशं स याति परम॑ पदम्॥ ९१॥
त्यक्त्वा पुत्रादिषु स्नेह निःशोको निष्परिग्रह: ।
यजेच्चामरणाल्लिड्रे विरक्त: परमेश्वरम्॥ ९२॥
ये&र्चयन्ति सदा लिड्ड त्यक्त्वा भोगानशेषत: ।
एकेन जन्मना तेषां ददामि परमैश्वरम॥ ९३॥
परानन्दात्मकं॑ लिड्“ं केवलं सन्निर|ञ्जनम्।
ज्ञानात्मकं सर्वगतं योगिनां हृदि संस्थितम्॥ ९४॥
ये चानये नियता भक्तो भावयित्वा विधानत: ।
यत्र क्वचन तल्लिड्डरमर्चयन्ति महेश्वरम्॥ ९५॥
जले वा वह्िमध्ये वा व्योम्नि सू्येंडथ वान्यत: ।
रलादौ भावयित्वेशमर्चयेल्लिड्रमैश्वरम्॥ ९६॥
सर्व लिड्रमयं होतत् सर्व लिड्डे प्रतिष्ठितम्।
तस्माल्लिड्रेडर्चयेदीशं यत्र क्वचन शाश्वतम्॥ ९७॥
२९३
मुझमें बुद्धि लगानेवाले जो मनुष्य सतत मेरी
पूजा करते हैं, उन नित्य योगयुक्त पुरुषोंके योग-
क्षेमका मैं निर्वाह करता हूँ और जो दूसरे लोग
अभिलषित विषयोंके उपभोगके लिये ही भिन्न-भिन्न
देवताओंका पूजन करते हैं, उनका अन्त विषयभोगतक
ही समझना चाहिये, क्योंकि देवताके अनुसार ही
फल भी होता है'। जो दूसरे देवोंके भक्त हैं, वे
यदि मेरी भावनासे युक्त होकर (दूसरे)देवताओंकी
पूजा करते हैं अर्थात् दूसरे देवोंमें मेरी ही भावना
करते हैं तो वे भी (मुझमें) भावना करनेके कारण
मुक्त हो जाते हैं। अतएव समस्त अनीश्वर' देवताओंका
परित्यागकर जो मुझ ईशका ही आश्रय ग्रहण करता
है, वह परमपदको प्रात करता है॥८८--९१॥
पुत्र (स्त्री, गृह) आदिमें आसक्तिका परित्यागकर
और शोकरहित होकर तथा अपरिग्रही होकर विरक्त
पुरुषको मृत्युपर्यन्त (शिव-) लिड्रमें परमेश्वरकी आराधना
करनी चाहिये। जो सम्पूर्ण भोगोंका परित्यागकर सर्वदा
लिड्गका पूजन करते रहते हैं, उन्हें में एक जन्ममें
ही परम ऐश्वर-पद (मोक्ष) प्रदान करता हूँ। परम
आनन्दस्वरूप, अद्वितीय, सद्रूप, निरझन, ज्ञानात्मक
और सर्वत्र व्याप्त (शिव-) लिड़्र योगियोंके हृदय-
प्रदेशमें अवस्थित रहता है॥ ९२--९४॥
नियमपूर्वक भक्ति करनेवाले दूसरे लोग विधि-
पूर्वक जहाँ-कहीं भी (शिवलिड्रको) भावना करते
हुए उस महेश्वर-लिड्गरकी अर्चना करते हैं। जलमें,
अग्निके मध्यमें, आकाशमें, सूर्यमें, रत्त आदिमें अथवा
अन्यत्र कहीं भी ईशकी भावना करके लिड्डढरूप
ईश्वरकी आराधना करनी चाहिये। यह सब कुछ
लिड्रमय है और सब कुछ लिछ्डमें प्रतिष्ठित है, अतएव
जहाँ-कहीं भी लिड्डरूपमें शाश्रत ईशका अर्चन
करना चाहिये॥ ९५--९७॥
१-देवताके अनुसार फलका तात्पर्य यह है कि जैसी भावनासे देवताकी आराधना की जाती है, वैसी भावनाके अनुसार ही देवता
फल देते हैं, जिस रूपमें हम देवताको समझेंगे, उसी रूपमें देवता हमें लाभ देंगे। तत्ू-तत् फलोंके अधिष्ठाता रूपमें ही देवताकी
आराधना करनेपर फलमात्र देकर देवता विरत हो जाते हैं।
२-एक ही देवता पूजककी दृष्टिमें तबतक अनीश्वर है, जबतक पूजक उसे किसी तुच्छ फलका अधिष्ठाता मात्र समझता
है। यदि उसी देवताकों परमेश्वरके भावसे निष्काम होकर पूर्ण समर्पण-भावके साथ पूजा जाय तो वह देवता अनीश्वर नहीं
है, सर्वधा सेवनीय है।
२९४
* कूर्मपुराण *
अग्रौ क्रियावतामप्सु व्योप्नि सूर्य मनीषिणाम्।
काष्ठादिष्वेव मूर्खाणां हृदि लिड्रंतु योगिनाम्॥ ९८ ॥
यहानुत्पन्नविज्ञानो विरक्त: प्रीतिसंयुतः।
यावज्जीवं जपेद् युक्त: प्रणवं ब्रह्मणो बपु:॥ ९९ ॥
अथवा शतरुद्रीयं जपेदामरणाद् द्विज:।
एकाकी यतचित्तात्मा स याति परमं पदम्॥ १००॥
बसेद् वामरणाद् विप्रो वाराणस्यां समाहित: ।
सो5पीश्वरप्रसादेन याति तत् परमं पदम्॥ १०१ ॥
तत्रोत्क्रमणकाले हि सर्वेषामेव देहिनाम्।
ददाति तत् परं ज्ञानं येन मुच्येत बन्धनात्॥ १०२॥
वर्णाश्रमविधिं कृत्स्न॑ कुर्वाणो मत्परायण: ।
तेनेव जन्मना ज्ञान लब्ध्वा याति शिव पदम्॥ १०३॥
येउपि तत्र वसन््तीह नीचा वा पापयोनय: ।
सर्वे तरन्ति संसारमीएवरानुग्रहाद द्विजा:॥ १०४॥
किन्तु विघ्ना भविष्यन्ति पापोपह तचेतसाम् |
धर्म समाश्रयेत् तस्मान्मुक्तये नियत द्विजा: ॥ १०५॥
एतद रहस्यं बेदानां न देयं यस्य कस्यचित् ।
धार्मिकायैव दातव्यं भक्ताय ब्रह्मचारिणे।| १०६॥
व्यास उवाच
इत्येतदुक्त्तवा भगवानात्मयोगमनुत्तमम्।
व्याजहार समासीनं नारायणमनामयम्॥ १०७॥
क्रियाशीलोंका' (लिड्र) अग्रिमें, मनीषियोंका' जल,
आकाश और सूर्यमें, अज्ञानियोंका' काष्ठ आदिमें और
योगियोंका लिड्ग हृदयमें स्थित रहता है। यदि (ब्रह्म)
विज्ञान उत्पन्न न हुआ हो तो विरक्त होकर (द्विजको)
अत्यन्त प्रीतिसे ब्रह्मके प्रणबरूपी शरीरका यावज्जीवन
जप करते हुए रहना चाहिये। अथवा एकाकी एवं
संयत-चित्तवाले द्विजको मरणपर्यन्त शतरुद्रियका जप
करना चाहिये, इससे उसे परम पद प्राप्त होता है।
अथवा विप्रको' चाहिये कि मरणपर्यन्त समाहितचित्त
होकर वाराणसीमें निवास करे । वह भी ईश्वर (शंकर)-
के अनुग्रहसे उत्कृष्ट परमपदको प्राप्त करता है। वहाँ
(वाराणसीमें) सभी प्राणियोंकों उनके प्राण निकलते
समय (भगवान् शंकर) उस परम ज्ञानको प्रदान करते
हैं, जिससे वे (पुनर्जन्मके) बन्धनसे मुक्त हो जाते
हैं ॥ ९८-- १०२ ॥
सम्पूर्ण वर्णाश्रम-विधिका पालन करते हुए मेरे
परायण रहनेवाला अपने उसी जन्ममें (जिस जन्ममें
वर्णाश्रम-धर्मका पालन कर रहा है) ज्ञान प्राप्तकर
शिवपदको प्राप्त करता है। द्विजो! नीच अथवा पापयोनिवाले
भी जो प्राणी वहाँ (वाराणसीमें) निवास करते हैं, वे
सभी ईश्वर (शंकर)-के अनुग्रहसे संसारकों पार कर
लेते हैं, किंतु जो पापाक्रान्त चित्तवाले हैं, उन्हें बहुत
विघ्नर होते हैं। इसलिये द्विजो! मुक्ति प्राप्त करनेके
लिये निरन्तर धर्मका आश्रय ग्रहण करना चाहिये।
यह वेदोंका रहस्य है, इसे जिस किसीको नहीं देना
चाहिये। धार्मिक तथा ब्रह्मचारी भक्तको हो प्रदान
करना चाहिये॥ १०३--१०६ ॥
व्यासजी बोले--इस प्रकार उत्तम आत्मयोगका
वर्णन करके भगवान् (शंकर)-ने वहीं बैठे हुए
प्रसन्नचित्त नारायणसे कहा--॥ १०७॥
१-“क्रियाशील 'से उन द्विजोंकों समझना चाहिये जो श्रौत-स्मार्त क्रियाओंमें दत्तचित्त हैं। इनका प्रमुख आराध्य अग्नि होता है।
२-“मनीषी से उन्हें समझना चाहिये जो यथाविधि श्रीत-स्मार्त क्रियाओंके अनुष्ठानसे शुद्धान्तःकरण होकर ब्रह्मनिष्ठाकी ओर अग्रसर हैं।
३-' अज्ञानी ' शब्दसे उन्हें समझना चाहिये जो वेद-शास्त्रके प्रति निष्ठावान् हैं, पर ऐहलौकिक विविध एऐश्वर्योंके प्रति आसक्त हैं,
इन्हें प्राप्त करनेके लिये उत्कण्ठित हैं।
४-' योगी ' शब्दसे ब्रह्मनिष्ठको समझना चाहिये। त्रह्मनिष्ठ होनेके पूर्व संयत एवं एकाग्रचित्त अनासक्त साधककी एक भूमिका होती
है। इस भूमिकाके लोग भी यहाँ “योगी” समझे जा सकते हैं।
५-सर्वप्रमुख होनेसे यहाँ 'विप्र' मात्रका उल्लेख है। यह 'विप्र' शब्द प्राणिमात्रका उपलक्षक है।
* अध्याय १९१ *+
मयेतद् भाषितं ज्ञानं हितार्थ ब्रह्मवादिनाम्।
दातव्यं शान्तचित्तेभ्य: शिष्येभ्यो भवता शिवम्॥ १०८ ॥
उक्त्वैवमथ योगीन्द्रानब्रवीद् भगवानज: ।
हिताय सर्वभक्तानां द्विजातीनां द्विजोत्तमा: ॥ ९०९॥
भवन्तो5पि हि मज्ज़ानं शिष्याणां विधिपूर्वकम् ।
उपदेक्ष्यन्ति भक्तानां सर्वेषां वचनान्मम॥ ११९०॥
अयं नारायणो यो5हमीश्वरो नात्र संशय: ।
नान््तरं ये प्रपश्यन्ति तेषां देयमिदं परम्॥ १११॥
ममेषा परमा मूर्तिनारायणसमाह्या।
सर्वभूतात्मभूतस्था शान्ता चाक्षरसंज्ञिता॥ ११२॥
ये त्वन्यथा प्रपश्यन्ति लोके भेददूशो जना: ।
नते मां सम्प्रपश्यन्ति जायन्ते च पुनः पुन: ॥ ११३॥
ये त्विमं विष्णुमव्यक्तं मां वा देव॑ महेश्वरम्।
एकीभावेन पश्यन्ति न तेषां पुनरुद्धव:॥ ११४॥
तस्मादनादिनिधनं विष्णुमात्मानमव्ययम्।
मामेव सम्प्रपश्यध्वं पूजयध्व॑ तथेव हि॥ ११५॥
येअन्यथा मां प्रपश्यन्ति मत्वेमं देवतान्तरम्।
ते यान्ति नरकान् घोरान् नाहं तेषु व्यवस्थित: ॥ ११६॥
मूर्ख वा पण्डितं वापि ब्राह्मणं वा मदाश्रयम् ।
मोचयामि श्वपाकं वा न नारायणनिन्दकम्॥ ११७॥
तस्मादेष महायोगी मद्धक्ते: पुरुषोत्तम: ।
अर्चनीयो नमस्कार्यो मत्प्रीतिजननाय हि॥ ११८॥
एवमुक्त्वा समालिड्ग्य वासुदेवं पिनाकधृक् ।
अन्तर्हितो5भवत् तेषां सर्वेषामेव पश्यताम्॥ ११९॥
नारायणो5पि भगवांस्तापसं वेषमुत्तमम्।
जग्राह योगिन: सर्वास्त्यक्त्वा वै परम बपु:॥ १२०॥
ज्ञातं भवद्धिरमलं प्रसादात् परमेष्टिन:।
साक्षादेव महेशस्य ज्ञानं संसारनाशनम्॥ १२१॥
गच्छध्वं विज्चरा: सर्वे विज्ञान परमेष्ठिन: ।
प्रवर्तयध्व॑ शिष्येभ्यो धार्मिकेभ्यो मुनीएवरा: ॥ १२२॥
२९५७
मैंने ब्रह्मवादियोंके कल्याणार्थ इस ज्ञानको कहा
है। आप इस कल्याणकारी ज्ञानको शान्तचित्त शिष्योंको
प्रदान करें। अजन्मा भगवान् (शंकर)-ने ऐसा कहनेके
उपरान्त श्रेष्ठ योगियोंसे कहा--द्विजोत्तमो ! सभी द्विजाति
भक्तोंक कल्याणके लिये आप लोग भी मेरे कहनेसे
सभी भक्त शिष्योंको मेरे ज्ञानका विधिपूर्वक उपदेश
करें॥ १०८--११० ॥
जो ये नारायण हैं, वह मैं ईश्वर ही हूँ। इसमें
संदेह नहीं है। जो (हम दोनोंमें) कोई भेद नहीं देखता,
उसीको यह परम (ज्ञान) देना चाहिये। नारायण
नामवाली तथा शान्त अक्षर-संज्ञक मेरी यह परम मूर्ति
सभी प्राणियोंके हृदयमें स्थित है। लोकमें जो भेददृष्टिवाले
लोग इसके विपरीत समझते हैं, वे मेरा दर्शन नहीं करते
हैं और बार-बार (संसारमें) जन्म लेते हैं। जो इन अव्यक्त
विष्णु अथवा मुझ देव महेश्ररको एकीभावसे देखते
हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। इसलिये अनादिनिधन (आदि
और अन्तसे रहित) आत्मरूप अव्यय विष्णु मुझे ही समझो
और फिर वैसे ही पूजा भी करो॥ १११--११५॥
जो लोग इन (विष्णु)-को दूसरा देवता मानकर
मुझे दूसरा देवता समझकर देखते हैं, वे घोर नरकोंमें
जाते हैं, में उनमें स्थित नहीं रहता हूँ। मूर्ख हो, पण्डित
हो, ब्राह्मण हो अथवा चाण्डाल हो, मेरे आश्रित
रहनेवाले (प्रत्येक)-को मैं मुक्त कर देता हूँ, किंतु
जो नारायणकी निन्दा करनेवाला है, उसे मैं मुक्त नहीं
करता। इसीलिये मेरे भक्त मुझमें प्रीति उत्पन्न करनेके
लिये इन महायोगी पुरुषोत्तमकी अर्चना अवश्य करें
और इन्हें नमस्कार अवश्य करें॥ ११६--११८॥
ऐसा कहकर पिनाक धारण करनेवाले भगवान् शंकर
वासुदेवका आलिंगन करके उन सभीके देखते-देखते
अन्तर्हित हो गये। भगवान् नारायणने भी अपने पारमार्थिक
विग्रहका त्यागकर उत्तम तपस्वीका वेष धारण किया
और सभी योगियोंसे कहा--॥ ११९-१२०॥
आप लोगोंने परमेष्ठी (महेश्वर)-की कृपासे संसार
(बन्धन)-को नष्ट करनेवाला उन्हीं साक्षात् महेशका
निर्मल ज्ञान प्राप्त किया है। इसलिये मुनी श्वरो ! विगतज्वर
होकर आप सभी जाये और धार्मिक शिष्योंमें परमेष्ठीके
ज्ञानको प्रवर्तित करें॥ १२१-१२२॥
२९६
* कूर्मपुराण *
इद भक्ताय शान्ताय धार्मिकायाहिताग्रये।
विज्ञानमैश्वरं देयं ब्राह्मगाय विशेषत:॥ १२३॥
एवमुक्त्वा स विश्वात्मा योगिनां योगवित्तम:।
नारायणो महायोगी जगामादर्शनं स्वयम्॥ १२४॥
तेडपि देवादिदेवेशं नमस्कृत्य महेश्वरम्।
नारायणं च भूतादिं स्वानि स्थानानि भेजिरे।। १२५॥।
सनत्कुमारों भगवान् संवर्ताय महामुनि: ।
दत्तवानेश्वरं ज्ञानं सोडपि सत्यव्रताय तु॥ १२६॥
सनन्दनो5पि योगीन्द्र: पुलहाय महर्षये।
प्रददौ गौतमायाथ पुलहो5पि प्रजापति: ॥ १२७॥
अड्डिरा वेदविदुषे भरद्वाजाय दत्तवान्।
जैगीषव्याय कपिलस्तथा पञ्णञशिखाय च॥ १२८ ॥
पराशरो5पि सनकात् पिता मे सर्वतत्त्वदूक् ।
लेभ तत्परम॑ ज्ञानं तस्माद वाल्मीकिराप्तवान्॥ १२९॥
मामुवाच पुरा देवः सतीदेहभवाड्रज:।
वामदेवो महायोगी रुद्र: किल पिनाकधृकू ॥ १३०॥
नारायणो5पि भगवान् देवकीतनयो हरि: ।
अर्जुनाय स्वयं साक्षात् दत्तवानिदमुत्तमम्॥ १३१॥
यदहं लब्धवान् रुद्राद वामदेवादनुत्तमम्।
विशेषाद गिरिशे भक्तिस्तस्मादारभ्य मेडभवत् ॥ १३२ ॥
शरण्यं शरणं रुद्रं प्रपन्नोडह॑ विशेषत: ।
भूतेशं गिरिशं स्थाणुं देवदेवं त्रिशूलिनम्॥ १३३॥
भवन्तो5पि हि तं॑ देवं शम्भुं गोवृषवाहनम्
प्रपद्यध्व॑ं सपतलीका: सपुत्रा: शरणं शिवम्॥ १३४॥
वर्तध्वं तत्प्रसादेन कर्मयोगेन शंकरम्।
पूजयध्वं महादेवं गोपतिं भूतिभूषणम्॥ १३५॥
एवमुक्ते5थ मुनयः शौनकाद्या महेश्वरम्।
प्रणेमु: शाश्वतं स्थाणुं व्यासं सत्यवतीसुतम्॥ १३६॥
अब्ुवन् दृष्टमनस: कृष्णद्वैपायनं प्रभुम्।
साक्षादेव हषीकेशं सर्वलोकमहेश्वरम्॥ १३७॥
इस ईश्वर-सम्बन्धी विशिष्ट ज्ञानको विशेष रूपसे
शान्त भक्त, धार्मिक तथा अग्रिहोत्री ब्राह्मणको देना
चाहिये। ऐसा कहकर योगियोंमें परम श्रेष्ठ वे महायोगी
विश्वात्मा नारायण स्वयं अन्तरहित हो गये॥ १२३-१२४॥
वे (मुनिगण) भी देवोंके आदिदेवेश्वर महेश्वरको
और भूतादि (समस्त प्रपञ्के मूलकारण) नारायणको
नमस्कार कर अपने स्थानोंकी ओर चले गये। महामुनि
भगवान् सनत्कुमारने संवर्तको ईश्वरीय ज्ञान (शिवज्ञानका
उपदेश) प्रदान किया उन्होंने भी (वह ज्ञान) सत्यब्रतको
दिया। योगीन्द्र सनन्दनने महर्षि पुलहको और प्रजापति
पुलहने गौतमको ईश्वरीय ज्ञान प्रदान किया। अड्रिरने
वेदोंके ज्ञाता भरद्वाजजों और कपिलने जैगीषव्य तथा
पञ्मशिखको (वह ज्ञान) दिया। सभी तत्त्वोंके द्रष्ट मेरे
पिता पराशरने भी वह परम ज्ञान सनकसे प्राप्त किया
और उनसे वाल्मीकिने प्राप्त किया। प्राचीन कालमें
अर्धनारीश्वर भगवान् शंकरके अंशसे उत्पन्न महायोगी
वामदेवजीने मुझसे कहा, जो साक्षात् पिनाकधारी रुद्रस्वरूप
हैं ॥ १२५--१३० ॥
देवकीके पुत्र हरि भगवान् नारायणने भी स्वयं
साक्षात् अर्जुको यह उत्तम ज्ञान प्रदान किया। जब
मैंने वामदेव रुद्रसे इस श्रेष्ठ ज्ञानको प्राप्त किया, तभीसे
मेरी गिरिशमें विशेष भक्ति हो गयी। मैंने शरणागतोंके
रक्षक, शरण (प्राणिमात्रके आश्रय), भूतोंके ईश,
गिरिश, स्थाणु, देवाधिदेव त्रिशूली रुद्रकी विशेषरूपसे
शरण ग्रहण की है। पत्नी तथा पुत्रोंके साथ आप सब
लोग भी उन गोवृषवाहन', कल्याणकारी भगवान्
शम्भुकी शरणमें जायँ। उनकी कृपासे कर्मयोगके द्वारा
व्यवहार करें और विभूतिभूषण गोपति (इन्द्रियोंके
पति) महादेव शंकरकी पूजा करें॥ १३१--१३५॥
ऐसा कहे जानेपर उन शौनक आदि (महर्षियों)-
ने पुनः शाश्रत स्थाणु सनातन महेश्वर एवं सत्यवतीके
पुत्र व्यासको प्रणाम किया और प्रसन्नमन होकर वे
सभी लोकोंके महे श्वर, साक्षात् हृषीकेश, प्रभु कृष्णद्वैपायन
(व्यास)-से कहने लगे--॥ १३६-१३७॥
2 नम अल मन नस न 2 न नस न कल न पक
१-'गोवृषवाहन '-- धर्मस्वरूप, गोजातिके वृषकों महेश्वरने अपने वाहनके रूपमें स्वीकार किया है। इसलिये महे श्वरको
“गोवृषवाहन' कहा गया है।
२-'कर्मयोगके द्वारा व्यवहार” का तात्पर्य है--अनासक्त-भावसे (कर्मफलकी कामनाके बिना) कर्तव्यबुद्धिसे अधिकारानुसार
बेदादि शास्त्रोक्त कर्मोका पालन करना।
* अध्याय ११ *
भवत्प्रसादादवला शरण्ये गोवृषध्वजे।
इदानीं जायते भक्तिर्या देवैरपि दुर्लभा॥ १३८ ॥
कथयस्व॒मुनिश्रेष्ठ कर्मयोगमनुत्तमम्।
येनासौ भगवानीश: समाराध्यो मुमुक्षुभि: ॥ १३९॥
त्वत्संनिधावेष सूतः श्रुणोतु भगवद्धच:।
तद्ददाखिललोकानां रक्षणं धर्मसंग्रहम्॥ १४० ॥
यदुक्त देवदेवेन विष्णुना कूर्मरूपिणा।
पृष्टेन मुनिभि: पूर्व शक्रेणामृतमन्थने॥ १४१॥
श्रुत्वा सत्यवतीसूनु: कर्मयोगं सनातनम्।
मुनीनां भाषितं कृष्ण: प्रोवाच सुसमाहित: ॥ १४२॥
य इमं पठते नित्यं संवादं कृत्तिवासस: |
सनत्कुमारप्रमुखे: सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ १४३॥
श्रावयेद् वा द्विजान् शुद्धान् ब्रह्मचर्यपरायणान्।
यो वा विचारयेदर्थ स याति परमां गतिम्॥ १४४॥
यश्चेतच्छुणुया न्नित्यं भक्तियुक्तो दृढब्रतः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो ब्रहमलोके महीयते॥ १४५॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन पठितव्यो मनीषिभि: ।
श्रोतव्यश्षाथ मन्तव्यो विशेषाद् ब्राह्मण: सदा॥ १४६॥
२९७
( भगवन्!) आपको ही कृपासे शरणागतोंकी रक्षा
करनेवाले गोवृषध्वज ( भगवान् शंकर)-की वह अविचल
भक्ति हमें प्राप्त हो गयी है, जो देवताओंको भी दुर्लभ
है। मुनिश्रेष्ठट आप श्रेष्ठ कर्मयोग हमें बतलायें, जिसके
द्वारा मोक्षार्थी लोग इन भगवान् ईशकी आराधना करते
हैं*। आप (वेदव्यास)-की संनिधिमें ही श्रीसूतजी
भगवान् (महेश्वर)-के वचनोंकों सुन लें, जो वचन
समस्त लोकोंके रक्षक हैं और जिनमें समस्त धर्मोका
संग्रह हुआ है। अत: इनका वर्णन करें | इसके अतिरिक्त
आप वह भी बतायें, जो पूर्वकालमें अमृतमन्थनके
समय इन्द्रके द्वारा तथा मुनियोंके द्वारा पूछे जानेपर
कूर्मरूपी देवाधिदेव श्रीविष्णुने कहा था (आप उसी
कर्मयोगका वर्णन करें)॥ १३८--१४१॥
इस प्रकार मुनियोंने जो कहा उसे सुनकर सत्यवतीके
पुत्र कृष्ण्रैपायन व्यासजीने समाहित होकर (मुनियोंको)
सनातन कर्मयोग बतलाया॥ १४२॥
श्रीसनत्कुमार आदि प्रमुख मुनियों एवं भगवान्
कृत्तिवासा (शंकर)-के मध्य सम्पन्न इस संवादको जो
नित्य पढ़ता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है।
अथवा जो ब्रह्मचर्यपरायण विशुद्ध द्विजोंको इस (संवाद)-
को सुनाता है, या जो इस संवादके अर्थका अनुसंधान
करता है, वह परमगतिको प्राप्त करता है। जो दृढ़व्रती
भक्ति-सम्पन्न होकर इस (संवाद)-को नित्य सुनता
है, वह सभी पापोंसे मुक्त होते हुए ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा
प्रातत करता है॥ १४३--१४५॥
इसलिये दिद्वानोंको सभी प्रयत्रोंके द्वारा नित्य
इसका पठन, श्रवण एवं विशेषरूपसे ब्राह्मणोंको इसका
सदा मनन करना चाहिये॥ १४६॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहस्रथां संहितायामुपरिविभागे (श्वर्गीतासु 2 एकादशोउध्याय: ॥ १९ ॥
(ईश्वरगीता समात्ता )
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें (ईश्वरगीताका) ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ११॥
(ईश्वरगीता समाप्त)
* इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि वेद-शास्त्र-प्रतिपादित अपने कर्मोका फलासक्तिरहित होकर सविधि अनुष्ठान ईशकी आराधनाका
प्रमुख अड्ग है।
२९८
न कूर्मपुराण न
बारहवाँ अध्याय
ब्रह्मचारीका धर्म, यज्ञोपवीत आदिके सम्बन्धमें विविध विवरण, अभिवादनकी विधि,
माता-पिता एवं गुरुकी महिमा, ब्रह्मचारीके सदाचारका वर्णन
व्यास उवाच
श्रुणुध्वमृषय: सर्वे वक्ष्यमाणं सनातनम्।
कर्मयोगं ब्राह्मणानामात्यन्तिकफलप्रदम्॥
आम्रायसिद्धमखिलं ब्रह्मणानुप्रदर्शितम् ।
ऋषीणां श्रृण्वतां पूर्व मनुराह प्रजापति: ॥
सर्वपापहरं पुण्यमृषिसड्डेर्निषेवितम्।
समाहितधियो यूय॑ं श्रृणुध्व॑ गदतो मम॥
कृतोपनयनो वेदानधीयीत द्विजोत्तमा:।
गर्भाष्रमेषष्टमे वाब्दे स्वसूत्रोक्तविधानत:॥
दण्डी च मेखली सूत्री कृष्णाजिनधरो मुनि: ।
भिक्षाहारो गुरुहितो वीक्षमाणो गुरो्मुखम्॥
कार्पासमुपवीतार्थ निर्मितं ब्रह्मणा पुरा।
ब्राह्मणानां त्रिवृत् सूत्र कौशं वा वास्त्रमेव वा ॥
सदोपवीती चैव स्यात् सदा बद्धशिखो द्विज:।
अन्यथा यत् कृतं कर्म तद् भवत्ययथाकृतम्॥
वसेदविकृतं वास: कार्पासं वा कषायकम्।
तदेव परिधानीयं शुक्लमच्छिद्रमुत्तमम्॥
उत्तर तु समाख्यातं वास: कृष्णाजिनं शुभम्।
4
२
है.
| नई
ना
६
८
अभावे दिव्यमजिनं रौरवं वा विधीयते॥ ९ ॥
उद्धृत्य दक्षिणं बाहुं सव्ये बाहौ समर्पितम्।
उपवीतं भवेन्नित्यं निवीतं कण्ठसज्जने॥ १०॥
सब्यं बाहुं समुद्धत्य दक्षिणे तु धृतं द्विजा:।
प्राचीनावीतमित्युक्तं
क पित््ये कर्मणि योजयेत्॥ ११॥
व्यासजी बोले--ऋषियो! आप लोग ब्राह्मणोंको
आत्यन्तिक (शाश्रत) फल प्रदान करनेवाले, अभी कहे
जा रहे सनातन कर्मयोगको सुनें ॥ १॥
पूर्वकालमें प्रजापति मनुने सुननेकी इच्छा रखनेवाले
ऋषियोंको समस्त वेदोंमें प्रसिद्ध, त्रह्माद्वारा बतलाये गये,
सभी पापोंको दूर करनेवाले तथा पवित्र ऋषि-समूहोंद्वारा
सेवित इस सम्पूर्ण कर्मयोगको बतलाया था। मेरे द्वारा
कहे जानेवाले इस कर्मयोगको समाहितबुद्धि होकर
आप लोग भी सुनें द्विजोत्तमो! गर्भसे आठवें अथवा
(जन्मसे) आठवें वर्षकी अवस्थामें अपने-अपने गृद्यसूत्रोक्त
विधानके अनुसार यज्ञोपवीत-संस्कारसे युक्त होकर दण्ड,
मेखला, यज्ञोपवीत तथा कृष्णमृगचर्म धारणकर मुनिवृत्तिवाले
(ब्राह्मण-बालक)-को चाहिये कि वह भिक्षान्न ग्रहण
करते हुए, गुरुके हितमें तत्पर रहकर गुरुके समीपमें
उनकी ओर देखते हुए वेदोंका अध्ययन करे॥ २--५॥
प्राचीन कालमें ब्रह्माने यज्ञोपवीतके लिये कपासका
निर्माण किया। ब्राह्मणोंका यज्ञोपतवीत तिहरा होना चाहिये,
वह कुशका हो अथवा वस्त्रका हो। द्विजको सदा
यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये तथा शिखा बाँधे रखना
चाहिये। अन्यथा (वह) जो कर्म करता है, वह न
किये हुएके ही समान है अर्थात् निष्फल है॥ ६-७॥
कपास या रेशमका बना हुआ विकाररहित (जला-
कटा न हो) वस्त्र पहनना चाहिये। ऐसे ही स्वच्छ,
छिद्ररहित तथा उत्तम (शास्त्रविधिके अनुसार) वस्त्रको
धारण करना चाहिये। उत्तरीय वस्त्रके रूपमें कृष्णमृगचर्म
शुभ कहा गया है। इसके अभावमें दिव्य चर्म अथवा
रुरु मृगके चर्मका विधान किया गया है॥८-९॥
दाहिना हाथ उठाकर बायें हाथके ऊपर (बायें कंधेपर)
स्थापित यज्ञसूत्रको 'उपवीत' कहा जाता है। नित्य ऐसे
रहना चाहिये। कण्ठमें (मालाकी तरह) लटके रहनेपर
(यज्ञसूत्र) '“निवीत' कहा जाता है। द्विजो! बायाँ हाथ बाहर
निकालकर दाहिने बाहुके ऊपर (दाहिने कंधेके ऊपर)
रखे हुए यज्ञसूत्रको 'प्राचीनावीत” (अपसबव्य) कहा जाता
है इसका प्रयोग पितृकर्ममें करना चाहिये॥ १०-११॥
* अध्याय १२ *
अग्न्यगारे गवां गोष्ठे होमे जप्ये तथेव च।
स्वाध्याये भोजने नित्य॑ ब्राह्मणानां च संनिधौ॥ १२॥
उपासने गुरूणां च्व संध्ययो: साधुसंगमे।
उपवीती भवेन्नित्यं विधिरिष सनातनः:॥ १३॥
मौज्जी त्रिवृत् समा एलद्षणा कार्या विप्रस्थ मेखला।
मुञ्जाभावे कुशेनाहु्ग्रन्थिनैकेन वा त्रिभि: ॥ १४॥
धारयेद् बेैल्वपालाशौ दण्डौ केशान्तकौ द्विज: ।
यज्ञाईवृक्षत॑ वाथ सौम्यमत्रणमेव च॥ १५॥
साय॑ प्रातद्विंज: संध्यामुपासीत समाहितः ।
कामाल्लोभाद भयान्मोहात् त्यक्तेन पतितो भवेत्॥ १६॥
अग्निकार्य ततः कुर्यात् साय॑ प्रात: प्रसन्नधी: ।
स््तात्वा संतर्पयेद् देवानृषीन् पितृगणांस्तथा॥ १७॥
देवताभ्यर्चन॑ कुर्यात् पुष्पै: पत्रेण वाम्बुभि: ।
अभिवादनशील: स्यात्नित्यं वृद्धेषु धर्मतः॥ १८॥
असावहं भो नामेति सम्यक् प्रणतिपूर्वकम्
आयुरारोग्यसिद्धयर्थ तन््द्रादिपरिवर्जित:॥ १९॥
आयुधष्मान् भव सौम्येति वाच्यो विप्रोडभिवादने ।
अकारश्चास्य नाम्लोउन्ते वाच्य: पूर्वाक्षर: प्लुत: ॥ २०॥
न कुर्याद् योडभिवादस्य द्विज: प्रत्यभिवादनम् |
नाभिवाद्य: स विदुषा यथा शूद्रस्तथेव सः ॥ २१॥
व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरो:।
सब्येन सव्य: स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन तु दक्षिण: ॥ २२ ॥
लौकिकं॑ वैदिक चापि तथाध्यात्मिकमेव वा।
आददीत यतो ज्ञान तं पूर्वमभिवादयेत्॥ २३॥
नोदक॑ धारयेद् भेक्ष॑ं पुष्पाणि समिधस्तथा।
एवंविधानि चान्यानि न दैवाद्येषु कर्मसु॥ २४॥
२९९
यज्ञशाला, गोशाला, होम, जप, स्वाध्याय, भोजन,
ब्राह्मणोंकी संनिधि, गुरुओंकी उपासना, दोनों संध्याओं
और साधुओंके समागम (सत्संग)-के समय नित्य
उपवीती रहना चाहिये यह सनातन विधि है। विप्र
(वटु)-की मेखला मूँजसे बनी हुई, तिहरी, बराबर
तथा चिकनी बनानी चाहिये। मूँजके अभावमें कुशकी
एक या तीन ग्रन्थियोंसे युक्त मेखला बनानी चाहिये।
द्विजको केशान्तपर्यन्त बिल्व अथवा पलाशका चाहे
किसी यज्ञीय वृक्षका सुन्दर (चिकना) तथा छिद्र
आदिसे रहित दण्ड धारण करना चाहिये॥ १२--१५॥
द्विजको सायं तथा प्रातः: समाहित होकर संध्या
करनी चाहिये। काम, लोभ, भय अथवा मोहसे
संध्याका त्याग करनेसे वह (द्विज) पतित हो जाता
है। तदनन्तर प्रसन्न-मनसे सायं और प्रात: हवन करना
चाहिये। स्रानके उपरान्त देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका
तर्पण करना चाहिये। पत्र, पुष्प अथवा जलसे देवताओंका
पूजन करना चाहिये। आयु तथा आरोग्यकी प्राप्तिके
लिये आलस्य आदिसे सर्वथा मुक्त होकर “यह मैं
अमुक नामवाला आपको प्रणाम करता हूँ'--इस प्रकार
धर्मपूर्वक वृद्धजनोंका नित्य अभिवादन करना चाहिये।
अभिवादन किये जानेपर विप्रको 'आयुष्मान् भव सौम्य '
अर्थात् 'सौम्य ! तुम दीर्घायु होओ' इस प्रकार अभिवादनका
उत्तर देना चाहिये। उसके नामके अन्तिम स्वर अथवा
नामके अन्तिम अक्षरके व्यञ्ञन होनेपर उसके ठीक पूर्वके
स्वरको प्लुत (दीर्घतर) स्वरमें बोलना चाहिये॥ १६--२० ॥
जो टद्विज अभिवादन करनेपर प्रत्यभिवादन
(अभिवादनका उत्तर) नहीं करता, उसका अभिवादन
विद्वान्को नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह शूद्रके
समान ही है। अभिवादनके समय गुरुके चरणोंका
स्पर्श व्यत्यस्तपाणि होकर करना चाहिये अर्थात् बायें
हाथसे बायें पैरको और दाहिने हाथसे दाहिने पैरको
स्पर्श करना चाहिये। जिससे लौकिक, वैदिक अथवा
आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया हो, उस (गुरु)-का सर्वप्रथम
अभिवादन करना चाहिये। देवपूजन (देव, पित्र्य)
आदि कर्माँमें भिक्षामें प्रात जल, पुष्प तथा समिधा
अथवा इसी प्रकारके अन्य पदार्थोंका ग्रहण (प्रयोग)
नहीं करना चाहिये॥ २१--२४॥
३००
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्रबन्धुमनामयम्।
वैश्यं क्षेम॑ समागम्य शूद्रमारोग्यमेव तु॥ २५॥
उपाध्याय: पिता ज्येष्ठो भ्राता चैव महीपति: ।
मातुल: श्वशुरस्त्राता मातामहपितामहौ।
वर्णज्येष्ठट: पितृव्यश्व पुंसो5त्र गुरवः स्मृता: ॥ २६॥
माता मातामही गुर्वी पितुर्मातुश्ष सोदरा:।
श्वश्रू: पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरव: स्त्रिय: ॥ २७॥
इत्युक्तो गुरुवर्गोडयं मातृतः पितृतो द्विजा: ।
अनुवर्तनमेतेषां मनोवाक्कायकर्मभि: ॥ २८ ॥
गुरुं दृष्ठा समुत्तिष्ठेदभिवाद्य कृताउजलि:।
नेतैरुपविशेत् सार्थ विवदेन्नात्मकारणात्॥ २९॥
जीवितार्थमपि द्वेषाद् गुरुभिनेंव भाषणम्।
उदितोडपि गुणैरन्येर्गुरुद्देती पतत्यध: ॥ ३०॥
गुरूणामपि सर्वेषां पूज्या: पदञ्ञ विशेषतः।
तेषामाद्यास्त्रयः श्रेष्ठास्तेषां माता सुपूजिता॥ ३१॥
यो भावयति या सूते येन विद्योपदिश्यते।
ज्येष्ठो भ्राता च भर्ता च पञ्चेते गुरव: स्मृता: ॥ ३२॥
आत्मन: सर्वयत्नेन प्राणत्यागेन वा पुनः।
पूजनीया विशेषेण पञ्चेते भूतिमिच्छता॥ ३३॥
यावत् पिता च माता च द्वावेतो निर्विकारिणौ।
तावत् सर्व परित्यज्य पुत्र: स्थात् तत्परायण: ॥ ३४॥
* कूर्मपुराण *
(मिलनेपर) ब्राह्मणसे उसका “कुशल ' पूछना चाहिये,
इसी प्रकार क्षत्रियसे 'अनामय' (रोगराहित्य), वैश्यसे
'क्षेम' और शूद्रसे 'आरोग्य” पूछना चाहिये॥२५॥
उपाध्याय१, पिता, ज्येष्ठ भ्राता, राजा, मामा, ससुर,
रक्षक, मातामह, पितामह, अपनेसे श्रेष्ठ वर्णवाले तथा
चाचा-ये लोग गुरु कहे गये हैं। माता, मातामही,
गुरुपल्ी, पिता एवं माताकी बहिन (बुआ एवं मौसी),
सास, पितामही तथा ज्येष्ठ धात्री (शैशवावस्थामें पालन
करनेवाली)--ये सभी स्त्रियाँ गुरु हैं। द्विजो! माता और
पिताके सम्बन्धसे यह गुरुवर्ग कहा गया है अर्थात्
माताके पक्षसे तथा पिताके पक्षसे जो लोग श्रेष्ठ कोटिमें
हैं उन्हें बताया गया। मन, वाणी और कर्मद्वारा इनको
आज्ञाका पालन करना चाहिये॥ २६--२८॥
गुरुको देखते ही आसनसे उठ जाना चाहिये और
अभिवादनकी विधिसे उन्हें अभिवादन करना चाहिये,
अनन्तर उनकी आज्ञा पाकर हाथ जोड़कर सम्मुख बैठना
चाहिये, पर इनके साथ एक आसनपर नहीं बैठना
चाहिये और अपने लिये (व्यक्तिगत स्वार्थके लिये) इनसे
विवाद भी नहीं करना चाहिये। प्राणधारणके लिये भी
द्वेषवश गुरुजनोंसे विवाद न करे। अन्य गुणोंके विद्यमान
रहनेपर भी गुरुसे द्वेष करनेवालोंका अध:पतन होता
है अर्थात् गुरुद्रेषीके सभी गुण व्यर्थ होते हैं॥ २९-३०॥
अभी बताये गये सभी गुरुओंमें भी पाँच विशेषरूपसे
पूजनीय हैं। उनमें प्रथम तीन श्रेष्ठ हैं, उनमें भी माता
अधिक पूज्य होती है। उत्पादक (पिता), उत्पन्न
करनेवाली (माता), विद्याका उपदेश देनेवाले (गुरु),
बड़े भाई और भरण-पोषण करनेवाले स्वामी--ये पाँच
गुरु कहे गये हैं। कल्याण चाहनेवाले व्यक्तिको अपने
सभी प्रयल्ोंके द्वारा प्राण ही क्यों न त्यागना पड़े, पर
इन पाँचों (गुरुओं)-का विशेषरूपसे पूजन (आदर)
करना चाहिये॥ ३१--३३॥
जबतक माता और पिता ये दोनों निर्विकार रहें,
तबतक सब कुछ छोड़कर पुत्रको उनके परायण रहना
चाहिये ॥ ३४॥
पक 0 कक पेशी ली एक //+ लत केस लेल जान ८ 3 मलिक नल वआलीजक मल दम कस अल कक कमर मिल जम मम शिकिल मम न हट किनिपस री तक निज
१-वेदके एकदेश मन्त्र या ब्राह्मण तथा वेदाड्भ व्याकरण आदिका जो ब्राह्मण वृत्त्यर्थ (जीविकाके लिये) अध्यापन करते हैं,
वे उपाध्याय कहे जाते हैं (मनु० २। १४१)।
२-यहाँ निर्विकारका अर्थ है गोहत्या, गुरुहत्या, ब्राह्मणहत्या-जैसे परिगणित महापातकोंसे रहित। दुर्भाग्यवश यदि माता-पिता
महापातकी हो जाते हैं तो उन्हें प्रायश्चित्तके लिये पुत्रादिसि अलग रहना ही पड़ता है। उस समय उनकी सेवा आदिसे पुत्रकों भी वश्चित
* अध्याय १२ *+
पिता माता च सुप्रीतौ स्थातां पुत्रगुणैर्यदि।
३०९१
यदि पुत्रके गुणों (सत्कर्मनिष्ठा-सेवाभाव आदि)-
स पुत्र: सकलं॑ धर्ममाप्नुयात् तेन कर्मणा॥ ३५॥ | के कारण पिता-माता पुत्रपर प्रसन्न रहते हैं तो वह पुत्र
नास्ति मातृसमं देवं नास्ति पितृसमो गुरु: ।
तयोः प्रत्युयकारोडपि न कथजझ्ञन विद्यते॥ ३६॥
तयोरनित्य॑ प्रियं कुर्यात् कर्मणा मनसा गिरा।
न ताभ्यामननुज्ञातो धर्ममन्यं समाचरेत्॥ ३७॥
वर्जयित्वा मुक्तिफलं नित्यं नेमित्तिकं तथा।
धर्ममार: समुद्िष्ट: प्रेत्यानन्तफलप्रद: ॥ ३८ ॥
सम्यगाराध्य वक्तारं विसृष्टस्तदनुज्ञया।
शिष्यो विद्याफलं भुड्न््ते प्रेतय चापद्यते दिवि॥ ३९॥
यो भ्रातरं पितृसमं ज्येष्ठं मूर्खो5वमन्यते।
तेन दोषेण स प्रेत्य निरयं घोरमृच्छति॥ ४०॥
पुंसा वर्त्मनिविष्टेन पूज्यो भर्ता तु सर्वदा।
याति दातरि लोके5स्मिन् उपकाराद्धि गौरवम्॥ ४१॥
ये नरा भर्तुपिण्डार्थ स्वान् प्राणान् संत्यजन्ति हि।
तेषामथाक्षयाललोकान् प्रोवाच भगवान् मनु: ॥ ४२॥
मातुलांश्च पितृव्यां श्व श्वशुरानृत्विजो गुरून्।
असावहमिति ब्रूयु: प्रत्युत्थाय यवीयस:॥ ४३॥
अपने इन सत्कर्मनिष्ठा आदि कर्म (गुणों)-से सम्पूर्ण
धर्मको प्राप्त कर लेता है (अर्थात् यज्ञ, दान आदि बड़े-
बड़े कर्मोंसे होनेवाले सभी पुण्य माता-पिताकी प्रसन्नताके
कारण पुत्रको प्राप्त होते हैं)। माताके समान कोई देवता
नहीं है, पिताके समान कोई गुरु नहीं है। उनके उपकारका
कोई भी प्रत्युपकार नहीं है॥ ३५-३६ ॥
उन दोनों (अर्थात् माता-पिता)-का मन, वाणी
तथा कर्मसे नित्य ही प्रिय करना चाहिये। मोक्षसआधक
(कर्मों) और नित्य-नैमित्तिक कर्मोको छोड़कर बिना
उनकी आज्ञा प्राप्त किये दूसरे किसी धर्मका आचरण
नहीं करना चाहिये। (उनकी सेवाको) धर्मका सार
और मृत्युके अनन्तर मोक्षफल देनेवाला बताया गया
है। उपदेष्टा (गुरु)-की अच्छी प्रकार आराधना करनेके
अनन्तर उनकी आज्ञासे ब्रह्मचर्याश्रमका परित्यागकर
गृहस्थाश्रम स्वीकार करनेवाला स्नातक शिष्य विद्याके
'फलका उपभोग करता है और मृत्युके उपरान्त स्वर्गलोक
प्राप्त करता है अर्थात् अभ्युदय (ऐहलौकिक उन्नति)
तथा निः:श्रेयस (पारलोकिक उन्नति) दोनों यथावत्
प्राप्त करता है। जो पितृतुल्य बड़े भाईको मूर्ख समझता
है, मरनेपर वह उस दोषके कारण घोर नरक प्राप्त
करता है॥ ३७--४० ॥
अच्छे मार्गमें स्थित (सत्कर्तव्यपरायण) पुरुषके
लिये भरण-पोषण करनेवाला भर्ता (स्वामी) सदा पृज्य
(आदरविशेषके योग्य) होता है। उपकार करनेके
कारण दाता इस लोकमें अत्यधिक गौरव प्राप्त करता
ही है। जो लोग भर्तासे प्राप्त जीविकाके बदले अपने
प्राणोंतकका परित्याग कर देते हैं, उन्हें अक्षय लोक
प्राप्त होते हैं, ऐसा भगवान् मनुने कहा है॥४१-४२॥
अपनेसे अल्प अवस्थावाले मामा, चाचा, ससुर तथा
ऋत्विजके प्रति प्रत्युत्थानपूर्वक (आसनसे उठकर) “मैं
अमुक नामवाला हूँ'--केवल ऐसा ही कहकर अपना
सम्मानभाव व्यक्त करना चाहिये, इन्हें अभिवादन-
विधिसे अभिवादन नहीं करना चाहिये*॥ ४३ ॥
होना ही पड़ता है। ऐसे समयसे अतिरिक्त समयमें तो पुत्रको माता-पिताके परायण अवश्य रहना ही चाहिये। माता-पिताके सविकार
होनेका निर्णय शास्त्रोंक अनुसार अधिकारी विद्वान् लोग ही करते हैं। यह निर्णय पुत्रके अधीन नहीं है।
* मनुस्मृति (२। १३०)-में यही श्लोक है। वहाँ कुल्लूकभट्टने जो अर्थ किया है, तदनुसार ही यहाँ अर्थ समझना चाहिये। वहाँ
३०२
* कूर्मपुराण *
अवाच्यो दीक्षितो नाप्ना यवीयानपि यो भवेत्।
जो अपनेसे छोटा भी (यज्ञादिमें) दीक्षित (पुरुष)
भोभवत्पूर्वक॑ त्वेनमभिभाषेत धर्मवित्॥ ४४॥ | हो तो उसका नाम लेकर नहीं पुकारना चाहिये। धर्मज्ञ
अभिवाद्यश्न पूज्यश्चव शिरसा वन्द्य एव च।
ब्राह्मण: क्षत्रियाद्येश्व श्रीकामै: सादर सदा।। ४५ ॥
नाभिवद्यास्तु विप्रेण क्षत्रियाद्या: कथञ्जन।
ज्ञानकर्मगुणोपेता यद्यप्येते बहुश्रुता:॥ ४६॥
ब्राह्मण: सर्ववर्णानां स्वस्ति कुर्यादिति स्थिति: ।
सवर्णेषु सवर्णानां कार्यमेवाभिवादनम्॥ ४७॥
गुरुरग्रिद्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणों गुरु:।
पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वत्राभ्यागतो गुरु: ॥ ४८ ॥
विद्या कर्म वयो बन्धुर्वित्तं भवति पञ्ञमम् ।
मान्यस्थानानि पश्ञाहुः पूर्व पूर्व गुरूत्तरात्॥ ४९॥
पद्ञानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि बलवन्ति च।
यत्र स्यु: सोउत्र मानाई: शुद्रोडपि दशर्मी गत: ॥ ५० ॥
पन्था देयो ब्राह्मणाय स्त्रिये राज्ञे हाचक्षुषे।
बृद्धाय भारभुग्राय रोगिणे दुर्बलाय च॥ ५१॥
भिक्षामाहत्य शिष्टानां गृहेभ्य: प्रयतो5न्वहम्।
निवेद्य गुरवेडश्नीयाद् वाग्यतस्तदनुज्ञया॥ ५२॥
पुरुषको 'भो भवत्' अर्थात् 'आप' शब्दका प्रयोग कर
इसके (दीक्षितके) साथ सम्भाषण करना चाहिये । ऐश्वर्यकी
अभिलाषा करनेवाले क्षत्रियादिकोंके लिये ब्राह्मण सदा
ही आदरपूर्वक अभिवादन करने योग्य, पूजन करने
योग्य तथा सिरसे वन्दन करने योग्य है॥४४-४५॥
विप्रको कभी भी क्षत्रियादिका अभिवादन नहीं
करना चाहिये, भले ही वे ज्ञान, कर्म एवं गुणोंको
दृष्टिसे उत्कृष्ट हों। ब्राह्मणको सभी वर्णोके प्रति 'स्वस्ति'
अर्थात् कल्याण हो--ऐसा कहना चाहिये--यह विधान
है। समान वर्णोमें (कनिष्ठ व्यक्तियोंको ज्येष्ठ व्यक्तियोंका)
अभिवादन करना चाहिये | द्विजातियोंके गुरु अग्नि और
सभी वणोके गुरु ब्राह्मण हैं। स्त्रियोंके एकमात्र गुरु
उनके पति हैं और अतिथि सबका गुरु है॥ ४६--४८॥
विद्या, कर्म, अवस्था, बन्धु तथा पाँचवाँ धन-वे
सम्मान प्राप्त करनेके पाँच स्थान कहे गये हैं। इनमें बादको
अपेक्षा पूर्व-पूर्वकी गुरुता' है। (ब्राह्मणादि) तीन वर्णोके
जिस व्यक्तिमें ये पाँच गुण (मान्यताके स्थान) अधिक
हों तथा प्रबल हों वह अपेक्षाकृत माननीय होता है (अर्थात्
श्रेष्ठतर, श्रेष्ठटम होता है) | दशमी अर्थात् नब्बे वर्षसे अधिक
अवस्थाको प्राप्त शूद्र भी मान देनेके योग्य हो जाता है
(अर्थात् ऐसे शूद्रके आनेपर उसे बैठनेके लिये आसन
आदि आदरभावपूर्वक देना चाहिये) ॥ ४९-५० ॥
ब्राह्मण, स्त्री, राजा, नेत्रहीन व्यक्ति, वृद्ध, भारसे
पीड़ित व्यक्ति, रोगी तथा दुर्बलके लिये रास्ता छोड़
देना चाहिये (अर्थात् एक ही रास्तेपर आमने-सामने
होनेपर स्वयं हटकर इन्हें रास्ता दे देना चाहिये। इनके
निकल जानेपर स्वयं जाना चाहिये)। (त्रह्मचारीको)
प्रयत्॒पूर्वक प्रतिदिन शिष्टोंके' घरोंसे भिक्षा लाकर
गुरुको निवेदितकर उनकी (गुरुकी) आज्ञा प्राप्तकर मौन
होकर भोजन करना चाहिये॥ ५१-५२॥
ऋत्विक्से अतिरिक्त गुरुको नहीं गिना गया है। श्लोकमें गिनाये गये मामासे ऋत्विकृतकके लिये भी “गुरु' शब्दका उल्लेख है।
१-यहाँ अभिवादनका अर्थ इतना ही है कि दोनों हाथोंसे पादस्पर्शकर प्रणाम करे। पूर्वोक्त अभिवादन-विधिके अनुसार नाम,
गोत्र आदिका उच्चारण नहीं करना चाहिये।
२-विद्या-वेदार्थतत्त्वज्ञान कर्म, श्रीत-स्मार्त क्रियाओंका पालन, अवस्था--अधिक वयस्क होना, बन्धु-पितृव्य (चाचा), मामा
आदि, वित्तन्यायार्जित धन--ये पाँच मान्यताके कारण हैं, पर इनमें उत्तर-उत्तरकी अपेक्षा पूर्व-पूर्व श्रेष्ठ है। हा
३-अपने वर्णके तथा अपने वर्णसे उच्च वर्णके जो लोग यथासम्भव आस्तिक, सदाचारी हों, महापातक आदिसे दूषित न हों,
वे ही यहाँ शिष्टरूपमें अभिप्रेत हैं।
* अध्याय १५२ *
भवत्पूर्व चरेद् भेक्ष्यमुपनीतो द्विजोत्तम:।
भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम्॥ ५३॥
मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनीं निजाम्।
भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं॑ न विमानयेत्॥। ५४॥
सजातीयगृहेष्वेवः सार्ववर्णिकमेव वा।
भेक्ष्यस्य चरणं प्रोक्ते पतितादिषु वर्जितम्॥ ५५॥।
वेदयज्ैरहीनानां प्रशस्तानां स्वकर्मसु।
ब्रह्मचार्याहरेद् भेक्ष॑ं गृहेभ्य: प्रयतोडन्वहम्॥ ५६ ॥
गुरो: कुले न भिक्षेत न ज्ञातिकुलबन्धुषु ।
अलाभे त्वन्यगेहानां पूर्व पूर्व विवर्जयेत्॥ ५७॥
सर्व वा विचरेद् ग्रामं पूर्वोक्तानामसम्भवे।
नियम्य प्रयतो वां दिशस्त्वनवलोकयन्॥ ५८ ॥
समाहत्य तु तद् भेक्षं यावदर्थममायया।
भुज्जीत प्रयतो नित्यं वाग्यतो5नन्यमानस: ॥ ५९॥
भेक्ष्येण वर्तयेन्नित्यं नैकान्नादी भवेद् ब्रती।
भेक्ष्येण ब्रतिनो वृत्तिसपवाससमा स्मृता॥ ६०॥
३०३
उपनयन-संस्कार होनेपर (ब्रह्मचारी) ब्राह्मणको
पूर्वमें 'भवत्' शब्दका प्रयोगकर ('भवति! भिक्षां देहि'
ऐसा कहकर) भिक्षा माँगनी चाहिये। क्षत्रियको बीचमें
('भिक्षां भवति! देहि' ऐसा कहकर) तथा वैश्यको
अन्तमें 'भवत्” शब्द कहकर ('भिक्षां देहि भवति!'
ऐसा कहकर) भिक्षा माँगनी चाहिये'। अपनी माता,
बहन तथा मौसीसे अथवा जो इस ब्रह्मचारीकी अवमानना
न करे, उससे पहली (उपनयन-संस्कारकी अड्भभूत
प्रथम) भिक्षा माँगनी चाहिये'। अपनी जातिके घरोंसे
अथवा अपनेसे उच्च वर्णवाले सभी लोगोंके घरसे भिक्षा
ग्रहण करनी चाहिये, किंतु पतित आदि व्यक्तियोंके
घरसे भिक्षाका ग्रहण करना वर्जित है॥५३--५५ ॥
ब्रह्मचारीको चाहिये कि वह प्रतिदिन प्रयत्रपूर्वक
ऐसे लोगोंके घरोंसे भिक्षा ग्रहण करे, जिनके घरोंमें
वेद एवं यज्ञ आदिका लोप नहीं हुआ हो और जो
(वेदशास्त्रानुसार) अपने कर्मोके पालनके कारण प्रशस्त
हों। गुरुक कुल (सपिण्ड) तथा (अपने) बन्धुके कुल
अर्थात् अपने कुल और बान्धवों (मातुल आदिके
घर)-से भिक्षा नहीं माँगनी चाहिये। दूसरोंका घर न
मिलनेपर पहले-पहलेका त्याग करना चाहिये। अर्थात्
पहले बन्धु-बान्धवों (मातुल आदि)-के घर, यदि वहाँ
भिक्षा न मिले तो अपने कुलमें और वहाँ भी न मिले
तो अन्तमें गुरुके कुलमें भिक्षा माँगनी चाहिये। पहलेके
कहे गये घरोंसे भी न मिलनेपर प्रयत्रपूर्वक वाणीको
नियन्त्रित कर दिशाओंमें न देखते हुए, सम्पूर्ण ग्राममें
भिक्षा-हेतु विचरण करना चाहिये (पर पातकी एवं
हीन जातिवालेके घरकी भिक्षा न ले) ॥ ५६--५८ ॥
अपनी आवश्यकताके अनुसार बिना किसी छल-
कपटके उस भिक्षाको एकत्रितकर प्रयत्रपूर्वक नित्य
मौन होकर एकाग्रतापूर्वक भोजन करना चाहिये। (ब्रह्मचारी )
नित्य भिक्षासे जीविकाका निर्वाह करे। ब्रह्मचारीको
नित्य एक अन्न* नहीं ग्रहण करना चाहिये। ब्रह्मचारीकी
भिक्षान्नसे की गयी वृत्ति उपवासके समान ही कही
गयी है॥ ५९-६० ॥
१-शास्त्रानुसार ब्रह्मचारी गृहस्थके घरमें भिक्षा माँगने जाता है। घरमें माताएँ रहती हैं, अत: ' भवति!” इस रूपमें माताओंको
सम्बोधन कर भिक्षा माँगता है।
२-उपनयन-संस्कार जब होता है तब भिक्षा माँगनेका विधान है। यह सर्वप्रथम भिक्षा माँगना है। इसीके लिये यह वचन है।
३-एक अन्न नित्य ग्रहण करनेसे उसमें आसक्ति हो जाती है और किसी भी प्रकारकी आसक्ति वर्जित है।
३०४ * कूर्मपुराण *
पूजयेदशनं. नित्यमद्याच्यैतदकुत्सयन्। नित्य अन्न (प्राप्त भिक्षान्न)-का पूजन (प्राणधारक
दृष्टा दृष्येत् प्रसीदेच्य प्रतिनन्देच्य सर्वशः ॥ ६१ ॥ | रूपमें विष्णुस्वरूप समझकर ध्यान) करे और निन्दा
न करते हुए उसे ग्रहण करे। (भोजनको) देखकर
हर्षित और प्रसन्न होना चाहिये तथा सर्वथा उसको
(अन्नकी) प्रशंसा करनी चाहिये। अत्यधिक भोजन
करना आरोग्य, आयुष्य, स्वर्ग और पुण्यका नाश
करनेवाला तथा लोकमें। (अधिक भोजीके रूपमें)
अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्ग्य॑ चातिभोजनम्। निन््दा करानेवाला है, इसलिये अतिभोजनका परित्याग
अपुण्यं लोकविद्विष्ट तस्मात् तत्परिवर्जयेत्॥ ६२॥ | करना चाहिये॥६१-६२॥
प्राइमुखो5न्नानि भुज्जीत सूर्याभिमुख एवं वा। नित्य पूर्वकी ओर मुख करके अथवा सूर्यकी ओर
नाद्यादुदडमुखो नित्यं विधिरिष सनातन: ॥ ६३॥ | मुख करके भोजन करे। उत्तरकी ओर मुखकर भोजन
न करे--यह सनातन विधि है। दोनों हाथ एवं पाँव
धोकर भोजनके आरम्भमें दो आचमन करे। पवित्र
प्रक्षाल्य पाणिपादौ च भुख्ञजानो द्विरुपस्पृशेत्। स्थानपर बैठकर भोजन करनेके अनन्तर पुनः दो बार
शुचौ देशे समासीनो भुक््त्वा च द्विरुपस्पृशेत्॥। ६४॥ | आचमन करना चाहिये॥ ६३-६४ ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षपट्साहस्रथां संहितायामुपारिविभागे द्वादशोउध्याय: ॥ ९२ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें बारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १२॥
तेरहवाँ अध्याय
ब्रह्मचारीके नित्यकर्मकी विधि, आचमनका विधान, हाथोंमें स्थित तीर्थ, उच्छिष्ट
होनेपर शुद्धिकी प्रक्रिया, मूत्र-पुरीषोत्सर्गके नियम
व्यास उवाच व्यासजी बोले--- भोजन करके, जल इत्यादि पीकर,
शयनकर उठनेके बाद, स््रान करके तथा मार्गमें गमनके
समय, रोमरहित दोनों ओष्ठटोंका स्पर्शकर, वस्त्र धारणकर,
वीर्य, मल-मूत्रका त्यागकर, अनुपयुक्त भाषण करनेपर,
रेतोमूत्रपुरीषाणामुत्सगें युक्तभाषणे । थूकनेके बाद, अध्ययनारम्भमें, खाँसी या श्वास आनेपर,
घ्ठीवित्वाध्ययनारम्भे कासश्वासागमे तथा॥ २॥ | चौराहे अथवा श्मशानको पार करनेपर, इसी प्रकार दोनों
॥॒ | संध्याओंमें श्रेष्ठ द्विजलको चाहिये कि वह आचमन किये
चत्वरं वा श्मशान वा समाक्रम्य द्विजोत्तम:। रहनेपर भी पुन: आचमन करे। चाण्डाल और म्लेच्छसे
संध्ययोरुभयोस्तद्वदाचान्तो5प्याचमेत् पुनः ॥ ३॥ | बात करनेपर, स्त्री, शूद्र और जूठे मुखवालेसे भाषण
चण्डालपम्लेच्छसम्भाषे स्त्रीशूद्रोच्छिष्टभाषणे । करनेपर, जूठे मुँहवाले पुरुषका तथा इसी प्रकार उच्चिष्ट
उच्दिष्टं पुरुष स्पृष्ठा भोज्यं चापि तथाविधम्। भोजनका स्पर्श होनेपर, आँसू तथा रक्तके गिरनेपर, भोजनके
श्रुपाते वा लोहितस्य तथैव च॥ ४॥ | * मय, दोनों संध्याओंमें स्नानकर और जल आदिके पीनेपर
कप तथा मल-मूत्रके उत्सर्गपर आचमन किये होनेपर भी
भोजने संध्ययो: रत्रात्वा पीत्वा मूत्रपुरीषयो: । आचमन करे। सोनेसे जगनेके बाद एक बार और अन्य
आचान्तो5प्याचमेत् सुप्ता सकृत्सकृदथान्यत: ॥ ५॥ | समयोंमें अनेक बार आचमन करना चाहिये॥ १-५॥
भुक्त्वा पीत्वा च सुप्त्वा च र्रात्वा रथ्योपसर्पणे।
ओष्ठावलोमकोौ स्पृष्ठटा वासो विपरिधाय च॥ १॥
* अध्याय १३ *
अग्नेर्गवामथालम्भे स्पृष्टा प्रयतमेव वा।
स्त्रीणामथात्मन: स्पर्श नीवीं वा परिधाय च॥ ६ ॥
उपस्पृशेजजलं वार्द्र तृणं वा भूमिमेव वा।
केशानां चात्मन: स्पर्शे वाससो5क्षालितस्थ च॥ ७ ॥
अनुष्णाभिरफेनाभिरदुष्टाभिश्च. धर्मतः।
शौचेप्सु: सर्वदाचामेदासीन: प्रागुदडःमुख: ॥ ८ ॥
शिरः प्रावृत्य कण्ठं वा मुक्तकच्छशिखो5पि वा।
अकृत्वा पादयो: शौचमाचान्तो5प्यशुचिर्भवेत्॥ ९ ॥
सोपानत्को जलस्थो वा नोष्णीषी वाचमेद् बुध: ।
न चेव वर्षधाराभिर्न तिष्ठन् नोद्धतोदकै: ॥ १०॥
नेकहस्तार्पितजलैर्विना सूत्रेण वा पुनः ।
न पादुकासनस्थो वा बहिर्जानुरथापि वा॥ ११॥
न जल्पन् न हसन प्रेक्षन् शयानः प्रह्न एव च।
नावीक्षिताभि: फेनाहैरुपेताभिरथापि वा॥ १२॥
शूद्राशुच्चिकरोन्मुक्तेर्न क्षाराभिस्तथेव च।
न चेवाड-गुलिभि: शब्द न कुर्वन् नान्यमानस: ॥ १३॥
३०५७५
अग्नरिका, गौका स्पर्श होनेपर, किसी परिश्रम
करनेवालेका, स्त्रीका तथा अपना स्पर्श होनेपर (अपने
जिस अड्गका स्पर्श आवश्यक या अनिवार्य न हो
उसका कामत: यदि स्पर्श किया जाय), नीवी (कटि--
कमरका वस्त्र) पहिनकर, अपने केशों तथा बिना धोये
वस्त्रका स्पर्श करनेपर जल, हरे तृण या भूमिका स्पर्श
करना चाहिये॥ ६-७॥
धर्मकी दृष्टिसे शुद्धिकी अभिलाषावालेको चाहिये
कि वह सदा पूर्व या उत्तकी ओर मुख करके बैठकर
शीतल, फेनरहित तथा दोषवर्जित जलसे आचमन करे।
सिर या कानको ढकने और शिखा तथा कच्छ
(पिछोटा) खुलनेपर, बिना पैर धोये आचमन करनेपर
भी अशुद्ध रहता है (अर्थात् इन स्थितियोंमें पहले
पाँवोंको धोना चाहिये। अनन्तर हाथोंको धोकर आचमन
करना चाहिये)। बुद्धिमान् व्यक्तिको जूता पहने हुए,
जलमें स्थित होनेपर, सिरपर पगड़ी इत्यादि धारणकर
आचमन नहीं करना चाहिये। (इसी प्रकार) न व्षके
जलसे, न खड़े होकर, न उठाये हुए जलसे, न एक
हाथसे अर्पित जलसे अर्थात् किसी अन्यके द्वारा
अज्जलिसे नहीं, केवल एक हाथसे दिये गये जलसे,
बिना यज्ञोपवीतके, न पादुकासनपर बैठे हुए (पाँवमें
धारण की जानेवाली पादुकाको आसन बनाकर उसीपर
बैठकर) अथवा न जानुओंके बाहर हाथ निकाले हुए
आचमन करना चाहिये॥ ८--११॥
बोलते हुए, हँसते हुए, देखते हुए (किसी अन्यकी
ओर देखते हुए), सोते हुए और झुककर आचमन
नहीं करना चाहिये। बिना देखे' हुए अथवा फेन
आदिवाले जलसे आचमन नहीं करना चाहिये। शूद्र'
अथवा अपवित्र व्यक्तिके हाथोंसे दिये हुए एवं खारे
जलसे और अंगुलियोंसे शब्द करते हुए तथा अन्यमनस्क
होकर आचमन नहीं करना चाहिये॥ १२-१३॥
१-जलमें कोई ऐसी वस्तु नहीं होनी चाहिये जो उसे अपवित्र करती है। इसलिये अच्छी प्रकार निरीक्षित जलसे ही आचमन
करना चाहिये।
२-शक्ति रहनेपर किसी भी शूद्रके द्वारा लाये गये जलसे आचमन नहीं करना चाहिये। अशक्त होनेपर तथा त्रैवर्णिकके कथमपि
उपलब्ध न होनेपर शूद्र (जिस शूद्रका पात्र धर्मशास्त्रके अनुसार ग्राह्म होता है)-के द्वारा लाये गये जलको कुश आदिसे पवित्रकर
उससे आचमन किया जा सकता है।
३०६
न वर्णरसदुष्टाभि्न चैव प्रदरोदके:।
न पाणिक्षुभिताभिर्वा न बहिष्कक्ष एव वा॥ १४॥
हृदगाभि: पूयते विप्र: कण्ठ्याभि: क्षत्रिय: शुचि: ।
प्राशिताभिस्तथा वैश्य: स्त्रीशूद्रो स्पर्शतोउन्तत: ॥ १५॥
अड्गुष्ठमूलान्तरतो रेखायां ब्राह्ममुच्यते |
अन्तराड्गुष्ठदेशिन्यो पितृणां तीर्थमुत्तमम्॥ १६॥
कनिष्ठामूलतः पश्चात् प्राजापत्यं प्रचक्षते।
अड्गुल्यग्रे स्मृतं देवं तदेवार्ष प्रकीर्तितम्॥ १७॥
मूले वा देवमार्ष स्यादाग्नेयं मध्यत: स्मृतम्।
तदेव सौमिकं तीर्थमेतज्ज्ञात्वा न मुहाति॥ १८॥
ब्राह्ेणैव तु तीर्थेन द्विजो नित्यमुपस्पृशेत्।
कायेन वाथ देवेन न तु पित्र्येण वे द्विजा:॥ १९॥
त्रिः प्राश्नीयादप: पूर्व ब्राह्मण: प्रयतस्तत: ।
सम्मृज्याड्ग्गुष्ठमूलेन मुखं वे समुपस्पृशेत्॥ २०॥
अड्ग्ुष्ठानामिकाभ्यां तु स्पृशेननेत्रद्दयं तत: ।
तर्जन्यद-गुष्ठयोगेन स्पृशेन्नासापुटद्दयम्॥ २१॥
कनिष्ठाड-गुष्ठयोगेन श्रवणे समुपस्पृशेत्।
सर्वासामथ योगेन हृदयं तु तलेन वा।
संस्पृशेद् वा शिरस्तद्वदड-गुष्ठेनाथवा द्वयम्॥ २२॥
रः कूर्मपुराण मं
जिस जलका अपना स्वाभाविक वर्ण या रस
विकृत हो गया है, उससे आचमन नहीं करना चाहिये।
ऐसे ही प्रदरोदक (अत्यल्प जल)-से आचमन नहीं
करना चाहिये। इसके अतिरिक्त किसी पात्रमें रखे हुए
उस जलसे भी आचमन नहीं करना चाहिये जो पूरा
हाथ डालकर क्षुभित कर दिया गया हो। यदि कच्छ
(पिछोटा) धोतीसे बाहर निकल जाय तो उस स्थितिमें
आचमन नहीं करना चाहिये। कच्छको धोतीके
भीतर करनेके अनन्तर ही आचमन करनेका
विधान है ॥ १४॥
( आचमनमें ) ब्राह्मण हृदयतक पहुँचनेवाले, क्षत्रिय
कण्ठतक पहुँचनेवाले जलसे और वैश्य मुखके भीतर
प्रविष्ट (कण्ठतक न भी पहुँचे)जलसे शुद्ध होते हैं;
स्त्री, शूद्र तो केवल (जिह्बा, ओष्ठके अन्ततक) जलके
स्पर्शमात्रसे शुद्ध हो जाते हैं॥१५॥
अँगूठेके मूलकी रेखामें ब्राह्मतीर्थ, तर्जनी और
अँगूठेके मध्यभागमें उत्तम पितृतीर्थ, कनिष्ठाके मूलभागमें
प्राजापत्यतीर्थ कहलाता है। अँगुलियोंके अग्रभागमें
दैवतीर्थ और वही आर्षतीर्थ भी कहा जाता है। अथवा
( अँगुलियोंके) मूल भागको दैव या आर्षतीर्थ, मध्यभागको
आग्नेयतीर्थ कहा गया है। इसी (आग्नेयतीर्थ)-को
सौमिकतीर्थ कहा गया है। इसे जानकर मोह नहीँ प्राप्त
होता अर्थात् यथाविधि इसके अनुसार अनुष्ठान करनेपर
अन्तःकरण शुद्ध होनेसे अज्ञान नष्ट हो जाता है। द्विजो!
द्विजको चाहिये कि वह ब्राह्मतीर्थसे ही नित्य आचमन
करे अथवा कायतीर्थ (प्राजापत्यतीर्थ) या दैवतीर्थसे
करे, पितृतीर्थसे कभी भी आचमन न करे। ब्राह्मण
संयत होकर पहले तीन बार जलका आचमन करे,
अनन्तर मुड़े हुए अँगूठेके मूलसे मुखका स्पर्श करे
यही सम्मार्जनज है॥ १६--२० ॥
तदनन्तर अँगूठे और अनामिकासे दोनों नेत्रोंका
स्पर्श करे और तर्जनी तथा अँगूठेके योगसे दोनों
नासापुटों (नाक)-का स्पर्श करे। कनिष्ठा और अँगूठेके
योगसे दोनों कानोंका स्पर्श करे। तदनन्तर मिली हुई
सभी अँगुलियोंसे अथवा हथेलीसे हृदयका स्पर्श करे।
तदुपरान््त सिरका भी वैसे ही स्पर्श करे अथवा दोनों
अँगूठोंसे स्पर्श करे॥२१-२२॥
* अध्याय १३ *
त्रि: प्राश्नीयाद यदम्भस्तु सुप्रीतास्तेन देवता: ।
ब्रह्म विष्णुर्महेशश्च भवन्न्तीत्यनुशुश्रुम ॥ २३॥
गड्डा च यमुना चैव प्रीयेते परिमार्जनात्।
संस्पृष्टयोलॉचनयो: प्रीयेते शशिभास्करौ॥ २४॥
नासत्यदसत्रौ प्रीयेते स्पृष्टे नासापुटद्वये।
कर्णयोः स्पृष्टयोस्तद्वत् प्रीयेते चानिलानलौ॥ २५॥
संस्पृष्ट हृदये चास्य प्रीयन्ते सर्वदेवता:।
मूर्ति संस्पर्शनादेक: प्रीतः स पुरुषो भवेत्॥ २६॥
नोच्छिष्ट कुर्वते मुख्या विप्रुषो5ड़ं नयन्ति या: ।
दन्तवद् दन्तलग्नेषु जिह्नास्पशें5शुचिर्भवेत्॥ २७॥
स्पृशन्ति बिन्द्वः पादौ य आचामयत: परान्।
भूमिगैस्ते समा ज्ञेया न तैरप्रयतो भवेत्॥ २८॥
मधुपर्क च सोमे च ताम्बूलस्य च भक्षणे।
फलमूले चेक्षुदण्डे न दोषं प्राह वे मनुः॥ २९॥
प्रचरंश्षान्नपानेषु. द्रव्यहस्तो भरवेन्नर:।
भूमो निशक्षिप्य तद् द्रव्यमाचम्याभ्युक्षयेत् तु तत्॥ ३० ॥
तैजसं वे समादाय यद्युच्छिष्टो भवेद् द्विज:।
भूमो निक्षिप्य तद् द्रव्यमाचम्याभ्युक्षयेत् तु तत्॥ ३१॥
यदाममत्र॑ समादाय भवेदुच्छेषणान्वित: ।
अनिधायैव तद् द्र॒व्यमाचान्तः शुचितामियात्।
वस्त्रादिषु विकल्प: स्यात् तत्संस्पृष्टाचमेदिह॥ ३२॥
३०७
आचमनमें तीन बार जो जल पिया जाता है, उससे
ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश--ये तीन देवता प्रसन्न होते
हैं--ऐसा हमने सुना है। मार्जन करनेसे गड़ा और यमुना
नदियाँ प्रसन्न होती हैं। नेत्रोंके स्पर्शसे सूर्य तथा चन्द्रमा
प्रसन्न होते हैं॥२३-२४॥
दोनों नासापुटोंका स्पर्श करनेसे नासत्य और दर
(दोनों अश्विनीकुमार) प्रसन्न होते हैं, इसी प्रकार दोनों
कानोंका स्पर्श करनेसे अग्नि तथा वायुदेवता प्रसन्न होते
हैं। हृदयके स्पर्श होनेपर सभी देवता प्रसन्न होते हैं।
सिरका स्पर्श करनेसे वे अद्वितीय पुरुष विष्णु प्रसन्न
होते हैं॥ २५-२६ ॥
(आचमन आदिके समय) अक्गपर गिरे हुए
जलकणोंसे शरीर उच्छिष्ट नहीं होता। दाँतोंके भीतर
स्थित पदार्थ दाँतोंके समान ही होता है, परंतु जिह्नाके
स्पर्श होनेपर व्यक्ति अपवित्र हो जाता है। आचमन
करनेके समय या दूसरोंको आचमन कराते समय
पैरोंपर गिरि हुए जलको भूमिपर गिरे हुएके समान
समझना चाहिये। उससे मनुष्य अपवित्र नहीं होता।
मनुने मधुपर्क (यथाविधि मिश्रित दधि, मधु, घी),
सोम, ताम्बूल-भक्षण, फल, मूल तथा ईखका दण्ड
ग्रहण करनेमें कोई दोष नहीं कहा है, इन्हें कोई भी
दे, ग्रहण किया जा सकता है। हम चल रहे हैं तथा
हमारे हाथमें ऐसी वस्तु है जो उच्चछिष्टस्पर्शसे दूषित
हो सकती है तो हमें अन्न, जल ग्रहण करते समय
उस वस्तुको भूमिपर यथास्थान रख देना चाहिये तथा
अन्न, जल ग्रहण करनेके अनन्तर आचमन करनेके
बाद भूमिपर रखी हुई वस्तुका प्रोक्षण करना चाहिये,
अनन्तर उस वस्तुको लेकर चलना चाहिये॥ २७--३०॥
तैजस * पदार्थ (घी) लिये हुए यदि ब्राह्मण (द्विज)
(खाने-पीनेके कारण) उच्छिष्ट हो जाय तो उस तैजस
द्रव्य (घी)-को भूमिपर रखकर आचमन करे, पुनः
उस द्रव्य (घी)-का प्रोक्षण करे। यदि कोई (द्रव्य-
सहित) अमत्र (पात्र) लिये हुए मनुष्य उच्छिष्ट हो जाय
तो उस द्रव्य (पात्र)-को (भूमिपर) रखे बिना आचमन
कर लेनेपर शुद्ध हो जाता है (पात्र अपवित्र नहीं होता) ।
परंतु वस्त्र आदिके सम्बन्धमें विकल्प है॥३१-३२॥
*'तेजो वे घृतम्' के अनुसार घीको तैजस (तेजस्वी बनानेवाला) माना जाता है।
३०८
* कूर्मपुराण *
अरण्येडनुदके रात्रौ चौरव्याप्राकुले पथि।
कृत्वा मूत्र पुरीषं वा द्रव्यहस्तो न दुष्यति॥ ३३॥
'निधाय दक्षिणे कर्णे ब्रह्मसृत्रमुदडम्मुख:।
अदह्नि कुर्याच्छकृम्मूत्र॑ं रात्री चेद् दक्षिणामुख: ॥ ३४॥
अन्तर्धाय महीं काष्टै: पत्रेलेप्ठित॒गेन वा।
प्रावृत्य च शिरः कुर्याद् विण्मृत्रस्य विसर्जनम्॥ ३५॥
छायाकूपनदीगोष्ठचैत्याम्भ:पथि. भस्मसु।
अग्रौ चैव एमशाने च विप्मूृत्रे न समाचरेत्॥ ३६॥
न गोमये न कुष्टे वा महावृक्षे न शाडवले।
न तिष्ठन् न निर्वासा न च पर्वतमस्तके॥ ३७॥
न जीर्णदेवायतने न वल्मीके कदाचन।
न ससत्त्वेषु गर्तेषु न गच्छन् वा समाचरेत्॥ ३८ ॥
तुषाड्ारकपालेषु राजमार्ग तथेव च।
न क्षेत्रे न विले वापि न तीर्थ न चतुष्पथे। ३९॥
नोद्यानोदसमीपे वा नोषरे न पराशुचौ।
न सोपानत्पादुको वा छत्री वा नानन््तरिक्षके ॥ ४० ॥
न चैवाभिमुखे स्त्रीणां गुरुल्नाह्जणयोर्गवाम् ।
न देवदेवालययोरपामपि कदाचन॥ ४१॥
न ज्योर्तीषि निरीक्षन् वा न संध्याभिमुखो5पि वा।
प्रत्यादित्यं प्रत्यनलं प्रतिसोम॑ तथेव च॥ ४२॥
उसका स्पर्श होनेपप आचमन करना चाहिये।
उच्छिष्ट दशामें वस्त्रका स्पर्श होनेपर आचमन एवं
वस्त्रका प्रोक्षण करना चाहिये। जंगलमें, जलहीन
स्थानमें, रात्रिमें और चोर तथा व्याप्र आदिसे आक्रान्त
मार्गमें मल-मूत्र करनेपर भी व्यक्ति आचमन, प्रोक्षण
आदि शुद्धिके अभावमें भी दूषित नहीं होता, साथ
ही उसके हाथमें रखा हुआ द्रव्य भी अशुचि नहीं
होता (पर शुद्धिका अवसर मिल जानेपर यथाशास्त्र
शुद्धि आवश्यक है।)॥३३॥
दाहिने कानपर यज्ञोपवीत चढ़ाकर दिनमें उत्तरकी
ओर मुख करके तथा रात्रिमें दक्षिणाभिमुख होकर
मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। पृथ्वीको लकड़ी,
पत्तों, ढेलों अथवा घाससे ढककर तथा शिरको वस्त्रसे
आवृतकर मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये॥ ३४-३५॥
छायामें, कृपमें या उसके अति समीप, नदीमें,
गौशाला, चैत्य (गाँवके सीमाका वृक्षसमूह, ग्राम्य
देवताका स्थान--टीला, डीह आदिपर), जल, मार्ग,
भस्म, अग्नि तथा श्मशानमें मल-मूत्र नहीं करना
चाहिये। गोबरमें, जुती हुई भूमिमें, महान् वृक्षके नीचे,
हरी घाससे युक्त मैदानमें और पर्वतकी चोटीपर तथा
खड़े होकर एवं नग्न होकर मल-मूत्रका त्याग नहीँ
करना चाहिये। न जीर्ण देवमन्दिरमें, न दीमकको
बाँबीमें, न जीवोंसे युक्त गड्डेमें और न चलते हुए
मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। धान इत्यादिकी भूसी,
जलते हुए अंगार, कपाल*, राजमार्ग, खेत, गड्ढे, तीर्थ,
चौराहे, उद्यान, जलके समीप, ऊसर भूमि और अत्यधिक
अपवित्र स्थानमें मल-मूत्रका त्याग न करे। जूता या
खड़ाऊँ पहने, छाता लिये, अन्तरिक्षमें ( भूमि-आकाशके
मध्यमें ), स्त्री, गुरु, ब्राह्मण, गौके सामने, देवविग्रह
तथा देवमन्दिर और जलके समीपमें तो कभी भी मल-
मूत्रका विसर्जन न करे॥ ३६--४१॥
नक्षत्रोंको देखते हुए, संध्याकालका समय आनेपर,
सूर्य, अग्नि तथा चन्द्रमाकौ ओर मुख करके मल-
मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये॥ ४२॥
+ कपालके ये अर्थ हैं-सिरकी अस्थि, घटके दोनों अर्धभाग, मिट्टीका भिक्षापात्र,यज्ञीय पुरोडाशको पकानेके लिये मिट्टीका
बना हुआ पात्रविशेष।
* अध्याय १४४ ३०९
आह्ृत्य मृत्तिकां कूलाल्लेपगन्धापकर्षणम्। आलस्य छोड़कर (नदी या तालाबके) किनारेसे
कुर्यादतन्द्रितः शौच विशुद्धैरुद्धतोदकै:ः ॥ ४३ ॥ | मिट्टी लेकर उसके द्वारा तथा शुद्ध कूप आदिसे निकाले
हुए जलके* द्वारा (मल-मूत्र) लेप और गनन््ध जबतक
दूर न हो, तबतक शुद्धि करनी चाहिये॥ ४३॥
नाहरेन्मृत्तिकां विप्र: पांशुलान्न च कर्दमात् विप्र (टद्विजअ)-को चाहिये कि वह शौचके लिये
न मार्गन्नोषराद देशाच्छौचशिष्टा परस्य च॥ ४४॥ | धूलकी ढेर एवं कीचडयुक्त स्थान, रास्ते, ऊसर भूमि,
दूसरेके शौच करनेसे बची हुई, मन्दिर, कुएँ, ग्राम"
और जलके अंदरसे मिट्टी ग्रहण न करे। शौचके
न देवायतनात् कूपाद् ग्रामान्न च जलात् तथा। अनन्तर पहले बताये गये विधानके अनुसार नित्य
उपस्पृशेत् ततो नित्य॑ पूर्वोक्तेन विधानत: ॥ ४५॥ | आचमन करे॥ ४४-४५॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्शं संहितायामुपरिविभागे त्रयोदशोउध्याय: ॥ १३ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें तेरहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १३॥
चौदहवाँ अध्याय
ब्रह्मचारीके आचारका वर्णन, गुरुसे अध्ययन आदिकी विधि, ब्रह्मचारीका धर्म, गुरु
तथा गुरुपल्रीके साथ व्यवहारका वर्णन, वेदाध्ययन और गायत्रीकी महिमा,
अनध्यायोंका वर्णन, ब्रह्मचारी-धर्मका उपसंहार
व्यास उवाच व्यासजीने कहा--इस प्रकार दण्ड आदिसे युक्त
| और शौचाचारसे सम्पन्न (ब्रह्मचारी)-को गुरुजीके
एवं दण्डादिभिर्युक्त: शौचाचारसमन्वित:। द्वारा बुलाये जानेपर उनके अभिमुख होकर अध्ययन
आहूतो5ध्ययनं कुर्याद् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्॥ १॥ | #रना चाहिये। सदाचारसम्पन्न और जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी
नित्यमुद्यतपाणि: स्यात् साध्वाचार: सुसंयतः । नित्य उत्तरीयसे दाहिना हाथ बाहर निकाले हुए
आस्यतामिति चोक्त: सन्नासीताभिमुखं गुरो: ॥ २॥ | गुर्के द्वारा बैठनेके लिये कहे जानेपर उनके सम्मुख '
बैठे। सोते हुए, बैठे हुए, भोजन करते हुए, खड़े
प्रतिभ्रवणसम्भाषे शयानो न समाचरेत्। होकर तथा गुरुकी ओर पीठ करके उनकी किसी
नासीनो न च भुज्जानो न तिष्ठन्न पराइःमुख: ॥ ३॥ | आज्ञाका ग्रहण या उनसे बातचीत नहीं करनी चाहिये।
गुरुके पासमें शिष्यकी शय्या या आसन सदा गुरुकी
शय्या एवं आसनकी अपेक्षा नीचा (कम ऊँचा)
नीच॑ शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ। होना चाहिये। गुरुके देखते रहनेपर मनमाने ढंगसे
गुरोस्तु चक्षुविषये न यथेष्टासनो भवेत्॥४॥ | नहीं बैठना चाहिये॥१--४॥
१-प्रवाहशून्य कहीं गड्डे आदिमें एकत्र जल अपवित्र होता है। अपवित्र हाथ आदि साक्षात् नदी, तालाब आदिमें डालकर नहीं
धोना चाहिये। किसी पात्रसे जल निकालकर ही धोना चाहिये।
२-ग्रामके अंदरकी भूमि-लेप, चलने, थूकने आदिसे अपवित्र होती है। ग्रामके अंदरकी मिट्टी लेनेसे अनपेक्षित गड्डा आदि होता
है जो लोगोंके त्रासका कारण बनता है।
३-यह श्लोक मनुस्मृति (२। १९३)-में उपलब्ध है। वहाँ 'नित्यमुद्धृतपाणि:' पाठ है। यही उपयुक्त है। इसका तात्पर्य यही है
कि उत्तरीय (ऊपरसे चद्दर) धारण कर ही अध्ययन करना चाहिये तथा दाहिने हाथको चदरसे बाहर रखना चाहिये, क्योंकि अध्ययनमें
दाहिने हाथका उपयोग होता है।
३१०
नोदाहरेदस्य नाम परोक्षमपि केवलम।
न चेैवास्यानुकुर्वीत गतिभाषणचेष्टितम्॥ ५ ॥
गुरोर्यत्र परीवादो निन्दा चापि प्रवर्तते।
कर्णों तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा ततोडन्यत: ॥ ६ ॥
दूरस्थो नार्चयेदेनं न क्रुद्धो नान्तिके स्त्रिया: ।
न चैवास्योत्तरं ब्रूयात् स्थितो नासीत संनिधौ॥। ७ ॥
उदकुम्भं कुशान् पुष्पं समिधो5स्याहरेत् सदा।
मार्जन॑ लेपनं नित्यमड्रानां वे समाचरेत्॥ ८ ॥
नास्य निर्माल्यशयनं पादुकोपानहावपि।
आक्रमेदासनं चास्य छायादीन् वा कदाचन॥ ९ ॥
साधयेद् दन्तकाष्ठादीन् लब्धं चास्मे निवेदयेत् ।
अनापृच्छ्य न गन्तव्यं भवेत् प्रियहिते रत: ॥ १० ॥
न पादौ सारयेदस्य संनिधाने कदाचन।
जुम्भितं हसितं चैव कण्ठप्रावरणं तथा।
बर्जयेत् संनिधी नित्यमवस्फोटनमेव च॥ ११॥
यथाकालमधीयीत यावतन्न विमना गुरु:।
आसीताधो गुरोः कूर्चे फलके वा समाहित: ॥ १२॥
* कूर्मपुराण *
इनका (गुरुका) केवल नाम (सम्मानबोधक उपाधि
आदिसे शून्य नाम) परोक्षमें भी नहीं लेना चाहिये। इनके
चलनेकी क्रिया, बात करनेके ढंग और अन्य क्रियाओंकी
नकल उपहासकी दृष्टिसे नहीं करनी चाहिये॥५॥
गुरुका जहाँ परीवाद (विद्यमान दोषका कथन)
हो रहा हो अथवा जहाँ उनकी निन्दा हो रही हो,
वहाँ अपने दोनों कानोंकों बंद कर ले अथवा वहाँसे
अन्यत्र चला जाय। दूर विद्यमान शिष्य (किसी अन्यकों
गुरुकी पूजाके लिये नियुक्त कर उसके द्वारा) गुरुकी
पूजा न करवाये, (यदि स्वयं गुरुके समीप जाकर पूजा
करनेमें समर्थ हो। स्वयं गुरुक समीप जानेमें असमर्थ
होनेपर तो अन्यके द्वारा भी गुरुकी पूजा करवायी जा
सकती है।) क्रोधके आवेशमें रहनेपर शिष्यको स्वयं
भी गुरुकी पूजा नहीं करनी चाहिये। यदि गुरु स्त्रीके
समीप हों तो उस समय उनकी पूजा नहीं करनी
चाहिये। गुरुकी बातका उत्तर नहीं देना चाहिये और
गुरुक निकट रहनेपर उनकी आज्ञाके बिना बैठना भी
नहीं चाहिये॥ ६-७॥
(शिष्यको चाहिये कि ) गुरुके लिये सर्वदा जलसे
पूर्ण घड़ा, कुश, पुष्प तथा समिधा लाये और नित्य
उनके अड्जोंका मार्जन (गुरुको स्नान कराना) तथा
(गन्धादिद्वारा) लेपन (शरीरका सुगन्धीकरण) करे।
उनके निर्माल्य (गुरुकी सेवामें समर्पित माला आदि),
शय्या, खड़ाऊँ, जूता, आसन तथा छाया आदिका कभी
भी लंघन नहीं करना चाहिये। गुरुके लिये दन्तकाष्ट
(दाँतोंको स्वच्छ करनेके लिये दतुअन) आदि लाये
और (भिक्षादिमें) प्राप्त पदार्थोको गुरुको निवेदित करे।
गुरुसे बिना पूछे कहीं जाये नहीं तथा सदा गुरुके प्रिय
तथा हित करनेमें लगा रहे॥ ८--१०॥
गुरुक समीप कभी भी पैर फैलाकर बैठना नहीं चाहिये
और उनके समीप जँभाई, हँसी, कण्ठाच्छादन (सुन्दर
माला, हार आदि गलेमें पहनना) तथा ताली इत्यादिकी
ध्वनि (ताल ठोंकना आदि निरर्थक एवं उद्ण्डता-सूचक
हलचल) न करे। अध्ययन तबतक करते रहना चाहिये
जबतक गुरु बेमन न हो जाये (अध्यापनके प्रति सोत्साह
रहें ) । सावधानीपूर्वक गुरुके सम्मुख नीचे कुशासन या
काष्ठासन इत्यादिपर बेठना चाहिये॥ ११-१२॥
* अध्याय ५१४ *
आसने शयने याने नेव तिष्ठेत् कदाचन।
धावन्तमनुधावेत गच्छन्तमनुगच्छति॥ १३॥
गो5श्रोष्टयानप्रासादप्रस्तेषु कटेषु च।
आसीत गुरुणा सार्ध शिलाफलकनौषु च॥ १४॥
जितेन्द्रिय: स्थात् सतत॑ वश्यात्माक्रोधन: शुचि:।
प्रयुज्ञीत सदा वा मधुरां हितभाषिणीम्॥ १५॥
गन्धमाल्यं रसं कल्यां शुक्त प्राणिविहिंसनम्।
अभ्यदड्रं चाउ्जनोपानच्छत्रधारणमेव च॥ १६॥
काम लोभ॑ भयं निद्रां गीतवादित्रनर्तनम् ।
आतर्जन परीवादं स्त्रीप्रेक्षालम्भनं॑ तथा।
परोपघातं पैशुन्यं प्रयत्नेन विवर्जयेत्॥ १७॥
उदकुम्भं सुमनसो गोशकृन्मृत्तिकां कुशान्।
आहरेद् यावदर्थानि भेक्ष्यं चाहरहश्नरेत्॥ १८॥
कृतं च लवणं सर्व वर्ज्य पर्युषितं च यत्।
अनृत्यदर्शी सततं भवेद् गीतादिनिःस्पृह:॥ १९॥
नादित्यं वे समीक्षेत न चरेद् दन्तधावनम्।
एकान्तमशुचिस्त्रीभि: शूद्रान्यैरभिभाषणम्॥ २०॥
गुरूच्छिष्ट भेषजार्थ प्रयुज्नीत न कामत:।
प्रलापकर्षणस्नानं नाचरेद्धि कदाचन॥ २१॥
न कुर्यान्मानसं विप्रो गुरोस्त्यागे कदाचन।
मोहाद् वा यदि वा लोभात् त्यक्तेन पतितो भवेत्॥ २२॥
* कुल्लूकभट्टके अनुसार शुक्त वह वस्तु है जो स्वभावतः
(मनु० २। १७७ की व्याख्या)।
३११
गुरुक आसन, शय्या तथा यानपर कभी भी नहीं
बैठना चाहिये। गुरुके दौड़नेपर उनके पीछे दौड़े और
चलनेपर उनके पीछे चलना चाहिये॥ १३॥
बैल, ऊँट एवं घोड़ेकी सवारी, प्रासाद, प्रस्तर,
चटाई, शिलाखण्ड तथा नौकामें गुरुक साथ समान
आसनपर बैठा जा सकता है (ऐसी जगहोंपर भी नीचे
ही बैठा जाय ऐसा नियम नहीं है)। ब्रह्मचारी सदा
जितेन्द्रिय रहे, अपने मनको वशमें रखे, क्रोध न करे,
पवित्र रहे, सदा मधुर और हित करनेवाली वाणीका
प्रयोग करे॥ १४-१५॥
ब्रह्मचारीको चाहिये कि वह प्रयत्रपूर्वक सुगन्धित
पदार्थों, माला, रस (तीखे रसवाले गुड़ आदि), मद्य,
शुक्त* अर्थात् गुड आदिके मिश्रणसे बने मादक तीक्ष्ण
पदार्थ, प्राणियोंकी हिंसा, तैल आदिका मर्दन, अज्जन,
जूता, छाताका धारण करना, काम, लोभ, भय, निद्रा,
गायन, वादन तथा नृत्य, डॉट-फटकार लगाना, निन्दा,
स्त्रीदर्श तथा उसका स्पर्श, दूसरोंको मारना और
चुगुलखोरी आदिका परित्याग करे॥ १६-१७॥
जलका घड़ा, पुष्प, गोबर, मिट्टी और कुश--
इन्हें प्रयोजन भर ही लाना चाहिये। प्रतिदिन भिक्षा
माँगनी चाहिये। कृत्रिम लवण और जो भी बासी वस्तु
हो, उन सबका त्याग करना चाहिये। (ब्रह्मचारीको)
नृत्य नहीं देखना चाहिये और गायन आदिसे नि:स्पृह
रहना चाहिये। सूर्यकी ओर (उदय-अस्तके समय तथा
अपवित्र दशामें) नहीं देखना चाहिये एवं दन्तधावन
नहीं करना चाहिये। एकान्तमें अपवित्र स्त्रियों, शूद्रों तथा
अन्त्यजोंसे सम्भाषण नहीं करना चाहिये॥ १८--२० ॥
गुरुसे बचा हुआ भोजन लोभवश नहीं करना
चाहिये। कभी भी शरीरके मैलको दूर करते हुए रागवश
स्रान नहीं करना चाहिये। (ब्रह्मचर्यत्रतका अड्भभूत स्नान
ही यथाविधि करना चाहिये)। विप्रको (द्विजको)
गुरुका कभी मनसे भी त्याग करनेका विचार नहीं
करना चाहिये। मोह या लोभसे इनका (गुरुका) त्याग
करनेसे वह (द्विज) पतित हो जाता है॥२१-२२॥
मधुर हो, पर कालवश जलमें रखने आदिसे खट्टी हो गयी हो
३२२
* कूर्मपुराण *
लौकिकं वैदिकं॑ चापि तथाध्यात्मिकमेव च।
आददीत यतो ज्ञानं न तं दुह्दित् कदाचन॥ २३॥
गुरोरप्यवलिप्तस्थ कार्याकार्यमजानत: ।
उत्पथप्रतिपन्नस्थमनुस्त्यागं समब्रवीत्॥ २४॥
गुरोर्गुरी संनिहिते गुरुवद् भक्तिमाचरेत्।
न चातिसृष्टो गुरुणा स्वान् गुरूनभिवादयेत्॥ २५॥
विद्यागुरुष्वेतदेव नित्या वृत्ति: स्वयोनिषु।
प्रतिषेधत्सु चाधर्माद्धितं चोपदिशत्स्वपि॥ २६॥
श्रेयस्सु गुरुवद् वृत्ति नित्यमेव समाचरेत्।
गुरुपुत्रेष् दारेषु गुरोश्चेव स्वबन्धुषु॥ २७॥
बाल: समानजन्मा वा शिष्यो वा यज्ञकर्मणि।
अध्यापयन् गुरुसुतो गुरुवन्मानमरहति॥ २८ ॥
उत्सादनं वे गात्राणां स्नापनोच्छिष्टभोजने।
न कुर्याद् गुरुपुत्रस्थ पादयो: शौचमेव च।॥ २९॥
गुरुवत् परिपूज्यास्तु सवर्णा गुरुयोषित:।
असवर्णस्तु सम्पूज्या: प्रत्युत्थानाभिवादने: ॥ ३०॥
अभ्यञ्जनं सस््नापनं च गात्रोत्सादनमेव च।
गुरुपल्या न कार्याणि केशानां च प्रसाधनम्॥ ३१॥
गुरुपली तु युवती नाभिवाद्येह पादयो:।
कुर्वीत बन्दनं भूम्यामसावहमिति ब्लुवन्॥ ३२॥
जिससे लौकिक, वैदिक अथवा आध्यात्मिक
किसी भी प्रकारका ज्ञान प्राप्त करे, उससे कभी भी
द्रोह न करे। महापातकयुक्त कार्य और अकार्यको न
जाननेवाले तथा कुमार्गगामी गुरुका त्याग करना
चाहिये--ऐसा मनुका कहना है॥ २३-२४॥
गुरुके गुरुका यदि संनिधान प्राप्त हो तो उनके
प्रति गुरुक समान ही अभिवादन आदि व्यवहार करना
चाहिये और (गुरुगृहमें रहते हुए शिष्यको) गुरुको
अनुमतिके बिना अपने (माता-पितादि) गुरुजनोंका
अभिवादन नहीं करना चाहिये। विद्या देनेवाले गुरुओं
(उपाध्यायों), अपने जन्मके कारण-रूप (माता-पितादि),
अधर्मसे रोकनेवालों और हितकारी धर्मतत्त्वका उपदेश
देनेवालोंके प्रति नित्य इसी प्रकारका गुरुके समान
ही आचरण करना चाहिये। विद्या एवं तपमें अपनी
अपेक्षा अधिक समृद्ध लोगोंके प्रति, अपनी अवस्थाको
दृष्टिसे बड़े, समानजातीय गुरुपल्ली-पुत्रोंके प्रति और
गुरुकी ज्ञाति (बन्धु-बान्धव) पितृव्य (चाचा) आदिके
प्रति सदा गुरुक समान ही आदरपूर्ण व्यवहार करना
चाहिये॥ २५--२७ ॥
अपनेसे छोटा गुरुका पुत्र अथवा समान अवस्थावाला
तथा यज्ञकर्ममें (अपना) शिष्य होनेपर भी यदि वह
अध्यापन करता हो तो गुरुके समान ही सम्मान प्राप्त
करने योग्य है। किंतु गुरु-पुत्रके शरीरकी मालिश, उसे
स्नान कराना, उसका उच्छिष्ट भोजन तथा उसके पादका
प्रक्षालन नहीं करना चाहिये। गुरुकी सवर्ण' स्त्रियाँ गुरुके
समान ही पूज्य हैं, पर (गुरुकी) असवर्ण पत्नियोंकी
केवल प्रत्युत्थान (उनके आनेपर खड़े हो जाना) एवं
अभिवादनके द्वारा ही पूजा करनी चाहिये॥ २८--३०॥
गुरुपलरीके शरीरमें उबटन लगाना, उन्हें स्नान
कराना, उनके शरीरकी मालिश और केशोंके सँवारनेका
कार्य नहीं करना चाहिये। यदि गुरुपत्नी युवावस्थावाली
हों तो उनके चरणोंको छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिये।
“मैं अमुक हूँ” ऐसा कहते हुए उनके सम्मुख पृथ्वीपर
प्रणाम करना चाहिये॥ ३१-३२॥
१-यहाँ त्यागका तात्पर्य इतना ही है कि ऐसे गुरुके संसर्गसे स्वयंमें दोष आ सकते हैं, अत: अपनी रक्षाकी दृष्टिसे ऐसे गुरुके
संसर्गमें नहीं रहना चाहिये तथा ऐसे गुरुके प्रति उदासीनभाव अपना लेना चाहिये, द्वेषभाव कथमपि नहीं होना चाहिये।
२-कलियुगसे भिन्न युगोंमें असवर्ण विवाह किया जा सकता है। इससे न पुण्य होता है न पाप। यह असवर्ण विवाह भी अपनेसे
ऊँची जातिमें नहीं होता है।
* अध्याय १४ *
विप्रोष्य पादग्रहणमन्वहं॑ चाभिवादनम्।
गुरुदारेषु कुर्वीत सतां धर्ममनुस्मरन्॥ ३३॥
मातृष्वसा मातुलानी एवश्रूए्चाथ पितृष्वसा।
सम्पूज्या गुरुपत्नीव समास्ता गुरुभार्यया॥ ३४॥
भ्रातुर्भा्योपसंग्राह्या सवर्णाहन्यहन्यपि।
विप्रोष्य तूपसंग्राह्मा ज्ञातिसम्बन्धियोषित: | ३५॥
पितुर्भगिन्यां मातुश्च ज्यायस्यां च स्वसर्यपि।
मातृवद् वृत्तिमातिष्ठेन्माता ताभ्यो गरीयसी ॥ ३६ ॥।
एवमाचारसम्पन्नमात्मवन्तमदाम्भिकम्_।
वेदमध्यापयेद् धर्म पुराणाड्गनि नित्यश:॥ ३७॥
संवत्सरोषिते शिष्ये गुरुज्ञानिमनिर्दिशन्।
हरते दुष्कृतं तस्य शिष्यस्य वसतो गुरु:॥ ३८ ॥
आचार्यपुत्र: शुश्रूषुरज्ञनदो धार्मिक: शुचि: |
शक्तोडनदो<र्थी स्व:साधुरध्याप्या दश धर्मतः॥ ३९॥
कृतज्ञश्न॒ तथाद्रोही मेधावी शुभकृन्नरः।
आप्त: प्रियो5थ विधिवत् षड॒ध्याप्या द्विजातय: ।
एतेषु ब्राह्मणो दानमन्यत्र तु यथोदितान्॥ ४० ॥
आचम्य संयतो नित्यमधीयीत उदड्मुखः ।
उपसंगृह्य तत्पादौ वीक्षमाणो गुरो्मुखम्।
अधीष्व भो इति ब्रूयाद् विरामो5स्त्विति चारमेत्॥ ४१ ॥
३१३
पर यदि शिष्य प्रवाससे आये तो शिष्टोंक आचारका
स्मरण करते हुए युवती गुरुपल्रीका पादग्रहणपूर्वक
ही अभिवादन करे। मौसी, मामी, सास और बुआ
(फुआ)--ये गुरुकी पत्रीके समान पूज्य हैं। ये सभी
गुरुपलीके समान ही हैं। भाईकी सवर्ण स्त्री (भाभी )-
को प्रतिदिन अवश्य प्रणाम करना चाहिये। ज्ञाति
(पितापक्षके चाचा आदि), सम्बन्धी (मातापक्षके नाना
आदि)-की पत्नियोंका तो प्रवाससे आनेपर अवश्य
अभिवादन करना चाहिये॥ ३३--३५॥
माता-पिताकी बहिन तथा अपनी बड़ी बहिनके
प्रति भी माताके समान व्यवहार करना चाहिये, किंतु
माता इनसे श्रेष्ठ होती है। इस प्रकारके सदाचारसे
सम्पन्न, आत्मवान् तथा दम्भरहित (ब्रह्मचारी)-को
ही नित्य वेद, धर्मशास्त्र, पुराण और वेदाड्रोंको
पढ़ाना चाहिये॥ ३६-३७॥
एक वर्षसे यथाविधि गुरुकी सेवा करते हुए उनके
समीप निवास करनेवाले शिष्यको यदि गुरु ज्ञानका
उपदेश देना प्रारम्भ नहीं करते हैं तो शिष्यके दुष्कृत
उनमें आ जाते हैं। आचार्यका पुत्र, सेवा-शुश्रूषा करनेवाला,
ज्ञान प्रदान करनेवाला (एक विद्या देकर दूसरी विद्या
लेनेवाला), धार्मिक, पवित्र, शक्तिसम्पन्न (अध्ययनके
सामर्थ्यसे युक्त), अन्नदाता (गुरुकी अपेक्षाके अनुसार
पर्याप्त अन्न देनेवाला), अर्थी (गुरुकी सेवामें पर्याप्त
धन देनेवाला), साधु (शीलवान्) तथा आत्मीय--ये
दस धर्मकी मर्यादासे अध्यापन कराने योग्य हैं। कृतज्ञ,
अद्रोही, मेधासम्पन्न, कल्याण करनेवाला, विश्वस्त तथा
प्रिय व्यक्ति--ये छः: प्रकारके द्विजाति भी विधिपूर्वक
पढ़ाने योग्य हैं। इन्हें ब्रह्मज्ञान, वेदज्ञान प्रदान करना
चाहिये। इनसे अतिरिक्त जो जिज्ञासु हों उन्हें अन्य
यथापेक्ष ज्ञान देना चाहिये॥ ३८--४० ॥
आचमन करके संयत होकर उत्तरकी ओर मुख
करके गुरुके चरणोंमें प्रणमकर उनके मुखकी ओर
देखते हुए नित्य अध्ययन करना चाहिये। (गुरुके द्वारा)
'पढ़ो' कहनेपर अध्ययन प्रारम्भ करे और “विराम हो'
ऐसा कहनेपर अध्ययन बंद कर दे॥४१॥
३१४
कं कूर्मपुराण कं
प्राक्कूलान् पर्युपासीन: पवित्रैश्चैव पावितः ।
प्राणायामैस्त्रिभि: पूतस्तत ओड्डारमहति॥ ४२ ॥
ब्राह्मण: प्रणवं कुर्यादन्ते च विधिवद् द्विज: ।
कुर्यादध्ययनं नित्यं स ब्रह्माज्जलिपूर्वतः ॥ ४३॥
सर्वेषामेव भूतानां वेदश्चक्षु: सनातनम्।
अधीयीताप्ययं नित्य॑ ब्राह्मण्याच्व्यवतेडन्यथा ॥ ४४॥
यो5धीयीत ऋचो नित्य॑ क्षीराहुत्या स देवता: ।
प्रीणाति तर्पयन्त्येनं कामैस्तृत्ता: सदैव हि॥ ४५ ॥
यजूंष्यधीते नियतं दध्ना प्रीणाति देवता: ।
सामान्यधीते प्रीणाति घृताहुतिभिरन्वहम्॥ ४६ ॥
अधथर्वाड्विरसो नित्यं मध्वा प्रीणाति देवता: ।
धर्माड्रानि पुराणानि मांसैस्तर्पयते सुरान्॥ ४७॥
अपां समीपे नियतो नेत्यकं विधिमाश्रित:।
गायत्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहित: ॥ ४८ ॥
सहस्त्रपरमां देवीं शतमध्यां दशावराम्।
गायत्रीं वे जपेन्नित्यं जपयज्ञ: प्रकीर्तित:॥ ४९॥
गायत्रीं चैव वेदांश्व तुलयाउतोलयत् प्रभु: ।
एकतश्चतुरो वेदान् गायत्रीं च तथेकतः ॥ ५०॥
ओऑकारमादितः कृत्वा व्याहृतीस्तदनन्तरम्।
ततो5धीयीत सावित्रीमेकाग्र: श्रद्धयान्वित:॥ ५१॥
पूर्व दिशाकी ओर अग्रभागवाले कुशोंके आसनपर
बैठकर, दोनों हाथोंमें विद्यमान पवित्र कुशोंसे पावित
(पवित्रीकृत) होकर तथा तीन प्राणायामोंद्वारा पवित्र
होनेके अनन्तर ही (द्विज) अध्ययनके लिये ओंकारके
उच्चारणका अधिकारी होता है। द्विजन्मा (ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य)-को (स्वाध्यायके) आरम्भ और अन्तमें
विधिपूर्वक प्रणवका उच्चारण करना चाहिये। नित्य
अझलिबद्ध होकर ही अध्ययन (स्वाध्याय) करा
चाहिये। सभी प्राणियोंक लिये वेद सनातन नेत्र-रूप
हैं। (ब्राह्मणको) नित्य इनका अध्ययन करना चाहिये
अन्यथा वह ब्राह्मणत्वसे च्युत हो जाता है॥ ४२--४४॥
जो द्विज नित्य ऋग्वेदका अध्ययन करता है और
देवताओंको क्षीरकी आहुतियोंसे प्रसन्न करता है, देवता
उसकी कामनाएँ पूर्णकर सदैव तृप्त करते हैं। (ऐसे
ही) जो द्विज नियमपूर्वक याजुष मन्त्रोंका अध्ययन
करता है और दधि (-की आहुतियों)-से देवताओंको
प्रसन्न करता है, उसकी भी सभी कामनाएँ पूर्ण होती
हैं। इसी प्रकार जो द्विज साममन्त्रोंका अध्ययन कसा
और प्रतिदिन घृतकी आहुतियोंसे देवोंको प्रसन्न कसा
है तो उसकी भी कामनाएँ पूर्ण होती हैं। अथर्ववेदका
भी अध्ययन करनेवाला (द्विज) मधु (-की आहुतियों)-
द्वारा देवताओंको प्रसन्नकर अभिलषित प्राप्त करता है।
धर्मशास्त्र, वेदाड़ों तथा पुराणोंका अध्ययन करनेवाले
यथोपलब्ध पदार्थोसे देवताओंको संतृप्तकर इष्ट प्राप्त
करते हैं॥ ४५--४७ ॥
नित्यकर्मकी विधिका आश्रय लेकर वनमें जाकर
सावधानीपूर्वक जलके समीप नियमितरूपसे गायत्री
(-मन्त्र)-का जप भी करे। गायत्रीदेवी (मन्त्र)-का हजार
बार जप करना श्रेष्ठ, सौ बारका जप मध्यम तथा दस
बार जप करना निम्न कोटिका है। गायत्रीका नित्य जप
करना चाहिये। इसे जपयज्ञ कहा गया है। ईश्वरने गायत्री
और वेदोंको तुलामें तौला। तुलामें एक ओर चारों
वेदोंको और एक ओर गायत्रीको रखा (समग्र वेदोंका
सार गायत्री-मन्त्र वेदोंके समान ही रहा) ॥ ४८--५० ॥
आदिमें ओंकार लगाकर तदनन्तर (भूर्भुवः स्वः)
महाव्याहतियोंके साथ गायत्री (-मन्त्र)-का श्रद्धापूर्वक
एकाग्रमनसे जप करना चाहिये॥५१॥
* अध्याय १४ *
पुराकल्पे समुत्पन्ना भूर्भुवःस्वः सनातना:।
महाव्याहतयस्तिसत्र: सर्वाशुभनिबईणा: ॥ ५२ ॥
प्रधानं पुरुष: कालो विष्णुर्रह्मा महेश्वरः ।
सत्त्वं रजस्तमस्तिस्त्र: क्रमाद् व्याहृतय: स्मृता: ॥ ५३॥
ओकारस्तत् परं ब्रह्म सावित्री स्यात् तदक्षरम् ।
एप मन्त्रो महायोग: सारात् सार उदाहत:॥ ५४॥
यो5धीते5हन्यहन्येतां गायत्रीं वेदमातरम्।
विज्ञायार्थ ब्रह्मचारी स याति परमां गतिम्॥ ५५ ॥
गायत्री वेदजननी गायत्री लोकपावनी।
न गायत्र्या: परं जप्यमेतद् विज्ञाय मुच्यते॥ ५६ ॥
श्रावणस्य तु मासस्य पौर्णमास्यां द्विजोत्तमा: ।
आषाढ्ां प्रोष्ठपद्मां वा वेदोपाकरणं स्मृतम्॥ ५७॥
उत्सृज्य ग्रामनगरं मासान् विप्रो$र्धपक्षमान्।
अधीयीत शुचौ देशे ब्रह्मचारी समाहित: ॥ ५८ ॥
पुष्ये तु छन्दसां कुर्याद् बहिरुत्सर्जनं द्विज: ।
माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वाह्न प्रथमेडहनि।॥ ५९ ॥
उन्दांस्यू््वमथो 5 भ्यस्येच्छुक्लपक्षेषु वे द्विज: ।
बेदाड्रानि पुराणानि कृष्णपक्षे च मानवम्॥ ६०॥
इमान् नित्यमनध्यायानधीयानो विवर्जयेत्।
अध्यापनं च कुर्वाणो हाभ्यस्यन्नपि यलनत: ॥ ६१॥
कर्णश्रवेडनिले रात्रौ दिवा पांशुसमूहने।
विद्युत्सतनितवर्षेषु महोलकानां च सम्प्लवे।
आकालिकमनध्यायमेतेष्वाह प्रजापति: ॥ ६२ ॥
३१५
प्राचीन कल्पमें सभी प्रकारके अमड्गलोंको दूर
करनेवाली “भू:' 'भुवः' तथा 'स्वः' ये तीन सनातन
महाव्याहतियाँ समुद्भूत हुईं। ये तीनों व्याहतियाँ क्रमश:
प्रधान, पुरुष तथा काल और विष्णु, ब्रह्मा, महेश्वर
एवं सत्त्व, रज तथा तमोगुणरूप कही गयी हैं। ओंकार
परम ब्रह्मस्वरूप और सावित्री अविनश्वर परम तत्त्वरूप
है। इस मन्त्रको महायोग और सारोंका भी सार-रूप
कहा गया है। जो ब्रह्मचारी (गायत्री-मन्त्रके) अर्थको
जानते हुए प्रत्येक दिन इन वेदमाता गायत्रीका अध्ययन
करता है (जप करता है), उसे परमगति प्राप्त होती
है। गायत्री वेदोंकी माता और लोकको पवित्र करनेवाली
है। गायत्रीसे श्रेष्ठ कोई दूसरा मन्त्र जपने योग्य नहीं
है। इसके ज्ञानसे मुक्ति मिल जाती है॥५२--५६॥
श्रेष्ठ द्विजो! श्रावण, आषाढ़ अथवा भाद्रपद मासकी
पौर्णमासीको (अपने-अपने गृह्मसूत्रानुसार) वेदोंका
उपाकर्म (संस्कारपूर्वक वेदग्रहण) करना बतलाया गया
है। ग्राम और नगरको छोड़कर ब्रह्मचारी ब्राह्मण
(द्विजमात्र)-को एकाग्रचित्तसे पवित्र स्थानमें साढ़े पाँच
महीनेतक (वेदोंका) अध्ययन करना चाहिये। द्विजको
चाहिये कि वह (पौष मासके) पुष्य नक्षत्रमें अथवा
माघ मासके प्रथम दिन पूर्वाह्में (ग्रामके) बाहर वेदोंका
उत्सर्जन (उत्सर्ग नामका संस्कारविशेष) करे। इसके
बाद द्विजको शुक्लपक्षमें वेदोंका और कृष्णपक्षमें
वेदाड़ों, पुराण तथा मानवधर्मशास्त्र (मनुस्मृति आदि)-
का अभ्यास करना चाहिये॥ ५७--६० ॥
अध्ययन करनेवालेको इन (अग्रनिर्दिष्ट) अनध्यायोंमें
अध्ययनका सदा परित्याग करना चाहिये। इसी प्रकार
अध्यापन और अभ्यास करते हुए भी प्रयत्रपूर्वक
अनध्यायोंमें अध्ययनका त्याग करना चाहिये। प्रजापति
(ब्रह्मा)-ने कहा है कि रात्रिमें कानोंसे सुने जाने योग्य
वायुके बहते रहनेपर, दिनमें धूलके समूहकों उड़ा
लेनेमें समर्थ वायुके बहते रहनेपर, विद्युत्की चमक
एवं (मेघ) गर्जनके साथ वर्षा होनेपर और बड़ी-
बड़ी उल्काओंके इधर-उधर गिरते रहनेपर आकालिक
(जबसे ये निमित्त आरम्भ हों तबसे अग्रिम दिन
सूर्योदयपर्यन्त) अनध्याय होता है॥६१-६२॥
३२६
हु कूर्मपुराण के
एतानभ्युदितान् विद्याद् यदा प्रादुष्कृताग्निषु ।
तदा विद्यादनध्यायमनृतोौ चाश्रदर्शने॥ ६३॥
निर्घते भूमिचलने ज्योतिषां चोपसर्जने।
एतानाकालिकान् विद्यादनध्यायानृतावषि॥ ६४॥
प्रादुष्कृतेष्वग्रिषु तु ॒विद्युत्सतनितनिस्वने ।
सज्योति: स्यथादनध्याय: शेषरात्रौ यथा दिवा।॥ ६५ ॥
नित्यानध्याय एव स्याद् ग्रामेषु नगरेषु च।
धर्मनेपुण्यकामानां पूतिगन्धे चर नित्यश:॥ ६६॥
अन्तःशवगते ग्रामे वृषलस्यथ च संनिधौ।
अनध्यायो रुद्यमाने समवाये जनस्थ च॥ ६७॥
उदके मध्यरात्रे च विण्मूत्रे च विसर्जने।
उच्छिष्ट: श्राद्धभुक् चेव मनसापि न चिन्तयेत्॥ ६८ ॥
प्रतिगृह्य द्विजो विद्वानेकोदिष्टस्थ केतनम्।
ज्यहं न कीर्तयेद् ब्रह्म राज्ञो राहोश्व सूतके ॥ ६९॥
यावदेको<नुदिष्टस्य स्नेहो गन्धश्च तिष्ठति।
विप्रस्य विदुषो देहे तावद ब्रह्म न कीर्तयेत्॥ ७० ॥
शयानः प्रौढपादश्च कृत्वा चैवावसक्थिकाम् |
नाधीयीतामिषं जग्ध्वा सूतकान्नाद्यमेव च॥ ७१॥
नीहारे बाणशब्दे च संध्ययोरु भयोरपि।
अमावास्यां चतुर्दश्यां पौर्णमास्यष्टमीषु च॥ ७२॥
उपाकर्मणि चोत्सगें त्रिरात्र क्षपणं स्मृतम्।
अष्टकासु त्वहोरात्र ऋत्वन्त्यासु च रात्रिषु॥ ७३॥
अग्रिहोत्रके लिये प्रज्बलित अग्रिकी अवस्था (प्रात:-
सायं-संध्याकाल) -में जब ये सभी (उत्पात) एक साथ
प्रकट हों और बिना ऋतुके मेघ दिखलायी पढ़ें तो
अनध्याय समझना चाहिये। वज्रपात, भूकम्प, सूर्य-चन्द्रका
ग्रहण एवं अन्य ताराओंके उपसर्ग (टूटना आदि) होनेपर,
ऋतु होनेपर भी आकालिक (इन निमित्तोंके प्रारम्भसे
अग्रिम दिन सूर्योदयपर्यन्त) अनध्याय समझना चाहिये।
अग्रिके प्रकट होने, बिजलीके चमकने तथा मेघके गर्जन
होनेपर प्रकाश रहनेपर भी अनध्याय होता है। दिनके
समान ही रात्रिमें भी अनध्याय होता है॥६३--६५॥
धर्ममें निपुणता प्राप्त करनेकी इच्छावालोंके लिये
नगर, ग्राम एवं दुर्गन्धयुक्त स्थानमें नित्य ही अनध्याय
होता है। ग्राममें शव पड़े रहनेपर, अधार्मिक जनके
समीप रहनेपर, रुदन होने और मनुष्योंका समूह
(कार्यान्तरके लिये) एकत्र होनेपर अनध्याय होता है।
जलके मध्य, आधी रातमें, मल-मूत्रके विसर्जनके
समय, उच्छिष्ट अवस्थामें और श्राद्धमें भोजन करनेपर
( श्राद्धमें निमन्त्रणसे लेकर श्राद्ध-भोजनके दिन-राततक)
मनसे भी (वेदादिका) चिन्तन नहीं करना चाहिये।
विद्वान् द्विजको एकोदिष्टका निमन्त्रण स्वीकार कर,
राजाके पुत्रजन्म आदिके सूतक तथा राहुके (ग्रहणजन्य)
सूतकमें तीन दिनतक वेदका अध्ययन नहीं करना
चाहिये। ब्राह्मणके शरीरमें जबतक एकोदिष्ट-श्राद्ध-
सम्बन्धी" भोजनके समयका (घृत आदि) स्निग्ध द्रव्य
एवं (सुगन्धित द्रव्यका) लेप रहे, तबतक दिद्वान्
ब्राह्मणको वेदाध्ययन नहीं करना चाहिये॥ ६६--७०॥
सोते हुए, उकड़ूँ बैठे हुए (आसनारूढपाद), दोनों
जानुओंको वस्त्रादिसे बाँधे हुए, मांस और सूतकादिसे
सम्बन्धित अन्न खाकर, कुहरा पड़ते रहनेपर, बाणका
शब्द होते समय, दोनों संध्याकालमें, अमावास्या, चतुर्दशी,
पौर्णमासी तथा अष्टमी तिथियोंमें (अनध्याय होता है,
अतः) अध्ययन नहीं करना चाहिये। उपाकर्म और
उत्सर्ग नामक कर्म करनेके अनन्तर तीन राततक अनध्याय
होता है। अष्टकाओंमें' एक दिन-रात और ऋतुको
अन्तिम रात्रियोंमें अनध्याय होता है॥ ७१--७३॥
१-मूलमें 'एको<नुदिष्ट' पाठ है। कुछलूकभट्ट (मनुस्मृति व्याख्याकार)-के अनुसार 'अनुदिष्ट' का उच्छिष्ट अर्थ है।
२-अगहन, पौष और माघमासोंमें कृष्णपक्षकी सप्तमी, अष्टमी और नवमी--इन तीन तिथियोंके समुदायको 'अष्टका' कहा जाता है।
* अध्याय १४ * ३९७
मार्गशीर्षे तथा पौधे माघमासे तथेव च।
तिस्रोषष्टका: समाख्याता कृष्णपक्षे तु सूरिभि:॥ ७४॥
श्लेष्मातकस्य छायायां शाल्मलेमधुकस्य च।
कदाचिदपि नाध्येयं कोविदारकपित्थयो: ॥ ७५ ॥
समानविद्ये च मृते तथा सब्नह्मचारिणि।
आचार्य संस्थिते वापि त्रिरात्रे क्षपणं स्मृतम्॥ ७६॥
छिद्राण्येतानि विप्राणां येडनध्याया: प्रकीर्तिता: ।
हिंसन्ति राक्षसास्तेषु तस्मादेतान् विवर्जयेत्॥ ७७॥
नेत्यिके नास्त्यनध्याय: संध्योपासन एव च।
उपाकर्मणि कर्मान्ते होममन्त्रेषु चेव हि॥ ७८॥
एकामृचमथेकं वा यजु: सामाथवा पुनः ।
अष्टकाद्यास्वधीयीत मारुते चातिवायति॥ ७९॥
अनध्यायस्तु नाड्लेषु नेतिहासपुराणयो:।
न धर्मशास्त्रेष्वन्येषु पर्वण्येतानि वर्जयेत्॥ ८०॥
एष धर्म: समासेन कीर्तितो ब्रह्मचारिणाम्।
ब्रह्मणाभिहित:ः पूर्वमृषीणां भावितात्मनाम्॥ ८१॥
योधन्यत्र कुरुते यत्नमनधीत्य श्रुतिं द्विज:।
स सम्मूढो न सम्भाष्यो वेदबाह्मो द्विजातिभि: ॥ ८२॥
न वेदपाठमात्रेण संतुष्टो वे भवेद् द्विजः।
पाठमात्रावसन्नस्तु पड्ढले गौरिव सीदति॥ ८३॥
यो5धीत्य विधिवद् वेदं वेदार्थ न विचारयेत्।
स सान्वय: शूद्रकल्पः पात्रतां न प्रपद्यते॥ ८४॥
यदि त्वात्यन्तिकं वासं कर्तुमिच्छति वे गुरौ।
युक्त. परिचरेदेनमाशरीरविमोक्षणात्॥ ८५ ॥
विद्वानोंने मार्गशीर्ष (अगहन), पौष और माघमासके
कृष्णपक्षमें तीन अष्टकाओंका वर्णन किया है।
लिसोढ़ा, सेमल, महुआ, कचनार और कैथ वृक्षकी
छायामें कभी भी (वेदका) अध्ययन नहीं करना
चाहिये॥ ७४-७५ ॥
अपने समान विद्या पढ़नेवाले, अपने ही समान
सहपाठी ब्रह्मचारीकी मृत्यु होनेपर और आचार्यके
अपने यहाँ आनेपर तीन रातका अनध्याय कहा गया
है। जो अनध्याय बतलाये गये हैं, ये ब्राह्मणों (द्विजों)-
के छिद्र-रूप हैं। इन अवसरोंपर राक्षस प्रहार करते
हैं, इसलिये इनका परित्याग करना चाहिये॥ ७६-७७॥
नित्य-कर्म, संध्योपासन, उपाकर्म, आरब्धकर्मके
अन्तमें और होममन्त्रोंमें अनध्याय नहीं होता (अर्थात्
अनध्यायकालमें भी इनसे सम्बद्ध मन्त्र बोले जाते हैं।)
अष्टकाओं और प्रबल वायुके चलनेपर भी ऋग्वेद,
यजुर्वेद अथवा सामवेदके एक मन्त्रका पाठ (अवश्य)
करना चाहिये। वेदाड़रों और इतिहास-पुराणके अध्ययन
और अन्य धर्मशास्त्रोंके अध्ययनमें अनध्याय नहीं होता,
किंतु पर्वो्में इनके अध्ययनका त्याग करना चाहिये।
संक्षेपमें यह ब्रह्मचारियोंका धर्म बतलाया गया। पूर्वकालमें
ब्रह्माने इसे शुद्धात्मा ऋषियोंको बतलाया था॥ ७८--८१ ॥
जो द्विज वेदका अध्ययन न कर अन्यत्र (दूसरे
शास्त्रोंको पढ़नेमें) प्रयत्न करता है, उस वेदबाह्य मूढ
व्यक्तिक साथ द्विजातियोंको सम्भाषण नहीं करना
चाहिये *। द्विजको वेदके पाठमात्रसे संतुष्ट नहीं होना
चाहिये। पाठमात्रसे वेदाध्ययनको समाप्त करनेवाला
कीचड़में फँसी गौके समान कष्ट पाता है। जो
विधिपूर्वक वेदका अध्ययन कर वेदके अर्थपर विचार
नहीं करता है, वह अपने वंशके साथ शूद्रके समान
है। वह (वास्तवमें) पात्रता (योग्यता)-को नहीं प्राप्त
करता है (अर्थात् वेदाध्ययन करनेवाला वेदार्थ अवश्य
जाने यही तात्पर्य है।)॥ ८२--८४॥
यदि गुरुके पास ही जीवनपर्यन्त रहनेकी इच्छा
हो तो शरीरके अन्त होनेतक बड़ी ही सावधानीपूर्वक
इनकी (गुरुकी) सेवा करनी चाहिये॥ ८५॥
* वेदाध्ययन द्विजको शास्त्राध्ययनके पूर्व अवश्य करना चाहिये, यही तात्पर्य है।
३१८ मम कूर्मपुराण र
गत्वा वन वा विधिवज्जुहुयाजातवेदसम् | अथवा (गुरु, गुरुपत्ली या उनके किसी सपिण्डके
अधीयीत सदा नित्य॑ ब्रह्मनिष्ठ: समाहित: ॥ ८६॥ | न रहनेपर) बनमें जाकर विधिपूर्वक अग्निमें हवन करना
चाहिये और समाहित होकर ब्रह्ममें अत्यन्त निष्ठा रखते
हुए नित्य वेदाभ्यास करना चाहिये। नित्य भस्म-स्रान
सावित्रीं शतरुद्रीयं वेदान्तांश्व विशेषत: | करते हुए गायत्री, शतरुद्रिय और वेदान्त-शास्त्रोंका विशेष
अभ्यसेत् सततं युक्तो भस्मस्नानपरायण: ॥ ८७॥ | रूपसे निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिये॥ ८६-८७॥
एतद् विधान परम पुराणं वेदज्ञानकी प्राप्तिका यह सनातन विधान आप लोगोंको
वेदागमे सम्यगिहेरितं वः। बतलाया गया, प्राचीन कालमें श्रेष्ठ महर्षियोंके पूछनेपर
पुरा महर्षिप्रवराभिपृष्ट: भगवान् स्वायम्भुव मनुने स्वयं ही इसे कहा था। इस
स्वायम्भुवों यन्मनुराह देव: ॥ ८८॥ | प्रकार अपने अन्त:करणको ईश्वरमें समर्पित करके विधानकों
जाननेवाले जो पुरुष इस (ब्रह्मचर्य) विधिका अनुष्ठान
एवमी श्वरसमर्पितान्तरो (यथावत् पालन) करता है, वह क्रमश: समस्त मोह-
योडनुतिष्ठति विधिं विधानवित्। जालका परित्यागकर, अमर होते हुए अनामय शिवपदको
मोहजालमपहाय सोअमृतो प्राप्त करता है तथा अमर हो जाता है अर्थात् ब्रह्मस्वरूप
याति तत् पदमनामयं शिवम्॥ ८९॥ | होकर कृतकृत्य हो जाता है॥८८-८९॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहस्रधां संहितायामुपरिविभागे चतुर्दशोउध्याय: ॥ ९४॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें चौदहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १४॥
पंद्रहवाँ अध्याय
गृहस्थधर्म तथा गृहस्थके सदाचारका वर्णन, धर्माचरण एवं सत्यधर्मकी महिमा
व्यास उवाच व्यासजीने कहा--द्विजो ! द्विजोत्तमको चाहिये कि
वह एक वेद, दो वेद (तीन) वेद अथवा वेदोंका
अध्ययन कर और वेदके अर्थका ज्ञान प्राप्तकर स्नान
(संस्कार-विशेष-- समावर्तन) करे। गुरुको दक्षिणा
निवेदित कर उनकी आज्ञासे स्नान (समावर्तन) करे।
ब्रत (ब्रह्मचर्यत्रत) पूर्णकर उसके फलस्वरूप शक्ति-
बेदं वेदौ तथा वेदान् वेदान् वा चतुरो द्विजा: ।
अधीत्य चाधिगम्यार्थ ततः सत्रायाद द्विजोत्तम: ॥ १॥
गुरवे तु वरं दत्त्वा स्तायीत तदनुज्ञया। सम्पन्न युक्तात्मा द्विज स्नान (समावर्तन)-का अधिकारी
चीर्णब्रतो5थ युक्तात्मा सशक्त: स्नातुमहति।॥ २॥ | होता है॥ १-२॥
बैणवीं धारयेद यहष्टिमन्तर्वासस्तथोत्तरम्। (स्नातकको) बाँसकी छड़ी, कौपीन, धोती
यज्ञोपवीतद्वितयं सोदक॑ च कमण्डलुम्॥ ३॥ | तथा उत्तरीय वस्त्र (चद्दर), दो यज्ञोपवीत, जलपूर्ण
कमण्डलु, छाता, सुन्दर स्वच्छ पगड़ी, खड़ाऊँ, जूता,
दो स्वर्णकुण्डल और वेद (कुशमुष्टि) धारण करना
छत्र॑ चोष्णीषममलं पादुके चाप्युपानहौ। चाहिये तथा केश और नखोंको कटवाकर स्वच्छ
रैक्मे च कुण्डले वेदं कृत्तकेशनख: शुत्ति: ॥ ४॥ | रहना चाहिये॥ ३-४॥
* अध्याय १५ * ३१९
स्वाध्याये नित्ययुक्त: स्याद् बहिर्माल््यं न धारयेत्।
अन्यत्र काश्जनाद विप्रो न रक्तां बिभयात् ्रजम्॥। ५ ॥
शुक्लाम्बरधरो नित्यं सुगन्ध: प्रियदर्शन:।
न जीर्णमलवद्वासा भवेद् वै विभवे सति॥ ६ ॥
न रक्तमुल्बणं चान्यधृतं वासो न कुण्डिकाम्।
नोपानहौ सरत्रजं चाथ पादुके च प्रयोजयेत्॥ ७ ॥
उपवीतमलंकारं दर्भान् कृष्णाजिनानि च।
नापसव्यं परीदध्याद् वासो न विकृतं बसेत्॥ ८ ॥
आहरेद् विधिवद् दारान् सदृशानात्मन: शुभान्।
रूपलक्षणसंयुक्तान् योनिदोषविवर्जितान्॥ ९ ॥
अमातृगोत्रप्रभवामसमानर्पिगोत्रजामू_ ।
आहरेद ब्राह्मणो भार्या शीलशौचसमन्विताम्॥ १०॥
ऋतुकालाभिगामी स्याद् यावत् पुत्रोडभिजायते।
वर्जयेत् प्रतिषिद्धानि प्रयत्नेन दिनानि तु॥ ११॥
षष्ठ्यष्टमीं पञ्नदशी द्वादर्शी च चतुर्दशीम्।
ब्रह्मचारी भवेन्नित्यं तद्दज्जन्मत्रयाहनि॥ १२॥
आदधीतावसश्याग्िनं जुहुयाजञातवेदसम्।
ब्रतानि स्नातको नित्यं पावनानि च पालयेत्॥ १३॥
वेदोदितं स्वकं कर्म नित्यं कुर्यादतन्द्रित: ।
(स्नातकको) नित्य स्वाध्याय करना चाहिये।
केशकलापसे बाहर माला नहीं धारण करनी चाहिये ।
सोनेकी मालाकों छोड़कर ब्राह्मणको रक्तवर्णकी माला
धारण नहीं करनी चाहिये॥५॥
उसे नित्य सफेद एवं स्वच्छ वस्त्र धारण करना
चाहिये तथा सुगन्धित द्रव्य--इत्र आदि धारणकर सदा
सुगन्धयुक्त एवं सुवेशसे प्रियदर्शन होना चाहिये। धन
रहनेपर पुराना और मैला वस्त्र धारण नहीं करना
चाहिये। उद्वेगजननक अधिक लाल और दूसरोंद्वारा
प्रयोग किया हुआ वस्त्र, कमण्डलु, जूता, माला तथा
खड़ाऊँ नहीं धारण करना चाहिये। इसी प्रकार उसे
(स्नातकको) दूसरे द्वारा (प्रयुक्त) यज्ञोपवीत, अलड्डूर,
कुश और कृष्णमृगचर्मको धारण नहीं करना चाहिये ।
अपसव्य नहीं रहना चाहिये, उसे विकृत (कटे-फटे)
वस्त्रोंकी धारण नहीं करना चाहिये॥ ६--८ ॥
अपने समान (कुलके अनुरूप) शुभ, अच्छे रूप
और लक्षणोंसे सम्पन्न, योनि-सम्बन्धी दोषोंसे रहित
पत्नीको विधिपूर्वक ग्रहण करना चाहिये। ब्राह्मण (द्विज)-
को अपनी माताके गोत्रमें जो उत्पन्न न हो तथा जो
अपने आर्ष गोत्रमें उत्पन्न न हो, ऐसी शील और सदाचारसे
सम्पन्न भार्याकों ग्रहण करना चाहिये॥ ९-१०॥
पुत्रके उत्पन्न होनेतक ऋतुकालमें अपनी स्त्रीसे
सहवास करना चाहिये, किंतु निषिद्ध दिनोंका प्रयत्रपूर्वक
त्याग करना चाहिये। षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी, चतुर्दशी,
पूर्णिमाको और इसी प्रकार जन्मदिनसे तीन दिनपर्यन्त
सदा ब्रह्मचर्य धारण करना चाहिये॥ ११-१२॥
आवसश्य (संस्कार-विशेषसे संस्कृत स्मार्त अग्नि)
नामक अग्रिकी स्थापना कर उसमें प्रतिदिन हवन करना
चाहिये और नित्य पवित्र ब्रतोंका पालन करना चाहिये।
बेदमें बतलाये गये अपने कर्मोको नित्य आलस्यरहित
होकर करना चाहिये। इन्हें न करनेपर (स्नातक) शीघ्र
अकुर्वाण: पतत्याशु नरकानतिभीषणान्ू॥ १४॥ | ही अत्यन्त भयंकर नरकोंमें गिरता है॥१३-१४॥
१-मनुस्मृति (४। ७२)-के अनुसार 'बहिर्माल्य'का अर्थ है--केशकलापसे बाहर माला। इसका आशय यह है कि सिरके ऊपर
माला न पहने। सिरके नीचे कण्ठमें माला पहननी चाहिये।
२-दाहिने कंधेके ऊपर तथा बाँयें हाथके नीचे यज्ञोपवीत जब रहता है तब अपसव्य कहा जाता है। ऐसा श्राद्ध आदि विशेष
अवसरपर ही विहित है।
३२०
अभ्यसेत् प्रयतो बेदं महायज्ञान् न हापयेत्।
कुर्याद गृह्माणि कर्माणि संध्योपासनमेव च॥ १५॥।
सख्यं समाधिके: कुर्यादुपेयादी श्वरं सदा।
दैवतान्यपि गच्छेत कुर्याद् भार्याभिपोषणम्॥ १६॥
न धर्म ख्यापयेद विद्वान् न पापं गृहयेदपि।
कुर्वीतात्महितं नित्यं सर्वभूतानुकम्पकः ॥ १७॥
वयस:ः कर्मणो<र्थस्य श्रुतस्याभिजनस्य च।
वेषवाग्बुद्धिसारूप्यमाचरन् विचरेत् सदा॥ १८ ॥
श्रुतिस्मृत्युदित: सम्यक् साधुभिर्यश्व सेवित: ।
तमाचारं निषेवेत नेहेतान्यत्र कहिंचित्॥ १९॥
येनास्य पितरो याता येन याता: पितामहा: ।
तेन यायात् सतां मार्ग तेन गच्छन् न रिष्यति॥ २०॥
नित्य॑ स्वाध्यायशील: स्यान्नित्यं यज्ञोपवीतवान्।
सत्यवादी जितक्रोधो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ २१॥
संध्यास्तानपरो नित्यं ब्रह्मयज्ञपरायण: |
अनसूयो मृदुर्दान्तो गृहस्थः प्रेत्य वर्धते॥ २२॥
बवीतरागभयक्रोधोी लोभमोहविवर्जितः ।
सावित्रीजाप्यनिरत: श्राद्धकृन्मुच्यते गृही॥ २३॥
मातापित्रोर्दिते युक्तो गोब्नाह्मणहिते रतः।
दान्तो यज्वा देवभक्तो ब्रह्मलोके महीयते॥ २४॥
त्रिवर्ससेवी सततं देवतानां च पूजनम्।
कुर्यादहरहर्नित्यं नमस्थेत् प्रयतः सुरान्॥ २५॥
* कूर्मपुराण *
प्रय्रपूर्वक वेदोंका अभ्यास करे। (पशञ्च) महायज्ञोंका
परित्याग न करे। अपने गृह्मसूत्रोंमें प्रतिपादित कर्मोंको
करे और संध्योपासन कर्म करे॥ १५॥
अपने समान अथवा श्रेष्ठ व्यक्तिसे मित्रता करे।
ईश्वरकी आराधना करे। देवताओंकी भी पूजा करे और
अपनी भार्याका भलीभाँति पोषण करे। दिद्वान् व्यक्तिको
चाहिये कि (अपने द्वारा अनुष्ठित) धर्मका वर्णन न
करे और न अपने द्वारा किये गये पापको ही छिपाये।
आत्मकल्याणका प्रयत्न करे और सदैव सभी प्राणियोंपर
दया करे। अपनी अवस्था, कर्म, सम्पत्ति, ज्ञान और
कुलके अनुसार सदा वेष धारण करे तथा संयत-वाणी
और बुद्धिसे यथोचित आचरण करते हुए लौकिक
व्यवहारका निर्वाह करे। वेदों तथा धर्मशास्त्रोंमें जो
कहा गया हो और जो सत्पुरुषोंसे भलीभाँति अनुप्ठित
हो, उसी सदाचारका पालन करना चाहिये। इसके
अतिरिक्त कभी भी दूसरे आचारका पालन नहीँ
करना चाहिये॥ १६--१९॥
यदि शास्त्रोंसे अपने मार्गका निर्धारण करनेमें किसी
कारण असामर्थ्य हो तो (शास्त्रोक्त) जिस मार्गसे माता-
पिता गये हों और पितामह आदिने जिस मार्गका
अवलम्बन किया हो, उसी मार्गका स्वयं भी अनुसरण
करना चाहिये। यही सज्जनोंका मार्ग है। इस मार्गका
अवलम्बन करनेवालेका पतन नहीं होता॥ २०॥
नित्य स्वाध्यायपरायण रहे, नित्य यज्ञोपवीत धारण
किये रहे। सत्य बोलनेवाला एवं क्रोधपर विजय प्राप्त
करनेवाला, ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। नित्य स्नान और
संध्या करनेवाला, ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याय)-परायण रहनेवाला,
असूयारहित, मृदु तथा जितेन्द्रिय गृहस्थ परलोकमें
अभ्युदय प्राप्त करता है। राग, भय और क्रोधसे रहित,
लोभ एवं मोहसे शून्य, गायत्रीके जपमें तत्पर रहनेवाला
और श्राद्ध करनेवाला गृहस्थ मुक्त हो जाता है। माता,
पिता, गौ और ब्राह्मणके हित करनेमें निरत रहनेवाला,
जितेन्द्रिय, यजन करनेवाला तथा देवताओंका भक्त
ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा प्रात करता है। निरन्तर (धर्म, अर्थ
एवं कामरूप) त्रिवर्गका पालन और देवताओंका पूजन
करना चाहिये तथा प्रयत्रपूर्वक नित्य देवताओंको
नमस्कार करना चाहिये॥ २१--२५॥
* अध्याय १५५७५ *
विभागशील: सततं क्षमायुक्तो दयालुक: ।
गृहस्थस्तु समाख्यातो न गृहेण गृही भवेत्॥ २६॥
क्षमा दया च विज्ञान सत्यं चैव दम: शम:।
अध्यात्मनिरतं ज्ञानमेतद् ब्राह्मणलक्षणम्॥ २७॥
एतस्मान्न प्रमादेत विशेषेण द्विजोत्तमः।
यथाशक्ति चरन् कर्म निन्दितानि विवर्जयेत्॥ २८ ॥
विधूय मोहकलिलं लब्ध्या योगमनुत्तमम्।
गृहस्थो मुच्यते बन्धात् नात्र कार्या विचारणा॥ २९॥
विगहातिक्रमाक्षेपहिंसाबन्धवधात्मनाम् ।
अन्यमन्युसमुत्थानां दोषाणां मर्षणं क्षमा॥ ३०॥
स्वदुःखेष्विव कारुण्यं परदुःखेषु सौहदात्।
दयेति मुनयः प्राहु: साक्षाद धर्मस्य साधनम्॥ ३९ ॥
चतुर्दशानां विद्यानां धारणं हि यथार्थतः।
विज्ञानमिति तद् विद्याद येन धर्मों विवर्धते॥ ३२॥
अधीत्य विधिवद् विद्यामर्थ चैबोपलभ्य तु।
धर्मकार्यत्रिवृत्तश्चेन्न तद् विज्ञानमिष्यते॥ ३३॥
सत्येन लोकाझ्जयति सत्यं तत्परमं पदम।
यथाभूतप्रवादं तु सत्यमाहुर्मनमीषिण: ॥ ३४॥
दमः शरीरोपरम: शमः प्रज्ञाप्रसादज: |
अध्यात्ममक्षरं विद्याद् यत्र गत्वा न शोचति॥ ३५॥
३२१
अपनी सम्पत्तिका (शास्त्रानुसार यथायोग्य) सदा
विभाग करनेवाला, क्षमावान, दयायुक्त व्यक्ति ही
गृहस्थ कहलाता है। केवल गृहमें रहनेसे कोई गृहस्थ
नहीं कहलाता। क्षमा, दया, विशिष्ट ज्ञान (लौकिक
एवं शास्त्रीय ज्ञान), सत्य, दम, शम और अध्यात्मज्ञानमें
निरत होना-यह ब्राह्मणका लक्षण है। यथाशक्ति
(विहित) कर्मोको करते हुए निन्दित कर्मोंका परित्याग
करना चाहिये॥ २६--२८ ॥
विशेषरूपसे श्रेष्ठ द्विजको इस सम्बन्धमें प्रमाद नहीं
करना चाहिये। मोहरूपी कल्मषको धोकर और श्रेष्ठ
योगको प्राप्तकर गृहस्थ बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
इसमें संशय नहीं करना चाहिये। दूसरेके क्रोधसे उत्पन्न
अपनी निन्दा, अनादर, दोषारोपण, हिंसा, बन्धन और
ताड़नस्वरूप दोषोंकों सहना ही क्षमा है॥ २९-३० ॥
सौहार्दवश अपने दुःखके समान ही दूसरोंके
दुःखमें उनके प्रति करुणाभावको मुनियोंने 'दया' इस
नामसे कहा है। यह धर्मका साक्षात् साधन है। चौदह'
विद्याओंको यथार्थरूपसे धारण करनेको ही विज्ञान
समझना चाहिये। इससे धर्मकी वृद्धि होती है। विधिपूर्वक
विद्याको ग्रहण कर लेने और उसके अर्थकों भलीभाँति
जान लेनेपर भी यदि (कोई व्यक्ति) धर्म-कार्योंसे
निवृत्त (विरत) रहता है, उन्हें नहीं करता तो उसका
वह (अध्ययन) विज्ञान नहीं कहलाता है॥ ३१--३३ ॥
सत्यके आचरणसे लोकोंपर विजय प्राप्त होती है,
सत्य ही वह (सर्वोच्च) परमपद है। जो जैसा है उसका
उसी रूपमें कथन ही मनीषियोंने सत्य कहा है।
शरीरका उपरम (शरीरकी चेष्टाओंका नियन्त्रण अर्थात्
इन्द्रियोंका निग्रह) दम है और शम (मनका नियन्त्रण)
प्रज्ञा (प्रकृष्ट ज्ञा)-के विशद अवभाससे उत्पन्न होता
है। अध्यात्म (आत्म-सम्बन्धी) ज्ञानको ही अविनश्वर
तत्व समझना चाहिये जहाँ पहुँचनेपर शोक नहीं
होता॥ ३४-३५ ॥
१-सम्पत्तिका पाँच भाग--( १) धर्मके लिये, (२) यशके लिये, (३) सम्पत्तिको बढ़ानेके लिये, (४) अपने भोगके लिये,
(५) स्वजनके लिये--करनेसे इस लोक तथा परलोकमें सुख प्राप्त होता है।
२-चार वेद, छ: वेदाड़ (-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुछ्त, ठन्द:शास्त्र, ज्योतिष), पुराण, न्यायशास्त्र, मीमांसा और
धर्मशास्त्र--ये चौदह विद्याएँ हैं।
३३२२ हम कूर्मपुराण मे
यया स देवो भगवान् विद्यया वेद्यते परः।
साक्षाद देवो महादेवस्तज्ज्ञानमिति कीर्तितम्॥ ३६॥।
तन्निष्ठस्तत्परो दिद्वान्नित्यमक्रोधन: शुचि:।
महायज्ञपरो विप्रो लभते तदनुत्तमम्॥ ३७॥
धर्मस्यायतनं यत्राच्छरीर॑ परिपालयेत्।
न हि देहं विना रुद्र: पुरुषैर्विद्यते पर:॥ ३८॥
नित्यं धर्मार्थकामेषु युज्येत नियतो द्विज:।
न धर्मवर्जितं काममर्थ वा मनसा स्मरेत्॥ ३९॥
सीदन्नपि हि धर्मेण न त्वधर्म समाचरेत्।
धर्मों हि भगवान् देवो गति: सर्वेषु जन्तुषु॥ ४०॥
भूतानां प्रियकारी स्यथात् न परद्रोहकर्मधी: ।
न वेददेवतानिन्दां कुर्यात् तैश्व न संवसेत्॥ ४१॥
यस्त्विमं नियतं विप्रो धर्माध्यायं पठेच्छुचि: ।
अध्यापयेत् श्रावयेद् वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ ४२॥
जिस विद्याके द्वारा वे परात्पर देवाधिदेव साक्षात्
भगवान् महादेव जाने जाते हैं, उसे ही ज्ञान कहां गया
है। उनमें निष्ठा रखनेवाला, उनके परायण रहनेवाला,
कभी भी क्रोध न करनेवाला, पवित्र, (पञ्ञ) महायज्ञोंको
करनेवाला विद्दान् विप्र उस श्रेष्ठ तत्त्वको प्राप्त करता
है। धर्मके आयतन इस शरीरका प्रयत्रपूर्वक पालन
करना चाहिये। बिना देहके मनुष्य उस परात्पर रुद्रको
नहीं जान सकता। नियत (संयत) द्विजको नित्य धर्म,
अर्थ एवं कामकी साधनामें लगे रहना चाहिये। धर्मपे
रहित काम अथवा अर्थका मनसे भी स्मरण नहीं करा
चाहिये। धर्मके पालनमें कष्ट पाते हुए भी (उसका
परित्यागकर) अधर्मका आचरण नहीं करना चाहिये।
धर्मदेवता ही सभी प्राणियोंक भगवान् और गति हैं।
(इसलिये) प्राणियोंका प्रिय करनेवाला बनना चाहिये।
दूसरोंसे द्रोह करनेकी बुद्धिवाला नहीं होना चाहिये।
बेदकी तथा देवताओंकी निन््दा नहीं करनी चाहिये और
(जो इनकी निनन््दा करता है) उसके साथ रहना (भी)
नहीं चाहिये॥ ३६--४१ ॥
जो विप्र पवित्रतापूर्वक नित्य इस धर्माध्यायका
अध्ययन, अध्यापन अथवा उपदेश करता है, वह
ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा प्रात करता है॥४२॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्थां संहितायामुपरिविभागे पञ्रदशोउध्याय: ॥ १५ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें पंद्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १५॥
* अध्याय १६ *
३२३
सोलहवाँ अध्याय
सदाचारका वर्णन
व्यास उवाच
न हिंस््थात् सर्वभूतानि नानृतं वा वदेत् क्वचित्।
नाहित॑ नाप्रियं वाक्य न स्तेन: स्थाद् कदाचन ॥ १॥
तृणं वा यदि वा शाकं मृदं वा जलमेव वा।
परस्थापहरञझ्जन्तुर्नरकं प्रतिपद्यते ॥॥ २॥
न राज्ञः प्रतिगृह्नीयात्र शूद्रपतितादपि।
न चान्यस्मादशक्तश्च निन्दितान् वर्जयेद् बुध: ॥ ३ ॥
नित्यं याचनको न स्यात् पुनस्तं नेव याचयेत् ।
प्राणानपहरत्येव॑ याचकस्तस्य दुर्मतिः ॥ ४॥
न देवद्रव्यहारी स्यथाद् विशेषेण द्विजोत्तम:।
ब्रहास्व॑ वा नापहरेदापद्यपि कदाचन॥ ५॥।
न विषं विषमित्याहुब्रह्मस्व॑ विषमुच्यते।
देवस्वं चापि यत्नेन सदा परिहरेत् ततः॥६॥
पुष्पे शाकोदके काष्ठे तथा मूले फले तृणे।
अदत्तादानमस्तेयं मनु: प्राह प्रजापति:॥ ७॥
ग्रहीतव्यानि पुष्पाणि देवार्चनविधौ द्विजा:।
नेकस्मादेव नियतमननुज्ञाय_ केवलम्॥ ८ ॥
तृणं काष्ठं फल॑ पुष्यं प्रकाशं वै हरेद् बुध: ।
व्यासजीने कहा--किसी भी प्राणीकी हिंसा नहीं
करनी चाहिये और कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिये।
अहितकर और अप्रिय वचन नहीं बोलना चाहिये और
कभी भी चोरी नहीं करनी चाहिये। दूसरेके तृण, शाक,
मिट्टी अथवा जलका भी अपहरण करनेवाला प्राणी
नरक प्राप्त करता है। राजा, शूद्र तथा पतित व्यक्तिसे
दान नहीं लेना चाहिये। अशक्त होनेपर भी दूसरेसे
याचना नहीं करनी चाहिये। दिद्वान् व्यक्तिको निन्दितों
(पापमें रत)-का परित्याग करना चाहिये॥ १--३ ॥
नित्य याचना करनेवाला नहीं होना चाहिये और
एक ही व्यक्तिसे दुबारा नहीं माँगना चाहिये। याचना
करनेवाला दुर्बुद्धि व्यक्ति (दाताके) प्राणोंका ही हरण'
करता है। विशेषरूपसे श्रेष्ठ ब्राह्मणको देवसम्बन्धी द्रव्यका
अपहरण नहीं करना चाहिये। आपत्ति पड़नेपर भी
ब्राह्णणफे धनका कभी भी अपहरण न करे॥ ४-५॥
विषको विष नहीं कहा जाता बल्कि ब्राह्मणका
धन ही विष-रूप है। इसी प्रकार देवसम्बन्धी स्वत्वका
भी प्रयत्रपूर्वक सदा त्याग करना चाहिये। प्रजापति मनुने
पुष्प, शाक, जल, लकड़ी, मूल, फल तथा तृण--
इन सभी पदार्थोको (इनके स्वामीद्वारा) बिना दिये ग्रहण
कर लेनेको अस्तेय कहा है (अर्थात् पुष्प, शाक आदि
यदि दूसरेके हैं तब भी अत्यावश्यक होनेपर धर्मार्थ
या प्राणरक्षार्थ इनका प्रयोजनानुसार ग्रहण करनेपर
चोरीका दोष नहीं लगता) ॥ ६-७॥
द्विजो! देवपूजाके लिये अन्य स्वामीका पुष्प
ग्रहण किया जा सकता है। परंतु केवल एक ही
स्थानसे बिना आज्ञाके प्रतिदिन पुष्प नहीं ग्रहण करना
चाहिये। विप्रो! विद्वान् व्यक्ति केवल धर्मकार्यके
लिये तृण, काष्ठ, फल, पुष्प प्रकट-रूपसे ग्रहण कर
सकता है, अन्य प्रकारसे ग्रहण करनेपर वह पतित
धर्मार्थ केवलं विप्रा हान्यथा पतितो भवेत्॥ ९॥ | हो जाता है॥८-९॥
१-राजासे दान लेनेपर तेजका हास होता है--'राजान्नं हरते तेज: '।
२-पुन:-पुन: याचनासे दाताको कष्ट होना स्वाभाविक है। अत: यहाँ दाताके प्राण-हरणसे तात्पर्य कष्ट पहुँचानेसे है।
३२४
* कूर्मपुराण *
तिलमुदगयवादीनां मुष्टिग्राह्मा पथि स्थित: ।
ब्राह्मणो। धर्म जाननेवालोंने यह मर्यादा स्थिर की
क्षुधातैर्नान्यथा विप्रा धर्मविद्धिरिति स्थिति: ॥ १०॥ | है कि केवल भूखसे पीड़ित व्यक्ति रास्तेमें स्थित तिल,
न धर्मस्यापदेशेन पापं कृत्वा ब्रतं चरेत्।
ब्रतेन पाप॑ प्रच्छाद्य कुर्वन् स्त्रीशूद्रदम्भनम्॥ ११॥
प्रेत्येह चेदृूशो विप्रो गहाते ब्रह्मवादिभि:।
छद्वानाचरितं यच्च ब्रतं रक्षांसि गच्छति॥ १२॥
अलिड्डी लिड्रिवेषेण यो वृत्तिमुपजीवति।
स लिड़्रिनां हरेदेनस्तिर्यग्योनौ च् जायते॥ १३॥
बैडालब्रतिन: पापा लोके धर्मविनाशका:।
सद्यः पतन्ति पापेषु कर्मणस्तस्य तत् फलम्॥ १४॥
पाषण्डिनो विकर्मस्थान् वामाचारांस्तथेव च।
पाछ्वरात्रान् पाशुपतान् वाड्मात्रेणापि नार्चयेत्॥ १५॥
बेदनिन्दारतान् मर्त्यान् देवनिन्दारतांस्तथा।
द्विजनिन्दारतांश्चैव मनसापि न चिन्तयेत्॥ १६॥
याजनं योनिसम्बन्धं सहवासं च भाषणम्।
कुर्वाण: पतते जन्तुस्तस्माद् यत्नेन वर्जयेत् ॥ १७॥
देवद्रोहाद गुरुद्रोहः कोटिकोटिगुणाधिक: ।
ज्ञानापवादो नास्तिक्यं तस्मात् कोटिगुणाधिकम्॥ १८ |
मूँग तथा यव आदि पदार्थोंको एक मुट्ठी मात्र ग्रहण
कर सकता है। दूसरे जो भूखसे पीड़ित नहीं हैं, ऐसा
नहीं कर सकते॥ १०॥
पाप करके धर्मके बहाने किसी ब्रतका अनुष्ठान
नहीं करना चाहिये। ब्रतके द्वारा पापको छिपाकर जो
स्त्री और शूद्रोंका प्रवद्चन करता है, वह विप्र इहलोक
तथा परलोकमें ब्रह्मवादियोंद्वारा निन्दित होता है।
छलके द्वारा किया गया ब्रत राक्षसोंको प्राप्त होता
है॥ ११-१२॥
यदि (यज्ञोपवीतादि) लिड्रका अनधिकारी व्यक्ति
इन लिड्रों (चिह्नों-लक्षणों )-को धारणकर वेष बनाकर
जीविकाका निर्वाह करता है तो वह इन लिड्रोंके वास्तविक
अधिकारी पुरुषोंके पापोंका भागी होता है और तिर्यक्
(पक्षी आदि) योनिको प्राप्त करता है। लोकमें धर्मके
विनाशक वैडालब्रती' (ढोंगी) पापी लोग शीघ्र ही
पापयोनिमें जाते हैं। उनके दुष्कर्मका यही फल है।
पाखंडी (वेदशास्त्राननुमत-ब्रत लिड्रधारी), निषिद्ध कर्म
करनेवाले, वाममार्गी, पाझरात्र और पाशुपत ब्रतवालोंका
वाणीमात्रसे भी सत्कार नहीं करना चाहिये ॥ १३--१५॥
वेदकी निन्दामें परायण, देवताओंकी निन््दामें निरत
और ब्राह्मणोंकी निन््दा करनेमें संलग्र मनुष्योंका मनसे
भी चिन्तन नहीं करना चाहिये। इनका यज्ञ कराना,
इनके साथ विवाह आदि (योनि)-का सम्बन्ध, सहवास
तथा बात करनेसे प्राणी पतित हो जाता है, अतः
प्रयत्॒पूर्वक इनका परित्याग करना चाहिये। देवताके
द्रोहसे गुरुका द्रोह करोड़ों गुना अधिक दोषपूर्ण
होता है। उस गुरुद्रोहसे भी शास्त्रीय ज्ञानकी निन्दा
करना और नास्तिकताका भाव करोड़ गुना अधिक
दोषपूर्ण है॥ १६--१८॥
-विडालकब्रतसे जो अपनी जीविका चलाता है वह वैडालब्रती है। इसका आशय यह है कि जैसे विडाल (बिल्ली) मूषक आदिकों
पकड़कर खानेके लिये ध्याननिष्ठकी तरह विनीतकी भाँति बैठता है, वैसे ही जो दूसरोंको धोखा देकर अपने स्वार्थकी सिद्धिमात्रके
लिये ध्यान, विनयभाव आदिका स्वॉग रचता है, वह वैडालब्रती है।
२-अतिथि-सत्कारकालमें इनके उपस्थित होनेपर अतिथिके समान इनका सत्कार नहीं करना चाहिये। जो लोग आदर योग्य नही
हैं, उन्हें भी जीविका-निर्वाहके लिये यथाशक्ति देनेका विधान होनेसे जीवनोपयोगी वस्तु देनेका निषेध यहाँ नहीं है।
* अध्याय १६ *
गोभिश्व दैवतैर्विप्रे: कृष्या राजोपसेवया।
कुलान्यकुलतां यान्ति यानि हीनानि धर्मत: ॥ १९॥
कुविवाहै: क्रियालोपैर्वेदानध्ययनेन च।
कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च॥ २० ॥
अनुतात् पारदार्याच्च तथाभक्ष्यस्य भक्षणात्।
अश्रौतधर्माचरणात् क्षिप्रं नश्यति वै कुलम्॥ २१॥
अश्रोत्रियेषु वे दानाद् वृषलेषु तथेव च।
विहिताचारहीनेषु क्षिप्रं नश्यति वे कुलम्॥ २२॥
नाधार्मिकेर्व॒ते ग्रामे न व्याधिबहुले भुशम्।
न शूद्रराज्ये निवसेन्न पाषण्डजनेर्व॑ते॥ २३॥
हिमवद्विन्ध्ययोर्म ध्ये पूर्वपश्चिमयो: शुभम् |
मुक्त्वा समुद्रयोर्देशं नान्यत्र निवसेद् द्विज: ॥ २४॥
कृष्णो वा यत्र चरति मृगो नित्यं स्वभावत: ।
पुण्याश्च विश्रुता नद्यस्तत्र वा निवसेद् द्विज:॥ २५॥
अर्धक्रोशान्नदीकूलं वर्जयित्वा द्विजोत्तम:।
नान््यत्र निवसेत् पुण्यं नान्त्यजग्रामसंनिधौ॥ २६॥
न संवसेच्च पतितैर्न चण्डालेर्न पुक्कसे:।
न मूर्खेर्नावलिपैश्व नान्त्यैर्नान््यावसायिभि: ॥ २७॥
एकशब्यासनं पड्रक्तिर्भाण्डपक्वान्नमिश्रणम् |
याजनाध्यापने योनिस्तथेव सहभोजनम्॥ २८ ॥
सहाध्यायस्तु दशमः सहयाजनमेव च।
एकादश समुद्दिष्टा दोषा: साड्डूर्यसंज्ञिता:॥ २९॥
समीपे वा व्यवस्थानात् पाप॑ संक्रमते नृणाम् ।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन साड्डर्य परिवर्जयेत्॥ ३०॥
३२५
गायसे, देवताओंसे, ब्राह्मणोंसे, कृषिसे तथा राजाकी
सेवासे जीविका-निर्वाह करनेवाले व्यक्तियोंका कुल दोषपूर्ण
हो जाता है; क्योंकि ये वृत्तियाँ धर्मकी दृष्टिसे हीन
वृत्तियाँ हैं। कुविवाह, (नित्य अथवा धार्मिक) क्रियाओंका
लोप, वेदोंके अध्ययन न करने और ब्राह्मणोंके अनादर
करनेसे कुल दोषपूर्ण हो जाता है॥१९-२०॥
झूठ बोलने, परदाराभिगमन, अभक्ष्य-भक्षण और
वेदविरुद्ध धर्मॉका आचरण करनेसे कुल शीघ्र ही नष्ट
हो जाता है। अश्रोत्रिय, शूद्र तथा विहित आचारसे रहित
(ट्विज)-को दान देनेसे दाताका कुल शीघ्र ही नष्ट
हो जाता है॥२१-२२॥
अधार्मिकों तथा पाखंडीजनोंसे युक्त और अत्यधिक
रोगसे आक्रान्त ग्राममें तथा शूद्रके राज्यमें निवास नहीं
करना चाहिये। द्विजको चाहिये कि वह हिमालय एवं
विन्ध्यपर्वतके मध्यके देश और पूर्व तथा पश्चिम दिशाके
समुद्रके तटवर्ती शुभ प्रदेशको छोड़कर अन्यत्र निवास
नहीं करे। अथवा जहाँ स्वाभाविकरूपसे नित्य कृष्ण
(कृष्णसार मृग--जातिविशेषके मृग) मृग विचरण करते
हों और जहाँ वेदशास्त्र-प्रसिद्ध पुण्यजलवाली नदियाँ प्रवाहित
होती हों, द्विजको वहाँ निवास करना चाहिये॥ २३--२५॥
श्रेष्ठ द्विजको नदीके किनारेसे आधे कोसतककी
भूमिका परित्यागकर अन्य किसी पवित्र स्थानपर नहीं
रहना चाहिये और न अनत्यजोंके ग्रामके समीपमें रहना
चाहिये। पतित, चण्डाल, पुक्कस, मूर्ख, अभिमानी (धन
आदिके मदसे गर्वित), अन्त्यज (म्लेच्छ, रजक आदि)
और अन्त्यावसायीके साथ नहीं रहना चाहिये*। (इनके
साथ) एक शय्यापर और एक आसनपर बैठना, एक
पंक्तिमें बैठकर भोजन करना, बरतनों और पके हुए
भोजनका मेल (मिश्रण, परस्पर आदान-प्रदान), यज्ञ
करना, अध्यापन, विवाहादिका सम्बन्ध, साथमें भोजन
करना और दसवाँ साथमें अध्ययन करना तथा साथमें
यज्ञ कराना--ये ग्यारह 'सांकर्य' नामवाले दोष बतलाये
गये हैं। इन सांकर्य-दोषयुक्त व्यक्तियोंके समीपमें भी
रहनेसे मनुष्यमें पापका संक्रमण हो जाता है। अतः
सभी प्रकारके प्रयत्ञोंसे सांकर्य (दोष)-का परित्याग
करना चाहिये॥ २६--३० ॥
* यहाँ घृणाका भाव नहीं है। जन्मान्तरकृत कर्मोंक आधारपर यह केवल एक व्यवस्था है।
३२८६ * कूर्मपुराण *
एकपडक््त्युपविष्टा ये न स्पृशन्ति परस्परम् । एक पंक्तिमें बैठे रहनेपर भी जो एक-दूसरेका
भस्मना कृतमर्यादा न तेषां संकरो भवेत्॥ ३१॥
अग्निना भस्मना चेव सलिलेनावसेकतः ।
द्वारेण स्तम्भमार्गेण षड्भि: पद्क्तिविभिद्यते॥ ३२॥
न कुर्याच्छुष्कवैराणि विवादं न च पेशुनम् ।
परक्षेत्रे गां धयन्तीं न चाचक्षीत कस्यचित्।
न संवदेत् सूतके च न कझ्ञिन्मर्मणि स्पृशेत्॥ ३३ ॥
न सूर्यपरिवेषं वा नेन्द्रचापं शवाग्निकम्।
परस्मै कथयेद विद्वान शशिनं वा कदाचन॥ ३४॥
न कुर्याद बहुभि: सार्ध विरोध॑ बन्धुभिस्तथा ।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥ ३५॥
तिथिं पक्षस्य न ब्रूयात् न नक्षत्राणि निर्दिशेत्।
नोदक्यामभिभाषेत नाशुचिं वा द्विजोत्तम: ॥ ३६॥
न देवगुरुविप्राणां दीयमानं तु वारयेत्।
न चात्मान॑ प्रशंसेद वा परनिन्दां च वर्जयेत्।
बेदनिन्दां देवनिन्दां प्रयत्तेन विवर्जयेत्॥ ३७॥
यस्तु देवानृषीन् विप्रान् वेदान् वा निन्दति द्विज: ।
न तस्य निष्कृतिर्दृष्टा शास्त्रेष्विह मुनी ध्वरा: ॥ ३८ ॥
निन्दयेद बे गुरुं देवं बेदं वा सोपबृंहणम्।
कल्पकोटिशतं साग्र॑ रौरबवे पच्यते नरः॥ ३९॥
तृष्णीमासीत निन्दायां न ब्रूयात् किंचिदुत्तरम् ।
कर्णों पिधाय गन्तव्यं न चेतानवलोकयेतू॥ ४०॥
वर्जयेद वे रहस्यानि परेषां गूहयेद् बुध: ।
विवादं स्वजनै: सार्ध न कुर्याद वै कदाचन॥ ४१।
स्पर्श नहीं करते हों और बीचमें भस्मके द्वारा रेखारूप
मर्यादा खींचे हों, उनमें सांकर्य-दोष नहीं होता। अग्नि,
भस्म, जलके छिड़काव, द्वार, स्तम्भ तथा मार्ग-इन
छ:के द्वारा पंक्तिका खंडन हो जाता है। अकारण शत्रुता,
विवाद तथा चुगुलखोरी नहीं करनी चाहिये। दूसरेके
खेतमें चरती हुई गायको किसीको बतलाना नहीं
चाहिये। सूतक (अशौच)-युक्त व्यक्तिसे बात न करे
और किसीके भी मर्मका स्पर्श" न करे॥ ३१--३३॥
दिद्वान् व्यक्ति दूसरोंको सूर्यमण्डल, इन्द्रधनुष, चिताग्रि
तथा चन्द्रमा (चन्द्रमण्डल) न बतलाये, न दिखलाये।
बहुत लोगोंक साथ और बन्धु-बान्धवोंके साथ विरोध
नहीं करना चाहिये | स्वयंके प्रति जैसा आचरण प्रतिकूल
हो, वैसा आचरण दूसरोंके प्रति न करे॥ ३४-३५॥
पक्षकी तिथिको न कहे, न नक्षत्रोंका निर्देश करे।
श्रेष्ठ द्विज रजस्वला स्त्रीसे बात न करे और न हो
अपवित्र व्यक्तिसे बात करे। देवता, गुरु तथा ब्राह्मणोंको
दी जा रही वस्तुका निषेध न करे। अपनी प्रशंसा न करे
और दूसरेकी निन्दाका त्याग करे। वेदनिन्दा तथा देवनिन्दाका
प्रयत्नपूर्वक (सर्वथा) परित्याग करे॥ ३६-३७॥
मुनीधरो! जो द्विज देवताओं, ऋषियों, ब्राह्मणों
अथवा वेदोंकी निन््दा करता है, उसके लिये इस लोकमें
कोई प्रायश्वित्त शास्त्रोंमें दिखलायी नहीं देता। गुरु,
देवता, वेद, उपबंहण (इतिहास-पुराण)-कौ निन््दा
करनेवाला व्यक्ति सैकड़ों, करोड़ों वर्षोसे भी अधिक
समयतक रौरव नरकमें कष्ट भोगता है। (देवता, शास्त्र
आदिकी) निन्दा होनेपर (यदि उत्तर देनेका सामर्थ्य
न हो तो) चुपचाप रहना चाहिये, उत्तरमें (दुराग्रहीसे)
कुछ भी नहीं बोलना चाहिये। अथवा उस समय कान
बंदकर अन्यत्र चला जाय और उन निन्दकोंकी ओर
देखे भी नहीं॥ ३८--४० ॥
विद्वान् व्यक्तिको दूसरोंके रहस्योंको जाननेका प्रयास
नहीं करना चाहिये और (जाननेपर) उन्हें छिपाना
चाहिये। अपने आत्मीय जनोंके साथ कभी भी विवाद
नहीं करना चाहिये॥ ४१॥
# मर्मस्पर्शका तात्पर्य है--किसीके रहस्यको प्रकाशित कर उसे पीड़ा पहुँचाना।
* अध्याय ९६ *
न पापं पापिनां ब्रूयादपापं वा द्विजोत्तमा:।
स तेन तुल्यदोष: स्यान्मिथ्या द्विदोषवान् भवेत्॥ ४२ ॥
यानि मिथ्याभिशस्तानां पतन्त्यश्रूणि रोदनात्।
तानि पुत्रान् पशून् प्लन्ति तेषां मिथ्याभिशंसिनाम्॥ ४३ ॥
ब्रह्महत्यासुरापाने स्तेयगुर्वड्रनागमे |
वृष्ट विशोधनं वद्धैर्नास्ति मिथ्याभिशंसने।॥ ४ड४॥
नेक्षेतोद्यन्तमादित्य॑ शशिनं चानिमित्ततः।
नास्तं यान्तं न वारिस्थं नोपसृष्टे न मध्यगम्।
तिरोहितं वाससा वा नादर्शानतरगामिनम्॥ ४५॥।
न नग्न स्त्रियमीक्षेत पुरुषं वा कदाचन।
न च मूत्र पुरीषं वा न च संस्पृष्टमैथुनम्।
नाशुचि: सूर्यसोमादीन् ग्रहानालोकयेद् बुध: ॥ ४६॥।
पतितव्यड्रचण्डालानुच्छिष्टानू नावलोकयेत्
नाभिभाषेत च परमुच्छिष्टो वावगुण्ठित:॥ ४७॥
न पश्येत् प्रेतसंस्पर्श न क्रुद्धस्य गुरोर्मुखम् ।
न तैलोदकयोश्छायां न पत्नीं भोजने सति।
नामुक्तबन्धनाड्ं वा नोन्मत्तं मत्तमेव वा॥ ४८॥
नाश्नीयात् भार्यया सार्ध नेनामीक्षेत चाशनतीम्
क्षुवन्ती जुम्भमाणां वा नासनस्थां यथासुखम्॥ ४९॥
नोदके चात्मनो रूप॑ न कूलं श्रभ्रमेव वा।
न लड्डयेच्च मूत्रं वा नाधितिष्ठेत् कदाचन॥ ५०॥
३२७
हे द्विजोत्तमो। पापियोंके पापकी चर्चा न करे, न
अपाप (पापरहित)-पर पापी होनेका आरोप लगाये,
क्योंकि ऐसा करनेसे वह उसी (पापी)-के समान
दोषयुक्त होकर तथा मिथ्याभिभाषणरूप दोषसे युक्त*
होकर दो दोषोंका भागी हो जाता है। मिथ्या दोषारोपणयुक्त
व्यक्तियोंके रोनेसे जो अश्रुविन्दु गिरते हैं, वे मिथ्या
दोषारोपण करनेवाले व्यक्तिके पुत्रों तथा पशुओंका नाश
कर देते हैं। ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी और गुरुपत्रीगमन--
इन महापापोंकी शुद्धि वृद्धजनोंद्वारा देखी गयी है
(अर्थात् बतायी गयी है), किंतु मिथ्या दोषारोपण
करनेवालेकी कोई शुद्धि नहीं है अर्थात् इनकी शुद्धिका
कोई उपाय नहीं हे॥४२--४४॥
बिना किसी प्रयोजनके उगते हुए सूर्य और
चन्द्रमाको नहीं देखना चाहिये। (ऐसे ही अकारण)
अस्त होते हुए, जलमें प्रतिबिम्बित, आकाशके मध्य
स्थित, ग्रहणयुक्त, वस्त्राच्छादित अथवा दर्पण आदिमें
प्रतिबिम्बित सूर्य-चन्द्रमाको नहीं देखना चाहिये॥ ४५ ॥
नग्न स्त्री अथवा पुरुषको कभी भी न देखे। मल-
मूत्र विसर्जित कर रहे तथा मैथुनासक्त व्यक्तिको न
देखे। बुद्धिमान् व्यक्तिको अपवित्रताकी स्थितिमें सूर्य-
चन्द्रमा आदि ग्रहोंको नहीं देखना चाहिये। पतित,
विकलाड़्, चाण्डाल एवं उच्छिष्ट (मुखवाले) व्यक्तियोंको
नहीं देखना चाहिये। उच्छिष्ट दशामें अथवा मुख
ढककर दूसरेसे बात नहीं करनी चाहिये। शवका स्पर्श
किये हुए व्यक्तिको (जबतक ख्रानादिसे शुद्ध नहीं हो
जाता है तबतक), क्रुद्ध गुरुक मुखको, तेल या जलमें
पड़नेवाली छायाको, भोजन करते समय पत्नीको, खुले
हुए अज्जोंवाली स्त्रीको, पागल एवं मतवाले व्यक्तिको
नहीं देखना चाहिये। पत्रीके साथ भोजन नहीं करना
चाहिये और उसे भोजन करते हुए, छींकते हुए, जम्हाई
लेते हुए तथा आसनपर आरामसे बैठे रहनेकी अवस्थामें
नहीं देखना चाहिये। जलमें अपना रूप तथा (नदी
आदिके) किनारे और गर्त (गहरा गड्ढा)-को नहीं
देखना चाहिये। मृत्रको लाँधना नहीं चाहिये और न
कभी उसपर बैठना चाहिये॥ ४६--५० ॥
* इसका आशय यह है कि किसीके पापकी चर्चासे स्वयंमें पाप संक्रमित होते हैं तथा वस्तुत: निष्पापमें पापकी कल्पना
मिथ्याकल्पना है और इस कल्पनाके आधारपर पापका कथन मिथ्याभाषण है ही।
३२८
न शूद्राय मतिं दद्यात् कृुशरं पायसं दधि।
नोच्छिष्ट वा मधु घृतं न च कृष्णाजिनं हवि: ॥ ५१॥
न चैवास्मै ब्रतं दद्यान्न च धर्म वदेद् बुध: ।
न च क्रोधवशं गच्छेद द्वेषं रागं च वर्जयेत्॥ ५२॥।
लोभ॑ दम्भं तथा यत्रादसूयां ज्ञानकुत्सनम्।
ईर्ष्या मदं तथा शोकं मोहं च परिवर्जयेत्॥ ५३ ॥
न कुर्यात् कस्यचित् पीडां सुतं शिष्यं च ताडयेत् ।
न हीनानुपसेवेत न च तीकषणमतीन् क्वचित्॥ ५४ ॥
नात्मानं चावमन्येत दैन्यं यत्नेन वर्जयेत्।
न विशिष्टानसत्कुर्यात् नात्मानं वा शपेद बुध: ॥ ५५ ॥
न नखैर्विलिखेद भूमि गां च संवेशयेन्न हि।
न नदीषु नदीं ब्लूयात् पर्वतेषु च॒ पर्वतान्॥ ५६॥
आवासे भोजने वापि न त्यजेत् सहयायिनम्।
नावगाहेदपो नग्रो वहिं नातिब्रजेत् पदा॥ ५७॥
शिरो5भ्यड्रावशिष्टेन तेलेनाड़्ंं न लेपयेत्।
न सर्पशस्त्रै: क्रीडेत स्वानि खानि न संस्पृशेत्।
रोमाणि च रहस्यानि नाशिष्टेन सह ब्रजेत्॥ ५८ ॥
* कूर्मपुराण *
शूद्रको दृष्टार्थोपदेश (लौकिक विषयका उपदेश )
नहीं देना चाहिये। साथ ही कृशर अर्थात् तिल, चावल
आदिसे मिश्रित पदार्थ, खीर, दही, जूठी* वस्तु, मधु,
घृत, कृष्णमृगचर्म_ तथा हवनकी सामग्री नहीं देनी
चाहिये। दिद्वान् व्यक्ति इसे (शूद्रको) ब्रत एवं धर्म-
सम्बन्धी उपदेश न दे। क्रोधके वशीभूत नहीं होना
चाहिये और राग-द्वेषको छोड़ देना चाहिये। लोभ, दम्भ,
असूया (गुणमें दोषदर्शन), ज्ञानकी निन्दा, ईर्ष्या, मद,
शोक तथा मोहको प्रयत्रपूर्वक छोड़ देना चाहिये।
किसीको भी पीड़ा न पहुँचाये। पुत्र और शिष्यको
योग्य बनानेके पवित्रभावसे ताड़न' करे। कभी हीन
व्यक्तियों और तीक्ष्ण (उद्धत) बुद्धिवाले व्यक्तियोंका
आश्रय ग्रहण न करे। विद्वान्कों अपना अपमान नहीं
करना चाहिये अर्थात् हीनभाव नहीं अपनाना चाहिये।
प्रयत्नपूर्वक दीनताका परित्याग करना चाहिये। विशिष्ट
जनोंका निरादर नहीं करना चाहिये और अपनेको
(क्रोधावेशसे) शाप नहीं देना चाहिये॥५१-५५॥
नखोंसे भूमिपर नहीं लिखना (कुरेदना) चाहिये।
गौको पकड़ना नहीं चाहिये। किसी नदीके समीप दूसरी
नदियों तथा किसी पर्वतपर दूसरे पर्वतोंकी चर्चा
(प्रशंसा) नहीं करनी चाहिये। भोजन अथवा निवासके
समय सहयात्रीको छोड़ना नहीं चाहिये (अर्थात् साथमें
रहनेवालेको छोड़कर न एकाकी भोजन करना चाहिये
न एकाकीके लिये निवासकी व्यवस्था करनी चाहिये)।
जलमें नग्न होकर स््रान नहीं करना चाहिये और पैरसे
आगका उल्लंघन नहीं करना चाहिये। सिरपर लगानेसे
बचे हुए तेलका शरीरपर लेपन नहीं करना चाहिये।
सर्प एवं शस्त्रसे खेल नहीं करना चाहिये। अपनी
इन्द्रियों एवं गुप्तस्थानोंके रोमोंका स्पर्श (जब चाहे तब)
नहीं करना चाहिये। अशिष्ट व्यक्तिके साथ कहीं नहीं
जाना चाहिये॥ ५६--५८ ॥
१-यहाँ उपदेशका निषेध है। सलाह (सम्मति, राय) देनेका निषेध नहीं है। उपदेश द्विजको सामने करके ही करना चाहिये।
शास्त्रीय व्यवस्थाके अनुसार साक्षात् उपदेश लेनेका अधिकारी शूद्र नहीं है। यह मात्र व्यवस्था है, द्वेषभाव नहीं है। 'न शूद्राय मर्ति
दद्यात्' मनुस्मृति (४। ८०)-की कुल्लूकभट्टकी व्याख्याके अनुसार।
२-आहुति देनेसे अवशिष्ट तिल आदि हविष्य शूद्रको नहीं देना चाहिये।
३-जो शूद्र अपना सेवक नहीं है उसे उच्छिष्ट देनेका निषेध है।
ब्राह्मण ही अधिकारी है।
*४ु-
५-यहाँ तात्पर्य यह है कि पुत्र एवं शिष्यको योग्य बनानेका उत्तरदायित्व होता है, अत: आवश्यक होनेपर करुणाका भाव रखते
हुए ताड़न किया जा सकता है ।
* अध्याय १६ *
न पाणिपादवाड्लेत्रचापल्यं समुपाश्रयेत्।
न शिश्नोदरचापल्ये न च श्रवणयो: क्वचित्॥ ५९॥
न चाड्गरनखवादं बै कुर्यानह्नाञ्ञलिना पिबेत्
नाभिहन्याजलं पद्भ्यां पाणिना वा कदाचन॥ ६० ॥
न शातयेदिष्टकाभि: फलानि न फलेन च।
न म्लेच्छभाषां शिक्षेत नाकर्षेच्य पदासनम्॥ ६९१ ॥
न भेदनमवस्फोर्ट छेदन॑ वा विलेखनम्।
कुर्याद् विमर्दनं धीमान् नाकस्मादेव निष्फलम्॥ ६२॥
नोत्सड्रे भक्षयेद् भक्ष्यं वथा चेष्ठटां च नाचरेत् ।
न नृत्येदथवा गायेन्न वादित्राणि वादयेत्॥ ६३॥
न संहताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेदात्मन: शिरः ।
न लोकिके: स्त्वर्देवांस्तोषयेद् बाह्मजैरपि॥ ६४॥
नाक्षे: क्रीडेन्न धावेत नाप्सु विण्मूत्रमाचरेत्।
नोच्छिष्ट: संविशेन्नित्यं न नग्न: स्नानमाचरेत्॥ ६५॥
नगच्छेन्न पठेद् वापि न चेव स्वशिरः स्पृशेत्।
न दन्तेर्नखरोमाणि छिन्द्यात् सुप्तं न बोधयेत्॥ ६६ ॥
न बालातपमासेवेतू् प्रेतधूमं विवर्जयेत्।
नेकः सुप्याच्छून्यगृहे स्वयं नोपानहौ हरेत्॥ ६७॥
नाकारणाद् वा निष्ठीवेन्न बाहुभ्यां नदी तरेत् ।
न पादक्षालनं कुर्यात् पादेनेव कदाचन॥ ६८॥
नाग्रौ प्रतापयेत् पादौ न कांस्ये धावयेद बुध: ।
नाभिप्रसारयेद् देवं ब्राह्मणान् गामथापि वा।
वाय्वग्निगुरुविप्रान् वा सूर्य वा शशिनं प्रति॥ ६९ ॥
अशुद्ध: शयन यान॑ स्वाध्यायं सनानवाहनम्।
बहिर्निष्क्रमणं चैव न कुर्बीत कथज्ञन॥ ७०॥
३२९
कभी भी हाथ,पैर, वाणी और नेत्र-सम्बन्धी चंचलताका
आश्रय न ले। इसी प्रकार लिंग तथा उदर और कान-
सम्बन्धी चंचलता नहीं करनी चाहिये। अंग एवं नखकी
आवाज न करे। अंजलिसे (जल) न पिये। कभी भी
हाथ अथवा पैरसे जलको न पीटे॥ ५९-६० ॥
ईंटों और फलके द्वारा फलोंको नहीं तोड़ना
चाहिये। म्लेच्छ भाषाकी शिक्षा न ले, पैरसे आसनको
न खींचे। (नखोंद्वारा) काटने, छेदने, फोड़ने तथा
लिखने-सम्बन्धी क्रियाएँ नहीं करनी चाहिये। बुद्धिमान्
व्यक्तिको अकस्मात् बिना प्रयोजनके शरीर या (अड्जोंका)
मर्दन (मरोड़नेकी क्रिया) नहीं करना चाहिये। (कोई
पदार्थ) गोदमें रखकर नहीं खाना चाहिये । व्यर्थकी कोई
चेष्टा नहीं करनी चाहिये। नृत्य, गायन तथा वादन (जब
चाहे तब) नहीं करना चाहिये। दोनों हाथोंसे अपना
सिर नहीं खुजलाना चाहिये। लौकिक तथा बाह्य
(विदेशी ) भाषाकी स्तुतियोंसे देवताओंको संतुष्ट (करनेका
प्रयास) नहीं करना चाहिये *। पाशोंसे (जूआ) न खेले,
न दौड़े, जलमें मल-मूत्रका विसर्जन न करे। जूठे
मुख नहीं रहना चाहिये और कभी भी नग्न होकर
स्रान नहीं करना चाहिये॥ ६१--६५॥
(नग्र अवस्थामें) न कहीं जाय, न पढ़े और न
अपने सिरका स्पर्श करे। दाँतोंके द्वारा नख या रोमोंको
नहीं काटना चाहिये। सोये हुए व्यक्तिको जगाना नहीं
चाहिये। उगते हुए सूर्यके धूपका सेवन नहीं करना
चाहिये। चिताके धुएसे दूर रहना चाहिये। शून्य गृहमें
अकेले नहीं सोना चाहिये। स्वयं अपने जूतोंको नहीं
ढोना चाहिये। अकारण नहीं थूकना चाहिये। तैरकर
नदीको पार नहीं करना चाहिये। कभी भी पैरद्वारा पैरको
नहीं धोना चाहिये। बुद्धिमान् व्यक्तिको अग्निसे पैर नहीं
सेंकना चाहिये। काँसेके पात्रमें पैर नहीं धोना चाहिये।
देवताकी ओर, ब्राह्मणोंकी ओर एवं गौ, वायु, अग्रि,
गुरु, विप्र, सूर्य तथा चन्द्रमाकी ओर पैर नहीं फैलाना
चाहिये। कभी भी अपवित्र अवस्थामें सोना, दूरकी
यात्रा, स्वाध्याय, स्नान, सवारीपर बैठना और घरसे बाहर
नहीं निकलना चाहिये॥ ६६--७० ॥
* इसका तात्पर्य यह है कि जो लोग संस्कृतके अध्ययनके अधिकारी हैं, उन्हें अवश्य संस्कृतका अध्ययन करना चाहिये और
वेदादिशास्त्रोंमें निर्दिष्ट स्तुतियोंसे ही देवताओंकी स्तुति करनी चाहिये। अनधिकारके कारण या सर्वथा सामर्थ्यके अभावमें श्रद्धातिशयमें
जिस किसी भाषाके द्वारा स्तुति करनी ही चाहिये। यहाँ यथाधिकार संस्कृत शास्त्रोंक अवश्य अध्ययनमें तात्पर्य है। लौकिक भाषा
आदिसे स्तुतिके निपेधमें तात्पर्य नहीं है।
३३०
स्वप्लमध्ययनं सत्नानमुद्रर्त भोजनं गतिम्।
उभयो: संध्ययोर्नित्यं मध्याद्ने चेव वर्जयेत्॥ ७१ ॥
न स्पृशेत् पाणिनोच्छिष्टो विप्रो गोब्राह्मणानलान्।
न चासनं पदा वापि न देवप्रतिमां स्पृशेत्॥ ७२॥
नाशुद्धो5गिन परिचरेन्न देवान् कीर्तयेदूषीन् ।
नावगाहेदगाधाम्बु धारयेन्नानिमित्ततः ॥ ७३॥
न वामहस्तेनोद्धृत्य पिबेद् वक्त्रेण वा जलम्।
नोत्तरेदनुपस्पृश्य नाप्सु रेत: समुत्सजेत्॥ ७४॥
अमेध्यलिप्तमन्यद् वा लोहितं वा विषाणि वा।
व्यतिक्रमेन्न सत्रवन्ती नाप्सु मैथुनमाचरेत्।
चैत्यं वृक्ष न वे छिन्द्यान्नाप्सु ष्लोवनमाचरेत्॥ ७५॥
नास्थिभस्मकपालानि न केशान्न च कण्टकान्।
तुषाड्रारकरीषं वा नाधितिष्ठेत् कदाचन॥ ७६॥
नचागिन लड्डयेद् धीमान् नोपदध्यादध: क्वचित्।
न चैनं पादतः कुर्यान्मुखेन न धमेद् बुध: ॥ ७७॥
न कूपमवरोहेत नावेक्षेताशुचि: क्वचित्।
अग्रौ न च क्षिपेदगिन नाद्धिः प्रशमयेत् तथा।॥ ७८॥
सुहन्मरणमार्ति वा न स्वयं श्रावयेत् परान्।
अपण्यं कूटपण्यं वा विक्रये न प्रयोजयेत्॥ ७९ ॥
न वहिं मुखनिः श्रासै्ज्वालयेन्नाशुचिर्बुध: |
पुण्यस्थानोदकस्थाने सीमान्तं वा कृषेन्न तु॥ ८०॥
न भिन्द्यात् पूर्वसमयमभ्युपेत॑ कदाचन।
परस्परं पशून व्यालान् पक्षिणो नावबोधयेत्॥ ८१॥
मं कूर्मपुराण मं
दोनों संध्या-समयों तथा मध्याह्कालमें शयन,
अध्ययन, स्रान, उबटन लगाना, भोजन तथा गमनका
नित्य त्याग करना चाहिये। ब्राह्मणको* चाहिये कि वह
जूठे मुँह-हाथसे गौ, ब्राह्मण, अग्नि, आसन तथा देव-
प्रतिमाका स्पर्श न करे। इसी प्रकार पैरसे भी इनका
स्पर्श न करे। अपवित्रताकी स्थितिमें अग्निकी परिचर्या
न करे, देवताओं तथा ऋषियों (-के नाम आदि)-
का कीर्तन न करे। गहरे जलमें स्लान न करे और
बिना कारण (मल-मूत्रादिका वेग) न रोके। बायें हाथसे
उठाकर अथवा मुखसे (पशुके समान) जल नहीं पीना
चाहिये। बिना आचमन किये उत्तर न दे और जलमें
वीर्यका त्याग नहीं करना चाहिये। अपवित्र वस्तुसे लिप्त
किसी वस्तु, रक्त (खून), विष तथा वेगवाली नदीका
उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जलमें मैथुन नहीं करना
चाहिये। अश्वत्थ वृक्षको' नहीं काटना चाहिये। जलमें
थूकना नहीं चाहिये॥ ७१--७५॥
हड्डी, भस्म, कपाल, केश (बाल), कण्टक, भूसी,
अंगार और शुष्क गोबरपर कभी भी बैठना नहीं चाहिये।
बुद्धिमान् व्यक्तिको अग्निका लंघन नहीं करना चाहिये।
अग्रिकों कभी भी (शय्या, आसन आदिके) नीचे न
रखे, न ही पैरकी ओर रखे और न मुखसे ही फुँके।
कभी भी कुएँके अंदर न उतरे और न ही अपवित्र
अवस्थामें उसे देखे । अग्निमें अग्निको नहीं फेंकना चाहिये
और पानीसे इसे बुझाना नहीं चाहिये। मित्रके मरण तथा
उसके दुःखको, (अपने दुःखको) स्वयं दूसरोंको न
सुनाये। जो विक्रय-योग्य न हो तथा जो पदार्थ छलद्वारा
प्राप्त हो उसे विक्रय नहीं करना चाहिये॥ ७६-७९॥
विद्वानूको चाहिये कि वह अग्निको मुखके नि: श्वाससे
प्रजजलित न करे। अपवित्रताकी स्थितिमें पवित्र तीर्थमें,
जलवाले स्थानमें नहीं जाना चाहिये और (ग्राम आदिके)
सीमा-समाप्तिकी भूमिको नहीं जोतना चाहिये॥८०॥
पहले की गयी प्रतिज्ञा या नियमको कभी भी
तोड़ना नहीं चाहिये। पशु, सर्प एवं पक्षियोंकों परस्पर
लड़ानेके लिये उत्तेजित नहीं करना चाहिये॥<“१॥
_सर्वप्रथम होनेसे ब्राह्मणका निर्देश है। यहाँ ब्राह्मणप्रमुख मानवमात्रको लेना चाहिये।
-चैत्यवृक्ष (अश्वत्थवृक्ष ) --चैत्यस्तदाख्यया प्रसिद्धों वृक्ष:। अश्वत्थवृक्ष इति रत्ममाला। (शब्दकल्पद्दुम)
* अध्याय १६ *
परबाधं न कुर्वीत जलवातातपादिभिः।
कारयित्वा स्वकर्माणि कारून् पश्चान्न वद्धयेत्।
सायंप्रातर्ग॒हद्वारान्ू भिक्षार्थ नावघटटयेत्॥ ८२॥
बहिर्मालयं बहिर्गन्धं भार्यया सह भोजनम्।
विगृह्य वादं कुद्वारप्रवेशं च विवर्जयेत्॥ ८३॥
नखादन् ब्राह्मणस्तिष्ठेन्न जल्पेद् वा हसन् बुध: ।
स्वमग्निं नेव हस्तेन स्पृशेन्नाप्सु चिरें बसेत्॥ ८४॥
न पक्षकेणोपधमेन्न शूर्पेण न पाणिना।
मुखे नेव धमेदग्रनिं मुखादग्रिरजायत॥ ८५॥
परस्त्रियं न भाषेत नायाज्यं याजयेद् द्विज: |
नेकश्नरेत् सभां विप्र: समवायं च वर्जयेत्॥ ८६॥
न देवायतनं गच्छेत् कदाचिद् वाप्रदक्षिणम्।
न वीजयेद् वा वस्त्रेण न देवायतने स्वपेत्॥ ८७॥
नेको5ध्वानं प्रपद्येत नाधार्मिकजनै: सह।
न व्याधिदूषितैर्वापि न शूद्रेः पतितेन वा॥ ८८ ॥
नोपानद्वरर्जतोी वाथ जलादिरहितस्तथा।
नरात्रौ नारिणा सार्थध न विना च कमण्डलुम्।
नाग्निगोब्राह्मणादीनामन्तरेण ब्रजेत् क्वचित्॥ ८९॥
न वत्सतन्त्रीं विततामतिक्रामेत् क्वचिद् द्विज:।
न निन्देद् योगिन: सिद्धान् ब्रतिनो वा यर्तीस्तथा॥ ९०॥
३३१
जल, वायु तथा धूप आदिके द्वारा किसी दूसरेको
बाधा नहीं पहुँचानी चाहिये। अपने कार्योको करवाकर
शिल्पियोंको बादमें ठगना नहीं चाहिये। भिक्षाके लिये
सायंकाल और प्रातः (दूसरोंके) घरके दरवाजोंको
खटखटाना नहीं चाहिये। दूसरोंके द्वारा प्रयुक्त माला*,
गन्ध और भायकि साथ भोजन, विग्रहपूर्वक विवाद
एवं कुत्सित दरवाजेसे प्रवेश--इनका त्याग करना
चाहिये॥ ८२-८३ ॥
बुद्धिमान् ब्राह्मणको' खाते हुए खड़ा नहीं होना
चाहिये और न ही हँसते हुए बोलना चाहिये। अपने
हाथोंद्वारा अपनी अग्निका स्पर्श नहीं करना चाहिये और
देरतक जलमें नहीं रहना चाहिये। अग्रिको न पंखेकी
हवासे प्रज्बलित करना चाहिये, न सूप (-की हवा)-
से और न हाथसे (हिलाकर)। मुखसे (फुँकनीद्वारा)
अग्रिको प्रज्वलित नहीं करना चाहिये, क्योंकि मुखसे
ही अग्मि उत्पन्न हुआ है॥ ८४-८५॥
दूसरेकी स्त्रीसे बात नहीं करनी चाहिये और द्विज
(ब्राह्मण)-को चाहिये कि जो यज्ञ करने योग्य नहीं है
उसका यज्ञ न कराये। विप्रको अकेले सभामें नहीं जाना
चाहिये और समूहका त्याग करना चाहिये। बायेंसे देव-
मन्दिरमें प्रवेश नहीं करना चाहिये। अर्थात् देवमन्दिरको
अपने दाहिने करके प्रवेश करना चाहिये। वस्त्रद्वारा पंखा
नहीं झलना चाहिये और देवमन्दिरमें सोना नहीं चाहिये।
मार्गमें अकेले नहीं चलना चाहिये और न अधार्मिक
व्यक्तियोंक साथ ही कहीं जाना चाहिये। इसी प्रकार
व्याधिग्रस्त, शूद्र और पतितोंके साथ भी मार्गमें नहीं
जाना चाहिये? । जूता और जल आदिके बिना मार्ममें नहीं
चलना चाहिये। न रात्रिमें, न शत्रुके साथ और न बिना
कमण्डलुके चलना चाहिये। अग्नि, गौ, ब्राह्मण आदिके
बीचमेंसे होते हुए नहीं निकलना चाहिये॥ ८६--८९ ॥
द्विज (मानवमात्र)-को चाहिये कि वह कभी भी
बछड़ेको दूध पिलाती हुई गाय तथा गायको बाँधनेवाली
रस्सी अथवा उसकी पूँछका उल्लंघन न करे। योगियों,
सिद्धों, बत्रतपरायणों तथा संन्यासियोंकी निन्दा न करे॥ ९०॥
१-शब्दकल्पद्गुममें यह श्लोक है। वहाँ 'बहिर्माल्य' का अर्थ 'कण्ठसे बाहर निकाली हुई माला' किया गया है। इससे अन्यके
द्वारा धारित तथा अपने द्वारा भी धारित पुष्पमालाका पुनः धारण निषिद्ध है, यह स्पष्ट होता है।
२-सामान्य स्थितिमें यह निषेध सबके लिये है, ब्राह्मणका उल्लेख प्रमुखताकी दृष्टिसे है।
३-यहाँ घृणाका भाव नहीं है। व्यक्ति एवं समाजके दूरगामी सुपरिणाम (कल्याण)-की दृष्टिसे यह एक सुविचारित व्यवस्था है।
३९२ हे कूर्मपुराण रू
देवतायतनं प्राज्ञो देवानां चैव सत्रिणाम्। बुद्धिमान् व्यक्तिको देवमन्दिर, देवताओं, यज्ञ करनेवाले
नाक्रामेत् कामतएछायां ब्राह्मणानां च गोरपि॥ ९१॥ | ब्राह्मणों तथा गायकी परछाईंको इच्छापूर्वक लाँघना नहीं
चाहिये। पतित आदिसे तथा रोगियोंसे अपनी परछाईंका
उल्लंघन नहीं होने देना चाहिये। अंगार, भस्म तथा केश
स्वां तु नाक्रमयेच्छायां पतिताद्येर्न रोगिभि: । आदिपर कभी भी बैठना नहीं चाहिये। झाड़को धूल,
नाड्रारभस्मकेशादिष्वधितिष्ठेत् कदाचन॥ ९२॥ | स््रानके वस्त्र तथा (स््रानसे बचे) घड़ेके जलके छीटेसे
बचना चाहिये (उसे अपने ऊपर नहीं पड़ने देना
चाहिये) । द्विज (मानवमात्र)-को चाहिये कि वह
वर्जयेन्मार्जनीरिणुं. स्नानवस्त्रघटोदकम् | अभक्षणीय पदार्थको खाये नहीं और न ही अपेय
न भक्षयेदभक्ष्याणि नापेयं च पिबेद द्विज: ॥ ९३ ॥ | पदार्थको पीये॥९१--९३॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्यां संहितायामुपरिविभागे षोडशोउध्याय: ॥ १६ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें सोलहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १६॥
सत्रहवाँ अध्याय
भक्ष्य एवं अभक्ष्य-पदार्थोका वर्णन
व्यास उवाच व्यासजीने कहा--ब्राह्मणको मोहसे अथवा अन्य
नाद्याच्छूद्रस्य विप्रोउन्न॑ मोहाद वा यदि वान्यतः । किसी दूसरे कारणसे शूद्रका अन्न नहीं खाना चाहिये।
शूद्रयोनिं जो अनापत्तिकालमें शूद्रका अन्न भक्षण करता है, वह
स शूह्॒योनिं द्रजति यस्तु भुड्क्ते हानापदि॥ १॥ शूद्रयोनिको प्राप्त होता है। जो द्विज छ: महीनेतक लगातार
षण्मासान् यो द्विजो भुड्क्ते शूद्रस्यान्न॑ विगर्हितम्। शूद्रका गर्हित अन्न खाता है, वह जीते हुए शूद्र हो जाता
जीवन्नेव भवेच्छुद्रो मृत: श्रा चाभिजायते॥ २॥ | है और मृत्युके बाद श्वान-योनिमें जन्म लेता है॥ १-२॥
हे मुनीश्चरो! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-
इनमेंसे जिसका अन्न मृत्युके समय जिसके उदरमें रहता
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्रस्थ च मुनीश्चरा:। है, उसे उसीकी योनि प्राप्त होती है (अर्थात् ब्राह्मणका
यस्थान्नेनोदरस्थेन मृतस्तद्योनिमाप्नुयात्॥ ३॥ | अन्न उदरमें मृत्युके समय है तो ब्राह्मण-योनि प्राप्त
होगी आदि-आदि) ॥ ३॥
राजान्न॑ नर्तकाननं च तक्ष्णो5न्नं चर्मकारिण: | राजा, नर्तक, बढ़ई, चर्मकार, गण* (सौ ब्राह्मणोंका
गणाजन्न॑ गणिकाजन्नं च षण्ढान्नं चैव वर्जयेत्॥ ४॥ | संघ), गणिका और नपुंसकके अन्नका परित्याग करना
चाहिये। चक्रके आधारपर अपनी जीविका चलानेवाला
(तैलिक--तेली) *, धोबी, चोर, ध्वजी' (मद्यविक्रय-
चक्रोपजीविरजकतस्करध्वजिनां. तथा। जीवी), गायक, लौहकार और सूतकके अन्नका त्याग
गान्धर्वलोहकारान्न॑ सूतकान्नं च॒ वर्जयेत्॥ ५॥ | करना चाहिये॥४-५॥
१-मनुस्मृति (४।२०९)-की कुल्लूकभट्टकी व्याख्याके अनुसार 'गण' का अर्थ ' शतब्राह्मणसंघ' है । शत संख्याको अनेक संख्यापरक
मानकर ब्राह्मणग-समूहका अन्न परित्याज्य समझना चाहिये।
२-मनुस्मृति (४। ८४) -के अनुसार चक्रोपजीवीका अर्थ तैलिक है।
३-मनुस्मृति (४।८४)-के अनुसार ध्वजीका अर्थ मदिराविक्रयके द्वारा जिस जातिके लोग जीविका चलाते हैं, उस जातिके लोग हैं।
इन्हें संस्कृतमें 'शौण्डिक' कहते हैं |
* अध्याय १५७ *+
कुलालचित्रकर्मान्नं वार्धुषे: पतितस्य च।
पौनर्भवच्छत्रिकयोरभिशस्तस्थ चैव हि॥ ६ ॥
सुवर्णकारशैलूषव्याधबद्धातुस्य. च।
चिकित्सकस्य चैवान्न॑ पुंश्वल्या दण्डिकस्य च॥ ७ ॥
स्तेननास्तिकयोरन्नं देवतानिन्दकस्य च।
सोमविक्रयिण श्चान्नं श्रपाकस्य विशेषतः॥ ८ ॥
भार्याजितस्य चैवान्नं यस्य चोपपतिर्गहि।
उत्सृष्टस्य कदर्यस्य तथेवोच्छिष्टभोजिन:॥ ९ ॥
अपाड्कक््त्यान्नं च सद्भान्न॑ शस्त्राजीवस्य चैव हि।
क्लीबसंन्यासिनो क्षान्नं मत्तोन्मत्तस्य चेव हि।
भीतस्य रुदितस्यान्नमवक्रुष्ट परिक्षुतम्॥ १०॥
ब्रह्म्विष: पापरुचे: श्राद्धान्नं सूतकस्य च।
वृथापाकस्य चैवान्नं शावान्न॑ं श्रशुरस्थ च॥ ११॥
अप्रजानां तु नारीणां भृतकस्य तथेव च।
कारुकान्नं विशेषेण शस्त्रविक्रयिणस्तथा।॥ १२॥
शौण्डान्नं घाटिकान्नं च भिषजामन्नमेव च।
विद्धप्रजननस्यान्न॑ परिवित्त्यन्नमेव च॥ १३॥
पुनर्भुवी विशेषेण तथेव दिधिषूपते:।
अवज्ञातं चावधूतं सरोषं विस्मयान्वितम्।
गुरोरपि न भोक्तव्यमन्नं संस्कारवर्जितम्॥ १४॥
१-अमरकोष (२।९। ५)-के अनुसार।
२-मनुस्मृति (९। १७५)-के अनुसार।
३-शब्दकल्पद्गुमके अनुसार।
३३९
कुम्भकार, चित्रकार, वार्धुषि' (कर्ज देकर सूदसे
जीविका चलानेवाले), पतित, विधवाके पुनर्विवाहके
अनन्तर अथवा पति-परित्यक्तासे उत्पन्न पुरुष, छत्रिक रे
(नापित), अभिशस्त (चोरी, मैथुन आदि आरोपसे
ग्रस्त), स्वर्णकार, नट, व्याध, बन्धनप्रात, आतुर
(रोगी), चिकित्सक, व्यभिचारिणी स्त्री तथा दण्डधर
(दण्ड देनेवाले, नियामक--जल्लाद आदि)-का अन्न
नहीं ग्रहण करना चाहिये। चोर, नास्तिक, देवनिन्दक,
सोमलता-विक्रयी तथा विशेषरूपसे चाण्डालका और
स्त्रीके वशीभूत तथा जिसके घरमें उस स्त्रीका उपपति
हो, (समाजद्वारा) परित्यक्त, कृपण और जूठा भोजन
करनेवालेका अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिये॥ ६--९ ॥
पंक्तिसे बहिष्कृत, समूहके आश्रित, शस्त्रसे आजीविका
चलानेवाला, क्लीब (नपुंसक), संन्यासी, मत्त, उन्मत्त,
भयभीत, रोते हुए व्यक्तिक तथा अभिशप्त एवं छींकसे
अशुद्ध अन्नको ग्रहण नहीं करना चाहिये। ब्राह्मणसे
ट्वेष करनेवालों, पापबुद्धि, श्राद्ध तथा अशौचसम्बन्धी
अन्न, निष्प्रयोजन बने हुए भोजन (ईश्वर-समर्पणबुद्धिसे
न बना हुआ), शव-सम्बन्धी तथा ससुरका अन्न नहीं
ग्रहण करना चाहिये। बिना संतानवाली स्त्री, भृत्य,
शिल्पी (कारीगर*) तथा शस्त्रविक्रयीका अन्न विशेष-
रूपसे त्याग करना चाहिये॥ १०--१२॥
शौण्ड (मद्य बनानेवाले जातिविशेषके लोग), स्तुति
करनेवाले 'भाट '-जातिके लोगों, भिषक् (जिससे रोग
भयभीत हो), विद्धलिंगी और ज्येष्ठ भाईके अविवाहित
रहनेपर विवाह कर लेनेवाले छोटे भाईका अन्न भी ग्रहण
नहीं करना चाहिये। दो बार विवाह करनेवाली स्त्री"
तथा ऐसी स्त्रीके पतिका अन्न विशेषरूपसे त्याज्य है।
अनादरपूर्वक दिया गया, तिरस्कारपूर्वक दिया गया, रोष
एवं अभिमानपूर्वक दिया हुआ अन्न, इसी प्रकार गुरुके
संस्कारहीन अन्नको ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥ १३-१४ ॥
४-आलसी या प्रमादी होकर श्वशुरगृहमें स्थायीरूपसे रहनेके साथ वहाँका अन्न ग्रहण करना निषिद्ध है।
५-बढ़ई, जुलाहा, नाई, धोबी और चर्मकार--इन पाँचको 'कारु' या 'शिल्पी' कहा जाता है।
६-मूलमें ' पुनर्भू” शब्द है। इसका पर्याय 'दिधीषू” है। ये दोनों शब्द स्त्रीलिड्भर हैं। इनका अर्थ दो बार विवाह करनेवाली स्त्री है
(शब्दकल्पद्रुम, अमरकोश ) |
३३४ * कूर्मपुराण *
दुष्कृतं हि मनुष्यस्य सर्वमन्ने व्यवस्थितम्। मनुष्यका किया हुआ सारा पाप अमन्नमें स्थित रहता
यो यस्यान्न॑ समएनाति स तस्याश्नाति किल्बिषम्॥ १५॥ | है। इसलिये जो जिसका अन्न ग्रहण करता है, वह
उसके पापका ही भक्षण करता है॥१५॥
आर्द्विक: कुलमित्रश्न स्वगोपालश्व नापित: । आर्द्धि (जो शूद्र द्विजातिक घर हल जोतकर
एते शूद्रेषु भोज्यान्ना यश्चात्मानं निवेदयेत्॥ १६॥ | उसके पारिश्रमिक-रूपमें अन्न प्राप्त करता है), कुलमित्र
(पिता-पितामहकी परम्परासे जो द्विजातिके घर रहता
आया है तथा अभिन्न सहयोगी है), जो अपने गौओंका
पालन करनेवाला है, नापित तथा जिस शूद्रने मन,
वाणी और कर्मसे सर्वथा स्वयंको 'मैं आपका ही हूँ'-
इस रूपमें समर्पित कर दिया है--ऐसे शूद्रका अन्न
ग्रहण किया जा सकता है। बुद्धिमान् व्यक्तिको शूद्रोमें
नाटक आदिसे जीविका चलानेवालों (चारण, कत्थक),
कुम्हार और खेतमें काम करनेवालोंका अन्न थोड़ा मूल्य
देकर ग्रहण करना चाहिये। द्विजातियोंद्वारा दूधका'
विकार--मक्खन-खोआ आदि, घृतमें पके पदार्थ, गोरस
(दूध), सत्तू, पिण्याक (खली, शिलाजीत, केसर, हींग
कुशीलव: कुम्भकारः क्षेत्रकर्मक एव च।
एते शूद्रेषु भोज्यान्ना दत्त्वा स्वल्पं पणं बुधे: ॥| १७॥
पायसं स्नेहपक्वं यद् गोरसं चेव सक्तव:। इत्यादि) तथा तेल--ये पदार्थ शूद्रोंसे ग्रहण किये जा
पिण्याक॑ चैव तैलं च शूद्राद ग्राहयं द्विजातिभि: ॥ १८ ॥ | सकते हैं॥ १६--१८॥
वृन्ताकं नालिकाशाकं कुसुम्भाश्मन्तकं॑ तथा। बैगन, नालिकासाग', कुसुम्भ (पुष्पविशेष),
पलाणए्डुं लशुनं शुक्त निर्यासं चैव वर्जयेत्॥ १९॥ | अश्मन्तकर, प्याज, लहसुन, शुक्त और वृक्षके
गोंदका परित्याग करना चाहिये। छत्राक, विड्वराह
छत्राकं विड्वराहं च शेलुं पेयूषमेव च। (ग्राम्य-सूकर), शेलु" (वनमेथी), पेयूष', विलय,
विलयं सुमुखं चैव कवकानि च वर्जयेत्॥ २०॥ | सुमुख", कवक, (कुकुरमुत्ता), किंशुक (पलाश),
ककुभाण्ड, उदुम्बर (गूलर) तथा अलाबु (वर्तुलाकार-
गृञ्जनं किंशुक॑ चैव ककुभाण्डं तथेव च। गोल लौकी)-का भक्षण करनेसे द्विज पतित हो
उदुम्बरमलाबुं च जग्ध्वा पतति वे द्विज:॥ २१॥ | जाता है॥ १९--२१॥
१-मूलमें 'पायस' शब्द है। इसका अर्थ खीर नहीं करना चाहिये। शब्दकल्पद्रुममें उद्धृत तिथितत्त्वके वराहपुराणीय वचनके
अनुसार यहाँ पायसका अर्थ दुग्धविकार ही है।
२-'नालिकाशाक' मूलमें पठित है। सुश्रुत (१। ४६)-में इसकी चर्चा है। ग्राम्य भाषामें इसे ' भँसीड़' कहते हैं। यह तालाबमें होता
है। इसमें पत्ते नहीं होते हैं। मात्र डंडल होता है। डंठलके भीतर छिद्र होते हैं। आप्तपरम्परामें इसका भक्षण निषिद्ध माना जाता है।
३-अश्मन्तक--तृणविशेष “अम्लकुचाई' लोकभाषा। पर्याय “अम्लोटक' (रत्नमाला) इसके गुण राजनिर्घण्टमें वर्णित हैं।
(शब्दकल्पद्गुम )
४-'शुक्त” उसे कहते हैं जो स्वभावत: मधुर हो तथा कालवश (समयानुसार) खट्टी हो जाय। जैसे काँजी (प्रायश्चित्तविवेक)।
मनुस्मृति (२। १७७)-के अनुसार भी जो स्वभावत: मधुर हो, पर समयवश जल आदियें रखनेसे अम्ल (खट्टी) हो जाय वह शुक्त
है। किंतु शुक्तके रूपमें दही और दहीसे बननेवाले मट्ठा आदि पदार्थ भक्ष्य हैं।
५-शेलु--श्लेप्मातक ( लोकभापा--लिसोढ़ा) अमरकोश।
६-पेयूष--नवप्रसूता गौका अग्निसंयोगसे कठिन किया गया दूध (फेनुप, इन्नर लोकभाषामें) यह भेंस-बकरीका भी निषिद्ध है।
७-सुमुख--शाकविशेष । इसका पर्याय--वनवर्व्वरिका, वर्व्वर है। (राजनिर्धण्ट) (शब्दकल्पद्रुम) ।
#* अध्याय १७ *
वृथा कृशरसंयावं॑ पायसापूपमेव च।
अनुपाकृतमांसं च देवान्नानि हवींषि च॥ २२॥
यवागूं मातुलिड्रं च मत्स्यानप्यनुपाकृतान्।
नीपं कपित्थं प्लक्ष॑ च प्रयत्लेन विवर्जयेत्॥ २३॥
पिण्याक॑ चोद्धृतस्नेह देवधान्यं तथेव च।
रात्रो च तिलसम्बद्ध प्रयत्नेन दथधि त्यजेत्॥ २४॥
नाश्नीयात् पयसा तक्रं न बीजान्युपजीवयेत् ।
क्रियादुष्ट भावदुष्टमसत्संगं च वर्जयेत्॥ २५॥
केशकीटावपन्नं च सहल्लेखं च नित्यश: ।
श्राप्रातं च पुन: सिद्ध चण्डालावेक्षितं तथा ॥ २६॥
उदक्यया च पतितैर्गवा चाप्रातमेव च।
अनचितं पर्युषितं पर्यायान्नं च नित्यश:॥ २७॥
काककुक्कुटसंस्पृष्टे कृमिभिश्चैव संयुतम्।
मनुष्येरप्यवप्रात॑ कुष्ठिना स्पृष्टमेव च॥ २८॥
न रजस्वलया दत्तं न पुंश्चल्या सरोषया।
मलवद्बाससा वापि परवासो5थ वर्जयेत्॥ २९॥
विवत्सायाश्व गो: क्षीरमौष्टं वानिर्दशं तथा।
आविकं सन्धिनीक्षीरमपेयं मनुरबत्रवीत्॥ ३०॥
बलाकं॑ हंसदात्यूहंं कलविड्ूं शुकं तथा।
कुरं च चकोरं च जालपादं च कोकिलम्॥ ३१॥
वायसं खज्जरीटं चर शयेनं गृश्ल॑ तथेव च।
उलूक॑ चक्रवाकं च भासं पारावतानपि।
कपोतं टिट्टिभं चैव ग्रामकुक्कुटमेव च॥ ३२॥
३३५
देवताके उद्देश्य्से नहीं केवल अपने लिये पकाये
गये कुृशरान्न (तिल-चावलके बने पदार्थ), संयाव
(लपसी), खीर एवं पुआका तथा देवान्न (देवताके
लिये समर्पित अन्न), हवनके योग्य द्रव्य (पुरोडाश
आदि), यवागू (जौकी काँजी), मातुलिंग (बिजौरा
नीबू), देव-पित्र्यकर्ममें कदम्ब, कपित्थ (कैथ) और
प्लक्ष (पर्कटी--पाकड़) -का प्रयत्रपूर्वक परित्याग करना
चाहिये। तेल निकाली हुई खली, देवताका धान्य
और रात्रिमें तिल-सम्बन्धी पदार्थ तथा दहीका प्रयत्नपूर्वक
त्याग करना चाहिये। दूधके साथ मट्ठेका सेवन नहीं
करना चाहिये। बीजोंके द्वारा जीविकाका निर्वाह नहीं
करना चाहिये। कर्मसे दूषित और भावसे दूषित तथा
दुर्जनोंसे सम्बन्धका परित्याग करना चाहिये॥ २२--२५॥
केश (बाल) और कीड़ोंसे युक्त, जिस अन्नको
लेकर मनमें विचिकित्सा हो, कुत्तेद्वारा सूँघा हुआ,
दुबारा पकाया गया, चाण्डाल, रजस्वला तथा पतितके
द्वारा देखा गया और गाय-बैल आदि गोजातिद्वारा
सूँघा हुआ, अनादरपूर्वक प्राप्त, बासी तथा पर्यायान्नका'
नित्य परित्याग करना चाहिये। कोआ एवं मुर्गासि
स्पृष्ट, कृमि-युक्त, मनुष्योंद्वारा सूँघे गये तथा कुष्ठ
रोगीसे स्पर्श किये गये अन्नका परित्याग करना चाहिये।
रजस्वलासे प्राप्त, क्रोधयुक्त व्यभिचारिणी स्त्रीद्वारा दिया
गया और मलिन वस्त्र धारण करनेवाले व्यक्तिके
द्वारा (दिये अन्नका) और दूसरेके वस्त्रका परित्याग
करना चाहिये। मनुने बताया है कि बछड़े-रहित गौ,
ऊँटनी और दस दिनोंके भीतर ब्यायी हुई (गौ
इत्यादि)-का दूध तथा भेड़ी एवं गर्भिणी गौका दूध
पीने योग्य नहीं है॥ २६-३० ॥
१-(क) मूलमें 'पर्यायान््न' शब्द है। इसका अर्थ याज्ञ० स्मृ० आचा० १६८ वें श्लोककी मिताक्षरा व्याख्याके अनुसार वह अन्न
है जो अन्यस्वामिक है और अन्यको दिया जाय। जैसे ब्राह्मणस्वामिक अन्नको शुद्र दे, शूद्रस्वामिक अन्नको ब्राह्मण दे। ऐसा अन्न ग्रहण
करनेपर चान्द्रायणक्रत प्रायश्वित्त है।
(ख) एक दूसरे मतके अनुसार एक पंक्तिमें बैठकर भोजन करनेवालोंमें किसी एकके उठकर आचमन कर लेनेके उपरान्त
सभी भोजन करनेवालोंके अन्नको 'पर्यायानन' कहा जाता है।
३रे८
ह कूर्मपुराण 2]
सिंहव्याप्नं च मार्जारे श्वानं शूकरमेव च।
श्रगालं॑ मर्कर्ट चैव गर्दभं च न भक्षयेत्॥ ३३॥
न भक्षयेत् सर्वमृगान् पक्षिणो5न्यान् वनेचरान्।
जलेचरान् स्थलचरान् प्राणिनश्चेति धारणा॥ ३४॥
गोधा कूर्म: शश: श्राविच्छल्यकश्चेति सत्तमा: ।
भक्ष्या: पदञ्चनखा नित्यं मनुराह प्रजापति: ॥ ३५॥
मत्स्यान् सशल्कान् भुज्जीयान्मांसं रौरवमेव च।
निवेद्य देवताभ्यस्तु ब्राह्मणेभ्यस्तु नान्यथा॥ ३६॥
मयूरं तित्तिरं चैव कपोतं च कपिज्जलम्।
वाध्लीणसं वर्क भक्ष्यं मीनहंसपराजिता: ॥ ३७॥
शफरं सिंहतुण्डं च तथा पाठीनरोहितौ।
मत्स्याश्चेते समुद्दिष्ठा भक्षणाय द्विजोत्तमा: ॥ ३८॥
प्रोष्षितं भक्षयेदेषां मांसं च द्विजकाम्यया।
यथाविधि नियुक्त च प्राणानामपि चात्यये॥ ३९॥
भक्षयेन्नेव मांसानि शेषभोजी न लिप्यते।
औषधार्थमशक्तौ वा नियोगाद् यज्ञकारणात्॥ ४०॥
आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे देवे वा मांसमुत्सजेत् ।
यावन्ति पशुरोमाणि तावतो नरकान् ब्रजेत्॥ ४१॥
अदेयं चाप्यपेयं चर तथेवास्पृश्यमेव च।
द्विजातीनामनालोक्यं नित्यं मद्यमिति स्थिति: ॥ ४२॥
तस्मात् सर्वप्रकारेण मद्यं नित्यं विवर्जयेत्।
पीत्वा पतति कर्मभ्यस्त्वसम्भाष्यो भवेद् द्विज: ॥ ४३ ॥
भक्षयित्वा हाभक्ष्याणि पीत्वाउपेयान्यपि द्विज: ।
नाधिकारी भवेत् तावद यावद् तन्न जहात्यध: ॥ ४४॥
तस्मात् परिहरेन्नित्यमभक्ष्याणि प्रयत्नत:।
अपेयानि च विप्रो वै तथा चेद् याति रौरवम्॥ ४५॥
द्विजोंके लिये मद्य न दान देने योग्य है, न पीने
योग्य है, न स्पर्श करने योग्य है और न ही देखने
योग्य है--ऐसी हमेशाके लिये मर्यादा बनी है। इसलिये
सब प्रकारसे मद्यका नित्य ही परित्याग करना
चाहिये। मद्य पीनेसे द्विज कर्मोंसे पतित और
बातचीत करनेके अयोग्य हो जाता है। अभक्ष्यका भक्षण
करने और अपेय पदार्थोका पान करनेसे द्विज
तबतक अपने कर्मका अधिकारी नहीं होता, जबतक
उसका पाप दूर नहीं हो जाता। इसलिये
प्रयत्नपूर्वक नित्य ही विप्र (द्विजअ)-को अभक्ष्य
एवं अपेय पदार्थोंका परित्याग करना चाहिये। यदि द्विज
ऐसा करता है अर्थात् इन्हें ग्रहण करता है तो
उसे रौरव नरकमें जाना पड़ता है॥४२--४५॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पदट्साहरत्रशं संहितायामुपरिविभागे सम्रद्शोउध्याय: ॥ ९१७॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें सत्रहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १७॥
* अध्याय १९८ *
३३७
अठारहवाँ अध्याय
गृहस्थके नित्यकर्मोका वर्णन, प्रातःस्नानकी महिमा, छ: प्रकारके स्नान, संध्योपासनकी
महिमा तथा संध्योपासनविधि, सूर्योपस्थानका माहात्म्य, सूर्यहदयस्तोत्र,
अग्निहोत्रकी विधि, तर्पणकी विधि, नित्य किये जानेवाले
पञ्ञमहायज्ञोंकी महिमा तथा उनका विधान
ऋषय ऊचु:
अहन्यहनि कर्तव्यं ब्राह्मणानां महामुने।
तदाचक्ष्वाखिलं कर्म येन मुच्येत बन्धनात्॥
व्यास उवाच
वक्ष्ये समाहिता यूय॑ श्रुणुध्वं गदतो मम।
अहन्यहनि कर्तव्यं ब्राह्मणानां क्रमाद् विधिम्॥
ब्राह्मे मुहूर्ते तृत्थाय धर्ममर्थ च चिन्तयेत्।
कायक्लेशं तदुदभूतं ध्यायीत मनसेश्वरम्॥
उषःकाले5थ सम्प्राप्ते कृत्वा चावश्यकं बुध: ।
स््नायान्नदीषु शुद्धासु शौच कृत्वा यथाविधि॥
प्रात:स्नानेन पूयन्ते येडपि पापकृतो जना: ।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन प्रातःस्नानं समाचरेत्॥
प्रात:ःस्नानं प्रशंसन्ति दृष्टादृष्टकरं शुभम्।
ऋषीणामृषिता नित्य॑ प्रात:स्नानान्न संशय: ॥
मुखे सुप्तस्य सततं लाला या: संस्त्रवन्ति हि।
ततो नैवाचरेत् कर्म अकृत्वा र्रानमादितः ॥
अलक्ष्मी: कालकर्णी च दुःस्वणं दुर्विचिन्तितम् ।
प्रात:स्नानेन पापानि पूयन्ते नात्र संशयः॥
नच स्नान॑ विना पुंसां पावन कर्म सुस्मृतम्।
१
२॥।
३॥
ड।
५ ॥।
६३॥।
3॥।
«८
होमे जप्ये विशेषेण तस्मात् रत्रानं समाचरेत्॥ ९ ॥
अशक्तावशिरस्कं॑ वा सनानमस्य विधीयते।
आद्रेण वाससा वाथ मार्जनं कापिलं स्मृतम्॥ १० ॥
ऋषियोंने कहा--महामुने ! आप द्विजोंके प्रतिदिन
किये जानेवाले उन कर्मोंका सम्पूर्ण-रूपसे वर्णन करें,
जिनका अनुष्ठान करनेसे बन्धनसे मुक्ति प्राप्त होती है॥ १॥
व्यासजी बोले--मैं बतला रहा हूँ। आप लोग
ध्यानपूर्वक मेरे द्वारा कहे जा रहे ब्राह्मणोंके प्रतिदिन
किये जानेवाले कर्मोको और उनके विधानको सुनें।
ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर धर्म और अर्थ एवं (उनकी
सम्पन्नताके लिये) अपेक्षित शारीरिक आयास (क्या
कब कैसे करना है आदि)-का चिन्तन करे तथा मनसे
ईश्वरका ध्यान करे। बुद्धिमानको चाहिये कि ऊषाकाल
होनेपर आवश्यक कर्मोको करके विधिपूर्वक शौच
आदिसे निवृत्त होकर शुद्ध जलवाली नदियोंमें स्नान
करे। प्रातःस्नान करनेसे पाप करनेवाले व्यक्ति भी
पवित्र हो जाते हैं। इसलिये सभी प्रकारके प्रयत्रोंसे
प्रातःकाल स्नान करना चाहिये॥ २--५॥
दृष्ट और अदृष्ट फल देनेवाले प्रात:कालीन शुभ स्नानकी
सभी प्रशंसा करते हैं। नित्य प्रात:काल स्नान करनेसे ही
ऋषियोंका ऋषित्व है, इसमें संशय नहीं; क्योंकि सोये
व्यक्तिके मुखसे निरन्तर लार बहती रहती है, अत: सर्वप्रथम
स्नान किये बिना कोई कर्म नहीं करना चाहिये। प्रात:-
स्नानसे अलक्ष्मी, कालकर्णी' (अलक्ष्मीविशेष) दुःस्वपण,
बुरे विचार और अन्य पाप दूर हो जाते हैं, इसमें संशय
नहीं। बिना स्नानके मनुष्योंकों पवित्र करनेवाला कोई
कर्म नहीं बतलाया गया है। अत: होम तथा जपके समय
विशेष-रूपसे स्नान करना चाहिये। असमर्थताकी स्थितिमें
सिरको छोड़कर स्नान करनेका विधान किया गया है।
अथवा भीगे वस्त्रसे शरीरका मार्जन करना चाहिये, इसे
कपिलस्नान कहा गया है॥ ६--१०॥
१-इस अध्यायमें गृहस्थके प्रायः सभी अनुष्लानोंका वर्णन है, पर क्रमसे नहीं है। क्रमका ज्ञान गृद्यसूत्र, आहिकसूत्रावली, नित्यकर्मविधि
आदि ग्रन्थोंसे करना चाहिये। इस अध्यायका उद्देश्य सभी कर्मोंका परिचय कराना है। कर्मोंका क्रम बताना उद्देश्य नहीं है।
२-कालकर्णी--अलक्ष्मी (शब्दकल्पद्गरुम)।
३३८
असामर्थ्ये समुत्पन्ने स्नानमेवं समाचरेत्।
ब्राह्मदीनि यथाशक्तो स्त्रानान्याहुर्मनीषिण: ॥ ११॥
ब्राह्ममाग्नेयमुद्दिष्टं वायव्यं दिव्यमेव च।
वारुणं यौगिक तद्ठत् षोढा स्त्रानं प्रकीर्तितम्॥ १२॥
ब्राह्मं तु मार्जनं मन्त्रे: कुशैः सोदकबिन्दुभि: ।
आग्नेयं भस्मना पादमस्तकाद्ेहधूलनम्॥ १३॥
गवां हि रजसा प्रोक्त वायव्यं सत्नानमुत्तमम्।
यत्तु सातपवर्षेण र्रानं तद् दिव्यमुच्यते॥ १४॥
वारुणं चावगाहस्तु मानसं त्वात्मवेदनम्।
यौगिकं रन्नानमाख्यातं योगो विष्णुविचिन्तनम्॥ १५॥
आत्मतीर्थमिति ख्यातं सेवितं ब्रह्मवादिभि: ।
मनःशुचिकरं पुंसां नित्यं तत् सत्रानमाचरेत्॥ १६॥
शक्तश्चेद् वारुणं विद्वान् प्राजापत्यं तथेव च।
प्रक्षाल्य दन्तकाष्ठ वे भक्षयित्वा विधानत: ॥ १७॥
आच्म्य प्रयतो नित्य॑ रत्नानं प्रात: समाचरेत्।
मध्याडुलिसमस्थौल्यं द्वादशाड्गरुलसम्मितम्॥ १८ ॥
सत्वचं दन्तकाष्ठे स्थात् तदग्रेण तु धावयेत्।
क्षीरवृक्षसमुदभूत॑ मालतीसम्भवं शुभम्।
अपामार्ग च बिल्वं च करवीरं विशेषत:॥ १९॥
वर्जयित्वा निन्दितानि गृहीत्वैंके यथोदितम्।
परिहत्य दिन पापं भक्षयेद् वै विधानवित्॥ २०॥
नोत्पाटयेद दन्तकाष्टे नाड्-गुल्या धावयेत् क्वचित्।
प्रक्षाल्य भडक्त्वा तजह्याच्छुचौ देशे समाहित: ॥ २१॥
स््नात्वा संतर्पयेद देवानृषीन् पितृगणांस्तथा |
आचम्य मन्त्रवन्नित्यं पुनराचम्य वाग्यतः॥ २२॥
* कूर्मपुराण *
सामर्थ्य न रहनेपर यही (कपिल-) सख्रान करना
चाहिये। मनीषियोंने यथाशक्ति किये जानेवाले ब्राह्म
आदि स्नानोंको बतलाया है। ब्राह्मय, आग्नेय, वायव्य,
दिव्य, वारुण तथा यौगिक-ये छ: स्नान कहे गये
हैं । कुशोंके द्वारा जलबिन्दुओंसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक मार्जन
करना ब्राह्मय-स्नान कहलाता है। मस्तकसे पैरोंतक
समस्त देहमें भस्मका उपलेपन करना आग्नेय-स्नान
है। गायोंकी धूलसे सम्पन्न उत्तम स््नानको वायव्य-
स्नान कहा गया है। धूपमें वर्षकि जलसे जो स्तान
किया जाता है, वह दिव्य-स्नान कहलाता है। (जलमें)
डुबकी लगाकर किया गया स्नान वारुण-स्नान और
मनसे आत्मतत्त्वका चिन्तन करना यौगिक-स्नान कहा
गया है। विष्णुका चिन्तन ही योग है॥११--१५॥
ब्रह्मवादियोंसे सेवित इस (यौगिक) स्नानको आत्मतीर्थ
कहा गया है। यह मनुष्योंके मनको पवित्र बनानेवाला
है। इसलिये यह स्नान नित्य करना चाहिये। समर्थ
होनेपर विद्वान्को वारुण तथा प्राजापत्य ( ब्राह्म )-स्नान
करना चाहिये। दन्तकाष्ठको धोकर विधिपूर्वक उसका
भक्षण (चर्वण) करना चाहिये॥ १६-१७॥
(दतुअन करके) आचमनकर (मुख-प्रक्षालनकर)
प्रयत्रपूर्वक नित्य प्रात:स्नान करना चाहिये। मध्यमा
अंगुलिके समान मोटा और बारह अंगुलके बराबर लंबा
छिलके-युक्त दन्तकाष्ठके अग्रभागसे मुखशुद्धि करनी
चाहिये। विशेषरूपसे दूधवाले वृक्ष, मालती (चमेली),
अपामार्ग, बिल्व तथा करवीर (कनेर)-की लकड़ीका
दन्तकाष्ठ शुभ होता है। विधिके ज्ञाताको चाहिये कि
दोषपूर्ण (निषिद्ध) दिनको छोड़कर तथा निन्दित काष्टींको
छोड़कर बताये गये दन्तकाष्ठोंमेंसे किसी एकको ग्रहणकर
दन्तधावन करना चाहिये। दन्तकाष्ठको उखाड़ना नहीं
चाहिये (अर्थात् किसी छोटे पौधेको पूरा उखाड़कर
उससे दन्तधावन नहीं करना चाहिये) और न कभी
अँगुलीसे दतुअन करना चाहिये। (मुख) धोनेके उपरान्त
उसे (दन्तकाष्ठको) तोड़कर सावधानीसे किसी पवित्र
स्थानमें (यथास्थान) त्याग देना चाहिये॥ १८-२१॥
अनन्तर पवित्र देशमें स्नान करके आचमनपूर्वक
देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंको यथाधिकार मन्त्रपूर्वक
यथाविधि तृप्त करना चाहिये॥ २२॥
* अध्याय १८ *
सम्मार्ज्य मन्त्रैरात्मानं कुशै: सोदकबिन्दुभि: ।
आपो हि ष्ठा व्याहतिभि: सावित्र्या वारुणै: शुभे: ॥ २३॥
ओड्डारव्याहतियुतां गायत्रीं वेदमातरम्।
जप्वा जलाज्जलिं दद्याद् भास्कर प्रति तन््मना: ॥ २४॥
प्राक्कूलेषु समासीनो दर्भेषु सुसमाहितः।
प्राणायामत्रयं कृत्वा ध्यायेत् संध्यामिति श्रुति: ॥ २५ ॥
या संध्या सा जगत्सूतिर्मायातीता हि निष्कला।
ऐश्वरी तु पराशत्तिस्तत्त्वत्रयसमुद्धवा॥ २६॥
ध्यात्वार्कमण्डलगतां सावित्रीं वै जपन् बुध: ।
प्राइमुख: सतत विप्र: संध्योपासनमाचरेत्॥ २७॥
संध्याहीनो5शुचिर्नित्यमनई: सर्वकर्मसु।
यदन्यत् कुरुते किल्निन्न तस्य फलमाप्नुयात्॥ २८ ॥
अनन्यचेतस: शान्ता ब्राह्मणा वेदपारगा:।
उपास्य विधिवत संध्यां प्राप्ता: पूर्व परां गतिम्॥ २९॥
योअन्यत्र कुरुते यत्नं धर्मकार्ये द्विजोत्तम:।
विहाय संध्याप्रणतिं स याति नरकायुतम्॥ ३०॥
तस्मात् सर्वप्रयलेन संध्योपासनमाचरेत्।
उपासितो भवेत् तेन देवो योगतनु: पर:॥ ३१॥
सहस््रपरमां नित्यं शतमध्यां दशावराम।
सावित्री वै जपेद विद्वान् प्राइमुख: प्रयत: स्थित: ॥ ३२॥
अथोपतिष्ठेदादित्यमुदयन्त॑ समाहितः।
मन््रेस्तु विविधे: सौरैऋग्यजुःसामसम्भवै: ॥ ३३॥
उपस्थाय महायोगं देवदेव॑ दिवाकरम।
कुर्वीत प्रणतिं भूमौ मूर्ध्ना तेनेव मन्त्रत:॥ ३४॥
३३९
तदनन्तर पुन: आचमन करे और संयतवाणीवाला
होकर 'आपो हि ष्ठा' इत्यादि मन्त्र, व्याहतियों, गायत्रीमन्त्र
तथा वरुण-सम्बन्धी शुभ मन्त्रोंका पाठ करते हुए
जलबिन्दुओंसे युक्त कुशोंके द्वारा अपना मार्जन करे।
ओंकार एवं व्याहतियोंसे युक्त वेदमाता गायत्री
(-मन्त्र)-का जप करके तन्मय होकर सूर्यको जलाझलि
देनी चाहिये। तदनन्तर पूर्वकी ओर बिछे हुए
कुशासनपर सावधानीपूर्वक बैठकर तीन प्राणायाम
करके संध्याका ध्यान करना चाहिये। ऐसा श्रुतिका
विधान है॥ २३--२५॥
जो संध्या है वही जगत्को उत्पन्न करनेवाली है,
मायातीत है, निष्कल है और तीन तत्त्वोंसे उत्पन्न
होनेवाली ईश्वरकी पराशक्ति है। विद्वान् ब्राह्मण (द्विज)-
को पूर्वाभिमुख होकर सूर्यमण्डलमें प्रतिष्ठित सावित्री
(गायत्रीमन्त्र )-का ध्यानपूर्वक जप करते हुए संध्योपासना
करनी चाहिये। संध्यासे हीन व्यक्ति (द्विज) नित्य
अपवित्र और सभी कर्मोको करनेके लिये अयोग्य होता
है। वह जो भी कार्य करता है, उसका उसे कोई
फल प्राप्त नहीं होता। पूर्वकालमें वेदके पारंगत शान्त
ब्राह्मणोंने अनन्य-मनसे संध्योपासना करके परम गतिको
ग्राप्त किया था। जो द्विजोत्तम संध्यावनदनको छोड़कर
दूसरे धार्मिक कार्योके लिये प्रयत्न करता है, वह सहस्तरों
नरकोंमें जाता है। इसलिये सभी प्रयत्नोंसे संध्योपासना
करनी चाहिये। उस उपासनासे योगविग्रह परमदेवकी
उपासना हो जाती है॥ २६--३१॥
विद्वान् व्यक्तिको नित्य पूर्वाभिमुख होकर सावित्री
(-मन्त्र)-का सावधानीपूर्वक जप करना चाहिये।
हजार बारका जप उत्कृष्ट, सौ बार किया गया जप
मध्यम तथा दस बारका जप निम्नकोटिका होता है।
इसके बाद खड़े होकर ध्यान लगाकर उदित होते
हुए सूर्यकी ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेदमें वर्णित
सूर्य-सम्बन्धी विविध मन्त्रोंद्दारा उपासना करनी
चाहिये। महायोगरूप देवाधिदेव दिवाकरका उपस्थान
करके उसी मन्त्रद्वदारा भूमिपर मस्तक झुकाकर प्रणाम
करना चाहिये और निम्नलिखित मन्त्रोंसे प्रार्थना
करनी चाहिये-- ॥ ३२--३४॥
३४०
* कूर्मपुराण *
ओं खखोल्काय शान्ताय कारणत्रयहेतवे |
निवेटयामि चात्मानं नमस्ते ज्ञानरूपिणे।
नमस्ते घृणिने तुभ्यं सूर्याय ब्रह्मसूपिणे॥ ३५॥
त्वमेव ब्रह्म परममापो ज्योती रसोउमृतम्।
भूर्भुव: स्वस्त्वमोड्डारः सर्वे रुद्रा: सनातना: ।
पुरुष: सनन््महो5तस्त्वां प्रणमामि कपर्दिनम्॥ ३६॥
त्वमेव विश्व॑ बहुधा सदसत् सूयते च यत्।
नमो रुद्राय सूर्याय त्वामह॑ शरणं गत:॥ ३७॥
प्रचेतसे नमस्तुभ्यं नमो मीदुष्टमाय ते।
नमो नमस्ते रुद्राय त्वामहं शरणं गत: ॥ ३८॥
हिरण्यबाहवे तुभ्यं हिरण्यपतये नमः।
अम्बिकापतये तुभ्यमुमाया: पतये नमः॥ ३९॥
नमो3स्तु नीलग्रीवाय नमस्तुभ्यं पिनाकिने।
विलोहिताय भर्गाय सहस्त्राक्षाय ते नमः॥ ४०॥
नमो हंसाय ते नित्यमादित्याय नमोस्तु ते।
नमस्ते वच्नहस्ताय त््यम्बकाय नमोस्तु ते॥ ४१॥
प्रपद्ये त्वां विरूपाक्षं महान्तं परमेश्वरम्।
हिरण्मयं गृहे गुप्तमात्मानं सर्वदेहिनाम्॥ ४२॥
नमस्यामि परं ज्योतिर्त्रह्माणं त्वां परां गतिम्।
विश्व॑ पशुपतिं भीमं॑ नरनारीशरीरिणम्॥ ४३॥
नमः सूर्याय रुद्राय भास्वते परमेष्ठिने।
उग्राय सर्वभक्ताय त्वां प्रपय्ये सदैव हि॥ ४४॥
एतद वै सूर्यहदयं जप्त्वा स्तवमनुत्तमम्।
प्रात:ःकाले5थ मध्याद्वे नमस्कुर्याद् दिवाकरम्॥ ४५॥
मैं ओंकाररूप शान्त, कारणत्रयके हेतुरूप खखोल्क
(सूर्य )-के प्रति अपनेको समर्पित करता हूँ। ज्ञानरूपी
आप (सूर्य)-को नमस्कार है। ब्रह्मरूपी घृणि' सूर्य!
आपको नमस्कार है। आप ही परम ब्रह्म, अप, ज्योति,
रस और अमृतस्वरूप हैं। आप ही भू:, भुवः, स्व:,
ओंकार तथा समस्त सनातन रुद्र हैं। आप सत्स्वरुप
और महान् पुरुष हैं। आप कपर्दीको मैं प्रणाम करता
हूँ। आप ही अनेक रूपवाले सत्-असत््-रूप समस्त
विश्वको उत्पन्न करते हैं। सूर्यरूप रुद्रको नमस्कार
है। मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप प्रचेताको
नमस्कार है। मीदुष्टम। आपको नमस्कार है। रुद्रके
लिये वार-बार नमस्कार है। मैं आपकी शरणमें आया
हूँ। आप हिरण्यबाहु तथा हिरण्यपतिको नमस्कार है।
अम्बिकाके पति तथा उमाके पति आपको नमस्कार
है। नीलग्रीवकों नमस्कार है तथा आप पिनाकीको
नमस्कार है। विलोहित, भर्ग तथा सहस्लाक्ष! आपको
नमस्कार है ॥ ३५--४० ॥
आप हंसको नित्य नमस्कार है। आदित्य ! आपको
नमस्कार है। वज्रहस्त तथा त्र्यम्बक! आपको नमस्कार
है। मैं आप विरूपाक्ष महान् परमेश्वरकी शरणमें हूँ।
सभी देहधारियोंके हिरण्मय गृहमें (हृदयमें) आप
अपनेको गुह्रूपसे प्रतिष्ठित किये हैं। परम ज्योतिरूप,
परमगति, विश्वरूप, पशुपति, भीम तथा अर्ध-नारीश्वर-
रूपवाले आप ब्रह्माको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रकाशमान
सूर्यरूप परमेष्ठी रुद्रको नमस्कार है। उग्र तथा सभीके
भजनीय' आपकी मैं सदा ही शरण ग्रहण करता
हूँ ॥ ४१--४४॥
इस सूर्यहदय (नामक) उत्तम स्तोत्रका प्रातः-
काल तथा मध्याह्कालमें जपकर दिवाकरको नमस्कार
करना चाहिये॥ ४५॥
१- यहाँ कारणत्रयसे मन, बुद्धि एवं अहंकार विवश्षित हैं। इन तीनोंको क्रियाशील बनानेमें सूर्य एक महत्त्वपूर्ण कारण हैं।
२- खखोल्क--ख (आकाश) ख (इन्द्रियों)-में क्रमश: सूर्य तथा आत्मारूपसे जो उल्काके समान बाहर-भीतर प्रकाशक-रूपमें
विद्यमान हैं, वे खखोल्क हैं। काशीखण्ड ५० वें अध्यायमें खखोल्क नामके सूर्यका वर्णन है। ये काशीमें स्थित हैं।
३-घृणि--सूर्यका नाम है--जिधघर्ति दीप्यते इति घृणि:-दीप्तिशाली।
४-मीदुष्टम--शिवका नाम है ( श्रीमद्धागवत स्कन्ध ४ अ० ६)। सूर्यमें सभी देवताओंकी भावना एवं उपासनाका विधान होनेसे
सूर्यको मीदुष्टम कहा गया हैं। रुद्र आदिके रूपमें सूर्यके उललेखका भी यही कारण है।
५- “सर्व: भक्त: यस्य सः' बहुत्रीहि समास हुआ हैं। इससे अभिप्राय यह निकलता है कि रुद्र सबके लिये भजनीय हैं।
* अध्याय १८ *
इदं पुत्राय शिष्याय धार्मिकाय द्विजातये।
प्रदेय॑ सूर्यहदयं ब्रह्मणा तु प्रदर्शितम्॥ ४६ ॥
सर्वपापप्रशमनं वेदसारसमुद्धवम् ।
ब्राह्मणानां हितं पुण्यमृषिसड्स्घैर्निषेवितम्॥ ४७॥
अधागम्य गृहं विप्र: समाचम्य यथाविधि।
प्रज्जाल्य वह्निं विधिवज्जुहुयाज्ञातवेदसम्॥ ४८ ॥
ऋत्विक्पुत्रो5थ पत्नी वा शिष्यो वापि सहोदरः ।
प्राप्पानुज्ञां विशेषेण जुहुयुर्वा यथाविधि॥ ४९॥
पवित्रपाणि: पूतात्मा शुक्लाम्बरधरोत्तर:।
अनन्यमानसो वहिं जुहुयात् संयतेन्द्रिय: ॥ ५० ॥
विना दर्भण यत्कर्म विना सूत्रेण वा पुनः ।
राक्षस तदभवेत् सर्व नामुत्रेह फलप्रदम्॥ ५१॥
देवतानि नमस्कुर्याद् देयसारान्निवेदयेत्।
दद्यात् पुष्पादिकं तेषां वृद्धांइचेवाभिवादयेत्॥ ५२ ॥
गुरंं चैबाप्युपासीत हित॑ चास्य समाचरेत्।
वेदाभ्यासं ततः कुर्यात् प्रयत्नाच्छक्तितो द्विज: ॥ ५३ ॥
जपेदध्यापयेच्छिष्यान् धारयेच्च विचारयेत्।
अवेक्षेत च शास्त्राणि धर्मादीनि द्विजोत्तम: ।
वैदिकांश्चैव निगमान् वेदाड़ानि विशेषत: ॥ ५४॥
उपेयादीश््र॑ चाथ योगक्षेमप्रसिद्धये।
साधयेद् विविधानर्थान् कुट॒म्बार्थ ततो द्विज: ॥ ५५ ॥
३४१
ब्रह्माके द्वारा प्रदर्शित, सभी पापोंका शमन करनेवाले,
वेदोंके सारसे प्रकट हुए, ब्राह्मणोंके हितकारी, पवित्र
और ऋषिसमूहोंद्वारा सेवित इस सूर्यहदय (स्तोत्र)-
का द्विजाति-कुलोत्पन्न धार्मिक पुत्र एवं शिष्यके लिये
उपदेश करना चाहिये॥ ४६-४७ ॥
तदनन्तर घर आकर ब्राह्मण (द्विज)-को विधिपूर्वक
आचमन करके अग्नि प्रजजलित कर यथाविधि अग्निमें
हवन (अग्निहोत्र) करना चाहिये। (अग्न्याधान करनेवाला
यजमान द्विजाति यदि किसी अपरिहार्य कारणवश स्वयं
अग्निहोत्र नहीं कर सकता है तो उसके प्रतिनिधि-
रूपमें) ऋत्विक्का पुत्र (यज्ञोपवीत-संस्कार-सम्पन्न
पुत्र), पत्नी, शिष्य (यज्ञोपवीती) अथवा (यज्ञोपवीती)
सहोदर भाई भी विशेषरूपसे आज्ञा प्राप्तकर विधिपूर्वक
हवन (अग्निहोत्र) कर सकता है। हाथमें पवित्री
धारणकर, पवित्रात्मा होकर, शुक्लवर्णका वस्त्र एवं
उत्तरीय वस्त्र धारणकर एकाग्रमनसे इन्द्रियोंको संयमित
करते हुए अग्निमें हवन करे॥ ४८--५० ॥
बिना कुशके और बिना यज्ञोपवीतके जो भी कर्म
किया जाता है, वह सब राक्षसी कर्म होता है, वह
न इस लोकमें फल देता है और न परलोकमें॥ ५१॥
देवताओंको नमस्कार करना चाहिये। उन्हें प्रदान
की जानेवाली (शास्त्रविहित) वस्तुओंमें उत्तमोत्तम
वस्तुओंको ही निवेदित करना चाहिये। उन्हें (देवताओंको)
पुष्प आदि (पदार्थ) समर्पित करना चाहिये और
वृद्धजनोंका अभिवादन करना चाहिये। गुरुकी भी
उपासना करनी चाहिये, उनका हित करना चाहिये।
तदनन्तर द्विजको यथाशक्ति प्रयत्लपूर्वक वेदोंका अभ्यास
करना चाहिये । द्विजोत्तमको जप करना चाहिये। शिष्योंको
पढ़ाना चाहिये। (पढ़े विषयोंको ) धारण करना चाहिये
और (उसपर) विचार करना चाहिये। शास्त्रोंका अवलोकन
तथा धर्मका--विशेषरूपसे वैदिक तथा वेदसम्मत शास्त्रों
और वेदाज्ञोंका चिन्तन करना चाहिये॥ ५२--५४॥
अनन्तर योग (अप्राप्तकी प्राप्ति), क्षेम (प्राप्तकी
रक्षा)-के लिये ईश्वर (धार्मिक राजा अथवा श्रीमान्)-
के समीप जाना चाहिये और द्विजको कुटुम्बके भरण-
पोषणके लिये विविध प्रकारकी सम्पत्तियोंका (न्यायपूर्वक)
साधन (चिन्तन, अर्जन) करना चाहिये॥ ५५॥
३४२
ततो मध्याह्समये रत्रानार्थ मृदमाहरेत्।
पृष्पाक्षतान् कुशतिलान् गोमयं शुद्धमेव च॥ ५६॥
नदीषु देवखातेषु तडागेषु सरस्सु च।
सत्रानं समाचरेतन्नित्यं गर्तप्रस्नवणेषु च॥ ५७॥
परकीयनिपानेषु न र्रायाद् वै कदाचन।
पछ्ठपिण्डान् समुद्धृत्य रन्नायाद् वासम्भवे पुन: ॥ ५८ ॥
मृदेकया शिरः क्षाल्यं द्वाभ्यां नाभेस्तथोपरि।
अधश्च तिसृभि: काय॑ पादौ षड्भिस्तथेव च॥ ५९ ॥
मृत्तिका च समुदिष्टा त्वारद्रमलकमात्रिका।
गोमयस्य प्रमाणं तत् तेनाड्रं लेपयेत् ततः ॥ ६०॥
लेपयित्वा तु तीरस्थस्तल्लिड्रैरेव मन्त्रतः।
प्रक्षाल्याचम्य विधिवत् तत: स्नायात् समाहित: ॥। ६१॥
अभिमन्त्रय जल॑ मन्त्रेस्तल्लिड्रैर्वारुणै: शुभे: ।
भावपूतस्तदव्यक्ते ध्यायन् वे विष्णुमव्ययम्॥ ६२॥
आपो नारायणोदभूतास्ता एवास्यायन पुन: ।
तस्मान्नारायणं देवं सनानकाले स्मरेद् बुध: ॥ ६३॥
प्रोच्य सोंकारमादित्य॑ं त्रिर्निमज्जेजलाशये।
आचान्तः पुनराचामेन्मन्त्रेणानेन मन्त्रवित्॥ ६४॥
अन्तश्वरसि भूतेषु गुहायां विश्वतोमुख:।
त्वं यज्ञस्त्वं वघट्कार आपो ज्योती रसो5मृतम्॥ ६५॥
हुपदां वा त्रिरभ्यसेद् व्याहतिप्रणवान्विताम् ।
सावित्रीं वा जपेद विद्वान् तथा चैवाघमर्षणम्॥ ६६ ॥
* कूर्मपुराण *
तदनन्तर मध्याह्-समयमें स्नानके लिये मिट्टी,
पुष्प, अक्षत, कुश, तिल तथा शुद्ध गोबर लाना चाहिये।
नदियों (पुराण आदियमें प्रसिद्ध देव, ऋषिनिर्मित),
अगाध जलवाले कुण्डों, (जलाशयों), सरोवरों, झरनों
तथा बावलियोंमें नित्य स्नान करना चाहिये। दूसरोंके
तालाब आदिमें कभी भी स्नान नहीं करना चाहिये।
(अन्यत्र स्नान) असम्भव होनेपर (तालाब आदियेंसे)
मिट्टीके पाँच पिण्डोंको निकालकर स्नान करना चाहिये।
मिट्टीसे एक बार सिर धोकर दो बार नाभिके ऊपर
(-के अड्रोंको) धोना चाहिये। नीचेका शरीर तीन बार
तथा छ: बार पाँवोंको धोना चाहिये। आँवलेके बराबर
गीली मिट्टी लेनेका विधान है। गोबरका भी इतना हो
प्रमाण हैं। उससे अड्रोंका लेपन करे॥ ५६--६०॥
(नदी आदिके) किनारे बैठकर तल्लिड्रक* मन्त्रोंके
द्वारा (अड़ोंमें मृत्तिका आदिका यथाविधि) लेपकर
विधिपूर्वक प्रक्षालन एवं आचमन करके सावधानी-
पूर्वक स्नान करना चाहिये॥६१॥
तल्लिड्गक शुभ वरुण-सम्बन्धी मन्त्रोंके द्वारा जलका
अभिमन्त्रणकर पवित्र भावसे उन अव्यक्त अविनाशी
विष्णुका ध्यान करे। 'जल 'की उत्पत्ति नारायणसे ही
हुई है, पुन: वही जल उन (नारायण)-का अयन (निवास)
हुआ, अत: स्नानके समय विद्वानूको चाहिये कि वह
नारायणदेवका स्मरण करे। ओंकारके साथ आदित्यका
उच्चारण करके जलके भीतर तीन बार डुबकी लगानी
चाहिये। आचमन किये रहनेपर भी मन्त्रवेत्ताकों पुनः
इस मन्त्रसे आचमन करना चाहिये--अन्तश्वरसि भूतेषु
गुहायां विश्वतोमुख: | त्वं यज्ञस्त्वं वषघट्कार आपो ज्योती
रसो3मृतम्॥ अर्थात् (हे भगवन्!) सभी ओर मुखवाले
आप सभी प्राणियोंके भीतर (हृदयरूपी) गुहामें विचरण
करते हैं। आप ही यज्ञ हैं और आप ही वषट्कार,
जल, ज्योति, रस तथा अमृतरूप हैं॥६२--६५॥
अथवा दविद्वान् व्यक्तिको तीन बार द्वुपदा (दो
चरणवाली) या व्याहति अथवा प्रणवसे युक्त गायत्री
और अधमर्षण-मन्त्रका जप करना चाहिये॥ ६६॥
* स्मार्तकर्मोंमें वे मन्त्र गृह्मसूत्रानुसार विनियुक्त होते हैं, जिनमें स्मार्तकर्म-बोधक शब्द श्रुत हों। यह आवश्यक नहीं होता
कि उन मन्त्रोंमें स्मार्तकर्मका प्रतिपादन हो। इसीलिये स्मार्तकर्मके मन्त्र स्मार्तकर्मविपयक नहीं, किंतु स्मार्तकर्मलिज्ञक होते हैं।
'अक्षनममी०* मन्त्रमें 'अक्षत' शब्द कथज्िित् श्रुत होनेसे उसका अक्षत चढ़ानेमें विनियोग होता है, वह “अक्षत' चढ़ाने-रूप
कर्मका प्रतिपादक नहीं है, अतएवं “अक्षत'-विपयक नहीं है। मात्र अक्षतलिड्गक है।
* अध्याय १८ *
तत: सम्मार्जनं कुर्यादापो हि ष्ठा मयोभुवः ।
इृदमाप: प्र वहत व्याहतिभिस्तथेव च॥ ६७॥
ततो5भिमन्त्र्य तत् तीर्थमापो हि ष्लादिमन्त्रकै: ।
अन्तर्जलगतो मग्गरो जपेत् त्रिरधमर्षणम्॥ ६८ ॥
त्रिपदां वाथ सावित्री तद्विष्णो: परमं पदम्।
आवर्तयेद् वा प्रणवं देवं वा संस्मरेद्धरिम्॥| ६९ ॥
द्र॒ुदादिव यो मन्त्रो यजुर्वेदे प्रतिष्ठितः।
अन्तर्जले त्रिरावर्त्य सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥ ७०॥
अप: पाणौ समादाय जप्त्वा वै मार्जने कृते।
विन्यस्थ मू्चि तत् तोयं मुच्यते सर्वपातकै: ॥ ७१॥
यधाश्रमेध: क्रतुराट् सर्वपापापनोदन: ।
तथाघमर्षणं सूक्त॑ सर्वपापापनोदनम्॥ ७२॥
अथोपतिष्ठेदादित्यं मूर्धि पुष्पान्विताउ्जलिम्।
प्रक्षिपालोकयेद् देवमुद्दयं_ तमसस्परि॥ ७३॥
उदु त्यं चित्रमित्येते तच्चक्षुरिति मन्त्रतः।
हंस: शुचिषदेतेन सावित्रया च विशेषत: ॥ ७४॥
अन्येश्न वैदिकेर्मन्त्रे: सौरे: पापप्रणाशने:।
सावित्री वे जपेत् पश्चाजपयज्ञ: स वै स्मृत: ॥ ७५॥
३४३
तदनन्तर 'आपो हि ष्ठटा मयो- भुवः०”*, 'इदमाप:
प्र वहत० '' इन मन्त्रों और व्याहतियोंद्वारा मार्जन करना
चाहिये। तदनन्तर 'आपो हि छ्ठा०' इत्यादि मन्त्रोंसे उस
जल (स्नानीय नदी आदिके जल)-का अभिमन्त्रण
करके जलके भीतर डुबकी लगाकर तीन बार अघमर्षण-
मन्त्रका जप करना चाहिये। अथवा त्रिपदा गायत्री-
मन्त्र 'तद्विष्णो: परम पदम्०*' इस मन्त्र या प्रणवका
जप करे अथवा भगवान् विष्णुका स्मरण करे॥ ६७--६९ ॥
यजुर्वेदमें 'द्रुपदादिव०” इस प्रकारसे जो मन्त्र
प्रतिष्ठित है, उसका जलके भीतर तीन बार जप करनेसे
सभी पापोंसे मुक्ति हो जाती है। मार्जन करनेके बाद
हाथमें जल लेकर मन्त्र (द्रुपदादिव०) जपपूर्वक उस
जलको सिरपर रखनेसे (अधमर्षण करनेसे) सम्पूर्ण
पापोंसे मुक्ति हो जाती है। जिस प्रकार अश्वमेध-
यज्ञ समस्त यज्ञोंक राजाके समान है और समस्त
पापोंको दूर करनेवाला है, उसी प्रकार अधमर्षणसूक्त'
भी (सभी सूक्तोंका सम्राट् और) सभी पापोंको दूर
करनेवाला है॥७०--७२॥
इसके बाद सूर्योपस्थान करना चाहिये। (इसकी
प्रक्रिया यह है--) पुष्पयुक्त अज्ञलि मस्तकसे लगाकर
उस फूलको ऊपर (सूर्य)-की ओर उछालकर उन
सूर्यका दर्शन करते हुए 'उद्बयं तमसस्परि' ', 'चित्रं० ''*,
'उदु त्यं०',“ “तच्चक्षु:० ', 'हंसः: शुचिषद्'” एवं
विशेष-रूपसे सावित्री-मन्त्र और सूर्य-सम्बन्धी अन्य
भी पापको नष्ट करनेवाले वैदिक मन्त्रोंके जपके द्वारा
सूर्यको प्रसन्न किया जाय, यही सूर्योपस्थान है। इसके
अनन्तर गायत्रीमनत्रक्मा जप करना चाहिये। इस
(गायत्रीजपको) ही जपयज्ञ कहा गया है ॥ ७३--७५॥
१-आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे॥ (यजु० ११। ५०)
२-इदमाप: प्र वहतावद्यं च मल॑ च यत्। यच्चाभिदुद्रोहानृतं यच्च शेपे अभीरुणम्। आपो मा तस्मादेनस: पवमानश्च मुझ्तु। (यजु० ६। १७)
३-तद्विप्णो: परमं पदश्सदा पश्यन्ति सूरय:। दिवीव चक्षुराततम्॥ (यजु० ६। ५)
४-द्रुपदादिव मुमुचान: स्विन्न: स््नातो मलादिव। पूतं पवित्रेणेवाज्यमाप: शुन्धन्तु मैनस:॥ (यजु० २०। २०)
५-कऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसो5ध्यजायत। ततो रात्रयजायत तत: समुद्रो अर्गव: ।““मथो स्व:॥ (ऋग्वेद १०। १९०। १--३)
६-उद्धयं तमसस्परि स्व: पश्यन्त उत्तरमू। देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्ु॥ (यजु० २०। २१)
७-उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव: | दृशे विश्वाय सूर्यशस्वाहा॥ (यजु० ७। ४१)
८-चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुमित्रस्य वरुणस्याग्ने: | आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षश्सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्न स्वाहा ॥ (यजु० ७। ४२)
९-तच्क्षु्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतं श्रृणुयाम |
शरद: शत प्रत्रवाम शरद: शतमदीना: स्थाम शरद: शत भूयश्व शरद: शतात्॥ (यजु० ३६। २४)
१०-हंस: शुचिपद्सुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वरसदृतसद्रथोमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्विजा ऋत॑ बृहत्॥ (यजु० १० । २४)
३४४
* कूर्मपुराण *
विविधानि पवित्राणि गुह्मविद्यास्तथेव च।
शतरुद्रीयमथर्वशिर: सौरांश्वच शक्तित: ॥ ७६॥
प्राक्कूलेषु समासीन: कुशेषु प्राइःमुख: शुचि: ।
तिष्ठश्चेदीक्षमाणो<र्क जप्यं कुर्यात् समाहित: ॥ ७७॥
स्फाटिकेन्द्राक्षरुद्राक्षे: पुत्रजीवसमुद्धव:।
कर्तव्या त्वक्षमाला स्यादुत्तरादुत्तमा स्मृता ॥ ७८ ॥
जपकाले न भाषेत नान्यानि प्रेक्षयेद् बुध: ।
"न कम्पयेच्छिरोग्रीवां दन्तान् नेव प्रकाशयेत्॥ ७९ ॥
गुहाका राक्षसा सिद्धा हरन्ति प्रसभं यतः।
एकान्ते सुशुभे देशे तस्माज्जप्यं समाचरेत्॥ ८०॥
चण्डालाशौचपतितान् दृष्टाचम्य पुनर्जपेत् ।
तैरेव भाषणं कृत्वा स्त्रात्वा चैव जपेत् पुन: ॥ ८१॥
आच्म्य प्रयतो नित्यं जपेदशुचिदर्शने।
सौरान् मन्त्रान् शक्तितो बे पावमानीस्तु कामत: ॥ ८२॥
यदि स्यात् क्लिन्नवासा वे वबारिमध्यगतो जपेत्।
अन्यथा तु शुचौ भूम्यां दर्भषु सुसमाहित: ॥ ८३॥
प्रदक्षिणं समावृत्य नमस्कृत्वा तत: क्षितौ।
आचम्य च यथाशास्त्रं शक्त्या स्वाध्यायमाचरेत्॥ ८४॥
तत: संतर्पयेद देवानृषीन् पितृगणांस्तथा।
आदावोंकारमुच्चार्य नमोउन्ते तर्पयामि व: ॥ ८५॥
देवान् ब्रह्मऋषीश्चेव तर्पयेदक्षतोदके:।
तिलोदकैः पितृन् भक्त्या स्वसूत्रोक्तविधानत: ॥ ८६॥
पूर्वाग्र कुशोंपर पूर्वाभिमुख पवित्र होकर बैठना
चाहिये और सूर्यका दर्शन करते हुए समाहित-चित्त
होकर विविध पवित्र मन्त्रों, गुह्मविद्याओं, शतरुद्रिव,
अथर्वशिरस् एवं सूर्यदेवताके मन्त्रोंका जप करना
चाहिये। स्फटिक, इन्द्राक्ष (इन्द्र वृक्ष-विशेषके फलको
माला), रुद्राक्ष तथा पुत्रजीवककी (वृक्ष-विशेषके फलकी
माला*) अक्षमाला बनानी चाहिये। इनमें पूर्वसे बादवाली
माला क्रमश: उत्तम कही गयी है॥७६--७८॥
बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि वह जप करते समय
बोले नहीं, दूसरे लोगोंकी ओर न देखे। सिर और गरदनको
न हिलाये और न ही दाँतोंको दिखलाये, क्योंकि (ऐसा
करनेसे ) गुह्यक, राक्षस तथा सिद्ध उस जपके फलका
बलातू हरण कर लेते हैं, अत: किसी एकान्त अत्यन
शुभ स्थानमें जप करना चाहिये॥ ७९-८०॥
चाण्डाल, आशौच-युक्त व्यक्ति तथा पतितको
देखनेपर आचमन करके पुन: जप करना चाहिये। इनके
साथ बात करनेपर स्नान करनेके बाद ही पुनः जप
करना चाहिये। अपवित्र पदार्थके दिख जानेपर आचमन
करके प्रयत्रपूर्वक यथाशक्ति नित्य सूर्यसम्बन्धी मत्नों
और पावमानी मन्त्रोंका इच्छानुसार (मनस्तुष्टिपर्यन्त)
जप करना चाहिये। यदि भींगे वस्त्र पहने हों तो जलके
मध्य स्थित होकर जप करना चाहिये। अन्यथा पवित्र
भूमिमें कुशासनके ऊपर बैठकर एकाग्रतापूर्वक जप
करना चाहिये॥ ८१--८३॥
(जप पूरा करनेके बाद) प्रदक्षिणा करके पृथ्वीपर
नमस्कार करके और आचमन करके शास्त्रानुसार
यथाशक्ति स्वाध्याय करना चाहिये, तदनन्तर देवताओं,
ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण करना चाहिये। प्रारम्भमें
ओंकारका उच्चारण कर और अन्तमें “नमः लगाकर
'आपका तर्पण करता हूँ! (वः तर्पयामि)-ऐसा
कहना चाहिये॥ ८४-८५॥
देवताओं तथा ब्रह्मर्षियोंका तर्पण अक्षत और
जलसे करना चाहिये और अपने गृह्यसूत्रोक्त विधिके
अनुसार पितरोंका तर्पण तिल और जलसे भक्तिपूर्वक
करना चाहिये॥ ८६॥
* माला-विशेषोंका विस्तृत वर्णन पद्मोत्तरखण्ड अध्याय १०८ में द्रष्टव्य है।
* अध्याय २१८ *
३४५
अन्वारब्धेन सब्येन पाणिना दक्षिणेन तु।
देवर्षीस्तर्पयेद् धीमानुदकाझलिभि: पितृन्॥ ८७॥
यज्ञोपवीती देवानां निवीती ऋषितर्पणे।
प्राचीनावीती पित्र्ये तु स्वेन तीर्थन भावतः ॥ ८८ ॥
निष्पीड्य स्नानवस्त्रं तु समाचम्य च वाग्यत: ।
स्वैर्मन्त्ररर्चयेद देवान् पुष्पैः पत्रेरधाम्बुभि: ॥ ८९॥
ब्रह्मणं शंकरं सूर्य तथेव मधुसूदनम्।
अन्यांश्राभिमतान् देवान् भक्त्या चाक्रोधनो5त्वर: ॥ ९०॥
प्रदद्याद् वाथ पुष्पाणि सूक्तेन पौरुषेण तु।
आपो वा देवता: सर्वास्तेन सम्यक् समर्चिता: ॥ ९१॥
ध्यात्वा प्रणवपूर्व बे दैवतानि समाहितः।
नमस्कारेण पुष्पाणि विन्यसेद वे पृथक् पृथक्॥ ९२॥
नविष्णवाराधनात् पुण्य॑ विद्यते कर्म वैदिकम्।
तस्मादनादिमध्यान्तं नित्यमाराधयेद्धरिम्॥ ९३॥
तद्विष्णोरिति मन्त्रेण सूक्तेन पुरुषेण तु।
नेताभ्यां सदृशो मन्त्रो वेदेषूक्तश्चतुर्ष्षपि॥ ९४॥
बुद्धिमानू (आस्तिक अधिकारी व्यक्ति)-को सव्य
(बाँयें) हाथसे अन्वारब्ध (सम्बद्ध) दाहिने हाथसे
अर्थात् दोनों हाथोंकी अज्जलिद्वारा जलसे देवताओं,
ऋषियों एवं पितरोंका तर्पण करना चाहिये। यज्ञोपवीती '
अर्थात् सव्य होकर देवताओंका, निवीती' होकर अर्थात्
मालाकी तरह कण्ठमें यज्ञोपवीत धारणकर ऋषियोंका
और प्राचीनावीती* अर्थात् अपसव्य होकर भक्तिभावसे
(देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंके) अपने-अपने तीर्थोंसे
तर्पण करना चाहिये॥ ८७-८८ ॥
सस््नानके वस्त्रकों' निचोड़कर संयतवाणीसे युक्त
होकर आचमन करके तत्तद् मन्त्रोंसे पत्र, पुष्प तथा
जलके द्वारा देवताओंका पूजन करना चाहिये। क्रोध
और शीघ्रताका सर्वथा परित्यागकर भत्तिपूर्वक ब्रह्मा,
शंकर, सूर्य, विष्णु तथा अन्य जो भी अभीष्ट देवता
हों, उनकी पूजा करनी चाहिये॥ ८९-९० ॥
पुरुषसूक्तके द्वारा पुष्प अर्पित करना चाहिये।
अथवा जल सभी देवताओंका स्वरूप है, अतः उसके
द्वारा पूजन करनेसे सभी देवताओंकी भलीभाँति पूजा
हो जाती है। एकाग्रमनसे प्रणवका उच्चारण कर
देवताओंका ध्यान करना चाहिये। नमस्कारकर पृथक्-
पृथक् देवोंपर पुष्प चढ़ाना चाहिये। विष्णुकी आराधनासे
अधिक पुण्यप्रद और कोई वैदिक कर्म नहीं है।
इसलिये आदि, मध्य और अन्तसे रहित विष्णुकी नित्य
आराधना करनी चाहिये॥ ९१--९३॥
'तद्दिष्णो:० '' इस मन्त्रसे तथा पुरुषसूक्तसे श्रीविष्णुकी
आराधना करनी चाहिये। चारों वेदोंमें भी इन दोनों
('तद्विष्णो:०' एवं 'पुरुष सूक्त ') मन्त्रोंक सदृश अन्य
कोई मन्त्र नहीं कहा गया है॥९४॥
१-बाँयें कंधेके ऊपर रखते हुए दाहिने हाथ (दाहिनी भुजा)-के नीचे रखे हुए ब्रह्मसूत्र (जनेऊ)-कों उपवीत या यज्ञोपवीत कहते
हैं और इस प्रकार ब्रह्मसूत्र धारण करनेवालेको उपवीती या यज्ञोपवीती कहते हैं।
२-मालाकी तरह कण्ठसे सीधे वक्ष:स्थलकी ओर लम्बित ब्रह्मसूत्र (जनेऊ)-कों निवीत कहते हैं और इस त्रह्मसूत्र धारण
करनेवालेको निवीती कहते हैं ।
३-दाहिने कंधेके ऊपर रखते हुए बायें हाथ (बायीं भुजा)-के नीचे रखे हुए त्रह्मसूत्र (जनेऊ)-को प्राचीनावीत कहते हैं और
इस प्रकार ब्रह्मसूत्र धारण करनेवालेको प्राचीनावीती कहते हैं।
४-देवताओंका तर्पण देवतीर्थ (अँगुलियोंके अग्रभाग)-से, ऋषियों-मनुष्योंका तर्पण काय-तीर्थ (कनिष्ठिका अँगुलिके मूल)-
से और पितरोंका तर्पण पितृतीर्थ (अद्जुष्ठ तथा तर्जनी अँगुलीके मूलों)-से करना चाहिये।
५-तर्पणके पूर्व स्नानके वस्त्रोंको सुखानेके लिये निचोड़ना नहीं चाहिये अन्यथा पितर निराश होकर चले जाते हैं। इसीलिये यहाँ
तर्पणके अनन्तर स्नानके वस्त्रोंको निचोड़नेकी बात कही गयी है।
६-तद्विष्णो: परमं पद<सदा पश्यन्ति सूरय:। दिवीव चक्षुराततम् (यजु० ६। ५)।
३४६
* कूर्मपुराण *
निवेदयेत स्वात्मानं विष्णावमलतेजसि।
तदात्मा तन्मना: शान्तस्तद्विष्णोरिति मन्त्रतः:॥ ९५७५ ॥
अथवा देवमीशानं भगवन्तं सनातनम्।
आराधयेन्महादेव॑ भावपूतो महेश्वरम्॥ ९६ ॥
मन्त्रेण रुद्रगायत्र्या प्रणबवेनाथ वा पुनः।
ईशानेनाथ वा रुद्रेस्त्यम्बकेन समाहित:॥ ९७ ॥
पुष्पे: पत्रेरथाद्धिर्वा चन्दनाद्येम॑हेश्वरम्।
उक्त्वा नम: शिवायेति मन्त्रेणानेन योजयेत्॥ ९८ ॥
नमस्कुर्यान््महादेव॑ ऋतं सत्यमितीश्वरम्।
निवेदयीत स्वात्मानं यो ब्रह्माणमिती श्वरम्॥ ९९ ॥
प्रदक्षिणं द्विज: कुर्यात् पञ्ञ ब्रह्माणि वै जपन्।
ध्यायीत देवमीशानं व्योममध्यगतं शिवम्॥ १००॥
अथावलोकगयेदर्क हंस: शुचिषदित्यचा।
कुर्यात् पदञ्ञ महायज्ञान् गृहं गत्वा समाहित: ॥ १०१॥
देवयज्ञं पितृयज्ञ॑ भूतयज्ञ॑ तथेव च।
मानुष्यं ब्रह्ययज्ञं च पक्ष यज्ञान् प्रचक्षते ॥ १०२॥
यदि स्यात् तर्पणादर्वाक् ब्रह्ययज्ञ: कृतो न हि।
कृत्वा मनुष्ययज्ञं वे ततः स्वाध्यायमाचरेत्॥ १०३॥
अग्ने: पश्चिमतो देशे भूतयज्ञान्त एव वा।
कुशपुज्जे समासीन: कुशपाणि: समाहित: ॥ १०४॥
शालाग्रौ लौकिके बाग्नौ जले भूम्यामथापि वा।
बैश्वदेवं ततः कुर्याद देवयज्ञ: स बै स्मृत: ॥ १०५॥
यदि स्याललौकिके पक्व॑ ततोउन्नं तत्र हूयते।
शालाय्रौ तत्र देवान्न॑ं विधिरिष सनातन: ॥ १०६॥
देवेभ्यस्तु हुतादन्नाच्छेषाद भूतबलिं हरेत्।
भूतयज्ञः स वे ज्ञेयो भूतिदः सर्वदेहिनाम्॥ १०७॥
श्रभ्यश्व श्रपचेभ्यश्व पतितादिभ्य एव च।
दद्याद भूमी बलिं त्वन्न॑ पक्षिभ्यो5थ द्विजोत्तम: ॥ १०८ ॥
'तद्विष्णो:०' इस मन्त्रके द्वारा तदात्मा और
तनन््मय होकर शान्तिपूर्वक अपनेको विशुद्ध तेज:-
स्वरूप विष्णुमें निवेदित करना चाहिये। अथवा पवित्र
भावनासे सनातन भगवान् ईशान महेश्वरदेव महादेवको
आराधना करनी चाहिये॥ ९५-९६ ॥॥
रुद्रगायत्री, प्रणव, ईशान-मन्त्र, रुद्र तथा त्र्यम्बक-
मन्त्रसे एकाग्र-मन होकर पुष्प, पत्र, जल तथा चन्दन
आदिके द्वारा महेश्वरकी आराधना करनी चाहिये और
मन्त्रका उच्चारणकर मन्त्रके साथ “नमः शिवाय' को
जोड़ना चाहिये। तदनन्तर ऋत एवं सत्यस्वरूप ईश्वर
महादेवको नमस्कार करना चाहिये और “यो ब्रह्माणं० '
इस मन्त्रके द्वारा अपनेको ईश्वरके लिये समर्पित करे।
द्विजको पाँच ब्रह्म (शिवके पाँच नामों )-का जप करते
हुए प्रदक्षिणा करनी चाहिये और आकाशके मध्य स्थित
ईशानदेव शिवका ध्यान करना चाहिये॥ ९७--१००॥
इसके अनन्तर 'हंसः शुचिषद्०' इस ऋचासे
सूर्यका दर्शन करे और घर जाकर ध्यानपूर्वक पञ्चयज्ञोंको
करे। देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ तथा ब्रह्मयज्ञ-
ये पाँच (महा-) यज्ञ कहे गये हैं॥१५०१-१०२॥
यदि तर्पणसे पहले ब्रह्मयज्ञ न किया हो तो
मनुष्ययज्ञ करनेके बाद स्वाध्याय (ब्रह्मययज्ञ) करना
चाहिये अथवा भूतयज्ञके अन्तमें एकाग्रचित्त होकर
हाथमें कुश लेकर अग्निके पश्चिमकी दिशामें कुशपुंजपर
बैठकर यज्ञशालाकी अग्रि, लौकिकाग्रि अथवा जलमें
या भूमिपर वैश्वदेव करना चाहिये। यह देवयज्ञ कहलाता
है। यदि लौकिकाग्रिमें अन्न पकाया गया हो तो उसीमें
हवन किया जाता है और यदि शालाकी अग्रिमें अन
तैयार किया गया हो तो शालाग्निमें ही वैश्वदेव होम
करना चाहिये। यही सनातन विधि है। वैश्वदेव होमके
पश्चात् बचे हुए अननद्वारा भूतबलिकर्म करना चाहिये।
इसे भूतयज्ञ जानना चाहिये। यह सर्वप्राणियोंको ऐश्वर्य
प्रदान करता है। द्विजोत्तमको (घरके बाहर) भूमिपर
कुत्ता, चाण्डाल, पतित आदि तथा पक्षियोंकों अनकौ
बलि देनी चाहिये॥ १०३--१०८॥
१-यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै। तरह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुशक्षु्व शरणमहं प्रपच्चे॥
(श्वेताधवतर० ६। १८)
२-ईशान: * सर्वविद्यानाम् ईश्वर: ' सर्वभूतानाम्। ब्रह्माधिपति:* ब्रह्मणोडधिपति: * ब्रह्मा' शिवो मे अस्तु सदा शिवोम्॥
* अध्याय १२८ *
सायं चान्नस्य सिद्धस्य पल्यमन्त्र बलि हरेत्।
भूतयज्ञस्त्वयं नित्यं सायं प्रातर्विधीयते।। १०९॥
एकं तु भोजयेद् विप्र॑ पितृनुद्दिश्य सत्तमम्।
नित्यश्राद्धं तदुद्दिष्ट पितृयज्ञों गतिप्रद:॥ ११०॥
उद्धृत्य वा यथाशक्ति किश्ञिदन्न॑ समाहित: ।
वेदतत्त्वार्थविदुषे. ट्विजायैबवोषपादयेत्॥ १११॥
पूजयेदतिथिं नित्यं नमस्येदर्चयेद् द्विजम्।
मनोवाक्कर्मभि: शान्तमागतं स्वगृहं तत: ॥ ११२॥
हन्तकारमथाग्रं वा भिक्षां वा शक्तितो द्विज: ।
दद्यादतिथये नित्यं बुध्येत परमेश्वरम्॥ ११३॥
भिक्षामाहु्ग्रासमात्रमग्र॑ तस्या श्चतुर्गुणम् ।
पुष्कलं हन्तकारं तु तच्चतुर्गुणमुच्यते॥ ११४॥
गोदोहमात्रं काल॑ वै प्रतीक्ष्यो ह्तिथि: स्वयम्
अभ्यागतान् यथाशक्ति पूजयेदतिथिं यथा॥ ११५॥
भिक्षां वे भिक्षवे दद्याद् विधिवद् ब्रह्मचारिणे |
दद्यादन्न॑ यथाशक्ति त्वर्थिभ्यो लोभवर्जित:॥ ११६॥
सर्वेषामप्यलाभे तु अन्न गोभ्यो निवेदयेत्।
भुग्जीत बन्धुभि: सार्ध वाग्यतो5न्नमकुत्सयनू॥ ११७॥
अकृत्वा तु द्विज: पञ्ञ महायज्ञान् द्विजोत्तमा:।
भुज्जीत चेत् स मूढात्मा तिर्यग्योनिंस गच्छति॥ ११८ ॥
वेदाभ्यासो5न्वहं शक्त्या महायज्ञक्रिया क्षमा।
नाशयत्याशु पापानि देवानामर्चन॑ तथा॥ ११९॥
यो मोहादथवालस्यादकृत्वा देवतार्चनम्।
भुडक्ते स याति नरकान् शूकरेष्वभिजायते॥ १२०॥
३४७
पत्नी सायंकाल पके हुए अन्नकी बलि बिना मन्त्रके
प्रदान करे, यही भूतयज्ञ है, जो नित्य सायंकाल और
प्रात:काल किया जाता है। पितरोंके उद्देश्यसे एक श्रेष्ठ
ब्राह्मणको प्रतिदिन भोजन कराना चाहिये, इसे नित्य-
श्राद्ध कहा गया है। यह पितृयज्ञ (उत्तम) गति प्रदान
करनेवाला है॥ १०९-११०॥
अथवा यथाशक्ति कुछ अन्न निकालकर वेदके
तत्त्वार्थकों जाननेवाले ब्राह्मणको समाहित होकर देना
चाहिये। तदनन्तर अपने घर आये हुए शान्त टद्विज
अतिथिका मन, वाणी तथा कर्मके द्वारा नित्य नमस्कार,
पूजन एवं अर्चन करना चाहिये। द्विज अतिथिको
यथाशक्ति नित्य 'हन्तकार', 'अग्र' अथवा भिक्षा प्रदान
करे और उसे परमेश्वरका रूप समझे॥ १११--११३॥
ग्रासमात्र (अन्न)-को भिक्षा और उसके चौमभुने
अर्थात् चार ग्रासके बराबर अन्नको अग्र कहा जाता
है। अग्रके चौगुने अर्थात् सोलह ग्रासके बराबर पर्याप्त
अन्नको हन्तकार कहा जाता है। गोदोहनकाल-
पर्यन्त अतिथिकी स्वयं प्रतीक्षा करनी चाहिये। जिस
प्रकार अतिथिकी' पूजा की जाती है, उसी प्रकार
अभ्यागतोंकी' भी यथाशक्ति पूजा (सेवा) करनी
चाहिये॥ ११४-११५॥
ब्रह्मचारी भिक्षुकको विधिवत भिक्षा प्रदान करे।
लोभरहित होकर याचकोंको यथाशक्ति अन्न प्रदान करे,
इन सभीके न मिलनेपर गौओंको अन्न निवेदित करे।
तदनन्तर भोजनकी निन्दा न करते हुए बन्धुओंके साथ
मौन होकर भोजन करे॥ ११६-११७॥
द्विजोत्तमो! यदि द्विज पञ्च महायज्ञोंको बिना किये
ही भोजन करता है तो वह मूढात्मा तिर्यग्योनि प्राप्त
करता है। प्रतिदिन यथाशक्ति किया गया वेदोंका
अभ्यास, महायज्ञ कर्म, क्षमाका भाव और देवताओंका
पूजन--ये शीघ्र ही पापोंका नाश करते हैं । जो मोहपूर्वक
अथवा आलस्यसे देवताओंकी पूजा किये बिना भोजन
करता है, वह नरकोंको प्राप्त करता है और बादमें
शूकरकी योनिमें जन्म लेता है॥११८--१२०॥
१-अज्ञातपूर्वगृहागत व्यक्ति (अकस्मात् घरपर आ जानेवाला) अतिथि है। (श्रीधरस्वामी )
२-ज्ञातपूर्वगृहागत व्यक्ति (जिसका पहलेसे घरपर आना ज्ञात है ऐसा व्यक्ति) अभ्यागत है।
३४८
* कूर्मपुराण *
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन कृत्वा कर्माणि वे द्विजा: ।
द्विजो! इसलिये सभी प्रकारके प्रयक्षोंके द्वारा
भुज्जीत स्वजनै: सार्थ स याति परमां गतिम्॥ १२१॥ | (नित्य) (अपने अधिकारानुसार शास्त्रविहित) कर्मोंको
( श्रद्धापूर्वक ) करनेके बाद स्वजनोंके साथ भोजन करना
चाहिये। ऐसा करनेवाला परमगति प्राप्त करता है॥१२१॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्कधां संहितायामुपरिविभागे अष्टादशोउध्याय: ॥ १८ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें अठारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १८॥
उन्नीसवाँ अध्याय
भोजन-विधि, ग्रहणकालमें भोजनका निषेध, शयन-विधि,
गृहस्थके नित्यकमोॉके अनुष्ठानका महत्त्व
व्यास उवाच
प्राइमुखो5न्नानि भुज्जीत सूर्याभिमुख एव वा।
आसीनस्त्वासने शुद्धे भूम्यां पादौ निधाय तु॥ १॥
आयुष्य॑ प्राइमुखो भुड््ते यशस्यं दक्षिणामुख: ।
श्रियं प्रत्यद्मुखो भुड्क्ते ऋतं भुड्क्ते उदद्मुख: ॥ २॥
पश्चाद्रों भोजनं कुर्याद् भूमौ पात्र निधाय तु।
उपवासेन तत्तुल्यं॑ मनुराह प्रजापति:॥ ३॥
उपलिप्ते शुचौ देशे पादौ प्रक्षाल्य वे करौ।
आच्म्यार्द्रॉननो5क्रोध: पश्चादों भोजन चरेत्॥ ४॥
महाव्याहतिभिस्त्वन्नं परिधायोदकेन तु।
अमृतोपस्तरणमसीत्यापोशानक्रियां चरेत्॥ ५॥
स्वाहाप्रणवसंयुक्तां प्राणायाद्याहुतिं ततः।
अपानाय ततो हुत्वा व्यानाय तदनन्तरम्॥ ६॥
उदानाय ततः कुर्यात् समानायेति पद्चमीम्।
विज्ञाय तत्त्वमेतेषां जुहुयादात्मनि द्विज:॥७॥
व्यासजीने कहा--पवित्र आसनपर बैठकर पाँवोंको
भूमिपर रखकर पूर्वकी ओर अथवा सूर्याभिमुख होकर
अन्न (भोजन) ग्रहण करना चाहिये। पूर्वाभिमुख होकर
भोजन करनेसे लम्बी आयु, दक्षिणाभिमुख होकर भोजन
करनेसे यश, पश्चिमाभिमुख होकर भोजन करनेसे
सम्पत्ति और उत्तरकी ओर मुख करके भोजन करनेसे
सत्यकी प्राप्ति होती है॥१-२॥
पाँचों अड्ों (दोनों हाथ, दोनों पैर तथा मुख)-का
प्रक्षालनकर (भोजन) पात्रको भूमिपर रखकर भोजन
करना चाहिये। प्रजापति मनुने इस प्रकारके भोजनको
उपवासके समान बताया है। दोनों हाथ, पैर एवं मुखको
धोनेके बाद आचमनकर (गोबर इत्यादिसे) लीपे गये
पवित्र स्थानमें (बैठकर) क्रोधरहित होकर भोजन करना
चाहिये। महाव्याहतियोंका उच्चारण करते हुए जलसे
अन्नको परिवेष्टितकर 'अमृतोपस्तरणमसि' ऐसा कहकर
आपोशान' (आचमन) क्रिया (सम्पन्न) करे॥ ३-५॥
तदनन्तर स्वाहा एवं प्रणवके साथ 'प्राणाय' का
उच्चारण कर (३७ प्राणाय स्वाहा) कहकर पहली
आहुति देनी चाहिये। तदुपरान्त “3७ अपानाय स्वाहा'
और फिर “३» व्यानाय स्वाहा', पुनः '३& उदानाय
स्वाहा' और अन्तमें '३» समानाय स्वाहा' कहकर
पाँचवीं आहुति देनी चाहिये। इनका रहस्य समझते हुए
ट्विजको आत्मामें आहुति देनी चाहिये ॥६-७॥
१-भोजनके आरम्भ एवं अन्तमें आपोशान (आचमन) करके अन्नको अनग्रन एवं अमृत किया जाता है।
२-आत्मामें आहुति देनेकी भावनासे भोजनके प्रारम्भमें छोटे-छोटे पाँच ग्रास मुखमें 'प्राणाय स्वाहा' आदि पाँच मन्त्रोंसे देना चाहिये।
* अध्याय २९ *
शेषमन्न॑ यथाकामं भुज्जीतव्यं जनैर्युतम्।
ध्यात्वा तन्मनसा देवमात्मानं बै प्रजापतिम्॥ ८ ॥
अमृतापिधानमसीत्युपरिष्टादप:. पिबेत्।
आचान्त: पुनराचामेदायं गौरिति मन्त्रत:॥ ९ ॥
द्रुपदां वा त्रिरावर्त्य सर्वपापप्रणाशिनीम्।
प्राणानां ग्रन्थिरसीत्यालभेद् हृदयं ततः॥ १०॥
आच्म्याडुष्ठमात्रेति पादाडुष्ठे$थ दक्षिणे।
नि:स्रावयेद् हस्तजलमूर्ध्वहस्त: समाहित: ॥ ११॥
ह॒तानुमन्त्रणं कुर्यात् श्रद्धायामिति मन्त्रतः ।
अथाक्षरेण स्वात्मानं योजयेद् ब्रह्मणेति हि॥ १२॥
सर्वेषामेव यागानामात्मयाग: परः स्मृतः।
यो5नेन विधिना कुर्यात् स याति ब्रह्मण: क्षयम्॥ १३॥
यज्ञोपवीती भुज्जीत स्रग्गन्धालड्डुतः शुचि: ।
सायंप्रातर्नान््तरा वे संध्यायां तु विशेषत:॥ १४॥
नद्यात् सूर्यग्रहात् पूर्वमद्धि सायं शशिग्रहात्।
ग्रहकाले च नाएनीयात् स्त्रात्वाश्नीयात् तु मुक्तयो: ॥ १५॥
मुक्ते शशिनि भुज्जीत यदि न स्थान्महानिशा।
अमुक्तयोरस्तंगतयोरद्याद् दृष्ठा परेडहनि॥ १६॥
नाश्नीयात् प्रेक्षमाणानामप्रदायैव दुर्मति:।
न यज्ञशिष्टादन्यद् वा न क्रुद्धो नान््यमानस: ॥ १७॥
आत्मार्थ भोजन यस्य रत्यर्थ यस्य मैथुनम्।
वृत््यर्थ यस्य चाधीतं निष्फलं तस्य जीवितम्॥ १८ ॥
३४९
फिर देव प्रजापति तथा आत्माका मनसे ध्यान
करते हुए अवशिष्ट अन्न (भोजन)-का बन्धुओंके साथ
इच्छानुसार भोजन करना चाहिये। (भोजन कर लेनेके
बाद) 'अमृतापिधानमसि' यह मन्त्र पढ़कर जल पीना
(आचमन करना) चाहिये। आचमनके उपरान्त पुन:
'आयं गौ: *०' इस मन्त्रको पढ़ते हुए आचमन करना
चाहिये | तदनन्तर सभी प्रकारके पापोंका नाश करनेवाली
“द्रपदा०' का तीन बार पाठकर 'प्राणानां ग्रन्थिरसि
इस मन्त्रसे हृदयका स्पर्श करे॥ ८--१०॥
ऊपर हाथ किये हुए समाहितमन होकर आचमन
करके “अड्ुष्ठमात्रेति' मन्त्रद्दारा दाहिने पैरके अँगूठेपर
हाथका जल गिराना चाहिये। ' श्रद्धायाम्० ' इस मन्त्रसे
हुतानुमन्त्रण करे। तदनन्तर 'ब्रह्मणा०' इस मन्त्रसे अपनी
आत्माका अक्षर-तत्त्वसे योग करना चाहिये। सभी यागोंमें
आत्मयाग श्रेष्ठ कहा गया है। जो इस विधिसे (आत्मयाग)
करता है, वह ब्रह्मधाममें जाता है॥ ११--१३॥
यज्ञोपवीती होकर अर्थात् सव्य होकर तथा माला
(एवं चन्दनकी ) सुगन्धिसे अलंकृत होकर पतवित्रतापूर्वक
भोजन करना चाहिये। सायंकाल, प्रात:काल, मध्याहकाल
और विशेषरूपसे संध्याकाल (प्रदोषकाल)-के समय
भोजन नहीं करना चाहिये। सूर्यग्रहणसे पहले दिनमें,
चन्द्रग्रहणसे पूर्व सायंकालमें तथा ग्रहणकालमें भोजन
नहीं करना चाहिये। ग्रहणकी मुक्ति हो जानेपर स्नान
करनेके अनन्तर भोजन करना चाहिये। चन्द्रमाके
ग्रहणसे मुक्त हो जानेपर यदि अर्धरात्रि न हो तो भोजन
करना चाहिये। बिना ग्रहणसे मुक्त हुए चन्द्रमा और
सूर्य दोनोंके अस्त हो जानेपर दूसरे दिन उनका दर्शन
करके भोजन करना चाहिये॥ १४--१६॥
देखनेवालों (भूखे व्यक्तियों)-को बिना दिये हुए तथा
दुर्ममा होकर भोजन नहीं करना चाहिये। यज्ञसे अवशिष्ट
अन्नसे भिन्न अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिये। अन्यमनस्क
होकर तथा क्रुद्ध होकर भोजन नहीं करना चाहिये। जो
केवल अपने लिये ही भोजन बनाता है, जो केवल
कामसुखके लिये ही मैथुन करता है और जो केवल
आजीविका प्राप्त हो जाय--इस उद्देश्यसे अध्ययन करता
है, उसका जीवन निष्फल ही है॥ १७-१८॥
" आय॑ गो: पृश्मरिरक्रमीदसदन् मातरं पुर: । पितरं च प्रयन्त्स्व:। (यजु० ३। ६)
३५०
है कूर्मपुराण ्ः
यदभुड्क्ते वेष्टितशिरा यच्च भुड्रक्ते उदडग्मुख: ।
सोपानत्कश्न यद् भुडन्तते सर्व विद्यात् तदासुरम्॥ १९॥
नार्धरात्रे न मध्याद्धे नाजीर्णे ना्द्रवस्त्रधूक् ।
न च भिन्नासनगतो न शयान: स्थितोडपि वा॥ २०॥
न भिन्नभाजने चैव न भूम्यां न च पाणिषु।
नोच्छिष्टो घृतमादद्यान्न मूर्धानं स्पृशेदपि॥ २१॥
न ब्रह्म कीर्तयन् वापि न निःशेषं न भार्यया।
नान्धकारे न चाकाशे न च देवालयादिषु॥ २२॥
नेकवस्त्रस्तु भुउ्जीत न यानशयनस्थित: ।
न पादुकानिर्गतो5थ न हसन् विलपन्नपि॥ २३॥
भुक्त्वै$वं सुखमास्थाय तदन्नं परिणामयेत्।
इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थानुपबंहयेत्॥ २४॥
ततः संध्यामुपासीत पूर्वोक्तविधिना द्विज:।
आसीनस्तु जपेद् देवीं गायत्रीं पश्चिमां प्रति २५॥
न तिष्ठति तु यः पूर्वा नास्ते संध्यां तु पश्चिमाम् ।
स शूद्रेण समो लोके सर्वधर्मविवर्जित:॥ २६॥
हुत्वाग्निं विधिवन्मन्त्रे्भुक्त्वा यज्ञावशिष्टकम् ।
सभृत्यबान्धवजन: स्वपेच्छुष्कपदो निशि॥ २७॥
नोत्तराभिमुख: स्वप्यात् पश्चिमाभिमुखो न च।
न चाकाशे न नग्नो वा नाशुचिर्नासने क्वचित्॥ २८ ॥
जो सिर ढककर भोजन करता है, उत्तरकी ओर
मुख करके भोजन करता है और जूता पहनकर भोजन
करता है, उसके इस प्रकार किये गये भोजनको आसुरी
भोजन समझना चाहिये। ठीक अर्धरात्रि, ठीक मध्याह,
अजीर्ण होनेपर, गीले वस्त्र धारणकर, दूसरेके लिये
निर्दिष्ट आसनपर, सोते हुए, खड़े होकर, टूटे-फूटे
पात्रमें, भूमिपर तथा हाथपर भोजन नहीं करना चाहिये
जूठे होकर न तो घृत ग्रहण करे और न सिरका ही
स्पर्श करे॥ १९--२१॥
(भोजन करते हुए) वेदका उच्चारण नहीं करना
चाहिये और बिना कुछ* भोजन छोड़े ही अर्थात् पूर्ण
भोजन न करे तथा भायके साथ भी भोजन न करें।
न अन्धकारमें, न आकाशके नीचे (शून्य स्थानमें),
न देवमन्दिरोंमें ही भोजन करें। एक वस्त्र पहनकर,
सवारी या शय्यापर बैठकर भोजन नहीं करना चाहिये।
बिना खड़ाऊँ उतारे और हँसते हुए तथा रोते हुए भी
भोजन नहीं करना चाहिये॥ २२-२३॥
इस प्रकार भोजन करके सुखपूर्वक बैठकर उस
अन्नको पचाना चाहिये और इतिहास तथा पुराणोंके द्वार
वेदके रहस्योंको विस्तारपूर्वक समझना चाहिये। तदनन्तर
द्विजको पूर्वमें बतलायी गयी विधिके अनुसार संध्योपासना
करनी चाहिये। पश्चिमकी ओर मुख करते हुए आसनपर
बैठकर गायत्री देवीका जप करना चाहिये। जो व्यक्ति
पूर्वकी अर्थात् प्रातःकालकी और पश्चिमकी अर्थात् साय॑-
कालकी संध्या नहीं करता है, वह सभी धर्मोंसे रहित
होता हुआ लोकमें शूद्रके समान होता है॥ २४-२६॥
मन्त्रोंके द्वारा विधिपूर्वक अग्निमें हवन करके यज्ञसे
बचे अन्नको बन्धु-बान्धव तथा भृत्यजनोंके साथ ग्रहणकर
रात्रिमें सूखे पैर होकर (अर्थात् गीला पैर न रहे) शयन
करना चाहिये। न तो उत्तरी ओर सिर करके और
न पश्चिमकी ओर सिर करके सोना चाहिये। खुले
आकाशके नीचे (अथवा शून्य स्थानमें), नग्र होकर,
अपवित्र अवस्थामें और बैठनेके आसनपर कभी नहीं
सोना चाहिये॥ २७-२८ ॥
+ गृहस्थको भोज्य पदार्थ यथायोग्य अवशिष्ट रखकर भोजन करना चाहिये। इसका आशय यह है कि भोजन कर लेनेके अनन्तर
यदि कोई ऐसा व्यक्ति आ जाय, जिसे स्वयं भोजन कर लेनेके बाद भी उसकी अपेक्षाके अनुसार भोजन कराया जा सके, जिससे
भोज्य पदार्थक अभावमें वह भूखा न रह जाय।
'* अध्याय २० * ३५१
न शीर्णायां तु खट्वायां शून्यागारे न चैव हि। टूटी-फूटी चारपाईपर, सूनसान घरमें तथा बाँस
नानुवंशं न पालाशे शयनं वा कदाचन॥ २९॥ | या पलाससे बनी खाटपर कभी नहीं सोना चाहिये। इस
इत्येतद्खिलेनोक्तमहन्यदहनि वे मया। प्रकार मैंने ब्राह्मणों (द्विजों)-के मोक्षदायक प्रतिदिन
ब्राह्णणानां कृत्यजातमपवर्गफलप्रदम्॥ ३०॥ | किये जानेवाले सम्पूर्ण कृत्यों (दैनिक कर्मों)-का
पूर्णरूपसे वर्णन किया। जो ब्राह्मण (द्विज) नास्तिकता
अथवा आलस्यके कारण इन कर्मोको नहीं करता, वह
घोर नरकोंमें जाता है और काकयोनिमें जन्म लेता है।
अपने आश्रमकी विधिको छोड़कर अन्य कोई दूसरा
मुक्तिका मार्ग नहीं है। इसलिये परमेष्ठी (परब्रह्म)-
नान्यो विमुक्तये पन्था मुक्त्वाश्रमविधिं स्वकम्। की प्रसन्नताक लिये (विहित) कर्मोको करना
तस्मात् कर्माणि कुर्वीत तुष्टये परमेष्ठटिन:॥ ३२॥ | चाहिये॥ २९--३२॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षबद्याहसत्रधां संहितायामुपरिविभागे एकोनविंशोउध्याय: ॥ १९ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ १९॥
नास्तिक्यादथवालस्यात् ब्राह्मणो न करोति यः ।
स याति नरकान् घोरान् काकयोनौ च जायते॥ ३१॥
बीसवाँ अध्याय
श्राद्ध-प्रकरण-- श्राद्धके प्रशस्त दिन, विभिन्न तिथियों, नक्षत्रों और वारोंमें किये
जानेवाले श्राद्धोंका विभिन्न फल, श्राद्धके आठ भेद, श्राद्धके लिये
प्रशस्त स्थान, श्राद्धमें विहित तथा निषिद्ध पदार्थ
व्यास उवाच व्यासजी बोले--द्विजोत्तमोंको अमावास्या आनेपर
भक्तिपूर्वक भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला
पिण्डान्वाहार्यक* नामक श्राद्ध करना चाहिये। चन्द्रमाके
क्षीण होनेपर अर्थात् अमावास्या तिथिके अपराह-
अथ श्राद्धममावास्यां प्राप्य कार्य द्विजोत्तमै: |
पिण्डान्वाहार्यक॑ भक्त्या भुक्तिमुक्तिफलप्रदम्॥ १॥
पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्ध क्षीणे राजनि शस्यते। कालमें द्विजातियोंके लिये पिण्डान्वाहार्यक श्राद्ध करना
अपराह्ने द्विजातीनां प्रशस्तेनामिषिण च॥ २॥ | प्रशस्त होता है॥१-२॥
प्रतिपत्प्रभ्ति ह्ान्यास्तिथय: कृष्णपक्षके | कृष्णपक्षमें चतुर्दशीको छोड़कर प्रतिपदादि अन्य
चतुर्दशी वर्जयित्वा प्रशस्ता ह्युत्तरोत्तरा:॥ ३॥ | तिथियाँ उत्तरोत्तर प्रशस्त हैं। पौष, माघ तथा फाल्गुन
मासकी तीनों अष्टकाएँ (तीनों कृष्णाष्टमी) और
अमावास्या, तीनों अन्वष्टकाएँ (नवमी) और माघ
मासकी पूर्णिमा तिथि (श्राद्धके लिये) पुण्य तिथियाँ
हैं। वर्षा-ऋतुमें मघा नक्षत्रयुक्त त्रयोशशी तिथि और
फसलके पकनेका समय विशेषरूपसे श्राद्ध करनेका
त्रयोदशी मघायुक्ता वर्षासु तु विशेषतः। काल होता है। ये सभी श्राद्ध नित्य और प्रतिदिन किये
शस्यपाकश्राद्धकाला नित्या: प्रोक्ता दिने दिने॥ ५॥ | जानेवाले नित्यश्राद्ध हैं॥३--५॥
अमावास्याष्टकास्तिसत्र: पौषमासादिषु त्रिषु।
तिस्रश्नान्वष्टका: पुण्या माघी पञ्षदशी तथा ॥ ४॥
* मनुस्मृति (३। १२२)-के अनुसार पिण्डान्वाहार्यक एक स्वतन्त्र श्राद्ध है। इसे अग्निहोत्नी लोग ही कर सकते हैं। यह पिण्ड
पितृयज्ञक बाद किया जाता है, इसलिये इसका नाम पिण्डान्वाहार्यक है। यह प्रतिमास किया जाता है। यह नित्यश्राद्ध है।
३५२
नेमित्तिकं तु कर्तव्यं ग्रहणे चन्द्रसूर्ययो:।
बान्धवानां च मरणे नारकी स्यादतोउन्यथा। ६ ॥
काम्यानि चैव श्राद्धानि शस्यन्ते ग्रहणादिषु।
अयने विषुवे चैव व्यतीपाते5प्यनन्तकम्॥ ७ ॥
संक्रान्त्यामक्षयं श्राद्ध तथा जन्मदिनेष्वपि।
नक्षत्रेषु च सर्वेषु कार्य काम्यं विशेषत:॥ ८ ॥
स्वर्ग च लभते कृत्वा कृत्तिकासु द्विजोत्तम: ।
अपत्यमथ रोहिण्यां सोम्ये तु ब्रह्मवर्चसम्॥ ९ ॥
रौद्राणां कर्मणां सिद्धिमा्द्धायां शौर्यमेव चर ।
पुनर्वसी तथा भूमिं प्रियं पुष्ये तथेवर च॥ १०॥
सर्वान् कामांस्तथा सार्पे पित्ये सौभाग्यमेव च।
अर्यग्णे तु धनं विन्द्यात् फाल्गुन्यां पापनाशनम्॥ ११॥
ज्ञातिश्रेष्ठयं तथा हस्ते चित्रायां च बहून् सुतान्।
बाणिज्यसिद्धिं स्वातौ तु विशाखासु सुवर्णकम्॥ १२॥
मैत्रे बहूनि मित्राणि राज्यं शाक्रे तथेव च।
मूले कृषिं लभेद् यानसिद्ध्िमाप्ये समुद्रत:॥ १३॥
सर्वान् कामान् वैश्वदेवे श्रेष्ठयं तु श्रवणे पुनः।
श्रविष्ठायां तथा कामान् वारुणे च परं बलम्॥ १४॥
अजैकपादे कुप्यं स्यादहिर्बुध्न्ये गृहं शुभम् ।
रेवत्यां बहवो गावो ह्ाश्रिन्यां तुरगांस्तथा।
याम्येड्थ जीवन तत् स्याद्यदि श्राद्ध प्रयच्छति ॥ १५॥
आदित्यवारे त्वारोग्य॑ चन्द्रे सौभाग्यमेव च।
कौजे सर्वत्र विजय॑ सर्वान् कामान् बुधस्य तु॥ १६॥
विद्यामभीष्टां जीवे तु धन वे भार्गवे पुनः ।
शनैश्ञरे लभेदायु: प्रतिपत्सु सुतान् शुभान्॥ १७॥
रू कूर्मपुराण न
चन्द्र और सूर्यके ग्रहणकाल तथा बान्धवोंके
मरनेपर नैमित्तिक श्राद्ध करना चाहिये। ऐसा न करनेपर
नारकीय गति प्राप्त होती है। ग्रहण आदिके समय
किये गये काम्य श्राद्ध प्रशस्त माने गये हैं। उत्तरायण
एवं दक्षिणायनके समय, विषुव तथा व्यतीपात योगमें
किया हुआ श्राद्ध भी अनन्त फल देनेवाला होता
है। संक्रान्ति तथा जन्मके समय किया गया श्राद्ध
अक्षय होता है। सभी नक्षत्रोंमें विशेषरूपसे काम्ब
श्राद्ध करना चाहिये॥ ६--८ ॥
श्रेष्ठ द्विज कृत्तिका नक्षत्रमें श्राद्ध कर स्वर्ग प्राप्त
करता है। रोहिणीमें श्राद्ध करनेसे संतान और मृगशिर
नक्षत्रमें श्राद्ध करनेसे ब्रह्मतेजकी प्राप्ति होती है। आई
नक्षत्रमें श्राद्ध करनेसे रौद्र कर्मोकी सिद्धि तथा शौर्यको
प्राप्ति होती है। पुनर्वसु नक्षत्रमें भूमि और पुष्य नक्षत्र
लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। आश्लेषा नक्षत्रमें (श्राद्ध
करनेसे) सभी कामनाओं और मधघा नक्षत्रमें सौभाग्यको
प्राप्ति होती है। इसी प्रकार उत्तराफाल्गुनीमें धनको
प्राप्ति होती है और पूर्वाफाल्गुनीमें पापका नाश होता
है। हस्त नक्षत्रमें किये गये श्राद्धसे अपनी जातिमें
श्रेष्ठ और चित्रामें बहुतसे पुत्रोंकी प्राप्ति होती है।
स्वातीमें व्यापारकी सिद्धि और विशाखामें सुवर्णकी
प्राप्ति होती है। अनुराधामें श्राद्ध करनेसे बहुतसे मित्रोंकी
तथा ज्येष्ठामें राज्यकी प्राप्ति होती है। मूल नक्षत्रमें
कृषि तथा पूर्वाषाढ़ामें समुद्रतककी सफल यात्रा होती
है। उत्तराषाढ़ामें सभी कामनाओंकी सिद्धि और श्रवण
नक्षत्रमें श्राद्ध करनेसे श्रेष्ठता प्राप्त होती है। धनिष्ठामें
सभी कामनाओं और शतभिषामें परम बलको प्राप्ति
होती है। पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रमें श्राद्ध करनेसे कुप्य अर्थात्
सोना-चाँदीसे भिन्न धातुएँ और उत्तराभाद्रपदमें शुभ
गृह प्राप्त होता है। रेवती नक्षत्रमें किये गये श्राद्धसे
बहुत-सी गौएँ और अभश्रिनीमें श्राद्ध करनेसे घोड़ोंकी
प्राप्ति होती है। भरणी नक्षत्रमें यदि श्राद्ध किया जाय
तो आयुकी प्राप्ति होती है॥९--१५॥
रविवारको (श्राद्ध करनेसे) आरोग्य, सोमवारको
सौभाग्य, मंगलवारको सर्वत्र विजय और बुधवारको
श्राद्से सभी कामनाओंकी सिद्धि होती है। बृहस्पतिवारके
दिन श्राद्धसे अभीष्ट विद्या, शुक्रवारके दिन श्राद्धसे
धन और शनैश्वरको (श्राद्ध करनेसे) आयु प्राप्त होती है।
* अध्याय २० *
कन्यकां वै द्वितीयायां तृतीयायां तु वन्दिन: ।
पशून् क्षुद्रां श्वतुर्थ्या तु पद्ञम्यां शोभनान् सुतान्॥ १८ ॥
पष्ठधां द्यूतं कृषिं चापि सप्तम्यां लभते नरः।
अष्टम्यामपि वाणिज्यं लभते श्राद्धद:ः सदा॥ १९॥
स्थान्नवम्यामेकखुरं दश्म्यां द्विखुरंं बहु।
एकादश्यां तथा रूप्यं ब्रह्मवर्चस्विन: सुतान्॥ २० ॥
द्वादश्यां जातरूपं च रजतं कुप्यमेव च।
ज्ञाितिश्रेष्ठ॑यं त्रयोदश्यां चतुर्दश्यां तु कुप्रजा: ।
पञ्चनदश्यां सर्वकामानाष्नोति श्राद्धदः सदा॥ २१॥
तस्माच्छाद्धं न कर्तव्यं चतुर्दश्यां द्विजातिभि: ।
शस्त्रेण तु हतानां वे तत्र श्राद्ध प्रकल्पयेत्॥ २२॥
द्रव्यव्राह्मणसम्पत्तोी न कालनियमः कृतः।
तस्माद् भोगापवर्गार्थ भ्राद्धं कुर्युद्विजातय: ॥ २३॥
कर्मारम्भेषु सर्वेषु कुर्यादाभ्युदयं पुनः।
पुत्रजन्मादिषु श्राद्ध पार्वणं पर्वणि स्मृतम्॥ २४॥
अहन्यहनि नित्य॑ स्यात् काम्यं नैमित्तिकं पुन: ।
एकोहिष्टादि विज्ञेयं वृद्धिश्राद्धं तु पार्वणम्॥ २५॥
एतत् पशञ्चविधं श्राद्ध मनुना परिकीर्तितम्।
यात्रायां षष्ठमाख्यातं तत्प्रयत्तेन पालयेत्॥ २६॥
शुद्धये सप्तमं श्राद्ध ब्रह्मणा परिभाषितम्।
देविकं चा्टम॑ श्राद्ध य॒त्कृत्वा मुच्यते भयात्॥ २७॥
संध्यारात्रयोर्न कर्तव्यं राहोरन्यत्र दर्शनात्।
देशानां च विशेषेण भवेत् पुण्यमनन्तकम्॥ २८ ॥
३५३
प्रतिपदा तिथिको (श्राद्ध करनेसे) शुभ पुत्र प्राप्त होते
हैं। द्वितीयामें श्राद्धसे कन्या, तृतीयामें वन्दीजनों,
चतुर्थीमें क्षुद्र पशु और पञ्ञमीको श्राद्ध करनेसे सुन्दर
पुत्रोंकी प्राप्ति होती है। षष्ठीमें श्राद्ध करनेसे च्यूत
(-में विजय) और सप्तमीमें श्राद्धसे कृषिकी प्राप्ति होती
है। अष्टमीको श्राद्ध करनेवाला सदा वाणिज्य (-में
लाभ) प्राप्त करता है। नवमीमें श्राद्धसे एक खुरवाले
और दशमीमें श्राद्ध करनेसे दो खुरवाले बहुतसे पशु
मिलते हैं। एकादशीको (श्राद्ध करनेसे) रौप्य (रजत)
पदार्थ तथा ब्रह्मवर्चस्वी पुत्रोंकी प्राप्ति होती है। द्वादशीको
(श्राद्ध करनेसे) जातरूप (स्वर्ण), चाँदी तथा कुप्य,
त्रयोदशीको जातिमें श्रेष्ठठता और चतुर्दशीको श्राद्ध करनेसे
कुप्रजाकी प्राप्ति होती है। पञ्भदशी (पूर्णिमा एवं
अमावास्या)-को श्राद्ध करनेवाला सदा सभी कामनाओंको
प्राप्त करता है॥ १६--२१॥
इसलिये द्विजातियोंको चतुर्दशीके दिन श्राद्ध नहीं
करना चाहिये। शस्त्र (आदि)-द्वारा जो मरे हुए हों,
उनका श्राद्ध (इस चतुर्दशी तिथिको) करना चाहिये।
द्रव्य एवं ब्राह्मणके उपलब्ध रहनेपर कालसम्बन्धी कोई
नियम नहीं बताया गया है (अर्थात् कभी भी श्राद्ध
किया जा सकता है)। इसलिये भोग और मोक्षकी
प्राप्तिक लिये द्विजातियोंको श्राद्ध (अवश्य) करना
चाहिये॥ २२-२३ ॥
सभी (शुभ) कमेके प्रारम्भमें तथा पुत्रजन्म आदि
समयोंमें आभ्युदयिक श्राद्ध करना चाहिये। पर्वके दिन
पार्वण श्राद्ध करना चाहिये। मनुने प्रतिदिन किये
जानेवाले नित्यश्राद्ध, काम्य-श्राद्ध (कामनाविशेषकी
सिद्धिके लिये किया जानेवाला श्राद्ध), एकोद्िष्टादि
नैमित्तिक श्राद्ध, वृद्धिश्राद्ध और पार्वण श्राद्ध--इन पाँच
प्रकारके श्राद्धांका वर्णन किया है। यात्राके समय (किया
जानेवाला) छठा श्राद्ध कहा गया है, उसे प्रयत्नपूर्वक
करना चाहिये। ब्रह्माने शुद्धिके लिये साततवें श्राद्धका
वर्णन किया है। आठवाँ दैविक नामक श्राद्ध है, जिसे
करनेसे भयसे मुक्ति हो जाती है। संध्या और रात्रिमें
श्राद्ध नहीं करना चाहिये। किंतु राहु और केतुद्वारा सूर्य-
चन्द्रके ग्रस्त किये जानेपर रात्रिमें भी श्राद्ध किया जा
सकता है। देशविशेषके कारण श्राद्ध अनन्त पुण्य फल
देनेवाला होता है॥ २४-२८ ॥
रे५ड
* कूर्मपुराण *
गड़ायामक्षयं श्राद्ध प्रयागेडमरकण्टके ।
गायन्ति पितरो गाथां कीर्तयन्ति मनीषिण: ॥ २९ ॥
एष्टव्या बहव: पुत्रा: शीलवन्तो गुणान्विता: ।
तेषां तु समवेतानां यद्येको5पि गयां ब्रजेत्॥ ३० ॥
गयां प्राप्यानुषड्रेण यदि श्राद्धं समाचरेत्।
तारिता: पितरस्तेन स याति परमां गतिम्॥ ३१॥
वराहपर्वते चेव गड़ायां वै विशेषतः।
वाराणस्यां विशेषेण यत्र देव: स्वयं हर: ॥ ३२॥
गड्ढाद्वारे प्रभासे च बिल्वके नीलपर्वते।
कुरुक्षेत्रे च कुब्जाग्रे भगुतुड़े महालये॥ ३३॥
केदारे फल्गुतीर्थे च नैमिषारण्य एव च।
सरस्वत्यां विशेषेण पुष्करेषु विशेषत:॥ ३४॥
नर्मदायां कुशावर्ते श्रीशैले भद्रकर्णके।
बेत्रवत्यां विपाशायां गोदावर्या विशेषत:॥ ३५॥
एवमादिषु चान्येषु तीर्थेषु पुलिनेषु च।
नदीनां चैव तीरेषु तुष्यन्ति पितर: सदा॥ ३६॥
ब्रीहिभिश्च॒ यवैमषिरद्धिर्मूलफलेन वा।
श्यामाकेश्व यवे: शाकैनीवारैश्व प्रियड्भभि: ।
गोधूमैश्व तिलैर्मुदगैर्मासं प्रीणयते पितृन्॥ ३७॥
आग्रान् पानेरतानिक्षून् मृद्दीकांश्व सदाडिमान्
विदार्याश्व भरण्डाश्व श्राद्धकाले प्रदापयेत्॥ ३८ ॥
लाजानू मधुयुतान् दद्यात् सक्तून् शर्करया सह।
दद्याच्छाद्धे प्रयत्नेन श्रुद्राटककशेरुकान्॥ ३९ ॥
द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन् मासान् हारिणेन तु।
औरभ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनेह पञ्ञ तु॥४०॥
घण्मासांश्छागमांसेन पार्षतेनाथ सप्त वे।
अष्टावेणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु॥४१॥
दशमासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषे:।
शशकूर्मयोमासेन मासानेकादशैव तु॥ ४२॥
संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन तु।
वार्धीणसस्य मांसेन तृप्तिद्दादिशवार्षिकी॥ ४३॥
गड़ा, प्रयाग तथा अमरकण्टकमें किया गया श्राद्ध
अक्षय फल प्रदान करता है। पितर इस गाथाका गान
करते हैं और मनीषी ऐसा कीर्तन करते रहते हैं कि
'शीलवान् तथा गुणवान् बहुतसे पुत्रोंकी इच्छा करनो
चाहिये, क्योंकि उनमेंसे कोई एक भी किसी प्रसंगवश
गया चला जाय और गया पहुँचकर यदि श्राद्ध कर
दे तो उसके द्वारा पितर तार दिये जाते हैं (अर्थात्
पितरोंको उत्तमोत्तम गति प्राप्त होती है) और वह
( श्राद्धकर्ता) परमगतिको प्राप्त करता है!'॥ २९--३१॥
वराह पर्वत, विशेषरूपसे गड्भाग तथा जहाँ स्वयं
भगवान् हर निवास करते हैं विशेषतया उस वाराणसी,
गड्जाद्वार (हरिद्वार), प्रभास, बिल्वकतीर्थ, नीलपर्वत,
कुरुक्षेत्र, कुब्जाम्रतीर्थ, भृगुतुड़, महालय, केदारपर्वत,
फल्गुतीर्थ, नैमिषारण्य, विशेषरूपसे सरस्वती नदी
तथा पुष्कर, नर्मदा, कुशावर्त, श्रीशैल, भद्रकर्णक,
वेत्रवती, विपाशा तथा विशेषरूपसे गोदावरी नदी
आदि स्थानों तथा अन्य तीर्थों, पुलिनों' और नदियोंके
तटोंपर किये गये श्राद्धसे पितर सदा संतुष्ट
होते हैं॥३२--३६॥
ब्रीहि, जौ, उड़द, जल, मूल, फल, श्यामाक
(सावाँ), यव, शाक, नीवार, प्रियज्ञु, गोधूम, तिल
तथा मुद्दद्वारा किये गये श्राद्धसे पितर एक महीनेतक
प्रसन्न रहते हैं। आम, पानेरत (पानेण, करमईद
अर्थात् करौंदा या करमर्द), ईख, द्वाक्षा (अंगूर),
दाडिम, विदारी (भूमिकुष्माण्ड) तथा भरण्ड-
इन्हें श्राद्धंकं समय प्रदान करना चाहिये। मधुयुक्त लाजा,
शर्करके साथ सत्तू, सिंघाड़ा तथा कसेरू-हहें
श्राद्धमें प्रयत्नपूर्वक्त देना चाहिये॥ ३७--४३॥
१-वराहपर्वतकी चर्चा वहिपुराणमें तथा महाभारत (२। २१। २) -में है।
२-पुलिन--(नदीके किनारेका वह भाग जहाँसे जल हटा हो (--तोयोत्थितं तत् पुलिनम्)। (अमरकोश)
* अध्याय २९ *
कालशाकं महाशल्कं॑ खड्गलोहामिषं मधु ।
आनन्त्यायेव कल्पन्ते मुन्यन्नानि च सर्वश: ॥ ४४ ॥
क्रीत्वा लब्ध्वा स्वयं वाथ मृतानाहत्य वा द्विज: ।
दद्याच्छाद्धे प्रयत्तेन तदस्याक्षयमुच्यते॥ ४५॥
पिप्पलीं क्रमुंकें चेव तथा चेव मसूरकम्।
कृष्माण्डालाबुवार्ताकान् भूस्तृणं सुरसं तथा ॥ ४६ ॥
कुसुम्भपिण्डमूलं वे तन्दुलीयकमेव च।
राजमाषांस्तथा क्षीरं माहिषं च विवर्जयेत्॥| ४७॥
कोद्रवान् कोविदारांश्व पालक्यान् मरिचांस्तथा |
वर्जयेत् सर्वयत्नेन श्राद्धकाले द्विजोत्तम: ॥ ४८ ॥
३५५
श्राद्धमें पिप्पली, सुपारी, मसूर, कृष्माण्ड,
(वर्तुलाकार-- गोल) लौकी, बैगन, रसयुक्त भूस्तृण,
कुसुम्भ, पिण्डमूल (रार्जर), तन्दुलीयक, (चौंराई
शाकविशेष) राजमाष (वर्वट, वर्वटी, कड़ाई
लोकभाषामें) और भेंसके दूधका प्रयोग नहीं करना
चाहिये। श्रेष्ठ द्विजको श्राद्धमें कोदो, कोविदार (कचनार),
पालक तथा मरिचका प्रयत्रपूर्वक. त्याग करना
चाहिये॥ ४४--४८ ॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्त्रधां संहितायामुपरिविभागे विंशोउध्याय: ॥ २० ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें बीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २०॥
इक्कीसवाँ अध्याय
थ्राद्ध-प्रकरणमें निमन्त्रणके योग्य पंक्तिपावन ब्राह्मणों तथा त्याज्य
पंक्ति-दूषकोंके लक्षण
व्यास उवाच
स््तात्वा यथोक्तं संतर्प्य पितृश्रन्द्रक्षये द्विज:।
पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं कुर्यात् सौम्यमना: शुचि: ॥ १॥
पूर्वमेव परीक्षेत ब्राह्मण वेदपारगम्।
तीर्थ तद् हव्यकव्यानां प्रदाने चातिथि: स्मृत: ॥ २॥
ये सोमपा विरजसो धर्मज्ञा: शान्तचेतस:।
ब्रतिनो नियमस्थाश्र ऋतुकालाभिगामिन:॥ ३॥
पञ्चाग्रिरप्पधीयानो यजुर्वेदविदेव च।
व्यासजी बोले--द्विजको चाहिये कि चन्द्रमाके
क्षय होनेपर अर्थात् अमावास्थाको स्नानकर यथोक्त
रीतिसे पितरोंका तर्पण करके शान्तचित्त होकर तथा
पवित्रतापूर्वक पिण्डान्वाहार्यक श्राद्ध करे। (श्राद्धसे)
पूर्व ही बेदमें पारंगत विद्वान् ब्राह्मणका अन्वेषण करना
चाहिये, क्योंकि उसे ही (वेदपारग ब्राह्मणको ही) हव्य,
कव्य, तीर्थ और दानका अतिथि (अधिकारी) कहा
गया है॥ १-२॥
जो सोमपायी, रजोगुणसे हीन, धर्मको जाननेवाले,
शान्तचित्त, ब्रतपरायण, नियममें स्थित, ऋतुकालमें गमन
करनेवाले हैं (वे ब्राह्मण पंक्तिपावन हैं)। पश्चाग्रिका
सेवन करनेवाला, अध्ययनशील, यजुर्वेदका ज्ञाता, बहवृच्
(ऋग्वेदी) त्रिसौपर्ण, तथा त्रिमधु' अर्थात् ऋग्वेदके
बह्वृचश्च त्रिसौपर्णस्त्रमधुर्वाथ यो भवेत्॥ ४॥।| अंश-विशेषका अध्येता, ॥ ३-४॥
१-ऋग्वेदका विशेष वेदभाग एवं उसका ब्रत त्रिसुपर्ण कहा जाता है, अत: इसके सम्बन्धसे ब्राह्मणको त्रिसुपर्ण या त्रिसौपर्ण कहा
जाता है (मनु० ३। १४५) |
२-तीन बार मधु शब्द जिन ऋचाओंमें आया है, वे 'मधुव्वाता......' आदि तीन ऋचाएँ (शब्दकल्पद्गुम)।
३५८६
* कूर्मपुराण *
त्रिणाचिकेतच्छन्दोगो ज्येप्ठररामग एव च।
अथर्वशिरसो<5 ध्येता रुद्राध्यायी विशेषत:ः॥ ५ ॥
अग्निहोत्रपरो विद्वान् न््यायविच्च षडड्रवित्।
मन्त्रन्नाह्णविच्चैव यश्व स्याद् धर्मपाठक: ॥ ६ ॥
ऋषिव्रती ऋषीकश्च तथा द्वादशवार्पिक: |
ब्रह्मदेयानुसंतानो गर्भशुद्ध: सहरत्रद:॥ ७ ॥
चान्द्रायणव्रतचर: सत्यवादी पुराणवित्।
गुरुदेवाग्रिपूजासु॒ प्रसक्तो ज्ञानतत्पर:॥ ८ ॥
विमुक्त: सर्वतो धीरो ब्रह्मभूतो द्विजोत्तम: ।
महादेवार्चनरतो वैष्णव: पंक्तिपावन:॥ ९ ॥
अहिंसानितोि] नित्यमप्रतिग्रहणस्तथा।।
सत्रिणो दाननिरता विज्ञेया: पंक्तिपावना:॥ १९०॥
युवान:ः श्रोत्रिया: स्वस्था महायज्ञपरायणा: ।
सावित्रीजापनिरता ब्राह्मणा: पंक्तिपावना:॥ १९॥
कुलीना: श्रुतवन्तश्च शीलवन्तस्तपस्विन: ।
अग्मरिचित्स्नातका विप्रा विज्ञेया: पंक्तिपावना: ॥ १२॥
त्रिणाचिकेत* (यजुर्वेदके अंशविशेषका अध्येता)
छन्दोग'* (सामवेदका ज्ञाता) ज्येप्टसामग -ज्येष्ठसाम
(सामगान) तथा अथर्ववेदका अध्येता और विशेषरूपसे
रुद्राध्यायका अध्ययन करनेवाला (ब्राह्मण पंक्तिपावन
होता है)॥५॥
अग्निहोत्रपरायण, विद्वान, न््यायवेत्ता, वेदके शिक्षा,
कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन््द तथा ज्योतिष-इन छः:
अड्रोंको जाननेवाला, वेदके मन्त्रभाग एवं ब्राह्मण-
भागको जाननेवाला तथा धर्मशास्त्रको पढ़नेवाला, ऋषियोंक
ब्रतोंका पालन करनेवाला, ऋषीकर,, बारह वर्षोतक
चलनेवाले ब्रत, यज्ञ (सत्र)-का करनेवाला, ब्राह्म-
विवाहद्दवारा उत्पन्न संतान, गर्भाधानादि संस्कारसे शुद्ध
और सहस्तरों (शिष्योंको विद्या) दान करनेवाला (ब्राह्मण)
पंक्तिपावन होता है। चान्द्रायणत्रत करनेवाला, सत्यवादी,
पुराण जाननेवाला, गुरु, देवता और अग्निकी पूजामें
आसक्त, ज्ञानपरायण, आसक्ति आदिसे सर्वथा मुक्त,
धीर, ब्रह्मज्ञानी, महादेवकी पूजामें निरत रहनेवाला तथा
वैष्णव श्रेष्ठ द्विज पंक्तिपावन होता है। नित्य अहिंसा-
ब्रतपरायण, अप्रतिग्रही, यज्ञ' करनेवाले और दान देने-
वाले (ब्राह्मणों)-को पंक्तिपावन जानना चाहिये॥ ६--१०॥
श्रोत्रिय, स्वस्थ, महायज्ञ -परायण, गायत्री-जप करेनमें
निरत ब्राह्मण युवक (सामर्थ्यसम्पन्न) पंक्तिपावन होते
हैं। कुलीन, ज्ञानवानू, शीलवान्ू, तपस्वी एवं अग्निका
चयन“ करनेवाले स्नातक ब्राह्मणोंको पंक्तिपावन जानना
चाहिये॥ ११-१२॥
१-अध्वर्युवेदभाग (यजुर्वेदका भागविशेष) एवं उसके ब्रत त्रिणाचिकेत हैं। इन दोनोंके सम्बन्धसे ब्राह्मण भी 'त्रिणाचिकेत' कहा
जाता है (मनु० ३। १८५)।
२-छन््द (वेदविशेष साम)-के गानमें कुशल अथवा सामवेदका अध्येता 'छन्दोग' है (शब्दकल्पद्गुम)।
३-'ज्येष्ठमाम ”' सामवेद या उसके अध्ययनका अड् ब्रत है, इसका सम्बन्ध जिस ब्राह्मणसे है वह “ज्येष्रसामग' है।
४-“ऋषीक ' का अर्थ 'ऋषिपुत्र' है। प्रकृतमें 'ऋषि-परम्परामें उत्पन्न” अर्थ समझना चाहिये।
५-मूलमें ' ब्रह्मदेयानुसंतान' शब्द है। इसका “जिसकी कुलपरम्परामें ब्रह्म (वेद)-के अध्ययनाध्यापनकी परम्परा अविच्छिन्ररूपसे
चल रही हो'--यह अर्थ भी किया जा सकता है।
६-मूलमें 'सत्री' शब्द है। इसका अर्थ यज्ञ, यज्ञविशेष, दान-परायण, कथाश्रवण एवं अनेक दिन-साध्य अनुष्ठान आदि हैं। इन
सबके अनुष्ठाता ब्राह्मणको 'सत्री” कहा जायगा।
७-“महायज्ञ' पद्ममहायज्ञोंको कहा जाता है, वे इस प्रकार हैं-- (१) ब्रह्मयज्ञ (वेदका अध्ययनाध्यापन), (२) पितृयज्ञ (तर्षण),
(३) देवयज्ञ (होम), (४) भूतयज्ञ (भूतनलि) और (५) मनुष्ययज्ञ (अतिथि-पूजन)
८-मूलमें 'अग्निचित्” शब्द है। इसका अर्थ है--' अग्निहोत्री '।
९-सविधि ब्रह्मचर्यत्रत पूर्णकर स्नानविशेषरूप संस्कारके अनन्तर गृहस्थाश्रममें प्रविष्ट या अप्रविष्ट द्विज स्नातक होता है। यहाँ
ऐसे ब्राह्मणमात्रको लेना है।
* अध्याय २१ *
मातापित्रो्हिति युक्त: प्रात:स्नायी तथा द्विज: ।
अध्यात्मविन्मुनिर्दान्तो विज्ञेय: पंक्तिपावन: ॥ १३॥
ज्ञाननिष्ठो महायोगी वेदान्तार्थविचिन्तक: ।
श्रद्धालु: श्राद्धनिरतो ब्राह्मण: पंक्तिपावन:॥ १४॥
बेदविद्यारत: स््नातो ब्रह्मचर्यपर: सदा।
अथर्वणो मुमुक्षुश्च ब्राह्मण: पंक्तिपावन:॥ १५॥
असमानप्रवरको. हासगोत्रस्तथेव च।
असम्बन्धी च विज्ञेयो ब्राह्मण: पंक्तिपावन: ॥ १६॥
भोजयेद् योगिनं पूर्व तत्त्वज्ञानरतं यतिम्।
अलाभ नेष्टिकं दान्तमुपकुर्बाणकं॑ तथा॥ १७॥
तदलाभे गृहस्थं तु मुमुक्षुं सड्रवर्जितम्।
सर्वालाभे साधकं वा गृहस्थमपि भोजयेत्॥ १८॥
प्रकृतेर्गुणतत्त्वज्ञो यस्याश्नाति यतिहविः।
फल॑ वेदविदां तस्य सहस्त्रादतिरिच्यते॥ १९॥
तस्माद् यत्नेन योगीन्द्रमीश्वरज्ञानतत्परम्।
भोजयेद् हव्यकव्येषु अलाभादितरान् द्विजानू्॥ २०॥
एष वे प्रथम: कल्प: प्रदाने हव्यकव्ययो:।
अनुकल्पस्त्वयं ज्ञेयः सदा सद्धिरनुप्ठित:॥ २१॥
मातामहं मातुलं च स्वस्रीयं श्रशुरं गुरुम्।
दौहित्रं विट्पतिं बन्धुमृत्विग्याज्यौ च भोजयेत्॥ २२॥
३५७
माता-पिताके हितमें लगे हुए, प्रात:ख्नान
करनेवाले, अध्यात्मवेत्ता, मुनि एवं दान्त ब्राह्मणोंको
पंक्तिपतावन समझना चाहिये। ज्ञाननिष्ठ, महायोगी,
वेदान्के अर्थका विशेष चिन्तन करनेवाले,
श्रद्धासम्पन्न तथा श्राद्धनिरत ब्राह्मण पंक्ति-पावन होते
हैं। वेदविद्यामें निरत, सदा ब्रह्मचर्य-परायण,
अथर्ववेदका अध्ययन करनेवाला, मुमुक्षु, स्नातक
ब्राह्मण पंक्तिपावन होता है। असमान प्रवर, असमान
गोत्र (-में सम्बन्ध करनेवाला) और असम्बन्धी
(निषिद्ध सम्बन्धरहित) ब्राह्मणको पंक्तिपावन समझना
चाहिये॥ १३--१६ ॥
सर्वप्रथम तत्त्वज्ञानममें निरत संयतचित्त योगीको
भोजन कराना चाहिये। अभाव होनेपर (अर्थात् ऐसा
ब्राह्मण न मिलनेपर) इन्द्रियजयी नैष्ठिक ब्रह्मचारी (जो
ब्रह्मचर्य-त्रत स्वीकारकर यावज्जीवन गुरुकुलमें ही
निवास करता है)-को और ऐसे ब्राह्मणके अभावमें
उपकुर्वाणक (जो ब्रह्मचर्यत्रत पूर्णकर गृहस्थाश्रममें
प्रवेश करनेवाला है ऐसे ब्रह्मचारी) ब्राह्मणफो भोजन
कराना चाहिये। उसका भी अभाव होनेपर आसक्तिरहित
मुमुक्षु गृहस्थ ब्राह्मगगको भोजन कराना चाहिये। इन
सभीके अभाव होनेपर साधक (ब्राह्मण) गृहस्थको
भोजन कराना चाहिये॥ १७-१८ ॥
प्रकृतिके गुण और तत्त्वको जाननेवाला (तत्त्ववेत्ता)
यति (संयतचित्त ब्राह्मण) जिस (व्यक्ति)-का भोजन
करता है, उसे (सहस््रों) वेदज्षको भोजन करानेकी
अपेक्षा भी सहस्नगुना अधिक फल मिलता है। इसलिये
ईश्वरज्ञानमें तत्पर श्रेष्ठ योगीको देवकार्य एवं पितृकार्यमें
प्रयत्रपूर्वक भोजन कराना चाहिये। इनकी प्राप्ति न होनेपर
दूसरे ब्राह्मगोंकों भोजन कराना चाहिये॥ १९-२०॥
हव्य और कव्य प्रदान करनेमें यह प्रथम कल्प
है। (इसके अभावमें) सज्जनों (वेदशास्त्रनिष्ठों )-द्वारा
सदा अनुष्ठित इस अनुकल्पको जानना चाहिये--
मातामह (नाना), मातुल (मामा), भांजा, ससुर, गुरु,
दुहितापुत्र (नाती), विट्पति (जामाता), बन्धु (मौसी,
बूआ एवं मामी आदिके पुत्र), ऋत्विक् तथा यज्ञ
करानेवाले ब्राह्मगणको भोजन कराया जाय॥ २१-२२॥
३५८
* कूर्मपुराण *
न श्राद्धे भोजयेन्मित्रं धने: कार्यो5स्य संग्रह: ।
पैशाची दक्षिणा सा हि नैवामुत्र फलप्रदा॥ २३॥
काम श्राद्धेडर्चयेन्मित्रं नाभिरूपमपि त्वरिम् ।
द्विषता हि हविर्भुक्ते भवति प्रेत्य निष्फलम्॥ २४॥
ब्राह्मणो ह्मनधीयानस्तृणाग्रिरिव शाम्यति।
तस्मे हव्यं न दातव्यं न हि भस्मनि हूयते॥ २५॥
यथेरिणे बीजमुप्त्वा न वप्ता लभते फलम् |
तथानृचे हविर्दत््वा न दाता लभते फलम्॥ २६॥
यावतो ग्रसते पिण्डान् हव्यकव्येष्वमन्त्रवित्।
तावतो ग्रसते प्रेत्य दीप्तान् स्थूलांस्त्वयोगुडान्॥। २७॥
अपि विद्याकुलैर्युक्ता हीनवृत्ता नराधमा:।
यत्रैते भु्जते हव्यं तद् भवेदासुरं द्विजा:॥ २८॥
यस्य वेदश्व वेदी च विच्छिद्येते त्रिप्रुषम्
स वे दुर्ब्नाह्मणो नाई: श्राद्धादिषु कदाचन॥ २९॥
शूद्रप्रेष्यो भूतो राज्ञो वृषलो ग्रामयाजक: ।
वधबन्धोपजीवी च पषडेते ब्रह्मबन्धव: ॥ ३० ॥
दत्तानुयोगान् वृत्त्यर्थ पतितान् मनुरब्रवीत्।
वेदविक्रयिणो होते श्राद्धादिषु विगर्हिता: ॥ ३१॥
श्रुतिविक्रयिणो ये तु परपूर्वासमुद्धवा:।
असमानान् याजयन्ति पतितास्ते प्रकीर्तिता: ॥ ३२।
श्राद्धमें मित्रकों भोजन नहीं कराना चाहिये। इनका
संरक्षण (संग्रह) धनके आदान-प्रदानद्वारा करना चाहिये।
(यदि श्राद्धमें मित्रको भोजन कराकर दक्षिणा दी जाव
तो) ऐसी दक्षिणा पैशाची होती है। यह परलोकमें कोई
फल नहीं देती। (किसी विशेष स्थिति या उपर्युक्त
कल्प-अनुकल्पके अभावमें) श्राद्धमें भले ही मित्रका
(यथोचित) सत्कार करे, किंतु अभिरूप (विद्वान,
मनोज्ञ) पात्र होनेपर भी शत्रुका सत्कार नहीं करना
चाहिये, (क्योंकि) द्वेष रखनेवालेके द्वारा भुक्त हवि
परलोकमें निष्फल होती है॥ २३-२४॥
(वेदादिका) अध्ययन न करनेवाला ब्राह्मण तृणमें
लगी अग्निके समान शान्त (निस्तेज) हो जाता है। उसे
हव्य (यथासम्भव देव-पित्र्य-कार्यमें भोजनके लिये
निमन्त्रण) नहीं देना चाहिये, क्योंकि भस्ममें हवन नहीं
किया जाता है। जिस प्रकार ऊसर भूमिमें बीज
बोनेवाला कुछ फल नहीं प्राप्त करता, उसी प्रकार वेद
न जाननेवालेको हवि देनेसे दाताको कोई फल नहीं
मिलता। मन्त्रको न जाननेवाला वह ब्राह्मण देव और
पितृकार्यमें जितने पिण्डों (ग्रासों)-को ग्रहण करता है,
मृत्युके अनन्तर वह उतने ही स्थूल और प्रज्वलित
लोहेके पिण्डों (ग्रासों)-का भक्षण करता है ॥ २५--२७॥
हे द्विजो! विद्या-सम्पन्न तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न
होनेपर भी आचारहीन नीच मनुष्य दैव और पित्र्यकार्यमे
जो हव्य आदि ग्रहण करते हैं, वह (हव्यादि) आसुरी
हो जाता है। जिसकी तीन पीढ़ीतक वेद और यज्ञ
आदिका उच्छेद हो जाता है, वह दुर्ब्रह्मण होता है,
वह श्राद्ध आदिमें कभी भी पूजाके योग्य नहीं होता।
शूद्रका नौकर, राजासे वेतन लेनेवाला, पतित (अधार्मिक),
गाँवके पुरोहित, वध और बनन््धनद्वारा जीविका
चलानेवाले-ये छ: ब्रह्मबन्धु होते हैं॥२८-३०॥
मनुने जीविकाके लिये नौकरी करनेवालेको पतित
बतलाया है। ये सभी एवं वेदका विक्रय करनेवाले
(ब्राह्मण) श्राद्ध आदि कार्योमें निन्दित हैं। जो वेदका
विक्रय करनेवाले, हीन अथवा उचवर्णकी स्त्रीसे उत्पन्न
तथा असमान वर्णोका पौरोहित्य करनेवाले हैं, वे पतित
कहे गये हैं॥३१-३२॥
* अध्याय २९ *
असंस्कृताध्यापका ये भृत्या वाध्यापयन्ति ये।
अधीयते तथा वेदान् पतितास्ते प्रकीर्तिता: ॥ ३३॥
वृद्धश्रावकनिर्ग्रन्था: पञ्चरात्रविदों जना: |
कापालिका: पाशुपता: पाषण्डा ये च तद्विधा: ॥ ३४ ॥
यस्याश्नन्ति हवींष्येते दुरात्मानस्तु तामसा:।
न तस्य तद् भवेच्छाद्धं प्रेत्य चेह फलप्रदम्॥ ३५॥
अनाश्रमी यो द्विज: स्यादाश्रमी वा निरर्थक: ।
मिथ्याश्रमी च ते विप्रा विज्ञेया: पंक्तिदूषका: ॥ ३६॥
दुश्चर्मा कुनखी कुष्ठी श्वित्री च श्यावदन्तक: ।
विद्धप्रजननश्चेव स्तेन: क्लीबो5थ नास्तिक: ॥ ३७॥
मद्यपो वृषलीसक्तो वीरहा दिधिषूपति:।
आगारदाही कुण्डाशी सोमविक्रयिणो द्विजा: ॥ ३८ ॥
परिवेत्ता तथा हिंस्र: परिवित्तिर्निराकृति: ।
पौनर्भव: कुसीदी च तथा नक्षत्रदर्शक:॥ ३९॥
गीतवादित्रनिरतो व्याधित: काण एवं च।
हीनाडुश्चातिरिक्ताड़ो हावकीर्णिस्तथेव च॥ ४०॥
* मनुस्मति (९। १७५)-के अनुसार।
३५९
जो असंस्कृतों (संस्काररहितों)-के अध्यापक हैं,
वेतनके लिये अध्यापन तथा वेदाध्ययन करनेवाले हैं,
वे पतित कहे गये हैं। वृद्ध श्रावक अर्थात् बौद्ध, निर्ग्रन्थ
अर्थात् जैन, पाझरात्रके ज्ञाता, कापालिक, पाशुपत
(सम्प्रदायविशेषके) और उसी प्रकारके पाखंडी, तमोगुणी,
दुरात्मा व्यक्ति--ये जिसके हविष्यान्नका भक्षण करते
हैं, उसका किया श्राद्ध न तो इस लोकमें फल देनेवाला
होता है और न परलोकमें ॥ ३३--३५ ॥
जो द्विज (ब्राह्मण) यथाविधि आश्रमको स्वीकार
करनेवाले नहीं हैं अथवा नाममात्रके लिये किसी
आश्रमका आश्रय लिये हैं, वे मिथ्याश्रमी कहे गये
हैं, उन्हें पंक्तिदूषक समझना चाहिये॥ ३६॥
विकारयुक्त चर्म एवं नखवालों, कुष्ठरोगी, श्वेत
कुष्ठटरोगी, स्वभावत: काले दाँतवाला, विद्ध लिड्रवाला,
चोर, नपुंसक, नास्तिक, मद्य पीनेवाला, शूद्रा स्त्रीमें
आसक्त, वीरहा (वह अग्रिहोत्री जिसका अग्निहोत्र नष्ट
हो गया हे), विधवा स्त्रीसे विवाह करनेवाला, घरको
जलानेवाला, कुण्ड (पतिके जीवित रहते अन्य पुरुषसे
उत्पन्न संतान)-का भोजन करनेवाला तथा सोमलताका
विक्रय. करनेवाला--इस प्रकारके ब्राह्मण (श्राद्धादिमें
त्याज्य हैं)॥ ३७-३८ ॥
परिवेत्ता अर्थात् बड़े भाके अविवाहित अथवा
अनग्निक रहते हुए विवाह तथा अग्नि स्वीकार करने-
वाला छोटा भाई, हिंसा करनेवाला, परिवित्ति--( छोटे
भाईके विवाहित होनेसे पहले अविवाहित रहनेवाला
बड़ा भाई), निराकृति अर्थात् पद्चमहायक्ञोंका
अनुष्ठान न करनेवाला, पौनर्भव* (दूसरे पतिसे उत्तपन्न
पुत्र), ब्याज लेनेवाला तथा नक्षत्रदर्शक (ज्योतिषसे
जीविका चलानेवाले)-का श्राद्धादिमें परित्याग करना
चाहिये॥ ३९॥
गाने-बजानेमें निरत, रोगी, काना, हीन अड्भोंवाला,
अधिक अज्ञोंवाला, अवकीर्णी (स्त्रीसे सम्पर्क
कर ब्रह्मचर्यत्रत नष्ट करनेवाला), कन्याको दूषित
३६०
* कूर्मपुराण *
कन्यादूषी कुण्डगोलौ अभिशस्तो5थ देवल: ।
मित्रश्नुक् पिशुनश्चैव नित्यं भार्यानुवर्तक: ॥ ४१॥
मातापित्रोर्गुरोस्त्यागी दारत्यागी तथेव च।
गोत्रभिद् भ्रष्टशौचश्व काण्डस्पृष्टस्तथेव च॥ ४२॥
अनपत्य: कूटसाक्षी याचको रड्गजजीवक:ः ।
समुद्रयायी कृतहा तथा समयभेदक: ॥ ४३॥
देवनिन्दापश्चैव वेदनिन्दारतस्तथा।
द्विजनिन्दारतश्चैते वर्ज्या: श्राद्धादिकर्मसु ॥ ४४ ॥
कृतघ्नः पिशुन: क्रूरो नास्तिको वेदनिन्दकः ।
मित्रधुक् कुहकश्चेव विशेषात् पंक्तिदूषका: ॥ ४५ ॥
सर्वे पुनरभोज्यान्नास्त्वदानाहाश्व कर्मसु।
ब्रह्मभावनिरस्ताश्च वर्जनीया: प्रयत्नतः ॥ ४६ ॥
शूद्रान्नरससपुष्टाड़:ः. संध्योपासनवर्जित: ।
महायज्ञविहीनश्च ब्राह्मण: पंक्तिदूषकः ॥ ४७॥
अधीतनाशनश्चैव. स्नानहोमविवर्जित: ।
तामसो राजसश्चैव ब्राह्मण: पंक्तिदूषक: ॥ ४८ ॥
बहुनात्र किमुक्तेन विहितान् ये न कुर्वते।
करनेवाला, कुण्ड (पतिके जीवित रहते परपुरुषसे
उत्पन्न संतान), गोलक (पतिकी मृत्युके बाद
उपपतिसे उत्पन्न संतान), अभिशस्त (मिथ्यापवादग्रस्त),
(देवल)--मन्दिर आदिसे आजीविका प्राप्त करनेवाले
(पुजारी आदि), मित्रद्रोही, चुगली करनेवाला और
नित्य भायके वशीभूत रहनेवाला--ये श्राद्धादिमें त्याज्य
हैं ॥ ४०-४१॥
माता, पिता, गुरु तथा पत्नीका त्याग करनेवाला,
सगोत्र (भाई-बन्धु)-में भेदबुद्धि पैदा करनेवाला,
शौच भ्रष्ट (शौचाचारहीन), शस्त्रजीवी, संतानहीन, झूठी
गवाही देनेवाला, याचक, रंगद्वारा जीविकोपार्जन करनेवाला
(चित्रकार, नाट्यकार), समुद्रकी यात्रा करनेवाला,
कृतघ्न और प्रतिज्ञा-भड़ करनेवाला, देवनिन्दापरायण,
वेदनिन्दामें निरत तथा द्विजकी निन्दा करनेवाला-यवे
सभी श्राद्धादि कर्मोंमें त्याज्य हैं । कृतघ्र, चुगली करनेवाला,
क्रूर, नास्तिक, वेदकी निन््दा करनेवाला, मित्रद्रोही तथा
ऐन्द्रजालिक (मायावी, दाम्भिक)--ये विशेषरूपसे
पंक्तिदूषक हैं ॥४२--४५॥
(उपर्युक्त) सभी प्रकारके व्यक्ति श्राद्धमें भोजन
न कराने योग्य और सभी कर्मोमें दानके अयोग्य होते
हैं । ब्रह्मभावसे शून्य अर्थात् ब्राह्मणत्वसे च्युत व्यक्तियोंका
विशेषरूपसे त्याग करना चाहिये॥ ४६॥
शूद्रके अन्न एवं रससे पुष्ट हुए अड्लोंवाला,
संध्योपासनासे रहित, पदञ्ञमहायज्ञोंसे शून्य ब्राह्मण पंक्तिदूषक
होता है। पढ़े गये वेदादिका विस्मरण करनेवाला, स्नान
एवं होमसे रहित, तमोगुणी तथा रजोगुणी ब्राह्मण
पंक्तिदूषक होता है॥ ४७-४८ ॥
अधिक क्या कहा जाय । जो शास्त्रविहित स्वकर्मोंको
नहीं करते और शास्त्रनिषिद्ध (निन्दित) कर्मोंका आचरण
निन्दितानाचरन्त्येते वर्जनीया: प्रयत्नतः॥ ४९॥ | करते हैं, वे प्रयत्रपूर्वक त्याग करने योग्य हैं॥४९॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्रधां संहितायामुपरिविभागे एकवविंशोउध्याय: ॥ २९ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहितांके उपरिविभागमें इक्कौसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २१॥
* अध्याय २२ *
३६१
बाईसवाँ अध्याय
श्राद्धद-प्रकरणमें ब्राह्मण निमन्त्रित करनेकी विधि, निमन्त्रित ब्राह्मणके कर्तव्य,
श्राद्धविधि, श्राद्धमें प्रशस्त पात्र, पितरोंकी प्रार्थना, श्राद्धके दिन निषिद्ध
कर्म, वद्धिशभ्राद्धका विधान, श्राद्ध-प्रकरणका उपसंहार
व्यास उवाच
गोमयेनोदकैर्भूमिं शोधयित्वा समाहितः।
संनिपत्य द्विजान् सर्वान् साधुभि: संनिमन्त्रयेत्॥ १॥
श्रो भविष्यति मे श्राद्ध पूर्वेद्युरभिपूज्य च।
असम्भवे परेद्युर्वा यथोक्तैर्लक्षणैर्युतान्॥ २॥
तस्य ते पितर: श्रुत्वा श्राद्धकालमुपस्थितम्।
अन्योन्यं मनसा ध्यात्वा सम्पतन्ति मनोजवा: ॥ ३ ॥
ब्राह्मणस्ते सहाश्नन्ति पितरो ह्ान्तरिक्षगा:।
वायुभूतास्तु तिष्ठन्ति भुक्त्वा यान्ति परां गतिम्॥ ४॥
आमन्त्रिताश्न ते विप्रा: श्राद्धकाल उपस्थिते।
वसेयुर्नियता: सर्वे ब्रह्मचर्यपरायणा:॥ ५॥
अक्रोधनो5त्वरो5मत्त: सत्यवादी समाहितः।
भार मैथुनमध्वानं श्राद्धकृद् वर्जयेजपम्॥ ६॥
आमन्तरितो ब्राह्मणो वा योउन्यस्मै कुरुते क्षणम्।
स॒ याति नरकं घोर सूकरत्वं प्रयाति च॥ ७॥
आमन्त्रयित्वा यो मोहादन्यं चामन्त्रयेद् द्विजम।
स तस्मादधिक: पापी विष्लाकीटो5डभिजायते॥ ८ ॥
श्राद्धे निमन्त्रितो विप्रो मैथुनं योडधिगच्छति।
ब्रह्महत्यामवाप्नोति तिर्यग्योनौ च जायते॥ ९॥
व्यासजी बोले--सावधानीपूर्वक गोबर और जलसे
(श्राद्ध) भूमिको शुद्धकर सभी ब्राह्मणोंकी सेवामें
पहुँचकर सज्जन पुरुषोंद्वारा उन्हें निमन्त्रित करना
चाहिये। श्राद्धंके पहले दिन ब्राह्मणोंकी (नम्रभावसे
आदरपूर्वक) पूजाकर उनसे कहना चाहिये--'कल
हमारे यहाँ श्राद्ध होगा (आपलोग कृपाकर पधारें) '।
ऐसा असम्भव होनेपर दूसरे (दिन) अर्थात् श्राद्धके
ही दिन यथोक्त लक्षणोंसे समन्वित ब्राह्मणोंको निमन्त्रित
करना चाहिये॥ १-२॥
मनके समान शीघ्र गतिवाले पितर जब यह सुन
लेते हैं कि श्राद्धधाल उपस्थित है, तब परस्पर
विचारकर श्राद्धकर्ताके यहाँ एकत्र हो जाते हैं। अन्तरिक्षमें
विचरण करनेवाले पितर वायुरूपसे स्थित रहते हैं,
ब्राह्मगोंक साथ भोजन करते हैं और भोजन करके
परमगति प्राप्त करते हैं। श्राद्धछक्रा समय आनेपर सभी
आममन्त्रित ब्राह्मणोंको संयमी और ब्रह्मचर्यपरायण होकर
रहना चाहिये॥ ३--५॥
श्राद्ध करनेवालेको क्रोध, उतावलापन तथा प्रमादका
त्यागकर समाहित होना चाहिये, सत्य बोलना चाहिये।
उसे भारका ढोना, मैथुन, मार्गगमन (यात्रा आदि) और
जपका (किसी कामनापरक यज्ञादिका श्राद्धके समय)
परित्याग करना चाहिये॥६॥
(पहलेसे ही) निमन्त्रित ब्राह्मण (यदि) किसी
दूसरेका निमन्त्रण स्वीकार करता है तो वह घोर नरकमें
जाता हैं और बादमें सूकरकी योनि प्राप्त करता है।
(किसी एक) ब्राह्मणको आमन्त्रित करके जो मोहसे
दूसरेको आमन्त्रित करता है, वह व्यक्ति उससे भी
अधिक पापी होता है (जो निमन्त्रित होनेपर भी दूसरी
जगह जाता है) और विष्ठाका कीड़ा होता है। श्राद्धमें
निमन्त्रित जो ब्राह्मण मैथुन करता है, वह ब्रह्महत्या
(के पाप)-को प्राप्त करता है और बादमें तिर्यक्-
योनिमें उत्पन्न होता है॥७--९ ॥
३६२
मं कूर्मपुराण नर
निमन्त्रितस्तु यो विप्रो हाध्वानं याति दुर्मति: ।
भवन्ति पितरस्तस्य तं मासं पांशुभोजना: ॥ १०॥
निमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे प्रकुर्यात् कलहं द्विज: ।
भवन्ति तस्य तन्मासं पितरों मलभोजना:॥ ११॥
तस्मान्निमन्त्रित: श्राद्धे नियतात्मा भवेद् द्विज:।
अक्रोधन: शौचपर: कर्ता चैव जितेन्द्रियः ॥ १२॥
श्वोभूते दक्षिणां गत्वा दिशं दर्भान् समाहित: ।
समूलानाहरेद वारि दक्षिणाग्रान् सुनिर्मलान्॥ १३॥
दक्षिणाप्रवर्ण स्निग्धं विभक्त शुभलक्षणम्।
शुचि देशं विविक्त च गोमयेनोपलेपयेत्॥ १४॥
नदीतीरेषु तीर्थेषु स्वभूमौ चैव सानुषु।
विविक्तेषु च तुष्यन्ति दत्तेन पितर: सदा॥ १५॥
पारक्ये भूमिभागे तु पितृणां नैव निर्वपेत्।
स्वामिभिस्तद विहन्येत मोहाद्यत् क्रियते नर: ॥ १६॥
अटबव्य: पर्वताः पुण्यास्तीर्थान्यायतनानि च।
स्ण्यस्वामिकान्याहुर्न हि तेषु परिग्रह:॥ १७॥
तिलान् प्रविकिरेत् तत्र सर्वतो बन्धयेदजान् |
असुरोपहतं सर्व तिले: शुध्यत्यजेन वा॥ १८॥
ततोउन्नं बहुसंस्कारं नेकव्यज्जनमच्युतम्।
चोष्यपेयसमृद्धं च यथाशकत्या प्रकल्पयेत्॥ १९॥
ततो निवृत्ते मध्याह्ने लुतलोमनखान् द्विजान्।
अभिगम्य यथामार्ग प्रयच्छेद् दन््तधावनम्॥ २०॥
तैलमभ्यज्जनं स्नान॑ स्नानीयं च पृथग्विधम् ।
पात्रैरौदुम्बरैर्दद्याद. वैश्वदैवत्यपूर्वकम्॥ २१॥
ततः स्नात्वा निवृत्तेभ्य: प्रत्युत्थाय कृताउजलि: ।
पाद्यमाचमनीयं च सम्प्रयच्छेद् यथाक्रमम्॥ २२॥
ये चात्र विश्वेदेवानां विप्रा: पूर्व निमन्त्रिता: ।
प्राइमुखान्यासनान्येषां त्रिदर्भोपहितानि च॥ २३॥
श्राद्धमें निमन्त्रित जो दुर्बुद्धि ब्राह्मण यात्रा करता है,
उसके पितर उस महीने धूलिका भक्षण करते हैं श्राद्धमें
निमन्त्रित जो ब्राह्मण कलह करता है, उस महीनेमें
उसके पितर मलका भोजन करते हैं, इसलिये श्राद्धमें
निमन्त्रित ब्राह्मणको नियतात्मा, क्रोधशून्य तथा शौचपरायण
रहना चाहिये और श्राद्धकर्ताको भी जितेन्द्रिय होना
चाहिये॥ १०--१२ ॥
श्राद्ध-दिनके पूर्व दिन समाहित होकर दक्षिण
दिशामें जाकर अत्यन्त निर्मल, जड़सहित और दक्षिणकी
ओर झुके हुए कुशों और जलको लाना चाहिये।
दक्षिणनी ओर झुके हुए, स्त्रिग्थ, अन्यके सम्बन्धसे
रहित (अर्थात् स्व-स्वत्ववाले) शुभ लक्षणोंवाले, पवित्र
तथा एकान्त स्थानका गोमयसे उपलेपन करना चाहिये।
नदियोंके किनारों, तीर्थों, अपनी भूमिमें, पर्वतके शिखरों
तथा एकान्त स्थानोंपर श्राद्ध करनेसे पितर सदा संतुष्ट
रहते हैं॥१३--१५॥
दूसरेकी भूमिमें पितरोंका श्राद्ध नहीं करना चाहिये।
यदि मोहवश मनुष्योंके द्वारा ऐसा किया जाता है तो
वह कर्म (भूमिके) स्वामीके द्वारा विफल (नष्ट) कर
दिया जाता है। जंगल, पर्वत, पुण्यतीर्थ, देवमन्दिर-
ये सभी स्थान बिना स्वामीवाले (अर्थात् सार्वजनिक)
कहे जाते हैं। इनपर किसीका स्वामित्व नहीं होता।
(श्राद्धभूमिमें) सर्वत्र तिलोंको फैलाना चाहिये। तिलोंके
द्वारा असुरोंसे उपहत अर्थात् आक्रान्त (श्राद्धभूमि) शुद्ध
हो जाती है॥ १६--१८॥
तदनन्तर अनेक प्रकारसे शुद्ध किये गये प्रशस्त
अन्नसे ऐसे अनेक प्रकारके भोज्य पक्वान्न बनाने चाहिये,
जो चोष्य, पेय आदि उत्तमोत्तम व्यंजनोंसे यथाशक्ति
समृद्ध हों। तदनन्तर मध्याह्काल व्यतीत होनेपर कृतक्षौर
(नख और बाल कटाये हुए) द्विजों (ब्राह्मणों)-से
मार्गममें मिलकर उन्हें दन््तधावन प्रदान करे॥ १९-२०॥
वैश्वदैवत्य मन्त्रका उच्चारण कर उन्हें उदुम्बरके
पात्रोंद्ारा अभ्यझ्नके लिये उपयोगी तैल, ख्रानके लिये
जल अलग-अलग दे। तदुपरान्त उनके स्नान कर
लेनेपर उठकर हाथ जोड़ते हुए उन्हें क्रमश: पाद्य एवं
आचमन देना चाहिये। विश्वेदेवोंके निमित्त जो ब्राह्मण
पहले निमन्त्रित हैं, उन्हें तीन कुश रखकर पूर्वाभिमुख
आसन प्रदान करना चाहिये॥ २१--२३॥
* अध्याय २२ *
दक्षिणामुखयुक्तानि पितृणामासनानि च।
दक्षिणाग्रैकदर्भाणि प्रोक्षितानि तिलोदकै: ॥ २४॥
तेषृपवेशयेदेतानासनं स्पृश्य स ॒द्विजम्।
आसध्वमिति संजल्पन् आसनास्ते पृथक् पृथक् ॥ २५॥
द्वै दैवे प्राइःमुखौ पित्र्ये त्रयश्नोदडग्मुखास्तथा।
एकैक॑ वा भवेत् तत्र देवमातामहेष्वपि॥ २६॥
सत्क्रियां देशकालौ च शौच ब्राह्मणसम्पदम् ।
पश्नैतान् विस्तरो हन्ति तस्मान्नेहेत विस्तरम्॥ २७॥
अपि वा भोजयेदेकं ब्राह्मणं वेदपारगम्।
श्रुतएशीलादिसम्पन्नमलक्षणविवर्जितम्_॥ २८ ॥
उद्धृत्य पात्रे चान्न॑ तत् सर्वस्मात् प्रकृतात् पुनः ।
देवतायतने चास्मै निवेद्यान्यत् प्रवर्तयेत्॥ २९॥
प्रास्येदग्रौ तदन्नं तु दद्याद वा ब्रह्मचारिणे।
तस्मादेकमपि श्रेष्ठ विद्वांस भोजयेद् द्विजम्॥ ३० ॥
भिक्षुको ब्रह्मचारी वा भोजनार्थमुपस्थित: ।
उपविष्टेषु यः श्राद्धे काम॑ं तमपि भोजयेत्॥ ३१॥
अतिथिर्यस्य नाश्नाति न तच्छाद्धं प्रशस्यते
तस्मात् प्रयत्नाच्छाद्धेषु पूज्या हतिथयो द्विजै: ॥ ३२ ॥
आतिथ्यरहिते श्राद्धे भुज्जते ये द्विजातय: ।
काकयोनिं ब्रजन्त्येते दाता चैव न संशय: ॥ ३३॥
हीनाडु: पतित: कुष्ठी त्रणी पुक्कसनास्तिकौ।
कुक्कुटा: शूकरा एवानो वर्ज्या: श्राद्धेषु दूरत: ॥ ३४॥
३६३
पितृ-ब्राह्मणोंको दक्षिणाग्र कुशके ऊपर तिलोदकसे
प्रोक्षितकर दक्षिणाभिमुख आसन प्रदान करना चाहिये।
श्राद्धकर्ता आसनका स्पर्श करते हुए 'आसध्वम्'--
'बैठिये” इस प्रकार कहकर उन पितृ-ब्राह्मणोंको
पृथक्ू-पृथक् आसनपर बिठाये' ॥ २४-२५॥
(विश्वेदेव) देवसम्बन्धी दो ब्राह्मणोंको पूर्वाभिमुख,
पित्र्यसम्बन्धी तीन ब्राह्मणोंको उत्तराभिमुख बैठाना चाहिये
अथवा देवसम्बन्धी और मातामह (पिन्र्यसम्बन्धी )-के
भी निमित्त एक-एक ब्राह्मणको बैठाना चाहिये। (श्राद्धमें)
सत्कार, देश, काल, पवित्रता और ब्राह्मणसम्पदू--इन
पाँचोंका (अधिक) विस्तारके कारण नाश होता है,
अत: विस्तारकी इच्छा नहीं करनी चाहिये*, विस्तारकी
अपेक्षा श्रुशील आदिसे सम्पन्न अनपेक्षित क्षणोंसे
रहित वेदके पारंगत एक ही ब्राह्मणको भोजन कराना
उचित है॥ २६--२८ ॥
किसी पात्रमें समस्त प्रकृत वस्तुओं (श्राद्धीय भोज्य
पदार्थोमेंसे उचित मात्रामें भोज्य लेकर) देवमन्दिरमें
देवताके उद्देश्यसे प्रथम निवेदित करके अन्य कार्य
प्रारम्भ करना चाहिये, उस (श्राद्धीय लवणरहित सिद्ध)
अन्नको अग्रिमें छोड़ना चाहिये अथवा ब्रह्मचारीको देना
चाहिये। अतः एक भी श्रेष्ठ विद्वान् ब्राह्मगफो भोजन
कराना चाहिये॥ २९-३० ॥
श्राद्धमें निमन्त्रित ब्राह्मणोंके बैठ जानेपर भोजनके
निमित्त उपस्थित हुए भिक्षुक अथवा ब्रह्मचारीको भी
उनकी इच्छानुसार (श्राद्धमें जो यथेष्ट हो वह) भोजन
कराना चाहिये। जिसके श्राद्धमें अतिथि भोजन नहीं
करता, उसका श्राद्ध प्रशंसनीय नहीं होता। इसलिये
द्विजोंको प्रयत्रपूर्वक श्राद्धोंमें अतिथियोंका पूजन
करना चाहिये॥ ३१-३२॥
जो द्विज (ब्राह्मण) आतिथ्यरहित श्राद्धमें भोजन
करते हैं, वे कौएकी योनिमें जाते हैं और दाताकी
भी यही गति होती है, इसमें संदेह नहीं। श्राद्धमें हीन
अज्भवाला, पतित, वुष्ठरोगी, ब्रणयुक्त, पुककस (जातिविशेष),
नास्तिक, कुक्कुट, शूकर तथा कुत्ता--ये दूरसे ही हटा
देने योग्य हैं॥३३-३४॥
१-सामान्यत: ब्राह्मणकी जगह कुशपर श्राद्ध किया जाता है, किंतु सपात्रिक श्राद्धमें ब्राह्मणको बैठाकर श्राद्ध करनेका विधान है।
२-इसका आशय यह है कि श्राद्धुके अवसरपर अधिक विस्तार करनेपर यथायोग्य सत्कार, उचित देश, श्राद्धके शास्त्रविहित काल,
यथाशास्त्र पवित्रता तथा श्राद्धयोग्य ब्राह्मणकी सुलभता निश्चित ही संदिग्ध हो जाती है।
३६४
बीभत्सुमशुचिं नग्नं मत्तं धूर्त रजस्वलाम्।
नीलकाषायवसनं पाषण्डांश्व विवर्जयेत्॥ ३५॥
यत् तत्र क्रियते कर्म पैतृ॒कं ब्राह्मणान् प्रति।
तत्सर्वमेव कर्तव्यं वैश्वदेवत्यपूर्वकम्॥ ३६॥
यथोपविष्टान् सर्वास्तानलंकुर्याद विभूषणै: ।
स्रग्दामभि: शिरोवेष्टैर्धूपवासो 5नुलेपनै: ॥ ३७॥
ततस्त्वावाहयेद् देवान् ब्राह्मणानामनुज्ञया।
उदडनमुखो यथान्यायं विश्वे देवास इत्यूचा॥ ३८ ॥
द्वे पवित्रे गृहीत्वाथ भाजने क्षालिते पुनः।
शं नो देव्या जल॑ क्षिप्ता यवो5सीति यवांस्तथा ॥ ३९॥
या दिव्या इति मन्त्रेण हस्ते त्वर्घ विनिक्षिपेत्।
प्रदद्याद् गन्धमाल्यानि धूपादीनि च शक्तित: ॥ ४० ॥
अपसव्यं तत: कृत्वा पितृणां दक्षिणामुख: ।
आवाहनं ततः कुर्यादुशन्तस्त्वेत्यूचा बुध: ॥ ४१॥
आवाह्म तदनुज्ञातों जपेदा यन्तु नस्ततः।
शं नो देव्योदकं पात्रे तिलोडसीति तिलांस्तथा॥ ४२॥
क्षिप्ता चार्घ यथापूर्व दत्त्वा हस्तेषु वे पुनः ।
संस्रवांश्व॒ ततः सर्वान् पात्रे कुर्यात् समाहित: ।
पितृभ्य: स्थानमेतेन न्युब्जं पात्र निधापयेत्॥ ४३ ॥
अग्नौ करिष्येत्यादाय पृच्छत्यन्नं घृतप्लुतम्।
कुरुष्वेत्यभ्यनुज्ञाता जुहुयादुपवीतवान्॥ ४४॥
यज्ञोपवीतिना होमः कर्तव्य: कुशपाणिना।
प्राचीनावीतिना पित्र्यं वैश्वदेवं तु होमवर्त्॥ ४५॥
दक्षिणं पातयेज्जानुं देवान् परिचरन् पुमान्।
पितृणां परिचर्यासु पातयेदितरं तथा॥ ४६॥
* कूर्मपुराण *
वीभत्स, अपवित्र, नग्न, मत्त, धूर्त, रजस्वला स्त्री,
नीला और कषाय वस्त्र धारण करनेवाले तथा पाखंडीका
परित्याग करना चाहिये॥ ३५॥
श्राद्धमें पितृ-ब्राह्मणोंके प्रति जो भी कर्म किया
जाता है, वह सब वैश्वदेवकर्मक अनन्तर करा
चाहिये। यथाविधि (श्राद्धीय भोजनमें) बैठे हुए उन
सभी (ब्राह्मणों ) को आभूषण, माला, यज्ञसूत्र, शिरोवेष्टन,
धूप, वस्त्र तथा अनुलेपन आदिके द्वारा अलंकृत करना
चाहिये॥ ३६-३७ ॥
तदनन्तर ब्राह्मणोंकी आज्ञासे उत्तराभिमुख होकर
यथाविधि 'विश्वे देवास०' इस ऋचाका पाठकर
देवोंका आवाहन करना चाहिये। दो पवित्र (कुश)
ग्रहणकर 'शं नो देवी०'--यह मन्त्र पढ़कर प्रक्षालित
पात्रमें जल डाले और 'यबोडसीति० ' मन्त्रसे यव (जौ)
भी डाले। “या दिव्या०' इस मन्त्रसे (ब्राह्मणके) हाथपर
अर्घ (अर्घपात्रका जल) छोड़े और यथाशक्ति गन्ध,
माला, धूप तथा दीप आदि प्रदान करे॥ ३८--४०॥
तदनन्तर विद्वान् व्यक्तिको अपसव्य एवं दक्षिणाभिमुख
होकर “उशन्तस्त्वा०' इस ऋचासे पितरोंका आवाहन
करना चाहिये। आवाहन करके उनकी आज्ञासे 'आ
यन्तु नः०” इस मन्त्रका जप करना चाहिये। 'शं नो
देवी०' इस मन्त्रसे पात्रमें जल डाले और 'तिलोउसि०'
इस मन्त्रसे तिल भी छोड़े। पहलेके समान अर्ध
प्रदानकर अथवा ब्राह्मणोंके हाथमें (जलादि) प्रदानकर
समाहित होकर पात्रमें संस्रव-अर्घका अवशिष्ट जल
रखे। तदनन्तर “पितृभ्य:स्थानम०' इस मन्त्रसे पात्रको
अधोमुख (उलटकर) रखे। घृतयुक्त अन्न लेकर 'अग्नौ
करिष्ये' ऐसा पूछे और (उन ब्राह्मणोंद्वारा) 'कुरुष्ब-
करो” ऐसी आज्ञा प्राप्त होनेपर उपवीती (सबव्य होकर)
हवन (अग्नौकरण) करे। हाथमें कुश लेकर और
यज्ञोपवीती (सव्य) होकर होम करना चाहिये। पितृसम्बन्धी
कार्य प्राचीनावीती (अपसव्य) होकर करे और
वैश्वदेवसम्बन्धी कार्य होमके समान अर्थात् सब्य
होकर करे॥ ४१--४५॥
पुरुषको दाहिना जानु जमीनपर रखकर देवोंकी
परिचर्या करनी चाहिये और पितरोंकी परिचर्यामें बायाँ
जानु जमीनपर रखना चाहिये॥ ४६॥
* अध्याय २२ +
सोमाय वै पितृमते स्वधा नम इति ब्रुवन्।
अग्रये कव्यवाहाय स्वधेति जुहुयात् ततः॥ ४७॥
अग्न्यभावे तु विप्रस्थ पाणावेवोपपादयेत्
महादेवान्तिके वाथ गोष्ठे वा सुसमाहित: ॥ ४८ ॥
ततस्तैरभ्यनुज्ञातो गत्वा वे दक्षिणां दिशम्।
गोमयेनोपलिप्योर्बी स्थान कृत्वा तु सैकतम्॥ ४९ ॥
मण्डल चतुरस्रं वा दक्षिणावनतं शुभम्।
त्रिसल्लिखेत् तस्य मध्यं दर्भगैकेन चैव हि॥ ५० ॥
ततः संस्तीर्य तत्स्थाने दर्भान् वे दक्षिणाग्रकान्।
त्रीन् पिण्डान् निर्वपेत् तत्र हवि: शेषात् समाहित: ॥ ५१॥
न्युप्य पिण्डांस्तु तं हस्तं निमृज्याल्लेपभागिनाम् ।
तेषु दर्भष्वथाचम्य त्रिरायम्य शनेरसून्।
तदन्नं तु नमस्कुर्यात् पित॒ुनेव च मन्त्रवित्॥ ५२॥
उदकं निनयेच्छेषं शने: पिण्डान्तिके पुनः ।
अवजिष्रेच्च तान् पिण्डान् यथान्युप्तानू समाहित: ॥ ५३ ॥
अथ पिण्डावशिष्टान्नं विधिना भोजयेद् द्विजान्।
मांसान्यपूपान् विविधान् दद्यात् कृूसरपायसम्॥ ५४॥
सूपशाकफलानीक्षून् पयो दधि घृतं मधु।
अनं चैव यथाकामं विविधं भक्ष्यपेयकम्॥ ५५ ॥
यद् यदिष्ट द्विजेन्द्राणां तत्सर्व विनिवेदयेत्।
धान्यांस्तिलांश्व विविधान् शर्करा विविधास्तथा॥ ५६ ॥
३६५७
तब “सोमाय वे पितृमते स्वधा नमः” इस मन्त्रका
उच्चारणकर 'अग्नये कव्यवाहनाय स्वधा' ऐसा कहकर
हवन करे॥ ४७॥
अग्निके अभाव होनेपर सावधानचित्त होकर ब्राह्मणके
हाथपर, महादेवके समीप अथवा गोशालामें हवनीय
द्रव्य रखना चाहिये। तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्तकर
दक्षिण दिशामें जाकर भूमिको गोमय (गोबर)-से लीपकर
उस स्थानमें बालू बिछाये। तदनन्तर उस स्थानपर दक्षिणकी
ओर झुकी हुई गोल अथवा चौकोर शुभ (बालुकामय)
बेदी बनाये, उस बेदीके बीचमें एक कुशसे तीन रेखा
खींचे और उस स्थान (बेदी)-पर दक्षिणाग्र कुशोंको
बिछाकर हविके बचे हुए अंशसे निर्मित तीन पिण्ड
उस (बेदी)-पर प्रदान करे॥ ४८--५१॥
पिण्ड-प्रदानके अनन्तर लेपभागके अधिकारी *
पितरोंके लिये पिण्डाधार-कुशोंके मूलमें उस (पिण्ड-
शेषसे संसृष्ट ) हाथका प्रोक्षण करे। तदनन्तर मन्त्रवेत्ताको
चाहिये कि आचमन करे और धीरे-धीरे श्रास खींचकर
अपने बायेंसे पीछे मुख करके धीरे-धीरे श्वास छोड़ते
हुए पिण्डोंके सामने अपना मुख कर पूरा थास छोड़े
तथा उस अन्न एवं पितरोंको नमस्कार करे। पुनः
पिण्डके समीप (ऊपर) धीरे-धीरे (अर्धपात्रका) शेष
जल छोड़े (इसे अवनेजन कहते हैं)। तदनन्तर
सावधानीके साथ रखे हुए उन पिण्डोंको झुककर
क्रमानुसार सूँघे (और पाकपात्रमें रख दे।) ॥ ५२-५३ ॥
पिण्डदानसे बचा हुआ अन्न ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक
खिलाना चाहिये। पूआ, कृसर, पायस (तिलके साथ
पकाये चावलकी खीर), सूप, शाक, फल, ईख, दूध,
दही, घृत, मधु, अन्न तथा अनेक प्रकारके खाने और
पीने योग्य पदार्थ उनकी (ब्राह्मणोंकी) रुचिके अनुसार
खिलाने चाहिये॥ ५४-५५ ॥
श्रेष्ठ ब्राह्यणोॉंको जो-जो रुचिकर हो (और श्राद्धमें
विहित हो) वह सब देना चाहिये। साथ ही अनेक
प्रकारके धान्य, तिल तथा शर्कराका दान करना
चाहिये॥ ५६ ॥
* पितामहके ऊपरके प्रपितामह आदि तीसरी परम्परासे आगेके सभी पितर पिण्डके अधिकारी नहीं होते हैं, अपितु पिण्ड बनाते
समय हाथमें जो पिण्डका शेष अन्न संसृष्ट (लगा) रहता है, उसीको ग्रहण करनेके अधिकारी होते हैं, अत: प्रपितामहके आगेकी
पीढ़ीवाले पितरोंको 'लेपभागभुक्' कहा जाता है। इनकी तृप्ति तभी होती है, जब प्रपितामहतक तीन परम्पराको पिण्ड प्रदान कर
लेनेके अनन्तर पिण्डोंके आधारकुशोंके मूलमें उन दोनों हाथोंका प्रोक्षण किया जाय, जिनसे पिण्डोंको बनाया गया है।
३६६
* कूर्मपुराण *
उष्णमन्नं द्विजातिभ्यो दातव्यं श्रेय इच्छता।
अन्यत्र फलमूलेभ्य: पानकेभ्यस्तथेव च।॥ ५७॥
नाश्रूणि पातयेज्ञातु न कुप्थेन्नानृतं वदेत्।
न पादेन स्पृशेदन्नं न चैतदवधूनयेत्॥ ५८ ॥
क्रोधेन चैव यद् दत्तं यद् भुक्त त्वरया पुनः ।
यातुधाना विलुम्पन्ति जल्पता चोपपादितम्॥ ५९॥।
स्विन्नगात्रो न तिष्ठेत संनिधौ तु द्विजन्मनाम्।
न चात्र एयेनकाकादीन् पक्षिण: प्रतिषेधयेत्।
तदरूपाः पितरस्तत्र समायान्ति बुभुक्षवः ॥ ६०॥
न द्््यात् तत्र हस्तेन प्रत्यक्षलवर्ण तथा।
न चायसेन पात्रेण न चैवाश्रद्धया पुनः॥ ६१॥
काज्चनेन तु पात्रेण राजतौदुम्बरेण वा।
दत्तमक्षयतां याति खड़ेन च विशेषत:॥ ६२॥
पात्रे तु मृण्मये यो वे श्राद्धे भोजयते पितृन्।
स याति नरकं घोर भोक्ता चैव पुरोधस: ॥ ६३॥
न पंकत्यां विषमं दद्यान्न याचेन्न च दापयेत्।
याचिता दापिता दाता नरकान् यान्ति दारुणान्॥ ६४॥
भुज्जीरन् वाग्यता: शिष्टा न बूयुः प्राकृतान् गुणान्।
तावद्धि पितरो5एनन्ति यावत्रोक्ता हविर्गुणा: ॥ ६५॥
कल्याण प्राप्त करनेकी इच्छावाले (थश्राद्धकर्ताको
चाहिये कि) ब्राह्मणोंको फल, मूल और पानक (विविध
स्वादयुक्त पेय पदार्थविशेष)-को छोड़कर अन्य सभी
अन्न उष्ण-अवस्थामें (गरम-गरम) प्रदान करे॥५७॥
(श्राद्धकर्ता) कभी भी अश्रुपात न करे, न कोप
करे, न झूठ बोले, पाँवसे अन्नको स्पर्श न करे
और न अन्नका (पैरोंसे) अवधूनन (मर्दन) करे।
क्रोध करके जो दिया जाता है, जल्दी-जल्दी जो
भोजन किया जाता है और बोलते हुए जो खाया
जाता है, उस पदार्थको राक्षस हर लेते हैं। ब्राह्मणोंके
समीप स्वेदयुक्त शरीरसे न रहे। श्राद्धस्थलसे श्येन,
कौआ आदि पक्षियोंकों हटाना नहीं चाहिये, क्योंकि
(सम्भव है) इनके ही रूपमें पितृगण वहाँ खानेको
इच्छासे आये हों॥ ५८--६० ॥
वहाँ (श्राद्धमें) हाथसे प्रत्यक्ष लवण नहीं देना
चाहिये। लोहेके पात्रद्वारा और अश्रद्धासे कोई वस्तु
नहीं देनी चाहिये। स्वर्ण, रजत या औदुम्बरके पात्रसे
तथा विशेष रूपसे खड्ग नामके पात्रविशेषसे दिया
हुआ पदार्थ अक्षय होता है। जो व्यक्ति श्राद्रमें
मिट्टीके बर्तनोंमें पितरोंकों भोजन कराता है, वह
घोर नरकमें जाता है, ऐसे ही भोजन करनेवाले
ब्राह्मण तथा (श्राद्ध करानेवाले) पुरोहित भी नरकमें
जाते हैं॥६१--६३ ॥
एक पंक्तिमें (भोजन करनेवालोंके साथ परोसनेमें)
विषम व्यवहार नहीं करना चाहिये। सबको समान
रूपसे देना चाहिये। (भोजन करनेवालोंको भी विषम
दृष्टिसे) न तो माँगना चाहिये न किसी दूसरेको दिलाना
चाहिये, क्योंकि ऐसा (करनेपर) माँगनेवाला, दिलानेवाला
और देनेवाला--ये तीनों भीषण नरकोंमें जाते हैं।
शिष्ट लोगोंको मौन होकर भोजन करना चाहिये।
(अन्नके) प्राकृत गुणोंका वर्णन नहीं करना चाहिये।
पितर तभीतक भोजन करते हैं, जबतक भोज्य पदार्थके
गुणोंका वर्णन नहीं होता॥ ६४-६५ ॥
* अध्याय २२ *
नाग्रासनोपविष्टस्तु भुज्जीत प्रथमं द्विज:।
बहूनां पश्यतां सोउज्ञ: पंक्त्या हरति किल्बिषम्॥ ६६॥
नकिज्चिद् वर्जयेच्छाद्धे नियुक्तस्तु द्विजोत्तम: ।
न मासं प्रतिषेधेत न चान्यस्यान्नमीक्षयेत्॥ ६७॥
यो नाश्नाति द्विजो मांस नियुक्त: पितृकर्मणि।
स॒ प्रेत्य पशुतां याति सम्भवानेकविंशतिम्॥ ६८ ॥।
स्वाध्यायं श्रावयेदेषां धर्मशास्त्राणि चैव हि।
इतिहासपुराणानि श्राद्धकल्पां श्र शोभनान्॥ ६९॥
ततोन्नमुत्सुजेद भुक्ते अग्रतो विकिरन् भुवि।
पृष्ठा तृप्ता: स्थ इत्येवं तृप्तानाचामयेत् तत: ॥ ७०॥
आचान्ताननुजानीयादभितो रम्यतामिति।
स्वधाउस्त्विति च त॑ ब्रूयुत्राह्मणास्तदनन्तरम्॥ ७१॥
ततो भुक्तवतां तेषामन्नशेषं निवेदयेत्।
यथा ब्रूयुस्तथा कुर्यादनुज्ञातस्तु वे द्विजैः:॥ ७२॥
पित्ये स्वदितमित्येव वाक्य गोष्ठेषु सूनृतम्।
सम्पन्नमित्यभ्युदये दैवे रोचत इत्यपि॥ ७३॥
विसृज्य ब्राह्मणांस्तान् वै दैवपूर्व तु वाग्यत: ।
दक्षिणां दिशमाकाड्क्षन् याचेतेमान् वरान् पितृन्॥ ७४॥
३६७
अग्रासनपर (प्रथम पंक्तिमें) बैठे हुए किसी एक
द्विको उस पंक्ति या अन्य फंक्तिमें बैठे द्विजों
(ब्राह्मणों )- के देखते-देखते (उनके द्वारा भोजन प्रारम्भ
करनेके पूर्व) पहले अकेले भोजन आरम्भ नहीं करना
चाहिये (अर्थात् अपनी तथा अन्य पंक्तियोंमें बैठे हुए
सभी ब्राह्मणोंक साथ ही भोजन आरम्भ करना चाहिये)
क्योंकि ऐसा करनेपर वह अज्ञ (द्विज) पंक्तिमें बैठे
हुए देखनेवालोंके पापका भागी होता है। श्राद्धमें नियुक्त
श्रेष्ठ द्विजकोी किसी वस्तुका बहिष्कार नहीं करना
चाहिये और दूसरेके अन्नकी ओर नहीं देखना चाहिये।
श्राद्धमें भोजन करते हुए ब्राह्मणोंको वेद, धर्मशास्त्र,
इतिहास-पुराण तथा शुभ श्राद्धकल्पों (श्राद्धीय नियमों) -
को सुनाना चाहिये । ब्राह्मणोंक भोजन कर लेनेपर उनसे
'क्या आप लोग तृप्त हो गये ?' इस प्रकार पूछना चाहिये
और उनके भोजनपात्रके सम्मुख परिवेषणसे अवश्ष्ट
अन्नका विकिरण करना चाहिये (साथ ही वृद्ध प्रपितामह
आदि लेपभागके अधिकारी पितरोंके लिये श्राद्धीय
सिद्ध अन्नका उत्सर्ग करना चाहिये)। तदनन्तर तृप्त
ब्राह्णांकों आचमन कराना चाहिये॥ ६६--७० ॥
आचमन कर लेनेपर उन्हें 'चतुर्दिक् रमण करें '
ऐसा कहना चाहिये। तब ब्राह्मण उसे 'स्वधाउस्तु'
कहकर आशीर्वाद दें। उनके (ब्राह्मणोंक) भोजन
करनेसे शेष बचे अन्नको (उन ब्राह्मणोंको ही) निवेदित
करे। अनन्तर वे ब्राह्मण जैसा कहें, वैसा ही उनकी
आज्ञासे करे ॥७१-७२॥
पित्रयकार्य (माता-पिताके एकोदिष्ट श्राद्ध)-में
'स्वदितम्', गोष्टीश्राद्धमें 'सूनृतम्', आभ्युदयिक- श्राद्धमें
'सम्पन्नम्' तथा दैव (देवश्राद्ध )-में 'रोचते' ऐसा
कहना चाहिये॥ ७३ ॥
निमन्त्रित ब्राह्मगणोंकों बिदाकर मौन होकर दैव-
कार्य (पूर्वाभमुख आचमन, विष्णुस्मरण आदि
पुन:) करके दक्षिणाभिमुख होकर पितरोंसे इन वरोंकी
याचना करे--॥ ७४॥
१-ब्राह्मणफ-भोजनके अनन्तर “शेषान्नं कि कर्तव्यम् ?' पूछना चाहिये। ब्राह्मणको कहना चाहिये: “इष्टे: सह भोक्तव्यम्!।
२-वारह श्राद्धोंमें गोष्ठी श्राद्ध विश्वामित्रके द्वारा बताया गया है।
३-आभ्युदयिक श्राद्ध-वृद्धिश्राद्ध (विवाह, यज्ञोपवीत-संस्कार आदिमें करणीय नान्दीश्राद्ध) |
४-भविष्यपुराणमें देवताओंके उद्देश्यसे श्राद्धका विधान है। (द्रष्टट्य मनु० ३। २५४ व्याख्या कुल्लूकभट्टी )
३६८
दातारो नोडभिवर्धन्तां वेदा: संततिरिव च।
श्रद्धा च नो मा व्यगमद बहुदेयं च नो5स्त्विति॥ ७५ ॥
पिण्डांस्तु गोडजविप्रेभ्यो दद्यादग्रौ जलेडपि वा।
मध्यमं तु ततः पिण्डमद्यात् पत्नी सुतार्थिनी॥ ७६॥
प्रक्षाल्य हस्तावाचम्य ज्ञातीन् शेषेण तोषयेत्।
ज्ञातिष्वपि च तुष्टेषु स्वान् भृत्यान् भोजयेत् ततः ।
पश्चात् स्वयं च पत्नीभि: शेषमन्नं समाचरेत्॥ ७७॥
नोद्वासयेत् तदुच्छिष्ट॑ यावन्नास्तंगतो रविः।
ब्रह्मचारी भवेतां तु दम्पती रजनीं तु ताम्॥ ७८ ॥
दत्त्वा श्राद्ध तथा भुक्त्वा सेवते यस्तु मैथुनम् ।
महारौरवमासाद्य कीटयोनिं ब्रजेत् पुनः॥ ७९॥
शुचिरक्रोधन: शान्तः सत्यवादी समाहित: |
स्वाध्यायं च तथाध्वानं कर्ता भोक्ता च वर्जयेत्॥ ८०॥
श्राद्ध भुक्त्वा परश्राद्धं भुज्जते ये द्विजातय: ।
महापातिकिभिस्तुल्या यान्ति ते नरकान् बहूनू॥ ८१॥
एप वो विहितः सम्यक् श्राद्धकल्प: सनातन: ।
आमेन वर्तयेन्नित्यमुदासीनो5थ तत्त्ववित्॥ ८२॥
अनग्निरध्वगो वापि तथेव व्यसनान्वित:।
आमश्राद्धं द्विज: कुर्याद् विधिज्ञ: श्रद्धयान्वित: ।
तेनाग्नौकरणं कुर्यात् पिण्डांस्तेनैव निर्वपेतू्॥ ८३॥
योउनेन विधिना श्राद्ध कुर्यात् संयतमानस: ।
व्यपेतकल्मषो नित्यं योगिनां वर्तते पदम्॥ ८४॥
न न नम लक नमन मन 4-८ नल उन+++ उन -+- अमन मजा -->- ८-८ नमक फसल
* यह ' अग्नौकरण!” ब्राह्मणके हाथपर होता है। (मनु० ३। २१२)
न कूर्मपुराण शः
हमारे (कुलमें) दान देनेवालोंकी, वेद (ज्ञान)-
की तथा संततिकी वृद्धि हो। (शास्त्रों, ब्राह्मणों, पितरों,
देवों आदिमें) हमारी श्रद्धा हटे नहीं। मेरे पास दान
देनेके लिये बहुतसे पदार्थ हों॥७५॥
( श्राद्धंक) पिण्डोंकी गाय, अज (बकरा) अथवा
ब्राह्मणको दे, ऐसा सम्भव न होनेपर अग्नि अथवा जलमें
विसर्जित करना चाहिये। पुत्रकी इच्छा करनेवाली
(श्राद्धकर्ताकी) पत्नीको मध्यम पिण्डका भक्षण करना
चाहिये। तदनन्तर हाथोंकों धोकर आचमन करके
अवशिष्ट भोज्य पदार्थोसे अपनी जातीय बान्धवोंको तृत्त
करे, उन जातीय बन्धुओंके तृप्त हो जानेपर अपने
भत्यजनोंको भोजन कराये। तत्पश्चात् पत्नियोंके साथ
स्वयं भी शेष अन्नको ग्रहण करे॥ ७६-७७॥
( श्राद्स्थलसे ) जूठा अन्न तबतक नहीं उठाना
चाहिये, जबतक सूर्यास्त न हो जाय। श्राद्धकी उस
रात्रिमें पति-पत्नीको ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना चाहिये। श्राद्ध
करके और श्राद्धका भोजन करके जो मैथुन करता
है, वह महारौरव नामक नरकमें जाता है, तदुपरान्त
कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है। श्राद्धकर्ता तथा श्राद्धके
भोजन करनेवालेको पवित्र, क्रोधरहित, शान्त, सत्यवादी
तथा सावधान रहना चाहिये और स्वाध्याय तथा यात्राका
त्याग करना चाहिये॥ ७८--८० ॥
(किसी एक) श्राद्धमें भोजन करनेके बाद जो
ब्राह्मण दूसरे श्राद्धमें भोजन करते हैं, वे महापातकियोंके
समान हैं और बहुतसे नरकोंमें जाते हैं। इस प्रकार
आप लोगोंसे मैंने इस सनातन श्राद्धकल्पका वर्णन
किया। उदासीन (अनासक्त) तत्त्ववेत्ताको नित्य अपक्व
अन्नसे श्राद्ध करना चाहिये॥८१-८२॥
अग्निहोत्रसे रहित, यात्रा करनेवाले अथवा व्यसनसे
युक्त (किसी प्रकारकी आपत्ति या रोगसे ग्रस्त) श्रद्धालु
और विधिको जाननेवाले द्विजको आमश्राद्ध (अपक्व
अन्नसे किया जानेवाला श्राद्ध) करना चाहिये। वह उसी
अपक्व अन्नसे ' अग्नौकरण '* करे और उसीसे पिण्डदान
भी करे। जो इस विधिसे शान्त-मन होकर श्राद्ध करता
है, वह सभी कल्मषोंसे दूर होता हुआ योगियोंके नित्य
पदको प्राप्त करता है॥८३-८४॥
* अध्याय २२ *
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद द्विजोत्तम: ।
आराधितो भवेदीशस्तेन सम्यक् सनातन: ॥ ८५॥
अपि मूलेफफलैर्बापि प्रकुर्यान्निर्धनो द्विज:।
तिलोदकैस्तर्पयेद् वा पितृन् स्नात्वा समाहित: ॥ ८६ ॥
न जीवत्पितृको दद्याद्धोमान्तं चाभिधीयते।
येषां वापि पिता दद्यात् तेषां चैके प्रचक्षते ॥ ८७॥
पिता पितामहश्चेव तथेव प्रपितामहः ।
यो यस्य प्रियते तस्मै देयं नान्यस्य तेन तु॥ ८८ ॥
भोजयेद् वापि जीवन्तं यथाकाम॑ तु भक्तित: ।
न जीवन्तमतिक्रम्य ददाति श्रूयते श्रुतिः:॥ ८९॥
द्रथामुष्यायणिको दद्याद बीजिक्षेत्रिकयो: समम्
रिक्थादर्ध समादद्यान्नियोगोत्पादितो यदि॥ ९०॥
अनियुक्त: सुतो यश्व शुल्कतो जायते त्विह।
प्रदद्याद् बीजिने पिण्डं क्षेत्रिणे तु ततोउन्यथा॥ ९१॥
द्वौ पिण्डौ निर्वपेत् ताभ्यां क्षेत्रिणे बीजिने तथा।
कीर्तयेदथ चैकस्मिन् बीजिने क्षेत्रिणं ततः ॥ ९२॥
मृताहनि तु कर्तव्यमेकोहिष्ट विधानतः।
अशौचे स्वे परिक्षीणे काम्यं वै कामतः पुनः ॥ ९३॥
३६९
इसलिये द्विजोत्तमको सभी प्रयत्रोंसे श्राद्ध करना
चाहिये। इससे सनातन ईशकी सम्यक् रूपसे आराधना
हो जाती है॥८५॥
सर्वथा निर्धन द्विजजों मूल अथवा फलोंसे श्राद्ध
करना चाहिये। अथवा स्रानकर समाहित होकर तिल
और जलद्वारा पितरोंका तर्पण करना चाहिये। जिसके
पिता जीवित हों उसे श्राद्ध नहीं करना चाहिये अथवा
उसके लिये होमपर्यन्त श्राद्ध करनेका विधान है। कुछ
लोगोंका कहना है कि पिता जिन्हें पिण्डदान करते हों
उन्हें ही (वह) पिण्डदान करे। पिता, पितामह तथा
प्रपितामहमेंसे जिसकी मृत्यु हुई हो उसीके निमित्त
श्राद्धकर्ताको पिण्डदान करना चाहिये, न कि अन्य
किसी (जीवित व्यक्ति)-के निमित्त। अथवा जीवित पुरुषको
इसकी अभिरुचिके अनुसार भक्तिपूर्वक भोजन कराये।
श्रुतिमें कहा गया है कि (पितादि) जीवित व्यक्तिका
अतिक्रमणकर पिण्डदान नहीं करना चाहिये॥ ८६--८९ ॥
इद्यामुष्यायणिक' पुत्र बीजी' एवं क्षेत्री" दोनों
पिताओंको पिण्डदान करे। यह पुत्र सम्पत्तिका आधा
भाग ले सकता है। जो पुत्र नियोग-विधिसे उत्पन्न
नहीं है, शुल्क (मूल्य) देकर गृहीत है, वह बीजी
(जिस पुरुषके बीजसे उत्पन्न हुआ है वह बीजी है)-
को पिण्डदान करेगा और क्षेत्राधिकारी पिताके पिण्डदानका
उसे अधिकार नहीं होता। (नियोगसे उत्पन्न पुत्रको)
क्रमश: क्षेत्री और बीजीको दो पिण्ड देने चाहिये।
एक-एक पिण्ड देते समय क्रमश: अलग-अलग
दोनोंका नाम कीर्तन करना चाहिये'॥ ९०--९२॥
(पिताकी) मृत्यु-तिथिमें विधिपूर्वक एकोदिष्ट श्राद्ध
करना चाहिये। अपना अशौच समाप्त होनेपर इच्छानुसार
काम्य श्राद्ध किये जा सकते हैं॥९३॥
१-शास्त्रीय विधिसे विवाहके लिये किसी योग्य वरको चुना जाय और उसे यह वचन दे दिया जाय कि 'मैं अपनी कन्याका विवाह
तुमसे करूंगा' वह वर दैववश यदि गत हो जाय तो शास्त्रानुसार उस वागूदत्ता कन्याका पुनर्विवाह सम्भव नहीं है, किंतु दिवंगत वरको
पिण्ड देनेके लिये और उसकी सम्पत्तिके स्वामित्वके लिये पुत्रकी आवश्यकता हो तो उस वागूदत्ता कन्याका देवर या सगोत्रसे विवाह
करना शास्त्रविहित है। यही नियोग-विवाह है। इससे उत्पन्न पुरुषको द्रथामुष्यायणिक कहते हैं।
२-वागदत्ता कनन््यासे नियोग-विधिसे विवाह करनेवाला देवर आदि बीजी है अर्थात् विद्यमान पिता।
३-वाग्दत्ता कन्याका दिवगंत वर क्षेत्री है अर्थात् दिवद्भत पिता।
४-औरस आदि बारह प्रकारके पुत्र धर्मशास्त्रमें बताये गये हैं। उनमें एक क्रीत पुत्र होता है। यह मूल्य देकर माता-पितासे ले
लिया जाता है और अपने पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया जाता है। यही पुत्र शुल्कसे गृहीत पुत्ररूपमें यहाँ निर्दिष्ट है।
५-क्षेत्री एवं बीजी दोनोंकों पिण्डदान नियोगसे उत्पन्न वही पुत्र करेगा, जिसकी उत्पत्तिके पूर्व देवर आदि तथा वाग्दत्ता कन्याने
परस्पर यह संविदा कर ली हो कि यह उत्पन्न होनेवाला पुत्र हम दोनोंका होगा।
३७० रू कूर्मपुराण कै
पूर्वाह्ने चैव कर्तव्यं श्राद्धमभ्युदयार्थिना। अभ्युदयकी कामना करनेवालेको पूर्वाहमें ही
देववत्सर्वमेव स्याद यवै: कार्या तिलक्रिया॥ ९४ ॥| आशभ्युदयिक (नान्दी) श्राद्ध करना चाहिये। देवकार्यके
समान इसमें सभी कार्य करने चाहिये। तिलोंका कार्य
जौसे करना चाहिये। इसमें सीधे कुशोंका प्रयोग करे
(मोटकके रूपमें द्विगुणीकृत कुशोंका प्रयोग न करे)।
युग्म ब्राह्मणोंको भोजन कराये और 'नान्दीमुखा: पितर:
दर्भाश्ष ऋजव: कार्या युग्मान् वै भोजयेद द्विजान्। प्रीयन्ताम्' अर्थात् नान्दीमुख नामक पितर तृप्त हों-
नान्दीमुखास्तु पितरः प्रीयन्तामिति वाचयेत्॥ ९५ ॥ | ऐसा कहना चाहिये॥ ९४-९५॥
मातश्राद्धं तु पूर्व स्थात् पितृणां स्यादनन्तरम् । पहले मातृश्राद्ध तदनन्तर पितृश्राद्ध करना चाहिये।
ततो मातामहानां तु वृद्धौ श्राद्धत्रयं स्मतृतम्॥ ९६ ॥ | उसके बाद मातामहादिका श्राद्ध होता है। वृद्धिश्राद्धमे
इन्हीं तीन प्रकारके श्राद्धोंका वर्णन हुआ हैं। देवकार्य
(विश्वेदेव कार्य) करनेके अनन्तर पिण्डदान करना
चाहिये। दाहिनी ओरसे ही विश्वेदेवकार्य करना चाहिये।
देवपूर्व प्रदद्याद् वै न कुर्यादप्रदक्षिणम् । एकाग्रचित्तसे' सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो पिण्डदान
प्राइमुखो निर्वपेत् पिण्डानुपवीती समाहित: ॥ ९७ ॥ | करना चाहिये॥ ९६-९७॥
पूर्व तु मातर: पूज्या भक्त्या वै सगणे श्वरा: । सर्वप्रथम (नान्दीश्राद्धके पूर्व) भक्तिपूर्वक गणेश्वरोंसे
स्थण्डिलेषु विचित्रेषु प्रतिमासु द्विजातिषु॥ ९८ ॥।| युक्त (षोडश) मातृकाओंका पूजन करना चाहिये।
मनोरम स्थण्डिल, प्रतिमा अथवा ब्राह्मणोंमें पुष्प, धूप,
पुष्पैर्धपैश्ष॒ नेवेद्येर्गन्धाद्येभूषणैरपि। नैवेद्य, गन्ध तथा अलंकारों आदिके द्वारा (षोडश
पूजयित्वा मातृगणं कुर्याच्छाद्धत्रयं बुध: ॥ ९९ ॥ | मातृकाओंका) पूजन करना चाहिये। मातृगणोंकी पूजाकर
विद्वान्को चाहिये कि वह तीनों श्राद्ध करे। मातृपूजन
अकृत्वा मातृयागं तु यः श्राद्ध परिवेषयेत्। किये बिना जो श्राद्ध करता है, (षोडश) मातृकाएँ
तस्य क्रोधसमाविष्टा हिंसामिच्छन्ति मातर: ॥ १०० ॥ | क्रुद्ध होकर उससे अप्रसन्न हो जाती हैं॥ ९८--१००॥
इति श्रीकूर्मपुराणे षट्साहस्त्रयां संहितायामुपरिविभागे द्वाविंशो5ध्याय:॥ २२॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें बाईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २२॥
१-पुत्रादिकी उत्पत्तिके समय होनेवाले विशेष श्राद्धके लिये यह व्यवस्था है। सामान्यतः सभी श्राद्धोंमें प्रथम पिता आदिका,
अनन्तर माता आदिका श्राद्ध होता है।
२-यह किसी विशेष श्रौतकर्मके पिण्डदानकी व्यवस्था है। सामान्यतः: पिण्डदान दक्षिणाभिमुख एवं अपसब्य होकर किया
जाता है।
३-ये तीन श्राद्ध-पिता आदि तीन, माता आदि तीन तथा मातामह आदि तीनका समझना चाहिये। नान्दीश्राद्धमें ये तीनों
श्राद्ध होते हैं।
* अध्याय २३ *
३७१
तेईसवाँ अध्याय
आशौच-प्रकरणमें जननाशौच और मरणाशौचकी क्रियाविधि, शुर्द्व-विधान,
सपिण्डता, सद्यःशौच, अन्त्येष्टि-संपघ्कार, सपिण्डीकरण-विधि, मासिक
तथा सांवत्सरिक आद्ध आदिका वर्णन
व्यास उवाच
दशाहं॑ प्राहुराशौच॑ सपिण्डेबु विपश्चित:।
मृतेषु वाथ जातेषु ब्राह्मणानां द्विजोत्तमाः॥ १॥।
नित्यानि चैव कर्माणि काम्यानि च विशेषतः ।
नकुर्याद विहितं किज्ञित् स्वाध्यायं ममनसापि च॥ २॥
शुचीनक्रोधनान् भूम्यान् शालाग्नौ भावयेद् द्विजान्।
शुष्कान्नेन फलैर्वापि बैतानं जुहुयात् तथा॥ ३ ॥
न स्पृशेयुरिमानन्ये न च तेभ्य: समाहरेत्।
चतुर्थ पञ्ञमे वाह्नि संस्पर्शः कथितो बुधे: ॥ ४॥
सूतके तु सपिण्डानां संस्पर्शों न प्रदुष्यति।
सूतक॑ सूतिकां चेब वर्जयित्वा नृणां पुनः ॥ ५॥
अधीयानस्तथा यज्वा वेदविच्च पिता भवेत्।
संस्पृश्या: सर्व एवैते स्नानान्माता दशाहत:॥ ६॥
दशाहं निर्गुणे प्रोक्तमशौच॑ चातिनिर्गुणे।
एकद्वित्रिगुणैर्युक्ते चतुस्त्येकदिनै: शुचि:॥।७॥
दशाहात् तु परं सम्यगधीयीत जुहोति च।
चतुर्थ तस्य संस्पर्श मनुराह प्रजापति: || ८॥
क्रियाहीनस्य मूर्खस्य महारोगिण एवं च।
यथ्थेष्टाचरणस्याहुर्मरणान्तमशौचकम्. ॥९॥
व्यासजीने कहा--हे द्विजोत्तमो ! दिद्वानोंने ब्राह्मणोंके
लिये सपिण्डोंकी मृत्यु अथवा जन्म होनेपर दस दिनका
आशौच कहा है। (आशौचमें) विशेषरूपसे विहित
नित्य तथा काम्य कुछ भी कर्म न करे। मनसे भी
स्वाध्याय (वेदाध्ययन) न करे॥ १-२॥
यज्ञशालाके अग्रिकार्यके लिये पवित्र, क्रोधरहित,
भूमिदेवरूप ब्राह्मणोंको नियुक्त करना चाहिये। शुष्क
अन्न अथवा फूलोंके द्वारा वैतानाग्निमें हवन (श्रौत
होम) करना चाहिये॥ ३॥
दूसरे लोग इन आशौचग्रस्त व्यक्तियोंको स्पर्श न
करें और न कोई वस्तु ही उनसे लें। विद्वानोंने चौथे
अथवा पाँचवें दिन इनके स्पर्शका विधान किया है।
(सपिण्डोंके) जननाशौचमें सपिण्डोंको स्पर्श करनेमें
दोष नहीं होता। तथापि उत्पन्न हुए बालक और उसे
जन्म देनेवाली (सद्यः) प्रसूता स्त्रीका मनुष्योंको स्पर्श
नहीं करना चाहिये॥ ४-५॥
जननाशौचमें वेदका अध्ययन करनेवाला, यज्ञ
करनेवाला और वेद जाननेवाला पिता-ये सभी स्नान
करनेसे स्पर्श करने योग्य हो जाते हैं। माता दस दिनोंके
बाद (स्पर्श-योग्य होती है) निर्गुण' अथवा अति-
निर्गुण लोगोंके लिये दस दिनोंका आशौच कहा गया
है। एक, दो अथवा तीन गुणवालोंके लिये चार, तीन
या एक दिनमें शुद्धि होनेका विधान हे। दस दिन
हो जानेपर सम्यक्ू-रूपसे अध्ययन एवं हवन करना
चाहिये। प्रजापति मनुने चौथे दिन (एक गुणवाले
अशौची)-के स्पर्शका विधान किया है। क्रियाहीन,
मूर्ख, महारोगी और मनमाना आचरण करनेवाले व्यक्तियोंका
आशौच मरणपर्यन्त कहा गया है॥६--९॥
१-वेदाध्ययन एवं अग्निहरोत्रादि कर्मसे रहितको निर्गुण कहा जाता है।
२-जो स्मार्ताग्निमानू है वह एक गुणवाला है। जो स्मार्ताग्रिमान् तथा वेदाध्ययनसम्पन्न है, वह दो गुणवाला है। जो इन
दोनोंक साथ श्रौताग्निमान् है, वह तीन गुणोंवाला है। (मनु० ३। ५९ कुल्लूकभट्टी)
३-इस वचनका तात्पर्य क्रियाहीनता आदिकी “निनन््दामें है।
३७२
त्रिरात्रं दशरात्रं वा ब्राह्मगानामशौचकम्।
प्राक्संस्कारात् त्रिरात्र स्ात् तस्मादूर्ध दशाहकम्।॥। १०॥
ऊनद्दिवार्षिके प्रेते मातापित्रोस्तदिष्यते।
त्रिरात्रेण शुचिस्त्वन्यो यदि ह्ात्यन्तनिर्गुण: ॥ ११॥
अदन्तजातमरणे पित्रोरेकाहमिष्यते ।
जातदन्ते त्रिरात्रं स्थाद यदि स्यातां तु निर्गुणा ॥ १२॥
आदन्तजननात् सद्य आचौलादेकरात्रकम् |
त्रिराद्रमौपनयनात् _ सपिण्डानामुदाहतम्॥ १३॥
जातमात्रस्थ बालस्य यदि स्यथान्मरणं पितु: ।
मातुश्च सूतक॑ तत् स्थात् पिता स्यात् स्पृश्य एव च॥ १४॥
सद्य: शौच सपिण्डानां कर्तव्यं सोदरस्य च।
ऊर्ध्व दशाहादेकाहं सोदरों यदि निर्गुण:॥ १५॥
अथोर्ध्व॑ दन््तजननात् सपिण्डानामशौचकम्।
एकरात्र निर्गुणानां चौलादूर्ध्व त्रिरात्रकम्॥ १६॥
अदन्तजातमरणं सम्भवेद् यदि सत्तमाः।
एकरात्र॑ सपिण्डानां यदि तेउत्यन्तनिर्गुणा:॥ १७॥
ब्रतादेशात् सपिण्डानामर्वाक् स्नान॑ विधीयते।
सर्वेषामेव गुणिनामूर्ध्व तु विषमं पुनः॥ १८॥
अर्वाक् षण्मासतः स्त्रीणां यदि स्याद् गर्भसंस्रव: ।
तदा माससमैस्तासामशौचं दिवसे: स्मृतम्॥ १९॥
तत ऊर्ध्व॑ तु पतने स्त्रीणां द्वादशरात्रिकम्।
सद्य: शौच सपिण्डानां गर्भस्रावाच्य वा तत: ॥ २०॥
* कूर्मपुराण *
ब्राह्मगोंका आशौच तीन रात अथवा दस रात-
तकका होता है। (उपनयन) संस्कार होनेके पूर्व (तथा
चूडासंस्कारके अनन्तर मृत्यु होनेपर) तीन रातका
और (उपनयन) संस्कार होनेपर दस रातका अशौच
होता है॥१५०॥
दो वर्षसे कम अवस्थावाले बालकके मरनेपर
क्रेवल माता-पिताको तीन रातका अशौच होता है।
अत्यन्त निर्गुण (सपिण्डकी मृत्यु) होनेपर तीन रातमें
शुद्धि होती है। बिना दाँतवाले शिशुके मरनेपर माता-
पिताकों एक दिनका अशौच कहा गया है। यदि माता-
पिता निर्गुण हों तो दाँत उत्पन्न हुए शिशुकी मृत्यु
होनेपर उन्हें तीन रातका अशौच होता है। दाँत उत्पन
होनेके पूर्वतक बालककी मृत्यु होनेपर सद्य: चूडाकरण-
संस्कारके पूर्वतक एक रात तथा उपनयनसे पूर्वतक
तीन रातका आशौच सपिण्डोंके लिये कहा गया है।
उत्पन्न होते ही बालककी मृत्यु होनेपर पिता और
माताको अशौच होता है, किंतु पिता (स्नानके बाद)
स्पर्शके योग्य होता है। सपिण्डों और सहोदर भाईकी
(जन्मसे ) दस दिनोंके भीतर मृत्यु होनेपर (स्नानमात्रसे)
सद्द: पवित्रता होती है। दस दिनके पश्चात् (मृत्यु
होनेपर) एक दिनका अशौच उस सहोदरको होगा जो
निर्गुण होता है॥ ११--१५॥
तदनन्तर दाँत निकलनेतक निर्गुण सपिण्डोंको एक
रातका अशौच होता है | चौलकर्मके उपरान्त (सपिण्डोंके
मरनेपर) तीन रातका अशौच होता है। श्रेष्ठ जनो!
सपिण्डी (यदि) अत्यन्त निर्गुण हों तो बिना दाँत
निकले उनकी मृत्यु होनेपर एक रातका अशौच होता
है। 'उपनयनके पूर्व सपिण्डोंकी मृत्यु होनेपर सभी
गुणवानोंके लिये स्नानका विधान है, किंतु उपनयनके
बाद मृत्यु होनेपर भिन्न स्थिति (अलग-अलग अशौचकी
व्यवस्था) होती है॥ १६--१८॥
छः महीनेसे पूर्व यदि स्त्रियोंका गर्भस्राव हो जाता
है तो जितने महीनेका गर्भ रहता है, उतने ही दिलों-
तकका उनका (स्त्रियोंका) अशौच कहा गया है, उसके
बाद गर्भपात होनेपर स्त्रियोंके लिये बारह रात्रिका और
सपिण्डोंके लिये सद्य:ः शौचका विधान है॥ १९-२०॥
* अध्याय २३ *
गर्भच्युतावहोरात्र सपिण्डेउत्यन्तनिर्गुणे।
यथेष्टाचरणे ज्ञातौ त्रिरात्रमिति निश्चयः॥ २१॥
यदि स्यात् सूतके सूतिर्मरणे वा मृतिर्भवेत्।
शेषेणैव भवेच्छुद्धिरह:शेषे त्रिरात्रकम्॥ २२॥
३७३
गर्भन्नाव तथा अत्यन्त निर्गुण सपिण्डीकी मृत्यु
होनेपर एक अहोरात्रका और मनमाने आचरणवाले
जाति-बन्धुके (यहाँ गर्भस्राव होनेपर) तीन रातका
अशौच निश्चित है। यदि जननाशौचके मध्य दूसरा
जननाशौच हो जाय और मरणाशौचके बीचमें दूसरा
मरणाशौच पड़ जाय तो प्रथम अशौचके जितने दिन
शेष रहते हैं, उतने ही दिनोंमें दूसरे अशौचकी भी
| शुद्धि हो जाती है। किंतु प्रथभण अशौच एक ही दिनका
मरणोत्पत्तियोगे तु मरणाच्छद्धिरिष्यते।
अधवृद्धिमदाशौचमूर्ध्व चेत् तेन शुध्यति॥ २३॥
अथ चेत् पञ्ञमीरात्रिमतीत्य परतो भवेत्।
अधवृद्धिमदाशौच॑ तदा पूर्वेण शुध्यति॥ २४॥
देशान्तरगतं श्रुत्वा सूतकं॑ शावमेव तु।
तावदप्रयतो मर्त्यों यावच्छेष: समाप्यते॥ २५॥
अतीते सूतके प्रोक्ते सपिण्डानां त्रिरात्रकम् |
तथेव मरणे स्नानमूर्ध्व संवत्सराद यदि॥ २६॥
वेदान्तविच्चाधीयानो योउग्रिमान् वृत्तिकर्षित: ।
सद्यः शौचं भवेत् तस्य सर्वावस्थासु सर्वदा॥ २७॥
स्त्रीणामसंस्कृतानां तु प्रदानात् पूर्वतः सदा।
सपिण्डानां त्रिरात्र॑ स्थात् संस्कारे भर्तुरेव हि॥ २८ ॥
अहस्त्वदत्तकन्यानामशौच॑ मरणे स्मृतम्।
ऊनद्विवर्षान्मरणे सद्यःः शौचमुदाहतम्॥ २९॥
बचा हो तो तीन रातका आशौच होता है। मरणाशौचके
मध्य जननाशौच होनेपर अथवा जननाशौचके बीचमें
मरणाशौच आ जानेपर मरणाशौचके पूरा होनेपर ही शुद्धि
होती है। यदि पूर्वका अशौच वृद्धिमद् (बड़ा गुरुतर)
अशौच हो तो पूर्वके अशौचकी शुद्धिसे ही दोनों
अशौचोंकी शुद्धि होती है। यदि पाँचवीं रात्रि बीत
जानेपर वृद्धिमद् अशौच हो तो दूसरे अशौचकी शुद्धि
पूर्वके ही अशौचसे हो जाती है॥ २१--२४॥
देशान्तरमें गये हुएका जननाशौच या मरणाशौच-
सम्बन्धी समाचार सुननेके बाद उतने समयतक संयम
(अशौचके नियमका पालन) करना चाहिये जबतक
शेष दिन समाप्त न हो जाय। (एक वर्षके भीतर)
व्यतीत हुए मरणाशौचका समाचार सुननेपर सपिण्डोंको
तीन रातका अशौच होता है, उसी प्रकार एक वर्ष
बीतनेके बाद समाचार मिलनेपर मरणाशौचमें स्नानमात्र
करना चाहिये॥ २५-२६ ॥
वेदान्तको जाननेवाला (ब्रह्मनिष्ठ), अध्ययनकर्ता
(गुरुकुलमें निवास करनेवाला ब्रह्मचारी), अग्निहोत्री
तथा वृत्तिहीन लोगोंको सभी अवस्थाओंमें सदा सद्य:
शौच होता है॥२७॥
अविवाहित स्त्रियों (कन्याओं)-की पाणिग्रहणसे
पूर्व मृत्यु होनेपर सपिण्डोंके निमित्त सदा तीन रातका
अशौच होता है और विवाह-संस्कारके अनन्तर मृत्यु
होनेपर केवल पति और पतिकुलमें अशौच होता है।
वाग्दानसे पूर्व कन्याओंकी मृत्यु होनेपर एक दिनका
अशौच कहा गया है और दो वर्षसे कम अवस्थावाली
कन्याके मरनेपर सद्य: शौच बताया गया है॥ २८-२९॥
३७४
आदन्तात् सोदरे सद्य आचौलादेकरात्रकम |
आप्रदानात् त्रिरात्रं स्थाद दशरात्रमत: परम्॥ ३०॥
मातामहानां मरणे त्रिरात्र स्थादशौचकम्।
एकोदकानां मरणे सूतके चैतदेव हि॥३१॥
पक्षिणी योनिसम्बन्धे बान्धवेषु तथेव च।
एकरात्र समुद्दिष्ट गुरौ सब्नह्मचारिणि॥ ३२॥
प्रेते राजनि सज्योतिर्यस्य स्याद् विषये स्थिति: ।
गृहे मृतासु दत्तासु कन्यकासु तज्र्यहं पितु:॥ ३३॥
परपूर्वासु भार्यासु पुत्रेषु कृतकेषु च।
त्रिरात्र स्थात् तथाचार्य स्वभार्यास्वन्यगासु च॥ ३४॥
आचार्यपुत्रे पत्यां च अहोरात्रमुदाहतम्।
एकाहें स्थादुपाध्याये स्वग्रामे श्रोत्रियेषपि च॥ ३५॥
त्रिरात्रमसपिण्डेषु स्वगृहे संस्थितेषु च।
एकाहं चास्ववर्ये स्थादेकरात्रं तदिष्यते॥ ३६॥
त्रिरात्र श्रश्रूमरणे श्वशुरे वे तदेव हि।
सद्यः शौच समुद्दिष्ट सगोत्रे संस्थिते सति॥ ३७॥
शुध्येद् विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिप:।
वैश्य: पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति॥ ३८ ॥
क्षत्रविद्शूद्रदायादा ये स्युर्विप्रस्थ बान्धवा: ।
तेषामशौचे विप्रस्थ दशाहाच्छुद्धिरिष्यते॥ ३९॥
* कूर्मपुराण *
दाँत निकलनेसे पूर्व कन्याकी मृत्यु होनेपर सहोदर
भाईको सद्य: शौच होता है और चूडाकरणके कालतक
मृत्यु होनेपर एक रात्रिका अशौच होता है। कन्यादानके
पूर्व (कन्याका मरण होनेपर) तीन रातका और विवाहके
बाद मरण होनेपर दस रातका (पतिकुलमें) अशौच
होता है॥ ३०॥
मातामहकी मृत्यु होनेपर (दौहित्रको) तीन रातका
अशौच होता है। समानोदकोंके' मरण या जन्ममें भी
तीन रातका ही अशौच होता है। योनि-सम्बन्धवालों
(भांजा, मामा, मौसी, बूआ-कुलके लोग आदि) तथा
बान्धवोंकी मृत्यु होनेपर पक्षिणी (आगामी तथा वर्तमान
दिनसे युक्त रात्रि)-तक अशौच होता है'। गुरु एवं
सहपाठी (-के मरणमें ) एक रात्रिका अशौच बतलाया
गया है। जिस देशमें निवास करता हो, उस देशके
राजाकी मृत्यु होनेपर सज्योतिकालतकका" अशौच होता
है और पिताके घरमें विवाहित कन्याकी मृत्यु होनेपर
पिताको तीन रातका अशौच होता है। पूर्वमें अन्यको
भार्या रहनेवाली स्त्री, उसके पुत्र तथा कृत्रिम पुत्रके
मरणमें तीन रातका आशौच होता है। इसी प्रकार
आचार्यके मरणमें भी तीन रातका आशौच होता है।
गुरुपुत्र तथा गुरुपल्लीका एक अहोरात्रका और उपाध्याय
तथा अपने ग्राममें श्रोत्रियकी मृत्यु होनेपर भी एक
दिनका आशौच होता है॥ ३१--३५॥
अपने घरमें रहनेवाले असपिण्डीकी मृत्यु होनेपर
तीन रातका अशौच होता है और अपने घरमें (स्वेच्छासे
रहनेवाले) अन्य किसी व्यक्तिकी मृत्यु होनेपर एक
दिनका अशौच होता है। सास एवं ससुरके मरनेपर
तीन रातका और अपने घरमें स्थित रहनेवाले सगोत्रके
मरणमें सद्यः शौच कहा गया है। ब्राह्मणकी शुद्धि दस
दिनमें, क्षत्रियकी बारह दिनमें, वैश्यकी पंद्रह दिनमें
और शूद्रकी एक माहमें शुद्धि होती है। ब्राह्मणद्वार
क्षत्राणी, वैश्या और शूद्रासे उत्पन्न बान्धवोंकी मृत्यु
होनेपर ब्राह्मणकी शुद्धि दस दिनोंमें होती है॥ ३६--२९॥
१-सातवीं परम्परासे चौदहवीं परम्परातकके लोग समानोदक होते हैं।
२-इस प्रसंगमें यह विवेक है--दिनमें मरण होनेपर वह दिन उसके बादकी रात्रि, उसके बाद दूसरे दिन नक्षत्रदर्शतक अशौच
होगा। रात्रिमें मरण होनेपर वह रात्रि बादका दिन पुनः उसके बादकी रात्रितक पक्षिणी माना जायगा और तबतक अशौच होगा।
३-दिनमें मरण होनेपर रात्रिमें स्तानसे शुद्धि और रात्रिमें मरण होनेपर दिनमें स्नानसे शुद्धि यही 'सज्योतिकाल' से अशौषमें
शुद्धिका अर्थ है।
* अध्याय २३ *
राजन्यवैश्यावप्येव॑ हीनवर्णासु योनिषु।
स्वमेव शौचं कुर्यातां विशुद्धवर्थमसंशयम्॥ ४० ॥
सर्वे तूत्तरवर्णानामशौच॑ कुर्युरादृता:।
तदवर्णविधिदृष्टेन स्व॑ तु शौच स्वयोनिषु॥ ४१॥
पद्रात्रं वा त्रिरात्रं स्थादेकरात्र क्रमेण हि।
वैश्यक्षत्रियविप्राणां शूद्रेष्वाशौचमेव तु॥ ४२॥
अर्धमासो5थ षड़ात्र॑ त्रिरात्रं द्विजपुंगवा:।
शूद्रक्षत्रियविप्राणां वैश्येष्वाशौचमिष्यते ॥ ४३ ॥
षदरात्रं वे दशाहं च विप्राणां वैश्यशूद्रयो: ।
अशौच क्षत्रिये प्रोक्त क्रमेण द्विजपुंगवा:॥ ४४॥
शूद्रविदक्षत्रियाणां तु ब्राह्मणे संस्थिते सति।
दशरात्रेण शुद्ध्धि: स्यादित्याह कमलोद्धव: ॥ ४५॥
असपिण्डं द्विजं प्रेतं विप्रो निईत्य बन्धुवत्।
अशित्वा च सहोषित्वा दशरात्रेण शुध्यति॥ ४६ ॥
यद्यन्नमत्ति तेषां तु त्रिरात्रेण ततः शुचि:ः।
अनदन्नन्नमक्तव न च तस्मिन् गृहे वसेत्॥ ४७॥
सोदकेष्वेतददेव स्यान्मातुराप्तेषु. बन्धुषु।
दशाहेन शवस्पर्शें सपिण्डश्चैव शुध्यति॥ ४८ ॥
यदि निर्हरति प्रेतं॑ प्रलोभाक्रान्तमानस:।
दशाहेन द्विज: शुध्येद् द्वादशाहेन भूमिप: ॥ ४९॥
अर्धमासेन वैश्यस्तु शूद्रो मासेन शुध्यति।
षद्रात्रेणाथवा सर्वे त्रिरात्रेणाथवा पुनः॥५०॥
अनाथं चैव निईत्य ब्राह्मणं धनवर्जितम्।
सात्वा सम्प्राश्य तु घृतं शुध्यन्ति ब्राह्मणादय: ॥ ५१॥
३७५
क्षत्रिय और वैश्यको भी होनवार्णकी स्त्रियोंसे
उत्पन्न बान्धवोंकी मृत्यु होनेपर पूर्ण शुद्धिके लिये अपने
वर्णके अनुसार विहित शौच-विधिका पालन करना
चाहिये ॥ ३९-४० ॥
सभी वर्णके व्यक्तियोंको उत्तर वर्णके लिये विहित
अशौचका आदरपूर्वक पालन करना चाहिये। किंतु
अपने वर्णकी स्त्रीसे उत्पन्न बन्धुकी मृत्यु होनेपर अपने
ही वर्णके अनुसार अशौचका पालन करना चाहिये।
शूद्र सपिण्डकी मृत्यु या जन्म होनेपर वैश्य, क्षत्रिय
तथा ब्राह्मणोंको क्रमानुसार छ: रात, तीन रात और
एक रातका आशौच होता है। द्विजश्रेष्ठो ! वैश्य सपिण्डके
जन्म या मृत्युपर शूद्र, क्षत्रिय और ब्राह्मणोंको क्रमशः
आधे मास, छ: रात तथा तीन रातका आशौच होता
है। द्विजश्रेष्ठो । क्षत्रिय सपिण्डके जन्म या मरणमें क्रमश:
ब्राह्मणको छ: दिन और वैश्य तथा शूद्रको दस दिनोंका
अशौच होता है। ब्रह्माजीनी कहा है कि ब्राह्मण
(सपिण्ड)-का (जन्म-मरण होनेपर) शूद्र, वैश्य तथा
क्षत्रियकी शुद्धि दस रातमें होती है ॥४१--४५॥
असपिण्ड द्विजकी मृत्यु होनेपर बन्धुवत् उसके
प्रेतकर्ममें सम्मिलित होकर भोजन एवं निवास करनेवाला
ब्राह्मण दस रातमें शुद्ध होता है। मृत व्यक्तिके यहाँ
भोजन करनेपर तीन रातमें शुद्धि होती है। अन्न न
खानेवालेकी उसी दिन शुद्धि हो जाती है, परंतु उसके
घरमें निवास नहीं करना चाहिये। समानोदक तथा
माताके श्रेष्ठ बान्धवोंक मरणमें शव वहन करनेवाला
सपिण्ड व्यक्ति दस दिनोंमें शुद्ध होता है। यदि कोई
व्यक्ति लोभके वशीभूत हो शवको ढोता है तो वह
यदि ब्राह्मण है तो दस दिनोंमें, क्षत्रिय है तो बारह
दिनोंमें, वैश्य है तो आधे मासमें और शूद्र है तो एक
मासमें शुद्ध होता है अथवा सभी वर्णके व्यक्ति छः
रात या तीन रातमें शुद्ध हो जाते हैं॥४६--५० ॥
धनहीन अनाथ ब्राह्मणके शवका वहन आदि कर्म
करनेवाले ब्राह्मणादि स्नान करके घृतका प्राशन करनेसे
शुद्ध हो जाते हैं॥५१॥
१-यह अन्य युग-विषयक है। अपने वर्णसे इतर वर्णमें विवाह कलियुगमें सर्वथा निषिद्ध है।
२-यह अशौचकी व्यवस्था घनिष्ठ सम्पर्क, एक साथ रहने अथवा परस्पर उपकार्य-उपकारक-भाव रहनेपर है।
३७८६
* कूर्मपुराण *
अवरश्चेद् वरं वर्णमवरं वा वरो यदि।
अशौचे संस्पृशेत् स्नेहात् तदाशौचेन शुध्यति ॥ ५२॥
प्रेतीभूतं द्विजं विप्रो योडनुगच्छेत कामतः ।
स्नात्वा सचेल स्पृष्टाग्निं घृतं प्राश्य विशुध्यति ॥ ५३॥
एकाहात् क्षत्रिये शुद्धि्वेश्ये स्याच्च द्यहेन तु।
शूद्रे दिनत्रयं प्रोक्ते प्राणायामशतं पुनः ॥ ५४॥
अनस्थिसंचिते शूद्रे रीति चेद् ब्राह्मण: स्वके: ।
त्रिरात्र स्थात् तथाशौचमेकाहं त्वन्यथा स्मृतम्॥ ५५७ ॥
अस्थिसंचयनादर्वागेकाहं क्षत्रवेश्ययो: ।
अन्यथा चैव सज्योतित्राह्मणे स्नानमेव तु॥ ५६॥
अनस्थिसंचिते विप्रे ब्राह्मणो रौति चेत् तदा।
सस््नानेनेव भवेच्छुद्धि: सचेलेन न संशय: ॥ ५७॥
यस्ते: सहाशनं कुर्याच्छयनादीनि चैव हि।
बान्धवो वापरो वापि स दशाहेन शुध्यति॥ ५८॥
यस्तेषामन्नमश्नाति सकृदेवापि कामतः।
तदाशौचे निवृत्तेडसौ सत्रानं कृत्वा विशुध्यति॥ ५९॥
यावत्तदन्नमश्नाति दुर्भिक्षोपहतोी नरः।
तावन्त्यहान्यशौचं स्यात् प्रायश्षित्तं ततश्चरेत्॥ ६० ॥
दाहाद्यशौचं कर्तव्यं द्विजानामग्रिहोत्रिणाम् |
सपिण्डानां तु मरणे मरणादितरेषु च॥६१॥
सपिण्डता च पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते।
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदने ॥ ६२ ॥
स्नेहवश यदि हीनवर्णके व्यक्ति उच्च वर्णके शवका
और उच्च वर्णके व्यक्ति हीनवर्णके शवका स्पर्श करते
हैं तो वे उस मृतवर्णके निर्धारित अशौच (नियमपालन)-
से शुद्ध होते हैं। यदि ब्राह्मण अपनी इच्छासे मरे हुए
द्विजका अनुगमन करता है (शव-यात्रामें जाता है)
तो वह वस्त्रसहित सस््नानकर, अग्निका स्पर्श करके
घृतका प्राशन करनेसे शुद्ध हो जाता है। (द्विजके शवका
अनुगमन करनेपर ) क्षत्रियकी शुद्धि एक दिनमें, वैश्यको
दो दिनमें, शूद्रकी तीन दिनोंमें कही गयी है। (अशौचके
दिन बीतनेके बाद) सौ बार प्राणायाम (भी शुद्धिके
लिये) करना चाहिये॥ ५२--५४ ॥
शुद्रके अस्थिसंचय होनेसे पहले यदि ब्राह्मण उसके
स्वजनोंके साथ विलाप करता है तो उसे तीन रातका
अशौच होता है, इसके विपरीत (अस्थि-संचयनतक
प्रेतकर्म हो जानेके अनन्तर यदि शूद्रका मरण जानकर
ब्राह्मण उसके बान्धवोंके साथ विलाप करता है, उनका
स्पर्श करता है तो उसे) एक दिनका अशौच होता
है। अस्थिसंचयके पूर्व (शूद्रके घर विलाप करनेवाले)
क्षत्रिय एवं वैश्यको एक दिनका और अन्य अबस्थामें
सज्योति(काल)-तकका आशौच होता है। ब्राह्मणकी
स्नानमात्रसे शुद्धि होती है। ब्राह्मणके अस्थिसंचयके पूर्व
यदि (असपिण्ड, असगोत्र, सम्बन्धरहित) ब्राह्मण रोता
है तो वस्त्रोंसहित स्नानमात्रसे उसकी शुद्धि हो जाती
है, इसमें संदेह नहीं॥ ५५--५७ ॥
आशौचीजनोंके साथ जो भोजन तथा शयन आदि
करता है, वह चाहे बान्धव हो या कोई दूसरा, दस
दिनमें शुद्ध होता है। जो इच्छापूर्वक उनका एक बार
भी अन्न ग्रहण करता है तो वह अशौच पूरा होनेपर
स्नान करनेसे शुद्ध हो जाता है। दुर्भिक्षसे पीड़ित व्यक्ति
जितने दिनतक उस (अशौची)-का अन्न ग्रहण करता
है, उतने दिनोंतकका उसे अशौच होता है, तदनन्तर
उसे प्रायश्वित्त करना चाहिये॥५८--६०॥
अग्निहोत्री द्विजोंका दाह-कालसे अशौच आरम्भ
होता है, अत: (तभीसे इनके मरणके निमित्त) नियमका
पालन करना चाहिये। सपिण्डोंके मरने तथा जन्ममें भी
अशौचका पालन करना चाहिये। पुरुषकी सपिण्डता सातवीं
पीढ़ीमें समाप्त हो जाती है। अपने वंशके मूल पुरुषका नाम
ज्ञात न होनेपर समानोदकता नष्ट हो जाती है॥ ६१-६२॥
* अध्याय २३ *
पिता पितामहश्चेव तथेव प्रपितामहः ।
लेपभाजस्त्रय श्चात्मा सापिण्डयं साप्तपौरुषम्॥ ६३ ॥
अप्रत्तानां तथा स्त्रीणां सापिण्ड्यं साप्रपौरुषम् ।
ऊढानां भर्तुसापिण्ड्यं प्राह देवः पितामह: ॥ ६४ ॥
ये चैकजाता बहवो भिन्नयोनय एव च।
भिन्नवर्णास्तु सापिण्ड्यं भवेत् तेषां त्रिप्रूषम्॥ ६५ ॥
कारव: शिल्पिनो वेद्या दासीदासास्तथेव च।
दातारो नियमी चेव ब्रह्मविदब्रह्मचारिणां॥ ६६ ॥
सत्रिणो ब्रतिनस्तावत् सद्य:ःशौचा उदाहता: ।
राजा चेवाभिषिक्तश्च प्राणसत्रिण एव च॥ ६७॥
यज्ञे विवाहकाले च देवयागे तथेव च।
सद्यःशौच॑ समाख्यातं दुर्भिक्षे चाप्युपद्रवे॥ ६८ ॥
डिम्बाहवहतानां च विद्युता पार्थिवैद्धिजे:।
सद्यःशौचं समाख्यातं सर्पादिमरणे तथा॥ ६९ ॥
अग्नों मरुप्रपतने वीराध्वन्यप्यनाशके।
ब्राह्मणार्थ च संन्यस्ते सद्य: शौच विधीयते॥ ७०॥
नेष्ठिकानां वनस्थानां यतीनां ब्रह्मचारिणाम्
नाशौचं कीर्त्यते सद्धिः पतिते च तथा मृते ॥ ७१॥
पतितानां न दाह: स्यान्नान्त्येष्टिनास्थिसंचय: ।
नचाश्रुपातपिण्डौ वा कार्य श्राद्धादिकं क्वचित्॥ ७२॥
व्यापादयेत् तथात्मानं स्वयं यो5ग्रिविषादिभि:।
विहित॑ तस्य नाशौच नाग्रि्नाप्युदकादिकम्॥ ७३ ॥
अथ कश्चित् प्रमादेन प्नियते5ग्रिविषादिभि: ।
तस्याशौचं विधातव्यं कार्य चैबोदकादिकम्॥ ७४॥
जाते कुमारे तदहः काम कुर्यात् प्रतिग्रहम् ।
हिरण्यधान्यगोवासस्तिलान्नगुडसर्पिषामू ॥७५॥
" भिन्न वर्णको स्त्री होना अन्य युगमें शास्त्रानुसार सम्भव है।
३७७
पिता, पितामह तथा प्रपितामह--इन तीनोंसे आगेके
पितर लेपभागी होते हैं। सात पुरुषोंतक सपिण्डता होती
है। अविवाहित कन््याओंकी सपिण्डता उसके पिताके
सात पुरुषों (पीढ़ीतक)-में होती है और विवाहित
स्त्रियोंकी सपिण्डता उसके पतिके साथ (सात पीढ़ीतक)
होती है--ऐसा भगवान् ब्रह्माने कहा है। एक पुरुषद्वारा
भिन्न वर्णकी* स्त्रियोंसे उत्पन्न पुत्रोंकी सपिण्डता तीन
पीढीतक होती है॥६३--६५ ॥
बढ़ई, शिल्पी, वैद्य, दासी, दास, दाता, ब्रतपरायण,
ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मचारी, यज्ञकर्ता, ब्रती--ये सभी (किसीका
मरण होनेपर) स्नानमात्रसे शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार
अभिषिकक्त राजा एवं प्राणकी रक्षा करनेवाले अन्नदाताको
भी सच्च: शौच होता है। यज्ञ, विवाहारम्भ, देवपूजनका
आरम्भ हो जानेपर तथा दुर्भिक्ष और उपद्रवकी स्थितिमें
सद्य: शौच होता है। क्षत्रियों तथा ब्राह्मणोंके साथ
मामूली लड़ाई अथवा झड़प आदिमें मरनेवालों तथा
विद्युत् और सर्पादिक कारण मरनेवालोंका सद्य: शौच
कहा गया है। अग्निमें गिरकर अथवा मसरुस्थलमें
मरनेपर, दुर्गम मार्गममें गमसन और अकाल-मृत्युपर,
ब्राह्मणके लिये मरनेपर तथा संनन््यासी होनेके उपरान्त
मृत्यु होनेपर सद्यः शौचका विधान है॥६६--७० ॥
विद्वानोंने नेष्ठिक अर्थात् जीवनभर नब्रह्मचर्यका ब्रत
धारण करनेवाले ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ- धर्मावलम्बी, यति
तथा ब्रह्मचारीकी मृत्यु होनेपप और पतित व्यक्तिकी
मृत्यु होनेपर अशौच नहीं बताया है। पतित व्यक्तियोंका
न दाह होता है, न अनत्येष्टि-संस्कार होता है और न
अस्थिसंचय ही होता है। उनके लिये अश्रुपात, पिण्डदान
तथा श्राद्धादि कार्य भी कभी नहीं करने चाहिये॥ ७१-७२ ॥
जो व्यक्ति अग्नि तथा विष आदिके द्वारा स्वयं
अपनी आत्महत्या करता है, उसके निमित्त अशौच,
दाह तथा उदकदान आदिका विधान नहीं है। यदि
कोई प्रमादवश अग्नि अथवा विष आदिद्वारा मर जाता
है, उसके (सम्बन्धियोंक) लिये अशौचका विधान है
और उदकदान आदि भी करना चाहिये। पुत्रका जन्म
होनेपर उस दिन स्वर्ण, धान्य, गौ, वस्त्र, तिल, अन्न,
गुड़ तथा घृत--इन वस्तुओंका इच्छापूर्वक (कार्पण्यरहित
होकर) दान करना चाहिये॥ ७३-७५ ॥
३७८
हा कूर्मपुराण कर
फलानि पुष्पं शाकं च लवणं काष्ठमेव च।
तोयं दथि घृतं तेलमौषधं क्षीरमेव च।
आशौचिनां गृहाद ग्राह्मं शुष्कान्न॑ चैव नित्यश: ॥ ७६ ॥
आहिताग्रिर्यथान्यायं दग्धव्यस्त्रिभिरग्निभि: ।
अनाहिताग्निर्गुहेण लौकिकेनेतरो जन:ः॥ ७७॥
देहाभावात् पलाशेस्तु कृत्वा प्रतिकृतिं पुन: ।
दाहः कार्यो यथान्यायं सपिण्डे: श्रद्धयान्वित: ॥ ७८ ॥
सकृत्प्रसिद्ञन्त्युदकं नामगोत्रेण वाग्यता:।
दशाहं बान्धवे: सार्थ सर्वे चेवार्द्रवासस: ॥ ७९॥
पिण्डं प्रतिदिन दद्यु: सायं प्रातर्यथाविधि।
प्रेताय च गृहद्वारि चतुर्थे भोजयेद् द्विजान्॥ ८०॥
द्वितीयेडहनि कर्तव्यं क्षुरकर्म सबान्धवे:।
चतुर्थे बान्धवैः सर्वैरस्थ्नां संचयनं भवेत्।
पूर्व तु भोजयेद् विप्रानयुग्मान् श्रद्धया शुच्चीन्॥ ८१॥
पक्षमे नवमे चैव तथेवैकादशे5हनि।
अयुग्मान् भोजयेद् विप्रान् नवश्राद्धं तु तद्विदु: ॥ ८२॥
एकादशेउह्नि कुर्वीत प्रेतमुद्दितय भावतः।
द्वादशे वाथ कर्तव्यमनिन्धे त्वथवाहनि।
एक पवित्रमेकोडर्घ: पिण्डपात्रं तथेव च॥ ८३ ॥
एवं मृताह्लि कर्तव्यं प्रतिमासं तु वत्सरम।
सपिण्डीकरणं प्रोक्त॑ पूर्णे संवत्सरे पुनः॥ ८४॥
कुर्याच्चत्वारि पात्राणि प्रेतादीनां द्विजोत्तमा: ।
प्रेताध॑ पितृपात्रेषु पात्रमासेचयेत् ततः॥८५॥
आशौची व्यक्तियोंके घरोंसे फल, पुष्प, शाक,
लवण, काष्ठ, मद्ठा, दही, घी, तेल, औषधि तथा क्षीर
और शुष्कान्नको नित्य ग्रहण किया जा सकता है।
आहिताग्नि श्रोत्रियका दाह-संस्कार तीनों अग्नियोंसे
यथाविधि करना चाहिये और अनाहिताग्निका' दाह
गृह्याग्सिसि तथा दूसरे सामान्य लोगोंका दाह लौकिक
अग्निसे करना चाहिये। (मृत व्यक्तिके) देहका अभाव
(शव न मिलनेपर) होनेपर पलाशके पत्तोंसे उसके ही
समान आकृति बनाकर सपिण्डीजनोंको चाहिये कि वे
श्रद्धायुक्त होकर विधिपूर्वक दाह-संस्कार करें॥ ७६--७८॥
सभी बान्धवोंको संयमपूर्वक दस दिनोंतक (मृत
व्यक्तिके) नाम तथा गोत्रका उच्चारण करते हुए स्नानके
गीले वस्त्र पहने हुए ही एक बार जलदान करा
चाहिये। प्रेतके निमित्त यथाविधि प्रात:से सायंकाल
(अर्थात् दिनमें किसी भी समय) प्रतिदिन पिण्डदान
करना चाहिये और चौथे दिनसे घरके द्वारपर (अभ्यागत)
ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये॥ ७९-८०॥
दूसरे दिन बान्धवोंके साथ क्षौरकर्म करना चाहिये।
चौथे दिन बन्धुओंसहित अस्थिसंचयन करना चाहिये।
अस्थिसंचयनसे पूर्व श्रद्धापूर्वक पवित्र अयुग्म (विषम
संख्यावाले) ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। पाँचवें,
नवें तथा ग्यारहवें दिन अयुग्म (विषम संख्यामें)
ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। इसे नवश्राद्ध जानना
चाहिये। प्रेतके निमित्त ग्यारहवें, बारहवें अथवा किसी
अनिन्दित दिनमें श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करना चाहिये। इस
श्राद्धमें एक पवित्र, एक अर्घ और एक ही पिण्डपात्र
होता है॥ ८१--८३॥
इसी प्रकार एक वर्षतक प्रत्येक महीनेमें मृत्युकी
तिथिको श्राद्ध करना चाहिये। संवत्सर (वर्ष)-के पूर्ण
हो जानेपर सपिण्डीकरण श्राद्ध करनेका विधान किया
गया है। हे द्विजोत्तमो! प्रेतादि अर्थात् प्रेत, पितामह,
प्रपितामह तथा वृद्ध प्रपितामहके उद्देश्यसे चार अर्ध-
पात्र बनाना चाहिये और पितृपात्रोंमें प्रेतपात्रका अर्थ
डालना चाहिये॥ ८४-८५॥
कम न लमब न न नस उ ह इ का न् 2 मय या
१-यहाँ नित्य ग्रहणका इतना ही अर्थ है कि अनिवार्य होनेपर ये वस्तुएँ कभी भी ली जा सकती हैं। रागत: इन्हें ग्रहण नहीं
करना चाहिये।
२-स्मार्त अग्न्याधान करनेवालेको भी अनाहिताग्नि ही माना जाता है।
* अध्याय २३ *
ये समाना इति द्वाभ्यां पिण्डानप्येवमेव हि।
सपिण्डीकरणं श्राद्धं देवपूर्व विधीयते॥ ८६॥
पितृनावाहयेत् तत्र पुनः प्रेतं च निर्दिशेत्।
ये सपिण्डीकृता: प्रेता न तेषां स्थात् पृथकृक्रिया: ।
यस्तु कुर्यात् पृथक् पिण्डं पितृहा सोडभिजायते ॥ ८७॥
मृते पितरि वे पुत्र: पिण्डमब्दं समाचरेत्।
दद्याच्चान्न॑ सोदकुम्भं प्रत्यहं प्रेतधर्मत: ॥ ८८ ॥
पार्वणेन विधानेन सांवत्सरिकमिष्यते |
प्रतिसंवत्सर' कार्य विधिरिष सनातन: ॥ ८९॥
मातापित्रो: सुते: कार्य पिण्डदानादिकं च यत्।
पली कुर्यात् सुताभावे पत्यभावे सहोदर: ॥ ९०॥
अनेनेव विधानेन जीवन् वा श्राद्धमाचरेत्।
कृत्वा दानादिकं सर्व श्रद्धायुक्त: समाहित: ॥ ९१॥
एप व: कथित: सम्यगू गृहस्थानां क्रियाविधि: ।
सत्रीणां तु भर्तृशुश्रूषा धर्मो नान्य इह्देष्यते॥ ९२॥
स्वधर्मपरमो नित्यमी ध्वरापितमानस: ।
प्राप्पोति तत् परं स्थान यदुक्त वेदवादिभि: ॥ ९३॥
३७९
“ये समाना:० ' इन दो मन्त्रोंका उच्चारणकर पितामहादिके
पिण्डोंमें प्रेतपिण्डको मिलाना चाहिये। देवश्राद्ध करनेके
अनन्तर सपिण्डीकरण श्राद्ध करना चाहिये। पहले
पितरोंका आवाहनकर पुनः प्रेतक आवाहन करना
चाहिये। जिन प्रेतोंका सपिण्डीकरण कर लिया जाता
है, उनकी श्राद्धक्रिया पृथक् नहीं होती । जो (सपिण्डीकृत
प्रेतक) पृथक् पिण्डदान करता है, वह पितृघाती
कहलाता है॥ ८६-८७॥
पिताके मर जानेपर पुत्रको वर्षपर्यन्त पिण्डदान
करना चाहिये। प्रतिदिन प्रेतधर्मानुसार उदककुम्भ एवं
अन्नका दान करना चाहिये। प्रत्येक वर्ष पार्वण-
विधानके अनुसार सांवत्सरिक श्राद्ध करना चाहिये।
यही सनातन विधि है'* । पुत्रोंको माता-पिताका पिण्डदान
आदि जो कार्य है, वह सब करना चाहिये। पुत्रके
अभाव होनेपर पत्नी करे और पत्नीके अभाव होनेपर
सहोदर भाई करे। अथवा (पुत्रादि श्राद्ध न कर सकें
या इनके अभावमें) सभी दान आदि कर्म करनेके
बाद समाहित होकर मनुष्यको श्रद्धापूर्वक यथाविधान
जीते हुए ही श्राद्ध कर लेना चाहिये (इससे श्राद्धकी
अनिवार्यता स्पष्ट है) ॥ ८८--९१॥
इस प्रकार मैंने आप लोगोंको गृहस्थोंकी क्रिया-
विधि सम्यक्रूपसे बतलायी। स्त्रियोंका तो पतिकी सेवा
करना ही एकमात्र धर्म है, उनका अन्य कोई धर्म नहीं
कहा गया है। नित्य अपने धर्मका पालन करनेवाला
और भगवानूमें समर्पित मनवाला वेदज्षोंद्वारा बताये गये
उस परम पदको प्राप्त करता है'॥९२-९३॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहद्रधां संहितायामुपारिविभागे त्रयोविशो5ध्यायः ॥ २३ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रोकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें तेईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २३॥
१-इस वचनका तात्पर्य प्रतिवर्ष पार्वणश्राद्धमें है। सांवत्सरिक (एकोद्िष्टश्राद्ध)-की विधि पार्वणविधिसे भिन्न है।
२-इस अध्यायमें श्राद्ध एवं अशौचका विधान संक्षेपमें सांकतिक मात्र है। इसी आधारपर निर्णय नहीं लेना चाहिये। विभिन्न
निवन्धग्रन्थोंसे श्राद्ध एवं अशौच-सम्बन्धी समस्त वचनोंका समाकलन कर सामान्य एवं अपवाद वबचनादिकोंकी व्यवस्थाकर निष्कृष्ट
निर्णय किया गया है। अत: उन्हींके आधारपर अन्तिम निर्णय लेना चाहिये। निबन्धग्रन्थोंमें सभी वचनोंका समन्वयकर युग, देश, काल
आदिकी दृष्टिसे स्पष्ट व्यवस्था की गयी है।
३८० * कूर्मपुराण *
चौबीसवाँ अध्याय
अग्निहोत्रका माहात्म्य, अग्निहोत्रीके कर्तव्य, श्रौत एवं स्मार्तरूप द्विविध धर्म,
तृतीय शिष्टराचारधर्म, वेद, धर्मशास्त्र और पुराणसे धर्मका
ज्ञान तथा इनपर श्रद्धा रखना आवश्यक
व्यास उवाच व्यासजीने कहा--सदैव सायं और प्रातः अग्रनिहोत्र
अग्निहोत्र करना चाहिये। पक्षके अन्तमें अमावास्या और पौर्णमार्सीको
अग्निहोत्रं तु जुहुयादाह्मन्तेडहनिशो: सदा। हवन (दर्शेष्टि एवं पौर्णमासेष्टि) करना चाहिये। द्विजको
दर्शेन चैव पक्षान्ते पौर्णमासेन चेव हि॥ १९ ॥| फसल कट जानेपर नवशस्थेष्टि, ऋतुकी समाप्तिपर
शस्यान्ते नवशस्येष्टया तथर्त्वन्ते द्विजो5ध्वरै: । (किया जानेवाला) यज्ञ एवं अयनके अन्तमें अर्थात्
पशुना त्वयनस्यान्ते समान्ते सौमिकैर्मखै:॥ २ ॥| 5 ४: महीनेपर संवत्सरके अन्तमें सौमिक याग करना
चाहिये। दीर्घ आयुकी इच्छा करनेवाले अग्निहोत्री
नानिष्ठा नवशस्येष्टया पशुना वाग्निमान् द्विज: । द्विजको नवशस्येष्टि किये बिना नया अन्न नहीं खाना
नवान्नमद्यान्मांसं वा दीर्घमायुर्जिजीविषु:॥ ३ ॥ | चाहिये। नवीन अन्नका अग्निमें हवन किये विना
नवेनाननेन चानिष्ठा पशुहव्येन चाग्नय:। नवान्न खानेका इच्छुक व्यक्ति अपने श्राणोंकों हीं
पर्वोमें सावित्रीहोम
प्राणानेवात्तुमिच्छन्ति नवाजन्नामिषगृद्धिन:॥ ४ ॥ खाना चाहता है। प्रत्येक पर्वोर्में नित्य ही सा ओं अँ |
तु ( ब्द् शान्ति-होम करना चाहिये तथा अपष्टकाओं और
सावित्रान् शान्तिहोमां श्व कुर्यात् पर्वसु नित्यश: । अन्वष्टकाओंमें नियमसे नित्य पितरोंकी अर्चना करनी
पितृंश्चैवाष्टकास्वर्चन् नित्यमन्वष्टकासु च॥ ५ ॥ | चाहिये॥ १--५॥
एप धर्म: परो नित्यमपधर्मो5न्य उच्यते। गृहस्थाश्रममें निवास करनेवाले तीनों वर्णों (द्विजाति)-
त्रयाणामिह वर्णानां गृहस्थाश्रमवासिनाम्॥ ६ ॥ | का यह नियमित श्रेष्ठ धर्म है, अन्य धर्म अपधर्म
कहलाता है। नास्तिकता अथवा आलस्यके कारण जो
नास्तिक्यादथवालस्याद योअग्रीन् नाधातुमिच्छति। अग्नियोंका आधान एवं यज्ञसे यजन नहीं करना चाहता,
यजेत वा न यज्ञेन स याति नरकान् बहून्॥ ७ ॥ | वह बहुतसे नरकोंमें जाता है॥६-७॥
तामिसत्रमन्धतामिस्त्रं महारौरवरौरवौ। विप्रो! (अग्न्याधान आदि कृत्य न करनेवाला)
कुम्भीपाक॑ वैतरणीमसिपत्रवनं तथा॥ ८ ॥ | वह दुर्मत तामिस्र, अन्धतामिस्र, महारौरव, रौरव,
कुम्भीपाक, वैतरणी, असिपत्रवन तथा अन्य घोर
नरकोंको प्राप्तकर बादमें अन्त्यजोंके कुल तथा शूद्रयोनिमें
जन्म लेता है। अत: विशेषरूपसे विशुद्धात्मा ब्राह्मणोंको
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन ब्राह्मणो हि विशेषत:। सभी प्रकारके प्रयत्नोंद्ठारा अग्निका आधानकर परमेश्वरका
आधायाग्निं विशुद्धात्मा यजेत परमेश्वरम। यजन-पूजन करना चाहिये। ट्विजोंके लिये अग्निहोत्रसे
४2७2७ अप श्रेष्ठ कोई अन्य धर्म नहीं है। इसलिये अग्निहोत्रके
अग्रिहोत्रात् परो धर्मो द्विजानां नेह विद्यते। द्वारा नित्य शाश्वत (पुरुष)-की आराधना करनी
शाश्रतम्॥ ११॥ | चाहिये। जो अग्निका आधानकर फिर आलस्यथवश
यज्ञद्वारा देवताकी आराधना नहीं करना चाहता, वह
यष्टुं देवमिच्छति। व्यक्ति मूढ़ होता है, उससे बात नहीं करनी चाहिये।
सो5सौ मूढो न सम्भाष्य: कि पुनर्नास्तिको जन: ॥ १२॥ | अधिक क्या, वह मनुष्य नास्तिक होता है॥८-१२॥
अन्यांश्व नरकान् घोरान् सम्प्राप्यान्ते सुदुर्मति: ।
अन्त्यजानां कुले विप्रा: शूद्रयोनी च जायते।। ९ ॥
*' अध्याय रहें *
यस्य त्रेवार्षिकं भक्त पर्याप्त भृत्यवृत्तये।
अधिकं चापि विद्येत स सोम॑ पातुमरहति॥ १३॥
एष वे सर्वयज्ञानां सोम: प्रथम इष्यते।
सोमेनाराधयेद् देव॑ सोमलोकमहेश्वरम्॥ १४॥
न सोमयागादधिको महेशाराधने क्रतुः ।
समो वा विद्यते तस्मात् सोमेनाभ्यर्चयेत् परम्॥ १५ ॥
पितामहेन विप्राणामादावभिहितः शुभ: ।
धर्मों विमुक्तये साक्षाच्छौत: स्मातों द्विधा पुन: ॥ १६॥
श्रौतस्त्रेताग्रिसम्बन्धात् स्मार्त: पूर्व मयोदित: ।
श्रेयस्करतम: श्रौतस्तस्माच्छौतं समाचरेत्॥ १७॥
उभावभिहिताों धर्मों वेदादेव विनि:सृतौ।
शिष्टाचारस्तृतीय: स्याच्छुतिस्मृत्योरलाभतत:॥ १८॥
धर्मेणाभिगतो यैस्तु वेदः सपरिबृंहण:।
ते शिष्टा ब्राह्मणा: प्रोक्ता नित्यमात्मगुणान्विता:॥ १९॥
तेषामभिमतो य: स्यथाच्चेतसा नित्यमेव हि।
स धर्म: कथित: सद्धिनन्येषामिति धारणा ॥ २०॥
पुराणं धर्मशास्त्रं च वेदानामुपबृंहणम्।
एकस्माद ब्रह्मविज्ञानं धर्मज्ञानं तथेकत:॥ २१॥
धर्म जिज्ञासमानानां तत्प्रमाणतरं स्मृतम्।
धर्मशास्त्रं पुराणं तद् ब्रह्मज्ञाने परा प्रमा॥ २२॥
नान्यतो जायते धर्मों ब्रह्मविद्या च वैदिकी।
तस्माद् धर्म पुराणं च श्रद्धातव्यं द्विजातिभि: ॥ २३॥
३८१
जिसके पास सेवकोंके पोषणहेतु तीन वर्षतकके
लिये पर्याप्त अथवा उससे भी अधिक (भोजन)
सामग्री विद्यमान हो, वह सोमपानका अधिकारी होता
है। सभी यज्ञोंमें सोमयाग सबसे श्रेष्ठ है। सोमद्वारा
सोमलोकमें स्थित महेश्वरदेवकी आराधना करनी चाहिये।
महेश्वरकी आराधनाके लिये सोमयागसे बड़ा अथवा
उसके समान कोई यज्ञ नहीं है। इसलिये सोमके द्वारा
श्रे-्ठ देवकी आराधना करनी चाहिये॥ १३--१५॥
ब्राह्मणोंकी मुक्तिके लिये साक्षात् पितामहने आरम्भमें
ही शुभ धर्म बतलाया है, वह श्रौत तथा स्मार्त नामसे
दो प्रकारका है। तीन (आहवनीय, दक्षिणाग्नि, गार्टपत्याग्नि)
अग्नियोंके सम्बन्धसे श्रौतधर्म होता है। स्मार्तधर्मको मैंने
पूर्वमें बता दिया है। श्रौतरर्म अधिक श्रेयस्कर है,
इसलिये श्रौतधर्मका पालन करना चाहिये। कहे गये ये
दोनों धर्म वेदसे ही निकले हुए हैं। श्रुति तथा स्मृतिके
अभाममें शिष्टाचार ही तीसरा धर्म होता* है॥ १६--१८ ॥
परिबृंहण (रामायण, महाभारत एवं पुराणादि ग्रन्थ)
सहित वेदोंका धर्मपूर्वक ज्ञान प्राप्त करनेवाले और
(दया, अहिंसा, सत्य आदि आठ) आत्मिक गुणोंसे
सम्पन्न ब्राह्मण सदेव शिष्ट कहे गये हैं। इनके (शिष्टजनोंके)
अन्त:करणद्वारा जो समर्थित होता है, दिद्वानोंद्वारा उसे
ही धर्म कहा गया है। अन्य लोगोंके अभिमतको धर्म
नहीं कहा जाता, यही निश्चित सिद्धान्त है॥ १९-२० ॥
पुराण तथा धर्मशास्त्र वेदोंके उपबृंहण (विस्तार)
हैं। एकसे ब्रह्मका विशेष ज्ञान होता है और दूसरेसे
धर्मका ज्ञान होता है। धर्मकी जिज्ञासा करनेवालोंके
लिये धर्मशःस्त्र श्रेष्ठ प्रमाण कहा गया है और ब्रह्मज्ञानके
लिये पुराण उत्कृष्ट प्रमाण है। वेदसे अतिरिक्त अन्य
किसीसे धर्मका तथा वैदिक ब्रह्मविद्याका ज्ञान नहीं
होता, इसलिये द्विजातियोंको धर्मशास्त्र तथा पुराणपर
श्रद्धा रखनी चाहिये॥ २१--२३॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्रयां सांहितायामुपरिविभागे चातुर्विशोउध्याय: ॥ २४॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें भोबीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २४॥
न्नन-न््मपपापााजस का सकाहिनूपन्न्लक,
* शिष्टाचारका भी मूल श्रुति एवं तन्मूलक स्मृति ही होती हैं। श्रुतियाँ अनन्त हैं, उनमें वर्णित धर्मोका क्रमसे प्रसंगानुसार संग्रह
करनेवाली स्मृतियाँ भी अनेक हैं। अत: सभी श्रुतियों एवं तन्मूलक स्मृतियोंका ज्ञान अल्पज्ञ मानवको नहीं भी हो सकता है। ऐसी
स्थितिमें धर्माधर्म-विवेकमें कठिनाई होना अस्वाभाविक नहीं है। इसीलिये शिष्टोंक आजारसे धर्माधर्मका निर्णय करना पड़ता है और
इस निर्णयके मूलमें यही भाव निहित है कि शिष्ट वही आचरण करते हैं जो श्रुति ए.ब्ं तन्मूलक स्मृतिमें प्रतिपादित है।
३०८२
न कूर्मपुराण मु
पच्चीसवाँ अध्याय
गृहस्थ ब्राह्मणकी मुख्य वृत्ति तथा आपत्कालकी वृत्ति, गृहस्थके साधक तथा
असाधक दो भेद, न्यायोपार्जित धनका विभाग एवं उसका उपयोग
व्यास उवाच
एष वो5भिहितः कृत्स्नो गृहस्था श्रमवासिन: ।
द्विजाते: परमो धर्मों वर्तनानि निबोधत॥ १॥
द्विविधस्तु गृही ज्ञेयः साधकश्चाप्पसाधक: ।
अध्यापनं याजनं च पूर्वस्याहु: प्रतिग्रहम्।
कुसीदकृषिवाणिज्यं प्रकुर्वीतास्वयंकृतम्॥ 7२ ॥
कृषेरभावाद् वाणिज्यं तदभावात् कुसीदकम्।
आपत्कल्पो हायं ज्ञेयः पूर्वोक्तो मुख्य इष्यते॥ ३॥
स्वयं वा कर्षणं कुर्याद् वाणिज्यं वा कुसीदकम ।
कष्टा पापीयसी वृत्ति: कुसीदं तद् विवर्जयेत[॥ ४॥
क्षात्रवृत्ति परां प्राहुर्न स्वयं कर्षणं द्विजे:।
तस्मात् क्षात्रेण वर्तेत वर्तनेनापदि द्विज::॥ ५॥
तेन नावाप्यजीवंस्तु वैश्यवृत्ति कृषि बव्रजेत।
न कथंचन कुर्वीत ब्राह्मण: कर्म कर्षगम्॥ ६॥
लब्धलाभ: पितृन् देवान् ब्राह्मणांश्चापि पूजयेत्।
ते तृप्तास्तस्य तं दोषं शमयन्ति न संशय: ॥ ७॥
देवेभ्यश्व पितृभ्यश्व दद्याद भागं तु विंशकम्।
ब्रिंशद्धागं ब्राह्मणानां कृषि कुर्वन् न दुष्यति॥ ८॥
वणिक प्रदद्याद द्विगुणं कुसीदी त्रिगुणं पुन: ।
कृषीबलो न दोषेण युज्यते नात्र संशयः॥ ९॥
व्यासजीने कहा--यह मैंने आप लोगोंको गृहस्थाश्रम-
में निवास करनेवाले द्विजातियोंका सम्पूर्ण श्रेष्ठ धर्म
बतलाया, अब उनकी तृत्तियोंका वर्णन सुनें॥१॥
साधक तथा असाधक- भेदसे (ब्राह्मण) गृहस्थकों
दो प्रकारका सम्मझना चाहिये। पहले (साधक गृहस्थकी
आजीविका) अध्ययन कराना, यज्ञ कराना और (दान
लेना) है। इस्सके अतिरिक्त वे अपने द्वारा न किये
गये कुसीद (ब्याजका लेन-देन), कृषि तथा वाणिज्य
भी अन्यके द्वारा करा सकते हैं। कृषिके अभावमें
वाणिज्य और उसके अभावमें कुसीदका आश्रय लिया
जा सकता है। इसे आपत्कल्प कहा गया है और
पहलेको मुख्यवृत्ति कही गयी है। अथवा (आपत्कालमें
अन्य उपाय न होनेपर) स्वयं कृषि, वाणिज्य अथवा
कुसीद-वृत्तिका आश्रय ले। कुसीद-वृत्ति (सूद लेना)
अत्यन्त कष्टकारक और पापकी वृत्ति है, इसलिये
इसका परित्याग करना चाहिये॥ २--४॥
क्षात्रवृत्तिको (कृषिवृत्तिकी अपेक्षा) श्रेष्ठ वृत्ति कहा
गया है, किंतु द्विजोंको स्वयं कर्षण नहीं करना चाहिये।
अतएव 'द्विजको आपत्तिमें (ही) क्षात्रधर्मसे भी जीविकाका
निर्वाह करना चाहिये। उस क्षात्रवृत्ति (शस्त्र-जीविका)-
द्वारा भी निर्वाह न होनेपर कृषिस्वरूप वैश्यवृत्तिका
आश्रय लेना चाहिये, किंतु ब्राह्मणको कभी भी खेत
जोतनेका कार्य नहीं करना चाहिये। लाभ होनेपर
(विशेषकर अन्य वर्णकी जीविकासे लाभ मिलनेपर
अवश्य ही) पितरों, देवताओं तथा ब्राह्मणोंका पूजन
करना चाहिये। तृप्त होनेपर वे उसके उस (कर्मजन्य)
दोषको शान्त कर देते हैं, इसमें संशय नहीं॥ ५--७॥
देवताओं और पितरोंको (कृषिसे प्राप्त लाभका)
बीसवाँ भाग (५ प्रतिशत) और ब्राह्मणोंको तीसवाँ भाग
(३३ प्रतिशत) देना चाहिये। ऐसी अवस्थामें कृषिकर्म
करनेवाला दोषी नहीं होता । वाणिज्य करनेपर (कृषिजन्य
लाभसे दिये जानेवाले अंशकी अपेक्षा) दुगुना, कुसीद-
वृत्तिपर तिगुना दान करना चाहिये। ऐसा करनेसे कृषि
करनेवाला निस्संदेह दोषी नहीं होता॥ ८-९॥
* अध्याय २५ *
शिलोज्छं वाप्याददीत गृहस्थ: साधक: पुनः ।
विद्याशिल्पादयस्त्वन्ये बहवो वृत्तिहेतव:॥ १०॥
असाधक््तु यः प्रोक्तो गृहस्था श्रमसंस्थित: ।
शिलोज्छे तस्य कथिते द्वे वत्ती परमर्षिभि:॥ ११॥
अमृतेनाथवा जीवेन्मृतेनाप्पथवा यदि।
अयाचितं स्यादमृतं मृतं भेक्ल॑ तु याचितम्॥ १२॥
कुशूलधान्यको वा स्थात् कुम्भीधान्यक एवं वा।
त्हैहिको वापि भवेदश्वस्तनिक एवं च॥ १३॥
चतुर्णामपि चेतेषां द्विजानां गृहमेधिनाम्।
श्रेयान् पर: परो ज्ञेयो धर्मतोी लोकजित्तम: ॥ १४॥
पट्कर्मेंकी भवत्येषां त्रिभिरन्य: प्रवर्तते।
द्वाभ्यामेक श्रतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रेण जीवति॥ १५॥
वर्तयंस्तु शिलोज्छाभ्यामग्रिहोत्रपरायण:।
इष्टी: पार्वायणान्तीया: केवला निर्वपेत् सदा॥ १६॥
३८३
अथवा साधक (ब्राह्मण) गृहस्थको शिलोज्छवृत्तिका'
आश्रय लेना चाहिये। विद्या तथा शिल्प आदि भी
अन्य बहुतसे जीविकाके साधन हैं। गृहस्थाश्रममें
रहनेवाला जो असाधक (नामका दूसरा गृहस्थ) कहा
गया है, श्रेष्ठ महर्षियोंद्वारा उसके लिये शिल तथा
उज्छ नामक दो वृत्तियाँ कही गयी हैं। अमृत अथवा
मृत साधनद्वारा जीवनयापन करना चाहिये। अयाचित
पदार्थ अमृत और याचनाद्वारा भिक्षास्वरूप प्राप्त वस्तु
मृत होती है॥१५०--१२॥
ब्राह्ममकफो कुशूलधान्यक (तीन वर्षोतकके लिये
संचित धान्यवाला), कुम्भीधान्यक (एक वर्षतकके
लिये संचित धान्यवाला), जत्यैहिक (तीन दिनोंतकके
लिये संचित धान्यवाला) अथवा अश्वस्तनिक (अगले
दिनके लिये भी धान्य संचित न करनेवाला) होना
चाहिये। इन (उपर्युक्त) चार प्रकारके गृहस्थ द्विजों
(ब्राह्मणों )-में उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होता है (ऐसा ब्राह्मण)
अपने धर्मके कारण श्रेष्ठ लोकजयी (स्वर्ग आदि
लोकोंको जीतनेवाला) होता है। इनमें कोई (जिनके
पास पोष्य-वर्ग अधिक है) द्विज (ब्राह्मण) षट्कर्मोसे'
अपनी जीविका निर्वाह करते हैं, दूसरे (अल्प परिग्रहवाले)
कुछ द्विज (ब्राह्मण) तीन साधनोंसे' निर्वाह करते हैं,
कुछ दो साधनोंसे और चौथे प्रकारके ब्राह्मण ब्रह्मयज्ञ
(अध्यापन)-द्वारा आजीविका चलाते हैं॥ १३--१५॥
जो ब्राह्मण केवल उज्छ या शिल-वृत्तिसे अपना
निर्वाह करे वह (धनसाध्य अन्य कमोके अनुष्टानमें
असमर्थ होनेके कारण) केवल नित्य-कर्म अग्नि-
होत्रको ही करता रहे तथा पर्व एवं अयनके मध्य
सम्पन्न की जानेवाली दर्शपौर्णमास एवं आग्रयण इष्टियाँ
करता रहे॥ १६॥
१-जिस धान्यपर पशु-पक्षीतकका भी अधिकार नहीं है, उसके एक-एक कण (कणसमूह-मंजरीको छोड़ देना है )-को प्रतिदिन
अंगुलीसे उठाकर एकत्र किया जाय और उसीसे जीविका निर्वाह किया जाय--यह उज्छवृत्ति है और यदि धान्य-समूहरूप मंजरीका
भी संग्रह प्रतिदिन करके जीविकानिर्वाह किया जाय तो यह 'शिल' वृत्ति है। ये दोनों वृत्तियाँ ब्राह्मणके लिये श्रेष्ठ हैं। इनमें भी प्रथम
वृत्ति सर्वोत्तम है।
२-ऋत (उज्छ, शिल), अयाचित, भैक्ष, कृषि, वाणिज्य तथा कुसीद--ये ही पदकर्म हैं।
३-याजन, अध्यापन, परिग्रह--ये तीन साधन हैं।
४-याजन, अध्यापन--ये दो साधन हैं।
३८४ * कूर्मपुराण *
न लोकवृत्ति वर्तेत वृत्तिहेतो: कथंचन।
ब्राह्मण जीविकाके लिये लोकवृत्ति (विचित्र हास-
अजिद्मामशठां शुद्धां जीवेद् ब्राह्णजीविकाम्॥ १७॥ | परिहास आदिसे युक्त लोककथा आदि)-का आश्रयण
याचित्वा वापि सद्धथो३5नन॑ पितृन् देवांस्तु तोषयेत्।
याचयेद् वा शुचि दान्तं न तृप्येत स्वयं तत: ॥ १८ ॥
यस्तु द्र॒व्यार्जन॑ कृत्वा गृहस्थस्तोषयेन्न तु।
देवान् पितृश्च विधिना शुनां योनिं त्रजत्यसौ ॥ १९॥
धर्मश्चार्थश्च कामश्च श्रेयो मोक्षश्चतुष्टयम्।
धर्माविरुद्ध: काम: स्याद ब्राह्मणानां तु नेतर: ॥ २०॥
यो<र्थों धर्माय नात्मार्थ: सो5र्थो5नर्थस्तथेतरः ।
कभी न करे। अजिह्य (किसीकी झूठी निन्दा-स्तुति
आदिके वर्णनरूप पापसे रहित), अशठ (दम्भ आदि
अनेक प्रकारके बनावटी व्यवहारसे शून्य), शुद्ध (वैश्य
आदिकी जीवनवृत्तिसे असम्बद्ध) शास्त्रीय वृत्तिका ही
आश्रयण करना चाहिये॥ १७॥
उसे (ब्राह्मणको) सज्जनोंसे अन्न माँगकर भी
पितरों तथा देवताओंको संतुष्ट करना चाहिये। अथवा
पवित्र इन्द्रियजयी व्यक्तियोंसे याचना करे, किंतु उससे
स्वयं तृप्त न होवे (अर्थात् उस याचित द्रव्यका उपयोग
स्वयंके लिये न करे)। जो गृहस्थ द्र॒व्योपार्जन करके
देवताओं तथा पितरोंको विधिपूर्वक संतुष्ट नहीं करता
है, वह कुत्तेकी योनिमें जाता है॥१८-१९॥
धर्म, अर्थ, काम तथा कल्याणकारी मोक्ष नामक
चार पुरुषार्थ हैं। ब्राह्मणोंका काम (नामक पुरुषार्थ)
धर्मका अविरोधी होना चाहिये, इससे भिन्न (अर्थात्
धर्मविरोधी कथमपि) नहीं होना चाहिये। जो अर्थ
धर्मके लिये होता है अपने लिये नहीं वह (वास्तविक)
अर्थ है, इससे भिन्न प्रकारका अर्थ तो अनर्थ है
इसलिये (धर्मपूर्वक) अर्थ प्राप्त होनेपर दान, हवन तथा
तस्मादर्थ समासाद्य दद्याद वै जुहुयाद यजेत्॥ २१॥ | यज्ञ करना चाहिये॥ २०-२१॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहरस्रधां संहितायामुपारिविभथागे पञ्ञविंशोउध्याय: ॥ २५ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें पचीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥२५॥
* अध्याय २६ *+
३०८५
छब्बीसवों अध्याय
दानधर्मका निरूपण एवं नित्य, नैमित्तिक, काम्य तथा विमल-चतुर्विध दान-भेद, दानके
अधिकारी तथा अनधिकारी, कामना-भेदसे विविध देवताओंकी आराधनाका
विधान, ब्राह्मणकी महिमा तथा दानधर्मप्रकाणका उपसंहार
व्यास उबाच
अथात: सम्प्रवक्ष्यामि दानधर्ममनुत्तमम्।
ब्रह्मणाभिहितं पूर्वमृषीणां ब्रह्मवादिनाम्॥
अर्थनामुदिते पात्रे श्रद्धवा प्रतिपादनम्।
दानमित्यभिनिर्दिष्ट. भुक्तिमुक्तिफलप्रदम्॥
यद् ददाति विशिष्टेभ्य: श्रद्धया परया युतः ।
तद् वे वित्तमहं मन्ये शेषं कस्यापि रक्षति ॥
नित्य नेमित्तिकं काम्यं त्रिविधं दानमुच्यते।
चतुर्थ विमलं प्रोक्त॑ सर्वदानोत्तमोत्तमम्॥
अहन्यहनि यत् किंचिद् दीयते5नुपकारिणे।
अनुदिश्य फल तस्माद ब्राह्मणाय तु नित्यकम्॥
यत् तु पापोपशान्त्यर्थ दीयते विदुषां करे।
नेमित्तिकं तदुद्दिष्ट दानं सद्धिरनुष्ठटितम्॥
अपत्यविजयैश्वर्यस्वर्गार्थयत् प्रदीयते।
दान॑ तत् काम्यमाख्यातमृषिभिर्धर्मचिन्तकै: ॥
यदीश्वरप्रीणनार्थ. ब्रह्मवित्सु॒_ प्रदीयते।
चेतसा धर्मयुक्तेन दानं तद् विमल॑ शिवम्॥
दानधर्म निषेबेत पात्रमासाद्य शक्तितः।
उत्पत्य्यते हि तत्पात्रं यत् तारयति सर्वतः॥
कुटुम्बभक्तवसनाद् देयं यदतिरिच्यते।
२
रे
है.
प्
६
ऐ
८
९
अन्यथा दीयते यद्धि न तद दानं फलप्रदम्॥ १०॥
व्यासजीने कहा--अब में श्रेष्ठ दानधर्मका वर्णन
करूँगा। इसे पूर्वमें ब्रह्माजीने ब्रह्मगादी ऋषियोंसे
कहा था--॥१॥
उदित अर्थात् वेदवेदाड्ाध्ययन करनेवाले प्रशस्त
पात्रमें अर्थके श्रद्धापूर्वक प्रतिपादनको दान कहा गया
है। यह भोग तथा मोक्षरूप फलको देनेवाला है।
विशिष्ट अर्थात् सदाचारसम्मन्न व्यक्तियों (ब्राह्मणों)-को
अत्यन्त श्रद्धासम्पन्न होकर जो धन दिया जाता है, उसे
ही मैं धन मानता हूँ। अवशिष्ट धन (तो किसी दूसरेका
ही है, वह) किसी अन्यकी रक्षा करता है। नित्य,
नैमित्तिक तथा काम्य--इस प्रकारसे दान तीन प्रकारका
कहा गया है। चौथा दान विमल-दान कहा गया है,
जो सभी दानोंमें उत्तमोत्तम है॥२--४॥
प्रत्येक दिन बिना किसी फल-प्राप्तिरूप प्रयोजनके
अर्थात् निःस्वार्थभावसे (कर्तव्य समझकर) जो कुछ
भी अनुपकारी (जिससे अपना उपकार करानेकी तनिक
भी आशा न हो ऐसे) ब्राह्मणको दिया जाता है, वह
नित्य-दान कहलाता है। पापके शमन करनेके लिये
विद्वान् (ब्राह्मणों)-के हाथमें जो दिया जाता है, उसे
नैमित्तिक दान कहा गया है। सजनोंद्वारा इसका
अनुष्ठान किया जाता है। संतान, विजय, ऐश्वर्य तथा
स्वर्ग-प्राप्तकि लिये जो दान दिया जाता है, वह
धर्मविचारक ऋषियोंके द्वारा काम्य-दान कहा गया है।
ईश्वरकी प्रसन्नताके लिये धर्मभावनासे त्रह्मज्ञानियोंको
जो दिया जाता है, वह कल्याणकारी दान विमल-
दान कहलाता है॥५--८॥
सत्पात्र उपलब्ध होनेपर यथाशक्ति दानधर्मका पालन
अवश्य करना चाहिये; क्योंकि वह सत्पात्र कदाचित्
ही सौभाग्यसे उपलब्ध होता है जो दाताका हर तरहसे
उद्धार कर देता है। कुटुम्बके भरण-पोषणसे अधिक
अवश्िष्ट पदार्थका दान करना चाहिये। इससे भिन्न प्रकारका
दिया जानेवाला दान फलप्रद नहीं होता॥ ९-१० ॥
३८६
* कूर्मपुराण *
श्रोत्रियाय कुलीनाय विनीताय तपस्विने।
वृत्तस्थाय दरिद्राय प्रदेयं भक्तिपूर्वकम्॥ ११॥
यस्तु दद्यान्महीं भक्त्या ब्राह्मणायाहिताग्नये।
स याति परम स्थान यत्र गत्वा न शोचति॥ ९२॥
इक्षुभि: संततां भूमिं यवगोधूमशालिनीम्।
ददाति वेदविदुषे य: स भूयो न जायते॥ १३॥
गोचर्ममात्रामपि वा यो भूमिं सम्प्रयच्छति।
ब्राह्मणाय दरिद्राय सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ १४॥
भूमिदानात् परं दानं॑ विद्यते नेह किज्न।
अन्नदानं तेन तुल्यं विद्यादानं ततोडइधिकम्॥ १५॥।
यो ब्राह्मणाय शान्ताय शुचये धर्मशालिने।
ददाति विद्यां विधिना ब्रह्मलोके महीयते॥ १६॥
दद्यादहरहस्त्वन्न॑ श्रद्धया ब्रह्मचारिणे।
सर्वपापविनिर्मुक्तो ब्रह्मण: स्थानमाप्नुयात्॥ १७॥
गृहस्थायान्नदानेन फलं प्राप्नोति मानव:।
आममेवास्य दातव्यं दत्त्वाप्नोति परां गतिम्॥ १८ ॥
वैशाख्यां पौर्णमास्यां तु ब्राह्मणान् सप्त पञ्च वा।
उपोष्य विधिना शान्त: शुचि: प्रयतमानस: ॥ १९॥
पूजयित्वा तिलै: कृष्णैर्मधुना च विशेषत: ।
गन्धादिभि: समभ्यर्च्य वाचयेद् वा स्वयं वदेत्॥ २०॥
प्रीयतां धर्मराजेति यद् वा मनसि वर्तते।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति॥ २१॥
कृष्णाजिने तिलान् कृत्वा हिरण्यं मधुसर्पिषी |
ददाति यस्तु विप्राय सर्व तरति दुष्कृतम्॥ २२॥
श्रोत्रिय, कुलीन, विनयी, तपस्वी, सदाचारी तथा
धनहीन (न्राह्मण)-को भक्तिपूर्वक दान देना चाहिये।
जो अग्निहोत्री ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक भूमिका दान करता
है, वह उस परमपदको प्राप्त करता है, जहाँ जानेपर
शोक नहीं करना पड़ता। ईख, जौ तथा गेहूँसे फली
हुई विस्तृत भूमिको जो वेदज्ञ (ब्राह्मण)-को दाममें
देता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। अथवा गोचर्मी
(भूमिकी एक विशेष नाप)-के बराबर भूमि जो
धनहीन ब्राह्मणको दानमें देता है, वह सभी पापोंसे
मुक्त हो जाता है। इस संसारमें भूमिदानसे श्रेष्ठ दान
और कुछ भी नहीं है। उसके समान ही अनदान
है और विद्यादान उससे बड़ा है॥११--१५॥
जो पवित्र, शान्त, धर्माचरणसम्पन्न ब्राह्मणको विधिपूर्वक
विद्या प्रदान करता है, वह ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त
करता है। ब्रह्मचारीको प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक अननदान
करना चाहिये। इससे (दाता) सभी पापोंसे मुक्त होकर
ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है। गृहस्थ (ब्राह्मण)-को
अन्नदान करनेसे मनुष्य (महान) फल प्राप्त करता है।
इसे आमान्न अर्थात् अपक्व अन्न ही देना चाहिये, दान
देकर वह परम गति प्राप्त करता है॥१६-१८॥
वैशाखमासकी पूर्णमासीको संयतचित्तसे उपवासकर
शान्ति और पवित्नतापूर्वक सात या पाँच ब्राह्मणोंकी
विधिपूर्वक काले तिलों विशेषरूपसे मधु तथा गन्ध
आदि उपचारोंसे अच्छी प्रकारसे पूजा करे तथा (सविधि
भोजन कराकर) जो मनमें है उसका स्मरण करते
हुए उन ब्राह्मणोंसे 'प्रीयतां धर्मराज' अर्थात् ' धर्मराज
प्रसन्न हों” यह वाक्य कहलाये अथवा स्वयं कहे। इससे
सम्पूर्ण जीवनमें किया हुआ पाप तत्क्षण ही नष्ट हो
जाता है॥ १९--२१॥
कृष्णाजिन नामके वृक्ष विशेषसे निर्मित पात्रमें
तिल, स्वर्ण, मधु तथा घृत रखकर जो ब्राह्मणको देता
है, वह सभी पापोंसे पार हो जाता है॥२२॥
* आचार्य बृहस्पतिने 'गोचर्म-भूमि' कितनी लंबी-चौड़ी होती है--इसे बताते हुए कहा है कि दस हाथके दण्डसे तीस दण्डका
एक निवर्तन होता है और दस निवर्तन विस्तारवाली भूमि “गोचर्म-भूमि' कहलाती है। इस प्रकार (१० हाथ*एक दण्ड, तोस
दण्ड-३०० हाथ या एक निवर्तन और १० निवर्तन-३००० हाथ) तीन हजार हाथ या लगभग १ १ कि० मी० लंबी-चौड़ी भूमि 'गोचर्म-
भूमि' कहलाती है। गोचर्म-भूमिका एक अन्य परिमाप देते हुए कहा गया है कि एक वृषभ तथा बछड़े-बछड़ियोंसहित एक हजार
गायें, जितनी भूमिमें आरामसे इधर-उधर टहल सकें, घूम-फिर सकें, उतनी लंबी-चौड़ी भूमि 'गोचर्म-भूमि' कहलाती है।
* अध्याय र६ *
कृतान्नमुदकुम्भं च वैशाख्यां च विशेषत: ।
निर्दिश्य धर्मराजाय विप्रेभ्यो मुच्यते भयात्॥ २३॥
सुवर्णतिलयुक्तैस्तु ब्राह्मणान् सप्त पञ्ञ वा।
तर्पयेदुदपात्रैस्तु ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥ २४॥
माघमासे तु विप्रस्तु द्वादश्यां समुपोषित:।
शुक्लाम्बरधर: कृष्णैस्तिलैहुत्वा हुताशनम्॥ २५॥
प्रदद्याद् ब्राह्मणेभ्यस्तु तिलानेव समाहित: ।
जन्मप्रभृति यत्पापं सर्व तरति बै द्विज:॥ २६॥
अमावस्यामनुप्राप्प ब्राह्मणाय तपस्विने।
यत्किंचिद देवदेवेशं दद्याच्योदिश्य शंकरम्॥ २७॥
प्रीयतामी श्वर: सोमो महादेव: सनातनः।
सप्तजन्मकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति॥ २८॥
यस्तु कृष्णचतुर्दश्यां स्नात्वा देव॑ पिनाकिनम्।
आराधयेद् द्विजमुखे न तस्यास्ति पुनर्भव:॥ २९॥
कृष्णाष्टम्यां विशेषेण धार्मिकाय द्विजातये।
स्नात्वाभ्यर्च्य यथान्यायं पादप्रक्षालनादिभि: ॥ ३० ॥
प्रीयतां मे महादेवो दद्याद द्रव्यं स््वकीयकम्।
सर्वपापविनिर्मुक्त: प्राप्पोति परमां गतिम्॥ ३१॥
द्विजै: कृष्णचतुर्दश्यां कृष्णाष्टम्यां विशेषतः ।
अमावास्यायां भक्तैस्तु पूजनीयस्त्रिलोचन: ॥ ३२॥
एकादश्यां निराहारो द्वादश्यां पुरुषोत्तमम्।
अर्चयेद् ब्राह्मणमुखे स गच्छेत् परमं पदम्॥ ३३॥
एषा तिथिवेष्णवी स्याद् द्वादशी शुक्लपक्षके।
तस्यामाराधयेद् देवं प्रयत्लेन जनार्दनम्॥ ३४॥
यत्किज्ञिद देवमीशानमुद्दिश्य ब्राह्मणे शुच्चौ।
दीयते विष्णवे वापि तदनन्तफलप्रदम्॥ ३५॥
यो हि यां देवतामिच्छेत् समाराधयितुं नरः ।
ब्राह्मणान् पूजयेद् यलात् स तस्यां तोषयेत् तत: ॥ ३६॥
३०५७
विशेषरूपसे वैशाखमासकी पूर्णिमाको ब्राह्मणोंको
जो कृतान्न-पक्वान्न (अथवा सत्तू) तथा जलसे भरा
घड़ा धर्मराजके उद्देश्यसे देता है, वह भयसे मुक्त हो
जाता है। जो सात अथवा पाँच ब्राह्मणोंको स्वर्ण तथा
तिलसे युक्त जलपूर्ण घड़ोंसे संतुष्ट करता है, वह त्रह्महत्यासे
मुक्त हो जाता है। माघमासकी (कृष्ण) द्वादशीको उपवास
करके शुक्ल वस्त्र धारणकर काले तिलोंसे अग्निमें
हवन कर जो विप्र (द्विज) समाहित होकर ब्राह्मणोंको
(कृष्ण) तिल दान करता है, वह (टद्विज) जन्मसे
आजतकके सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ २३--२६ ॥
अमावस्या आनेपर जो देवदेवेश भगवान् शंकरको
उद्दिष्ट कर 'प्रीयतामीशएवर:ः सोमो महादेव: सनातनः '
अर्थात् (इस दानसे) 'सनातन महादेव ईश्वर सोम प्रसन्न
हों' ऐसा कहकर तपस्वी ब्राह्मणको जो कुछ भी दान
देता है, उससे सात जन्मोंमें किया हुआ उसका पाप
उसी क्षण नष्ट हो जाता है॥ २७-२८॥
जो कृष्ण चतुर्दशीको स्नान करनेके अनन्तर भगवान्
पिनाकीकी आराधनाकर ब्राह्मणको भोजन कराता है,
उसका पुनर्जन्म नहीं होता। विशेषरूपसे कृष्णपक्षकी
अष्टमीको स्नान करके पादप्रक्षालन आदिके द्वारा
विधिपूर्वक धार्मिक द्विजाति (ब्राह्मण)-की अर्चना
करके जो “प्रीयतां मे महादेवा:' ऐसा कहकर अपना
द्रव्य प्रदान करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर
परम गतिको प्राप्त करता है॥ २९--३१॥
भक्त द्विजोंको कृष्ण चतुर्दशी विशेषरूपसे कृष्णाष्टमी
और अमावास्याको त्रिलोचन (महादेव)-की पूजा करनी
चाहिये। एकादशीको निराहार रहकर द्वादशीके दिन
ब्राह्णणमफो भोजन कराकर जो पुरुषोत्तमकी पूजा करता
है, वह परमपदको प्राप्त करता है। शुक्लपक्षकी द्वादशी
तिथि वैष्णवी तिथि है। इस तिथिको प्रयत्रपूर्वक
भगवान् जनार्दनकी आराधना करनी चाहिये। भगवान्
ईशान (शंकर)-को अथवा विष्णुको उद्दिष्ट कर पवित्र
ब्राह्ममफो जो कुछ दान दिया जाता है, वह अनन्त
फल प्रदान करनेवाला होता है॥३२--३५॥
जो मनुष्य जिस देवताकी आराधना करना चाहता
है, वह यत्रपूर्वक (उस आराध्य देवताकी प्रतिमूर्ति-
रूपमें) ब्राह्मणोंकी पूजा करे, इससे वह आराध्य देवता
संतुष्ट हो जाते हैं॥३६॥
३८८०
* कूर्मपुराण *
द्विजानां वपुरास्थाय नित्यं तिष्ठन्ति देवता: ।
पूज्यन्ते ब्राह्मणालाभे प्रतिमादिष्वपि क्वचित्॥ ३७॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन तत् तत् फलमभीप्सता।
द्विजेषु देवता नित्यं पूजनीया विशेषत:॥ ३८॥
विभूतिकाम: सततं पूजयेद् वै पुरन्दरम्।
ब्रह्मवर्चसकामस्तु ब्रह्माणं ब्रह्मकामुक:॥ ३९॥
आरोग्यकामो5थ रविं धनकामो हुताशनम् ।
कर्मणां सिद्धिकामस्तु पूजयेद वे विनायकम्।॥ ४०॥
भोगकामस्तु शशिनं बलकाम: समीरणम्।
मुमुक्षु: सर्वसंसारातू् प्रयलेनार्चयेद्धरिम्॥ ४१॥
यस्तु योगं तथा मोक्षमन्विच्छेज्ज्ञानमै श्वरम् ।
सोअ<र्चयेद् वै विरूपाक्ष॑ प्रयत्नेनेश्वरेश्वरम्॥ ४२॥
ये वाउ्छन्ति महायोगान् ज्ञानानि च महेश्वरम् ।
ते पूजयन्ति भूतेशं केशवं चापि भोगिन: ॥ ४३॥
वारिदस्तृप्तिमाणोति सुखमक्षयमन्नद: ।
तिलप्रद: प्रजामिष्टां दीपदश्चक्षुरुत्तमम्॥ ४४ ॥
भूमिद: सर्वमाष्नोति दीर्घमायु्हिरण्यद:।
गृहदो5ग्रयाणि वेश्मानि रूप्यदो रूपमुत्तमम्॥ ४५ ॥
वासोदश्चवन्द्रसालोक्यमश्चिसालोक्यमश्वद: ।
अनडुदः श्रियं पुष्टां गोदो व्रध्नस्य विष्टपम्॥ ४६ ॥
यानशब्याप्रदो भायमिश्चर्यमभयप्रद: ।
धान्यदः शाश्वतं सौख्य ब्रह्मदो ब्रह्मसात्म्यताम्॥ ४७ ॥
धान्यान्यपि यथाशक्ति विप्रेषु प्रतिपादयेत्।
वेदवित्सु विशिष्टिषु प्रेत्य स्वर्ग समश्नुते॥ ४८॥
देवता नित्य ही ब्राह्मणोंके शरीरका आश्रय ग्रहणकर
प्रतिष्ठित रहते हैं । कभी ब्राह्मणोंके प्राप्त न होनेपर प्रतिमा
आदिमें भी उन देवताओंकी पूजा की जाती है। इसलिवे
उन-उन फलोंकी प्राप्तिकी इच्छासे सभी प्रकारके
प्रयत्नोंसे विशेषरूपसे ब्राह्मणोंमें देवताओंकी नित्य पूजा
करनी चाहिये॥ ३७-३८ ॥
ऐश्वर्यकी इच्छा करनेवालेको सर्वदा इन्द्रकी पूजा
करनी चाहिये। ब्रह्मतेज और ब्रह्मप्रासिकि अभिलाषीको
ब्रह्माकी आराधना करनी चाहिये। आरोग्यकी इच्छावालेको
सूर्यकी, धनाभिलाषीको अग्निकी और कर्मोंमें सिद्धि
प्राप्त करेकी (अपने कार्यकी निर्विष्न सम्पन्नताकौ)
इच्छावालेको विनायककी पूजा करनी चाहिये॥ ३९-४०॥
भोग-प्राप्तिकी इच्छावालेको चन्द्रमाकी, बलप्राप्तिको
इच्छावालेको वायुकी और समस्त संसारसे मुक्तिके
अभिलाषीको प्रयत्नपूर्वक विष्णुकी आराधना करनी
चाहिये। जो योग, मोक्ष तथा ईश्वरसम्बन्धी ज्ञान प्राप्त
करना चाहता हो, उसे प्रयत्रपूर्वक ईश्वरोंके भी ईश्वर
विरूपाक्ष (शंकर )-की पूजा करनी चाहिये। जो महायोग
और ज्ञानकी इच्छा करते हैं, वे भूताधिपति महेश्वरकी
पूजा करते हैं और योगीजन केशवकी आराधना
करते हैं ॥४१--४३॥
जलदान करनेवाला तृप्ति प्राप्त करता है, अन्नदान
करनेवाला अक्षय सुख प्राप्त करता है, तिलदान करनेवाला
इच्छित संतान प्राप्त करता है और दीपदान करनेवाला
उत्तम ज्योति (चक्षु) प्राप्त करता है। भूमिदान करनेवाला
सब कुछ प्राप्त करता है। स्वर्णदाता दीर्घ आयु, गृह-
दान करनेवाला ऊँचे महल तथा चाँदी दान करनेवाला
उत्तम रूप प्राप्त करता है। वस्त्र दान करनेवाला
चन्द्रलोकमें निवास करता है और अश्व-दान करनेवाला
अश्विनीकुमारोंके लोकमें जाता है। वृषभ-दान करनेवालेको
पुष्ट लक्ष्मी और गो-दान करनेवालेको ब्रह्मलोककी प्राप्ति
होती है। यान (सवारी) और शब्या-दान करनेवालेको
भार्या तथा अभयदाताको ऐश्वर्य प्राप्त होता है। धान्यदाता
शाश्वत सौख्य तथा वेदविद्याका दान करनेवाला ब्रह्म-
तादात्म्यको प्राप्त करता है। विशिष्ट वेदज्ञाता ब्राह्मणोंको
यथाशक्ति धान्य भी प्रदान करना चाहिये। ऐसा करनेसे
मृत्युके अनन्तर स्वर्गकी प्राप्ति होती है॥४४--४८॥
* अध्याय २६ *
३०८९
गवां घासप्रदानेन सर्वपापै: प्रमुच्यते।
गौओंको घास प्रदान करनेसे सभी पापोंसे मुक्ति
इन्धनानां प्रदानेन दीघ्ताग्निर्जायते नरः॥ ४९॥ | हो जाती है। ईंधनका दान करनेसे मनुष्य प्रदीत्त
फलमूलानि शाकानि भोज्यानि विविधानि च।
प्रदद्याद् ब्राह्मणेभ्यस्तु मुदा युक्त: सदा भवेत् | ५० ॥
औषध॑ स्नेहमाहारं रोगिणे रोगशान्तये।
ददानो रोगरहित: सुखी दीर्घायुरेव च॥ ५१॥
असिपत्रवनं मार्ग क्षुरधारासमन्वितम्।
तीव्रतापं च तरति छत्रोपानत्प्रदो नर:॥ ५२॥
यद् यदिष्टतमं लोके यच्चापि दयितं गहे।
तत्तद् गुणवते देयं तदेवाक्षयमिच्छता॥ ५३॥
अयने विषुवे चेव ग्रहणे चन्द्रसूर्ययो:।
संक्रान्त्यादिषु कालेषु दत्त भवति चाक्षयम्॥ ५४॥
प्रयागादिषु तीर्थेषु पुण्येष्वायतनेषु च।
दत्त्वा चाक्षयमाप्नोति नदीषु च वनेषु च॥ ५५॥
दानधर्मात् परो धर्मों भूतानां नेह विद्यते।
तस्माद् विप्राय दातव्यं श्रोत्रियाय द्विजातिभि:॥ ५६ ॥
स्वर्गायुर्भूतिकामेन तथा पापोपशान्तये।
मुमुक्षुणा च दातव्यं ब्राह्मणेभ्यस्तथाउन्वहम्॥ ५७॥
दीयमानं तु यो मोहाद गोविप्राग्रिसुरेषु च।
निवारयति पापात्मा तिर्यग्योनिं ब्रजेत् तु स: ॥ ५८ ॥
यस्तु द्रव्यार्जनं कृत्वा नार्चयेद् ब्राह्मणान् सुरान्।
सर्वस्वमपहत्यैनं राजा राष्ट्रात् प्रवासयेत्॥ ५९॥
(जाठर) अग्निवाला (उत्तम पाचनशक्ति-सम्पन्न) होता
है। जो ब्राह्मणोॉंको फल, मूल, शाक तथा विविध
भोज्य पदार्थ प्रदान करता है, वह सर्वदा आनन्दित
रहता है। रोगीके रोग-शान्तिके लिये जो उन्हें औषधि,
स्नेह (तेल, घृत आदि) तथा आहार प्रदान करता
है, वह रोगरहित, सुखी तथा दीर्घ आयुवाला होता
है। छाता और जूता प्रदान करनेवाला मनुष्य छुरेकी
धारसे पूर्ण असिपत्रवनके मार्गमें तीत्र तापको पार
कर लेता है। संसारमें जो-जो भी स्वयंको अत्यन्त
अभीष्ट हो और जो घरमें सबके लिये अत्यन्त प्रिय
वस्तु हो, उस-उस वस्तुको गुणवान् ब्राह्मणको दानमें
देना चाहिये, ऐसा करनेसे अभीष्ट एवं प्रिय वस्तु
अक्षय होकर प्राप्त होती है॥४९--५३॥
अयन (उत्तरायण और दक्षिणायन), विषुव (मेष
और तुला-संक्रान्ति), चन्द्र और सूर्यग्रहण तथा (अन्य)
संक्रान्ति आदि समयोंमें दिया हुआ दान अक्षय होता
है। प्रयाग आदि तीर्थों, पवित्र मन्दिरों, नदियोंके किनारों
तथा (नैमिष आदि पुण्यप्रद) अरण्योमें दान देनेसे
अक्षय (फल) प्राप्त होता है॥ ५४-५५॥
इस संसारमें प्राणियोंक लिये दानसे बढ़कर कोई
अन्य धर्म नहीं है। इसलिये द्विजातियोंको श्रोत्रिय ब्राह्मणको
दान देना चाहिये। स्वर्ग, आयु तथा ऐश्वर्यका अभिलाषी
और पापकी शान्तिके इच्छुक तथा मोक्षार्थी पुरुषको प्रतिदिन
ब्राह्मणोंके निमित्त दान करना चाहिये॥ ५६-५७॥
जो व्यक्ति मोहवश गौ, ब्राह्मण, अग्नि तथा
देवताओंके निमित्त दिये जा रहे दानको रोकता है, वह
पापात्मा तिर्यग्योनिमें जाता है। जो द्रव्यका अर्जन करके
ब्राह्मणों तथा देवताओंकी पूजा नहीं करता है (अर्थात्
धर्मसम्मत, लोकसम्मत-रूपमें धनका उपयोग नहीं
करता है तो) उसका सर्वस्व अपहरण करके उसे राष्ट्रस
बाहर निकाल देना राजाका कर्तव्य है॥५८-५९ ॥
३९०
* कूर्मपुराण *
यस्तु दुर्भिक्षवेलायामन्नाद्य॑ न॒प्रयच्छति।
प्रियमाणेषु विप्रेषु ब्राह्मण: स तु गहित: ॥ ६० ॥
न तस्मात् प्रतिगृह्नीयुर्न विशेयुश्र तेन हि।
अड्डूयित्वा स्वकाद् राष्ट्रात् तं राजा विप्रवासयेत्॥ ६१॥
यस्त्वसद्भ्यो ददातीह स्वद्र॒व्यं धर्मसाधनम्।
स पूर्वाभ्यधिक: पापी नरके पच्यते नरः॥ ६२॥
स्वाध्यायवन्तो ये विप्रा विद्यावन्तो जितेन्द्रिया: ।
सत्यसंयमसंयुक्तास्तेभ्यो दद्याद् द्विजोत्तमा: ॥ ६३॥
सुभुक्तमपि दिद्वांसं धार्मिक भोजयेद् द्विजम्
न तु मूर्खमवृत्तस्थं दशरात्रमुपोषितम्॥ ६४॥
संनिकृष्टमतिक्रम्य श्रोत्रियं यः प्रयच्छति।
स तेन कर्मणा पापी दहत्यासप्तमं कुलम्॥ ६५॥
यदि स्थादधिको विप्र: शीलविद्यादिभि: स्वयम्
तस्मै यत्नेन दातव्यं अतिक्रम्यापि संनिधिम्॥ ६६ ॥
योडचिंतं प्रतिगृह्लीयाद् दद्यादर्चितमेव च।
ताबुभौ गच्छतः स्वर्ग नरकं तु विपर्यये॥ ६७॥
न वार्यपि प्रयच्छेत नास्तिके हैतुकेडपि च।
पाषण्डेषु च सर्वेषु नावेदविदि धर्मवित्॥ ६८॥
अपूप॑ च हिरण्यं च गामश्वं पृथिवीं तिलान्।
अविद्वान् प्रतिगुह्लानो भस्मीभवति काष्ठवत्॥ ६९ ॥
द्विजातिभ्यो धन लिप्सेत् प्रशस्तेभ्यो द्विजोत्तम:।
अपि वा जातिमात्रेभ्यो न तु शूद्रात् कथञ्चन ॥ ७०॥
जो व्यक्ति दुर्भिक्षक समय मरणप्राय विप्रोंको अन्न
आदि नहीं देता, वह ब्राह्मण" (या मनुष्य) निन्दित
होता है, उसके साथ न आदान-प्रदानका व्यवहार करना
चाहिये और न उसके साथ बैठना ही चाहिये। राजा उसको
चिहितकर ' अपने राष्ट्रसे बाहर निकाल दे। संसारमें
अपने धर्मके साधनरूप द्रव्यको जो असज्जनों (दानके
अयोग्यों )-को दान करता है, वह मनुष्य पूर्वसे (पूर्वोक्त
वर्णित सभी पापियोंसे) भी अधिक पापी होता है और
नरकमें पड़ता है॥६०--६२॥
हे द्विजोत्तमो! जो ब्राह्मण स्वाध्यायनिरत, विद्यावान्,
जितेन्द्रिय तथा सत्य और संयम-सम्पन्न है, उसे दान
देना चाहिये। भोजन किये रहनेपर भी दिद्वान् धार्मिक
द्विजको भोजन कराना चाहिये, किंतु मूर्ख और सदाचारहीन
ब्राह्मणको दस दिनोंका भूखा होनेपर भी भोजन नहीं
कराना चाहिये॥ ६३-६४॥
जो समीपमें स्थित श्रोत्रियकी अवमानना कर अन्य
(ब्राह्मण)-को दान देता है, वह पापी अपने उस पापके
कारण अपने सात पीढ़ीतकको दग्ध कर डालता है।
यदि कोई ब्राह्मण शील, विद्या आदिमें अधिक गुणसम्पन्न
हो, तो समीपके ब्राह्मणका भी अतिक्रमण कर यत्॒पूर्वक
उसे दान देना चाहिये। जो आदरपूर्वक दान ग्रहण करता
है और जो आदरपूर्वक देता है, वे दोनों स्वर्ग प्राप्त
करते हैं। इसके विपरीत करनेवाले नरक जाते हैं।
धर्मज्ञको नास्तिक, कुतर्की, सभी पाखंडियों तथा वेदज्ञानसे
हीन व्यक्तिके निमित्त जलका भी दान नहीं करना
चाहिये ॥ ६५--६८ ॥
अपूप (पुआ), स्वर्ण, गौ, अश्व, पृथ्वी तथा तिलका
दान ग्रहण करनेवाला अदविद्वान् व्यक्ति लकड़ीके समान
भस्म हो जाता है (अर्थात् दान लेनेकी योग्यता न रहनेपर
लोभवश दान नहीं लेना चाहिये) श्रेष्ठ द्विजको प्रशस्त
द्विजातियोंसे धनकी इच्छा करनी चाहिये अथवा अपनी
जातिवालोंसे ही धन ग्रहण करना चाहिये, किंतु शूद्रसे
किसी प्रकार धन नहीं लेना चाहिये॥ ६९-७०॥*
१-मूलमें “ब्राह्मण” शब्द है। पर वह मनुष्यमात्रका उपलक्षण है।
२-अपराधसूचक चिहसे अपराधीको अड्डित करना भी दण्ड देनेके अन्तर्गत एक शास्त्रीय प्रक्रिया है।
३-यह अनुष्ठानके अद्भभूत भोजनका निषेध है। सामान्यत: तो किसी भी भूखेको भोजन कराना गृहस्थका अनिवार्य कर्तव्य है।
४-यहाँ जलके दानका निषेध है। प्यासेको पानी पिलानेका निषेध नहीं है। दानके लिये ही योग्य पात्रकी अपेक्षा है।
५-शुद्र छोटा भाई है, इसलिये उससे धन लेनेका निषेध किया है। छोटेसे माँगना उचित नहीं होता।
* अध्याय २६ *
३९१
वृत्तिसंकोचमन्विच्छेन्न्रेत धनविस्तरम्।
धनलोभे प्रसक्तस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते॥ ७१॥
वेदानधीत्य सकलान् यज्ञांश्चावाप्य सर्वशः ।
नतां गतिमवाप्नोति संकोचाद यामवाप्नुयात्॥ ७२॥
प्रतिग्रहरुचिर्न स्यात् यात्रार्थ तु समाहरेत्।
स्थित्यर्थादधधिकं गहन् ब्राह्मणो यात्यधोगतिम्॥ ७३॥
यस्तु याचनको नित्यं न स स्वर्गस्थ भाजनम्।
उद्देजयति भूतानि यथा चौरस्तथैव सः ॥ ७४॥
गुरून् भत्यांश्रोजिहीर्षुररचिष्यन् देवतातिथीन्।
सर्वतः प्रतिगृह्नीयान्न तु तृप्येत् स्वयं ततः॥ ७५॥
एवं गृहस्थो युक्तात्मा देवतातिथिपूजक: ।
वर्तमान: संयतात्मा याति तत् परम पदम्॥ ७६॥।
पुत्रे निधाय वा सर्व गत्वारण्यं तु तत्त्ववित्।
एकाकी विदचरेन्नित्यमुदासीन: समाहित: ॥ ७७॥
एप व: कथितो धर्मो गृहस्थानां द्विजोत्तमा: ।
ज्ञात्वानुतिष्ठेन्नियतं तथानुष्ठापयेद् द्विजान॥ ७८॥
इति देवमनादिमेकमीशं
गृहधर्मेण
समतीत्य स सर्वभूतयोनिं
समर्चयेदजस््रम् ।
ब्राह्मणको वृत्तिके संकोचकी इच्छा रखनी चाहिये,
उसे धनका विस्तार करनेकी इच्छा नहीं रखनी चाहिये।
धनके लोभमें आसक्त ब्राह्मण ब्राह्मणत्वसे च्युत हो जाता
है। सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करने और सभी यज्ञोंको
कर लेनेपर भी वह गति नहीं प्राप्त होती जो (वृत्तिके)
संकोचसे प्राप्त होती है (अर्थात् जीवननिर्वाहके लिये
जीविकाका अधिक-से-अधिक विस्तार उचित नहीं
है)। दान लेनेमें रुचि नहीं होनी चाहिये। मात्र जीवन-
निर्वाहके लिये धन ग्रहण करना चाहिये। अपनी
स्थितिमात्रसे अधिक धन लेनेवाला ब्राह्मण अधोगति
प्राप्त करता है (अर्थात् अपने तथा अपने परिवारके
पोषणके लिये जितना अत्यावश्यक है, उतना ही लेना
चाहिये।) ॥ ७१--७३ ॥
जो नित्य याचना करता है, वह स्वर्गका भागी
नहीं होता। वह प्राणियोंको उद्विग्न करता है, वह चोरके
ही समान होता है। गुरुजनों तथा सेवकोंके उद्धारकी
इच्छा करनेवाला तथा देवता और अतिथियोंकी आराधना
करनेवाला सबसे दान ग्रहण कर सकता है, किंतु उस
दानसे वह अपनी तृप्ति न करे॥ ७४-७५॥
इस प्रकार संयत आत्मावाला, देवताओं तथा
अतिथियोंकी पूजा करनेवाला युक्तात्मा गृहस्थ परमपदको
प्राप्त करता है। अथवा पुत्रको अपना सर्वस्व समर्पित
कर तत्त्वज्ञानी पुरुषको वनमें जाकर समाहित होकर,
विरक्तभावसे नित्य एकाकी विचरण करना चाहिये।
हे द्विजोत्तमो! यह मैंने आप लोगोंको गृहस्थोंका धर्म
बतलाया। इसे जानकर इसका नियमपर्वूक स्वयं
अनुष्ठान करना चाहिये और अन्य द्विजोंसे इसका पालन
करवाना चाहिये॥ ७६--७८ ॥
इस प्रकार गृहस्थधर्मके द्वारा अनादि, अद्वितीय
देव ईश्वरकी सतत आराधना करनी चाहिये। (ऐसा
करनेवाला) वह व्यक्ति समस्त प्राणियोंक मूल कारण
प्रकृतिका अतिक्रमण कर परमपदको प्राप्त कर लेता
प्रकृतिं याति पर न याति जन्म॥ ७९॥ | है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता॥७९॥
डति श्रीकूर्मपुराणे बद्साहस्रयां संहितायामुपरिविभागे बरड्विश्योडध्याय: ॥ २६ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें छब्बीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २६॥
३९२
मं कूर्मपुराण कर
सत्ताईसवाँ अध्याय
वानप्रस्थ-आश्रम तथा वानप्रस्थ-धर्मका वर्णन, वानप्रस्थीके कर्तव्योंका निरूपण
व्यास उवाच
एवं गृहाश्रमे स्थित्वा द्वितीयं भागमायुषः ।
बानप्रस्थाश्रमं गच्छेत् सदारः साग्नमिरिव च॥
निक्षिप्य भागा पुत्रेषु गच्छेद वनमथापि वा।
दृष्टापत्यस्य चापत्यं जर्जरीकृतविग्रह: ॥
शुक्लपक्षस्य॒ पूर्वाल्लि प्रशस्ते चोत्तरायणे।
गत्यारण्यं नियमवांस्तपः कुर्यात् समाहित: ॥
फलमूलानि पूतानि नित्यमाहारमाहरेत्।
यताहारो भवेत् तेन पूजयेत् पितृदेवताः॥
पूजयित्वातिथिं नित्य॑ र्रात्वा चाभ्यर्चयेत् सुरान्।
गृहादाहत्य चाश्नीयादष्टी ग्रासान् समाहित: ॥
जटाश्च बिभृयात्नित्यं नखरोमाणि नोत्सजेत्।
स्वाध्यायं सर्वदा कुर्यान्नियच्छेद वाचमन्यत: ॥
अग्निहोत्रं च॒ जुहुयात् पञ्षयज्ञान् समाचरेत्।
मुन्यन्नर्विविधेमेंध्ये: शाकमूलफलेन वा॥
चीरवासा भवेत्नित्यं स्नायात् त्रिषवर्ण शुच्ति: ।
सर्वभूतानुकम्पी स्यातू् प्रतिग्रहविवर्जित: ॥
दर्शेन पौर्णमासेन यजेत नियतं द्विज:।
ऋ्षेष्वाग्रयणे चैव चातुर्मास्यानि चाहरेत्।
२
है.
ज्
६
८
उत्तरायणं च क्रमशो दक्षस्यायनमेव च॥ ९ ॥
वासन्त: शारदैमेंध्यैर्मुन्यन्नी: स्वयमाहते:।
पुरोडाशां श्ररूश्चैव विधिवत्निर्वपेत् पृथक् ॥ १०॥
देवताभ्यश्र तद् हुत्वा बन्यं मेध्यतरं हवि:।
शेषं समुपभुञ्जीत लवणं च स्वयं कृतम्॥ ११॥
वर्जयेन्मधुमांसानि भौमानि कवकानि च।
भूस्तृणं शिम्मुकं चेव एलेष्मातकफलानि च॥ १२॥
व्यासजीने कहा--इस प्रकार आयुके द्वितीय
भागतक गृहस्थाश्रममें रहकर (तृतीय भागमें) अग्नि
तथा भार्यासहित वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करना चाहिये।
अथवा पुत्रके भी पुत्रकों देखकर और शरीरके जर्जर
हो जानेपर अपनी पत्नीको पुत्रोंके संरक्षणमें रख दे
तथा स्वयं बनमें चला जाय। प्रशस्त उत्तरायणमें
शुक्लपक्षके पूर्वाह्रमें बनमें जाकर नियम ग्रहणकर
समाहित होकर तप करना चाहिये॥ १-३ ॥
नित्य पवित्र फल-मूलोंको आहारके लिये स्वीकार
करना चाहिये और इस प्रकार संयत आहारवाला होकर
उसी फल-मूल आदिसे पितरों तथा देवताओंका पूजन
(संतर्पण) करना चाहिये। स्नान करके नित्य अतिथियोंका
पूजन करके देवताओंका पूजन करे। घरसे लाकर
एकाग्रतापूर्वक आठ ग्रास भोजन करे। नित्य जटा धारण
करे, नख तथा रोम न कटवाये। सर्वदा स्वाध्याय करे
और अन्य विषयोंसे वाणीको रोके॥ ४--६॥
अग्निहोत्र करे और (वबनमें स्वयं उत्पन्न होनेवाले)
मुनियोंके विविध प्रकारके पवित्र अन्नों एवं शाक, मूल
अथवा फलोंसे पद्ञमहायज्ञोंको सम्पन्न करे। नित्य
चीररूपी (अचला, कौपीनमात्र) वस्त्र धारण करे, तीनों
संध्याओंमें पवित्रतापूर्वक स्नान करे। सभी प्राणियोंपर
दया रखे और दान ग्रहण न करे। (वानप्रस्थी) द्विजको
नियमसे दर्श-पौर्णमासयाग, नक्षत्रयाग, आग्रयण (नवशस्येष्टि
और चातुर्मासयाग करना चाहिये तथा क्रमश: उत्तरायण
एवं दक्षिणायन याग करना चाहिये। वसनन््त तथा
शरत्कालमें उत्पन्न स्वयं लाये हुए पवित्र मुन्यन्रोंसे
पृथक्-पृथक् पुरोडाश एवं चरु बनाकर देवताओं (तथा
पितरों)-को अतिपवित्र वन्य हवि प्रदान करना चाहिये।
तदनन्तर अवशिष्ट उस हविको लवण मिलाकर स्वयं
भक्षण करना चाहिये॥ ७--११॥
मधु, मांस, भूमिमें उत्पन्न कवक (कुकुरमुत्ता),
भूस्तृूण (शाकविशेष), शिग्रुक (सहिजन) तथा श्लेष्मातक
(लिसोढ़ा)-के फलोंका त्याग करना चाहिये॥१२॥
* अध्याय २७ +
न फालकृष्टमश्नीयादुत्सृष्टमपि केनचित्।
नग्रामजातान्यार्तोउपि पुष्पाणि च फलानि च॥ १३॥
श्रावणेनेव विधिना वह्ठिं परिचरेत् सदा।
न द्रह्मत् सर्वभूतानि निर्द्धन्द्दो निर्भगो भवेत्॥ १४॥
ननक्त किंचिदश्नीयाद् रात्रौ ध्यानपरो भवेत्।
जितेन्द्रियो जितक्रोधस्तत्त्वज्ञानविचिन्तक: ।
ब्रह्मचारी भवेन्नित्यं न पत्नीमपि संश्रयेत्॥ १५॥
यस्तु पत्या वनं गत्वा मैथुनं कामतकश्चरेत्।
तद् ब्रतं तस्य लुप्येत प्रायश्चित्तीयते द्विज: ॥ १६॥
तत्र यो जायते गर्भो न संस्पृश्यो द्विजातिभि: ।
न हि वेदेदईधिकारो5स्य तद्ठृंशे5प्येवमेव हि ॥ १७॥
अध: शयीत सततं सावित्रीजाप्यतत्परः ।
शरण्य: सर्वभूतानां संविभागपर: सदा॥ १८॥
परिवादं मृषावादं निद्रालस्यं विवर्जयेत्।
एकाग्निरनिकेतः स्यात् प्रोक्षितां भूमिमाश्रयेत्॥ १९॥
मृगे: सह चरेद् वासं तैः सहैव च संवसेत।
शिलायां शर्करायां वा शयीत सुसमाहितः ॥ २०॥
सद्यः प्रक्षालको वा स्थान्माससंचयिको5पि वा।
षण्मासनिचयो वा स्यथात् समानिचय एवं वा॥ २१॥
त्यजेदाश्वयुजे मासि सम्पन्न पूर्वसंचितम्।
जीर्णानि चैब वासांसि शाकमूलफलानि च॥ २२॥
दन्तोलूखलिको वा स्यात् कापोती वृत्तिमाश्रयेत्।
अश्मकुट्टो भवेद् वापि कालपक्वभुगेव वा॥ २३॥
३९३
हलसे जोती हुई भूमिमें उत्पन्न और दूसरोंके द्वारा
परित्यक्त पदार्थका भक्षण नहीं करना चाहिये। कष्टमें
होते हुए भी ग्राममें उत्पन्न पुष्पों-फलोंका भक्षण नहीं
करना चाहिये॥ १३॥
सर्वदा श्रावणी विधिके अनुसार अग्निकी परिचर्या
करे। किसी भी प्राणीसे द्रोह न करे, द्वन्द्दोंस परे और
भयरहित रहे। रातमें कुछ भी भोजन न करे, रसात्रिमें
केवल ध्यानपरायण रहे। नित्य इन्द्रियजयी, क्रोधजयी,
तत्त्वज्ञानका चिन्तक तथा ब्रह्मचर्यपरायण रहे। पत्नीका
भी आश्रय न ले॥ १४-१५॥
जो (द्विज) वनमें जाकर कामवश पत्नीके साथ
मैथुन करता है तो वह ब्रत (वानप्रस्थब्रत)-से च्युत
हो जाता है और प्रायश्चित्तका भागी होता है। वहाँ
(वानप्रस्थाश्रममें) जो संतान उत्पन्न होती है, वह
द्विजातियोंके द्वारा स्पर्शके योग्य नहीं होती। उसका
वेदमें अधिकार नहीं होता और उसके वंशमें भी यही
स्थिति रहती है। (वानप्रस्थीको) नित्य भूमिपर शयन
करना चाहिये। गायत्रीके जपमें तत्पर रहना चाहिये।
सभी प्राणियोंकों शरण देनेवाला होना चाहिये और
दानशील होना चाहिये॥ १६--१८॥
परिवाद (परनिन्दा), असत्यभाषण, निद्रा तथा
आलस्यका परित्याग करना चाहिये। एकाग्रि और घरसे
रहित होना चाहिये। प्रोक्षित की गयी भूमिपर रहना
चाहिये। (वनमें) मृगोंक साथ विचरण करना चाहिये
और उन्हींके साथ रहना चाहिये (अर्थात् असंग हो
वनमें ही रहे)। शिला या बालूके ऊपर शयन करना
चाहिये और सदा समाहितचित्त रहना चाहिये। शीघ्र
ही समाप्त होने योग्य फल-मूल आदिका संग्रह करनेवाला
होना चाहिये अथवा एक महीनेतक, छः: महीनेतक
या एक वर्षतक उपयोग किये जानेवाले (फल-
मूलादि)-का संग्रह करनेवाला होना चाहिये॥ १९--२१॥
पूर्वसंचित पदार्थों, जीर्ण वस्त्रों तथा शाक, फल,
मूल आदिका आश्विनमासमें परित्याग कर देना चाहिये।
दाँतोंको ही ऊखल (तथा मूसल) समझना चाहिये।
कापोतीवृत्ति (कबूतरकी तरह दाना चुगकर खानेवाली
वृत्ति)-का आश्रय ग्रहण करना चाहिये॥ २२-२३॥
३९४
मे कूर्मपुराण मः
नक्त चान्न॑ समश्नीयाद दिवा चाहत्य शक्तित: ।
चतुर्थकालिको वा स्यात् स्याद्वाप्यष्रमकालिक: ॥ २४॥
चान्द्रायणविधानेर्वा शुक्ले कृष्णे च वर्तयेत्।
पक्षे पक्षे समएनीयाद यवागूं क्वथितां सकृत्॥ २५॥
पुष्पमूलफलैर्वांप केवलैरवर्तयेत् सदा।
स्वाभाविके: स्वयं शीर्ण॑वैखानसमते स्थित: ॥ २६॥
भूमौ वा परिवर्तेत तिष्ठेद वा प्रपदेर्दिनम।
स्थानासनाभ्यां विहरेन्न क्वचिद् थैर्यमुत्सजेत्॥ २७॥
ग्रीष्पे पञ्ञतपाश्च स्याद् वर्षास्वभ्रावकाशक: ।
आरद्द्रवासास्तु हेमन्ते क्रमशो वर्धयंस्तप: ॥ २८॥
उपस्पृश्य त्रिषवर्ण पितृदेवांश्व तर्पयेत्।
एकपादेन तिष्ठेत मरीचीन् वा पिबेत् तदा॥ २९॥
पश्चाग्निर्धूमपो वा स्यादुष्मप: सोमपो5पि वा।
पय: पिबेच्छुक्लपक्षे कृष्णपक्षे तु गोमयम ।
शीर्णपर्णाशनो वा स्यात् कृच्छेर्वा वर्तयेत् सदा ॥ ३० ॥
योगाभ्यासरतश्व स्याद रुद्राध्यायी भवेत् सदा।
अथर्वशिरसो5ध्येता वेदान्ताभ्यासतत्पर:॥ ३१॥
यमान् सेवेत सततं नियमांश्वाप्यतन्द्रित: |
कृष्णाजिनी सोत्तरीय: शुक्लयज्ञोपवीतवान्॥ ३२॥
अथ चाग्नीन् समारोप्य स्वात्मनि ध्यानतत्पर: ।
अनग्रिरनिकेतः स्यथान्मुनिर्मोक्षपरो भवेत्॥ ३३॥
तापसेष्वेब विप्रेषु यात्रिकं भेक्षमाहरेत्।
गृहमेधिषु चान्येषु द्विजेषु वनवासिषु॥ ३४॥
अथवा पत्थरपर ही कूटकर अन्नका भक्षण करनेवाला
होना चाहिये या समयानुसार पके हुए (फल-मूलादि)-
का भक्षण करनेवाला होना चहिये। यथाशक्ति दिनमें
अन्न (फल-मूलादि) लाकर रात्रिमें भक्षण करना
चाहिये अथवा चतुर्थकालिक या अष्टमकालिक भोजन
करनेवाला होना चाहिये। अथवा शुक्ल और कृष्णपक्षमें
चान्द्रायणविधिसे रहे । या प्रत्येक पक्षमें एक बार उबाले
गये यवागूका भक्षण करे॥ २४-२५॥
अथवा सर्वदा वैखानस (वानप्रस्थ) ब्रतका पालन
करते हुए केवल स्वाभाविक रीतिसे अपने-आप
(वृक्षसे) गिरे हुए पुष्प, मूल एवं फलोंसे निर्वाह करता
रहे। भूमिपर लेटना एवं रहना चाहिये। दिनमें पंजोंके
बल उठना, बैठना या चलना चाहिये। धैर्य कभी भी
न छोड़े। ग्रीष्म ऋतुमें पञ्ञाग्रि-तप (तप-विशेषका
सेवन) करे। वरषाके दिनोंमें खुले आकाशके नीचे रहे
और हेमन्तमें गीले वस्त्र धारण करे--इस प्रकार क्रमशः:
तपस्याको बढ़ाता रहे ॥ २६--२८ ॥
आचमनकर तीनों संध्याओंमें स्नान तथा पितरों और
देवताओंका तर्पण (एवं पूजन) करे। उस समय एक
पैरसे खड़ा रहे अथवा सूर्यकिरणोंका पान करे।
पञ्माग्रिका सेवन करे अथवा धुएँका पान करे या
ऊष्माका पान करे अथवा सोमपान करे। शुक्लपक्षमें
दुग्ध-पान करे और कृष्णपक्षमें गोमयका सेवन करे
अथवा गिरे हुए पत्तोंका सेवन करे या सदा कृच्छुत्रतका
पालन करता रहे॥ २९-३०॥
सदा योगका अभ्यास करता रहे, रुद्राध्यायका
अध्ययन करता रहे। अथर्वशिरसके अध्ययन और
वेदान्तके अभ्यासमें तत्पर रहे। आलस्यरहित होकर
निरन्तर यमों और नियमोंका पालन करे। कृष्ण-मृगचर्म,
उत्तरीय और शुक्ल यज्ञोपवीत धारण करे। अग्रियोंको
अपनी आत्मामें प्रतिष्ठित कर ध्यान-परायण रहे। अग्नि
(गृद्माग्नि) और गृहका परित्याग कर दे और मुनिव्रतद्वारा
मोक्षकी प्राप्तिका प्रयल करता रहे॥ ३१--३३॥
जीवन-निर्वाहके लिये तपस्वी ब्राह्मणोंसे ही भिक्षा
माँगे। अथवा अन्य गृहस्थों तथा वनवासी द्विजोंसे भिक्षा
लेनी चाहिये॥ ३४॥
* अध्याय २८ *+ ३९५
ग्रामादाहत्य वाश्नीयादष्टी ग्रासान् वने बसन्। अथवा बनमें रहते हुए ग्रामसे लाकर मात्र आठ
प्रतिगृद्य पुटेनेव पाणिना शकलेन वा॥ ३५॥ | ग्रास भोजन करना चाहिये। पत्तोंके दोने, हाथ अथवा
कसोरे (मिट्टीके पात्र) इत्यादिके टुकड़ेमें ही भोजन
ग्रहण करना चाहिये॥ ३५॥
विविधाश्रोपनिषद आत्मसंसिद्धये जपेत्। आत्मज्ञानकी प्राप्तिेके लिये (विधिपूर्वक) विविध
विद्याविशेषान् सावित्री रुद्राध्यायं तथेव च॥ ३६॥ | उपनिषदोंका निरन्तर पाठ करना चाहिये। इसी प्रकार
विशिष्ट विद्याओं, गायत्री तथा रुद्राध्यायकी आवृत्ति
करनी चाहिये। अथवा ब्रह्मार्पण-विधिमें स्थित रहते
महाप्रास्थानिकं चासौ कुर्यादनशनं तु वा। हुए महाप्रस्थान (मृत्यु-पथ)-के उद्देश्य्से अनशन करे
अग्निप्रवेशमन्यद् वा ब्रह्मा्पणविधौ स्थित: ॥ ३७॥ | या अग्निमें प्रवेश करे॥३६-३७॥
यस्तु सम्यगिममाश्रमं शिव जो तपस्वी अमंगल-समूहका नाश करनेवाले तथा
संश्रयेदशिवपुज्जनाशनम् । कल्याणकारी इस (वानप्रस्थ) आश्रमका भलीभाँति
तापस: स परमैश्चरं पद आश्रयण करता है, वह उस परम ऐश्वर पदको प्राप्त
याति यत्र जगतो5स्य संस्थिति:॥ ३८ ॥ | करता है, जिसमें इस जगत्की स्थिति है॥३८॥
ज्ति श्रीकृर्मपुराणे पद्साहस्र्यां संहितायामुपरिविथागे सम्रर्विशोउध्याय: ॥ २७॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें सत्ताईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २७॥
अट्टाईसवाँ अध्याय
संन्यासधर्मका प्रतिपादन, संन््यासियोंके भेद तथा संनन््यासीके कर्तव्योंका वर्णन
व्यास उवाच व्यासजीने कहा--इस प्रकार वानप्रस्थ-आश्रममें
आयुके तीसरे भागको व्यतीतकर क्रमश: आयुके चौथे
एवं वनाश्रमे स्थित्वा तृतीयं भागमायुष:। भागको संन्यास-आश्रमद्वारा व्यतीत करना चाहिये।
चतुर्थमायुषो भागं संन्यासेन नयेत् क्रमात्॥ १॥ | अग्नियोंको आत्मामें प्रतिष्ठित कर द्विजको संन्यास ग्रहण
करना चाहिये। उसे योगाभ्यासमें निरत, शान्त तथा
अग्रैनात्मनि संस्थाप्य द्विज: प्रत्रजितो भवेत्। ब्रह्मविद्यापायण रहना चाहिये। जब सभी वस्तुओंके
योगाभ्यासरत: शान््तो ब्रह्मविद्यापरायण:॥ २॥ | प्रति मनमें वितृष्णा उत्पन्न हो जाय, तब संन्यास ग्रहण
करनेकी इच्छा करनी चाहिये। इसके विपरीत करनेसे
यदा मनसि संजातं वैतृष्ण्यं सर्ववस्तुषु। (अर्थात् स्वल्प भी तृष्णाके रहते संन्यास ग्रहण करनेपर)
तदा संन्यासमिच्छेच्य पतित: स्याद विपर्यये॥ ३॥ | मनुष्य पतित हो जाता है। प्राजापत्य अथवा आग्रेय
याग करके इन्द्रियनिग्रही एवं पूर्ण वेराग्यवान् द्विजको
प्राजापत्यां निरूप्येष्टिमाग्नेयीमथवा पुनः। ब्रह्माश्रम (संन्यासाश्रम)-का आश्रय ग्रहण करना
दान्त: पक््वकषायोउसौ ब्रह्माश्रममुपाश्रयेत्॥ ४॥ | चाहिये॥ १--४॥
कुछ ज्ञानसंन्यासी होते हैं, कुछ वेदसंन्यासी होते
ज्ञनसंन्यासिन: केचिद् वेदसंन्यासिनः परे। हैं और कुछ कर्मसंन्यासी होते हैं। इस प्रकार तीन
कर्मसंन्यासिनस्त्वन्ये त्रिविधा: परिकीर्तिता: ॥ ५॥ | प्रकारके संन्यासी कहे गये हैं॥५॥
३९६ नः कूर्मपुराण मं
यः सर्वसड्निर्मुक्तो निद्ठन्द्वश्चैव निर्भय:।
प्रोच्यते ज्ञानसंन्यासी स्वात्मन्येव व्यवस्थित: ॥। ६ ॥
वेदमेवाभ्यसेन्नित्यं निराशी निष्परिग्रह:
प्रोच्यते वेदसंन्यासी मुमुक्षुर्विजितेन्द्रिय:॥ ७ ॥
यस्त्वग्रीनात्मसात्कृत्वा ब्रह्मार्पणपरो द्विज: ।
ज्ञेयः स॒ कर्मसंन्यासी महायज्ञपरायण:॥ ८ ॥
त्रयाणामपि चेतेषां ज्ञानी त्वभ्यधिको मतः
न तस्य विद्यते कार्य न लिड्/ं वा विपश्चित:॥ ९ ॥
निर्ममो निर्भय: शान्तो नि्ठन्द्र: पर्णभोजन: ।
जीर्णकौपीनवासा: स्यान्नग्रो वा ध्यानतत्पर: ॥ १०॥
ब्रह्मचारी मिताहारो ग्रामादन्नं समाहरेत्।
अध्यात्ममतिरासीत निरपेक्षो निरामिष:॥ २११॥
आत्मनेव सहायेन सुखार्थ विचरेदिह।
नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम्॥ १२॥
कालमेब प्रतीक्षेतर निदेशं भूतको यथा।
नाध्येतव्यं न वक्तव्यं श्रोतव्यं न कदाचन।
एवं ज्ञात्वा परो योगी ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ १३॥
एकवासाथवा विद्वान् कोपीनाच्छादनस्तथा।
मुण्डी शिखी बाथ भवेत् त्रिदण्डी निष्परिग्रह: ।
काषायवासा: सततं ध्यानयोगपरायण:ः ॥ १४॥
ग्रामान्ते वृक्षमूले वा वसेद् देवालये5पि वा।
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
शैक्ष्येण वर्तयेन्नित्यं नैकान्नादी भवेत् क्वचित्॥ १५॥
जो सभी आसक्तियोंसे मुक्त है, सुख-दुःखादि
इन्द्*ोंस रहित है और निर्भय है, अपनी आत्मामें ही
प्रतिष्ठित रहनेवाला है, वह ज्ञानसंन्यासी कहलाता है।
जो नित्य वेदका ही अभ्यास (स्वाध्याय) करता रहता
है, आशारहित है, संग्रहशून्य है, जितेन्द्रिय है तथा
मोक्षकी इच्छा रखनेवाला है, वह वेदसंन्यासी कहा जाता
है। जो अग्रियोंको आत्मसात्कर बत्रह्मार्पणतत्पर रहता
है, उस महायज्ञपरायण (सतत ब्रह्मचिन्तन-परायण)
द्विजको कर्मसंन्न्यासी जानना चाहिये। इन तीनोंमें ज्ञानी
(ज्ञान-संन्यासी )-को अधिक श्रेष्ठ माना गया है। उस
(ज्ञानी)-का न कोई कर्तव्य (शेष) रह जाता है और
न कोई चिह्न ही होता है॥६--९॥
संन्यासीको ममताशून्य, भयरहित, शान्त, बन्द्रोंसे
परे, पत्तोंका ही आहार करनेवाला, जीर्ण कौपीनको
वस्त्र-रूपमें धारण करनेवाला अथवा नग्न और ध्यान-
परायण होना चाहिये॥ १०॥
(संन्यासी ) ब्रह्मचर्यका पालन करे, सीमित मात्रामें
आहार ग्रहण करे, ग्रामसे अन्न माँगकर लाये। अध्यात्म
(ज्ञान)-में बुद्धि रखे, निरपेक्ष रहे तथा निरामिष रहे।
अपनी ही सहायतासे अर्थात् स्वावलम्बी होकर आत्मतुष्टिके
लिये इस संसारमें विचरण करे, न तो मृत्युका ही
अभिनन्दन करे और न जीवनका अभिनन्दन करे। जिस
प्रकार सेवक (अपने स्वामीके) आज्ञाकी प्रतीक्षा करता
है, उसी प्रकार उसे भी कालकी प्रतीक्षा करनी चाहिये।
न कभी अध्ययन करे, न प्रवचन करे और न कुछ
श्रवण ही करे। इस प्रकारका ज्ञान रखकर (आत्मनिष्ठ
होकर) वह श्रेष्ठ योगी ब्रह्मस्वरूप हो जाता है॥ ११--१३॥
विद्वान् संनन््यासी (कौपीनके साथ) एक वस्त्र
(उत्तरीय) धारण करे अथवा कौपीनमात्रसे शरीरका
आच्छादन करे। मुण्डित सिर अथवा जटाधारी रहे।
त्रिदण्डी रहे, संचयवृत्तिसे शून्य रहे। काषाय वस्त्र ही
धारण करे और निरन्तर ध्यानयोगमें परायण रहे। उसे
(संन्यासीको) ग्रामकी सीमापर, वृक्षके मूलमें अथवा
किसी देवमन्दिरमें रहना चाहिये। शत्रु-मित्र तथा मान-
अपमानमें समान रहना चाहिये। नित्य भिक्षावृत्तिसे
निर्वाह करे। कभी भी उसे किसी एक हो व्यक्तिका
अन्न खानेवाला नहीं होना चाहिये॥ १४-१५॥
* अध्याय २८ *
यस्तु मोहेन वालस्यादेकान्नादी भवेद् यति: ।
न तस्य निष्कृति: काचिद् धर्मशास्त्रेषु कथ्यते॥ १६ ॥॥
रागद्वेषविमुक्तात्मा समलोष्टाश्मकाझ्नन: ।
प्राणिहिंसानिवृत्त श्व मौनी स्यात् सर्वनिस्पृद: ॥ १७॥
दृष्टिपूतं न््यसेत् पादं वस्त्रपूतं जल पिबेत्।
सत्यपूतां बदेद् वाणीं मनःपूतं समाचरेत्॥ १८॥
नेकत्र निवसेद् देशे वर्षाभ्यो5न्यत्र भिक्षुक:ः ।
स्तानशौचरतो नित्यं कमण्डलुकर: शुच्ि:॥ १९॥
ब्रह्मचर्ययतोी नित्यं वनवासरतो भवेत्।
मोक्षशास्त्रेषु निरतो ब्रह्मसूत्री जितेन्द्रिय:॥ २०॥
दम्भाहंकारनिर्मुक्तो निन्दापैशुन्यवर्जित: ।
आत्मज्ञानगुणोपेतोी यतिरमोक्षमवाप्नुयात्॥ २१॥
अभ्यसेत् सततं वेदं प्रणवाख्यं सनातनम्।
स्नात्वाचम्य विधानेन शुचिर्देवालयादिषु॥ २२॥
यज्ञोपवीती शान्तात्मा कुशपाणि: समाहित: ।
धौतकाषायवसनो._ भस्मच्छन्नतनूरुह: ॥ २३॥
अधियज्ञ॑ ब्रह्म जपेदाधिदेविकमेव च।
आध्यात्मिक च सततं वेदान्ताभिहितं च यत्॥ २४॥
पुत्रेषु वाथ निवसन् ब्रह्मचारी यतिर्मुनि:।
वेदमेवाभ्यसेन्नित्यं स याति परमां गतिम्॥ २५॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य तप: परम्।
क्षमा दया च संतोषो बव्रतान्यस्य विशेषतः ॥ २६॥
वेदान्तज्ञाननिष्ठो वा पञ्ञ यज्ञान् समाहितः।
कुर्यादहरहः स्नात्वा भिक्षान्नेनेव तेन हि॥ २७॥
३९७
जो संन््यासी मोह या आलस्यवश किसी एक ही
व्यक्तिका अन्न भक्षण करता है, उसकी मुक्तिका कोई
उपाय धर्मशास्त्रोंमें नहीं बतलाया गया है। (संनन््यासीको)
राग-द्वेषसे मुक्त, मिट्टी, पत्थर और सोनेमें समान भाव
रखनेवाला, प्राणियोंकी हिंसासे निवृत्त, मौनी और सब
प्रकारसे आसक्तिशून्य होना चाहिये, अच्छी तरह देखकर
पैर रखना चाहिये, वस्त्रसे छानकर जल पीना चाहिये,
सत्यसे पवित्र वाणी बोलनी चाहिये और मनसे शुद्ध
आचरण करना चाहिये॥ १६--१८॥
संन्यासीको वर्षा-ऋतुके अतिरिक्त ( अन्य ऋतुओंमें )
किसी एक ही स्थानपर नहीं रहना चाहिये। नित्य स्नान
एवं शौचमें तत्पर, हाथमें कमण्डलु धारण करनेवाला
तथा पवित्र होना चाहिये। नित्य ब्रह्मचर्यत्रत धारण करना
चाहिये, वनवासी ही रहना चाहिये तथा मोक्षविषयक
शास्त्राध्ययनमें निरत रहते हुए ब्रह्मसूत्री (यज्ञोपवीतसे
युक्त दण्डधारी) और जितेन्द्रिय रहना चाहिये। दम्भ-
अहंकारसे मुक्त रहे, निन्दा तथा पिशुनता (चुगलखोरी )-
का सर्वथा परित्याग करे। आत्मज्ञानसम्बन्धी गुणोंसे
सम्पन्न रहे--ऐसा संन्यासी मोक्ष प्राप्त करता है। विधिपूर्वक
स्रनानोपरात्त आचमन करके पवित्रतापूर्वक देवालयोंमें
प्रणव नामक सनातन वेद (मन्त्र)-का निरन्तर अभ्यास
(जप) करे॥ १९--२२॥
यज्ञोपवीती, शान्तात्मा, हाथमें कुश धारण करने-
वाला, एकाग्रचित्त, धुला हुआ काषाय वस्त्र धारण
करनेवाला और भस्मसे धूसरित देहवाला रहना
चाहिये * | संन्यासीको वेदान्त-प्रतिपादित अधियज्ञ, (समस्त
यज्ञोंके अधिष्ठान) आधिदेविक तथा आध्यात्मिक ब्रह्म
(मन्त्र-प्रण० )-का सतत जप करना चाहिये। अथवा
मननशील तथा ब्रह्मचारी यतिको पुत्रोंके बीच रहते हुए
नित्य वेदका ही अभ्यास करना चाहिये, इससे उसे
परम गति प्राप्त होती है॥२३--२५॥
अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य,
श्रेष्ठ तप, क्षमा, दया और संतोष--ये ब्रह्मचारी यतिके
विशेष ब्रत हैं। अथवा वेदान्त-ज्ञानमें निष्ठाके साथ
समाहित होकर ख्लानादि कर भिक्षामें प्राप्त अन्नसे नित्य
पञ्चमहायज्ञोंका सम्पादन करना चाहिये (इसे विरक्त
कर्मयोगीका धर्म समझना चाहिये) ॥ २६-२७॥
* कुटीचक संनन््यासी शिखा और यज्ञोपवीत धारण करते हैं। (नारदपरिव्राजकोपनिषद्-५)
३९८ * कूर्मपुराण *
होममन्त्राउजपेन्नित्यं काले काले समाहित: । नियत समयपर समाहित होकर नित्य होम-मन्त्रोंका
स्वाध्यायं चान्वहं कुर्यात् सावित्री संध्ययोर्जपेत्॥ २८ ॥ | जप करना चाहिये। प्रतिदिन स्वाध्याय को और
संध्याओंमें गायत्रीका जप करे। एकान्तमें निरन्तर
ध्यायीत सततं देवमेकान्ते परमेश्वरम्। परमेश्वरदेवका ध्यान करे। नित्य एक ही व्यक्तिके
वर्जयेन्नित्यं तो अन्नका और काम, क्रोध तथा परिग्रहका त्याग करे।
जयेन्नित्यं कामं॑ क्रोध॑ परिग्रहम्॥ २९ ॥ ः ;
5००23 पक आ एक वस्त्र अथवा दो वस्त्र धारण करे। शिखा एवं
यज्ञोपवीत धारण करे। हाथमें कमण्डलु धारण करे,
एकवासा द्विवासा वा शिखी यज्ञोपवीतवान्। ऐसा त्रिदण्डी विद्वान् भी (अनासक्त--द्न्द्वातीत कर्मयोगी
कमण्डलुकरो दिद्वान् त्रिदण्डी याति तत्परम्॥ ३० ॥ | होनेके कारण) परम पदको प्राप्त करता है॥ २८--३०॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्यां संहितायामुपरिविंभागेउश्टाविशोडध्याय: ॥ २८ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें अट्टाईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ २८॥
उनतीसवाँ अध्याय
संन्यासाश्रमधर्म-निरूपणमें यतियोंकी भेक्ष्यवृत्तिका स्वरूप, यतियोंके लिये महेश्वरके
ध्यानका प्रतिपादन, ब्रतभड़में प्रायश्चित्तविधान तथा पुनः यथास्थितिमें
आनेकी विधि, संन्यासधर्म-प्रकरणकी समाप्ति
व्यास उवाच व्यासजीने कहा--इस प्रकार अपने आम्रमममें
स्थित नियतात्मा यतियोंके लिये भिक्षा अथवा फल-
मूलद्वारा जीवन-निर्वाह करना कहा गया है। एक समय
ही भिक्षा करनी चाहिये। उसके विस्तारमें आसक्त नहीं
एककालं चरेद भेक्षं न प्रसज्येत विस्तरे। होना चाहिये; क्योंकि भिक्षामें आसक्ति रखनेवाला
भेक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति॥ २॥ | संन्यासी विषयोंमें भी आसक्त हो जाता है॥ १-२॥
सप्तागारं चरेद् भेक्षमलाभात् तु पुनश्चरेत्। सात घरोंसे भिक्षा माँगनी चाहिये। (उतने घरोंमें)
प्रक्षाल्य पात्रे भुड्जीयादद्धिः प्रक्षालयेत् तु तत्॥ ३॥ | न मिलनेपर पुन: भिक्षा माँगनी चाहिये। पात्रको धोकर
उसमें भिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और भिक्षाके बाद
पुन: उसे जलसे धोना चाहिये। अथवा (सम्भव हो
तो) बिना लोभके जीवन-निर्वाहमात्र करनेवाले यतिको
अथवान्यदुपादाय पात्रे भुड्जीत नित्यश:। प्रतिदिन नवीन पात्र लाकर उसमें भिक्षा ग्रहण करनी
भुक्त्वा तत् संत्यजेत् पात्र यात्रामात्रमलोलुप: ॥ ४॥ | चाहिये और भिक्षा ग्रहण करनेके बाद उसका परित्याग
कर देना चाहिये। गृहस्थका घर धूएँसे रहित हो
जानेपर, मूसलका शब्द बंद हो जानेपर, आगके न
रहनेपर, सभी लोगोंके भोजन कर चुकनेपर, कसोरे
विधूमे सन्नमुसले व्यड्ारे 3 कर | एवं पत्रादिका ढेर लग जानेपर यतिको (गृहस्थके
वृत्ते शरावसम्पाते भिक्षां नित्यं यतिश्नरेत्॥ ५॥ | घर) नित्य भिक्षा माँगनी चाहिये॥३--५॥
एवं स्वाश्रमनिष्ठानां यतीनां नियतात्मनाम्।
भेक्षेण वर्तनं प्रोक्त फलमूलैरथापि बा॥१॥
* अध्याय २९ *
गोदोहमात्र॑ तिष्ठेत कालं भिक्षुरधोमुख:।
भिक्षेत्युक्वा सकृत् तृष्णीमश्नीयाद् वाग्यत: शुचि: ॥ ६ ॥
प्रक्षाल्य पाणिपादौ चर समाचम्य यथाविधि।
आदित्ये दर्शयित्वान्नं भुज्जीत प्राइग्मुखोत्तर: ॥ ७ ॥
ह॒त्वा प्राणाहुती: पञ्ञ ग्रासानष्टी समाहित: ।
आच्म्य देवं ब्रह्माणं ध्यायीत परमेश्वरम्॥ ८ ॥
अलाबुं दारुपात्र॑ च मृण्मयं वैणवं ततः।
चत्वारि यतिपात्राणि मनुराह प्रजापति:॥ ९ ॥
प्राग्रात्रे पररात्रे चर मध्यरात्रे तथेव च।
संध्यास्वद्धि विशेषेण चिन्तयेन्नित्यमीश्वरम्॥ १० ॥
कृत्वा हृत्पद्मानिलये विश्वाख्य॑ विश्वसम्भवम्
आत्मानं सर्वभूतानां परस्तात् तमसः स्थितम्॥ ११॥
सर्वस्याधारभूतानामानन्दं ज्योतिरव्ययम्।
प्रधानपुरुषातीतमाकाशं दहन शिवम्॥ १२॥
तदन्त: सर्वभावानामीथश्वरं॑ ब्रह्मरूपिणम्।
ध्यायेदनादिमद्वैतमानन्दादिगुणालयम् ॥ १३॥
महान्तं परमं ब्रह्म पुरुषं सत्यमव्ययम्।
सितेतरारुणाकारं महेशं विश्वरूपिणम्॥ १४॥
ओंकारान्ते5थ चात्मानं संस्थाप्य परमात्मनि।
आकाशे देवमीशानं ध्यायीताकाशमध्यगम्॥ १५ ॥
कारणं सर्वभावानामानन्दैकसमाश्रयम् |
पुराणं पुरुष शम्भुं ध्यायन् मुच्येत बन्धनातू्॥ १६ ॥
यद्वा गुहायां प्रकृता जगत्सम्मोहनालये।
विचिन्त्य परम व्योम सर्वभूतेककारणम्॥ १७॥
जीवन सर्वभूतानां यत्र लोक: प्रलीयते।
आनचद ब्रह्मण: सूक्ष्मं यत् पश्यन्ति मुमुक्षव: ॥ १८ ॥
तन्मध्ये निहितं ब्रह्म केवलं ज्ञानलक्षणम्।
अनन्तं सत्यमीशानं विचिन्त्यासीत संयतः ॥ १९॥
३९९
एक बार 'भिक्षा' ऐसा शब्द उच्चारण कर भिक्षा
माँगनेवाले संन्यासीको नीचे मुख किये हुए उतने समयतक
प्रतीक्षा करनी चाहिये, जितनी देरमें गाय दुही जाती
है। (भिक्षा प्राप्त होनेपर) पवित्रतापूर्वक मौन होकर
भिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। हाथ-पाँव धोकर यथाविधि
आचमन कर सूर्यकी ओर अन्न दिखलाकर पूर्व अथवा
उत्तरी ओर मुख करके भोजन करना चाहिये। (प्राणाय
स्वाहा इत्यादि) पाँच प्राणाहुति देकर समाहित होकर
आठ ग्रास ग्रहण करे। तदनन्तर आचमन कर परमेश्वर
देव ब्रह्मका ध्यान करे। प्रजापति मनुने संन्यासीके लिये
लौकी, लकड़ी, मिट्टी तथा बाँसके बने चार प्रकारके
पात्र बताये हैं | यतिको रात्रिके प्रथम भाग, अन्तिम भाग,
मध्यरात्रि, संध्या-काल तथा दिनमें नित्य विशेषरूपसे
ईश्वरका चिन्तन करना चाहिये॥ ६--१० ॥
(संन्यासीको) हृदयकमलरूपी घरमें विश्व नामक
संसारके उत्पादक, सभी भूतोंके आत्मरूप, तमोगुणसे
परे रहनेवाले, सभीके आश्रय, प्राणियोंको आनन्द
देनेवाले, ज्योति:स्वरूप, अविनाशी, प्रधान एवं पुरुषसे
अतीत, आकाशरूप, अग्नि एवं शिवरूप, वस्तुमात्रके
अस्तित्वके अधिष्ठाता, ब्रह्मरूपी ईश्वर, अनादि, अद्ठित,
आनन्दादि गुणोंके निधान, महान, पुरुष, परम ब्रह्म,
सत्य, शाश्वत, सित (शुक्ल), तदितर (कृष्ण) एवं
अरुणवर्णवाले अर्थात् सत्त्व, रज, तमोरूप त्रिगुणात्मक,
विश्वरूपी महेश्वरका ध्यान करना चाहिये। ओंकारका
उच्चारणकर आत्माको प्रणवके परम तात्पर्यरूप परमात्मामें
प्रतिष्ठितकर आकाशके मध्यमें स्थित रहनेवाले ईशानदेवका
(हृदयरूपी ) आकाशमें ध्यान करना चाहिये॥ ११--१५॥
सभी भावोंके कारणरूप, आनन्दके एकमात्र
आश्रयस्वरूप पुराण-पुरुष शम्भुका ध्यान करनेसे बन्धनसे
मुक्ति हो जाती है। अथवा संसारके सम्मोहनालयरूप
मूलप्रकृतिरूपी गुहामें परम व्योमरूप सभी भूतोंके
एकमात्र कारण, सभी प्राणियोंक जीवनरूप और संसारके
विलय-स्थान, ब्रह्मानन्द-स्वरूप तथा मुमुक्षु लोग जिनका
सूक्ष्मरूपसे दर्शन करते हैं, उनका (परम व्योम विराट
ब्रह्मका) ध्यानकर उनके मध्यमें स्थित शुद्ध ज्ञानस्वरूप
अनन्त, सत्य एवं ईशानरूप ब्रह्मका चिन्तन करते हुए
संयत होकर स्थित रहना चाहिये॥ १६--१९॥
है.
* कूर्मपुराण *
गुह्माद् गुह्मतमं ज्ञानं यतीनामेतदीरितम्।
यतियोंका यह गुह्यसे भी गुह्मतम ज्ञान महेशने
योअनुतिष्ठेन्महेशेन सोउश्नुते योगमैश्वरम्॥ २०॥ | बतलाया है। जो इसका अनुष्ठान करता है, वह
तस्माद ध्यानरतो नित्यमात्मविद्यापरायण: |
ज्ञानं समभ्यसेद ब्राह्मं येन मुच्येत बन्धनात्॥ २१॥
मत्वा पृथक् स्वमात्मानं सर्वस्मादेव केवलम् |
आनन्दमजरं ज्ञानं ध्यायीत च पुनः परम्॥ २२॥
यस्माद भवन्ति भूतानि यद् गत्वा नेह जायते।
स तस्मादीश्वरो देव: परस्माद योउधितिष्ठति॥ २३॥
यदन्तरे तद् गगन शाश्रतं शिवमव्ययम्।
यदंशस्तत्परो यस्तु स देव: स्यान्महेश्वर:॥ २४॥
ब्रतानि यानि भिक्षूणां तथेवोपब्नतानि च।
एकेकातिक्रमे तेषां प्रायश्चित्तं विधीयते॥ २५॥
उपेत्य च स्त्रियं कामात् प्रायश्चित्तं समाहित: ।
प्राणायामसमायुक्तं कुर्यात् सांतपनं शुचि: ॥ २६॥
ततश्वरेत नियमात् कृच्छुं संयतमानस:।
पुनराभ्रममागम्य चरेद् भिक्षुरतन्द्रित:॥ २७॥
न धर्मयुक्तमनृतं हिनस्तीति मनीषिण:।
तथापि च न कर्तव्यं प्रसंगो होष दारुण:॥ २८ ॥
एकरात्रोपवासश्र प्राणायामशतं तथा।
उक्त्वानृतं प्रकर्तव्यं यतिना धर्मलिप्सुना॥ २९॥
परमापद्गतेनापि न कार्य स्तेयमन्यतः।
स्तेयादभ्यधिकः कश्रिन्नास्त्यधर्म इति स्मृति: ।
हिंसा चैषापरा दिष्टा या चात्मज्ञाननाशिका॥ ३०॥
यदेतद द्रविणं नाम प्राणा होते बहिश्चरा:।
स तस्य हरति प्राणान् यो यस्य हरते धनम्॥ ३१॥
ऐश्वरयोगको प्राप्त करता है॥२०॥
अतएव नित्य ध्यानमें निरत और आत्मविद्यापरायण
होते हुए ब्रह्मज्ञाकका अभ्यास करते रहना चाहिये। इसके
कारण बन्धनसे मुक्ति होती है। अपनी आत्माको सबसे
भिन्न (शाश्रतव-नित्य) समझकर उसकी अद्वितीय,
अजर, आनन्दरूप, श्रेष्ठ ज्ञानरूपताका पुन:-पुनः ध्यान
करना चाहिये। जिनसे चर-अचर समस्त प्रपञ्नकी
उत्पत्ति होती है, जिन्हें प्रातकर जन्म-मरणके बन्धनसे
मुक्ति हो जाती है और इसी कारण जो ईश्वर हैं, देव
हैं, सर्वोत्कृष्ट हैं, सबके अधिष्ठाता हैं, वे ही महेश्वर
हैं। जिनके अन्तर्गत शाश्रत, शिव, अव्यय, गगन
विद्यमान है, जगन्नियन्ता परमात्मा जिनके आंश हैं, वे
ही देव महेश्वर हैं (इनका पुन:-पुनः ध्यान यतिको
करना चाहिये) । भिक्षुओं (संन्यासियों)-के जो ब्रत और
उपब्रत हैं, उनमेंसे एक-एकका अतिक्रमण करनेपर
प्रायश्वित्तवा विधान किया गया है॥२१--२५॥
कामवश स्त्रीप्रसंग करनेपर समाहित होकर प्राणायाम
कर पवित्रतापूर्वक प्रायश्वित्तके लिये सांतपन नामक व्रत
करना चाहिये। तदनन्तर संयतमानस होकर नियमसे
कृच्छू (चान्द्रायण)-ब्रत करे। पुनः अपने आश्रममें
आकर आलस्यका परित्याग कर भिक्षुको आश्रमोचित
आचरण करना चाहिये॥ २६-२७॥
विद्वानोंका यह कहना है कि धर्मयुक्त असत्यसे
ब्रतभड़ नहीं होता, तथापि ऐसा नहीं करना चाहिये।
क्योंकि इसमें आसक्ति रखना दारुण कर्म है। धर्माभिलाषी
यतिको चाहिये कि वह असत्यभाषण करनेपर एक
रात्रि उपवास तथा सौ प्राणायाम करे। अत्यन्त संकटमें
होनेपर भी भिक्षुको किसी अन्य प्रयोजनसे भी चोरी
नहीं करनी चाहिये। चोरीसे बढ़कर दूसरा कोई अधर्म
नहीं है, यही सबसे बड़ी हिंसा भी है, क्योंकि
इससे आत्मज्ञान विनष्ट हो जाता है, ऐसा स्मृतियोंका
सिद्धान्त है॥ २८--३० ॥
यह जो द्रविण--धन नामकी वस्तु है, यह बाहरी
प्राण ही है, इसलिये जो जिसके धनका अपहरण करता
है, वह उसके प्राणोंका ही हरण करता है॥३१॥
* अध्याय २९ +
एवं कृत्वा स दुष्टात्मा भिन्नवृत्तो ब्रताच्च्युत: ।
भूयो निर्वेदमापन्नश्नरेच्चान्द्रायणन्रतम्॥ ३२॥
विधिना शास्त्रदृष्टेन संवत्सरमिति श्रुतिः।
भूयो निर्वेदमापन्नश्चरेद् भिक्षुरतन्द्रित: ॥ ३३॥
अकस्मादेव हिंसां तु यदि भिक्षु: समाचरेत्।
कुर्यात् कृच्छातिकृच्छुं तु चाद्भरायणमथापि वा॥ ३४॥
स्कन्देदिन्द्रियदौर्बल्यात् स्त्रियं दृष्टा यतिर्यदि।
तेन धारयितव्या वै प्राणायामास्तु घोडश।
दिवास्कन्दे त्रिरात्रं स्थात् प्राणायामशतं तथा ॥ ३५॥
एकाने मधुमांसे च नवश्राद्धे तथेव च।
प्रत्यक्षलवणे चोक्तं प्राजापत्यं विशोधनम्॥ ३६॥
ध्याननिष्ठटस्य सततं नश्यते सर्वपातकम्|।
तस्मान्महे श्वरं ज्ञात्वा तस्य ध्यानपरो भवेत्॥ ३७॥
यद् ब्रह्म परमं ज्योति: प्रतिष्ठाक्षरमद्वयम्।
यो3न्तरात्र पर॑ ब्रह्म स विज्ञेयो महेश्वरः॥ ३८॥
एव देवो महादेव: केवल: परमः शिव:।
तदेवाक्षरमद्वित॑ तदादित्यान्तरं परम्॥ ३९॥
यस्मान्महीयते देव: स्वधाम्नि ज्ञानसंजिते।
आत्मयोगाह्यये तत्त्वे महादेवस्तत: स्मृतः ॥ ४०॥
नान््यद् देवान्महादेवाद व्यतिरिक्तं प्रपश्यति।
तमेवात्मानमन्वेति यः स याति परं पदम्॥ ४१॥
मन्यन्ते ये स्वमात्मानं विभिन्न परमेश्वरात्।
न ते पश्यन्ति तं देवं वृथा तेषां परिश्रम: ॥ ४२॥
एकमेव परं ब्रह्म विज्ञेयं तत्त्वमव्ययम्।
स देवस्तु महादेवो नैतद् विज्ञाय बध्यते॥ ४३॥
तस्माद यतेत नियतं यतिः संयतमानसः।
ज्ञानयोगरत: शान्तो महादेवपरायण: ॥ ४४॥
४०९
निश्चित ही धन हरण करनेवाला दुष्टात्मा आचारसे
भ्रष्ट और ब्रतसे च्युत हो जाता है। श्रुतिका विधान है
कि यदि कोई अपने ब्रतसे च्युत व्यक्ति अपने पुनः
ब्रतभड़पर पश्चात्ताप करे तो शास्त्रानुकूल विधिसे आलस्य-
रहित होकर एक वर्षतक चान्द्रायणबत्रत करे॥ ३२-३३ ॥
यदि भिक्षुसे अकस्मात् हिंसा हो जाय तो उसे
पश्चात्तापपूर्वक कृच्छुत्रत, अतिकृच्छुत्रत अथवा चान्द्रायण-
व्रत (हिंसाके स्वरूपके अनुसार) करना चाहिये।
इन्द्रियकी दुर्बलताके कारण यदि स्त्रीको देखकर यति
स्खलित हो जाय तो उसे सोलह प्राणायाम करना
चाहिये। दिनमें स्खलन होनेपर तीन रातका उपवास
और सौ प्राणायाम करना चाहिये॥ ३४-३५॥
एकका ही अन्न भक्षण करने, मधु ग्रहण करने,
नवश्राद्ध-सम्बन्धी अन्न तथा प्रत्यक्ष लवण खानेपर
प्राजापत्यव्रतको (पापकी) शुद्धिका उपाय बतलाया गया
है। निरन्तर ध्याननिष्ठ पुरुषके सभी पातक नष्ट हो जाते
हैं, इसलिये महेश्वरका ज्ञान प्रात्कर उनके ध्यानमें परायण
रहना चाहिये। जो ब्रह्म परम ज्योतिरूप, सभीका अधिष्ठान,
अक्षर अद्वितीय है तथा जो सभीके भीतर स्थित है,
परम ब्रह्म है, उसे महेश्वर जानना चाहिये। ये ही महेश्वर
देव, महादेव एवं अद्वितीय परम शिव हैं। ये ही अविनाशी,
अट्ठेत हैं और ये ही आदित्यके भीतर प्रतिष्ठित परम
(तत्त्व) हैं। आत्मयोग नामसे प्रसिद्ध, स्वप्रकाश, नित्य-
ज्ञान नामसे भी विख्यात, परम तत्त्वरूप अपने धाममें
सर्वाधिक पूजनीय-रूपसे ये महेश्वर प्रतिष्ठित हैं, इसीलिये
महादेव कहे जाते हैं॥ ३६--४० ॥
जो महादेवसे भिन्न किसी दूसरे देवको नहीं जानता
और इन्हींको अपनी आत्मा मानता है, वह परम पदको
प्रात होता है। जो अपनी आत्माको परमेश्वरसे भिन्न
मानते हैं, वे उस देवका दर्शन नहीं करते हैं, उनका
परिश्रम व्यर्थ होता है॥४१-४२॥
परम ब्रह्म एक ही हैं, इन्हें ही अव्यय तत्त्वके
रूपमें जानना चाहिये। ये अव्यय तत्त्व ब्रह्म ही देव
हैं, महादेव हैं, इन्हें जान लेनेपर बन्धन नहीं होता।
इसलिये यतिको संयतमन होकर (इन्हें प्राप्त करनेके
लिये) प्रयत्र करना चाहिये। ज्ञानयोगमें रत रहना
चाहिये, शान्त रहना चाहिये और महादेवके परायण
रहना चाहिये॥ ४३-४४ ॥
४०२ न कूर्मपुराण रू
एप व: कथितो विप्रा यतीनामा श्रम: शुभ: । हे विप्रो! यह आप लोगोंको संनन््यासियोंके कल्यागकारी
पितामहेन विभुना मुनीनां पूर्वमीरितम्॥ ४५॥ | आश्रम (संन्यासाश्रम)-के विषयमें बतलाया। पूर्वकालमें
पितामह विभुने मुनियोंसे इसे कहा था। ब्रह्माजीद्वारा
कहे गये यतिधर्मविषयक इस कल्याणकारी उत्तम
नापुत्रशिष्ययोगिभ्यो दद्यादिदमनुत्तमम्। ज्ञानको पुत्र, शिष्य तथा योगियोंके अतिरिक्त अन्य
ज्ञानं स्वयम्भुवा प्रोक्ते यतिधर्मा श्रयं शिवम्॥ ४६॥ | किसीको नहीं देना चाहिये॥४०-४६॥
इस प्रकार संन्यासियोंके नियमोंके इस विधानकों
इति यतिनियमानामेतदुक्त विधान बतलाया गया। यह पशुपति (शंकर)-को संतुष्ट करनेका
पशुपतिपरितोषे यद् भवेदेकहेतु: । एकमात्र उपाय है। जो अव्यग्रभावसे एकाग्रतापूर्वक इसका
न भवति पुनरेषामुद्धवो वा विनाश: नित्य आचरण करते हैं, उनका पुन: जन्म अथवा मरण
प्रणिहितमनसो ये नित्यमेवाचरन्ति ॥| ४७ ॥ | कुछ भी नहीं होता अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं॥४७॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे षपद्साहरत्रयां संहितायामुपरिविभागे एकोनर्त्रिशोडध्याय: ॥ २९ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें उनतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥२९॥
तीसवॉ अध्याय
प्रायश्षित्त-प्रकरणमें प्रायश्चित्तका स्वरूपनिरूपण, पाँच महापातकोंके
नाम तथा ब्रह्महत्याके प्रायश्चित्तका संक्षिप्त निरूपण
व्यास उवाच व्यासजीने कहा--इसके अनन्तर अब मैं सभी
अतः परं प्रवक्ष्यामि प्रायश्चित्तविधिं शुभम्। ब्राह्मणोंके कल्याणके लिये और दोषोंके विनाशके लिये
हिताय सर्वविप्राणां दोषाणामपनुत्तये॥ १॥ | शुभ प्रायश्वित्त-विधिका वर्णन करूँगा॥१॥
अकृत्वा विहितं कर्म कृत्वा निन्दितमेव च। विहित कर्मोंको न करने और निन्दित कर्मोंको
दोषमाप्नोति पुरुष: प्रायश्चित्तं विशोधनम्॥ २॥ | करनेसे पुरुष दोष (पाप)-का भागी होता है। इसको
निवृत्ति प्रायश्वित्त करनेसे होती है। ब्राह्मणको बिना
प्रायश्चित्त किये कभी भी नहीं रहना चाहिये। शान्त
एवं दिद्वान् ब्राह्मण जो कहें, उसे करना चाहिये।
बेदार्थवित्तम: शान्तो धर्मकामोउग्रिमान द्विज:। | 'दर्थज्ञानियोंमें श्रेष्ठ, शान्त, धर्मपालनको ही सर्व
एक अग्रिहोत्री ब्राह्मण अपने
स्यात् परो धर्मो यमेको5पि व्यवस्यति॥ ४॥ माननेवाला एक भी अग्रिहोत्री ब्राह्मण जो अप ह
कक मु आचरणमें लाता है, वही श्रेष्ठ धर्म होता है। वेदा
अनाहिताग्रयो विप्रास्त्रयो वेदार्थपारगा:। पारंगत, धर्मपरायण अनाहिताग्रि* तीन ब्राह्मण जो कहें,
यद बरूयुर्धर्मकामास्ते तज्ज्ेयं धर्मसाधनम्॥ ५॥ | उसे धर्मका साधन समझना चाहिये॥ २--५॥
अनेक धर्मशास्त्रोंके ज्ञाता, ऊहापोहमें दक्ष (शास्त्रीय
विभिन्न सिद्धान्तोंके आकलन तथा समन्वयमें कुशल)
प्रायश्चित्तमकृत्वा तु न तिष्ठेद् ब्राह्मण: क्वचित्।
यद ब्रूयुत्राहिणा: शान्ता विद्वांसस्तत्समाचरेत्॥ ३ ॥
अनेकधर्मशास्त्रज्ष ऊहापोहविशारदा: | तथा वेदाध्ययनशील सात ब्राह्मण धर्ममें प्रमाण कहे
वेदाध्ययनसम्पन्ना: समते परिकीर्तिता:॥ ६॥ | गये हैं॥६॥
» स्मार्त अग्निहोत्र करनेवाले भी अनाहिताग्नि होते हैं। श्रौत अग्रिहोत्र करनेवाले ही आहिताग्रि कहे जाते हैं।
* अध्याय ३० *
मीमांसाज्ञानतत्त्वज्ञा वेदान्तकुशला द्विजा: ।
एकविंशतिसंख्याता: प्रायश्चित्तं वदन्ति वै॥ ७ ॥
ब्रह्मता मद्यप: स्तेनो गुरुतल्पग एवं च।
महापातकिनस्त्वेते यश्चैते: सह संवसेत्॥ ८ ॥
संवत्सरं तु पतितैः संसर्ग कुरुते तु यः।
यानशबय्यासनेर्नित्यं जानन् वै पतितो भवेत्॥ ९ ॥
याजनं योनिसम्बन्ध॑ तथेवाध्यापनं द्विज:।
कृत्वा सद्यः पतेज्ज्ञानातू सह भोजनमेव च॥ १०॥
अविज्ञायाथ यो मोहात् कुर्यादध्यापन द्विज: ।
संवत्सेण पतति सहाध्ययनमेव च॥१९५१॥
ब्रह्महा द्वादशाब्दानि कुटिं कृत्वा बने वसेत्।
भेक्षमात्मविशुद्धयर्थ कृत्वा शवशिरोध्वजम्॥ १२॥
ब्राह्णावसथान् सर्वान् देवागाराणि वर्जयेत् ।
विनिन्दन् स्वयमात्मान ब्राह्मणं तं च संस्मरन्॥ १३॥
असंकल्पितयोग्यानि सप्तागाराणि संविशेत्।
विधूमे शनकैर्नित्यं व्यड्रारे भुक्तवज्जने॥ १४॥
एककाल चरेद् भेक्ल॑ दोष विख्यापयन् नृणाम्।
वन्यमूलफलैर्वापि वर्तयेद् थैर्यमाश्रित:॥ १५॥
कपालपाणि: खट्वाड़ी ब्रह्मचर्यपरायण: ।
पूर्णे तु द्वादशे वर्ष ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥ १६॥
अकामत:ः कृते पापे प्रायश्चित्तमिदं शुभम्।
कामतो मरणाच्छुद्धिज्ञेया नान््येन केनचित्॥ १७॥
४०३
मीमांसाज्ञानके तत्त्वज्ञ (वेदवाक्यार्थ-विचार एवं
श्रौत-स्मार्त-कर्मकाण्डके रहस्यको जाननेवाले) तथा
वेदान्तके ज्ञाममें कुशल (पारमार्थिक तत्त्व अद्दैतके
रहस्यवेत्ता) संख्यामें इक्कौस ब्राह्मण प्रायश्चवित्तका विधान
कर सकते हैं॥७॥
ब्रह्मघाती, मद्यपायी, चोर, गुरुतल्पगामी तथा इनके
साथ निवास करनेवाले--(ये सभी) महापातकी होते
हैं। जो एक वर्षपर्यन्त नित्य सब कुछ जानते हुए
भी पतितोंके साथ यान (सवारी), शय्या तथा आसन-
सम्बन्धी संसर्ग करता है, वह पतित हो जाता है।
जानते हुए भी (पतितोंका) यज्ञ कराने, अध्यापन
करने, उनके साथ योनि अर्थात् विवाह आदिका सम्बन्ध
रखने और भोजन करनेसे द्विज शीघ्र ही पतित हो
जाता हैं॥८--१०॥
जो द्विज अज्ञानमें मोहवश इनके साथ अध्ययन
अथवा अध्यापन करता है, वह एक वर्षमें पतित
हो जाता है। आत्मशुद्धिके लिये ब्रह्मघातीको बारह
वर्षोतक कुटी बनाकर वनमें रहना चाहिये और शवके
सिरको ध्वजाके समान धारणकर भिक्षा माँगनी
चाहिये। (ब्रह्मघातीको) ब्राह्मणोंके निवासस्थानों तथा
देवमन्दिरोंमें नहीं जाना चाहिये और स्वयं अपनी
आत्माकी निन्दा करते हुए तथा जिस ब्राह्मणको मारा
है, उसका स्मरण करते हुए पहलेसे असंकल्पित
(अनिश्चित), धूएँसे रहित, शान्त अग्निवाले तथा जहाँ
लोगोंने भोजन कर लिया है--ऐसे सात घरोंसे नित्य
धीरे-धीरे भिक्षा माँगनी चाहिये। उसे मनुष्योंको अपना
दोष (पाप) बताते हुए एक समय भिक्षा माँगनी
चाहिये अथवा धेर्य रखते हुए वन्य मूल-फलोंद्वारा
निर्वाह करना चाहिये॥ ११--१५॥
हाथमें कपाल लिये हुए और खट्वाड़ (चारपाईके
टुकड़ेको) धारणकर ब्रह्मचर्यत्रतका पालन करते हुए
बारह वर्ष व्यतीत हो जानेपर ब्रह्महत्या दूर होती है।
अनिच्छापूर्वक किये गये पापका यह प्रायश्चित्त है, इससे
कल्याण होता है, किंतु इच्छापूर्वक किये गये पापसे
शुद्धि अनेक प्रायश्नित्तक बाद मृत्युके अनन्तर ही
समझनी चाहिये। इसके अतिरिक्त अन्य किसी उपायसे
नहीं ॥ १६-१७ ॥
४०४
* कूर्मपुराण *
कुर्यादनशनं वाथ भूगो: पतनमेव वा।
ज्वलन्तं वा विशेदग्निं जल॑ वा प्रविशेत् स््वयम्॥ १८॥
ब्राह्मणार्थ गवार्थ वा सम्यक् प्राणान् परित्यजेत्
ब्रह्महत्यापनोदार्थमन्तरा वा मृतस्य तु॥ १९॥
दीर्घामयान्वितं विप्र॑ कृत्वानामयमेव तु।
दत्त्वा चान्न॑ स दुर्भिक्षे ब्रह्महत्यां व्यपोहति ॥ २० ॥
अश्वमेधावभूथके स्नात्वा वा शुध्यते द्विज: ।
सर्वस्वं वा वेदविदे ब्राह्मणाय प्रदाय तु॥ २१॥
सरस्वत्यास्त्वररकूणया संगमे लोकविश्रुते।
शुध्येत् त्रिषवणर्त्रानात् त्रिरात्रोपोषितो द्विज: ॥ २२॥
गत्वा रामेश्वरं पुण्यं स्नात्वा चेव महोदधौ।
ब्रह्मचर्यादिभिर्युक्तो दृष्ठा रुद्रं विमुच्यते॥ २३॥
कपालमोचनं नाम तीर्थ देवस्य शूलिन:ः।
स्नात्वाभ्यर्च्य पित॒न् भक्त्या ब्रह्महत्यां व्यपोहति ॥ २४॥
यत्र देवादिदेवेन भेरवेणामितौजसा।
कपालं स्थापितं पूर्व ब्रह्मण: परमेष्ठटिन:॥| २५॥
समभ्यर्च्य महादेवं तत्र भेरवरूपिणम्।
अथवा ( ब्रह्मघातीको ) स्वयं अनशन (व्रत) करना
चाहिये या भगु-पतन करे (उच्च स्थानसे गिरे) अथवा
प्रजलित अग्नि या जलमें प्रविष्ट हो जाय। दूसरे
प्रकारसे अर्थात् बुद्धिपूर्वक ब्राह्मणहत्या करनेपर ब्रह्म-
हत्या दूर करनेके लिये, ब्राह्मण अथवा गौके निमित्त
भलीभाँति अपने प्राणोंका परित्याग कर देना चाहिये।
दीर्घ रोगसे ग्रस्त ब्राह्मणको रोगसे मुक्त करने तथा
दुर्भिक्षि समय अन्न प्रदान करनेसे ब्रह्महत्या दूर
होती है॥ १८--२० ॥
अश्वमेध-यज्ञकी समाप्तिपर होनेवाले अवभृथ-स्रानसे
अथवा वेदज्ञ ब्राह्मणको अपना सर्वस्व दान कर देनेसे
द्विज (ब्रह्महत्याके पापसे) मुक्त हो जाता है। सरस्वती
एवं अरुणा नदीके लोकप्रसिद्ध संगममें तीनों संध्याओंमें
स्नान करने और तीन रात्रि उपवास करनेसे द्विज
(ब्रह्महत्याजनित पापसे) शुद्ध हो जाता है॥ २१-२२॥
ब्रह्मचर्य आदिसे युक्त द्विज पवित्र (तीर्थ) रामेश्वर
जाकर वहाँ सागरमें स्नान करके शंकरका दर्शन करके
( ब्रह्महत्याके पापसे) मुक्त हो जाता है। त्रिशूलधारी
भगवान् शंकरके कपालमोचन नामक तीर्थमें स्नान
करके भक्तिपूर्वक पितरोंकी पूजा करनेसे (ब्रह्मघाती)
ब्रह्महत्याके पापसे दूर हो जाता है। पूर्वकालमें वहाँ
(कपालमोचन तीर्थमें) अमित तेजस्वी देवादिदेव भेरवने
परमेष्ठी ब्रह्मैाके कपालको स्थापित किया। वहाँ ख्रान
करके भैरवरूपी महादेवकी भलीभाँति अर्चना करके
एवं पितरोंका तर्पण करके ब्रह्महत्या (-के पाप)-
तर्पयित्वा पितृन् स्नात्वा मुच्यते ब्रह्महत्यया॥ २६॥ | से मुक्ति हो जाती है॥२३-२६॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पदट्साहस्रथां संहितायामुपरिविभागे त्रिंशोउध्यायः ॥ ३० ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३०॥
* अध्याय ३१ +
४०९
एकतीसवाँ अध्याय
प्रायश्षित्त-प्रकरणमें कपालमोचन-तीर्थका आख्यान
ऋषपय ऊचु:
कथं देवेन रुद्रेण शंकरेणामितौजसा।
कपालं ब्रह्मण: पूर्व स्थापितं देहजं भुवि॥
सूत उवाच
श्रुणुध्वमृषय: पुण्यां कथां पापप्रणाशिनीम् ।
माहात्म्यं देवदेवस्य महादेवस्य धीमत:॥ २ ॥
पुरा पितामहं देवं मेरुश्वुद्धे महर्षय:।
प्रोचु: प्रणम्य लोकादिं किमेकं तत्त्वमव्ययम् ॥
१
स मायया महेशस्य मोहितो लोकसम्भव: |
अविज्ञाय परं भावं स्वात्मानं प्राह धर्षिणम्॥ ४ ॥
अहं धाता जगद्योनि: स्वयम्भूरेक ईश्वर: |
अनादिमत्परं ब्रह्म मामभ्यर्च्य विमुच्यते॥ ५ ॥
अहं हि सर्वदेवानां प्रवर्तकनिवर्तक: ।
न विद्यते चाभ्यधिको मत्तो लोकेषु कश्चन॥
तस्येव॑ मन्यमानस्य जज्ञे नारायणांशज:।
प्रोवाच प्रहसन् वाक्य रोषताम्रविलोचन:॥ ७ ॥
कि कारणमिदं ब्रह्मन् वर्तते तव साम्प्रतम् ।
अज्ञानयोगयुक्तस्थ न॒त्वेतदुचितं तव॥ ८ ॥
अहं धाता हि लोकानां यज्ञो नारायण: प्रभु: ।
न मामृते5स्थ जगतो जीवन सर्वदा क्वचित्॥ ९ ॥
अहमेव परं ज्योतिररमेव परा गतिः।
मत्प्रेरतित भवता सृष्ट भुवनमण्डलम्॥ १०॥
एवं विवदतोर्मोहात् परस्परजयैषिणो: |
आजम्मुर्यत्र तौ देवो वेदाश्चवत्वार एब हि॥ ११॥
अन्वीष्ष्य देवं ब्रह्माणं यज्ञात्मानं च संस्थितम्।
प्रोचु: संविग्नहदया याथात्म्यं परमेष्ठिन:॥ १२॥
ऋषियोंने पूछा--अमित तेजस्वी देव शंकर रुद्रने
पूर्वकालमें किस प्रकार ब्रह्माजीके शरीरसे उत्पन्न
कपालको पृथ्वीपर स्थापित किया ?॥ १॥
सूतजी बोले--ऋषियो! आप लोग पापको नष्ट
करनेवाली इस पुण्य कथा एवं धीमान् देवाधिदेव
महादेवके माहात्म्यको सुनें--॥ २॥
प्राचीन कालमें मेरुश्रृंगमपर लोकोंके मूल कारण
देव पितामहको प्रणाम कर महर्षियोंने उनसे पूछा--
अव्यय अद्वितीय तत्त्व क्या है? महेश्वरकी मायासे
मोहित, लोकोंको उत्पन्न करनेवाले उन बत्रह्माने
(महर्षियोंके ) परम भावको न जानते हुए अभिमानपूर्वक
स्वयंको ही (अव्यय) तत्त्व बतलाया (और
कहा--) मैं ही जगत्का मूल कारण, धाता, स्वयम्भू
तथा अद्वितीय अनादि परम ब्रह्म ईश्वर हूँ। मेरी आराधना
करनेसे मुक्ति हो जाती है। में ही सभी देवोंका
प्रवर्तक तथा निवर्तक हूँ। लोकोंमें मुझसे महान् और
कोई नहीं है॥३--६॥
(पितामह अहंभावपूर्वक) ऐसा कह ही रहे थे
कि नारायणके अंशसे उत्पन्न यज्ञभगवानने क्रोधसे
आरक्तनेत्र होकर परिहास करते हुए यह वाक्य
कहा--ब्रह्मन्! सम्प्रति आपके ऐसे व्यवहारका क्या
कारण है? आप अज्ञानसे युक्त हैं, आपके लिये यह
उचित नहीं है। मैं लोकोंका धाता यज्ञरूप नारायण
प्रभु हूँ, मेरे बिना इस संसारमें जीवन कभी भी नहीं
रह सकता। मैं ही परम ज्योति हूँ, मैं ही परम गति
हूँ, मेरे द्वारा प्रेरणा प्रातक्त आपने इस भुवनमण्डलकी
रचना की है॥७--१०॥
परस्पर विजयके अभिलाषी उन दोनोंके मोहपूर्वक
इस प्रकार विवाद करते समय ही जहाँ वे दोनों देव
(पितामह एवं यज्ञभगवान्) थे, वहीं चारों वेद (मूर्तिमान्
होकर) आ गये। देव ब्रह्मा तथा यज्ञात्मा विष्णुको
स्थित देखकर संविग्रहदय होकर उन्होंने ब्रह्मासे
यथार्थ तत्व कहा--॥ ११-१२॥
४०६
ऋग्वेद उवाच
यस्यान्तःस्थानि भूतानि यस्मात् सर्व प्रवर्तते।
यदाहुस्तत्परं तत्त्वं स देव: स्यान्महेश्वरः ॥ १३॥
यजुर्वेद उवाच
यो यज्ैरखिलैरीशो योगेन च समर्च्यते।
यमाहुरीश्वरं देवं स देव: स्थात् पिनाकधृक् ॥ १४॥
सामवेद उवाच
येनेदं भ्राम्यते चक्रं यदाकाशान्तरं शिवम्।
योगिभिर्विद्यते तत्त्व महादेव: स शंकर: ॥ १५॥
अथर्ववेद उवाच
यं प्रपश्यन्ति योगेशं यजन्तो यतय: परम्।
महेशं पुरुषं रुद्रं स देवों भगवान् भव:॥ १६॥
एवं स भगवान् ब्रह्मा वेदानामीरितं शुभम्।
श्रुत्वाह प्रहसन् वाक्य विश्वात्मापि विमोहित:॥ १७॥
कर्थ तत्परमं ब्रह्म सर्वसंगविवर्जितम्।
रमते भार्यया सार्थ प्रमथेश्चातिगर्विति:॥ १८ ॥
इतीरितेडथ भगवान् प्रणवात्मा सनातनः।
अमूर्तों मूर्तिमान् भूत्वा वच: प्राह पितामहम्॥ १९॥
प्रणव उवाच
न होष भगवान् पत्या स्वात्मनो व्यतिरिक्तया।
कदाचिद् रमते रुद्रस्तादृशों हि महेश्वर:॥ २०॥
अय॑ स भगवानीश: स्वयंज्योति: सनातन: ।
स्वानन्द्भूता कथिता देवी नागन्तुका शिवा ॥ २१॥
इत्येबमुक्तेतपि तदा यज्ञमूर्तरजस्य च।
नाज्ञानमगमन्नाशमी श्ररस्यैव मायया॥ २२॥
तदन्तरे महाज्योतिर्विरिज्लञो विश्वभावन:।
प्रापश्यददभुतं दिव्यं पूरयन् गगनान्तरम्॥ २३॥
तम्मध्यसंस्थं विमल॑ मण्डल तेजसोज्ज्वलम् ।
व्योममध्यगतं दिव्यं प्रादुरासीद् द्विजोत्तमा: ॥ २४॥
* कूर्मपुराण *
( मूर्तिमान्ू ) ऋग्वेदने कहा--जिसके भीतर सभी
प्राणी प्रतिष्ठित हैं, जिससे सभीकी प्रवृत्ति होती है और
जिसे परम तत्त्व कहा गया है, उन्हें ही महेश्वर देव
समझना चाहिये॥ १३॥
यजुर्वेदने कहा--जो ईश सभी यज्ञों तथा योगके
द्वारा अर्चित होते हैं और जिन देवको ईश्वर कहा गया
है, वे देव ही पिनाक धारण करनेवाले (शंकर) हैं॥ १४॥
सामवेदने कहा--जिसके द्वारा अनन्त ब्रह्माण्डरूपी
चक्र प्रवर्तित है, जो (निरतिशय अवकाशस्वरूप) आकाशके
मध्य प्रतिष्ठित है, शिवस्वरूप है, योगियोंके द्वारा वेद्य
है, वह परम तत्त्व ही शंकर हैं, महादेव हैं॥१५॥
अथर्ववेदने कहा--यति लोग प्रयत्रपूर्वक जिन परम
योगेश्वर महेशका दर्शन करते हैं, वे पुरुष रुद्र ही
देव भगवान् भव हैं॥१६॥
इस प्रकार विश्वात्मा होनेपर भी वे भगवान् ब्रह्मा
मोहित होनेके कारण वेदोंके द्वारा बनाये गये कल्याणकारी
तत्त्वको सुननेपर भी हँसते हुए कहने लगे-जब
वे परम ब्रह्म महेश सभी आसक्तियोंसे रहित हैं
तो कैसे अपनी भायके साथ रमण करते हैं तथा
अतिगर्वित अपने प्रमथगणोंके साथ सुख-सुविधाओंका
भोग करते हैं ?॥ १७-१८॥
ऐसा कहे जानेपर सनातन, अमूर्त भगवान् प्रणवने
मूर्तिमानू होकर पितामहसे कहा--॥ १९॥
प्रणव बोले--ये वे महेश्वर हैं, जो स्वात्माराम
हैं। ये अपनी आत्मामें ही रमण करते हैं। इनकी आत्मा
ही इनकी पत्नी हैं। यही वे भगवान् ईश स्ववयंज्योति,
सनातन हैं और देवी शिवा आत्मानन्द-स्वरूपिणी कही
गयी हैं, वे आगन्तुक (देवी उन भगवानूसे पृथक्)
नहीं हैं॥२०-२१॥
इस प्रकार कहे जानेपर भी उस समय ईश्वरकी
ही मायासे (मोहित) यज्ञमूर्ति भगवान् तथा ब्रह्माका
अज्ञान नष्ट नहीं हुआ। इसी बीच विश्वभावन ब्रह्मने
आकाशमध्यको व्याप्त करते हुए अद्भुत एवं दिव्य
महाज्योतिका दर्शन किया। द्विजोत्तमो! उस (महाज्योति)-
के मध्य स्थित तेजसे उज्जल दिव्य निर्मल मण्डल
आकाशके मध्यमें प्रकट हुआ॥ २२--२४॥
* अध्याय ३९१ *
४०७
स दृष्ठा बदनं दिव्यं मूर्श्चि लोकपितामह:ः ।
तेन तन्मण्डलं घोरमालोकयदनिन्दितम्॥ २५॥
प्रजन्चालातिकोपेन बह्रह्मण: पञ्ञमं शिरः।
क्षणाददृश्यत महान् पुरुषो नीललोहितः ॥ २६॥
त्रिशूलपिड्रलो देवो नागयज्ञोपवीतवान्।
त॑ं प्राह भगवान् ब्रह्मा शंकरं नीललोहितम्॥ २७॥
जानामि भवत: पूर्व ललाटादेव शंकर।
प्रादुर्भीाव॑ महेशान मामेव शरणं ब्रज॥ २८॥
श्रुत्चा सगर्ववचनं पद्मायोनेरथेश्वरः ।
प्राहिणोत् पुरुष काल भेरव॑ लोकदाहकम्॥ २९॥
स कृत्वा सुमहद् युद्ध ब्रह्मणा कालभेरव: ।
चकर्त तस्य बदन विरिज्लस्याथ पञ्ञमम्॥ ३०॥
निकृत्तवदनो देवो ब्रह्मा देवेन शम्भुना।
ममार चेशयोगेन जीवितं प्राप विश्वसृक् ॥ ३१॥
अथानुपश्यद् गिरिशं मण्डलान्तरसंस्थितम्।
समासीनं महादेव्या महादेव॑ सनातनम्॥ ३२॥
भुजड्ूराजवलयं चन्द्रावववभूषणम्।
कोटिसूर्यप्रतीकाशं जटाजूटविराजितम्॥ ३३॥
शार्दूलचर्मवसनं दिव्यमालासमन्वितम्।
त्रिशूलपाणिं दुष्प्रेक्ष्यं योगिनं भूतिभूषणम्॥ ३४॥
यमन्तरा योगनिष्ठा: प्रपश्यन्ति हृदीश्वरम्।
तमादिदेवं ब्रह्माणं॑ महादेवं॑ ददर्श ह॥ ३५॥
यस्य सा परमा देवी शक्तिराकाशसंस्थिता।
सो5नन्तैश्वर्ययोगात्मा महेशो दृश्यते किल॥ ३६॥
यस्याशेषजगद् बीज॑ विलयं याति मोहनम्।
सकृत्प्रणाममात्रेण स रुद्र: खलु दृश्यते॥ ३७॥
यो5थ नाचारनिरतान् स्वभक्तानेव केवलम्।
विमोचयति लोकानां नायको दृश्यते किल॥ ३८ ॥
वह अनिन्दित मण्डल दिव्य था और तेजोमय होनेके
कारण घोर (भीषण) था तथा मूर्धापर (सबसे ऊपर)
स्थित था। उसे देखकर ब्रह्माने अपने मुखको, सबसे ऊपर
विद्यमान उस मण्डलके आलोकसे आलोकित किया;॥ २५ ॥
पर उसी समय अकज्ञानवश अति कुपित ब्रह्माके
ही अति कोपसे उन (ब्रह्मा)-का पाँचवाँ सिर जलने
लगा। उसी क्षण भगवान् नीललोहित रुद्र (महेश्वरके
गणके देवविशेष) प्रकट हुए। वे रुद्रदेव त्रिशूल धारण
किये हुए थे, पिड्रनलवर्णके थे तथा सर्पका यज्ञोपवीत
धारण किये हुए थे। उन नीललोहित शंकर रुद्रसे
भगवान् ब्रह्माने कहा--हे महेशान! आपका मेरे ही
ललाटसे सर्वप्रथम प्रादुर्भाव हुआ था, यह मैं जानता
हूँ। आप मेरी शरणमें आयें॥ २६-२८ ॥
तदनन्तर पद्मयोनिके गर्वयुक्त वचनको सुनकर ईश्वर
(नीललोहित रुद्र)-ने लोकको जलानेवाले पुरुष कालभैरवको
भेजा। उस कालभेरवने ब्रह्माके साथ महान् युद्ध किया
और उन ब्रह्माके पाँचवें मुखको काटडाला॥ २९-३० ॥
देव शम्भुकी प्रेरणासे कालभेरदवद्वारा ब्रह्माका मस्तक
काट दिये जानेपर उन देव ब्रह्माकी मृत्यु हो गयी, किंतु
ईश्वरके योगसे पुन: वे विश्वर्रष्टा ( ब्रह्मा) जीवित हो गये।
तदनन्तर (ब्रह्माने) उस मण्डलके मध्यमें स्थित सनातन
महादेव (गिरिश) महेश्वरको महादेवीके साथ विराजमान
देखा। वे सर्पराजका कड्ढूण पहने थे, चन्द्रमाके अवयवको
(द्वितीयाके चन्द्रमाको) भूषणरूपमें धारण किये थे।
करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशमान तथा जटाजूट धारण
किये हुए थे। उन्होंने व्याप्रचर्मका वस्त्र धारण किया था,
दिव्य मालाओंसे समन्वित थे, हाथमें त्रिशूल धारण किये
थे, कठिनतासे देखे जा सकने योग्य तथा भस्मसे सुशोभित
ऐसे योगी (शंकर)-को उन्होंने देखा। योगनिष्ठ अपने
हृदयके मध्य जिन ईश्वरका दर्शन करते हैं, उन ब्रह्मस्वरूप
आदिदेव महादेवको (ब्रह्माने) देखा॥ ३१--३५॥
आकाशमें स्थित वे परमा देवी जिनकी शक्ति हैं,
वे अनन्त ऐश्वर्यसम्पन्न योगात्मा महेश्वर मुझे दिखलायी
पड़ रहे हैं। जिन्हें एक बार प्रणाम मात्र कर लेनेसे
ही प्रणाम करनेवालेके सम्पूर्ण मोहको उत्पन्न करनेवाला
संसारका बीज विलीन हो जाता है, वे रुद्र दिखलायी
पड़ रहे हैं। वे लोकोंके नायक दिखलायी पड़ रहे
हैं, जो उन लोगोंको भी मुक्त कर देते हैं जो आचारयुक्त
न होनेपर भी केवल उनकी भक्ति करते हैं॥३६--३८ ॥
४०८
यस्य वेदविद: शान्ता निद्ठन्द्रा त्रह्माचारिण: ।
विदन्ति विमल॑ रूप॑ स शम्भुर्देश्यते किल॥ ३९॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा ऋषयो ब्रह्मवादिन:।
अर्चयन्ति सदा लिड्ं विश्वेश: खलु दृश्यते ॥ ४० ॥
यस्याशेषजगद् बीज॑ विलयं याति मोहनम्।
सकृत्प्रणाममात्रेण स रुद्र: खलु दृश्यते॥ ४१॥
विद्यासहायो भगवान् यस्यासौ मण्डलान्तरम्।
हिरण्यगर्भपुत्रोड$सावी श्ररो दृश्यते किल॥ ४२॥
यस्याशेषजगत्सूतिरविज्ञानतनुरी श्वरी ।
न मुझ्ञति सदा पाए्व शंकरोडसावदृश्यत॥ ४३॥
पुष्पं वा यदि वा पत्र॑ यत्पादयुगले जलम्।
दत्त्वा तरति संसारं रुद्रोडइ्सौ दृश्यते किल॥ ४४ ॥
तत्संनिधाने सकलं नियच्छति सनातनः।
काल: किल स योगात्मा कालकालो हि दृश्यते ॥ ४५ ॥
जीवन सर्वलोकानां त्रिलोकस्यैव भूषणम्।
सोम: स दृश्यते देव: सोमो यस्य विभूषणम्॥ ४६ ॥
देव्या सह सदा साक्षाद यस्य योग: स्वभावतः: ।
गीयते परमा मुक्ति: स योगी दृश्यते किल॥ ४७॥
योगिनो योगतत्त्वज्ञा वियोगाभिमुखाउनिशम्।
योगं ध्यायन्ति देव्याइसौ स योगी दृश्यते किल॥ ४८ ॥
सो<नुवीक्ष्य महादेवं॑ महादेव्या सनातनम्।
वरासने समासीनमवाप परमां स्मृतिम्॥ ४९ ॥
लब्ध्वा माहे श्वरीं दिव्यां संस्मृतिं भगवानज: ।
तोषयामास वरदं सोम॑ सोमविभूषणम्॥ ५०॥
ब्रह्मोवाच
नमो देवाय महते महादेव्ये नमो नमः ।
नमः शिवाय शान्ताय शिवाये शान्तये नम: ॥ ५१॥
* कूर्मपुराण *
वेदोंके ज्ञाता, शान्त तथा ट्वन्द्ररहित ब्रह्मचारी जिनके
विशुद्ध स्वरूपको जानते हैं, वे शम्भु दिखलायी पड़
रहे हैं। ब्रह्मा आदि देवता तथा ब्रह्मवादी ऋषिजन
जिनके लिड्रकी सदा आराधना करते हैं, वे विश्वेश्वर
दिखलायी पड़ रहे हैं ॥ ३९-४० ॥
जिन्हें एक बार प्रणाममात्र कर लेनेसे ही प्रणाम
करनेवालेके सम्पूर्ण मोहको उत्पन्न करनेवाला संसारका
बीज विलीन हो जाता है, वे रुद्र दिखलायी पड़ रहे
हैं। जिनके मण्डलके मध्य सरस्वतीके साथ ये भगवान्
ब्रह्मा स्थित हैं, हिरण्यगर्भके पुत्र वे ईश्वर दिखलायी
पड़ रहे हैं। सम्पूर्ण संसारको उत्पन्न करनेवाली विज्ञान-
तनुरूपी (विज्ञानमयी) ईश्वरी (शक्ति) जिनके पार्श्वका
कभी त्याग नहीं करती, वे शंकर दिखलायी पड़ रहे
हैं। जिनके चरणकमलोंमें पत्र, पुष्प अथवा जल अर्पण
करनेसे (प्राणी) संसारसे पार हो जाते हैं, वे रुद्र
दिखलायी पड़ रहे हैं। जिनकी संनिधिमात्रसे (अमोघशक्ति
प्रातकर ) सनातन (शाश्रतकाल) सब कुछ प्राणिमात्रको
प्रदान करता है, वे कालके भी काल योगात्मा महे श्वर
दृष्टिगोचर हो रहे हैं॥४१--४५॥
जो सम्पूर्ण लोकोंके जीवन हैं, तीनों लोकोंके भूषण
हैं तथा चन्द्रमा जिनका आभूषण है, वे देव सोम
(उमाके साथ महेश्वर) दिखलायी पड़ रहे हैं। देवी
उमा (पार्वती)-के साथ जिनका स्वभावसे ही नित्य
साक्षात् संयोग है एवं जिनके अनुग्रहसे परम मुक्तिकी
प्राप्ति शास्त्रोंमें बतायी जाती है, वे योगी महेश्वर
दिखलायी पड़ रहे हैं। वैराग्यकी ओर उन्मुख, योगके
तत्त्वको जाननेवाले योगीजन देवीके साथ निरन्तर
जिनके योगका ध्यान करते हैं, वे ही योगी (शंकर)
दिखलायी पड़ रहे हैं॥४६--४८ ॥
महादेवीके साथ सनातन महादेवको श्रेष्ठ आसनपर
विराजमान देखकर न्रह्माको परम स्मृति प्राप्त हुई। भगवान्
ब्रह्माने दिव्य माहेश्वरी स्मृतिको प्राप्तकर चन्द्रमाको आभूषणके
रूपमें धारण करनेवाले तथा वर प्रदान करनेवाले सोम
(शंकर)-को स्तुतिद्वारा प्रसन्न किया॥ ४९-५० ॥
ब्रह्माने कहा--महान् देव (महादेव )-को नमस्कार
है। महादेवीको बार-बार नमस्कार है। शिवको, शान्तको
नमस्कार है, शिवाको, शान्तिको नमस्कार है॥५१॥
* अध्याय ३९ *
४०९
ओं नमो ब्रह्मणे तुभ्यं विद्यायै ते नमो नमः ।
नमो मूलप्रकृतये महेशाय नमो नमः॥ ५२॥
नमो विज्ञानदेहाय चिन्तायै ते नमो नमः ।
नमस्ते कालकालाय ईश्वरायै नमो नम: ॥ ५३ ॥
नमो नमोञस्तु रुद्राय रुद्राण्यै ते नमो नम: ।
नमो नमस्ते कामाय मायाये च नमो नम: ॥ ५४ ॥
नियन्त्रे सर्वकार्याणां क्षोेभिकायै नमो नमः ।
नमोस्तु ते प्रकृतये नमो नारायणाय च॥ ५५॥
योगदायै नमस्तुभ्यं योगिनां गुरवे नमः ।
नमः संसारनाशाय संसारोत्पत्तये नमः॥ ५६॥
नित्यानन्दाय विभवे नमोओस्त्वानन्दमूर्तये।
नमः कार्यविहीनाय विश्वप्रकृतये नमः॥ ५७॥
ओकारमूर्तये तुभ्यं तदन्तःसंस्थिताय च।
नमस्ते व्योमसंस्थाय व्योमशकत्ये नमो नमः ॥ ५८ ॥
इति सोमाष्टकेनेशं प्रणनाम पितामह:ः।
पपात दण्डवद् भूमौ गृणन् वै शतरुद्रियम्॥ ५९॥
अथ देवो महादेव: प्रणतार्तिहरो हरः।
प्रोवाचोत्थाप्य हस्ताभ्यां प्रीतो5स्मि तव साम्प्रमम्॥। ६० ॥
दत्त्वासाँ परम योगमैश्वर्यमतुल॑ महत्।
प्रोवाचाग्रे स्थितं देव॑ नीललोहितमीश्वरम्॥ ६९ ॥
एष ब्रह्मास्य जगतः सम्पूज्य: प्रथम: सुतः ।
आत्मनो रक्षणीयस्ते गुरुज्येप्ठ; पिता तव॥ ६२॥
* व्योम ब्रह्मका भी नाम है।
ओंकार ब्रह्मरूप आपको नमस्कार है, विद्यारूप
आपको नमस्कार है। मूलप्रकृतिको नमस्कार है, महेश्वरको
बार-बार नमस्कार है। विज्ञानस्वरूप देहवाले (महेश्वर)-
को नमस्कार है, चिन्तन (विचारशक्ति-चितिस्वरूप)
आप (देवी)-को नमस्कार है। कालके भी काल
आपको नमस्कार है, ईश्वरीाको बार-बार नमस्कार है।
रुद्रके लिये बार-बार नमस्कार है, रुद्राणी आपको बार-
बार नमस्कार है। काम (समस्त प्रपञ्ञको मोहित
करनेवाले) आपको बार-बार नमस्कार है और मायाको
बार-बार नमस्कार है। सभी कार्योंके नियामक (महेश्वर)
और क्षोभ उत्पन्न करनेवाली (सृष्टिके लिये कूटस्थ
परब्रह्ममें उत्कट इच्छा जाग्रत् करनेवाली (उमा)-को
बारंबार नमस्कार है। प्रकृतिरूप आप (देवी)-को तथा
नारायण (महेश्वर)-को नमस्कार है। योग प्रदान करनेवाली
आपको नमस्कार है और योगियोंके गुरु (शंकर)-
को नमस्कार है। संसारका विनाश (प्रलय) करनेवाले
(महेथ्वर)-को नमस्कार है तथा संसारकी उत्पत्ति
करनेवाली (देवी)-को नमस्कार है। नित्यानन्द, विभु
तथा आनन्दमूर्तिको नमस्कार है। कार्यविहीन (विकाररहित)-
को नमस्कार है, विश्वप्रकृति (देवी)-को नमस्कार है।
ओंकारमूर्ति तथा उसके भीतर प्रतिष्ठित रहनेवाले
आपको नमस्कार है। आकाशमें स्थित व्योमशक्ति*
(ब्रह्मशक्ति देवी )-को बार-बार नमस्कार है॥ ५२--५८ ॥
इस प्रकार पितामह ब्रह्माने इस सोमाष्टक (नामक
स्तुति)-से ईशको प्रणाम किया और शतरुद्रियका पाठ
करते हुए उन्होंने दण्डवत् भूमिपर गिरकर साष्टाड्गर
प्रणिपात किया। तदनन्तर प्रणतजनोंके कष्टको हरनेवाले
देव, हर, महादेवने दोनों हाथोंसे उन्हें (ब्रह्माको)
उठाया और कहा--इस समय मैं आपके ऊपर प्रसन्न
हूँ॥ ५९-६० ॥
अनन्तर उन्हें (ब्रह्माको) परम योग और अतुल
महान् ऐश्वर्य प्रदानकर महादेवने सम्मुख स्थित ईश्वर
नीललोहित देवसे कहा--ये ब्रह्मा मेरे प्रथम पुत्र हैं,
इस संसारके पूज्यके रूपमें प्रसिद्ध हैं। गुरु, ज्येष्ठ
एवं आपके पिता हैं, आपको इनकी रक्षा करनी
चाहिये॥ ६१-६२ ॥
४२०
अय॑ पुराणपुरुषो न हन्तव्यस्त्वयानघ।
स्वयोगैश्चवर्यमाहात्म्यान्मामेव शरणं गतः॥ ६३॥
अयं च यज्ञों भगवान् सगर्वो' भवतानघ।
शासितव्यो विरिश्ञलस्य धारणीयं शिरस्त्वया॥ ६४ ॥।
ब्रह्महत्यापनोदार्थ व्रतं लोकाय दर्शयन्।
चरस्व सततं भिक्षां संस्थापय सुरद्धविजान्॥ ६५॥
इत्येतदुकत्वा वचन भगवान् परमेश्वर: ।
स्थान स्वाभाविक दिव्यं ययौ तत्परमं पदम्॥ ६६ ॥।
ततः स भगवानीश: कपदी नीललोहितः ।
ग्राहयामास बदन ब्रह्मण: कालभेरवम्॥ ६७॥
चर त्वं पापनाशार्थ व्रतं लोकहितावहम्।
कपालहस्तो भगवान् भिक्षां गृह्नातु सर्वतः ॥ ६८ ॥
उक्त्वैवं प्राहिणोत् कन्यां ब्रह्महत्यामिति श्रुताम्।
दंष्ट्राकरालवदनां ज्वालामालाविभूषणाम्॥ ६९॥
यावद् वाराणसी दिव्यां पुरीमेष गमिष्यति।
तावत् त्वं भीषणे कालमनुगच्छ त्रिलोचनम्॥ ७०॥
एवमाभाष्य कालागिनं प्राह देवो महेश्वर: ।
अटस्व निखिल लोकं भिक्षार्थी मन्नियोगतः ॥ ७१॥
यदा द्रक्ष्यसि देवेशं नारायणमनामयम्।
तदासौ वक्ष्यति स्पष्टमुपायं पापशोधनम्॥ ७२॥
स देवदेवतावाक्यमाकर्ण्य भगवान् हरः।
कपालपाणिद्विश्वात्मा चचार भुवनत्रयम्॥ ७३॥
आस्थाय विकृतं वेषं दीप्यमानं स्वतेजसा।
श्रीमत् पवित्रमतुलं जटाजूटविराजितम्॥ ७४॥
कोटिसूर्यप्रतीकाशै: प्रमथैश्नातिगर्विति: ।
भाति कालाग्निनयनो महादेव: समावृतः ॥ ७५॥
पीत्वा तदमृतं दिव्यमानन्दं॑ परमेष्टिन: ।
लीलाविलासबहुलो लोकानागच्छती श्वरः ॥ ७६॥
* कूर्मपुराण *
अनघ ! आपको इन पुराणपुरुषकी हत्या नहीं करनी
चाहिये। ये अपने योगैश्वर्यके माहात्म्यसे मेरी ही शरणमें
आये हैं। पुनः: महेश्वरने नीललोहित रुद्रको सम्बोधित
करते हुए नारायणके अंशसे उत्पन्न यज्ञभगवानके
विषयमें कहा--हे अनघ! ये भगवान् यज्ञ हैं। ब्रह्माको
मोहग्रस्त देखकर सगर्व हो गये हैं, इनका शासन करें
तथा ब्रह्माके (कटे हुए) सिरको धारण करें और आप
संसारको यह दिखाते हुए भिक्षाचरणपूर्वक भ्रमण करें
कि मैं ब्रह्महत्याके निवारणके लिये ब्रत कर रहा हूँ।
आप देवताओं एवं ब्राह्मणोंको (अर्थात् उनकी मर्यादाको)
संस्थापित करें॥ ६३--६५॥
ऐसा वचन कहकर भगवान् परमेश्वर अपने परम
पदरूप स्वाभाविक दिव्य स्थानको चले गये। तदनन्तर
जटाधारी नीललोहित उन भगवान् ईश (रुद्र)-ने ब्रह्माका
मुख कालभेरवको ग्रहण कराया (तथा कहा--) पापको
नष्ट करनेके लिये आप लोककल्याणकारी ब्रतका पालन
करें और कपाल हाथमें धारणकर आप भगवान् सर्वत्र
जाये तथा भिक्षा ग्रहण करें। ऐसा कहकर उन्होंने
भयंकर दाढ़ और मुखवाली ज्वालासमूहको ही आभूषण-
रूपमें धारण करनेवाली ब्रह्महत्या नामसे प्रसिद्ध कन्याको
भी यह कहकर भेजा-हे भीषण आकारवाली! ये
कालभेैरव त्रिलोचन जबतक दिव्य वाराणसीपुरीमें पहुँचें,
तबतक तुम इनके पीछे-पीछे जाओ॥ ६६--७० ॥
ऐसा कहनेके बाद महेश्वरदेवने कालाग्नि ( भेरव)-
से कहा- मेरे निर्देशानुसार आप भिक्षा माँगते हुए सम्पूर्ण
लोकमें भ्रमण करें। जब आप देवेश अनामय नारायणका
दर्शन करेंगे, तब वे (श्रीनारायण) पापकी शुद्धिका स्पष्ट
उपाय (आपको) बतायेंगे॥७१-७२॥
देवाधिदेवका वाक्य सुनकर कपालपाणि वे विश्वात्मा
भगवान् हर (कालभेरव) तीनों लोकोंमें भ्रमण करने
लगे। विकृत वेष बनाकर अपने तेजसे प्रकाशित,
श्रीसम्पन्न, अत्यन्त पवित्र, जटाजूटसे सुशोभित, करोड़ों
सूर्योके समान प्रकाशमान, अत्यन्त गर्वित प्रमथगणोंसे
आवृत, कालाग्निके समान नेत्रवाले महादेव (कालभैरव)
सुशोभित होने लगे॥७३--७५॥
परमेष्ठीके उस दिव्य अमृतस्वरूप आनन्दका पान-
कर अतिशय लीला-विलास करनेवाले ईश्वर लोगोंके
पास आये॥ ७६॥
* अध्याय ३१ *
तं॑ दृष्ठा कालवदनं शंकरं कालभेरवम्।
रूपलावण्यसम्पन्न॑ नारीकुलमगादनु॥ ७७॥
गायन्ति विविध॑ गीतं नृत्यन्ति पुरत: प्रभो:।
सस्मितं प्रेक्ष्य बदन चक्रुर्भूभड़मेव च॥ ७८॥
स देवदानवादीनां देशानभ्येत्य शूलधृक् ।
जगाम विष्णोर्भवनं यत्रास्ते मधुसूदन:॥ ७९॥
निरीक्ष्य दिव्यभवनं शंकरो लोकशंकरः।
सहैव भूतप्रवरी: प्रवेष्टमुपचक्रमे ॥ ८० ॥
अविज्ञाय परं भावं दिव्यं तत्पारमेश्वरम्।
न्यवारयत् त्रिशूलाडुं द्वारपालो महाबलः॥ ८१॥
शट्डुचक्रगदापाणि: पीतवासा महाभुज:।
विष्वक्सेन इति ख्यातो विष्णोरंशसमुद्धव: ॥ ८२॥
अधेनं शंकरगणो युयुधे विष्णुसम्भवम्।
भीषणो भेरवादेशात् कालवेग इति श्रुतः॥ ८३॥
विजित्य तं॑ कालवेगं क्रोधसंरक्तलोचन:।
रुद्रायाभिमुखं रौद्रं चिक्षेप च सुदर्शनम्॥ ८४॥
अथ देवो महादेवस्त्रिपुरारिस्त्रिशूलभूत्।
तमापतन्त॑ सावज्ञमालोकयदमित्रजित्॥ ८५ ॥
तदन्ते महदभूतं॑ युगान्तदहनोपमम्।
शूलेनोरसि निर्भिद्य पातयामास तं भुवि॥ ८६॥
स शूलाभिहतो त्यर्थ त्यक्त्वा स्वं परमं बलम्।
तत्याज जीवित दृष्टा मृत्युं व्याधिहता इब॥ ८७॥
निहत्य विष्णुपुरुषं सार्ध प्रमथपुंगव: ।
विवेश चान्तरगृह॑ समादाय कलेवरम्॥ ८८॥
निरीक्ष्य जगतो हेतुमीश्वर॑ं भगवान् हरिः।
शिरो ललाटात् सम्भिद्य रक्तधारामपातयत्॥ ८९॥
गृहाण भगवन् भिक्षां मदीयाममितदुते।
न विद्यतेडनाभ्युदिता तब त्रिपुरमर्दन॥ ९०॥
४२१२१
अस्तु, उन कालात्मा महे श्वरके प्रमुख गण कालभैरव
शंकरको रूप एवं लावण्यसे सम्पन्न देखकर नारी-
समूह उनके पीछे चलने लगा। वे स्त्रियाँ प्रभुके सामने
विविध प्रकारके गीत गाने लगीं और नृत्य करने लर्गी
तथा मन्द मुसकानके साथ उनके मुखको देखकर
भौंहोंसे हाव-भाव प्रदर्शित करने लगीं॥ ७७-७८ ॥
वे शूलधारी कालभेरव देवों तथा दानवों आदिके
देशोंमें जानेके अनन्तर विष्णुके भवनमें गये, जहाँ
मधुसूदन निवास करते हैं। उस दिव्य भवनको देखकर
लोकोंके कल्याणकारी शंकर (कालभेैरव) श्रेष्ठ भूतोंके
साथ ही उसमें प्रवेश करने लगे॥ ७९-८० ॥
उन (कालभेरव)-के दिव्य परम पारमेश्वर भावको
न समझते हुए शंख, चक्र तथा गदा हाथोंमें लिये हुए,
पीत वस्त्र धारण किये, महान् भुजावाले, विष्णुके
अंशसे उत्पन्न विष्वक्सेन नामसे प्रसिद्ध महाबलवान्
द्वारपालने त्रिशूेलधारी उन कालभेरवको रोका। तब
भेरवकी आज्ञासे कालवेग इस नामसे प्रसिद्ध शंकरका
भयंकर गण विष्णु-समुद्धृूत (विष्वक्सेन)-से युद्ध
करने लगा। उस कालवेगको जीतकर क्रोधसे लाल
हुए नेत्रोंवाला (द्वारपाल) रुद्र (कालभेरव)-की ओर
भयंकर सुदर्शनचक्र फेंका। तब त्रिशूलधारी शत्रुजित्
त्रिपुरारिदिव महादेव (कालभेरव)-ने उस आते हुए
चक्रको अवज्ञापूर्वक देखा॥ ८१--८५॥
उसी समय महादेव (कालभेरव) -ने त्रिशूलके द्वारा
प्रलयकालीन अग्रिके तुल्य अति भीषण विष्वक्सेनके
वक्ष:स्थलमें प्रहारकर उसे पृथ्वीपर गिरा दिया। त्रिशूलसे
आहत होनेपर अपने महान् बलका त्यागकर उस
विष्वक्सेनने अपने प्राणोंका उसी प्रकार परित्याग कर
दिया, जैसे व्याधिसे आहत प्राणी मृत्युकों देखकर अपने
प्राणोंका परित्याग कर देता है॥८६-८७॥
विष्णुके पुरुष (विष्वक्सेन)-को मारकर (उसके)
कलेवर (मृत शरीर)-को लेकर श्रेष्ठ प्रमभथगणोंके साथ
महादेव (कालभेरव) भवनके अंदर प्रविष्ट हुए। जगत्के
कारणरूप ईश्वर (कालभेरव)-को देखकर भगवान्
हरिने अपने ललाटका भेदनकर रक्तकी धारा गिरायी
और कहा--अपरिमेय तेजरूप भगवन्! आप मेरी भिक्षा
ग्रहण करें। त्रिपुरमर्दन! आपके लिये कोई अप्रकट
(अमड्रलजनक भिक्षा) नहीं है॥८८--९० ॥
४१२
न सम्पूर्ण कपालं तद् ब्रह्मण: परमेष्टिन: ।
दिव्यं वर्षसहस्त्र तु सा च धारा प्रवाहिता॥ ९१ ॥
अथान्नवीत् कालरुद्रं हरिनारायण: प्रभु: ।
संस्तूय. वैदिकेर्मन्त्रैबहुमानपुरः:सरम्॥ ९२ ॥
किमर्थमेतद् बदन ब्रह्मणो भवता धृतम्।
प्रोवाच वृत्तमखिलं भगवान् परमेश्वर:॥ ९३ ॥
समाहूय हषीकेशो ब्रह्महत्यामथाच्युत:।
प्रार्थयामास देवेशो विमुझेति त्रिशूलिनम्॥ ९४ ॥
न तत्याजाथ सा पार्श्व व्याहृतापि मुरारिणा |
चिरं ध्यात्वा जगद्योनि: शंकर प्राह सर्ववित्॥। ९५ ॥
व्रजस्व भगवन् दिव्यां पुरी वाराणसी शुभाम् ।
यत्रासिबिलजगददोषं क्षिप्रं नाशयतीश्वर:॥ ९६ ॥
ततः सर्वाणि गुह्यानि तीर्थान्यायतनानि च।
जगाम लीलया देवो लोकानां हितकाम्यया॥ ९७ ॥
संस्तूयमान: प्रमथेरमहायोगैरितस्तत: ।
नृत्यमानो महायोगी हस्तन्यस्तकलेवर:॥ ९८ ॥
तमभ्यधावद् भगवान् हरिनारायण: स्वयम् |
अथास्थायापरं रूप॑ नृत्यदर्शनलालस:॥ ९९ ॥
निरीक्षमाणो गोविन्दं वृषेन्द्राड्डितिशासन: ।
सस्मितो5नन्तयोगात्मा नृत्यति सम पुन: पुन: ॥ १००॥
अथ सानुचरो रुद्रः सहरिध्धर्मवाहनः।
भेजे महादेवपुरीं वाराणसीमिति श्रुताम्॥ १०१॥
प्रविष्टमात्रे देवेशे ब्रह्महत्या कपर्दिनि।
हा हेत्युक्त्वा सनादं सा पातालं प्राप दुःखिता॥ १०२॥
मं कूर्मपुराण मं
हजारों दिव्य वर्षोतक वह (रक्तकी) धारा प्रवाहित
होती रही, किंतु परमेष्ठी ब्रह्माका वह (कालभेरवके
हाथमें विद्यमान) कपाल भरा नहीं। तब नारायण
प्रभु हरिने वैदिक मन्त्रोंद्राग अत्यन्त आदरपूर्वक
स्तुति कर भगवान् कालरुद्रसे कहा--आपने त्रह्माका
यह सिर किस कारणसे धारण कर रखा है? तब
परमेश्वर भगवान् (कालभेरव)-ने सम्पूर्ण वृत्तान्त
बतलाया॥ ९१--९३ ॥
तदनन्तर हषीकेश देवेश भगवान् अच्युतने ब्रह्महत्याको
बुलाकर प्रार्थना कौ-त्रिशूली (कालभेरव)-को छोड़
दो। मुरारि विष्णुद्वारा प्रार्थना करनेपर भी उसने (कालभरवके)
पार्थका त्याग नहीं किया । तब जगद्योनि सर्वज्ञ (विष्णु )-
ने देरतक ध्यानकर शंकर (कालभेरव)-से कहा--
भगवन्! आप दिव्य एवं मड़़ल करनेवाली वाराणसीपुरी
जायें, जहाँ ईश्वर सम्पूर्ण सांसारिक दोषोंको शीघ्र ही
नष्ट कर देते हैं॥९४-९६॥
तब वे महायोगी कालभेरव अपने हाथमें (विष्णु-
पार्षद विष्वक्सेनका) कलेवर लेकर वाराणसीपुरीके
दर्शनकी प्रसन्नतामें नृत्य करते हुए सर्वप्रथम अति-
गोपनीय सभी तीर्थों एवं देवस्थानोंमें देवताओंके हितकी
कामनासे गये। कालभेरवके चारों ओर महायोगी
प्रमथगण उनकी स्तुति करते हुए चल रहे थे। उन
(कालभेरव)-का नृत्य देखनेकी लालसावाले भगवान्
नारायण हरि दूसरा रूप धारणकर स्वयं उनके पीछे-
पीछे चलने लगे॥ ९७--९९ ॥
श्रेष्ठ वृषभके चिहसे अद्धित शासन (ध्वजा)-
वाले अनन्त योगात्मरूप (शंकर) गोविन्दको देखते
हुए प्रसन्नतापूर्वक बार-बार नृत्य करने लगे। तदनन्तर
अनुचरों और हरिके सहित धर्मरूपी वृषभको
वाहनके रूपमें स्वीकार करनेवाले रुद्र (कालभैरव)
वाराणसी इस नामसे प्रसिद्ध महादेवकी पुरीमें
पहुँचे॥ १००-१०१॥
कपर्दी देवेशके वहाँ प्रवेश करते ही वह त्रह्महत्या
तीत्र स्वरसे हाहाकार करती हुई दुःखी होकर पातालमें
चली गयी॥ १०२॥
* अध्याय ३१९ *
प्रविश्य परम स्थानं कपालं ब्रह्मणो हर: ।
गणानामग्रतो देव: स्थापयामास शंकर: ॥ १०३॥
स्थापयित्वा महादेवो ददौ तच्च कलेवरम्।
उक्त्वा सजीवमस्त्वीशो विष्णवे स घृणानिधि: ॥ १०४॥।
ये स्मरन्ति ममाजस्त्रं कापालं वेषमुत्तमम्
तेषां विनश्यति क्षिप्रमिहामुत्र च पातकम्॥ १०५॥
आगम्य तीर्थप्रवरे स्नान कृत्वा विधानत: ।
तर्पयित्वा पितृन् देवान् मुच्यते ब्रह्महत्यया ॥ १०६॥
अशाएवतं जगज्ज्ञात्वा येडस्मिन् स्थाने वसन्ति वे।
देहान्ते तत् परं ज्ञानं ददामि परम पदम्॥ १०७॥
इतीदमुक्त्वा भगवान् समालिड्रद्य जनार्दनम्।
सहैव प्रमथेशानै: . क्षणादन्तरधीयत ॥ १०८ ॥
सलब्ध्वा भगवान् कृष्णो विष्वक्सेन त्रिशूलिन: ।
स्वं देशमगमत् तूर्ण गृहीत्वा परमं वपु:॥ १०९॥
एतद् व: कथित पुण्यं महापातकनाशनम्।
कपालमोचरन तीर्थ स्थाणो: प्रियकरं शुभम्॥ ११० ॥
य इमं पठतेव5ध्यायं ब्राह्मणानां समीपत: |
डश३े
श्रेष्ट स्थान (वाराणसी)-में प्रविष्ट होकर देव हर
शंकर (कालभेरव)-ने गणोंके सामने ब्रह्माके कपालको
स्थापित किया और उन्हीं करुणानिधि ईश महादेव
(कालभेरव)-ने “जीवित हो जाय” ऐसा कहकर
(विष्वक्सेनका) कलेवर विष्णु (हरि भगवान्)-को दे
दिया॥ १०३-१०४॥
मेरे इस कपालयुक्त उत्तम वेषका (रूपका)
निरन्तर स्मरण करनेसे ऐहलौकिक तथा पारलौकिक
सब पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। इस श्रेष्ठ (वाराणसीके
कपालमोचन) तीर्थमें आकर स्रान करके विधिपूर्वक
पितरों तथा देवताओंका तर्पण करनेसे ब्रह्महत्यासे मुक्ति
मिल जाती है। संसारको अनित्य जानकर जो इस
स्थानमें निवास करते हैं, उन्हें देहान्तके समयमें परम
ज्ञान और परम पद प्रदान करता हूँ। ऐसा कहकर
भगवान् (कालभेरव) जनार्दनका आलिंगनकर प्रमथेश्वरोंके
साथ ही क्षणभरमें अन्तर्धान हो गये॥ १०५--१०८ ॥
वे भगवान् कृष्ण (हरि) त्रिशूलीसे विष्वक्सेनको
प्रातकर अपना परम रूप धारणकर शीघ्र ही अपने
स्थानको चले गये॥ १०९॥
आप लोगोंसे स्थाणु (शंकर)-को अत्यन्त प्रिय,
महापातकोंको नष्ट करनेवाले, पवित्र एवं मड्भलकारी
इस कपालमोचन तीर्थके विषयमें मैंने बताया। जो
ब्राह्मणोंके समीप इस अध्यायका पाठ करता है, वह
कायिक, वाचिक तथा मानसिक (त्रिविध) पापोंसे मुक्त
वाचिकैर्मानसे: पापै: कायिकैश्च विमुच्यते॥ १११॥ | हो जाता है॥११०-१११॥
डति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्रधां संहितायामुपरिविभागे एकरत्रिशोउध्याय: ॥ ३९ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें एकतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥३१॥
* इसी अध्यायके ९९वें श्लोकके अनुसार श्रीहरिने दूसरा रूप धारणकर श्रीकालभेरवके साथ वाराणसीमें प्रवेश किया था, अब
अपने पार्षद विष्वक्सेनके शरीरको प्राप्तकर अपने वास्तविक स्वरूपसे अपने धाम जा रहे हैं।
४२५४
हि कूर्मपुराण रे
बत्तीसवाँ अध्याय
प्रायश्चित्त*-प्रकरणमें महापातकोंके प्रायश्चित्तका विधान
तथा अन्य उपपातकोंसे शुद्धिका उपाय
व्यास उवाच
सुरापस्तु सुरां तप्तामग्निवर्णा स्वयं पिबेत्।
तया स काये निर्दग्धे मुच्यते तु द्विजोत्तम: ॥ १॥
गोमूत्रमग्निवर्ण वा गोशकृद्रसमेव वा।
पयो घृतं जल॑ वाथ मुच्यते पातकात् ततः:॥ २॥
जलाद््रवासा: प्रयतो ध्यात्वा नारायणं हरिम्।
ब्रह्महत्यातब्रत॑ चाथ चरेत् तत्पापशान्तये॥ ३॥
सुवर्णस्तेयकृद् विप्रो राजानमभिगम्य तु।
स्वकर्म ख्यापयन् ब्रूयान्मां भवाननुशास्त्विति ॥ ४ ॥
गृहीत्वा मुसल राजा सकृद हन्यात् ततः स्वयम्।
वधे तु शुद्धयते स्तेनो ब्राह्मणस्तपसैव वा॥ ५॥
स्कन्धेनादाय मुसलं लकुटं वाउपि खादिरम्।
शक्ति चोभयतस्तीक्ष्णामायसं दण्डमेव वा॥ ६॥
राजा तेन च गन्तव्यो मुक्तकेशेन धावता।
आचक्षाणेन तत्पापमेवंकर्मा5स्मि शाधि माम्॥ ७॥
शासनाद वा विमोक्षाद् वा स्तेन: स्तेयाद विमुच्यते।
अशासित्वा तु त॑ राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम्॥ ८॥
तपसाउपनुनुत्सुस्तु सुवर्णस्तेयजं मलम्।
चीरवासा द्विजो5रण्ये चरेद ब्रह्मणो व्रतम्॥ ९॥
व्यासजीने कहा--सुरापान करनेवाले द्विजोत्तमको
अग्नरिके समान वर्णवाली प्रतप्त (अति उष्ण) सुराका
स्वयं पान करना चाहिये। उससे शरीरके दग्ध होनेपर
वह (पापसे) मुक्त हो जाता है। अथवा अग्निके समान
रंगवाला (अति उष्ण) गोमूत्र या गोबरका रस अथवा
(गौका) दुग्ध, घृत या जल पीनेपर द्विज (पापसे) मुक्त
हो जाता है। उस (सुरापानजन्य) पापके शमनके लिये
जलसे भींगा वस्त्र धारणकर तथा प्रयत्रपूर्वक नारायण
हरिका ध्यान कर पुनः: ब्रह्महत्यासम्बन्धी (प्रायश्चित्त)
ब्रतका पालन करना चाहिये॥ १--३॥
सुवर्णकी चोरी करनेवाले ब्राह्मणको चाहिये कि
वह राजाके पास जाकर अपने (पाप) कर्मको बताते
हुए कहे--'आप मुझे दण्डित करें!। राजा मूसल
लेकर स्वयं उसे एक बार मारे। इस प्रकार वध
हो जानेपर ब्राह्मण चोरी-रूप (महापाप)-से शुद्ध हो
जाता है अथवा तपस्या करनेसे वह शुद्ध होता है।
मूसल अथवा खैरकी लकड़ीकी लाठी और दोनों
ओर तीक्ष्ण धारवाली शक्ति या लोहेका दण्ड कंधेपर
लेकर उस (पापयुक्त ब्राह्मण)-को राजाके पास केश
खोले दौड़ते हुए जाना चाहिये और अपने उस
(पापकर्म)-को बताते हुए कहना चाहिये--' मैंने यह
कर्म किया है, आप मुझे दण्ड दें।' दण्डसे अथवा
(यथाशास्त्र प्रायश्चित्तपूर्वक शरीर) परित्याग कर देनेसे
सुवर्ण-चोर चोरी (-रूप पापकर्म)-से मुक्त हो जाता
है। उसको दण्डित न करनेसे तो राजा चोरका पाप
(स्वयं) प्राप्त कर लेता है। तपस्याद्वारा सुवर्णकी चोरीसे
उत्पन्न पापको दूर करनेकी इच्छा रखनेवाले द्विजको
चाहिये कि वह चीर (फटे-पुराने) वस्त्र धारण करके
जंगलमें जाकर ब्रह्महत्या-सम्बन्धी (प्रायश्चित्त) ब्रतका
पालन करे॥ ४--९॥
* 'प्राय:' का अर्थ तप है। चित्तका अर्थ निश्चय है। इसलिये दृढ़-संकल्पपूर्वक तप करना ही प्रायश्लित्तवका आचरण है
(याज्ञ० मिता० श्लोक २७५) | मनुस्मृति अ० ११ तथा याज्ञ० स्मृ० प्रायश्चित्त-प्रकरण आदिमें इस कूर्मपुराणके अध्यायके अनुसार
प्राय: सूक्ष्म विचार करके प्रायश्चित्तका निर्णय किया गया है। अपेक्षानुसार प्रायश्चित्त-निर्णय वहींसे करना चाहिये। इस अध्यायमें
ब्रायक्षितकी दिशामात्रका संक्षेपमें निर्देश है।
* अध्याय ३२ *
स्नात्वाश्रमेधावभूथे पूतः स्यादथवा द्विजः ।
प्रदद्याद् वा$थ विप्रेभ्य: स्वात्मतुल्यं हिरण्यकम्॥ १०॥
चरेद् वा वत्सरं कृच्छंं ब्रह्मचर्यपरायण:।
ब्राह्मण: स्वर्णहारी तु तत्पापस्यापनुत्तये॥ ११॥
गुरोर्भार्या समारुह्य ब्राह्मण: काममोहित:ः।
अवगूहेत् स्त्रियं तप्तां दीप्तां कार्ष्णायर्सी कृतामू॥ १२॥
स्वयं वा शिश्नवृषणावुत्कृत्याधाय चाञ्जलौ।
आतिष्ठेद दक्षिणामाशामानिपातादजिहाग: ॥ १३॥
गुर्वर्थ वा हत: शुध्येच्चरेद् वा ब्रह्महा ब्रतम्।
शाखां वा कण्टको पेतां परिष्वज्याथ वत्सरम्।
अध: शयीत नियतो मुच्यते गुरुतल्पग:॥ १४॥
कृच्छूं वाब्दं चरेद् विप्रश्नीरवासा: समाहित: ।
अश्रवमेधावभूथके स्नात्वा वा शुध्यते नर: ॥ १५॥
कालेष्ष्टमे वा भुझ्जानो ब्रह्मचारी सदात्रती।
स्थानासनाभ्यां विहरंस्त्रिरह्नो 3भ्युपयन्नपः ॥ १६॥
अधःशायी त्रिभिर्वर्षैस्तद् व्यपोहति पातकम्।
चान्दायणानि वा कुर्यात् पश्च चत्वारि वा पुन: ॥ १७॥
पतितैः सम्प्रयुक्तानामथ वश्ष्यामि निष्कृतिम् ।
पतितेन तु संसर्ग यो येन कुरुते द्विज:।
स॒तत्पापापनोदार्थ तस्यैव व्रतमाचरेत्॥ १८॥
तप्तकृच्छूं चरेद वाथ संवत्सरमतन्द्रित: ।
षाण्मासिके तु संसर्गे प्रायश्ित्तार्थमहति॥ १९॥
४५१५७
अथवा अश्वमेधयज्ञ-सम्बन्धी अवभूथ-स््रान करनेसे
द्विज पवित्र हो जाता है। या (शुद्ध होनेके लिये)
ब्राह्मगगोॉंको अपने भारके बराबर स्वर्ण-दान करना
चाहिये। अथवा सुवर्णकी चोरी करनेवाले ब्राह्मणको
उस पापको दूर करनेके लिये एक वर्षतक ब्रह्मचर्यब्रतका
पालन करते हुए कृच्छुत्रत करना चाहिये॥ १०-११॥
कामसे मोहित होकर गुरुकी भायके साथ गमन
करनेवाले ब्राह्मणको लोहेसे बनायी गयी कृष्णवर्णकी
तप्त एवं उद्दीप्त सत्रीका आलिड्रन करना चाहिये। अथवा
स्वयं लिड्र एवं अण्डकोशको काटकर और अपनी
अजझलिमें रखकर निष्कपट-भावसे दक्षिण दिशाकी
ओर तबतक जाना चाहिये, जबतक शरीरपात न हो
जाय। गुरुके लिये मारे जानेसे भी गुरुपत्रीगामी शुद्ध
हो जाता है अथवा ब्रह्महत्या-सम्बन्धी ब्रतका पालन
करना चाहिये या एक वर्षतक काँटोंसे युक्त शाखाका
आलिड्रन करते हुए गुरुपत्रीसे गमन करनेवालेको
नियमपूर्वक नीचे भूमिपर सोना चाहिये। इससे वह
गुरुपल्लीगामी पापमुक्त हो जाता है। अथवा ब्राह्मणको
चीर (कन्था) वस्त्र धारणकर समाहित होकर एक
वर्षतक कृच्छुत्रत करना चाहिये। या अश्वमेधयज्ञके
अवभृथ-स्नान करनेसे व्यक्ति शुद्ध हो जाता है। अथवा
सर्वदा ब्रह्मचर्यपूर्वक ब्रत धारणकर अष्टमकाल (अर्थात्
चौथे दिन, सायंकाल)-में भोजन करना चाहिये। इसके
पूर्व प्रयत्नपूर्वक्त एक ही स्थानपर एक ही आसनसे
रहकर केवल जल पीते हुए तीन दिन व्यतीत करना
चाहिये। ऐसा करते हुए तीन वर्षोतक भूमिपर शयन
करनेसे उस (गुरुपत्नी-गमनरूप) पापसे छुटकारा
मिलता है, अथवा चार या पाँच चान्द्रायणत्रत करना
चाहिये॥ १२--१७॥
अब पतितों (पापियों)-के साथ संसर्ग करनेवालोंके
निस्तारका उपाय (प्रायश्वित्त) बतलाता हूँ। जिस पतितके
साथ जो द्विज (एक वर्षतक) संसर्ग करता है, उसे
उस पतितद्वारा किये गये पापको दूर करनेके लिये
विहित ब्रतका (एक वर्षतक) पालन करना चाहिये।
अथवा वर्षभरतक आलस्यरहित होकर तप्तकृच्छुब्रतका
पालन करना चाहिये। छ: महीनोंतक संसर्ग होनेपर
उपर्युक्त ब्रतका आधा प्रायश्वित्त करे॥ १८-१९॥
४२६
एभिद्रतेरपोहन्ति महापातकिनो मलम्।
पुण्यतीर्थाभिगमनात् पृथिव्यां वाथ निष्कृति: ॥ २०॥
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वद्भनागमः।
कृत्वा तैश्वापि संसर्ग ब्राह्मण: कामकारत: ॥ २१॥
कुर्यादनशनं विप्र: पुण्यतीर्थ समाहितः |
ज्वलन्तं वा विशेदगिन ध्यात्वा देव॑ कपर्दिनम्॥ २२॥
न हान्या निष्कृतिर्दृष्टा मुनिभिर्धर्मवादिभिः ।
तस्मात् पुण्येषु तीर्थेषु दहेद वापि स्वदेहकम्॥ २३॥
गत्वा दुहितरं विप्र: स्वसारं वा स्नुषामपि।
प्रविशेज्ज्वलनं दीप्त॑ मतिपूर्वमिति स्थिति: ॥ २४॥
मातृष्वसां मातुलानीं तथेव च पितृष्वसाम्।
भागिनेयीं समारुह्य कुर्यात् कच्छातिकृच्छुकी ॥ २५॥
चान्द्रायणं च कुर्वीत तस्य पापस्य शान्तये।
ध्यायन् देव॑ जगद्योनिमनादिनिधनं परम्॥ २६॥
भ्रातृभार्या समारुह्म कुर्यात् तत्पापशान्तये।
चान्द्रायणानि चत्वारि पञ्ञ वा सुसमाहित: ॥ २७॥
पैतृष्वस्त्रेयीं गत्वा तु स्वस्त्रेयां मातुरेव च।
मातुलस्य सुतां वापि गत्वा चान्द्रायणं चरेत्॥ २८ ॥
सखिभार्यां समारुह्य गत्वा श्यालीं तथेव च।
अहोरात्रोषितो भूत्वा तप्तकृच्छे समाचरेत्॥ २९॥
उदक्यागमने विप्रस्त्रिरात्रेण विशुध्यति।
चाण्डालीगमने चैव तप्तकृच्छुत्रयं विदु:।
सह सांतपनेनास्य नान्यथा निष्कृति: स्मृता॥ ३० ॥
मातृगोत्रां समासाद्य समानप्रवरां तथा।
चान्द्रायणेन शुध्येत प्रयतात्मा समाहित: ॥ ३१॥
ब्राह्मणो ब्राह्मणी गत्वा कृच्छुमेके समाचरेत् ।
कन्यकां दूषयित्वा तु चरेच्चान्द्रायणबत्रतम्॥ ३२॥
अमानुषीषु॒ पुरुष उदक््यायामयोनिषु।
रेत: सिक्त्वा जले चेव कृच्छूं सान्तपनं चरेत्॥ ३३॥
* कूर्मपुराण *
इन ब्रतोंके द्वारा महापातकी अपने पापको दूर करते
हैं। अथवा पृथ्वीके पुण्य-तीर्थोंकी यात्रा करनेसे भी
निष्कृति (निस्तार) हो जाती है॥२०॥
ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी तथा गुरुपल्रीके साथ गमन
करनेवाले अथवा स्वेच्छापूर्वक उनके साथ संसर्ग
करनेवाले ब्राह्मणको भी पुण्य-तीर्थमें समाहित होकर
अनशनब्रत करना चाहिये अथवा कपर्दी भगवान्
शंकरका ध्यान करते हुए जलती हुई अग्रिमें प्रवेश
करना चाहिये। धर्मवादी मुनियोंने (इसके अतिरिक्त)
दूसरा प्रायश्चित्त नहीं बतलाया है, इसलिये पुण्य-
तीर्थोमें अपना शरीर जला देना चाहिये॥ २१--२३॥
(जान-बूझकर ) अपनी पुत्री, बहिन या पुत्रवधूके
साथ गमन करनेवालेको जलती हुई प्रदीत्त अग्निमें प्रवेश
करना चाहिये। ऐसी मर्यादा है। मौसी, मामी, फूआ
तथा भांजीके साथ गमन करनेपर कृच्छु तथा अतिकृच्छ
नामक ब्रतोंको करना चाहिये और इन पापोंकी शान्तिके
लिये जगद्योनि अनादिनिधन परमदेवका ध्यान करते
हुए चान्द्रायणत्रत करना चाहिये। भाईकी पत्नीके साथ
सहवास करनेपर उस पापकी शान्तिके लिये अच्छी
प्रकार समाहित-मन होकर चार अथवा पाँच चान्द्रायणत्रत
करना चाहिये। फूआकी लड़की, मौसीको लड़की
अथवा मामाको लड़कीके साथ गमन करनेपर चान्द्रायणन्रत
करना चाहिये। मित्रकी पत्नी तथा सालीके साथ सहवास
करनेपर एक अहोरात्र उपवास करके तप्तकुच्छुब्रत
करना चाहिये। रजस्वलाके साथ गमन करनेपर विदप्र
तीन रातमें शुद्ध होता है और चाण्डालीके साथ गमन
करनेपर तीन तप्तकृच्छु ब्रतोंके साथ सांतपनब्रत करनेसे
शुद्धि होती है। अन्य किसी प्रकारसे निष्कृति (निस्तार)
नहीं कही गयी है॥ २४--३० ॥
माताके गोत्रकी अथवा समान प्रवरवाले कुलकी
स्त्रीसे समागम करनेपर इन्द्रियजयी होकर एकाग्रतापूर्वक
चान्द्रायणत्रत करनेसे शुद्धि होती है। (समागमके
अयोग्य) ब्राह्मणीके साथ समागम करनेपर ब्राह्मणको
एक कृच्छुत्रत करना चाहिये और कन्याको दूषित
करनेपर चान्द्रायणत्रत करना चाहिये। अमानुषी स्त्री,
रजस्वला, अयोनि तथा जलमें वीर्यपात करनेपर पुरुषको
कृच्छुसांतपनवत्रत करना चाहिये॥ ३१--३३ ॥
* अध्याय ३२ ४०
बन्धकीगमने विप्रस्त्रिरात्रेण विशुध्यति।
गवि मैथुनमासेव्य चरेच्चान्द्रायणत्नतम्॥ ३४॥
अजाबामैथुनं कृत्वा प्राजापत्यं चरेद् द्विज: ।
पतितां च स्त्रियं गत्वा त्रिभि: कृच्छैर्विशुध्यति॥ ३५ ॥
पुल्कसीगमने चैव कच्छुं चान्द्रायणं चरेत्।
नटीं शैलूषकीं चेव रजकीं वेणुजीविनीम् |
गत्वा चान्द्रायणं कुर्यात् तथा चर्मोपजीविनीम्॥ ३६॥
ब्रह्मचारी स्त्रियं गच्छेत् कथज्ञित्काममोहितः ।
सप्तागारं चरेद् भेक्षं वसित्वा गर्दभाजिनम्॥ ३७॥
उपस्पृशेत् त्रिषवर्णं स्वपापं परिकीर्तयन्।
संवत्सरेण चैकेन तस्मात् पापात् प्रमुच्यते॥ ३८ ॥
ब्रह्महत्यात्रतं वापि षण्मासानाचरेद् यमी।
मुच्यते हावकीर्णी तु ब्राह्मणानुमते स्थित: ॥ ३९ ॥
सप्तरात्रमकृत्वा तु भेक्षचर्याग्निपूजनम्।
रेतसश्च समुत्सगें प्रायश्चित्तं समाचरेत्॥ ४०॥
ओंकारपूर्विकाभिस्तु महाव्याहतिभि: सदा।
संवत्सरं तु भुझानो नकतं भिक्षाशन: शुचि: ॥ ४१॥
सावित्रीं च जपेच्चैव नित्यं॑ क्रोधविवर्जित: ।
नदीतीरेषु तीर्थेषु तस्मात् पापाद विमुच्यते॥ ४२॥
हत्वा तु क्षत्रियं विप्र: कुर्याद ब्रह्महणो ब्रतम्।
अकामतो वै षण्मासान् दद्यात् पञ्चशतं गवाम्॥ ४३ ॥
अब्दं चरेत नियतो वनवासी समाहितः।
प्राजापत्यं सान्तपनं तप्तकृच्छुं तु वा स््वयम्॥ ४४॥
प्रमाप्याकामतो वैश्यं कुर्यात् संवत्सरद्दयम् ।
गोसहर्त्रं सपादं च दद्यात् ब्रह्महणो ब्रतम्।
वा कुर्याच्चाद्रायणमथापि वा॥ ४५॥
ड५१७छ
व्यभिचारिणी स्त्रीके साथ गमन करनेपर ब्राह्मण
तीन रातमें शुद्ध होता है। गौके साथ मैथुन करनेपर
चान्द्रायणत्रतका पालन करना चाहिये। बकरी या भेड़ीके
साथ मैथुन करनेवाले द्विजको प्राजापत्य-ब्रत करना चाहिये।
पतित स्त्रीके साथ सहवास करनेपर तीन कृच्छ॒ब्रतोंसे
शुद्धि होती है। पुल्कसी (शूद्रामें निषादसे उत्पन्न स्त्री)-
के साथ गमन करनेपर कृच्छुचान्द्रायणबत्रत करना चाहिये।
नटी, नर्तकी धोबिन, बाँसके द्वारा तथा चर्मके द्वारा
जीविका निर्वाह करनेवाली स्त्रीके साथ मैथुन करनेपर
चान्द्रायणत्रत करना चाहिये॥ ३४--३६ ॥
कदाचित् यदि कामसे मोहित होकर ब्रह्मचारी
सत्रीके साथ गमन करता है तो उसे गदहेका चर्म
धारणकर सात घरोंसे भिक्षा माँगनी चाहिये। अपने
पापको प्रकट करते हुए तीनों कालोंमें स्नान करना
चाहिये। इस प्रकार एक वर्षतक करनेसे वह इस पापसे
मुक्त हो जाता है। अवकीर्णी (ब्रह्मचर्यव्रतसे च्युत
संन््यासी या ब्रह्मचारी ) ब्राह्मणके कथनानुसार संयमपूर्वक
छ: मासतक ब्रह्महत्या-सम्बन्धी व्रत करनेसे (इस
पापसे) मुक्त हो जाता है। यदि सात अहोरात्रतक समर्थ
रहनेपर भी भिक्षाचरण तथा अग्निहोत्र न करे तथा
बुद्धिपूर्वक अपने शुक्र (वीर्य)-का परित्याग करे तो
इस प्रकारका प्रायश्वित्त करना चाहिये--नदी-तीरमें
अथवा तीर्थमें एक वर्षतक शान्तभावसे पवित्रताके साथ
प्रणव एवं महाव्याहृतियोंसे युक्त सावित्री (गायत्री)-
का निरन्तर जप करे और भिक्षामात्रसे प्राप्त अन्न केवल
रात्रिमें ग्रहण करे। ऐसा करनेसे उपर्युक्त दोनों पापोंसे
मुक्ति मिलती है॥३७--४२॥
बुद्धिपूर्वक क्षत्रियकी हत्या करनेपर ब्राह्मणको
ब्रह्महत्या-सम्बन्धी ब्रतका पालन करना चाहिये। अनचाहे
क्षत्रियकी हत्या हो जानेपर छः महीनेतक पाँच सौ गायोंका
दान करना चाहिये। अथवा स्वयं वनमें रहते हुए एक
वर्षतक एकाग्रतापूर्वक संयमित होकर प्राजापत्य, सान्तपन
अथवा तप्तकृच्छुत्रत करना चाहिये। अनिच्छापूर्वक
वैश्यकी हत्या करनेपर दो वर्षतक त्रह्महत्या-सम्बन्धी
ब्रतका पालन करना चाहिये तथा एक हजार दो सौ पचास
गायोंका दान करना चाहिये अथवा कृच्छू या अतिकृच्छुब्रत
एवं चान्द्रायणबत्रत करना चाहिये॥ ४३--४५ ॥
४२८
* कूर्मपुराण *
संवत्सरं ब्रतं कुर्याच्छूद्रं हत्वा प्रमादत:।
गोसहस्त्रार्थपादं चर दद्यात् तत्पापशान्तये।॥ ४६ ॥।
अष्टो वर्षाणि षट् त्रीणि कुर्याद् ब्रह्महणो ब्रतम्।
हत्वा तु क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं चेव यथाक्रमम्॥ ४७॥।
निहत्य ब्राह्मर्णी विप्रस्त्वष्टवर्ष ब्रतं चरेत्।
राजन्यां वर्षषट्कं तु वैश्यां संवत्सरत्रयम्।
वत्सरेण विशुध्येत शूद्रां हत्वा द्विजोत्तम:ः ॥ ४८ ॥
बैश्यां हत्वा प्रमादेन किश्ञिद् दद्याद् द्विजातये।
अन्त्यजानां वधे चेव कुर्याच्चान्द्रायणं ब्रतम् ।
पराकेणाथवा शुद्धिरित्याह भगवानज:॥ ४९॥
मण्डूकं नकुलं काकं॑ दन्दशूकं च मूषिकम्।
श्वानं हत्वा द्विज: कुर्यात् षोडशांशं ब्रतं तत: ॥ ५० ॥
पय: पिबेत् त्रिरात्र तु श्वानं हत्वा सुयन्त्रितः ।
मार्जारे वाथ नकुलं योजनं वाध्वनो ब्रजेत्।
कृच्छुं द्वादशरात्र तु कुर्यादश्ववधे द्विज:॥ ५१॥
अश्रीं कार्ष्णायर्सी दद्यात् सर्प हत्वा द्विजोत्तम:।
पलालभारं षण्डं च सैसकं चैकमाषकम्॥ ५२॥
घृतकुम्भं बराहं च तिलद्रोणं च तित्तिरिम्।
शुकं द्विहायनं वत्सं क्रौज्ल॑ हत्वा त्रिहायनम्॥ ५३॥
हत्या हंसं बलाकां च बकं बहिंणमेव च।
वबानरं श्येनभासी च स्पर्शयेद ब्राह्मणाय गाम्॥ ५४॥
प्रमादवश शूद्रकी हत्या करनेपर इस पापके शमनके
लिये एक वर्षतक ब्रह्महत्याका ब्रत करना चाहिये और
एक हजार एक सौ पचीस गौओंका दान करना
चाहिये ॥ ४६ ॥
क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-इनमेंसे किसी एकका वध
करनेपर क्रमश: आठ, छ: तथा तीन वर्षतक ब्रह्महत्या-
सम्बन्धी ब्रतका पालन करना चाहिये। ब्राह्मणीकी हत्या
करनेपर ब्राह्मणकों आठ वर्षतक ब्रह्महत्याके ब्रतका
पालन करना चाहिये। क्षत्राणीकी हत्या करनेपर छ:
वर्षतक और वैश्याकी हत्या होनेपर तीन वर्षतक तथा
शूद्राकी हत्या होनेपर एक वर्षतक ब्रह्महत्या-सम्बन्धी
ब्रतका पालन करनेसे द्विजोत्तम शुद्ध हो जाता है।
प्रमादवश वैश्यकी स्त्रीकी हत्या करनेपर टद्विजको
किश्वित् दान करना चाहिये। अन्त्यजोंका वध होनेपर
चान्द्रायण-बत्रत करना चाहिये अथवा भगवान् ब्रह्माने
पराकब्रतके द्वारा शुद्धि बतलायी है॥४७--४९॥
मेढक, नकुल, कौआ, दन्दशूक (हिंसक जन्तु),
चूहा अथवा कुत्तेकी हत्या करनेपर द्विजको ब्रतके
सोलहवें अंशका पालन करना चाहिये। कुत्तेकी हत्या
करनेपर सावधान होकर तीन रात्रिपर्यन्त दूधमात्र पीकर
रहना चाहिये। बिल्ली अथवा नेवलेका वध हो जानेपर
एक योजन (चार कोस)-तक मार्गमें (अनशनपूर्वक)
चलना चाहिये। द्विजको अश्वका वध करनेपर बारह
रात्रिपर्यन्त कृच्छुत्रत करना चाहिये। द्विजोत्तमको चाहिये
कि वह सर्पको मारनेपर काले लोहेकी अश्री (तीक्ष्ण
अग्रभागवाला लोहदण्ड)-की प्रतिमा दान करे। साँड़की
हत्या करनेपर एक भार धानकी भूसी तथा एक मासा
सीसा दान देना चाहिये॥ ५०--५२॥
वराहकी हत्या करनेपर घृतसे भरा घड़ा और
तितिरकी हत्या करनेपर एक द्रोण तिल देना चाहिये।
शुककी हत्या करनेपर दो वर्षतकके (गायका) बछड़ा,
क्रौद्धको मारनेपर तीन वर्षके (गायके ) बछड़ेका दान
करना चाहिये। हंस, बलाका (वक-पंक्ति), बक
(बगुला), मोर, वानर, बाज एवं गिद्धका वध करनेपर
ब्राह्मणणके लिये गौका दान करना चाहिये॥ ५३- ५४॥
* अध्याय ३९ *
क्रव्यादांस्तु मृगान् हत्वा धेनुं दद्यात् पयस्विनीम् ।
४२९
मांस भक्षण करनेवाले अरण्यके पशुओं (व्याप्र
अक्रव्यादान् वत्सतरीमुष्टं हत्वा तु कृष्णलम्॥ ५५॥ | आदि)-की हत्या करनेपर पयस्विनी गौका दान करना
किद्धिदेव तु विप्राय दद्यादस्थिमतां वधे।
अनश्थ्रां चेव हिंसायां प्राणायामेन शुध्यति॥ ५६॥
फलदानां तु वृक्षाणां छेदने जप्यमृुकूशतम्।
गुल्मवल्लीलतानां तु पुष्पितानां च वीरुधाम्॥ ५७॥
अन्येषां चैव वृक्षाणां सरसानां च सर्वश:ः।
फलपुष्पोद्धवानां च घृतप्राशो विशोधनम्॥ ५८ ॥
हस्तिनां च वधे दृष्टं तप्तकृच्छें विशोधनम्।
चान्द्रायणं पराकं वा गां हत्वा तु प्रमादत: ।
चाहिये। मांस न खानेवाले पशुओं--हरिण, खंजरीट
आदिकी हत्या करनेपर (गौकी) बछड़ीका दान करना
चाहिये और ऊँटका वध करनेपर कृष्णलका (घुँघची
अर्थात् एक रत्ती सुवर्णका) दान करना चाहिये | अस्थिवाले
पशु-पक्षीका वध करनेपर ब्राह्मणको किज्ञित् दान करना
चाहिये और बिना अस्थिवाले पशु-पक्षीका वध होनेपर
प्राणायाम करनेसे शुद्धि होती है ॥ ५५-५६ ॥
फलदार वृक्षोंक काटनेपर एक सौ ऋचाओंका जप
करना चाहिये। गुल्म, वल्ली, लता तथा फूलवाले वृक्षों
और अन्य सभी प्रकारके रसवाले, फल तथा पुष्प
देनेवाले वक्षोंको नष्ट करनेपर घृत-प्राशन करनेसे शुद्धि
होती है। हाथीका वध करनेपर तप्तकृच्छुत्रत करनेसे
शुद्धि होती है। प्रमादवश गौंकी हत्या करनेपर चान्द्रायण
अथवा पराकब्रत करना चाहिये और जान-बूझकर वध
मतिपूर्व वधे चास्या: प्रायश्चित्तं न विद्यते॥ ५९ ॥ | करनेपर इस हिंसाका कोई प्रायश्चित्त नहीं है॥ ५७--५९॥
डति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्रयां संहितायामुपरिविभागे द्वात्रिशोउध्याय: ॥ ३२ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें बत्तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३२॥
तेंतीसवाँ अध्याय
प्रायश्चित्त-प्रकरणमें चोरी तथा अभक्ष्य-भक्षणका प्रायश्चित्त, प्रकीर्ण पापोंका प्रायश्षित्त,
समस्त पापोंकी एकत्र मुक्तिके विविध उपाय,पतिक्रताको कोई पाप नहीं लगता,
पतिब्रताके माहात्म्यमें देवी सीताका आख्यान, सीताद्वारा अग्रिस्तुति,
ज्ञानयोगकी प्रशंसा तथा प्रायश्चित्त-प्रकरणका उपसंहार
व्यास उवाच
मनुष्याणां तु हरणं कृत्वा स्त्रीणां गृहस्य च।
वापीकूपजलानां च शुध्येच्चान्द्रायणेन तु॥ १॥
द्रव्याणामल्पसाराणां स्तेयं कृत्वान्यवेश्मतः ।
चरेत् सांतपनं कृच्छुं तन्निर्यात्यात्मशुद्धये॥ २॥
धान्याननधनचोर्य तु कृत्वा कामाद् द्विजोत्तम: ।
स्वजातीयगृहादेव कृच्छार्धेन विशुध्यति॥ ३॥
भक्षभोज्यापहरणे यानशय्यासनस्थय च।
पुष्पमूलफलानां च पद्ञगव्यं विशोधनम्॥ ४॥
तृणकाष्ठद्रुमाणां च शुष्कान्नस्य गुडस्य च।
चैलचर्मामिषाणां च त्रिरात्र स्थादभोजनम्॥ ५॥
व्यासजीने कहा--मनुष्य, स्त्री, गृह, वापी, कूृप
तथा जलाशयोंका अपहरण करनेपर चान्द्रायणब्रत करनेसे
शुद्धि होती है। दूसरेके घरोंसे अल्प सारवाली अर्थात्
सामान्य वस्तुओंकी चोरी करनेपर उस पापसे अपनी
शुद्धिके लिये कृच्छूसान्तपनत्रत करना चाहिये। द्विजोत्तम
यदि इच्छापूर्वक अपनी जातिवाले बान्धवोंके घरसे धान्य,
अन्न अथवा धनको चोरी करे तो अर्धकुच्छुब्रतका पालन
करनेसे शुद्ध होता है। भक्ष्य एवं भोज्य पदार्थों तथा
यान, शय्या, आसन, पुष्प, मूल तथा फलोंकी चोरीकी
शुद्धि पञ्चगव्य-प्राशनसे होती है। तृण, काष्ठ, वृक्ष,
शुष्कान्न, गुड़, वस्त्र, चर्म तथा मांसकी चोरी करनेपर
तीन रात्रितक भोजन नहीं करना चाहिये॥ १--५॥
४२०
मणिमुक्ताप्रवालानां ताम्रस्य रजतस्थ च।
अयःकांस्योपलानां च द्वादशाहं कणाशनम्॥ ६ ॥
कार्पासकीटजोर्णानां द्विश+फिकशफस्य च।
पक्षिगन्धौषधीनां च रज्ज्वाएचेव ज््यहं पय: ॥ ७ ॥
नरमांसाशनं कृत्वा चान्द्रायणमथाचरेत्।
काकं चैव तथा एवानं जग्ध्वा हस्तिनममेव च।
वराहं कुक्कुट्ट चाथ तप्तकृच्छेण शुध्यति॥ ८ ॥
क्रव्यादानां च मांसानि पुरीषं मृत्रमेव च।
गोगोमायुकपीनां च तदेव ब्रतमाचरेत्।
उपोष्य द्वादशाहं तु कृष्माण्डैर्जहुयाद् घृतम्॥ ९ ॥
नकुलोलूकमार्जारं जग्ध्वा सांतपनं चरेत्।
धापदोष्ट्रखराज्शग्ध्वा तप्तकृच्छेण शुध्यति।
ब्रतवच्चैव संस्कारं पूर्वेण विधिनेव तु॥ १०॥
बकं चैव बलाकं च हंसं कारण्डवं तथा।
चक्रवाकं प्लवं जग्ध्वा द्वादशाहमभोजनम्॥ ११॥
कपोतं टिट्टिभ॑ चैव शुकं॑ सारसमेव च।
उलूकं जालपादं च जग्ध्वाप्येतद् ब्रतं चरेत्॥ १२ ॥
शिशुमारं तथा चाषं मत्स्यमांसं तथेव च।
जग्ध्वा चेव कटाहारमेतदेव चरेद् ब्रतम्॥ १३॥
कोकिलं चैव मत्स्यांश्व॒ मण्डूकं भुजगं तथा।
गोमूत्रयावकाहारो मासेनैकेन शुध्यति॥ १४॥
जलेचरांश्व जलजान् प्रत्तुदानू नखविष्किरान्।
रक्तपादांस्तथा जग्ध्वा सप्ताहं चेतदाचरेत्॥ १५॥
शुनो मांस शुष्कमांसमात्मार्थ च तथा कृतम्।
भुक्त्वा मासं चरेदेतत् तत्पापस्यापनुत्तये॥ १६॥
वार्ताक॑ भूस्तृणं शिमरुं खुखुण्डं करकं॑ तथा।
प्राजापत्यं चरेज्जग्ध्वा शंखं कुम्भीकमेव च॥ १७॥
न कूर्मपुराण न
मणि, मोती, मूँगा, ताँबा, चाँदी, लोहा, काँसा तथा
पत्थरकी चोरी करनेपर बारह दिनतक कण (टूटे
चावल)-का भक्षण करना चाहिये। कपास, रेशम, ऊन,
दो खुर तथा एक खुरवाले पशु, पक्षी, गन्ध, औषधि
तथा रस्सीका हरण करनेपर तीन दिनतक जलनमात्र
पीकर रहना चाहिये॥ ६-७॥
मनुष्यका मांस भक्षण करनेपर चान्द्रायणत्रत करना
चाहिये। कौआ, कुत्ता, हाथी, वराह और कुक्कुटका मांस
खानेपर तप्तकृच्छुत्रतसे शुद्धि होती है। कच्चा मांस खानेवाले
जानवरों, सियारों तथा बंदरोंका मांस तथा मल-मूत्र
भक्षण करनेपर तप्तकच्छुत्रत करना चाहिये तथा बारह
दिनोंतक उपवास करके कृष्माण्ड-संज्ञक मन्त्रोंसे घीको
आहुति देनी चाहिये। नेवला, उल्लू तथा बिल्लीका मांस
भक्षण करनेपर सान्तपनब्रत करना चाहिये। शिकारी
पशु, ऊँट और गदहेका मांस खानेपर तप्तकृच्छुब्रतसे
शुद्धि होती है। पहले निर्दिष्ट विधानके अनुसार ब्रतके
समान ही संस्कार भी करना चाहिये॥ ८--१०॥
बक (बगुला), बलाक (बक-पंक्ति), हंस,
कारण्डव, चक्रवाक तथा प्लव पक्षीका मांस भक्षण
करनेपर बारह दिनतक भोजन (अन्न ग्रहण) नहीं करना
चाहिये। कपोत, टिट्टिभ, शुक, सारस, उलूक तथा
कलहंसका मांस भक्षण करनेपर भी यही ब्रत (बारह
दिनतक उपवास) करना चाहिये। शिशुमार, नीलकण्ठ,
मछलीका मांस तथा गीदड़का मांस भक्षण करनेपर
भी यही (उपर्युक्त) ब्रत करना चाहिये। कोयल, मत्स्य,
मेढक तथा सर्प भक्षण करनेपर एक मासतक मोमूत्रमें
अधपके यवका या यवके सत्तू आदिका भक्षण
करनेसे शुद्धि होती है। जलचर, जलज, प्रत्तुद अर्थात्
चोंचद्वारा ठोकर मारकर आहार करनेवाले कौआ आदि,
नखविष्किर अर्थात् तितिर आदि और लाल पैरवाले
पक्षियोंका मांस भक्षण करनेपर एक सप्ताहतक यह
(उपर्युक्त) त्रत करना चाहिये। कुत्तेका मांस, सूखा
मांस तथा अपने लिये बनाया मांस खानेपर उस
पापको हटानेके लिये एक महीनेतक यह (ऊपर कहा
गया) व्रत करना चाहिये। बैगन, भूस्तृूण, सहजन,
खुखुण्ड, करक, शट्डभु और कुम्भीकका भक्षण करनेपर
प्राजापत्यत्रत करना चाहिये॥ ११--१७॥
* अध्याय ३३४३ *
पलाण्डुं लशुनं चैव भुक््त्वा चान्द्रायणं चरेत्।
नालिकां तण्डुलीयं च प्राजापत्येन शुध्यति॥ १८ ॥
आश्मान्तकं तथा पोतं तप्तकृच्छेण शुध्यति।
प्राजापत्येन शुद्धि: स्थात् कक््कुभाण्डस्य भक्षणे॥ १९॥
अलाबुं किंशुकं चैव भुक््त्वा चैतद् ब्रतं चरेत्।
उतुम्बरं च कामेन तप्तकृच्छेण शुध्यति॥ २०॥
वृथा कृसरसंयावं॑ पायसापूपसंकुलम् |
भुक्त्वा चैवंविध॑ त्वन्नं त्रिरात्रेण विशुध्यति॥ २१॥
पीत्वा क्षीराण्यपेयानि ब्रह्माचारी समाहितः ।
गोमूत्रयावकाहारो मासेनेकेन शुध्यति॥ २२॥
अनिर्दशाहं गोक्षीरें माहिषं चाजमेव च।
संधिन्याश्व विवत्साया: पिबन् क्षीरमिदं चरेत्॥ २३॥
एतेषां च विकाराणि पीत्वा मोहेन मानव: ।
गोमूत्रयावकाहार: सप्तरात्रेण शुध्यति॥ २४॥
भुक्त्वा चैव नवश्राद्धे मृतके सूतके तथा।
चान्द्रायणेन शुध्येत ब्राह्मणस्तु समाहित: ॥ २५॥
यस्याग्नौ हूयते नित्यं न यस्याग्र॑ न दीयते।
चान्द्रायणं चरेत् सम्यक् तस्यान्नप्राशने द्विज: ॥ २६॥
अभोज्यानां तु सर्वेषां भुक्त्वा चान्नमुपस्कृतम् ।
अन्तावसायिनां चैव तप्तकृच्छेण शुध्यति॥ २७॥
चाण्डालान द्विजो भुक्त्वा सम्यक् चाद्भायणं चरेत्।
बुद्धिपूर्व तु कृच्छाब्दं पुनः संस्कारमेव च॥ २८ ॥
४२१
प्याज एवं लहसुन भक्षण करनेपर चान्द्रायणन्रत
करना चाहिये। नालिका शाक और तण्डुलीयक (चौलाई)-
का साग खानेपर प्राजापत्य ब्रतसे शुद्धि होती है।
अश्मान्तक तथा पोतका भक्षण करनेपर तप्तकृच्छुब्रत
करनेसे शुद्धि होती है। कक्कभके अंडेका भक्षण
करनेपर प्राजापत्य-ब्रतसे शुद्धि होती है। अलाबु (वर्तुलाकार
अर्थात् गोल लौकी) तथा किंशुक (पलाश)-का भक्षण
करनेपर भी यही ब्रत करना चाहिये। इच्छापूर्वक
उदुम्बर (गूलर)-का भक्षण करनेपर तप्तकृच्छुसे शुद्धि
होती है॥ १८--२० ॥
किसी शास्त्रीय उद्देश्यके बिना व्यर्थ ही या केवल
अपने लिये कसर (अन्न), संयाव (लपसी), खीर और
मालपूआके समान पदार्थ भक्षण करनेपर तीन रात्रितक
ब्रत करनेसे शुद्धि होती है। पीनेके अयोग्य दूधका पान
करनेपर सावधानीपूर्वक गोमूत्रमें पके यावकका आहार
करनेसे एक मासमें ब्रह्मचारी शुद्ध होता है। ब्यानेके
दस दिन हुए बिना अथवा गर्भिणी और बिना बच्चेवाली
गौ, भेंस और बकरीका दूध पीनेपर यही ब्रत करना
चाहिये। इनके (दूधके) विकार अर्थात् घी-दही आदिका
मोहवश भक्षण करनेपर मनुष्य सात रात्रितक गोमूत्रमें
अधपके यवका अथवा यवके सत्तू आदिका भोजन
करनेसे शुद्ध होता है॥२१--२४॥
(मृत्युके अनन्तर होनेवाले) नवश्राद्ध (मृत व्यक्तिके
प्रथम दिनसे लेकर दशम दिनतक किये जानेवाले
श्राद्ध, जननाशौच तथा मरणाशौचमें भोजन करनेपर
ब्राह्मण समाहित होकर चान्द्रायणब्रत करनेसे शुद्ध होता
है। जो (अधिकारी) न नित्य अग्रिमें हवन करता
है और न अग्रासन (भोजन करनेके पूर्व ब्राह्मण तथा
अतिथिको भोजन कराता है, न गोग्रास ही निकालता
है) देता है, उसका अन्न भक्षण करनेपर द्विजको
चान्द्रायणत्रत करना चाहिये। जो अभोज्य हैं उन
सभीका तथा अन्त्यजोंका पकवान्न ग्रहण करनेपर
तप्तकृच्छुत्रतसे शुद्धि होती है। बिना जाने चाण्डालका
अन्न भक्षण करके द्विजको भलीभाँति चान्द्रायणब्रत
करना चाहिये और जान-बूझकर ऐसा करनेपर एक
वर्षतक कृच्छृबत्रतका पालन करके पुनः (द्विजत्व-
प्राप्तेोक लिये) संस्कार करना चाहिये॥ २५--२८ ॥
४२२
असुरामद्यपानेन._ कुर्याच्चान्द्रायणत्रतम्।
अभोज्यानन तु भुक्त्वा च प्राजापत्येन शुध्यति॥ २९॥
विण्मूत्रप्राशनं कृत्वा रेतसश्चैतदाचरेत्।
अनादिष्टेषु चेकाहं सर्वत्र तु यथार्थतः॥ ३०॥
विड्वराहखरोष्ट्राणां गोमायो: कपिकाकयो:।
प्राश्य मूत्रपुरीषाणि द्विजश्चान्द्रायणं चरेत्॥ ३१॥
अज्ञानात् प्राश्य विप्मूत्रं सुरासंस्पृष्टमेव च।
पुनः संस्कारमर्हन्ति त्रयो वर्णा द्विजातय:॥ ३२॥
क्रव्यादां पक्षिणां चैव प्राश्य मूत्रपुरीषकम् ।
महासांतपनं मोहात् तथा कुर्याद द्विजोत्तम: ।
भासमण्डूककुररे विष्किरे कृच्छुमाचरेत्॥ ३३॥
प्राजापत्येन शुध्येत ब्राह्मणोच्छिष्टभोजने।
क्षत्रिये तप्तकृच्छू स्याद् वैश्ये चेवातिकृच्छूकम् |
शूद्रोच्छिष्ट द्विजो भुक्त्वा कुर्याच्चान्द्रायणत्रतम्॥ ३४॥
सुराभाण्डोदरे वारि पीत्वा चान्द्रायणं चरेत् ।
शुनोच्छिष्टं द्विजो भुक्त्वा त्रिरात्रेण विशुध्यति।
गोमूत्रयावकाहार: पीतशेषं॑ च रागवानू॥ ३५॥
अपो मूत्रपुरीषाद्येर्टूषिता: प्राशयेद् यदा।
तदा सांतपन प्रोक्तः व्रतं पापविशोधनम्॥ ३६॥
चाण्डालकूपभाण्डेषु यदि ज्ञानात् पिबेजलम्।
चरेत् सांतपनं कृच्छुं ब्राह्मण: पापशोधनम्॥ ३७॥
चाण्डालेन तु संस्पृष्टे पीत्वा वारि द्विजोत्तम: ।
त्रिरात्रेण विशुध्येत पद्ञगव्येन चैव हि॥ ३८॥
महापातकिसंस्पशं भुंक्तेउस्नात्वा द्विजो यदि।
बुद्धिपूर्व तु मूढात्मा तप्तकृच्छूं समाचरेत्॥ ३९॥
स्पृष्टा महापातकिनं चाण्डालं वा रजस्वलाम् |
प्रमादाद भोजन कृत्वा त्रिरात्रेण विशुध्यति॥ ४०॥
* कूर्मपुराण *
सुराभिन्न मद्यका पान करनेपर चान्द्रायणब्रत करना
चाहिये और अभोज्यान्न-भक्षण करनेपर प्राजापत्यब्रतसे
शुद्धि होती है। मल, मूत्र एवं वीर्यका भक्षण करनेपर
भी यही (प्राजापत्य नामक) ब्रत करना चाहिये। अन्य
सभी न कहे गये पापोंमें यथाविधि एक दिनका उपवास
करना चाहिये॥ २९-३० ॥
ग्रामसूकर, गदहा, ऊँट, शुगाल, बंदर तथा कोएके
मल-मूत्रका भक्षण करनेपर द्विजको चान्द्रायणब्रत करना
चाहिये। अज्ञानसे मल-मूत्रका भक्षण करने और सुराका
स्पर्श करनेपर तीनों वर्णवाले द्विजातियोंकों पुन: संस्कार
करना चाहिये। अज्ञानवश कच्चा मांसभक्षी पक्षियोंके
मूत्र-पुरीषका भक्षण हो जानेपर द्विजोत्तमको महासांतपन
नामक ब्रत करना चाहिये। गृघ्र,मेढक, कुरर पक्षी एवं
विष्किर (नखसे बिखेरकर खानेवाले पक्षी)-का भक्षण
करनेपर (अथवा इनके मूत्र-पुरीषादिका भक्षण करनेपर)
कृच्छुत्रत करना चाहिये॥ ३१--३३॥
ब्राह्मणका उच्छिष्ट भक्षण करनेपर प्राजापत्य-ब्रतसे
शुद्धि होती है। क्षत्रियोंका उच्छिष्ट भक्षण करनेपर
तप्तकृच्छ नामक ब्रत करना चाहिये, वैश्यका उच्चचिष्ट
ग्रहण करनेपर अतिकृच्छु और शूद्रका उच्च्िष्ट ग्रहण
करनेपर ब्राह्मणको चान्द्रायणत्रत करना चाहिये। सुराके
पात्रमें जल पीनेपर चान्द्रायणत्रत करना चाहिये। कुत्तेका
जूठा खानेपर द्विजकी शुद्धि तीन रात्रितक उपवास
करनेसे होती है। कुत्तेका पीतशेष इच्छापूर्वक ग्रहण
करनेवालेको तीन राततक गोमूत्रमें पके हुए यवान्नका
आहारमात्र ग्रहण करना चाहिये॥ ३४-३५॥
यदि मल तथा मूत्र आदिसे दूषित जलका पान
कर ले तो उस पापकी शुद्धिके लिये सांतपन नामक
ब्रत बतलाया गया है। चाण्डालके कूपसे तथा उसके
बरतनोंमें यदि ज्ञानपूर्वक ब्राह्मण जल पी ले तो उस
पापकी शुद्धिके लिये कृच्छुसांतपपन नामक ब्रत करना
चाहिये। चाण्डालके द्वारा स्पर्श हुआ जल पीनेपर
द्विजोत्तम तीन रात्रितक पद्चञगव्य ग्रहण करनेसे शुद्ध
होता है। महापातकीका स्पर्श होनेपर बिना स्नान किये
यदि द्विज जान-बूझकर मोहबश भोजन करता है तो
उसे तप्तकृच्छू करना चाहिये। प्रमादवश महापातकी,
चाण्डाल या रजस्वलाका स्पर्शकर भोजन करनेपर तीन
रात्रिपर्यनत उपवाससे शुद्धि होती है॥३६--४० ॥
* अध्याय ३३ *
सस््नानाहों यदि भुझ्जीत अहोरात्रेण शुध्यति।
बुद्धिपूर्व तु कृच्छेण भगवानाह पद्मज:॥ ४१॥
शुष्कपर्युषितादीनि गवादिप्रतिदूषितम्।
भुक्त्वोपवासं कुर्वीत कृच्छुपादमथापि वा॥ ४२॥
संवत्सरान्ते कृच्छों तु चरेद् विप्र: पुनः पुनः
अज्ञातभुक्तशुद्धयर्थ ज्ञातस्य तु विशेषतः ॥ ४३ ॥
ब्रात्यानां यजनं कृत्वा परेषामन्त्यकर्म च।
अभिचारमहीनं च त्रिभि: कृच्छैर्विशुध्यति ॥ ४४ ॥
ब्राह्मणादिहतानां तु कृत्वा दाहादिका: क्रिया: ।
गोमूत्रयावकाहार: प्राजापत्येन शुध्यति॥ ४५॥
तैलाभ्यक्तो5थवा कुर्याद यदि मूत्रपुरीषके |
अहोरात्रेण शुध्येत श्मश्रुकर्म च मैथुनम्॥ ४६॥
एकाहेन विवाहाग्निं परिहार्य द्विजोत्तम:।
त्रिरात्रेण विशुध्येत त्रिरात्रात् पघड॒ह॑ पुनः॥ ४७॥
दशाहं द्वादशाहं वा परिहार्य प्रमादत:।
कृच्छुं चान्द्रायणं कुर्यात् तत्पापस्यापनुत्तये॥ ४८ ॥
पतिताद् द्रव्यमादाय तदुत्सगेण शुध्यति।
चरेत् सांतपनं कृच्छुमित्याह भगवान् प्रभु: ॥ ४९॥
अनाशकनितृत्तास्तु प्रव्नज्यावसितास्तथा।
चरेयुस्त्रीणि कृच्छाणि त्रीणि चाद्भायणानि च॥ ५०॥
पुनश्च जातकर्मादिसंस्कारै: संस्कृता द्विजा: ।
४२३
भगवान् ब्रह्माने कहा है कि स्नानके योग्य व्यक्ति
यदि बिना स्नान किये भोजन करता है तो वह अहोरात्र
उपवास करनेसे शुद्ध हो जाता है, किंतु ज्ञानपूर्वक
भोजन करनेपर कृच्छुत्रत करनेसे शुद्धि होती है। शुष्क,
बासी आदि तथा गौ आदिद्वारा दूषित (उच्चछिष्ट)
पदार्थोका भक्षण करनेपर एक दिनका उपवास अथवा
कृच्छुबत्रतका चतुर्थाश ब्रत करना चाहिये। अज्ञानमें
अभोज्य पदार्थंके भक्षणसे होनेवाले पापकी शुद्धिके
लिये संवत्सरके अन्तमें ब्राह्मगको बार-बार कृुच्छुब्रत
करना चाहिये और जान-बूझकर ऐसा होनेपर इसे
विशेषरूपसे करना चाहिये॥ ४१--४३ ॥
संस्कारहीन पुरुषोंका यज्ञ कराने और दूसरोंका*
अन्त्येष्टिकर्म तथा अभिचार-कर्म करनेपर तीन कुच्छुब्रत
करनेसे शुद्धि होती है। ब्राह्मण आदिके द्वारा मारे गये
पुरुषोंका दाहादि कर्म करनेपर गोमूत्रमें पके यवान्नका
आहार करने और प्राजापत्य-ब्रत करनेसे शुद्धि होती
है। तेल लगाकर और मल-मूत्रका त्याग करने, श्मश्रुकर्म
करने (दाढ़ी आदि बनाने) तथा मैथुन करनेपर अहोरात्र
उपवास करनेसे शुद्धि होती है॥४४--४६॥
एक दिन विवाहाग्नि (गृद्माग्नमि)-का त्याग करने
अर्थात् उस अग्रिमें हवन न करनेसे द्विजोत्तम तीन
दिन (उपवास करने)-से शुद्ध होता है और तीन
दिनतक नित्य हवन न करनेपर छ: दिनोंके उपवाससे
शुद्ध होता है। प्रमादवश दस दिन अथवा बारह दिनतक
गृह्याग्रिका त्याग करनेपर उस पापकी शुद्धिके लिये
कृच्छुचान्द्रायणत्रत करना चाहिये॥ ४७-४८ ॥
भगवान् प्रभुने बताया है कि पतित व्यक्तिसे द्रव्य
लेनेपर उस द्रव्यका त्याग कर देनेसे शुद्धि होती है,
साथ ही कृच्छूसांतपनव्रत करना चाहिये। प्रायोपवेशन-
ब्रतसे भ्रष्ट तथा संन्यास-आश्रमसे च्युत व्यक्तिको तीन
कृच्छू और तीन चान्द्रायणत्रत करना चाहिये॥ ४९-५० ॥
पुन: जातकर्मादि संस्कारोंद्वारा संस्कृत होनेपर धर्मकी
वृद्धि चाहनेवाले द्विजोंको भलीभाँति ब्रतका पालन
शुध्येयुस्तद् त्रतं सम्यक् चरेयुर्धर्मवर्धना: ॥ ५१॥ | करना चाहिये॥५१॥
पक न कल कम न न न कक पल पल न 2 नमक कक कम
* यद्यपि अधिकारीके अभावमें किसीका अन्त्यकर्म करना पुण्यप्रद होता है, पर यदि यही अन्त्यकर्म लोभवश अधिकारीके रहते
हुए भी स्वयं किया जाय तो पापका कारण होता है, अतः इसके लिये प्रायश्वित्तका विधान है।
४ड२४ * कूर्मपुराण *
अनुपासितसंध्यस्तु तदहर्यापको वसेत्।
अनश्नन् संयतमना रात्रौ चेद् रात्रिमेव हि॥ ५२॥
अकृत्वा समिदाधानं शुचि: स्नात्वा समाहित: ।
गायतन्र्यष्टसहस्त्रस्य जप्यं कुर्याद विशुद्धये॥ ५३ ॥
उपासीत न चेत् संध्यां गृहस्थो5पि प्रमादत: ।
स्नात्वा विशुध्यते सद्यः परिश्रान्तस्तु संयमात्॥ ५४॥
वेदोदितानि नित्यानि कर्माणि च विलोप्य तु।
सस््नातकब्रतलोपं तु कृत्वा चोपवसेद् दिनम्॥ ५५७॥
संवत्सरं चरेत् कृच्छुमग्न्युत्सादी द्विजोत्तम: ।
चान्द्रायणं चरेद् ब्रात्यो गोप्रदानेन शुध्यति॥ ५६ ॥
नास्तिक्यं यदि कुर्वीत प्राजापत्यं चरेद् द्विज: ।
देवद्रोह गुरुद्रोह तप्तकृच्छेण शुध्यति॥ ५७॥
उष्ट्रयान॑ समारुह्र खरयानं च कामतः।
ब्रिरात्रेण विशुध्येत् तु नग्नो वा प्रविशेजजलम्॥ ५८ ॥
षष्टाननकालतामासं संहिताजप एव च।
होमाश्च शाकला नित्यमपांक्तातानां विशोधनम्॥ ५९ ॥
नील रक्त वसित्वा च ब्राह्मणो वस्त्रमेव हि।
अहोरात्रोषितः स्नातः पश्चगव्येन शुध्यति॥ ६०॥
बेदधर्मपुराणानां चण्डालस्य तु भाषणे।
चाद्धायणेन शुद्धि: स्थान ह्ान्या तस्य निष्कृति: ॥ ६१ ॥
(प्रात:) संध्या न करनेपर उस दिन वैसे ही बिना
भोजन किये संयतमन होकर रहना चाहिये और सायं-
संध्या न करनेपर रात्रिमें भोजन नहीं करना चाहिये।
(गार्हपत्याग्रिमें) समिधा न डालनेपर अर्थात् नित्य-
हवन (नित्यकर्म--अग्निहोत्र) न करनेपर उस पापकी
शुद्धिके लिये स्नान करके पवित्रतापूर्वक समाहित होकर
आठ हजार गायत्रीका जप करना चाहिये। गृहस्थाश्रममें
रहते हुए भी व्यक्ति यदि प्रमादसे संध्या नहीं करता
है तो स्नान करके उपवास करनेसे वह शुद्ध हो जाता
है और थकानके कारण संध्या न करनेवाला संयम
(मन एकाग्रकर पश्चात्तापमात्र) करनेसे शुद्ध हो जाता
है। वेदमें बताये गये नित्य-कर्मोंका लोप करने तथा
स्नातकके ब्रतका लोप करनेपर स्नातकको एक दिनका
उपवास करना चाहिये॥ ५२--५५॥
अग्निका परित्याग करनेवाले द्विजोत्तमको एक वर्षतक
कृच्छुब्रत करना चाहिये और संस्कारहीन व्यक्ति चान्द्रायणब्रत
करने और गोदान करनेसे शुद्ध हो जाता है। नास्तिकता
करनेवाले द्विजको प्राजापत्य-ब्रतका पालन करना चाहिये।
देवतासे तथा गुरुसे द्रोह करनेपर तप्तकृच्छुत्रत करनेसे
शुद्धि होती है। इच्छापूर्वक ऊँट या गदहेकी सवारी
करनेपर तीन रात्रिपर्यन्त उपवास करनेसे शुद्धि होती
है। इसी प्रकार नग्र होकर जलमें प्रवेश करनेपर तीन
राततक उपवास करना चाहिये॥ ५६--५८ ॥
पंक्तिसे बहिष्कृत यदि ऐसे लोग हैं, जिनके लिये
विशेष प्रायश्चित्तका उपदेश नहीं किया गया है, वे लोग
एक मासतक नियमपूर्वक 'षष्ठान्नकालता” (तीन दिन
भोजन न कर तीसरे दिन सायं केवल एक बार
सात्त्विक (हविष्यान्न) भोजन करें, संहिताजप (वेदसंहिताके
मन्त्रोंका पाठ) करें तथा शाकल होम (बौधायनस्मृति
प्रश्न ४, अध्याय ३ के अनुसार) करें तो शुद्ध हो
सकते हैं। नीला या लाल वस्त्र धारण करनेपर ब्राह्मण
एक अहोरात्र उपवास करनेके अनन्तर स््रानकर पञ्चञगव्यका
पान करनेसे शुद्ध होता है॥५९-६०॥
चाण्डालको वेद, धर्मशास्त्रों तथा पुराणोंका
उपदेश करनेपर चान्द्रायणसे शुद्धि होती है, इसके
अतिरिक्त उसकी निष्कृति (निस्तार)-का कोई अन्य
उपाय नहीं है॥६१॥
* अध्याय ३९३ *
उदबन्धनादिनिहतं संस्पृश्य ब्राह्मण: क्वचित्।
चाद्धायणेन शुद्धि: स्यात् प्राजापत्येन वा पुन: ॥ ६२ ॥
उच्छिष्टो यद्यनाचान्तश्नाण्डालादीन् स्पृशेद् द्विज: ।
प्रमादाद वे जपेत् स्नात्वा गायत्र्यष्टसहसत्रकम्॥ ६३ ॥
द्रुपदानां शतं वापि ब्रह्मचारी समाहित: ।
त्रिरात्रोपोषित: सम्यक् पञ्ञगव्येन शुध्यति॥ ६४॥
चण्डालपतितादीस्तु कामाद् यः संस्पृशेद् द्विज: ।
उच्छिष्टस्तत्र कुर्वात प्राजापत्यं विशुद्धये।॥ ६५॥
चाण्डालसूतकशवांस्तथा नारी रजस्वलाम्।
स्पृष्ठा स्नायाद विशुद्धयर्थ तत्स्पृष्ट पतितं तथा ॥ ६६ ॥
चाण्डालसूतकशवै: संस्पृष्टं संस्पृशेद यदि।
प्रमादात् तत आचम्य जप॑ कुर्यात् समाहित: ॥ ६७॥
तत्स्पृष्टस्पर्शिनं स्पृष्टा बुद्धिपूर्व द्विजोत्तमः।
आचरमेत् तद्विशुद्धयर्थ प्राह देव: पितामह: ॥ ६८ ॥
भुझानस्य तु विप्रस्थ कदाचित् संस्त्रवेद् गुदम्।
कृत्वा शौच ततः स्नायादुपोष्य जुहुयाद घृतम्॥ ६९॥
चाण्डालान्त्यशवं स्पृष्टा कृच्छं कुर्याद् विशुद्धये
स्पृष्ठाभ्यक्तस्त्वसंस्पृश्यमहोरात्रेण शुध्यति॥ ७०॥
सुरां स्पृष्ठा द्विज: कुर्यात् प्राणायामत्रयं शुचिः ।
पलाण्डुं लशुनं चैव घृतं प्राश्य ततः शुचि: ॥ ७१॥
ब्राह्मणस्तु शुना दष्टस्त्यहं सायं पय: पिबेत्।
नाभेरूर्ध्व॑ तु दष्टस्य तदेव द्विगुणं भवेत्॥ ७२॥
स्यादेतत् त्रिगुणं बाह्वोर्मू्शविं च स्याच्चतुर्गुणम् ।
स्नात्वा जपेद् वा सावित्री श्रभिर्दष्टो द्विजोत्तम: ॥ ७३ ॥
* यथाविधि आचमनकी योग्यता स्रानके बिना नहीं होती है।
४२५
उद्दन्धन (फाँसी) आदिद्वारा मरे व्यक्तिका कदाचित्
स्पर्श होनेपर ब्राह्मण चान्द्रायण अथवा प्राजापत्यब्रत
करनेसे शुद्ध होता है। प्रमादवश यदि जूठे मुँह बिना
आचमन किये द्विज चाण्डाल आदिका स्पर्श करता
है तो उसे स्नानकर आठ हजार गायत्रीका जप करना
चाहिये। ब्रह्मचारीको तो समाहित होकर तीन रात
उपवास करके भलीभाँति सौ बार द्वुपदा मन्त्रका जप
करना चाहिये और फिर पञ्ञगव्यप्राशन करनेपर उसकी
शुद्धि होती है। जो उच्छिष्टमुख द्विज इच्छापूर्वक
चाण्डाल तथा पतित आदिका स्पर्श करता है, उसे
शुद्धिके लिये प्राजापत्यत्रत करना चाहिये॥ ६२--६५॥॥
चाण्डाल, अशौचयुक्त व्यक्ति, शव, रजस्वला स्त्री,
उनसे स्पृष्ट व्यक्ति तथा पतितका स्पर्श करनेपर शुद्धिके
लिये स्नान करना चाहिये। प्रमादवश चाण्डाल, अशौचयुक्त
व्यक्ति तथा शव--इनको स्पर्श किये व्यक्तिका स्पर्श होनेपर
(स्रानोपरान्त) आचमन करके एकाग्र होकर (गायत्री-)
जप करना चाहिये। द्विजोत्तम यदि जान-बूझकर चाण्डाल
आदिद्वारा स्पर्श किये व्यक्तिका स्पर्श करे तो उसे उस
पापकी शुद्धिके लिये (स्नान* करके) आचमन करना
चाहिये--ऐसा पितामहदेवने कहा है॥ ६६--६८ ॥
भोजन करते समय ब्राह्मणके गुदामार्गसे कदाचित्
मलज्नाव हो जाय तो शौच करनेके अनन्तर स्नान करना
चाहिये और उपवास करके घृतसे हवन करे। चाण्डाल
एवं अन्त्यजके शवका स्पर्श करके शुद्धिके लिये
कृच्छुत्त करना चाहिये। उबटन आदि लगानेके बाद
अस्पृश्य व्यक्तिका स्पर्श होनेपर एक अहोरात्र उपवास
करनेसे शुद्धि होती है॥६९-७०॥
सुराका स्पर्श करके द्विज तीन प्राणायाम करनेसे
शुद्ध होता है। प्याज, लहसुनका स्पर्श होनेपर घृतका
प्राशन करनेसे शुद्धि होती है। कुत्तेके काटनेपर ब्राह्मणको
(कुत्तेके स्पर्शके प्रायश्वित्तके साथ) तीन दिन सायंकाल
केवल दूध पीना चाहिये। नाभिके ऊपरी भागमें
काटनेपर यही क्रिया (प्रायश्चित्त) दो बार करनी
चाहिये। इसी प्रकार बाहुमें काटनेपर यही क्रिया तीन
बार और मस्तकमें काटनेपर चार बार करनी चाहिये
अथवा कुत्तेके काटनेपर द्विजोत्तमको स्नान करके
गायत्रीका जप करना चाहिये॥ ७१--७३॥
४२६
अनिर्व्त्य महायज्ञान् यो भुंक्ते तु द्विजोत्तम: ।
अनातुरः सति धने कृच्छार्धन स शुध्यति॥ ७४॥
आहिताग्निरुपस्थानं न कुर्याद यस्तु पर्वणि।
ऋतौ न गच्छेद भार्या वा सो5पि कृच्छार्धमाचरेत्॥। ७५ ॥
विनाउंद्धिरप्सु वाप्यार्त: शारीरं संनिवेश्य च।
सचलो जलमाप्लुत्य गामालभ्य विशुध्यति॥ ७६ ॥
बुद्धिपूर्व त्वभ्युदितो जपेदन्तर्जले द्विज:।
गायत्र्यष्टसहर्त्रं तु त््यहं चोपवसेद त्रती॥७७॥
अनुगम्थेच्छया शूद्रं प्रेतीभूतं द्विजोत्तम:।
गायत्र्यष्टसहर्त्रं च जप्यं कुर्यान््नदीषु च॥ ७८ ॥
कृत्वा तु शपर्थं विप्रो विप्रस्थ वधसंयुतम्
मृषैव यावकान्नेन कुर्याच्चान्द्रायणं ब्रतम्॥ ७९ ॥
पंकत्यां विषमदानं तु कृत्वा कृच्छेण शुध्यति।
छायां श्रपाकस्यारुह्म स्नात्वा सम्प्राशयेद् घृतम्॥। ८० ॥
ईक्षेदादित्यमशुचिर्दृष्टाग्निं चन्द्रमेव वा।
मानुषं चास्थि संस्पृएय स्नान कृत्वा विशुध्यति॥ ८१॥
कृत्वा तु मिथ्याध्ययनं चरेद् भेक्षं तु बत्सरम्।
कृतप्लो ब्राह्मणगृहे पञ्ञ संवत्सरं व्रती॥८२॥
हुंकारं ब्राह्मणस्थोक्त्वा त्वंकारं च गरीयस: ।
स्नात्वानश्नन््नहःशेषं प्रणिपत्य प्रसादयेत्॥ ८३॥
हम कूर्मपुराण हम
स्वस्थ रहते और धन होनेपर भी जो द्विजोत्तम
प्रतिदिन विहित पाँच महायज्ञोंको बिना सम्पन्न किये
भोजन करता है, वह अर्धकृच्छुत्रत करनेसे शुद्ध होता
है। जो अग्रिहोत्री ब्राह्मण पर्वोमें उपस्थान नहीं करता
और जो ऋतुकालमें भायकि साथ सहवास नहीं करता
वह भी अर्धकृच्छुबत्रत करनेसे शुद्ध होता है॥ ७४-७५ ॥
कोई आर्त (मल-मूत्रके वेगसे आर्त-त्रस्त) व्यक्ति
यदि जलके अभावमें मल-मूत्रका त्याग अकस्मात् कर
देता है या जलके मध्यमें रहता हुआ मल-मूत्रके वेगसे
आर्त होनेके कारण जलके मध्य ही अकस्मात् मल-
मूत्रका त्याग कर देता है तो मल-मूत्रका प्रक्षालनकर
ग्राम या नगर आदिके बाहर नदी आदिमें शरीरपर
धारित समस्त वस्त्रोंके साथ उसे स्रान करना चाहिये
तथा गौका स्पर्श करना चाहिये, तभी शुद्धि होती है।
जान-बूझकर (सूर्योदयकालतक शयन करनेवाले अथवा
आलस्यवश सोये रहनेके कारण सूर्योदयकालीन अनुष्ठानको
न करनेवाले) ब्राह्मणको सूर्योदयके समय जलमें प्रविष्ट
होकर आठ हजार गायत्रीका जप तथा तीन दिनतक
उपवास करना चाहिये॥ ७६-७७॥
इच्छापूर्वक मृत शूद्रके शवका अनुगमन करनेपर
द्विजोत्तमको नदीके किनारे आठ हजार गायत्रीका जप
करना चाहिये। ब्राह्मणणके वध करनेकी झूठी शपथ
करनेपर ब्राह्मणको यावकान्न (यवके सत्तू या उससे
बने हुए किसी अन्य पदार्थ)-से चान्द्रायणत्रत करना
चाहिये। एक ही पंफक्तिमें बेठे हुए ब्राह्मणोंको विषम
दान करनेपर कृच्छुत्रत करनेसे शुद्धि होती है। चाण्डालकी
छायाका स्पर्श होनेपर स्नान करके घृतका प्राशन करना
चाहिये ॥ ७८--८० ॥
अशुद्धिकी स्थितिमें अग्नि अथवा चन्द्रमाका दर्शनकर
सूर्यका दर्शन करना चाहिये। मनुष्यकी हड्डीका स्पर्श
होनेपर स्नान करनेसे शुद्धि होती है। मिथ्या (असत्
विषयका अथवा दम्भपूर्ण) अध्ययन करनेपर एक
वर्षतक भिक्षात्रत ग्रहण करना चाहिये। कृतपघ्नरको (ब्रह्मचर्य)
ब्रतका पालन करते हुए पाँच वर्षतक ब्राह्मणके घरमें
निवास करना चाहिये। ब्राह्मणको 'हुंकार' तथा गुरुजनोंको
'त्वंकार' (तुम) कहनेपर स्नान करके दिनभर भोजन
नहीं करना चाहिये और उन्हें प्रणामके द्वारा प्रसन्न
करना चाहिये॥ ८१--८३॥
* अध्याय ३३४३ *
ताडयित्वा तृणेनापि कण्ठं बद्धवापि वाससा |
विवादे वापि निर्जित्य प्रणिपत्य प्रसादयेत्॥ ८४॥
अवगूर्य चरेत् कृच्छुमतिकृच्छुं निपातने।
कृच्छातिकृच्छौ कुर्वीत विप्रस्योत्पाद्य शोणितम्॥ ८५ ॥।
गुरोराक्रोशमनृतं कृत्वा कुर्याद् विशोधनम्
एकरात्र त्रिरात्रं वा तत्पापस्यापनुत्तये॥ ८६॥
देवर्षणामभिमुखं छ्लीवनाक्रोशने कृते।
उल्मुकेन दहेज्िह्वां दातव्यं च हिरण्यकम्॥ ८७॥
देवोद्याने तु यः कुर्यान्मृत्रोच्चारं सकृद द्विज: ।
छिन्द्याच्छिएनं तु शुद्धरर्थ चरेच्चान्द्रायणं तु वा॥ ८८ ॥
देवतायतने मूत्र कृत्वा मोहाद् द्विजोत्तम:।
शिश्नस्योत्कर्तनं कृत्वा चान्द्रायणमथाचरेत्॥ ८९॥
देवतानामृषीणां च देवानां चेव कुत्सनम्।
कृत्वा सम्यक् प्रकुर्वीत प्राजापत्य॑ द्विजोत्तम: ॥ ९० ॥
तैस्तु सम्भाषणं कृत्वा स्नात्वा देवान् समर्चयेत्।
दृष्ठा वीक्षेत भास्वन्तं स्मृत्वा विश्वेश्वर स्मरेत्॥ ९१ ॥
यः सर्वभूताधिपतिं विश्वेशानं विनिन्दति।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तु वर्षशतैरपि॥ ९२॥
चान्द्रायणं चरेत् पूर्व कृच्छुं चैवातिकृच्छुकम् ।
प्रपनन: शरणं देव तस्मात् पापाद विमुच्यते ॥ ९३॥
सर्वस्वदानं विधिवत् सर्वपापविशोधनम्।
चान्द्रायणं च विधिना कृच्छू चैवातिकृच्छुकम्॥ ९४॥
पुण्यक्षेत्रिभिगमनं सर्वपापविनाशनम्।
देवताभ्यर्चन॑ नृणामशेषाघविनाशनम्॥ ९५॥
४२७
तृणद्वारा भी (उनकी) ताड़ना करनेपर, वस्त्रद्वारा
कण्ठ बाँधनेपर, विवादमें पराजित करनेपर प्रणामके
द्वारा उन्हें प्रसन्न करना चाहिये। ब्राह्मणको धमकानेपर
कृच्छुत्त और पटक देनेपर अतिकृच्छुब्रत करना
चाहिये। विप्रका रक्त बहानेपर कृच्छु तथा अतिकृच्छ
दोनों ब्रत करना चाहिये॥ ८४-८५ ॥
गुरुकों गाली या शाप देनेपर या उनसे झूठ
बोलनेपर उस पापकी शुद्धिके लिये (पापके तारतम्यके
अनुसार) एक रात या तीन रातका उपवास रखना
चाहिये। देवताओं और ऋषियोंकी ओर थूकने तथा
(उनके प्रति) आक्रोश (आतक्षेप) प्रकट करनेपर
उल्मुक (अंगारवाली लकड़ी)-से जीभका दाह करना
चाहिये और स्वर्णका दान करना चाहिये। जो द्विज
देवताओंके उद्यानमें एक बार भी मल-मूत्र विसर्जित
करता है तो शुद्धिके लिये मूत्रेन्द्रिका छेदन कर देना
चाहिये अथवा चान्द्रायणब्रत करना चाहिये। जो द्विजोत्तम
देवमन्दिरमें मोहवश मूत्रोत्सर्ग करता है, उसे मूत्रेन्द्रियका
उच्छेद करके चान्द्रायणत्रत करना चाहिये। देवताओं,
ऋषियों तथा देवों (देवतुल्य महापुरुषों--माता, पिता,
गुरु आदि)-की निन्दा करनेपर द्विजोत्तमको भलीभाँति
प्राजापत्य-वब्रत करना चाहिये। इनके साथ सम्भाषण
करनेपर स्नान करके देवताओंकी पूजा करनी चाहिये
और उन्हें देखनेपर सूर्यका दर्शन करना चाहिये तथा
विश्वेश्वका स्मरण करना चाहिये॥ ८६--९१॥
जो सभी प्राणियोंके अधिपति विश्वेशानकी निन्दा
करता है, उसके पापकी शुद्धि सौ वर्षोमें भी सम्भव
नहीं है, पर (पश्चात्तापपूर्वक) पहले चान्द्रायणब्रत करे,
अनन्तर कृच्छु तथा अतिकृच्छूब्रतोंको श्रद्धापूर्वक करके
देव (शंकर)-की शरणमें जाय। ऐसा करनेपर देव
शंकरकी कृपासे ही पापसे मुक्ति हो जाती है। विधिपूर्वक
अपना सर्वस्व दान करनेसे सभी पापोंकी शुद्धि हो
जाती है। इसी प्रकार विधिपूर्वक चान्द्रायणत्रत करने,
कृच्छ् और अतिकृच्छृत्रतोंको करनेसे सभी पाप दूर
हो जाते हैं। पुण्य क्षेत्रोंकी यात्रा सभी पापोंको दूर कर
देती है। मनुष्योंक लिये देवताओंकी आराधना करना
सम्पूर्ण पापोंके नाशका अचूक साधन है॥ ९२--९५॥
४२८
अमावस्यां तिथिं प्राप्प यः समाराधयेच्छिवम् ।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ ९६ ॥
कृष्णाष्टम्यां महादेवं तथा कृष्णचतुर्दशीम्
सम्पूज्य ब्राह्मणमुखे सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ ९७ ॥
तरयोदश्यां तथा रात्रौ सोपहारं त्रिलोचनम्।
दृष्टेशं॑ प्रथमे यामे मुच्यते सर्वपातकैः॥ ९८ ॥
उपोषितकश्षतुर्दश्यां कृष्णपक्षे समाहित: ।
यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च॥ ९९ ॥
वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च।
प्रत्येक तिलसंयुक्तान् दद्यात् सप्तोदकाञझलीन।
स्नात्वा नद्यां तु पूवह्नि मुच्यते सर्वपातकै: ॥ १००॥
ब्रह्मचर्यमध:शय्यामुपवासं द्विजार्चनम्।
ब्रतेष्वेतेषु कुर्वीत शान्तः संयतमानस: ॥ १०१॥
अमावस्यायां ब्रह्माणं समुदिएय पितामहम् |
ब्राह्मणांस्त्रीन् समभ्यर्च्य मुच्यते सर्वपातके: ॥ १०२॥
षष्ठ्यामुपोषितो देवं शुक्लपक्षे समाहित: ।
सप्तम्यामर्चयेद् भानुं मुच्यते सर्वपातके: ॥ १०३॥
भरण्यां च चतुर्थ्या च॒ शनैश्चरदिने यमम्।
पूजयेत् सप्तजन्मोत्थेर्मुच्यते पातकैर्नर:॥ १०४॥
एकादश्यां निराहारः समभ्यर्च्य जनार्दनम् ।
द्वादश्यां शुक्लपक्षस्य महापापै: प्रमुच्यते॥ १०५॥
तपो जपस्तीर्थसेवा देवब्नाह्मणपूजनम्।
ग्रहणादिषु कालेषु महापातकशोधनम्॥ १०६॥
यः सर्वपापयुक्तोउपि पुण्यतीर्थेषु मानव: ।
नियमेन त्यजेत् प्राणान् स मुच्येत् सर्वपातके: ॥ १०७॥
ब्रह्मप्नं वा कृतघ्न॑ वा महापातकदूषितम्
भर्तारमुद्धरेन्नारी प्रविष्टा सह पावकम्॥ १०८ ॥
एतदेव परं स्त्रीणां प्रायश्चित्तं विदुर्बुधा: ।
सर्वपापसमुदभूतौ नात्र कार्या विचारणा॥ १०९॥
न कूर्मपुराण न
अमावास्या तिथि आनेपर जो शिवकी भलीभाँति
आराधना करता है और ब्राह्मणोंको भोजन कराता है,
वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। कृष्णपक्षकी अष्टमी
तथा कृष्णपक्षकी ही चतुर्दशीको महादेव शंकरका पूजन
कर ब्राह्मणको भोजन करानेसे सभी पापोंसे मुक्ति हो
जाती है। त्रयोदशीकी रात्रिके प्रथम याममें उपहारसहित
त्रिलोचन ईश शंकरका दर्शन करनेसे मनुष्य सभी
पातकोंसे मुक्त हो जाता है। कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको
पूर्वाहमें समाहित होकर नदीमें स्नानकर उपवास करके
यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल तथा
सर्वभूतविनाशक--इनमें प्रत्येकके निमित्त तिलमिश्रित
सात जलाझलि प्रदान करनेवाला सभी पातकोंसे मुक्त
हो जाता है॥९६--१००॥
(प्रायश्वित्तके प्रसंगसे उपदिष्ट) इन सभी कब्तोंमें
शान्त और संयतमन होकर ब्रह्मचर्य, भूमिशयन,
उपवास तथा ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये। अमावास्याको
पितामह ब्रह्माको उद्ििष्ट करके तीन ब्राह्मणोंकी पूजा
करनेसे सभी पातकोंसे मुक्ति हो जाती है। शुक्लपक्षकी
षष्ठीको समाहित होकर उपवास करके सप्तमीको
सूर्यदेबकी पूजा करनी चाहिये, इससे सभी पापोंसे
मुक्ति हो जाती है। शनिवारको भरणी नक्षत्र और
चतुर्थी तिथि होनेपर (ऐसे योगमें) जो मनुष्य यमराजका
पूजन करता है, वह सात जनन््मोंमें किये गये पापोंसे
मुक्त हो जाता है। शुक्लपक्षकी एकादशीको निराहार
रहकर द्वादशीको जनार्दनकी पूजा करनेसे महापापोंसे
मुक्ति मिल जाती है॥१०१--१०५॥
सूर्य तथा चन्द्रग्रहण आदि समयोंमें जप, तप, तीर्थ-
सेवा और देवता तथा ब्राह्मणोंका पूजन महापातकोंसे
शुद्ध करनेवाला होता है। सभी पापोंसे युक्त होनेपर भी
जो मनुष्य नियमपूर्वक पुण्य तीर्थोमें प्राणोंका त्याग करता
है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ १०६-१०७॥
मृत पतिके साथ अग्रिमें प्रवेश करनेवाली नारी
ब्रह्मघाती, कृतघप्न अथवा महापातकोंसे दूषित भी पतिका
उद्धार कर देती है। विद्वानोंने स्त्रीके लिये सभी प्रकारके
पापोंका यही (पातित्रतधर्म-पालन ही) श्रेष्ठ प्रायश्चित्त बतलाया
है। इसमें विचार नहीं करना चाहिये॥ १०८-१०९॥
* अध्याय ३४३ * ४२९
पतित्रता तु या नारी भर्तुशुश्रूषणोत्सुका।
न तस्या विद्यते पापमिह लोके परत्र च॥ ११०॥
पतिब्रता धर्मरता रुद्राण्येव न संशय: ।
नास्या: पराभवं कर्तु शक्कोतीह जन: क्वचित्॥ १११॥
यथा रामस्य सुभगा सीता त्रैलोक्यविश्रुता ।
पत्नी दाशरथेदेवी विजिग्ये राक्षसेश्वरम्॥ ११२॥
रामस्य भागा विमलां रावणो राक्षसे श्वरः ।
सीतां विशालनयनां चकमे कालचोदित: ॥ ११५३॥
गृहीत्वा मायया वेषं चरन्तीं विजने वने।
समाहर्तु मतिं चक्रे तापस: किल कामिनीम्॥ ११४॥
विज्ञाय सा च तदभावं स्पृत्वा दाशरथिं पतिम्।
जगाम शरणं वह्लिमावसथ्यं शुचिस्मिता॥ ११५॥
उपतस्थे महायोगं सर्वदोषविनाशनम्।
कृताझ्ली रामपली साक्षात् पतिमिवाच्युतम्॥ ११६॥
नमस्यामि महायोगं कृतान्तं गहन परम्।
दाहकं सर्वभूतानामीशानं कालरूपिणम्॥ ११७॥
नमस्ये पावकं देवं साक्षिणं विश्वतोमुखम् ।
आत्मानं दीप्तवपुषं सर्वभूतहदि स्थितम्॥ ११८ ॥
प्रपद्ये शरणं वह्ििं ब्रह्मण्यं ब्रह्मरूपिणम्।
भूतेशं कृत्तिवसनं शरण्यं परमं॑ पदम्॥ ११९॥
३» प्रपद्ये जगन्मूर्ति प्रभवं सर्वतेजसाम्।
महायोगेश्वर॑ वह्लिमादित्यं परमेष्ठिनम्॥ १२० ॥
प्रपद्ये शरणं रुद्रं महाग्रासं त्रिशूलिनम्।
कालागिन योगिनामीशं भोगमोक्षफलप्रदम्॥ १२१॥
प्रपच्ये त्वां विरूपाक्ष॑ भुर्भुवःस्वःस्वरूपिणम् ।
हिरण्मये गृहे गुप्तं महान्तममितौजसम्॥ १२२॥
जो नारी पतित्रता है और पतिकी सेवा-शुश्रुषामें
अनुरक्त है, उसके लिये न तो इस लोकमें कोई पाप
है और न परलोकमें॥ ११०॥
(पातित्रत) धर्मपरायण पतिक्रता (स्त्री) रुद्राणी ही
होती है, इसमें संदेह नहीं। इस संसारमें कोई भी मनुष्य
इसे कभी भी पराजित करनेमें समर्थ नहीं है। उदाहरणके
लिये दशरथके पुत्र रामकी तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध सुन्दर
पत्नी देवी सीताने राक्षसेश्वर (रावण)-को पराजित कर
दिया था। कालसे प्रेरित राक्षतराज रावणने रामकी सुन्दर
तथा विशाल नेत्रोंवाली भार्या सीताको प्राप्त करनेकी
इच्छा की। उसने मायासे तपस्वीका वेष धारणकर
जनशून्य वनमें विचरण (निवास) करती हुई कामिनी
(सीता)-का अपहरण करनेका विचार किया। तब
पतित्रता भगवती सीताने रावणके दुष्ट भावको समझकर
अपने पति दशरथ-पुत्र रामका स्मरण किया और पवित्र
मुसकानवाली उन सीतादेवीने आवसथ्य अग्निकी शरण
ग्रहण कौ॥ १११--११५॥
रामकी पत्नी (सीतादेवी) हाथ जोड़कर साक्षात्
पतिके समान सभी दोषोंको नष्ट करनेवाले महायोगरूप
अच्युत (अग्रि)-की शरणमें गयीं (और उनकी स्तुति
करने लगीं-- ) महायोगस्वरूप, परम गहन (रहस्यस्वरूप),
कृतान्त, दहन करनेवाले, सभी प्राणियोंके नियामक
कालरूपी अग्निको मैं नमस्कार करती हूँ। मैं सभी
ओर मुखवाले, सभी प्राणियोंके हृदयमें स्थित, दीसत
शरीरवाले, आत्मरूप तथा साक्षीदेव पावक (अग्नि)-को
नमस्कार करती हूँ। मैं ब्राह्मणोंके उपकारक, त्रह्मरूपी,
कृत्तिवासा, * शरणागतवत्सल, परमपदरूप भूतेश वहिकी
शरण ग्रहण करती हूँ। मैं जगन्मूर्ति, सभी तेजोंके
उद्धव-स्थान, महायोगेश्वर, परमेष्ठी, आदित्य और ओंकाररूप
वहिदेवकी शरण ग्रहण करती हूँ॥ ११६--१२०॥
मैं महाग्रास, त्रिशूली, भोग एवं मोक्षरूप फलोंके
प्रदाता, योगियोंके ईश और रुद्रस्वरूप कालाग्रिकी शरण
ग्रहण करती हूँ। मैं भूर्भुव: तथा स्व:स्वरूप, हिरण्मयगृहमें
सुगुप्त, विरूपाक्ष तथा अमित तेजस्वी आप महान्की
शरण ग्रहण करती हूँ॥१२१-१२२॥
न >मलप लेट मर कस मम: त अकल कर मर व वकिनट व आज निकल कमर अत बम लटक बल कल जल कक लमन् कर अर जन मलिक जलकर नरक लकक
* “कृत्ति' मृग आदिके चर्मको कहते हैं। अग्नि रुद्रके अंश हैं और रुद्र कृत्तिवासा हैं, इसलिये अग्निको भी कृत्तिबासा कहते हैं।
४३०
वैश्वानरं प्रपद्येदह॑ सर्वभूतेष्ववस्थितम् ।
हव्यकव्यवहं देवं प्रपद्ये वह्निमीश्वरम॥ १२३॥
प्रपद्ये तत्परं तत्त्वं बरेण्यं सवितु: स्वयम्।
भर्गमग्निपरं ज्योती रक्ष मां हव्यवाहन॥ १२४॥
इति वह्यष्टक॑ जप्त्वा रामपत्नी यशस्विनी।
ध्यायन्ती मनसा तस्थौ राममुन्मीलितेक्षणा॥ १२५॥
अथावसथ्याद् भगवान् हव्यवाहो महेश्वरः ।
आविरासीत् सुदीप्तात्मा त्तेजसा प्रवहहन्निव॥ १२६॥
सृष्टा मायामयीं सीतां स रावणवधेप्सया।
सीतामादाय धर्मिष्ठां पावको5न्तरधीयत॥ १२७॥
तां दृष्ठा तादूशी सीतां रावणो राक्षसेश्वर: ।
समादाय ययौ लइड्ढडां सागरान्तरसंस्थिताम्॥ १२८ ॥
कृत्वाथ रावणवध्ध॑ रामो लक्ष्मणसंयुत: ।
समादायाभवत् सीतां शट्डाकुलितमानस: ॥ १२९॥
सा प्रत्ययाय भूतानां सीता मायामयी पुनः ।
विवेश पावकं दीप्तं ददाह ज्वलनो5पि ताम्॥ १३० ॥
दग्ध्वा मायामयीं सीतां भगवानुग्रदीधिति: ।
रामायादर्शयत् सीतां पावको5 भूत् सुरप्रिय: ॥ १३१॥
प्रगृह्य भर्तुश्षएरणौ कराभ्यां सा सुमध्यमा।
चकार प्रणतिं भूमौ रामाय जनकात्मजा॥ १३२॥
दृष्ठा दृष्टमना रामो विस्मयाकुललोचन:।
ननाम वहिं शिरसा तोषयामास राघव:॥ १३३॥
उबाच वह्लेर्भगवान् किमेषा वरवर्णिनी।
दग्धा भगवता पूर्व दृष्टा मत्पाश्वमागता॥ १३४॥
तमाह देवो लोकानां दाहको हव्यवाहन:
यथावृत्तं दाशरथिं भूतानामेव संनिधौ॥ १३५॥
* कूर्मपुराण *
सभी प्राणियोंमें अवस्थित वैश्वानरकी में शरण ग्रहण
करती हूँ। मैं हव्य तथा कव्यको वहन करनेवाले ईश्वर
वहिदेवकी शरणमें हूँ। मैं उस पर-तत्त्व, वरणीय, साक्षात्
सविता और तेजोरूप परम ज्योति अग्निकी शरण ग्रहण
करती हूँ। हव्यवाहन ! आप मेरी रक्षा करें॥ १२३-१२४॥
इस वह्नयष्टकका जप करके यशस्विनी उन्मीलित
नेत्रोंवाली रामकी पत्नी सीता मनसे रामका ध्यान करती
हुई स्थित हो गयीं॥ १२५॥
स्तुति करनेके अनन्तर उस आवसथ्य अग्रिसे
अत्यन्त उद्दीप्त स्वरूपवाले (दुष्ट भाववाले रावणपर
क्रुद्ध होनेके कारण) तेजसे जलते हुएके समान भगवान्
महेश्वर हव्यवाह प्रकट हो गये। रावणके वधकी इच्छासे
मायामयी सीताको उत्पन्नकर वे पावक (अग्रिदेव)
धर्ममयी सीताको लेकर अन्तर्हित हो गये। धर्ममयी
सीता-जैसी ही उस मायामयी सीताको देखकर राक्षसराज
रावण उसे ही लेकर सागरके मध्यमें स्थित लंकाको
चला गया। रावणका वध करके (भगवती) सीताको
प्रातकर लक्ष्मणसहित रामका मन शंकायुक्त हो गया।
जनसामान्यको विश्वास दिलानेके लिये वह मायासे
निर्मित सीता उद्दीप्त अग्निमें प्रविष्ट हो गयीं और अग्मिने
उन्हें अपनेमें मिला लिया॥ १२६--१३० ॥
मायामयी सीताको अपनेमें लीन कर लेनेके
पश्चात् उग्र किरणोंवाले भगवान् पावक (अग्नि)-ने
रामको (वास्तविक) सीताका दर्शन कराया। इससे
“पावक” देवताओंके प्रिय बन गये। सुन्दर मध्य-
भागवाली उन जनककी पुत्रीने अपने दोनों हाथोंसे
अपने स्वामी रामके दोनों चरणोंको पकड़कर भूमिपर
प्रणाम किया॥ १३१-१३२॥
(सीताको) देखकर आश्चर्यचकित नेत्रोंवाले रघुवंशी
रामने प्रसन्नमन हो सिरसे प्रणामकर अग्रिको संतुष्ट
किया। भगवान् (राम)-ने वहिसे कहा--मेरे समीपमें
आयी यह दिव्यगुणोंवाली सीता किस प्रकार पहले
आपट्ठारा अपनेमें लीन की जाती हुई देखी गयी।
लोकोंको अपनेमें पचा लेनेवाले तथा हव्यको वहन
करनेवाले अग्निने उन दशरथपुत्र रामसे सभी
लोगोंकी संनिधिमें ही वह सब बताया जो पूर्वमें
घटित हुआ था॥ १३३--१३५॥
* अध्याय ३४९३ *
इयं सा मिथिलेशेन पार्वती रुद्रवल्लभाम् ।
आराध्य लब्धा तपसा देव्याश्वात्यन्तवल्लभा॥ १३६॥
भर्तु:ः शुश्रूषणोपेता सुशीलेयं पतित्रता।
भवानीपाशएववमानीता मया रावणकामिता॥ १३७॥
या नीता राक्षसेशेन सीता भगवताहता।
मया मायामयी सृष्टा रावणस्य वधाय सा॥ १३८ ॥
तदर्थ भवता दुष्टो रावणो राक्षसेश्वर: ।
मयोपसंहता चैव हतो लोकविनाशनः॥ १३९॥
गृहाण विमलामेनां जानकीं बचनान्मम।
पश्य नारायणं देवं स्वात्मानं प्रभवाव्ययम्॥ १४० ॥
इत्युक्त्वा भगवांश्वण्डो विश्वार्चिविश्वतोमुख: ।
मानितो राघवेणागिनर्भूतिश्चवान्तधीयत॥ १४१५१॥
एतत् पतिक्रतानां वै माहात्म्यं कथितं मया।
स्त्रीणां सर्वाघशमन प्रायश्चित्तमिदं स्मृतम्॥ १४२॥
अशेषपापयुक्तस्तु पुरुषोडपि सुसंयतः।
स्वदेहं पुण्यतीर्थषु त्यक्त्वा मुच्येत किल्बिषात्॥ १४३॥
पएथिव्यां सर्वतीर्थेषु स्नात्वा पुण्येषु वा द्विज: ।
मुच्यते पातकैः सर्वे: समस्तैरपि पूरुष:॥ १४४॥
व्यास उवाच
इत्येष मानवो धर्मो युष्माकं कथितो मया।
महेशाराधनार्थाय ज्ञानयोगं च शाश्रतम्॥ १४५॥
योअनेन विधिना युक्त ज्ञानयोगं समाचरेत्।
स पश्यति महादेवं नान््य: कल्पशतैरपि॥ १४६॥
स्थापयेद् यः परं धर्म ज्ञानं तत्पारमेश्वरम्।
न तस्मादधिको लोके स योगी परमो मत: ॥ १४७॥
यः संस्थापयितुं शक्तो न कुर्यान्मोहितो जनः ।
स योगयुक्तोउपि मुनिर्नात्यर्थ भगवत्प्रिय: ॥ १४८ ॥
तस्मात् सदैव दातव्यं ब्राह्मणेषु विशेषतः ।
धर्मयुक्तेषु शान्तेषु श्रद्धया चान्वितेषु वै॥ १४९॥
४३१
मिथिलानरेश जनकने तपद्ठारा रुद्रप्रिया पार्वतीकी
आराधनाकर देवीकी अत्यन्त प्रिय जिन सीताको
पुत्रीरूपमें प्रात किया था, उन पतिसेवापरायणा, सुन्दर
शीलवाली पतिब्रताको रावण चाह रहा है, जब मैंने
यह जाना तब उन्हें (भगवती सीताको) मैं पार्वतीके
पास ले आया और राक्षसराज रावणद्वारा ले जायी गयी
जिन सीताको आपने प्राप्त किया उन्हें मैंने रावणके
वधके लिये मायासे निर्मित किया था, उन्हींके लिये
आपने लोकोंका विनाश करनेवाले दुष्ट राक्षसराज रावणको
मारा तथा मैंने उन्हीं मायामयी सीताको उपसंहत
(अपनेमें लीन)-कर लिया है। मेरे कहनेसे आप इन
विशुद्ध जानकीको ग्रहण करें और अपने-आपको प्रभव,
अव्यय, नारायणदेवके रूपमें देखें॥ १३६--१४० ॥
ऐसा कहकर सभी ओर शिखा (ज्वाला) तथा सभी
ओर मुखवाले भगवान् प्रचण्ड (अमित तेजोरूप)
अग्रिदेव राघव (राम) तथा अन्य लोगोंद्वारा सम्मानित
होकर अन्तर्धान हो गये। यह मैंने आप लोगोंको
पतिब्रताओंका माहात्म्य बताया। इसे स्त्रियोंके समस्त
पापोंको नष्ट करनेवाला प्रायश्चित्त कहा गया है। सम्पूर्ण
पापोंसे युक्त पुरुष भी भलीभाँति संयत होकर पुण्य-
तीर्थोमें अपना शरीर त्याग करके पापसे मुक्त हो
जाता है। अथवा पृथ्वीके सभी पुण्य तीर्थोमें स्नान
करनेसे द्विज पुरुष समस्त सश्वित पापोंसे मुक्त हो
जाता है॥ १४१--१४४॥
व्यासजीने कहा--इस प्रकार आप लोगोंसे मैंने
इस मानवधर्मका और महेश्वरकी आराधनाके लिये
सनातन ज्ञानयोगका वर्णन किया। जो इस विधिसे युक्त
होकर ज्ञानयोगका पालन करता है, वह महादेवका दर्शन
करता है। दूसरा व्यक्ति सैकड़ों कल्पोंमें भी उनका
दर्शन नहीं कर सकता। जो इस परम धर्म और
परमेश्वर-सम्बन्धी ज्ञानकी स्थापना (अधिकारी लोगोंमें
प्रतिष्ठा) करता है, संसारमें उससे बढ़कर और कोई
नहीं है, उसे श्रेष्ठ योगी माना गया है। इसकी स्थापना
करनेमें समर्थ होनेपर भी जो व्यक्ति मोहवश धर्म एवं
ज्ञानकी स्थापना नहीं करता, वह योगसम्पन्न मुनि होनेपर
भी भगवान्का अत्यन्त प्रिय नहीं होता। इसलिये सदा
ही विशेष-रूपसे धर्मयुक्त शान्त और श्रद्धासम्पन्न
ब्राह्मणोंको इसका उपदेश करना चाहिये॥ १४५--१४९ ॥
र कूर्मपुराण रे
यः पठेद भवतां नित्यं संवादं मम चैव हि। जो मेरे एवं आपके बीच हुए इस संवादको
सर्वपापविनिर्मुक्तो गच्छेत परमां गतिम्॥ १५७० ॥ | नित्य पढ़ेगा, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको
४३२
श्राद्धे वा दैविके कार्ये ब्राह्मणानां च संनिधौ ।
पठेत नित्यं सुमना: श्रोतव्यं च द्विजातिभि:॥ १५१॥
यो<र्थ विचार्य युक्तात्मा श्रावयेद् ब्राह्मणान् शुचीन् ।
स दोषकझञ्जुकं त्यक्त्वा याति देवं महेश्वरम्॥ १५२॥
एतावदुक्त्वा भगवान् व्यास: सत्यवतीसुतः |
प्रात्त करेगा॥ १५० ॥
श्राद्धमें अथवा देवकार्य--पूजा आदियमें और ब्राह्मणोंके
सम्मुख प्रसन्न-मनसे नित्य इसका पाठ करना चाहिये
तथा द्विजातियोंको इसे सुनना चाहिये। जो योगात्मा
इसके अर्थका विचारकर पवित्र ब्राह्मणोंको इसे सुनाता
है, वह दोषरूपी कझ्लुक (आवरण)-का परित्याग कर
भगवान् महेश्वरको प्राप्त करता है॥१५१-१५२॥
इतना कहनेके बाद सत्यवतीके पुत्र भगवान् व्यास
मुनियों तथा सूतजीको आश्वासन प्रदानकर जैसे आये
समाश्चास्य मुनीन् सूत॑ं जगाम च यथागतम्॥ १५३ ॥ | थे वैसे ही चले गये ॥१५३॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहस्त्रथां संहितायामुपारिविभागे त्रयस्त्रिशोउध्याय: ॥ ३३ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें तैंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३३ ॥
चौंतीसवाँ अध्याय
तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें प्रयाग, गया, एकाम्न तथा पुष्कर आदि विविध तीर्थोकी महिमाका
वर्णन, सप्तसारस्वत-तीर्थके वर्णनमें शिवभक्त मड्डूणक मुनिका आख्यान
ऋषय ऊचुः
तीर्थानि यानि लोके5स्मिन् विश्रुतानि महान्ति च।
तानि त्वं कथयास्माकं रोमहर्षण साम्प्रतम्॥ १॥
रोमहर्षण उवाच
श्रुणुध्व॑ कथयिष्ये5हं तीर्थानि विविधानि च।
कथितानि पुराणेषु मुनिभिन्नह्वादिभि: ॥ २॥
यत्र स्नानं जपो होम: श्राद्धदानादिकं कृतम्।
एकेैकशो मुनिश्रेष्ठा: पुनात्यासप्तमं कुलम्॥ ३॥
पशञ्चयोजनविस्तीर्ण ब्रह्मण: परमेष्ठिन: ।
प्रयाग प्रथितं तीर्थ तस्य माहात्म्यमीरितम्॥ ४॥
अन्यच्च॒तीर्थप्रवर कुरूणां देववन्दितम्।
ऋषीणामाश्रमैर्जुष्ट सर्वपापविशोधनम्॥ ५॥
ऋषियोंने कहा--रोमहर्षण! अब आप हमें
इस संसारमें जो महान् तथा प्रसिद्ध तीर्थ हैं, उन्हें
बतलायें ॥ १॥
रोमहर्षण बोले--हे श्रेष्ठ मुनियो! आप लोग सुनें,
मैं पुराणोंमें ब्रह्मवादी मुनियोंद्वारा बताये गये विविध
तीर्थोको बताऊँगा, जिनमें एक बार भी किया गया
स्रान, जप, होम, श्राद्ध तथा दान आदि कर्म सात
कुलोंको पवित्र कर देता है॥ २-३॥
परमेष्ठी ब्रह्मका पाँच योजनमें फैला हुआ प्रयाग
नामक प्रसिद्ध तीर्थ है, उसका माहात्म्य बतलाया जा
चुका है। दूसरा कुरुओंका श्रेष्ठ तीर्थ (कुरुक्षेत्र) है,
जो देवताओंद्वारा वन्दित, ऋषियोंके आश्रमोंसे परिपूर्ण
और सभी पापोंकी शुद्धि करनेवाला है॥४-५॥
१(क)-इस अध्यायमें आये प्राय: सभी पारिभाषिक शब्दोंका अर्थ इस उपरिविभागके पिछले अध्याय १६वें एवं १७वेंमें किया
गया है।
(ख)-इस अध्यायमें निर्दिष्ट चान्द्रायण, सांतपन, प्राजापत्य, कृच्छू आदि ब्रतोंका स्वरूप यहाँ विस्तारके भयसे नहीं लिखा जा
रहा है। यह याज्ञवल्क्यस्मृति, प्रायश्चित्ताध्यायके अन्तमें तथा अन्य स्मृतियों एवं निबन्धग्रन्थोंमें द्रष्टव्य है।
* अध्याय ३४ *
तत्र स्नात्वा विशुद्धात्मा दम्भमात्सर्यवर्जित: ।
ददाति यत्किझ्चिदपि पुनात्युभयतः कुलम्॥ ६ ॥
गयातीर्थ पर गुह्ं पितृणां चातिवललभम्।
कृत्वा पिण्डप्रदानं तु न भूयो जायते नर:॥ ७ ॥
सकृद गयाभिगमनं कृत्वा पिण्डं ददाति यः ।
तारिता: पितरस्तेन यास्यन्ति परमां गतिम्॥ ८ ॥
तत्र लोकहितार्थाय रुद्रेण परमात्मना।
शिलातले पद न्यस्तं तत्र पितृन् प्रसादयेत्॥ ९ ॥
गयाउभिगमनं कर्तु यः शक्तो नाभिगच्छति।
शोचन्ति पितरस्तं वै वृथा तस्य परिश्रम: ॥ १०॥
गायन्ति पितरो गाथा: कीर्तयन्ति महर्षय: ।
गयां यास्यति यः कश्ित् सोउस्मान् संतारयिष्यति॥ ११॥
यदि स्यात् पातकोपेत: स्वधर्मरतिवर्जित: ।
गयां यास्यति बंश्यो यः सोउस्मान् संतारयिष्यति ॥ १२॥
एप्टव्या बहव: पुत्रा: शीलवन्तो गुणान्विता: ।
तेषां तु समवेतानां यद्येको5पि गयां ब्रजेत्॥ १३॥
तस्मातू सर्वप्रयत्नेन ब्राह्मणस्तु विशेषत:ः।
प्रदद्याद् विधिवत् पिण्डान् गयां गत्वा समाहित: ॥ १४॥
धन्यास्तु खलु ते मर्त्या गयायां पिण्डदायिन: ।
कुलान्युभयत: सप्त समुद्धृत्याप्नुयात् परम्॥ १५॥
अन्यच्चतीर्थप्रवर॑ सिद्धावासमुदाहतम्
प्रभासमिति विख्यातं यत्रास्ते भगवान् भव: ॥ १६॥
तत्र स्नान तपः श्राद्ध ब्राह्मणानां च पूजनम्।
कृत्वा लोकमवाप्नोति ब्रह्मणो5क्षय्यमुत्तमम्॥ १७॥
तीर्थ त्रैयम्बक॑ नाम सर्वदेवनमस्कृतम्।
पूजयित्वा तत्र रुद्रं ज्योतिष्टोमफलं लभेतू्॥ १८ ॥
सुवर्णाक्ष॑ महादेवं॑ समभ्यर्च्य कपर्दिनम्।
ब्राह्मणान् पूजयित्वा तु गाणपत्यं लभद् ध्रुवम्॥ १९॥
४३३
वहाँ स्नान करके विशुद्धात्मा व्यक्ति दम्भ और मात्सर्यसे
रहित होकर जो कुछ भी दान करता है, उससे वह
दोनों (माता-पिताके) कुलोंकों पवित्र करता है॥६॥
गया नामक परम गुह्य तीर्थ पितरोंको अत्यन्त प्रिय
है। वहाँ पिण्डदान करके मनुष्यका पुनः जन्म नहीं
होता। जो एक बार भी गया जाकर पिण्डदान करता
है, उसके द्वारा तारे गये पितर (नरक आदि कष्टप्रद
लोकोंसे मुक्त होकर) परम गतिको प्राप्त करते हैं। वहाँ
(गयामें) संसारके कल्याणकी कामनासे परमात्मा रुद्रने
शिलातलपर चरण (-का चिह्न) स्थापित किया है।
वहाँपर पितरोंको (पिण्डदान आदिद्वारा) प्रसन्न करना
चाहिये। गयाकी यात्रा करनेमें समर्थ होनेपर भी जो वहाँ
नहीं जाता, उसके सम्बन्धमें पितर शोक करते हैं, उसका
(अन्य सभी) परिश्रम व्यर्थ ही होता है॥ ७--१०॥
पितर इस गाथाका गान करते हैं और महर्षि इसका
कीर्तन करते हैं कि जो कोई भी गया जायगा, वही
हमें तारेगा अर्थात् असद्गतिसे मुक्त करेगा। मेरे वंशमें
उत्पन्न व्यक्ति किसी कारण भले ही पापयुक्त हो,
स्वधर्ममें निष्ठा न रखता हो, तब भी यदि गया-तीर्थकी
यात्रा करेगा तो वह हम लोगोंका तारक होगा। शीलवान्
तथा गुणवान् बहुतसे पुत्रोंकी अभिलाषा करनी चाहिये;
क्योंकि उन सभीमेंसे कोई एक तो गया जायगा। इसलिये
सभी प्रयत्नोंके द्वारा विशेषरूपसे ब्राह्मणको तो गया
जाकर समाहित-मनसे विधिवत् पिण्डदान करना चाहिये।
वे मनुष्य धन्य हैं जो गयामें पिण्डदान करते हैं। वे
दोनों (माता-पिताके) कुलकी सात पीढ़ियोंका उद्धार
कर स्वयं भी परमगति प्राप्त करते हैं॥११--१५॥
अन्य प्रभास नामक प्रसिद्ध श्रेष्ठ तीर्थ है, जिसे
सिद्धोंका निवास-स्थान बतलाया गया है। वहाँ भगवान्
भव (शंकर) स्थित हैं। वहाँ स्नान, तप, श्राद्ध तथा
ब्राह्मणोंका पूजन करनेसे ब्रह्माके अक्षय्य और उत्तम
लोककी प्राप्ति होती है। त्रैयम्बक नामक तीर्थ सभी
देवताओंद्वारा नमस्कृत है। वहाँ रुद्रकी आराधना करनेसे
ज्योतिष्टोम-यज्ञके फलकी प्राप्ति होती है। वहाँ कपर्दी
तथा सुवर्णाक्ष महादेवकी भलीभाँति आराधना करने
तथा ब्राह्मणोंकी पूजा करनेसे निश्चय ही गाणपत्य-पदकी
प्राप्ति होती है॥१६--१९॥
४३३४
सोमेश्वरं तीर्थवरं रुद्रस्थय परमेष्ठिनः ।
सर्वव्याधिहरं पुण्यं रुद्रसालोक्यकारणम्॥ २०॥
तीर्थानां परमं तीर्थ विजयं नाम शोभनम्।
तत्र लिड्/ं महेशस्य विजयं नाम विश्रुतम्॥ २१॥
घण्मासान् नियताहारो ब्रह्मचारी समाहितः ।
उषित्वा तत्र विप्रेन्द्रा यास्यन्ति परमं पदम्॥ २२॥
अन्यच्च तीर्थप्रवरं पूर्वदेशे सुशोभनम्।
एकामग्नं देवदेवस्थ गाणपत्यफलप्रदम्॥ २३॥
दत्त्वात्र शिवभक्तानां किद्धिच्छश्वन्महीं शुभाम्।
सार्वभौमो भवेद् राजा मुमुक्षुमोक्षमाप्नुयात्॥ २४॥
महानदीजलं पुण्यं सर्वपापविनाशनम्।
ग्रहणे समुपस्पृश्य मुच्यते सर्वपातकैः॥ २५७॥
अन्या च विरजा नाम नदी त्रैलोक्यविश्रुता।
तस्यां स्नात्वा नरो विप्रा ब्रहालोके महीयते॥ २६॥
तीर्थ नारायणस्यान्यन्नाम्ना तु पुरुषोत्तमम्।
तत्र नारायण: श्रीमानास्ते परमपूरुष:॥ २७॥
पूजयित्वा परं विष्णु स्नात्वा तत्र द्विजोत्तम: ।
ब्राह्मणान् पूजयित्वा तु विष्णुलोकमवाप्नुयात्॥ २८ ॥
तीर्थानां परम तीर्थ गोकर्ण नाम विश्रुतम्।
सर्वपापहरं शम्भोर्निवास: परमेष्ठटिन:॥ २९॥
दृष्टा लिड्रं तु देवस्यथ गोकर्णेश्वरमुत्तमम्
ईप्सितॉल्लभते कामान् रुद्रस्य दयितो भवेत्॥ ३०॥
उत्तर चापि गोकर्ण लिड्ं देवस्य शूलिनः ।
महादेवस्यार्चयित्वा शिवसायुज्यमाप्नुयात्॥ ३१॥
तत्र देवो महादेव: स्थाणुरित्यभिविश्रुत: ।
त॑ं दृष्ठा सर्वपापेभ्यो मुच्यते तत्क्षणान्नर: ॥ ३२॥
अन्यत् कुब्जाप्रमतुल॑ स्थान विष्णोर्महात्मन: ।
सम्पूज्य पुरुषं विष्णुं श्वेतद्वीपे महीयते॥ ३३॥
यत्र नारायणो देवो रुद्रेण त्रिपुरारिणा।
कृत्या यज्ञस्य मथनं दक्षस्य तु विसर्जित: ॥ ३४॥
रे कूर्मपुराण नं
परमेष्ठी रुद्रका सोमेश्वर नामक श्रेष्ठ तीर्थ सभी
प्रकारकी व्याधियोंका हरण करनेवाला, पवित्र तथा
रुद्रलोककी प्राप्ति करानेका साधन है॥२०॥
विजय नामका एक सुन्दर तीर्थ है जो तीथोंमें श्रेष्ठ
है। वहाँ महेश्वरका विजय नामक प्रसिद्ध लिड़ है।
वहाँपर छ: महीनेतक संयत आहार करते हुए ब्रह्मचर्य-
ब्रत धारणकर, एकाग्र-मनसे उपवास कर श्रैष्ठ ब्राह्मण
परम पद प्राप्त करते हैं। पूर्व दिशामें अत्यन्त सुन्दर
एक दूसरा एकाम्र नामक श्रेष्ठ तीर्थ है जो देवाधिदेव
(शंकर)-के गाणपत्यपदरूपी फलको प्रदान करनेवाला
है। वहाँ शिवभक्तोंको थोड़ी-सी भी स्थिर तथा सुन्दर
भूमि दान करनेसे (दाता) चक्रवर्ती सम्राट् होता है
और मोक्षकी इच्छा रखनेवाला मोक्ष प्राप्त करता है।
वहाँ महानदीका जल पवित्र और सभी पापोंको नष्ट
करनेवाला है, ग्रहणके समय उसका स्पर्श (स्नान आदि)
करनेसे सभी पातकोंसे मुक्ति हो जाती है॥ २१--२५॥
विप्रो! दूसरी विरजा नामकी एक नदी है जो तीनों
लोकोंमें विख्यात है, उसमें स्नान करके मनुष्य ब्रह्मलोकमें
पूजित होता है। नारायणका पुरुषोत्तम नामक एक दूसरा
तीर्थ है, वहाँ परम पुरुष श्रीमान् नारायण निवास करते
हैं। वहाँ स्नान करके श्रेष्ठ विष्णुकी अर्चना और
ब्राह्मणोंकी पूजा करनेसे द्विजोत्तम विष्णुलोक प्रास करता
है। सभी पापोंको हरनेवाला तीर्थोमें श्रेष्ठ गोकर्ण नामका
एक प्रसिद्ध तीर्थ है। वहाँ परमेष्ठी शम्भुका निवास
है। वहाँ देव (शंकर)-के गोकर्णेश्वर नामक उत्तम
लिड्भका दर्शनकर मनुष्य अभीष्सित कामनाओंको प्राप्त
करता है और रुद्रका प्रिय होता है। उत्तर गोकर्णमें
भी त्रिशूलधारी शंकर महादेवका लिड्ग है। उसकी
अर्चनासे शिव-सायुज्यकी प्राप्ति होती है॥२६-३१॥
देवाधिदेव महादेव वहाँ 'स्थाणु” इस नामसे विख्यात
हैं। उनका दर्शनकर मनुष्य तत्क्षण ही सभी पापोंसे
मुक्त हो जाता है। महात्मा विष्णुका एक दूसरा कुब्जाम्र
नामक अतुलनीय स्थान है, वहाँ विष्णु (-स्वरूप)
पुरुषका पूजन करनेसे व्यक्ति (भगवानूके धाम) श्रेतद्वीपमें
प्रतिष्ठा प्रातत करता है। यहाँ त्रिपुरारि रुद्रने ही दक्षके
यज्ञका विध्वंस करनेके अनन्तर नारायणदेवको प्रतिष्ठित
किया है॥ ३२--३४॥
* अध्याय रेड * ४ड३ा५
समन्ताद योजन क्षेत्र सिद्धर्षिगणवन्दितम् ।
पुण्यमायतनं विष्ण्गोस्तत्रास्ते पुरुषोत्तम:॥ ३५॥
अन्यत् कोकामुखं विष्णोस्तीर्थमद्भुतकर्मण:।
मृतो5त्र पातकैर्मुक्तो विष्णुसारूप्यमाप्नुयात्॥ ३६॥
शालग्रामं महातीर्थ विष्णो: प्रीतिविवर्धनम्।
प्राणांस्तत्र नरस्त्यक्त्वा हषीकेशं प्रपश्यति॥ ३७॥
अश्वतीर्थमिति ख्यातं सिद्धावासं सुपावनम्।
आस्ते हयशिरा नित्य॑ं तत्र नारायण: स्वयम्॥ ३८ ॥
तीर्थ त्रेलोक्यविख्यातं ब्रह्मण: परमेष्टिन:ः।
पुष्कर सर्वपापष्नं मृतानां ब्रह्मलोकदम्॥ ३९॥
मनसा संस्मरेद यस्तु पुष्करं वे द्विजोत्तम: ।
पूयते पातके: सर्वे: शक्रेण सह मोदते॥ ४०॥
तत्र देवा: सगन्धर्वा: सयक्षोरगराक्षसा: ।
उपासते सिद्धसद्भा ब्रह्माणं पद्ासम्भवम्॥ ४१॥
तत्र स््रात्वा भवेच्छुद्धो ब्रह्माणं परमेष्ठटिनम्।
पूजयित्वा द्विजवरान् ब्रह्माणं सम्प्रपश्यति॥ ४२॥
तत्राभिगम्य देवेशं पुरुहूतमनिन्दितम्।
सुरूपो जायते मर्त्य: सर्वान् कामानवाष्नुयात्॥ ४३ ॥
सप्तसारस्वतं तीर्थ ब्रह्मा: सेवितं परम्।
पूजयित्वा तत्र रुद्रमश्रमेधफलं लभेत्॥ ४४॥
यत्र मड्भूणको रुद्रं प्रपन्न: परमेश्वरम्।
आराधयामास हर पश्ञाक्षरपरायण: ॥ ४५॥
नमः शिवायेति मुनि: जपन् पश्ञाक्षरं परम्।
आराधयामास शिवं तपसा गोवृषध्वजम्॥ ४६॥
प्रजज्वालाथ तपसा मुनिर्मड्डणकस्तदा।
ननर्त हर्षवेगेन ज्ञात्वा रुद्रं समागतम्॥ ४७॥
तं॑ प्राह भगवान् रुद्र: किमर्थ नर्तितं त्वया।
दृष्टापि देवमीशानं नृत्यति सम पुनः पुनः॥ ४८॥
यहाँ चारों ओर एक योजनमें फैला क्षेत्र है जो सिद्धों
तथा ऋषिगणोंसे वन्दित है। यहींपर विष्णुका पवित्र
मन्दिर है, जिसमें पुरुषोत्तम (विष्णु) स्थित हैं॥ ३५॥
अद्धुतकर्मा विष्णुका एक दूसरा कोकामुख नामका
तीर्थ है, यहाँ मृत मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाता है
और विष्णुके सारूप्य (नामक मोक्ष)-को प्राप्त करता
है। शालग्राम नामका महातीर्थ विष्णुकी प्रीतिको बढ़ानेवाला
है। वहाँ प्राणोंका त्यागककर मनुष्य हषीकेशका दर्शन
प्राप्त करता है। अश्वतीर्थ नामका एक अन्य तीर्थ है जो
सिद्धोंका निवास-स्थल तथा अत्यन्त पवित्र है। वहाँ स्वयं
नारायण हयग्रीव-रूपसे नित्य स्थित रहते हैं॥ ३६--३८ ॥
परमेष्ठी ब्रह्माका पुष्कर नामक तीर्थ तीनों लोकोंमें
विख्यात है। वह सभी पापोंको नष्ट करनेवाला तथा वहाँ
मरनेवालोंको ब्रह्मलोक प्रदान करनेवाला है। जो द्विजोत्तम
मनसे भी पुष्करका स्मरण करता है, वह सभी पातकोंसे
मुक्त हो जाता है और (इन्द्रलोकमें देवराज) इन्द्रके
साथ आनन्द करता है। वहाँ गन्धर्वों, यक्षों, नागों, राक्षसों
तथा सिद्धोंके समूहोंके साथ देवता पद्मजन्मा ब्रह्माकी
उपासना करते हैं। वहाँ स्नानसे शुद्ध होकर परनमेष्ठी ब्रह्मा
तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका पूजन करनेसे ब्रह्माजीका साक्षात्कार
प्राप्त होता है। वहाँ जाकर अनिन्दित देवराज इन्द्रका
दर्शन करनेसे मनुष्य सुन्दर रूपसे सम्पन्न हो जाता है
और सभी कामनाओंको प्राप्त करता है॥ ३९--४३॥
ब्रह्मा आदिके द्वारा सेवित सप्तसारस्वत नामक एक
श्रेष्ठ तीर्थ है। वहाँ रुद्रकी पूजा करनेसे अश्वमेध-यज्ञके
फलकी प्राप्ति होती है। वहाँ मड्डूणक (नामक शिवभक्त
मुनि) परमेश्वर रुद्रके शरणागत हुए थे और पश्चाक्षर-
मन्त्र (नमः शिवाय) -का जप करते हुए उन्होंने शिवकी
आराधना की थी। (वहाँ) मुनि (मड्डणक)-ने “नमः
शिवाय ' इस श्रेष्ठ पञ्चाक्षर-मन्त्रका जप करते हुए तपस्यद्वारा
गोवृषध्वज शिवकी आराधना की थी॥ ४४--४६॥
तदनन्तर रुद्रको आया हुआ जानकर मद्भूणक मुनि
तपस्याके तेजसे उद्दीत हो गये और आनन्दातिरेकसे
नृत्य करने लगे। भगवान् रुद्रने उनसे पूछा--'आप क्यों
नृत्य कर रहे हैं।” (किंतु वे कुछ बोले नहीं और)
देव ईशानको देखनेपर भी (अपनी नृत्यकलाको सर्वोत्तम
समझकर) बार-बार नृत्य करते ही रहे ॥ ४७-४८ ॥
४डर३े८
सोअन्वीक्ष्य भगवानीशः सगर्व गर्वशान्तये।
स्वकं देहं विदार्यास्मै भस्मराशिमदर्शयत्॥ ४९॥
पश्येमं॑ मच्छरीरोत्थं भस्मराशिं द्विजोत्तम।
माहात्म्यमेतत् तपसस्त्वादूशो5न्योउपि विद्यते॥। ५० ॥
यत् सगर्व हि भवता नर्तितं मुनिपुंगव।
न युक्त तापसस्यैतत् त्वत्तो5प्यत्राधिको हाहम्॥ ५१॥
इत्याभाष्य मुनिश्रेष्ठ स रुद्र: किल विश्वदृक् ।
आस्थाय परमं भावं ननर्त जगतो हरः॥ ५२॥
सहसत्रशीर्षा भूत्वा सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्।
दंष्ट्राकालवदनो ज्वालामाली भयंकर: ॥ ५३॥
सो<न्वपश्यद्शेषस्य पाएशवें तस्य त्रिशूलिन: ।
विशाललोचनामेकां देवीं चारुविलासिनीम् ।
सूर्यायुतसमप्रख्यां प्रसन्नवदनां शिवाम्॥ ५४॥
सस्सितं प्रेक्ष्य विश्वेशं तिष्ठन््तीममितद्युतिम् ।
दृष्टा संत्रस्तददयो वेषमानो मुनीश्वरः।
ननाम शिरसा रुद्रं रुद्राध्यायं जपन् वशी॥ ५५॥
प्रसन्नो भगवानीशस्त््यम्बको भक्तवत्सल: ।
पूर्ववेषं स जग्राह देवी चान्तहिताभवत्॥ ५६॥
आलिड्भथ भक्त प्रणतं देवदेव: स्वयं शिव: ।
न भेतव्यं त्वया वत्स प्राह कि ते ददाम्यहम्॥ ५७॥
प्रणम्य मूर्धाा गिरिशं हरं त्रिपुरसूदनम्।
विज्ञापयामास तदा हृष्ट: प्रष्टमना मुनिः॥ ५८॥
नमोउस्तु ते महादेव महेश्वर नमोस्तु ते।
किमेतद् भगवदरूपं सुधोरं विश्वतोमुखम्॥ ५९॥
का च सा भगवत्पाश्वे राजमाना व्यवस्थिता ।
अन्त्हितेव सहसा सर्वमिच्छामि वेदितुम्॥ ६०॥
न कूर्मपुराण नंः
तब भगवान् शंकर उन्हें गर्वयुक्त देखकर उनके
गर्वको दूर करनेके लिये अपने शरीरको विदीर्ण कर
(उसमेंसे निकलती हुई) भस्मराशि उन्हें दिखलायी
(और कहा)--हे द्विजोत्तम! मेरे शरीरसे निकलती हुई
इस भस्मराशिको देखो। यह तपस्याका माहात्म्य है।
आपके समान दूसरा भी है। मुनिपुंगत ! आप (तपस्याके)
गर्वसे गर्वित होकर नृत्य कर रहे हैं, यह एक तपस्वीके
लिये उचित नहीं है, मैं आपसे भी अधिक (नृत्यकलामें
कुशल--बड़ा तपस्वी) हूँ॥४९--५१॥
मुनिश्रेष्ठ (मड्डणक)-से ऐसा कहकर वे विश्वद्रष्ट
तथा संसारके संहारक रुद्र परम भावमें स्थित होकर
नृत्य करने लगे। (वे रुद्र) हजारों सिर, हजारों आँख
और हजारों चरणवाले, भयंकर दाढोंसे युक्त मुखवाले,
ज्वालामालाओंसे व्याप्त तथा अत्यन्त भीषण रूपवाले हो
गये। तदनन्तर उन मड्कूणकने उन अशेष (विराट् शरीरवाले)
त्रिशूलधारीके पार्थ-भागमें विशाल नेत्रोंवाली, सुन्दर
विलासयुक्त, हजारों सूर्योके समान तेजवाली और प्रसन्न
मुखवाली देवी शिवाको देखा। मुसकराते हुए विश्वेश्वर
(शिव) तथा अमित चद्युतिसम्पन्न (शिवा)-को स्थित
देखकर मुनीश्वर (मछ्कूणक)-का हृदय भयभीत हो गया
और वे (अपने गर्वको ध्यानमें रखकर) काँपने लगे
तथा संयमित होकर रुद्राध्यायका जप करते हुए उन्होंने
रुद्रको सिरसे प्रणाम किया॥ ५२--५५॥
उन भक्तवत्सल त््यम्बक भगवान् शिवने प्रसन्न
होकर अपना पूर्वरूप धारण किया और देवी अन्तर्हित
हो गयीं। साक्षात् देवाधिदेष शिवने शरणागत भक्तका
आलिड्डनकर कहा--वत्स ! तुम डरो मत! मैं तुम्हें क्या
प्रदान करूँ ?॥ ५६-५७ ॥
तब प्रसन्न मुनि (मड्लूणक)-ने त्रिपुरका नाश
करनेवाले गिरिश हरको सिरसे प्रणामकर पूछनेकी
इच्छासे कहा--महादेव | आपको नमस्कार है। महे श्वर !
आपको नमस्कार है। सभी ओर मुखवाला आपका
यह भयंकर कौन-सा रूप है? और आपके पार्श्रभागमें
स्थित होकर सुशोभित होनेवाली वे देवी कोन हैं?
जो सहसा अन्तर्धान हो गयीं। मैं सब कुछ जानना
चाहता हूँ॥५८--६० ॥
* अध्याय ३४४
इत्युक्ते व्याजहारेमं तथा मड्डूणकं हरः।
महेश: स्वात्मनो योगं देवीं चर त्रिपुरानल:॥ ६१॥
अहं सहस्त्रनयन: सर्वात्मा सर्वतोमुख:।
दाहकः सर्वपापानां काल: कालकरो हरः॥ ६२ ॥
मयैब प्रेर्यते कृत्स्न॑ चेतनाचेतनात्मकम्।
सो3न्तर्यामी स पुरुषो हाहं वे पुरुषोत्तम: ॥ ६३॥
तस्य सा परमा माया प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिका।
प्रोच्यते मुनिभि: शक्तिर्जगद्योनि: सनातनी॥ ६४॥
स एष मायया विएवं व्यामोहयति विश्ववित्।
नारायणः परोडव्यक्तो मायारूप इति श्रुतिः॥ ६५॥
एवमेतज्गत् सर्व सर्वदा स्थापयाम्यहम्।
योजयामि प्रकृत्या5हं पुरुषं पश्चलविंशकम्॥ ६६॥
तथा वै संगतो देव: कूटस्थः सर्वगो5उमल: ।
सृजत्यशेषमेवेदं स्वमूर्ते: प्रकृतेरज:॥ ६७॥
स देवो भगवान् ब्रह्मा विश्वरूप: पितामहः ।
तबैतत् कथितं सम्यक् स्रष्ट्त्वं परमात्मन: ॥ ६८ ॥
एको5हं भगवान् कालो हानादिश्वान्तकृद् विभु: ।
समास्थाय परं भावं प्रोक्तो रुद्रो मनीषिभि: ॥ ६९॥
मम वे सापरा शक्तिर्देवी विद्येति विश्रुता।
दृष्टा हि भवता नूनं विद्यादेहस्त्वहं ततः॥ ७०॥
एवमेतानि तत्त्वानि प्रधानपुरुषेश्वरा: ।
विष्णुब्रह्या च भगवान् रुद्र: काल इति श्रुति: ॥ ७१॥
त्रयमेतदनाहन्तं ब्रह्मण्येव व्यवस्थितम्।
तदात्मकं॑ तदव्यक्त तदक्षरमिति श्रुतिः॥ ७२॥
आत्मानन्दपरं तत्त्वं चिन्मात्र परम॑ पदम्।
आकाशं निष्कलं ब्रह्म तस्मादन्यन्न विद्यते॥ ७३॥
एवं विज्ञाय भवता भक्तियोगाश्रयेण तु।
सम्पूज्यो वन्दनीयो5हं ततस्तं पश्य शाश्वतम्॥ ७४॥
४३७
(मझ्डणकके) इतना कहनेपर त्रिपुरदाहक महेश्वर
हरने मछ्ुणकसे अपने योग तथा देवीका इस प्रकार
वर्णन किया। मैं हजार नेत्रोंवाला, सर्वात्मा, सभी ओर
मुखवाला, सभी पापोंको जलानेवाला, काल, कालको
भी उत्पन्न करनेवाला हर हूँ। मेरे द्वारा ही समस्त चेतन
एवं अचेतन-स्वरूप (जगत) प्रवृत्त किया जाता है।
मैं ही वह अन्तर्यामी और मैं ही वह पुरुष तथा पुरुषोत्तम
हूँ, जिसकी त्रिगुणात्मिका प्रकृति-रूप परम माया
मुनियोंके द्वारा सनातनी शक्ति और जगत्का मूल कारण
कही जाती है। मैं वही सर्वज्ञ (पुरुष) हूँ जो मायाद्वारा
विश्वको व्यामोहित करता है और जिसे श्रुति नारायण,
पर, अव्यक्त तथा मायारूप कहती है। मैं इसी प्रकार
सदा इस जगतूकी स्थापना करता हूँ। मैं प्रकृतिसे उस
पुरुषको संयुक्त करता हूँ (जो पचीस तत्त्वोंमें एक-
मात्र चेतन प्रमुख तत्त्व है।)॥ ६१--६६ ॥
इस प्रकार यह देव (चेतन), कूटस्थ (निर्विकार),
सर्वत्र विद्यमान, निर्मल, नित्यपुरुष अपनी ही मूर्ति
“प्रकृति'से संगत होकर समस्त जगतूकी सृष्टि करता
है। इसी पुरुषको देव, भगवान्, ब्रह्मा, विश्वरूप एवं
पितामहके रूपमें समझना चाहिये। इस प्रकार मैंने
आपको भलीभाँति परमात्माके सृष्टिकर्तृत्तको बतलाया।
मैं अद्वितीय, अनादि, संहार करनेवाला, विभु तथा
भगवान् काल हूँ। परम भावका आश्रय ग्रहण करनेपर
मनीषी लोग मुझे रुद्र कहते हैं॥६७--६९ ॥
मेरी ही अपरा शक्ति विद्यादेवीके नामसे प्रसिद्ध
है। मेरे विद्या-रूप देहका और मेरा आपने दर्शन किया
है। इस प्रकार ये सभी तत्त्व प्रधान, पुरुष और ईश्वररूप
हैं। श्रुतिने इन्हें ही विष्णु, ब्रह्मा और कालरूप भगवान्
रुद्र कहा है। ये तीनों ही अनादि तथा अनन्त ब्र्ममें
ही स्थित हैं। अत: श्रुतिका कथन है कि ये तीनों
देव तदात्मक, (परमपुरुष ईश्वररूप), वही अव्यक्तरूप,
वही अक्षररूप, आत्मानन्दस्वरूप, परमतत्त्व, चिम्मात्र
और परम पदरूप हैं, आकाशरूप एवं निष्कल ब्रह्म हैं।
वास्तवमें परमतत्त्व ईश्वरके अतिरिक्त अन्य कुछ भी
नहीं है। ऐसा जानकर आपको भक्तियोगका अवलम्बन
लेकर मेरी पूजा तथा वन्दना करनी चाहिये। तदनन्तर
आपको उस शाश्वत (पुरुष)-के दर्शन होंगे॥ ७०--७४॥
४३८
एतावदुक्त्वा भगवाज्जगामादर्शनं हरः।
* कूर्मपुराण *
इतना कहकर भगवान् हर अदृश्य हो गये। मुनि
तत्रैव भक्तियोगेन रुद्रमाराधयन्मुनि: ॥ ७५॥ | (मड्डूणक) वहीं (सप्तसारस्वत तीर्थ)-पर भक्तियोगके
एतत् पवित्रमतुलं तीर्थ ब्रह्मर्षिसेवितम्।
द्वारा र॒द्रकी आराधना करने लगे। यह अतुलनीय पवित्र
तीर्थ ब्रह्मर्षियोंद्रारा सेवित है। इसका सेवनकर दिद्वान्
संसेव्य ब्राह्मणो विद्वान् मुच्यते सर्वपातकै: ॥ ७६ ॥ | ब्राह्मण सभी पातकोंसे मुक्त हो जाता है॥७५-७६॥
डति श्रीकूर्मपुराणे षद्साहरत्रब्ां संहितायामुपारिविभागे चतुस्त्रिंशोउध्याय: ॥ ३४ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें चौंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३४॥
पेंतीसवाँ अध्याय
तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें विविध तीर्थोका माहात्म्य, कालश्चर तीर्थकी महिमाके
वर्णनके प्रसंगमें शिवभक्त राजा श्रेतकी कथा
सूत उवाच
अन्यत् पवित्र विपुलं तीर्थ त्रेलोक्यविश्रुतम् ।
रुद्रकोटिरिति ख्यातं रुद्रस्य परमेष्ठटिन:॥ १ ॥
पुरा पुण्यतमे काले देवदर्शनतत्परा: ।
कोटिब्रह्मर्षयो दान्तास्तं देशमगमन् परम्॥ २ ॥
अहं द्रक्ष्यामि गिरिशं पूर्वमेव पिनाकिनम्।
अन्यो<न्यं भक्तियुक्तानां व्याघातो जायते किल॥ ३ ॥
तेषां भक्ति तदा दृष्टा गिरिशो योगिनां गुरु: ।
कोटिरूपो5भवद् रुद्रो रुद्रकोटिस्तत: स्मृत:॥ ४ ॥
ते सम सर्वे महादेवं हर॑ गिरिगुहाशयम्|।
पश्यन्त: पार्वतीनार्थ हृष्टपुष्टधियोउइभवन्॥ ५ ॥
अनाचझन्तं महादेवं॑ पूर्वमेवाहमी श्वरम ।
दृष्टवानिति भक्त्या ते रुद्रन्यस्तधियो5भवन्॥ ६ ॥
अथान्तरिक्षे विमलं पश्यन्ति सम महत्तरम्।
ज्योतिस्तत्रैव ते सर्वेडभिलषन्त: परं पदम्॥ ७ ॥
एतत् सदेशाध्युषितं तीर्थ पुण्यतमं शुभम्।
दृष्ठा रुद्रे समभ्यर्च्य रुद्रसामीप्यमाप्नुयात्॥ ८ ॥
अन्यच्च तीर्थप्रवरं नाप्ना मधुवनं स्मृतम्।
तत्र गत्वा नियमवानिन्द्रस्यार्धासनं लभेत्॥ ९ ॥
अथान्यत् पुष्पनगरी देश: पुण्यतम: शुभ: |
तत्र गत्वा पितृन् पूज्य कुलानां तारयेच्छतम्॥ १०॥
सूतजीने कहा--परमेष्ठी रुद्रका रुद्रकोटि नामक
एक दूसरा महान् पवित्र तीर्थ है, जो तीनों लोकोंमें
विख्यात है। पूर्वकालमें किसी पवित्र समयमें देव-
दर्शनोंके लिये उत्सुक एक करोड़ इन्द्रियजयी ब्रह्मर्षि
उस श्रेष्ठ स्थानपर गये। उन भक्तियुक्त महर्षियोंमें यह
महान् विवाद उत्पन्न हो गया कि सबसे पहले में ही
पिनाकी गिरिशका दर्शन करूँगा॥ १--३॥
तब उनकी (विशेष) भक्तिको देखकर योगियोंके
गुरु गिरिश रुद्र करोड़ों रूपोंमें हो गये, तभीसे वे रुद्रकोटिके
नामसे स्मरण किये जाने लगे। पर्वतको गुहाके मध्य
स्थित पार्वतीनाथ उन महादेव हरका दर्शनकर वे सभी
हृष्ट-पुष्ट बुद्धिवाले हो गये। और मैंने ही सबसे पहले
अनादि-अनन्त महादेव ईश्वरका दर्शन किया है, इस
प्रकार समझकर वे भक्तिभावपूर्बक रुद्रपरायण बुद्धिवाले
हो गये। तदनन्तर परम पदकी अभिलाषा रखनेवाले उन
सभीने वहीं अन्तरिक्षमें महानू-से-महान् विशुद्ध ज्योतिका
दर्शन किया। यह देश (रुद्रद्वारा) निवास किया हुआ
पुण्यतम शुभ तीर्थ है। यहाँ रुद्रका दर्शकर और उनकी
सम्यक् आराधना कर रुद्रका सामीप्य (सामीप्य नामक
मोक्ष) प्राप्त होता है॥ ४--८॥
एक दूसरा श्रेष्ठ तीर्थ है जो मधुबन नामसे कहा
जाता है, नियमपूर्वक वहाँ जानेवाला (निवास करनेवाला)
इन्द्रका अर्धासन प्राप्त करता है। एक अन्य पुष्पनगरी
नामक देश पुण्यतम तथा शुभ है। वहाँ जाकर पितरोंकी
पूजा करनेसे व्यक्ति सौ कुलोंको तार देता है॥९-१०॥
* अध्याय ३५ *
कालखझरं महातीर्थ लोके रुद्रो महेश्वरः।
काल॑ जरितवान् देवो यत्र भक्तप्रियो हरः॥ ११॥
श्वेतो नाम शिवे भक््तो राजर्षिप्रवरः पुरा।
तदाशीस्तननमस्कारः पूजयामास शूलिनम्॥ १२॥
संस्थाप्य विधिना लिड्/ं भक्तियोगपुरःसरः ।
जजाप रुद्रमनिशं तत्र संन््यस्तमानस: ॥ १३॥
सतं कालो5थ दीप्तात्मा शूलमादाय भीषणम्।
नेतुमभ्यागतो देशं स राजा यत्र तिष्ठति॥ १४॥
वीक्ष्य राजा भयाविष्ट: शूलहस्तं समागतम्।
काल॑ कालकरं घोरं भीषणं चण्डदीधितिम्॥ १५ ॥
उभाभ्यामथ हस्ताभ्यां स्पृष्ठासी लिड्रमैश्वरम्।
ननाम शिरसा रुद्रं जजाप शतरुद्वियम्॥ १६॥
जपन्तमाह राजानं नमन्तमसकृद् भवम्।
एह्मेहीति पुर: स्थित्वा कृतान्त: प्रहसन्निव॥ १७॥
तमुवाच भयाविष्टो राजा रुद्रपरायण:।
एकमीशार्चनरतं विहायान्यं निषूदय॥ १८ ॥
इत्युक्तवन्तं भगवानब्रवीद भीतमानसम्।
रुद्रार्चनरतो वान्यो मदवशे को न तिष्ठति॥ १९॥
एवमुक्त्वा स राजानं कालो लोकप्रकालन: ।
बबन्ध पाशै राजापि जजाप शतरुद्रियम्॥ २०॥
अथान्तरिक्षे विमल॑ दीप्यमानं
तेजोराशिं भूतभर्तु:ः. पुराणम्।
ज्वालामालासंवृतं व्याप्य विश्वं
प्रादुर्भूत॑ संस्थितं संददर्श॥ २१॥
तन्मध्येइससी पुरुष रुक््मवर्ण
देव्या देवं चन्द्रलेखोज््चलाड्रम्।
तेजोरूपं॑ पश्यति स्मातिदृष्टो
मेने चास्मननाथ आगच्छतीति॥ २२॥
डर३े९
इस लोकमें कालञझ्र नामका एक महातीर्थ है,
जहाँ भक्तोंके प्रिय महेश्वर रुद्र हरने कालको जीर्ण
किया था। प्राचीन कालमें श्वेत नामक एक श्रेष्ठ राजर्षि
थे, जो शिवके भक्त थे। उन्होंने त्रिशूली (रुद्र)-की
भक्ति करते हुए उन्हें ही नमस्कार करते हुए उनकी
पूजा की। विधिपूर्वक शिवलिड्रकी स्थापना कर
भक्तियोगपूर्वक वहीं वे उन्हीं (रुद्र)-में मन लगाते
हुए निरन्तर उनका जप करने लगे। वे राजा (श्वेत)
जिस स्थानपर थे कुछ समय बाद वहाँ भयंकर शूल
लिये हुए प्रदीप्त स्वरूपवाला काल उन्हें अपने देश
ले जानेके लिये आया॥ ११--१४॥
हाथमें शूल लिये हुए, मृत्युजनक, घोर, भीषण,
उग्र किरणोंवाले उस कालको आया हुआ देखकर राजा
(श्रेत) भयभीत हो गये। उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे
ईश्वरके लिज्गका स्पर्श करते हुए सिरसे उनको प्रणाम
किया और शतरुद्रियका जप करने लगे। जप कर
रहे तथा बार-बार भवको प्रणाम कर रहे राजासे उनके
सामने खड़े होकर कृतान्त (काल)-ने हँसते हुए
“आओ' “आओ” इस प्रकारसे कहा। भयसे व्याकुल
रुद्रपणयण राजाने उससे कहा--एकमात्र ईशकी आराधनामें
रत व्यक्तिको छोड़कर अन्यको मारो॥ १५--१८॥
इस प्रकार कह रहे भयभीत मनवाले राजासे
भगवान् (काल)-ने कहा--चाहे रुद्रकी आराधना करनेवाला
हो या अन्य कोई हो, कौन मेरे वशमें नहीं है अर्थात्
सभी मुझ कालके वशमें हैं। ऐसा कहकर लोकसंहारक
वह काल राजाको पाशोंके द्वारा बाँधने लगा और राजा
शतरुद्रियका जप करने लगे॥ १९-२० ॥
अनन्तर राजा श्वेतने समस्त प्राणियोंके अधिपति
महादेव रुद्रकी तेजोराशिको देखा। यह तेजोराशि आकाशमें
अकस्मात् उत्पन्न हुई थी तथा वहीं विद्यमान थी। यह
अति निर्मल स्वत: प्रकाशमान, शाश्रत, ज्वालामाला
(प्रभामण्डल)-से आवृत और समस्त विश्वमें व्याप्त
थी। उस (तेज:समूह)-के मध्य देवीके साथ, स्वर्णिम
वर्णवाले, चन्द्रलेखा-सी उज्वचल अद्भवाले तेजोमय
पुरुषको देखकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने
समझा कि ये मेरे नाथ आ रहे हैं॥२१-२२॥
४४०
आगच्छन्तं नातिदूरेडथ दृष्टा
कालो रूद्रं देवदेव्या महेशम्।
व्यपेतभीरखिलेशैकनाथं
राजर्षिस्तं नेतुमभ्याजगाम ॥ २३॥
आलोक्यासौ भगवानुग्रकर्मा
देवो रुद्रो भूतभर्ता पुराणः।
एकं भक्त मत्परं मां स्मरन्तं
देहीतीम॑ _ कालमूचे
श्रुत्वा वाक््यं गोपतेरुग्रभाव:
कालात्मासौ मन्यमान: स्वभावम्।
बद्धवा भक्त पुनरेवाथ पाशे:
क्कुद्धों रुद्रमभिदुद्रावः बवेगात्॥ २५॥
प्रेक्ष्यायान्तं शैलपुत्रीमथेश:
सोअन्वीक्ष्यान्ते विश्वमायाविधिज्ञ: ।
सावज्ञं वे वामपादेन मृत्युं
एवेतस्थेन पश्यतो व्याजघान॥ २६॥
ममार सोडझतिभीषणो महेशपादघातितः।
रराज देवतापति: सहोमया पिनाकधृक् ॥ २७॥
निरीक्ष्य देवमीश्वरं प्रहष्टमानसो हरम्।
ननाम साम्बमव्ययं स राजपुंगवस्तदा॥ २८॥
नमो भवाय हेतवे हराय विश्वसम्भवे।
नमः शिवाय धीमते नमो5पवर्गदायिने॥ २९॥।
ममेति॥ २४॥
नमो नमो नमोअसस््तु ते महाविभूतये नमः ।
विभागहीनरूपिणे नमो नराधिपाय ते॥३०॥
नमोउस्तु ते गणेश्वर प्रपन्नदुःखनाशन।
अनादिनित्यभूतये वराहश्रृड्रधारिणे॥ ३१॥
नमो वृषध्वजाय ते कपालमालिने नमः।
नमो महानटाय ते नमो वृषध्वजाय ते॥३२॥
अथानुगृहा शंकरः प्रणामतत्परं नृपम्।
स्वगाणपत्यमव्ययं सरूपतामथो ददौ॥ ३३॥
विम व जल मिट 3 लिन कक मम कलम रत कील क 2 घअमद जज पक जप न प्रजा ओर तक फल पटक अप धन की कक मत अमल
* ताण्डवनृत्यके एकमात्र परम अधिष्ठाता महादेव हैं, अतः
* कूर्मपुराण *
तदनन्तर सम्पूर्ण ईशोंके एकमात्र स्वामी महेश्वर
रुद्रको महादेवीके साथ समीपमें ही आते हुए देखकर
राजर्षि भयरहित हो गये, (तथापि) काल उन्हें लेने
आया। प्राणियोंके स्वामी, पुराण तथा उग्रकर्मा भगवान्
रुद्रदेवने यह देखकर कालसे कहा-मेरे शरणागत
तथा मेरा स्मरण कर रहे इस मेरे भक्तको मुझे
दे दो॥ २३-२४॥
गोपति (इन्द्रियों एवं वाणीके स्वामी )-के वाक्यको
सुनकर वह उग्रभाववाला क्रुद्ध कालात्मा अपने स्वभावपर
गर्व करते हुए पुन: उस (शिव) भक्तको पाशोंसे बाँधकर
वेगपूर्वक रुद्रकी ओर दौड़ा। तब उसे (काल-मृत्यु)
आता हुआ देखकर विश्वमायाके विधानको जाननेवाले
शंकरने शैलपुत्रीकी ओर देखते हुए उस (श्रेत)-के
देखते-देखते अवज्ञापूर्वक अपने बाँयें पैरसे मृत्यु (काल)-
को मार दिया। महेश्वरके पादसे आहत होकर अति
भयंकर वह (काल) मर गया तथा पिनाक धारण करनेवाले
देवताओंके पति महेश्वर पार्वतीके साथ भक्त राजा श्वेतकी
रक्षा कर लेनेके कारण प्रसन्न हो गये॥ २५--२७॥
(भक्तवत्सल महादेव रुद्रके अनुग्रहसे) प्रसन्न-
मनवाले उस श्रेष्ठ राजाने देव ईश्वर हरको देखकर
अम्बासहित उन अव्ययको प्रणाम किया॥ २८ ॥
(राजाने प्रार्थना करते हुए कहा-- )जगत््के कारणरूप
और विश्वको उत्पन्न करनेवाले भव एवं हरको नमस्कार
है। धीमान् शिवको नमस्कार है। मोक्ष प्रदान करनेवालेको
नमस्कार है। महाविभूतिस्वरूप आपको नमस्कार है,
बारंबार नमस्कार है। विभागहीन रूपवाले (अखण्डरूप),
नरोंके अधिपति आपको नमस्कार है। प्रणतजनोंके
दुःखोंका नाश करनेवाले गणोंके ईश्वर! आपको नमस्कार
है। अनादि तथा नित्य ऐश्वर्यसम्पन्न और वराहका श्रंग
धारण करनेवालेको नमस्कार है। वृषध्वज! आपको
नमस्कार है। कपालकी माला धारण करनेवालेको
नमस्कार है। महानट*! आपको नमस्कार है, वृषध्वज!
आपको नमस्कार है॥ २९--३२॥
प्रणाममें तत्पर (अत्यन्त प्रणत) राजाके ऊपर
अनुग्रह करके शंकरने उन्हें अपना शाश्रत गाणपत्य
पद तथा अपना स्वरूप प्रदान किया॥ ३३॥
ये 'महानट' कहे जाते हैं।
* अध्याय ३६ *
४४१
सहोमया सपार्षद: सराजपुंगवो हरः।
मुनीशसिद्धवन्दित:ः क्षणाददृश्यतामगातू॥ ३४॥
काले महेशाभिहते लोकनाथ: पितामहः।
अयाचत वरं रुद्रं सजीवो5यं भवत्विति॥ ३५॥
नास्ति कश्चिदपीशान दोषलेशो वृषध्वज।
कृतान्तस्यैव भवता तत्कार्ये विनियोजित: ॥ ३६ ॥
स॒ देवदेववचनाद् देवदेवेश्वरो हरः।
तथास्त्वियाह विश्वात्मा सो5पि तादृग्विधो5भवत् ॥ ३७॥
इत्येतत् परमं॑ तीर्थ कालंजरमिति श्रुतम्।
गत्वाभ्यर्च्य महादेवं गाणपत्यं स विन्दति॥ ३८ ॥
उमा, पार्षद, तथा श्रेष्ठ राजा (श्रेत)-के साथ हर
(महेश्वर) मुनीशों तथा सिद्धोसे वन्दित होते हुए क्षणभरमें
अदृश्य हो गये। महेश्वरके द्वारा कालके मारे जानेपर
लोकनाथ पितामह (ब्रह्मा)-ने रुद्रसे इस वरकी याचना
की कि यह (काल) जीवित हो जाय। (तब्रह्माने कहा-)
ईशान ! वृषध्वज! इस कृतान्तका लेशमात्र भी दोष नहीं
है। आपने ही इसे उस कार्य (मृत्युके कार्य) में नियोजित
किया है। देवाधिप (ब्रह्मा)-के कहनेपर उन देवदेवेश्वर
विश्वात्मा हरने 'ऐसा ही हो' यह कहा। तब वह काल
भी उसी प्रकारका अर्थात् जीवित हो गया॥ ३४--३७॥
इस प्रकार यह श्रेष्ठ तीर्थ कालझर इस नामसे
विख्यात है। यहाँ जाकर महादेवकी आराधना करनेवाला
व्यक्ति गाणपत्य पद प्राप्त करता है॥ ३८॥
जति श्रीकूर्मपुराणे षबट्साहर््धां संहितायामुपरिविभागे पम्ञत्रिंउध्यायः ॥ ३५ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें पैंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३५॥
छत्तीसवाँ अध्याय
तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें विविध तीर्थोकी महिमा, देवदारु-वन-तीर्थका माहात्म्य
सूत उवाच
इदमन्यत् पर स्थान गुह्ााद् गुहातमं महत्।
महादेवस्थ देवस्थ महालयमिति श्रुतम्॥ १॥
तत्र देवादिदेवेन रुद्रेण त्रिपुरारिणा।
शिलातले पद न्यस्तं नास्तिकानां निर्दर्शनम्॥ २॥
तत्र पाशुपता: शान्ता भस्मोद्धूलितविग्रहा: ।
उपासते महादेव वेदाध्ययनतत्परा: ॥ ३॥
स््ात्वा तत्र पदं शार्व वृष्ठा भक्तिपुरःसरम्।
नमस्कृत्वाथ शिरसा रुद्रसामीप्यमाप्नुयात्॥ ४॥
अन्यच्च देवदेवस्य स्थान शम्भोर्महात्मन:।
केदारमिति विख्यातं सिद्धानामालयं शुभम्॥ ५॥
तत्र स्नात्वा महादेवमभ्यर्च्य वृषकेतनम्।
पीत्वा चैवोदककं शुद्ध गाणपत्यमवाप्नुयात्॥ ६॥
श्राद्धदानादिक॑ कृत्वा हाक्षयं लभते फलम्।
द्विजातिप्रवरेर्जुष्ट योगिभिर्यतमानसै: ॥ ७॥
सूतजीने कहा--भगवान् महादेवका एक दूसरा
गुह्मसे भी गुद्य महान् श्रेष्ठ स्थान है, जो 'महालय'
इस नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ त्रिपुरारि तथा देवोंके
आदिदेव रुद्रने नास्तिकोंके लिये प्रमाणके रूपमें शिलातलपर
चरण (-का चिह्न) स्थापित किया है। वहाँ समस्त
शरीरमें भस्म लगाये हुए, शान्त पशुपतिके भक्तजन
वेदाध्ययनमें तत्पर रहकर महादेवकी उपासना करते
हैं। उस तीर्थमें स्नानकर भक्तिपूर्वक शंकरके पदका
दर्शन करके उन्हें सिरसे नमस्कार करनेसे उन रुद्रका
सामीप्य प्राप्त होता है॥ १--४॥
देवाधिदेव महात्मा शम्भुका एक दूसरा स्थान है
जो “केदार” इस नामसे विख्यात है। वह शुभ स्थान
सिद्धोंकी निवासभूमि है। वहाँ स्नान करके वृषकेतु
महादेवकी आराधना करने और (वहाँके) पवित्र
जलका पान करनेसे गाणपत्य-पदकी प्राप्ति होती है।
वह तीर्थ श्रेष्ठ द्विजातियों तथा संयतचित्तवाले योगियोंद्वारा
सेवित है। वहाँ श्राद्ध, दान आदि कर्म करनेसे अक्षय
फल प्राप्त होता है॥५--७॥
४४२
तीर्थ प्लक्षावतरणं सर्वपापविनाशनम्।
तत्राभ्यर्च्य श्रीनिवास विष्णुलोके महीयते॥ ८ ॥
अन्य मगधराजस्य तीर्थ स्वर्गगतिप्रदम्।
अक्षयं विन्दति स्वर्ग तत्र गत्वा द्विजोत्तम:॥ ९ ॥
तीर्थ कनखलं पुण्यं महापातकनाशनम्।
यत्र देवेन रुद्रेण यज्ञों दक्षस्थय नाशित:॥ १०॥
तत्र गड्गजामुपस्पृश्य शुचिर्भावसमन्वितः।
मुच्यते सर्वपापैस्तु ब्रह्मलोक॑ लभेन्मृत:॥ ११॥
महातीर्थमिति ख्यातं पुण्यं नारायणप्रियम्।
तत्राभ्यर्च्य हषीकेशं श्वेतद्वीपं निगच्छति॥ १२॥
अन्यच्च तीर्थप्रवरं नाम्ना श्रीपर्वत॑ शुभम्।
तत्र प्राणान् परित्यज्य रुद्रस्य दयितो भवेत्॥ १३॥
तत्र संनिहितो रुद्रो देव्या सह महेश्वरः।
स्नानपिण्डादिकं तत्र कृतमक्षय्यमुत्तमम्॥ १४॥
गोदावरी नदी पुण्या सर्वपापविनाशिनी।
तत्र स्नात्वा पितृन् देवांस्तर्पयित्वा यथाविधि।
सर्वपापविशुद्धात्मा गोसहस्रफलं लभेत्॥ १५॥
पवित्रसलिला पुण्या कावेरी विपुला नदी।
तस्यां स्त्रात्वोदकं कृत्वा मुच्यते सर्वपातकै: ।
त्रिरात्रोपोषितिनाथ एकरात्रोषितेन वा॥ १६॥
द्विजातीनां तु कथितं तीर्थानामिह सेवनम्।
यस्य वाड्मनसी शुद्धे हस्तपादौ च संस्थितौ।
अलोलुपो ब्रह्मचारी तीर्थानां फलमाप्नुयात्॥ १७॥
स्वामितीर्थ महातीर्थ त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
तत्र संनिहितो नित्यं स्कन्दो5इमरनमस्कृत:॥ १८॥
स्नात्या कुमारधारायां कृत्वा देवादितर्पणम्।
आराध्य षण्मुखं देवं स्कन्देन सह मोदते॥ १९॥
कं कूर्मपुराण मे
(एक) प्लक्षावतरण-तीर्थ (है जो) सभी पापोंको
नष्ट करनेवाला है। वहाँ श्रीनिवासकी आराधना करनेसे
विष्णुलोकमें प्रतिष्ठा प्रात होती है। मगधराजका एक
अन्य तीर्थ है, जो स्वर्ग प्रदान करनेवाला है। वहाँकी
यात्रा करनेसे द्विजोत्तमको अक्षय स्वर्ग प्राप्त होता है।
कनखल नामका एक तीर्थ है जो पुण्यप्रद तथा
महापातकोंको नष्ट करनेवाला है। रुद्रदेवने जहाँ दक्षके
यज्ञका विध्वंस किया था। वहाँपर पवित्र भावनासे युक्त
होकर गड्ढास्नान करनेसे मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो
जाता है और मरनेपर ब्रह्मलोक प्राप्त करता है।
'महातीर्थ!' इस नामसे विख्यात नारायणका प्रिय एक
पवित्र तीर्थ है, वहाँ हषीकेशकी आराधना करनेसे
श्वेतद्वीपकी प्राप्ति होती है॥८--१२॥
'श्रीपर्वत” नामका एक दूसरा शुभ श्रेष्ठ तीर्थ है,
वहाँ प्राणोंका परित्याग करनेसे व्यक्ति रुद्रका प्रिय होता
है। वहाँ देवी (पार्वती)-के साथ महेश्वर रुद्र स्थित
रहते हैं। वहाँ किये हुए स्नान, पिण्डदान आदि उत्तम
कर्म अक्षय हो जाते हैं॥ १३-१४॥
गोदावरी नदी पवित्र और सभी पापोंका नाश
करनेवाली है। वहाँ स्नानकर विधिपूर्वक पितरों तथा
देवताओंका तर्पण करनेसे (मनुष्य) सभी पापोंसे रहित
होकर पवित्रात्मा हो जाता है और उसे हजारों गोदान
करनेका फल प्राप्त होता है। शुद्ध जलवाली विशाल
कावेरी नदी पुण्यस्वरूप ही है। उसमें स्नान कर तीन
रात्रि अथवा एक रात्रिका उपवास करके तर्पण आदि
करनेसे मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। द्विजातियोंके
लिये यहाँ तीर्थोके सेवनका विधान किया गया है। जिसके
मन एवं वाणी शुद्ध हों तथा हाथ-पैर संयमित हों, ऐसा
लोभरहित तथा ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाला द्विज तीर्थों
(-में निवास)-का फल प्राप्त करता है॥ १५--१७॥
स्वामितीर्थ नामक महातीर्थ तीनों लोकोंमें विख्यात
है। देवताओंद्वारा नमस्कृत (भगवान्) कार्तिकेय वहाँ
नित्य स्थित रहते हैं। (वहाँ) कुमारधारामें स्नानकर
देवताओंका पूजन तथा पितरोंका तर्पण करके षण्मुख
देव कार्तिकेयकी आराधना करनेसे (आराधक) स्कनन््द
(कार्तिकिय)-के साथ आनन्द प्राप्त करता है॥ १८-१९॥
* अध्याय ३६ *
नदी त्रेलोक्यविख्याता ताम्रपर्णीति नामत: ।
तत्र स्नात्वा पितृन् भक्त्या तर्पयित्वा यथाविधि।
पापकर्तृनपि पितृस्तारयेन्नात्र संशय: ॥ २०॥
चन्द्रतीर्थमिति ख्यातं कावेर्या: प्रभवे5क्षयम्।
तीर्थ तत्र भवेद् वस्तुं मृतानां स्वर्गतिर्शुवा॥ २१॥
विन्ध्यपादे प्रपश्यन्ति देवदेव॑ सदाशिवम्।
भकत्या ये ते न पश्यन्ति यमस्य सदन द्विजा: ॥ २२॥
देविकायां वृषो नाम तीर्थ सिद्धनिषेवितम्
तत्र स्नात्वोदकं दत्त्वा योगसिद्धिं च विन्दति॥ २३॥।
दशाश्वमेधिकं तीर्थ सर्वपापविनाशनम्।
दशानामश्वमेधानां तत्राप्नोति फलं नरः:॥ २४॥
पुण्डरीक॑ महातीर्थ ब्राह्मणैरुपसेवितम्।
तत्राभिगम्य युकतात्मा पौण्डकीकफलं लभेतू॥ २५॥
तीर्थभ्य: परम तीर्थ ब्रह्मतीर्थमिति श्रुतम्।
ब्रह्मणमर्चयित्वा तु ब्रह्मलोके महीयते॥ २६॥
सरस्वत्या विनशनं प्लक्षप्रस्नरवणं शुभम्।
व्यासतीर्थ परं तीर्थ मैनाकं॑ च नगोत्तमम्।
यमुनाप्रभव॑ चैव सर्वपापविशोधनम्॥ २७॥
पितृणां दुहिता देवी गन्धकालीति विश्रुता।
तस्यां स्नात्वा दिव याति मृतो जातिस्मरो भवेत्॥ २८ ॥
कुबेरतुड़ंं पापप्न॑ सिद्धचारणसेवितम् |
प्राणांस्तत्र परित्यज्य कुबेरानुचरो भवेत्॥ २९॥
उमातुड़्मिति ख्यातं यत्र सा रुद्रवल्लभा।
तत्राभ्यर्च्य महादेवीं गोसहसत्रफलं लभेत्॥ ३० ॥
भृगुतुड़े तपस्तप्तं श्राद्धं दानं तथा कृतम्।
कुलान्युभयतः सप्त पुनातीति श्रुतिर्मम॥ ३१॥
डंडे
ताम्रपर्णी नामवाली नदी तीनों लोकोंमें विख्यात
है। वहाँ स्नानकर विधिपूर्वक भक्तिभावसे पितरोंका
तर्पण करनेसे मनुष्य पाप करनेवाले पितरोंको भी मुक्त
कर देता है, इसमें संदेह नहीं॥ २० ॥
कावेरीके उद्गम स्थानपर चन्द्रतीर्थ नामसे विख्यात
अक्षय फल देनेवाला एक तीर्थ है। वहाँ निवास करने
तथा वहाँ मृत्यु होनेपर निश्चय ही स्वर्गकी प्राप्ति होती
है। जो विन्ध्यपादमें देवाधिदेव सदाशिवका भक्तिपूर्वक
दर्शन करते हैं, वे द्विज यमलोकका दर्शन नहीं करते।
देविकामें वृष नामका एक तीर्थ है जो सिद्धोंद्वारा सेवित
है। वहाँ स्नानकर (पितरोंको) जलदान (तर्पण) करनेसे
योगसिद्धि प्राप्त होती है। दशाश्रमेधिक नामक तीर्थ सभी
पापोंको विनष्ट करनेवाला है। वहाँ (स्नान, दान आदि
पुण्य कार्य करनेसे) मनुष्य दस अश्वमेध-यज्ञोंका फल
प्राप्त करता है। पुण्डरीक नामक महातीर्थ ब्राह्मणोंके
द्वारा भलीभाँति सेवित है। वहाँकी यात्रा करनेसे
संयतचित्त व्यक्ति पौण्डरीक (याग)-का फल प्राप्त
करता है॥ २१--२५॥
तीर्थोंमें परम तीर्थ 'ब्रह्मतीर्थ” इस नामसे विख्यात
है। वहाँ ब्रह्माकी पूजा करनेसे ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त
होती है। सरस्वतीका विनशन अर्थात् लुप्त होनेका स्थान,
शुभ प्लक्षप्रस्नवण, श्रेष्ठ व्यासतीर्थ, पर्वतोंमें उत्तम मैनाक
तथा सभी पापोंका शोधन करनेवाला यमुनाका उद्गम
स्थान--ये सभी तीर्थ हे (तथा सभी पापोंका शोधन
करनेवाले हैं) ॥ २६-२७ ॥
पितरोंकी पुत्री गन््धकाली देवी (एक विशेष नदीके
रूपमें) विख्यात है। उसमें स्नान करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति
होती है और मरनेके उपरान्त पूर्वजन्मोंके स्मरणकी
शक्ति प्राप्त होती है। सिद्धों तथा चारणोंसे सेवित
'कुबेरतुड़” नामक तीर्थ पापोंको विनष्ट करनेवाला है।
वहाँ प्राणोंका परित्याग करनेसे व्यक्ति कुबेरका अनुचर
होता है। 'उमातुड्र' नामक एक प्रसिद्ध तीर्थ है, जहाँ
रुद्रकी प्रिया पार्वती स्थित रहती हैं। वहाँ महादेवीकी
आराधना करनेसे हजारों गौओंके दानका फल प्राप्त होता
है। मैंने ऐसा सुना है कि भृगुतुड़ (अन्य तीर्थ-विशेष)-
पर तपस्या करने, श्राद्ध तथा दान आदि करनेसे व्यक्ति
अपने दोनों कुलों (मातृकुल-पितृकुल)-की सात पीढ़ियोंको
पवित्र कर देता है॥२८--३१॥
४डड४डड
काश्यपस्य महातीर्थ कालसर्पिरिति श्रुतम्।
तत्र श्राद्धानि देयानि नित्यं पापक्षयेच्छया।॥। ३२॥
दशार्णायां तथा दान श्राद्ध होमस्तथा जप: ।
अक्षयं चाव्ययं चेव कृतं भवति सर्वदा॥ ३३॥
तीर्थ द्विजातिभिर्जुष्टं नाम्ना वै कुरुजाड्रलम्।
दत्त्वा तु दानं विधिवद् ब्रह्मलोके महीयते॥ ३४॥
बैतरण्यां महातीर्थे स्वर्णवेद्यां तथेव च।
धर्मपृष्ठ च सरसि ब्रह्मण: परमे शुभे॥ ३५॥
भरतस्याश्रमे पुण्ये पुण्ये श्राद्धवटे शुभे।
महाहृदे च कौशिक्यां दत्त भवति चाक्षयम्॥ ३६॥
मुझ्रपृष्ठे पदं न््यस्तं महादेवेन धीमता।
हिताय सर्वभूतानां नास्तिकानां निर्दर्शनम्॥ ३७॥
अल्पेनापि तु कालेन नरो धर्मपरायण:।
पापष्मानमुत्सूजत्याशु जीर्णा त्वचमिवोरग: ॥ ३८ ॥
नाम्ना कनकनन्देति तीर्थ त्रेलोक्यविश्रुतम्।
उदीच्यां मुज्जपृष्ठस्य ब्रह्मर्षिगणसेवितम्॥ ३९॥
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति सशरीरा द्विजातय: ।
दत्त चापि सदा श्राद्धमक्षयं समुदाहतम्।
ऋणैस्त्रिभिर्नर: स्नात्वा मुच्यते क्षीणकल्मष: ॥ ४० ॥
मानसे सरसि स्नात्वा शक्रस्यार्धासन लभेत्।
उत्तर मानसं गत्वा सिद्धि प्राप्तोत्यनुत्तमाम्॥ ४१ ॥
तस्मानिनर्वर्तयेच्छाद्धं यथाशक्ति यथाबलम्।
कामान् स लभते दिव्यान् मोक्षोपायं च विन्दति ॥ ४२॥
पर्वतोी हिमवान्नाम नानाधातुविभूषितः।
योजनानां सहस्नाणि सो5शीतिस्त्वायतो गिरिः।
सिद्धचारणसंकीर्णो देवर्षिगणसेवित: ॥ ४३॥
तत्र पुष्करिणी रम्या सुषुक्ना नाम नामतः।
तत्र गत्वा द्विजो विद्वान् ब्रह्महत्यां विमुल्ञति ॥ ४४॥
श्राद्ध भवति चाक्षय्यं तत्र दत्त महोदयम्।
तारयेच्च पितृन् सम्यग् दश पूर्वान् दशापरान्॥ ४५॥
मे कूर्मपुराण हे
काश्यपका “कालसर्पि”' इस नामवाला विख्यात
महातीर्थ है। पापोंके क्षय करनेकी अभिलाषासे वहाँ
नित्य श्राद्ध करना चाहिये। दशार्णामें किया गया दान,
श्राद्ध, होम तथा जप सदाके लिये अक्षय और अविनाशी
हो जाता है। द्विजातियोंके द्वारा सेवित तीर्थ 'कुरुजाड्भल '
नामवाला है। वहाँ विधिपूर्वक दान करनेसे ब्रह्मलोकमें
आदर प्राप्त होता है। वैतरणी, महातीर्थ, स्वर्णवेदी,
धर्मपृष्ठ, परम शुभ ब्रह्मसरोवर, पवित्र भरताश्रम, पुण्य
तथा शुभ श्राद्धवट, महाहदद तथा कौशिकी नदीमें दिया
गया दान अक्षय होता है॥ ३२--३६॥
सभी लोगोंके कल्याणके लिये मुझ्जपृष्ठमें अपने
चरण (चिह) स्थापित कर परम ज्ञानी महादेवने
नास्तिकोंके लिये प्रमाण उपस्थित किया। (यहाँ)
अल्पकालमें ही धर्मपरायण व्यक्ति पापोंका उसी प्रकार
शीघ्रतासे परित्याग करता है, जैसे सर्प अपनी जीर्ण
त्वचा (केंचुल)-का परित्याग कर देता है। ब्रह्मर्षिगणोंके
द्वारा सेवित मुझ्पृष्ठके उत्तर भागमें स्थित कनकनन्दा
नामक तीर्थ तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहाँ स्नानकर
द्विजाति लोग सशरीर स्वर्ग प्राप्त करते हैं। वहाँपर दिया
गया दान तथा किया गया श्राद्ध अक्षय कहा गया है।
वहाँ स्नान करनेपर मनुष्य पापरहित होकर तीनों ऋणोंसे
मुक्त हो जाता है॥ ३७--४०॥
मानस सरोवरमें स्नान करनेसे इन्द्रका अर्धासन प्राप्त
होता है। उत्तर मानस तीर्थकी यात्रा करनेसे उत्तम सिद्धि
प्रात्त होती है। अत: (वहाँ) अपनी शक्ति एवं सामर्थ्यके
अनुसार श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिये। ऐसा करनेवाला
दिव्य भोगों और मोक्षके उपाय (धर्म)-को प्राप्त कर
लेता है॥४१-४२॥
विविध प्रकारकी धातुओंसे सुशोभित हिमवान् नामका
पर्वत एक हजार अस्सी योजन विस्तृत, सिद्धों तथा
चारणोंसे परिपूर्ण और देवर्षिगणोंसे सेवित है। वहाँ सुषुम्रा
नामवाली रमणीय पुष्करिणी है | वहाँकी यात्रा कर विद्वान्
ब्राह्मण ब्रह्महत्या (-के पाप)-से मुक्त हो जाता है। वहाँ
किया गया श्राद्ध अक्षय होता है और दिया हुआ दान
महान् अभ्युदयको प्राप्त कराता है। वहाँ जानेसे व्यक्ति
अपनेसे पहले और बादकी दस पीढ़ीतकके पितरोंको
भलीभाँति तार देता है॥४३--४५॥
* अध्याय ३६८ *
४४५
सर्वत्र हिमवान् पुण्यो गड्जा पुण्या समन््ततः ।
नद्य: समुद्रगा: पुण्या: समुद्रश्च विशेषतः ॥ ४६॥
बदर्या श्रममासाद्य मुच्यते कलिकल्मषात्।
तत्र नारायणो देवो नरेणास्ते सनातनः॥ ४७॥
अक्षयं तत्र दान॑ स्यात् जप्यं वापि तथाविधम्।
महादेवप्रियं तीर्थ पावन तद् विशेषतः।
तारयेच्च पितृन् सर्वान् दत्त्वा श्राद्धं समाहितः ॥ ४८ ॥
देवदारुवनं पुण्यं सिद्धगन्धर्वसेवितम् ।
महादेवेन देवेन तत्र दत्त महद् वरम्॥ ४९॥
मोहयित्वा मुनीन् सर्वान् पुनस्तै: सम्प्रपूजित: ।
प्रसन्नो भगवानीशो मुनीन्धान् प्राह भावितान्॥ ५० ॥
इहाअ्रमवरे रम्ये निवसिष्यथ सर्वदा।
मद्धावनासमायुक्तास्ततः सिद्धिमवाप्स्यथ ॥ ५१ ॥
येऊत्र मार्मर्चयन्तीह लोके धर्मपरा जना:।
तेषां ददामि परम॑ गाणपत्यं हि शाश्वतम्॥ ५२॥
अन्न नित्यं वसिष्यामि सह नारायणेन च।
प्राणानिह नरस्त्यक्त्वा न भूयो जन्म विन्दति॥ ५३॥
संस्मरन्ति च ये तीर्थ देशान्तरगता जना:।
तेषां च सर्वपापानि नाशयामि द्विजोत्तमा: ॥ ५४॥
श्राद्ध दानं तपो होम: पिण्डनिर्वपणं तथा।
ध्यानं जपश्च नियम: सर्वमत्राक्षयं कृतम्॥ ५५॥
तस्मात् सर्वप्रयत्ेन द्रष्टव्यं हि द्विजातिभि: ।
देवदारुवनं पुण्यं महादेवनिषेवितम्॥ ५६॥।
यत्रेश्वरो महादेवो विष्णुर्वा पुरुषोत्तम:।
तत्र संनिहिता गड्जा तीर्थान्यायतनानि च॥ ५७॥
हिमालय तथा गड्जा सर्वत्र ही पवित्र हैं।
समुद्रमें जानेवाली नदियाँ तथा विशेषरूपसे समुद्र पवित्र
हैं ॥ ४६ ॥
बदर्याश्रममें पहुँचकर मनुष्य कलिके पापसे मुक्त
हो जाता है। वहाँपर सनातन नारायणदेव नरके साथ
विराजमान रहते हैं। वहाँ विधिपूर्वक किया गया दान
तथा जप अक्षय हो जाता है। वह पवित्र तीर्थ महादेवको
विशेषरूपसे प्रिय है। वहाँ. समाहित मनसे श्राद्ध
करके मनुष्य अपने सभी पितरोंको मुक्त कर देता
है ॥ ४७-४८ ॥
सिद्ध तथा गन्धर्वोंसे सेवित पवित्र देवदास-वन
नामक एक तीर्थ है। देव महादेवने वहाँ महान् वर
प्रदान किया था। सभी मुनियोंको मोहित करनेके
अनन्तर पुनः उनके द्वारा भलीभाँति पूजित होनेपर प्रसन्न
होकर भगवान् शंकरने भक्तहदय उन मुनियोंसे कहा--
इस रमणीय तथा श्रेष्ठ आश्रममें आप लोग मेरी भक्तिसे
संयुक्त होकर सदा निवास करें, इससे आप लोगोंको
सिद्धि प्राप्त होगी॥ ४९--५१॥
इस लोकमें धर्मपरायण जो लोग यहाँ मेरी पूजा
करते हैं, उन्हें में श्रेष्ठ शाश्वत गाणपत्य-पद प्रदान करता
हूँ। में यहाँ नारायणके साथ नित्य निवास करता हूँ।
जो मनुष्य यहाँ प्राणोंका परित्याग करता है, वह पुनर्जन्म
नहीं प्राप्त करता॥ ५२-५३॥
हे द्विजोत्तमो! दूसरे देशोंमें गये हुए जो लोग इस
तीर्थका स्मरण करते हैं, उनके सभी पापोंको मैं नष्ट
कर देता हूँ। यहाँ किया हुआ श्राद्ध, दान, तप, होम,
पिण्डदान, ध्यान, जप तथा नियम सर्वदाके लिये अक्षय
हो जाता है। इसलिये द्विजातियोंको महादेवद्वारा सेवित
पुण्य देवदारु-वनका सभी प्रयत्रोंद्वारा दर्शन (सेवन)
करना चाहिये। जहाँ ईश्वर महादेव अथवा पुरुषोत्तम
विष्णु रहते हैं, वहाँ गड्ा, सभी तीर्थ तथा सभी
मन्दिरोंकी स्थिति होती है॥५४--५७॥
इति श्रीकूर्मपुराणे पद्साहस्यां संहितायामुपरिविभागे बर्ट्त्रिंशोउध्याय: ॥ ३६ ॥
इस प्रकार छः हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें छत्तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३६॥
'डड६ * कूर्मपुराण *
सैंतीसवाँ अध्याय
देवदारु-वनमें स्थित मुनियोंका तृत्तान्त एवं शिवलिड्रका पतन, मुनियोंको ब्रह्माका
उपदेश, शिवको प्रसन्न करने-हेतु ऋषियोंद्वारा तपस्या तथा स्तुति,
शिवद्वारा सांख्यका उपदेश
ऋषय ऊचु:
कथ्थं दारुवनं प्राप्तो भगवान् गोवृषध्वज: ।
मोहयामास विदप्रेन्द्रानू सूत वक्तुमिहाहसि॥ १ ॥
सूत उवाच
पुरा दारुवने रम्ये देवसिद्धनिषेविते।
सपुत्रदारा मुनयस्तपश्चेर:ः सहस्त्रशः:॥ २ ॥
प्रवृत्तं विविध कर्म प्रकुर्वाणा यथाविधि।
यजन्ति विविधेर्यप्ेस्तपन्ति च महर्षय:॥ ३ ॥
तेषां प्रवृत्तिविन्न्यस्तचेतसामथ शूलधृक्।
ख्यापयन् स महादोषं ययौ दारुवनं हर:॥ ४ ॥
कृत्वा विश्वगुरुं विष्णुं पाए्वें देवो महेश्वर: ।
ययौ निवृत्तिविज्ञानस्थापनार्थ च शंकरः:॥ ५ ॥
आस्थाय विपुलं वेशमूनविंशतिवत्सर: ।
लीलालसो महाबाहु: पीनाड्रएचारुलोचन:॥ ६ ॥
चामीकरवपु: श्रीमान् पूर्णचन्द्रनिभानन: |
मत्तमातड्रगमनो दिग्वासा जगदीश्वर:॥ ७ ॥
कुशेशयमयीं मालां सर्वरत्नैरलंकृताम्।
दधानो भगवानीश:ः समागच्छति सस्मित:॥ ८ ॥
यो5नन्तः पुरुषो योनिलोकानामव्ययो हरि: ।
स्त्रीवेषं विष्णुरास्थाय सो5नुगच्छति शूलिनम्॥ ९ ॥
सम्पूर्णचन्द्रवदनं पीनोन्नतपयोधरम् |
शुचिस्मितं सुप्रसन््न॑ रणन्नूपुरकद्दयम्॥ १०॥
कारटीटलपने दिव्य श्यामलं चारुलोचनम्।
कद्ाहटाकत विलासि सुमनोहरम्॥ ११॥
ऋषियोंने कहा--सूतजी! इस समय आप यह
बतलायें कि भगवान् गोवृषध्वजने दारुवनमें आकर श्रेष्ठ
ब्राह्मणोंको क्यों मोहित किया 2॥ १॥
सूतजी बोले--प्राचीन कालमें देवताओं तथा
सिद्धोंसे सेवित रमणीय दारुवनमें हजारों मुनिजन अपने
पुत्रों तथा अपनी स्त्रियोंक साथ तपस्या करते थे।
विविध कर्मोंमें प्रवृत्त होते हुए तथा यथाविधि उन्हें
सम्पन्न करते हुए वे महर्षिगण विविध यज्ञोंसे यजन
तथा तप करते थे॥ २-३॥
तदनन्तर त्रिशूल धारण करनेवाले वे हर प्रवृत्तिमार्गमें
मन लगानेवाले उन ऋषियोंके महान् दोषका वर्णन करते
हुए दारुवनमें गये। महेश्वर देव शंकर निवृत्तिविज्ञानकी
स्थापना करनेके लिये विश्वके गुरु विष्णुको अपने
पार्श्वमें लेकर वहाँ गये। महान् बाहुवाले, पुष्ट शरीरवाले
तथा सुन्दर नेत्रवाले उन्नीस वर्षके लीलायुक्त पुरुषका
वेश धारणकर श्रीशंकर वहाँ गये॥ ४--६॥
जगदीश्वर (शंकर)-का शरीर स्वर्ण-वर्णके समान
तथा श्रीसम्पन्न था। उनका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान,
उनकी गति मतवाले हाथीके समान और दिशाएँ ही
उनके वस्त्रका स्थान ले रखी थीं। सभी रत्नोंसे अलंकृत
कमलोंकी माला धारण किये हुए भगवान् ईश मुसकराते
हुए आ रहे थे॥७-८॥
जो सभी लोकोंके उत्पत्ति-स्थान, अनन्त अव्यय
पुरुष हरि विष्णु हैं, वे स्त्री-वेष धारणकर शूली
शंकरका अनुगमन कर रहे थे। उनका मुख पूर्णिमाके
चन्द्रके तुल्य था। पयोधर पीन और उन्नत थे। पवित्र
मुसकान थी और वे (विष्णु) अत्यन्त प्रसन्न थे। दोनों
चरणोंसे नूपुरकी ध्वनि हो रही थी, सुन्दर पीताम्बर
उन्होंने धारण कर रखा था। दिव्य श्यामल शरीर था।
नेत्र अत्यन्त सुन्दर थे। हंसके समान उदार गति थी।
भगवान् विष्णु विलासमय एवं अति मनोहारी रूप
धारण कर रखे थे॥९--११॥
* अध्याय ३७ *
४४
एवं स भगवानीशो देवदारुवने हरः।
चचार हरिणा भिक्षां मायया मोहयन् जगत्॥ १२॥।
दृष्ठा चरन्तं विश्वेशं तत्र तत्र पिनाकिनम्।
मायया मोहिता नार्यों देवदेव॑ समन्वयु:॥ १३॥
विस्त्रस्तवस्त्राभरणास्त्यक्त्वा लज्जां पतिब्रता: ।
सहेव तेन कामार्ता विलासिन्यएचरन्ति हि॥ १४॥
ऋषीणां पुत्रका ये स्युर्युवानो जितमानसा: ।
अन्वगच्छन् हषीकेशं सर्वे कामप्रपीडिता: ॥ १५॥
गायन्ति नृत्यन्ति विलासवाह्मा
नारीगणा मायिनमेकमीशम्।
दृष्ठा सपत्नीकमतीवकान्त-
मिच्छन्त्यथालिड्रनमाचरन्ति
पदे निपेतु: स्मितमाचरन्ति
गायन्ति गीतानि मुनीशपुत्रा:।
आलोक्य पद्मापतिमादिदेवं
भ्रूभड़मन्ये. विचरन्ति तेन॥ १७॥
॥ १६॥।
आसामथेषामपि वासुदेवो
मायी मुरारिर्मनसि प्रविष्टः।
करोति भोगान् मनसि प्रवृत्ति
मायानुभूयनत इतीव सम्यक्॥ १८॥
विभाति विश्वामरभूतभर्ता
स॒ माधव: स्त्रीगणमध्यविष्ट: ।
अशेषशक्त्यासनसंनिविष्टो
यथेकशक्त्या सह देवदेव:॥ १९॥
करोति नृत्यं परमप्रभावं
तदा विरूढः: पुनरेव भूयः।
ययौ समारुहाय हरिः स्वभावं
तदीशवृत्तामृतमादिदेव: ॥ २०॥
दृष्ठा नारीकुलं रुद्रं पुत्राणामपि केशवम्।
मोहयन्तं मुनिश्रेष्ठा: कोप॑ संदधिरे भशम्॥ २१॥
इस प्रकारके (स्त्री-वेषवाले) हरिके साथ वे
भगवान् ईश हर अपनी मायासे संसारको मोहित करते
हुए भिक्षाके लिये दारुवनमें विचरण करने लगे।
पिनाकी विश्वेश्वरको स्थान-स्थानपर भ्रमण करते देखकर
(उनकी) मायासे मोहित हो (देवदारु-वनकी) स्त्रियाँ
देवाधिदेवका अनुगमन करने लगीं। अस्त-व्यस्त वस्त्र
तथा आभरणोंवाली ये सभी पतिक्रता स्त्रियाँ लज्जाका
परित्यागकर विलासयुक्त और कामार्त होकर उन्हींके
साथ भ्रमण करने लगीं। जिन्होंने अपने मनको वशमें
कर रखा था, ऋषियोंके वे सभी युवा पुत्र भी
कामपीड़ित होकर (स्त्रीरूपधारी) हषीकेशके पीछे-
पीछे चलने लगे॥ १२--१५॥
पत्नीके रूपमें श्रीविष्णुको साथमें लेकर चलनेवाले
अतीव सुन्दर, मायामय, अद्वितीय ईश (श्रीशंकर)-
को देखकर (महर्षियोंकी) विलासिनी स्त्रियाँ नाचने-
गाने लगीं, उन्हें प्राप्त करेकी अभिलाषा करने लगीं
और उनका आलिंगन करने लगीं। लक्ष्मीके पति
आदिदेव (विष्णु)-को (स्त्री-रूपमें) देखकर मुनी श्वरोंके
पुत्र उनके पैरोंपर गिरने लगे, मुसकराने लगे और गीत
गाने लगे। दूसरे मुनिपुत्र भ्रविलास (कटयाक्षपात) करते
हुए उनके साथ विचरण करने लगे। उन (स्त्रियों)
तथा उन (पुरुषों)-के मनमें प्रविष्ट होकर मायावी
मुरारि वासुदेवने उनके मनमें भोगोंके प्रति प्रवृत्ति उत्पन्न
को। इस प्रकार उन सभीने भलीभाँति मायाका अनुभव
किया॥ १६--१८ ॥
स्त्रियोंके मध्य घिरे हुए समस्त देवों और प्राणियोंके
स्वामी वे माधव तथा शंकर वैसे ही सुशोभित हुए
जैसे समस्त शक्तियोंके आसनपर स्थित अद्वितीय
शक्तिस्वरूपा पार्वतीके साथ देवाधिदेव शंकर सुशोभित
होते हैं। उस समय महादेव (मुनियोंको मोहित करनेकी
भावनापर) आरूढ़ होकर पुनः बार-बार अत्यन्त
प्रभावकारी नृत्य करने लगे और आदिदेव हरि उन
ईशके चरितामृत-रूप स्वभावके रहस्यको समझकर
उनके पीछे-पीछे चलने लगे॥१९-२०॥
स्त्री-समूहको मुग्ध कर रहे रुद्र और पुत्रोंको
मोहित कर रहे (नारीरूप) विष्णुको देखकर उन श्रेष्ठ
मुनियोंको अत्यन्त क्रोध हो आया॥२१॥
४४८
अतीव परूषं वाक्यं प्रोचुदेवं कपर्दिनम्।
शेपुश्च शापैर्विविधेमायया तस्य मोहिता:॥ २२॥
तपांसि तेषां सर्वेषां प्रत्याहन्यन्त शंकरे।
यथादित्यप्रकाशेन तारका नभसि स्थिता: ॥ २३॥
ते भग्नतपसो विप्रा: समेत्य वृषभध्वजम्।
को भवानिति देवेशं पृच्छन्ति सम विमोहिता: ॥ २४॥
सोउ5ब्रवीद् भगवानीशस्तपश्चर्तुमिहागत: ।
इदानीं भार्यया देशे भवद्धिरिह सुत्रता:॥ २५॥
तस्य ते वाक्यमाकर्णय भृग्वाद्या मुनिपुंगवा: ।
ऊचुर्गहीत्वा वसन॑ त्यक्त्वा भार्या तपश्चर॥ २६॥
अथोवाच विहस्येश: पिनाकी नीललोहित: ।
सम्प्रेन््ष्य जगतो योनि पार्वस्थं च जनार्दनम्॥ २७॥
कथ॑ं भवद्धिरुदितं स्वभार्यापोषणोत्सुकै: ।
त्यक्तव्या मम भार्येति धर्मश्लेः शान्तमानसै: ॥ २८ ॥
ऋषय ऊचु:
व्यभिचाररता नार्य: संत्याज्या: पतिनेरिता:।
अस्माभिरेषा सुभगा तादूशी त्यागमर्हति॥ २९॥
महादेव उवाच
न कदाचिदियं विप्रा मनसाप्यन्यमिच्छति।
नाहमेनामपि तथा विमुश्स़ामि कदाचन॥ ३०॥
ऋषय ऊचु:
दृष्टा व्यभिचरन्तीह हास्माभि: पुरुषाधम।
उक्तं हासत्यं भवता गम्यतां क्षिप्रमेव हि।। ३१ ॥
एवमुक्ते महादेव: सत्यमेव मयेरितम्।
भवतां प्रतिभात्येषेत्युक्तासौ विचचार ह॥ ३२॥
सो5गच्छद्धरिणा सार्ध मुनीन्द्रस्य महात्मन: ।
वसिष्ठस्याश्रमं पुण्यं भिक्षार्थी परमेश्वर: ॥ ३३॥
दृष्ठा समागतं देवं भिक्षमाणमरुन्धती।
वसिष्ठस्य प्रिया भार्या प्रत्युदूगम्य ननाम तम्॥ ३४॥
र कूर्मपुराण ह
उन (शंकर)-की मायासे मोहित होकर मुनियोंने
कपर्दीदेव (शंकर) -से अत्यन्त परुष (कठोर) वचन कहा
और विविध शापोंसे उन्हें अभिशप्त किया। पर वे सभी
परुष वचन एवं शाप व्यर्थ हो गये; क्योंकि उन मुनियोंकी
तपस्याएँ (तपस्यासे उत्पन्न शक्तियाँ) भगवान् शंकरसे प्रत्याहत
होकर वैसे ही प्रभावशून्य हो गयीं, जैसे आकाशमें सूर्यके
प्रकाशसे प्रत्याहत ताराएँ प्रभावशून्य हो जाती हैं॥ २२-२३॥
इस प्रकार अपनी तपस्याको निष्प्रभाव देखकर
मोहित हुए वे मुनि वृषभध्वज देवेशके पास जाकर
उनसे पूछने लगे--'आप कौन हैं ?” तब उन भगवान्
ईशने कहा--सुब्रतो ! इस समय आप लोगोंके इस स्थानमें
मैं पत्नीसहित तपस्या करनेके लिये आया हूँ॥ २४-२५॥
उनके उस वाक्यकों सुनकर उन भृगु आदि श्रेष्ठ
मुनियोंने कहा--वस्र धारणकर, भार्याका परित्यागकर
तपस्या करो॥ २६॥
तब नीललोहित पिनाकी ईश्वरने हँसकर पार्श्वभागमें
स्थित संसारके मूल कारण जनार्दनकी ओर देखकर इस प्रकार
कहा--धर्मको जाननेवाले तथा शान्त मनवाले और अपनी भायकि
पालन-पोषणमें तत्पर रहनेवाले आप लोगोंने मुझसे यह कैसे
कहा कि अपनी भार्याका परित्याग कर दो॥ २७-२८ ॥
ऋषियोंने कहा--(शास्त्रोंके अनुसार) पतिका
कर्तव्य है कि व्यभिचारिणी पत्तीको (भरण-आच्छादनकी
व्यवस्था भले ही कर दे, पर) पत्लीरूपमें उसे न
स्वीकार करे। अतः आपको भी इस प्रकारकी इस
सुन्दरीका त्याग करना चाहिये॥ २९॥
महादेव बोले--विप्रो ! यह कभी मनसे भी किसी
दूसरेकी इच्छा नहीं करती और न मैं कभी इसका
परित्याग करता हूँ॥३०॥
ऋषियोंने कहा--पुरुषाधम ! हमने इसे यहाँ व्यभिचार
करते हुए देखा है। आपने असत्य कहा है। अतः
शीघ्र ही यहाँसे चले जाइये॥ ३१॥
ऋषियोंके ऐसा कहनेपर महादेवने कहा--मैंने सत्य
ही कहा है। आपको यह (मेरे पार्श्रमें विद्यमान सुन्दरी
स्त्री) ऐसी प्रतीत होती है। ऐसा कहकर महादेव विचरण
करने लगे। भिक्षाकी इच्छासे वे परमेश्वर विष्णुके साथ
मुनिश्रेष्ठ महात्मा वसिष्ठके पवित्र आश्रममें गये। भिक्षा
माँगते हुए देवको आये देखकर वसिष्ठकी प्रिय पत्नी
अरुन्धतीने समीपमें जाकर उन्हें प्रणम किया॥ ३२--३४॥
* अध्याय ३७ *
४४९
प्रक्षाल्य पादो विमल॑ दत्त्वा चासनमुत्तमम् ।
सम्प्रेक्ष्य शिथिलं गात्रमभिघातहतं द्विजै: ।
संधयामास भेषज्येर्विषण्णा बदना सती॥ ३५ ॥।
चकार महतीं पूजां प्रार्थथामास भार्यया।
को भवान् कुत आयात: किमाचारो भवानिति।
उवाच तां महादेव: सिद्धानां प्रवरो5स्म्यहम्॥ ३६॥
यदेतन्मण्डलं शुद्ध भाति ब्रह्ममयं सदा।
एषेव देवता मह्यं धारयामि सदैव तत्॥ ३७॥
इत्युक्त्वा प्रययौँ श्रीमाननुगृहा पतित्रताम्।
ताडयाजञ्जक्रिरे दण्डेलॉट्टिभिमुष्टिभिद्वधिजा: ॥ ३८ ॥
दृष्ठा चरन्तं गिरिशं नग्नं विकृतलक्षणम्।
प्रोचुरेतद् भवॉल्लिड्डमुत्पाटयतु दुर्मते ॥ ३९॥
तानब्रवीन्महायोगी करिष्यामीति शंकरः।
युष्माकं मामके लिड्ढे यदि द्वेषोडईभिजायते ॥ ४० ॥
इत्युक्त्वोत्पाटयामास भगवान् भगनेत्रहा।
नापश्यंस्तत्क्षणेनेशं केशवं लिड्रमेव च।॥ ४१॥
तदोत्पाता बभूवुर्हि लोकानां भयशंसिन:।
न राजते सहस्त्रांशुश्बन्नाल पृथिवी पुनः।
निष्प्रभाश्च ग्रहा: सर्वे चुक्षुभे च महोदधि: ॥ ४२॥
अपश्यच्चानसूयात्रे: स्वप्न भार्या पतित्रता।
कथयामास विप्राणां भयादाकुलितेक्षणा॥ ४३॥
तेजसा भासयन् कृत्स्नं नारायणसहायवान्।
भिक्षमाण: शिवो नूनं॑ दृष्टोउस्माकं गृहेष्विति॥ ४४ ॥।
तस्या वचनमाकर्ण्य शद्भूमाना महर्षय:।
सर्वे जम्मुर्महायोगं ब्रह्माणं विश्वसम्भवम्॥ ४५॥
उपास्यमानममलैयोंगिभिन्रह्ावित्तमै:. ।
चतुर्वेदैर्मूर्तिमद्धिः सावित्र्या सहितं प्रभुम्॥ ४६ ॥
]3] (पा एप्रधा_5टलांणा_6_ गा
(परमेश्वके) चरणोंको धोकर और शुद्ध उत्तम
आसन प्रदान कर द्विजोंक आघातसे आहत उनके
शिथिल शरीरको देखकर अत्यन्त खिन्न सती (अरुन्धती) -
ने (उनके ब्रणोंपर) औषधि लगायी और भार्यासहित
(परमेश्ररकी ) उन्होंने (अरुन्धतीने) महती पूजा की
तथा पूछा--'आप कौन हैं, कहाँसे आये हैं, आपका
आचार क्या है?' महादेवने उनसे कहा--'मैं सिद्धोंमें
श्रेष्ठ (सिद्ध) हूँ।” जो यह ब्रह्ममय शुद्ध मण्डल सदा
प्रकाशित होता है वही मेरे देवता (आस्पद) हैं। मैं
सदा ही उनको धारण करता हूँ॥ ३५--३७॥
ऐसा कहकर तथा पतिब्रता (अरुन्धती)-पर कृपा
करके श्रीमान् (महादेव) चल पड़े। द्विज उन्हें डंडों
ढेलों तथा मुक्कोंसे मारने लगे। नग्न तथा विकृत
लक्षणवाले गिरिशको घूमते हुए देखकर मुनियोंने
कहा--हे दुर्मते! तुम अपने इस लिड्रको उखाड़ो।
महायोगी शंकरने उनसे कहा--आप लोगोंको यदि मेरे
लिड्के प्रति द्वेष उत्पन्न हो गया हो तो मैं वैसा ही
करूँगा॥ ३८--४० ॥
ऐसा कहकर भगके नेत्रोंको नष्ट करनेवाले भगवान्ने
(अपने) लिड्रको उखाड़ दिया। पर तत्काल ही सब
कुछ अदृश्य हो गया और (मुनियोंने) न शंकरको
देखा न केशवको और न लिड्रको ही देखा और तभी
पूरे लोकमें भय उत्पन्न करनेवाले उपद्रव होने लगे।
सहस्रकिरण (सूर्य )-का तेज समाप्त हो गया, पृथ्वी
काँपने लगी। सभी ग्रह प्रभावहीन हो गये और समुद्रमें
क्षोभ उत्पन्न हो गया॥४१५-४२॥
इधर अत्रिकी पत्नी पतिब्रता अनसूयाने स्वप्न
देखा। उनके नेत्र भयसे व्याकुल हो गये। उन्होंने
ब्राह्मणोंसे (स्वप्नकी बात बताते हुए) कहा--निश्चय
ही हम लोगोंके घरमें अपने तेजसे सम्पूर्ण संसारको
प्रकाशित कर रहे शिव (भगवान् शंकर) नारायणके
साथ भिक्षा माँगते हुए दिखलायी पड़े थे। उनके वचन
सुनकर सशंकित सभी महर्षि जगत्को उत्पन्न करनेवाले
महायोगी ब्रह्माजीके पास गये॥ ४३--४५॥
वहाँ उन्होंने ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ विशुद्ध योगिजनोंद्वारा
तथा मूर्तिमान् चारों वेदोंद्वारा उपासित होते हुए प्रभु
(ब्रह्मा)-को सावित्रीके साथ देखा॥४६॥
४९५०
आसीनमासने रम्ये नानाश्चर्यसमन्विते।
प्रभासहस्रकलिले.. ज्ञानैश्वर्यादिसंयुते ॥ ४७॥
विभ्राजमानं वपुषा सस्मितं शुभ्रलोचनम्।
चअतुर्मुख महाबाहुं छन्दोमयमर्ज परम्॥ ४८॥
विलोक्य वेदपुरुषं प्रसन्नवदनं शुभम्।
शिरोभिर्धरणीं गत्वा तोषयामासुरीश्वरम्॥ ४९॥
तान् प्रसन्नमनना देवश्चतुर्मूर्ति श्रतुर्मुख: ।
व्याजहार मुनिश्रेष्ठा: किमागमनकारणम्॥ ५०॥
तस्य ते वृत्तमखिलं ब्रह्मण: परमात्मन:।
ज्ञापयाकझ्ञक्रिरे सर्वे कृत्ता शिरसि चाझललिम्॥ ५१॥
ऋषय ऊचु:
कश्िद् दारुवनं पुण्यं पुरुषोडझतीवशोभन: ।
भार्यया चारुसर्वाड्रद्या प्रविष्टो नग्र एव हि॥ ५२॥
मोहयामास वपुषा नारीणां कुलमीश्वर:।
कन्यकानां प्रिया चास्य दूषयामास पुत्रकान्॥ ५३॥
अस्माभिर्विविधा: शापाः प्रदत्ताश्चव पराहता: ।
ताडितोउस्माभिरत्यर्थ लिड्/ं तु विनिपातितम्॥ ५४॥
अन्तहितश्च भगवान् सभार्यो लिड्रमेव च।
उत्पाताश्वाभवन् घोरा: सर्वभूतभयंकरा: ॥ ५५॥
क एष पुरुषो देव भीताः सम पुरुषोत्तम।
भवन्तमेव शरणं प्रपन्ना वयमच्युत॥ ५६॥
त्वं हि वेत्सि जगत्यस्मिन् यत्किश्चिदपि चेष्टितम्।
अनुग्रहेण विश्वेश तदस्माननुपालय॥ ५७॥
विज्ञापितो मुनिगणैर्विश्रात्मा कमलोद्धव: ।
ध्यात्वा देव॑ त्रिशूलाडूं कृताझ्ललिरभाषत॥ ५८ ॥
ब्रह्मोवाच
हा कष्ट भवतामद्य जात॑ सर्वार्थनाशनम्।
धिग्बलं धिक् तपश्चर्या मिथ्येव भवतामिह॥ ५९॥
सम्प्राप्य पुण्यसंस्कारात्निधीनां परमं निधिम्।
उपेक्षितं वृथाचारैर्भवद्धिरिह मोहितेः॥ ६०॥
* कूर्मपुराण *
नाना प्रकारके आश्चर्योसे समन्वित, हजारों प्रकारकी
प्रभासे सुशोभित और ज्ञान तथा ऐश्वर्यसे युक्त रमणीय
आसनपर विराजमान परम रमणीय अप्राकृत दिव्य शरीरके
कारण शोभासम्पन्न, मुसकानयुक्त, उज्चल नेत्रोंवाले, महाबाहु,
छन््दोमय, अजन्मा, प्रसन्नचदन, शुभ एवं श्रेष्ठ चतुर्मुख
वेदपुरुष (ब्रह्मा)-को देखकर वे (मुनिजन) भूमिपर
मस्तक टेककर ईश्वरकी स्तुति करने लगे-- ॥ ४७--४९॥
चतुर्मूर्ति चतुर्मुख देवने उनपर प्रसन्न होकर पूछा--
“मुनिश्रेष्ठी! आपके आनेका क्या प्रयोजन है ?' तब सभी
मुनियोंने मस्तकपर हाथ जोड़कर उन परमात्मा ब्रह्माको
उस (भगवान् शंकरकी दिव्य लीलाके) सम्पूर्ण वृत्तान्तको
बतलाया ॥ ५०-५१ ॥
ऋषियोंने कहा--पवित्र दारुवनमें अत्यन्त सुन्दर
कोई पुरुष सम्पूर्ण सुन्दर अज्भोंवाली अपनी भायकि
साथ नग्न ही प्रविष्ट हुआ। उस ईश्वरने अपने शरीरसे
(हमारी) स्त्रियोंक समूहको तथा सभी कन्याओंमें अति
रमणीय उसकी प्रियाने (हमारे) पुत्रोंको दूषित (अपनी
ओर आकृष्ट) किया। हम लोगोंने उस पुरुषको विविध
शाप दिये, किंतु वे निष्फल हो गये, तब हम लोगोंने
उसे बहुत मारा और उसके लिड्गको गिरा दिया, पर
तत्काल ही भायकि साथ भगवान् और लिड्र अन्तहिंत
हो गये। तभीसे प्राणियोंको भय प्रदान करनेवाले भीषण
उत्पात होने लगे हैं॥५२--५५॥
पुरुषोत्तम! वह देव-पुरुष कौन है? हम लोग
भयभीत हो गये हैं। अच्युत! हम सब आपकी शरणमें
आये हैं। इस संसारमें जो कुछ भी चेष्टा होती है,
उसे आप अवश्य जानते हैं, इसलिये विश्वेश! अनुग्रह
कर आप हमारी रक्षा करें॥ ५६-५७॥
मुनिगणोंके द्वारा इस प्रकार निवेदन किये जानेपर
कमलसे उत्पन्न विश्वात्मा (ब्रह्मा)-ने त्रिशूलका चिह्
धारण करनेवाले देव (शंकर)-का ध्यान करते हुए
हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-- ॥ ५८ ॥
ब्रह्मा बोले--आह! कष्ट है कि आज आप
लोगोंका सर्वस्व नष्ट हो गया। आपके बलको धिक्कार
है, तपश्चर्यु्ों धिक्ार है, आपका यह सब मिथ्या
ही हो गया। पवित्र संस्कारों और निधियोंमें परम
निधिको प्राप्तकर वृथाचारी आप लोगोंने मोहवश उनकी
उपेक्षा कर दी॥ ५९-६०॥
* अध्याय ३७ *
कांक्षन्ते योगिनो नित्यं यतन्तो यतयो निधिम्।
यमेव त॑ समासाद्य हा भवद्धिरुपेक्षितम्॥ ६१॥
यजन्ति यज्लैविंविदेर्य॑त्प्राप्ये वेदवादिनः।
महानिधिं समासाद्य हा भवद्धिरुपेक्षितम्॥ ६२ ॥
य॑ समासाद्य देवानामैश्वर्यमखिलं जगत्।
तमासाद्याक्षयनिधिं हा भवद्धिरुपेक्षितम्॥ ६३ ॥
यत्समापत्तिजनितं विश्वेशत्वमिंदं मम।
तदेवोपेक्षितं दृष्ठा निधानं भाग्यवर्जिति:॥ ६४॥
यस्मिन् समाहितं दिव्यमैश्वर्य यत् तदव्ययम्।
तमासाद्य निधिं ब्राह्मं हा भवद्धिर्वुथा कृतम्॥ ६५ ॥
एव देवो महादेवो विज्ञेयस्तु महेश्वरः।
न तस्य परमं किझ्चित् पदं समधिगम्यते॥ ६६॥।
देवतानामृषीणां च पितृणां चापि शाश्वत: ।
सहस्त्रयुगपर्यन्त॑ प्रलये सर्वदेहिनाम्।
संहरत्येष भगवान् कालो भूत्वा महेश्वर:॥ ६७॥
एष चेव प्रजा: सर्वा: सृजत्येकः स्वतेजसा।
एष चक्री च वज्जी च श्रीवत्सकृतलक्षण: ॥ ६८ ॥
योगी कृतयुगे देवस्त्रेतायां यज्ञ उच्यते।
द्वापरे भगवान् कालो धर्मकेतु: कलौ युगे॥ ६९॥
रुद्रस्य मूर्तयस्तिस्त्रो याभिर्विश्रमिदं ततम्।
तमो ह्ाग्री रजो ब्रह्मा सत्त्वं विष्णुरिति प्रभु: ॥ ७०॥
मूर्तिरन्या स्मृता चास्य दिग्वासा वै शिवा धरुवा।
यत्र तिष्ठति तद् ब्रह्म योगेन तु समन्वितम्॥ ७१॥
या चास्य पार्श्वगा भार्या भवद्धिरभिवीक्षिता।
सा हि नारायणो देवः परमात्मा सनातन: ॥ ७२॥
तस्मात् सर्वमिदं जात॑ तत्रेव च लयं ब्रजेत्।
स एव मोहयेत् कृत्स्नं स एवं परमा गति: ॥ ७३॥
४५१२
योगी लोग तथा यत्न करनेवाले यति लोग जिस
निधिको प्राप्त करनेकी नित्य अभिलाषा करते हैं,
उसीको प्राप्कर आप लोगोंने उपेक्षा कर दी, यह बहुत
ही कष्टकी बात है। वैदिक लोग जिसकी प्राप्तिके लिये
अनेक प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं, बड़ा कष्ट
है कि उन महानिधिको प्रातकर भी आप सभीने उनकी
उपेक्षा कर दी। हाय! जिसे प्राप्तकर देवताओंके ऐश्वर्य-
रूपमें समस्त लोक-लोकान्तर दृष्टिगोचर हो रहे हैं,
उन अक्षयनिधिको प्रात्कर आपने उनकी उपेक्षा
कर दी॥६१--६३॥
जिनकी प्राप्ति होनेसे मुझे यह विश्वेश्वरत्व प्राप्त हुआ
है, उन (समस्त ऐशथ्वर्यके) निधानका दर्शनकर भाग्यरहित
आप लोगोंने (उनकी) उपेक्षा कर दी। जिनमें वह
अविनाशी दिव्य ऐश्वर्य समाहित है, उन ब्रह्मरूप
निधिको प्रातकर भी आप लोगोंने अपना सुअवसर
खो दिया, यह बड़े कष्टकी बात है। इन्हीं देवको
महादेव और महेश्वर समझना चाहिये। इनका परम पद
(सर्वोत्कृष्ट ऐश्वर्य) किंचित् भी प्राप्त नहीं किया जा
सकता अर्थात् जाना नहीं जा सकता॥ ६४--६६ ॥
हजारों युग-पर्यन्त रहनेवाले प्रलयकालमें ये ही
सनातन भगवान् महेश्वर कालरूप होकर देवताओं, ऋषियों
तथा पितरों और समस्त देहधारियोंका संहार (अपनेमें
लय) करते हैं। ये ही अद्वितीय अपने तेजसे समस्त
प्रजाओंकी सृष्टि करते हैं। चक्र, वज्र तथा श्रीवत्सके
चिहको धारण करनेवाले ये ही हैं (क्योंकि इनमें तथा
श्रीविष्णुमें सर्वथा अभेद है), ये ही देव कृतयुगमें योगी,
त्रेतामें यज्ञरूप, द्वापरमें भगवान् काल तथा कलियुगमें
धर्मकेतु कहलाते हैं। रुद्रकी तीन मूर्तियाँ हैं, इन्होंने ही
इस विश्वको व्याप्त कर रखा है। तमोगुणके अधिष्ठाताको
अग्नि, रजोगुणके अधिष्ठाताको ब्रह्मा तथा सत्त्वगुणके
अधिष्ठाताको प्रभु विष्णु कहा गया है॥ ६७--७० ॥
इनकी एक दूसरी मूर्ति है जो दिगम्बरा, शाश्वत
तथा शिवात्मिका कहलाती है। उसीमें योगसे युक्त परम
ब्रह्म प्रतिष्ठित रहते हैं। जिनको इनके पार्श्वभागमें स्थित
भायकि रूपमें आपने देखा है, वे ही सनातन परमात्मा
नारायण देव हैं। उनसे ही यह सब उत्पन्न है और
उनमें ही यह सब लीन भी हो जाता है। वे ही सबको
मोहित करते हैं और वे ही परम गति हैं ॥७१--७३॥
४५२
सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस््रपात्।
एकश्चड़ोी महानात्मा पुराणोडष्टाक्षरों हरिः॥ ७४॥
चतुर्वेदश्षतुर्मूर्तिस्त्रिमूर्तिस्त्रगुण:. पर: ।
एकमूर्तिरमेयात्मा नारायण इति श्रुतिः॥ ७५॥
ऋतस्य गर्भों भगवानापो मायातनु: प्रभु: ।
स्तूयते विविधेर्मन्त्रेब्नाह्मणैर्धर्ममोक्षिभि: ॥ ७६॥
संहत्य सकल॑ विश्वं कल्पान्ते पुरुषोत्तम: ।
शेते योगामृतं पीत्वा यत् तद् विष्णो: परे पदम्॥ ७७॥
न जायते न प्रियते वर्धते न च विश्वस॒क् ।
मूलप्रकृतिरव्यक्ता गीयते वैदिकेरज: ॥ ७८॥
ततो निशायां वृत्तायां सिसृक्षुरखिलं जगत्।
अजस्य नाभौ तद् बीजं क्षिपत्येष महेश्वर: ॥ ७९ ॥
तं मां वित्त महात्मानं ब्रह्माणं विश्वतोमुखम्
महान्तं पुरुषं विश्वमपां गर्भमनुत्तमम्॥ ८०॥
न तं॑ विदथ जनकं मोहितास्तस्य मायया।
देवदेव॑ महादेव॑ भूतानामीश्वर॑ हरम्॥ ८१॥
एष देवो महादेवो ह्ानादिर्भगवान् हरः।
विष्णुना सह संयुक्त: करोति विकरोति च॥ ८२॥
न तस्य विद्यते कार्य न तस्माद विद्यते परम्।
स वेदान् प्रददौ पूर्व योगमायातनुर्मम॥ ८३॥
* कूर्मपुराण *
महान् आत्मा पुराण (शाश्वत) पुरुष हरि एक
श्ृंगधारी (अनन्त ब्रह्माण्डको एक श्रृंग-रूपमें धारण
करनेवाले) अप्टाक्षर (अष्टमूर्तिरूप तथा अविनाशी
तत्त्व) हजारों सिरवाले, हजारों आँखवाले एवं हजारों
चरणवाले हैं। श्रुतिका कथन है कि नारायण चतुर्वेद,
चतुर्मूर्ति, त्रिमूर्ति एवं त्रिगुण होते हुए भी एकमूर्ति तथा
अमेयात्मा हैं॥ ७४-७५ ॥
माया (-से विविध) शरीर धारण करनेवाले तथा
(समस्त जगत्के जीवन-जलको ही अपने आयतनके
रूपमें स्वीकार करनेवाले) जलस्वरूप प्रभु भगवान्
कर्मफलके एकमात्र अधिष्ठाता हैं। धर्म तथा मोक्षकी
इच्छा करनेवाले ब्राह्मण लोग विविध मन्त्रोंके द्वारा
(उनकी ) स्तुति करते हैं। कल्पान्तमें समस्त विश्वका
संहार करनेके अनन्तर योगामृतका पानकर पुरुषोत्तम
( भगवान् शंकर) जिस सर्वाधिष्ठान, स्वप्रकाशमें शयन
(परम विश्रान्तिका अनुभव) करते हैं, वही विष्णु
नामका परम पद है। विश्वकी सृष्टि करनेवाले ये न
जन्म लेते हैं, न मरते हैं और न वृद्धिको प्राप्त होते
हैं। वैदिक लोग इन्हीं अजन्मा (भगवान्)-को अव्यक्त
मूलप्रकृति कहते हैं ॥७६--७८ ॥
ये महेश्वर (प्रलयरूपी) रात्रिके बीत जानेपर
सम्पूर्ण जगत्की सृष्टिकी इच्छासे अजकी नाभिमें इस
(सृष्टि)-के बीजको स्थापित करते हैं। उन (अज)-
के रूपमें मुझे ही आप लोग जानें। में ही समस्त
लोकोंका मूल होनेके कारण महात्मा, ब्रह्मा, सर्वतोमुख,
महान् पुरुष, विश्वात्मा अप् (समस्त स्थूल जल)-
का अधिष्ठाता सर्वोत्तम देव हूँ। अनन्त ब्रह्माण्डके
बीजको मेरेमें स्थापित करनेवाले उन परमपिता देवाधिपति
महादेव हरको आप लोग उनकी मायासे मोहित होनेके
कारण नहीं जान सके॥ ७९--८१ ॥
वे ही अनादि देव भगवान् महादेव हर विष्णुके
साथ युक्त होकर सृष्टि और संहार करते रहते हैं। उनका
कोई कार्य (कर्तव्य) नहीं है और उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं
है। योगमायामय शरीर धारण करनेवाले उन्होंने पूर्वकालमें
मुझे वेद प्रदान किया॥ ८२-८३ ॥
* अध्याय रे3 *
ड५३३
स मायी मायया सर्व करोति विकरोति च।
तमेव मुक्तये ज्ञात्वा ब्रजेत शरणं भवम्॥ ८४॥
इतीरिता भगवता मरीचिप्रमुखा विभुम्।
प्रणम्य देव॑ ब्रह्माणं पृच्छन्ति सम सुदु:खिता: ॥ ८५॥
मुनय ऊचु:
कथ॑ पश्येम तं देवं पुनरेव पिनाकिनम्।
ब्रृहि विश्वामरेशान त्राता त्वं शरणैषिणाम्॥ ८६ ॥
पितामह उवाच
यद् दृष्टे भवता तस्य लिड्/ भुवि निपातितम्
तल्लिड्रानुकृतीशस्य कृत्वा लिड्रमनुत्तमम्॥ ८७॥
पूजयध्व॑ सपत्नीकाः सादरं पुत्रसंयुता:।
वैदिकैरव नियमैर्विविधे््रह्मचारिण: ॥ ८८ ॥
संस्थाप्य शांकरैर्मन्त्रैऋग्यजु:सामसम्भव: ।
तपः परं समास्थाय गृणन्त: शतरुद्वियम्॥ ८९॥
समाहिताः पूजयध्वं सपुत्रा: सह बन्धुभि:।
सर्वे प्रा्ललयो भूत्वा शूलपाणिं प्रपद्मयथ॥ ९०॥
ततो द्रक्ष्यथ देवेशं दुर्दर्शमकृतात्मभि:।
यं दृष्टा सर्वमज्ञानमधर्मश्च प्रणश्यति॥ ९१॥
ततः प्रणम्य वरदं ब्रह्मणममितौजसम्।
जग्मुः संहष्टमनसो देवदारुवनं पुनः॥ ९२॥
आराधयितुमारब्धा ब्रह्मणा कथित: यथा।
अजानन्त:ः परं देवं बीतरागा विमत्सरा:॥ ९३॥
स्थण्डिलेषु विचित्रेषु पर्वतानां गुहासु च।
नदीनां च विविक्तेषु पुलिनेषु शुभेषु च॥ ९४॥
शैवालभोजना: केचित् केचिदन्तर्जलेशया: ।
केचिदभ्रावकाशास्तु पादाडुडष्टाग्रविष्ठिता: ॥ ९५॥
वे मायी (अपनी) मायाद्वारा सभीकी सृष्टि और
संहार करते हैं। उन्हें ही मुक्तिका मूल समझकर उन
भवकी ही शरणमें जाना चाहिये। भगवान् (ब्रह्मा)-
के ऐसा कहनेपर मरीचि आदि प्रमुख ऋषियोंने विभु
ब्रह्मदेवको प्रणामकर अत्यन्त दुःखित होकर उनसे
पूछा-- ॥ ८४-८५॥
मुनिजन बोले--समस्त देवोंके स्वामी! उन
पिनाकधारी देवका दर्शन हम पुनः किस प्रकार कर
पायेंगे, आप हमें बतायें। आप शरण चाहनेवालोंकी
रक्षा करनेवाले हैं॥८६॥
पितामहने कहा--प्ृथ्वीपर गिराये गये उनके
(महेश्वरके) जिस लिड्रको आप लोगोंने देखा था,
उसी लिड्रके समान श्रेष्ठ लिड़्॒ बनाकर सपत्लीक
तथा पुत्रोंसहित आदरपूर्वक विविध वैदिक मन्त्रोंसे
ब्रह्मचर्यपूर्वक्क आप लोग उसकी पूजा करें। ऋग्वेद,
यजुर्वेद तथा सामवेदमें कहे गये शंकरके मन्त्रोंसे
(लिजड्गकी) स्थापना कर परम तपका अवलम्बन कर,
शतरुद्रियका जप करते हुए समाहित होकर बन््धुओं
तथा पुत्रोंसहित आप सभी लोग हाथ जोड़कर शूलपाणिकी
शरणमें जायँ। तदनन्तर आप लोग अकृतात्माओंके
लिये दुर्दर्श उन देवेश्वरका दर्शन करेंगे, जिनको
देख लेनेपर सम्पूर्ण अज्ञान और अधर्म दूर हो
जाता है॥ ८७--९१॥
तब अमित ओजस्वी वरदाता ब्रह्माको प्रणामकर
प्रसन्नमननवाले वे सभी महर्षि पुनः देवदारु-वनकी
ओर चले गये और परम देवको न जानते हुए भी
उन महर्षियोंने राग एवं मात्सर्यसे रहित होकर
ब्रह्माजीने जैसा बताया था, तदनुसार अनेकविध यज्ञीय
वेदियों, पर्वतोंकी गुफाओं तथा जनशून्य नदियोंके
सुन्दर किनारोंपर भगवान् शंकरकी आराधना प्रारम्भ
कर दी॥९२--९४॥
कुछ लोग शैवालका भोजन करते हुए, कुछ
जलके अंदर शयनकी मुद्रामें स्थित रहते हुए तथा
कुछ लोग खुले आकाशके नीचे पैरके अँगूठेके
अग्रभागपर स्थित रहकर श्रीशंकरकी आराधनामें दत्तचित्त
हो गये॥ ९५॥
४४
हम कूर्मपुराण नः
कुछ दूसरे दन्तोलूखली अर्थात् दाँतोंके ही द्वारा
दन््तोलूखलिनस्त्वन्ये ह्मश्मकुट्टास्तथा परे।
शाकपर्णाशिनः केचित् सम्प्रक्षाला मरीचिपा: ॥ ९६ ॥
वक्षमूलनिकेताश्व शिलाशय्यास्तथा परे।
काल॑ नयन्ति तपसा पूजयन्तो महेश्वरम्॥ ९७ ॥
ततस्तेषां प्रसादार्थ प्रपन्नातिहरो हरः।
चकार भगवान् बुद्धि प्रबोधाय वृषध्वज:॥। ९८ ॥
देव: कृतयुगे हास्मिन् श्रुद्भे हिमवत: शुभे।
देवदारुवनं प्राप्त: प्रसन्नः: परमेश्वर:॥ ९९ ॥
भस्मपाण्डुरदिग्धाड़ो नग्नो विकृतलक्षण: ।
उल्मुकव्यग्रहस्तश्च॒रक्तपिड्ग्ललोचन: ॥ १०० ॥
क्वचिच्च हसते रौद्रं क्वचिद् गायति विस्मित: ।
क्वचिनत्यति श्रड्गारी क्वचिद् रौति मुहुर्मुहु:॥ १०१॥
आश्रमे&भ्यागतो भिक्षां याचते च पुनः पुनः ।
मायां कृत्वात्मनो रूपं देवस्तद् वनमागत: ॥ १०२॥
कृत्वा गिरिसुतां गौरीं पाएवे देव: पिनाकधृक् ।
सा च पूर्ववद् देवेशी देवदारुवनं गता॥ १०३॥
दृष्ठा समागतं देवं देव्या सह कपर्दिनम्।
प्रणेमु: शिरसा भूमौ तोषयामासुरी श्वरम्॥ १०४॥
बैदिकैर्विविधेर्मन्त्रे: सूक्तैमहिश्वरे: शुभेः ।
अथर्वशिरसा चान्ये रुद्राद्ये्रह्वभिर्भवम्॥ १०५ ॥
अनाजको तुष (भूसी) आदिसे रहितकर बिना पकाये
खा लेते थे, कुछ दूसरे पत्थरपर ही अन्नको कूटकर
खा लेते थे*। कुछ शाक तथा पत्तोंका ही भोजन करते
थे, कुछ लोग एक समय भोजन करके अड्भोंकी चिन्ता
(शारीरिक सौष्ठव आदिकी चिन्ता) नहीं रखते थे, कुछ
लोग स्नानपरायण एवं कुछ लोग सूर्य-किरणोंका ही
पान करते थे। कुछ लोग वृक्षके नीचे रहते थे, दूसरे
शिलारूपी शय्यापर ही सोते थे। इस प्रकार तपस्या
(विविधाके) द्वारा महेश्वकी पूजा करते हुए वे
(मुनिजन) समय व्यतीत कर रहे थे॥ ९६-९७॥
(मुनियोंको इस प्रकार पश्चात्तापपूर्वक तपस्यामें
निरत देखकर) उनकी व्याकुलता दूर करनेके लिये
शरणागतोंके दुःखहर्ता भगवान् वृषध्वज हरने उन्हें
प्रबोधित (मोहमुक्त) करनेका विचार किया। इसलिये
प्रसन्न परमेश्वर वे देव (शंकर) सत्ययुगमें हिमालयके
इस शुभ शिखरपर स्थित देवदारु-वनमें पुन: आये।
उनके सारे अड़ भस्मसे उपलिप्त होनेके कारण श्वेत
वर्णके थे, नग्न थे, विकृत लक्षणवाले थे, हाथमें उल्मुक
(जलती लकड़ी) लेकर उसे घुमा रहे थे और उनके
नेत्र लाल तथा पिंगलवर्णके थे॥९८--१००॥
कभी वे भयंकर रूपसे हँसते, कभी आरश्चर्ययुक्त
हो गान करने लगते, कभी श्रंगारपूर्वक नृत्य करने
लगते और कभी बार-बार रोने लगते। (इस स्थितिमें
भगवान्) महादेव आश्रममें आकर बार-बार भिक्षा
माँगने लगे। इस प्रकार अपना मायामय रूप बनाकर
वे देव (शंकर) उस (देवदारु) वनमें विचरने लगे
और उन पिनाकधारी देवने पर्वतपुत्री गौरीको अपने
पार्थभागमें कर लिया था। वे देवेशी पूर्वके समान ही
देवदारु-वनमें महादेवके साथ आयीं॥ १०१--१०३॥
देवीके साथ कपर्दी (शंकर) देवको आया देखकर
उन्होंने (मुनियोंने) भूमिमें सिर रखकर ईश्वरको प्रणाम
किया और स्तुति की। वे विविध वैदिक मन्त्रों, शुभ
माहेश्वर सूक्तों, अथर्वशिरस् तथा अन्य रुद्रसम्बन्धी
वेदमन्त्रोंसे शंकरकी स्तुति करने लगे--॥ १०४-१०५॥
* भोज्य अन्नकी स्वादिष्टताके प्रति अनासक्त होनेसे अन्नके परिष्कारके साधन उलूखल तथा सिलको उपयोगमें नहीं लाते
थे। (इनके उपयोगमें हिंसा भी होती है, इसलिये तपस्वी लोग विशेषरूपसे इनका वर्जन करते हैं।)
४५५
* अध्याय ३४७ +
नमो देवादिदेवाय महादेवाय ते नमः ।
त्यम्बकाय नमस्तुभ्यं त्रिशूलवरधारिणे॥ १०६ ॥
नमो दिग्वाससे तुभ्यं विकृताय पिनाकिने।
सर्वप्रणतदेहाय स्वयमप्रणतात्मने ॥ १०७ ॥
अन्तकान्तकृते तुभ्यं सर्वसंहरणाय च।
नमोस्तु नृत्यशीलाय नमो भैरवरूपिणे॥ १०८ ॥
नरनारीशरीराय योगिनां गुरवे नमः।
नमो दान्ताय शान्ताय तापसाय हराय च॥ १०९॥
विभीषणाय रुद्राय नमस्ते कृत्तिवाससे।
नमस्ते लेलिहानाय शितिकण्ठाय ते नम: ॥ ११० ॥
अघोरघोररूपाय वामदेवाय वे नमः।
नमः कनकमालाय ठेव्या: प्रियकराय च॥ १५१५१ ॥
गड़ासलिलधाराय शम्भवे परमेष्ठिने।
नमो योगाधिपतये ब्रह्माधिपतये नमः॥ ११२॥
प्राणाय च नमस्तुभ्यं नमो भस्माड्ररागिणे।
नमस्ते घनवाहाय देुंष्टिणे वह्वििरितसे॥ ११३॥
ब्रह्मणश्र शिरोहत्रे नमस्ते कालरूपिणे।
आगतिं ते न जानीमो गति नेव च नेव च।
विश्वेश्वर महादेव योडउसि सोउसि नमोस्तु ते॥ ११४ ॥
नमः प्रमथनाथाय दात्रे च शुभसम्पदाम्।
कपालपाणये तुभ्यं नमो मीदुष्टमाय ते।
नम: कनकलिड्डराय वारिलिड्राय ते नम: ॥ ११५ ॥
नमो वह्नयर्कलिड्राय ज्ञानलिड्राय ते नम: ।
नमो भुजंगहाराय कर्णिकारप्रियाय च।
किरीटिने कुण्डलिने कालकालाय ते नमः ॥ ११६ ॥
१-मेघ शंकरके वाहन हैं, इसलिये वे 'घनवाहन' हैं।
देवोंक आदिदेवको नमस्कार है। महादेव! आपको
नमस्कार है। श्रेष्ठ त्रिशूल धारण करनेवाले त््यम्बक!
आपको नमस्कार है। दिगम्बर, (स्वेच्छासे) विकृत
(रूप धारण करनेवाले) तथा पिनाकी आपको नमस्कार
है। समस्त प्रणतजनोंके आश्रय तथा स्वयं निराश्रय
(निरधिष्ठान देव)-को नमस्कार है। अन्त करनेवाले
(यम)-का भी अन्त करनेवाले और सबका संहार
करनेवाले आपको नमस्कार है। नृत्यपरायण और
भेरवरूप आपको नमस्कार है। नर-नारी शरीरवाले
(अर्धनारीश्वर) एवं योगियोंके गुरु आपको नमस्कार
है। दानत, शान्त, तापस (विरक्त) तथा हरको नमस्कार
है। अत्यन्त भीषण, चर्माम्बरधारी रुद्रको नमस्कार है।
लेलिहानको नमस्कार है, शितिकण्ठको नमस्कार है।
अघोर तथा घोर रूपवाले वामदेवको नमस्कार है।
धतूरेकी माला धारण करनेवाले और देवीके प्रियकर्ताको
नमस्कार है। गड़ाजलकी धाराको धारण करनेवाले
परमेष्ठी शम्भुको नमस्कार है। योगाधिपतिको नमस्कार
है तथा ब्रह्माधिपतिको नमस्कार है॥ १०६--११२॥
भस्मका अड़राग लगानेवाले प्राणरूप आपको बार-
बार नमस्कार है। घनवाह*! दंष्टी तथा वहिरेताको'
नमस्कार है। ब्रह्माके सिरका हरण करनेवाले कालरूपको
नमस्कार है। हम आपके न आगमनको जानते हैं और
न गमनको ही जानते हैं | विश्वेश्वर! महादेव! आप जिस
रूपमें हैं, उसी रूपमें आपको नमस्कार है। प्रमथनाथ
तथा शुभ सम्पदा देनेवालेको नमस्कार है। हाथमें कपाल*
धारण करनेवाले आपको तथा आप मीदुष्टम--शिवलिड्भ-
विग्रहको नमस्कार है। कनकलिड्ड और वारिलिड्"
आपको नमस्कार है। अग्नि तथा सूर्यस्वरूप लिड्भवालेको
नमस्कार है, ज्ञानलिड्र! आपको नमस्कार है। सर्पोंकी
मालावाले और कर्णिकारप्रिय' आपको नमस्कार है।
किरीटी, कुण्डल धारण करनेवाले तथा कालके भी
काल आपको नमस्कार है॥११३--११६॥
२-भगवान् शंकरके वीर्यसे स्वर्णकी उत्पत्ति हुई है और स्वर्ण वहिका ही एक रूप है, इसलिये भगवान् शंकरको “'बहिरेता ' कहते हैं।
३-ब्रह्मेके सिर-हरणकी कथा पिछले अध्यायमें आयी है।
४-वह्लि महादेवकी मूर्ति है और वहिका ही रूप कनक (स्वर्ण) है,
इसीलिये महादेवको 'कनकलिड्र” कहते हैं।
५-जल भी भगवान् महादेवकी मूर्ति है, इसलिये महादेवको वारि (जल)-की मूर्ति कहते हैं।
६-कर्णिकार पुष्पविशेषका नाम है।
है
वामदेव महेशान देवदेव त्रिलोचन।
क्षम्यतां यत्कृतं मोहात् त्वमेव शरणं हि न: ॥ ११७॥
चरितानि विचित्राणि गुह्मयानि गहनानि च।
ब्रह्मादीनां च सर्वेषां दुर्विज्ञेयोइसि शंकर॥ ११८ ॥
अज्ञानाद यदि वा ज्ञानाद् यत्किंचित् कुरुते नरः।
तत्सर्व॑ भगवानेव कुरुते योगमायया॥ ११९॥
एवं स्तुत्वा महादेवं प्रहष्टेनान्तरात्मना।
ऊचु: प्रणम्य गिरिशं पश्यामस्त्वां यथा पुरा॥ १२० ॥
तेषां संसस््तवमाकर्ण्य सोम: सोमविभूषण: ।
स्वमेव परम॑ रूपं दर्शयामास शंकर:॥ १२१॥
त॑ं ते दृष्टाथ गिरिशं देव्या सह पिनाकिनम्।
यथा पूर्व स्थिता विप्रा: प्रणेमुईष्टमानसा: ॥ १२२॥
ततस्ते मुनयः सर्वे संस्तूय च महेश्वरम्।
भग्वड्रिरोवसिष्ठास्तु विश्वामित्रस्तथेव च॥ १२३॥
गौतमोडत्रि: सुकेशश्व पुलस्त्य: पुलहः क्रतुः ।
मरीचिः: कश्यपश्चापि संवर्तश्च महातपा: ।
प्रणम्य देवदेवेशमिदं वचनमन्रुवन्॥ १२४॥
कथ्थ॑ त्वां देवदेवेश कर्मयोगेन वा प्रभो।
ज्ञानेन वाथ योगेन पूजयाम: सदैव हि॥ १२५॥
केन वा देवमार्गेण सम्पूज्यो भगवानिह।
किं सेव्यमसेव्यं वा सर्वमेतद् ब्रवीहि न: ॥ १२६॥
देवदेव उवाच
एतद् वः सम्प्रवक्ष्यामि गूढं गहनमुत्तमम्।
ब्रह्मणे कथितं पूर्वमादावेब महर्षय:॥ १२७॥
सांख्ययोगो द्विधा ज्ञेय: पुरुषाणां हि साधनम्।
योगेन सहित सांख्य॑ पुरुषाणां विमुक्तिदम्॥ १२८॥
न केवलेन योगेन दृश्यते पुरुष: परः।
ज्ञानं तु केवलं सम्यगपवर्गफलप्रदम्॥ १२९॥
भवन्तः केवलं योग समाश्रित्य विमुक्तये।
विहाय सांख्यं विमलमकुर्वन्त परिश्रमम्॥ १३०॥
एतस्मात् कारणात् विप्रा नृणां केवलधर्मिणाम्।
आगतो5हमिमं देशं ज्ञापपन् मोहसम्भवम्॥ १३१॥
न कूर्मपुराण मं
वामदेव ! त्रिलोचन! महेशान ! देवाधिदेव ! मोहवश
हमने जो किया, उसे आप क्षमा करें। हम सभी आपकी
शरणमें हैं। आपके चरित्र विचित्र, गहन तथा गुह्मा हैं।
शंकर! आप ब्रह्मा आदि सभीके लिये दुर्विज्ञेय हैं।
मनुष्य ज्ञान अथवा अज्ञानसे जो कुछ भी करता है,
वह सब आप भगवान् ही अपनी योगमायासे करते
हैं। इस प्रकार महादेवकी स्तुतिकर प्रसन्न-मनसे (मुनियोंने)
उनको प्रणाम किया और कहा--हम लोग आपको
पूर्वरूपमें देखना चाहते हैं॥१५१७--१२०॥
उनकी (मुनियोंकी इस) स्तुतिको सुनकर चन्द्रभूषण
सोम शंकरने अपने परम रूपका दर्शन (उन्हें) कराया।
उन पिनाकी गिरिशको देवी (पार्वती)-के साथ पहले-
जैसे (मड्गलमय) रूपमें स्थित देखकर प्रसन्न-मनवाले
ब्राह्मणोंने उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर भृगु, अंगिरा,
वसिष्ठ तथा विश्वामित्र, गौतम, अत्रि, सुकेश, पुलस्त्य,
पुलह, क्रतु, मरीचि, कश्यप तथा महातपस्वी संवर्त
आदि सभी ऋषियोंने महेश्वरकी स्तुतिकर उन देवदेवेशको
प्रणाम किया और इस प्रकार कहा--॥ १२१--१२४॥
देवदेवेश ! प्रभो! हम सब किस प्रकारसे आपकी
सदा पूजा करें, कर्मयोग या ज्ञानयोगसे ? किस देवमार्ग
(प्रशस्त मार्ग)-के द्वारा भगवान्की पूजा करनी चाहिये,
हम लोगोंके लिये क्या सेवनीय है, क्या असेवनीय
है, यह सब आप हमें बतलायें॥ १२५-१२६॥
देवदेवने कहा--महर्षियो |! मैं आप लोगोंको यह
उत्तम और गम्भीर रहस्य बतलाता हूँ। पूर्वकालमें
(मैंने) इसे ब्रह्माजीको बतलाया था॥१२७॥
पुरुषोंक लिये साधनस्वरूप दो प्रकारका सांख्ययोग
समझना चाहिये। योगसहित (कर्मयोगसहित अर्थात् अनासक्त-
भावसे कर्मनिष्ठाके साथ) सांख्य (ज्ञाननिष्ठा) पुरुषोंको
मुक्ति प्रदान करनेवाला है। केवल योगके द्वारा परम
पुरुषका दर्शन नहीं होता। (शुद्ध) ज्ञान (ज्ञाननिष्ठा)
भलीभाँति केवल मोक्षफलको देनेवाला है। आप लोग
मुक्ति प्रात्त करनेके लिये विमल सांख्यका परित्याग करके
केवल योगका ही अवलम्बनकर परिश्रम कर रहे थे।
ब्राह्मणो! इसी कारणसे केवल धर्म करनेवाले (कर्ममात्रनिष्ठ-
कर्मव्यसनी) मनुष्योंको मोह उत्पन्न होता है, यह
बतानेके लिये मैं इस स्थानपर आया हूँ॥ १२८--१३१॥
* अध्याय ३७ *
तस्माद भवद्धधिर्विमलं ज्ञानं कैवल्यसाधनम्।
ज्ञातव्यं हि प्रयत्नेन श्रोतव्यं दृश्यमेव च॥ १३२॥
एकः सर्वत्रगो ह्यात्मा केवलश्लितिमात्रकः ।
आनच्दो निर्मलो नित्य॑ं स्थादेतत् सांख्यदर्शनम्॥ १३३ ॥
एतदेव परं ज्ञानमेष मोक्षो5त्र गीयते।
एतत् कैवल्यममलं ब्रह्मभावश्च वर्णित:॥ १३४॥
आश्रित्य चैतत् परम ततन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
पश्यन्ति मां महात्मानो यतयो विश्वमी श्वरम्॥ १३५॥
एतत् तत् परम ज्ञानं केवलं सन्निरञ्जनम्।
अहं हि वेद्यो भगवान् मम मूर्तिरियं शिवा॥ १३६॥
बहूनि साधनानीह सिद्धये कथितानि तु।
तेषामभ्यधिकं ज्ञानं मामकं द्विजपुंगवा:॥ १३७॥
ज्ञानयोगरताः शान्ता मामेव शरणं गता: ।
ये हि मां भस्मनिरता ध्यायन्ति सततं हृदि॥ १३८ ॥
मद्धक्तिपरमा नित्यं यतयः क्षीणकल्मषा: |
नाशयाम्यचिरात् तेषां घोरें संसारसागरम्॥ १३९॥
प्रशान्तः संयतमना भस्मोद्धूलितविग्रह: ।
ब्रह्मचर्यरतो नग्नो ब्रतं पाशुपतं चरेत्॥ १४०॥
निर्मितं हि मया पूर्व त्रतं पाशुपतं परम्।
गुह्याद् गुह्मतमं सूक्ष्मं वेदसारं विमुक्तये॥ १४१॥
यद् वा कौपीनवसन: स्याद् वैकवसनो मुनि: ।
वेदाभ्यासरतो दिद्वान् ध्यायेत् पशुपतिं शिवम्॥ १४२॥
एष पाशुपतो योग: सेवनीयो मुमुक्षुभिः।
भस्मच्छन्नैहिं सततं निष्कामैरिति विश्रुति: ॥ १४३ ॥
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: ।
बहवो5नेन योगेन पूता मद्धावमागता:॥ १४४॥
ड५७छ
अत: आप लोगोंको मोक्षके साधनरूप विशुद्ध
ज्ञानको प्रयत्रपूर्वक जानना, सुनना तथा उसका साक्षात्कार
करना चाहिये॥ १३२॥
आत्मा सर्वत्र व्याप्त, विशुद्ध, चिन्मात्र, आनन्द,
निर्मल, नित्य तथा एक है। यही सांख्य (ज्ञाननिष्ठाका)
दर्शन है। यही परम ज्ञान है, इसीको यहाँ मोक्ष कहा
गया है। यही निर्मल मोक्ष है और यही शुद्ध ब्रह्मभाव
बताया गया है। इस परम (ज्ञान)-का आश्रय ग्रहणकर
उसमें ही निष्ठा रखते हुए और उसीके परायण रहते
हुए महात्मा तथा यतिजन मुझ विश्वरूप ईश्वरका दर्शन
करते हैं॥ १३३--१३५॥
यही वह सत्ू, निरञझ्नन तथा अद्वितीय परम ज्ञान
है। मुझे ही भगवान् जानना चाहिये और यह शिवा
मेरी ही मूर्ति है। श्रेष्ठ ब्राह्मणो! सिद्धिके लिये यहाँ
(शास्त्रोंमें) बहुतसे साधन बताये गये हैं, किंतु उनमें
मेरे विषयका ज्ञान सर्वश्रेष्ठ है॥१३६-१३७॥
भस्म धारण करनेवाले, (संसारकी नि:सारताको
हृदयसे समझनेवाले) ज्ञानयोगपरायण, शान्त और मेरे
ही शरणमें आये हुए जो लोग हृदयमें निरन्तर मेरा
ही ध्यान करते हैं और नित्य मेरी परम भक्तिमें
तत्पर हैं, कल्मषोंसे रहित एवं पूर्ण संयत हैं, उन
लोगोंके घोर संसाररूपी सागरको मैं शीघ्र ही नष्ट कर
देता हूँ॥ १३८-१३९॥
भस्मसे धूसरित शरीरवाला होकर संयतमन तथा
शान्त होकर, ब्रह्मचर्यत्रत-परायण होते हुए वस्त्रादि
परिधानकी आसक्तिसे रहित होकर पाशुपत-ब्रतका
पालन करना चाहिये। मुक्तिप्राप्तिके लिये मैंने पूर्वकालमें
गुह्ससे भी गुह्मतम, वेदके साररूप, सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ
पाशुपत-ब्रतका उपदेश किया था॥ १४०-१४१॥
अथवा कौपीन वस्त्र या एक वस्त्र धारणकर विद्वान्
मुनिको वेदाभ्यासमें रत रहते हुए पशुपति शिवका
(सतत) ध्यान करना चाहिये। मोक्षकी अभिलाषावाले
मुमुक्षुजनोंको सतत भस्मसे उपलिप्त रहकर निष्कामभावसे
इस पाशुपतयोगका सेवन करना चाहिये। ऐसा श्रुतिका
कथन है। राग, भय तथा क्रोधसे सर्वथा रहित, मुझे
ही सर्वस्व समझनेवाले और मेरा ही आश्रय ग्रहण
करनेवाले बहुतसे (भक्तजन) इस योगके द्वारा पवित्र
होकर मेरे भावको प्राप्त हुए हैं॥१४२--१४४॥
४५८
अन्यानि चैव शास्त्राणि लोके5स्मिन् मोहनानि तु।
वेदवादविरुद्धानि मयैव कथितानि तु॥ १४५॥
वाम॑ पाशुपतं सोम॑ लाकुलं चैव भेरवम्।
असेव्यमेतत् कथितं बेदबाहां तथेतरम्॥ १४६॥
वेदमूर्तिरहं विप्रा नान्यशास्त्रार्थवेदिभि: ।
ज्ञायते मत्स्वरूपं तु मुक्त्वा वेदं सनातनम्॥ १४७॥
स्थापयध्वमिदं मार्ग पूजयध्वं महेश्वरम्।
अचिरादैश्वरं ज्ञानमुत्पत्स्यति न संशय: ॥ १४८ ॥
मयि भक्तिश्च विपुला भवतामस्तु सत्तमा: ।
ध्यातमात्रो हि सांनिध्यं दास्यामि मुनिसत्तमा: ॥ १४९॥
इत्युक्त्वा भगवान् सोमस्तत्रेवान्तरधीयत |
ते5पि दारुवने तस्मिन् पूजयन्ति सम शंकरम् ।
ब्रह्मचर्यरता: शान्ता ज्ञानयोगपरायणा: ॥ १५७० ॥
समेत्य ते महात्मानो मुनयो ब्रह्मवादिन:।
वितेनिरे बहून् वादानध्यात्मज्ञानसंश्रयान्॥ १५१॥
किमस्य जगतो मूलमात्मा चास्माकमेव हि।
को5पि स्यात् सर्वभावानां हेतुरीश्वर एव च॥ १५२ ॥
इत्येवं मन्यमानानां ध्यानमार्गावलम्बिनाम् |
आविरासीन्महादेवी देवी गिरिवरात्मजा॥ १५७५३॥
कोटिसूर्यप्रतीकाशा ज्वालामालासमावृता।
स्वभाभिविमलाभिस्तु पूरयन्ती नभस्तलम्॥ १५४॥
तामन्वपश्यन् गिरिजाममेयां
ज्वालासहस्त्रान्तरसंनिविष्टामू_।
प्रणेमुरंकामखिलेशपत्ली
जानन्ति ते तत् परमस्य बीजम्॥ १५५॥
* कूर्मपुराण *
इस संसारमें मोहित करनेवाले तथा वेदमतका
विरोध करनेवाले अन्य भी शास्त्र हैं, वे मेरे द्वारा ही
कहे गये हैं। वाम (मार्ग), पाशुपत, सोम, लाकुल
तथा भेरव (मार्ग) तथा अन्य--ये असेव्य और वेदबाह्म
कहे गये हैं॥ १४५-१४६॥
ब्राह्मणो ! मैं वेदमूर्ति हूँ । सनातन वेदका परित्यागकर
दूसरे शास्त्रको जाननेवाले लोग मेरे स्वरूपको नहीं जान
सकते। (अत: आप लोग) इस मार्गकी स्थापना करें,
महे श्वरकी पूजा करें (इससे) शीघ्र ही आप लोगोंको
ईश्वर-सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त होगा, इसमें संशय नहीं है।
श्रेष्ठ जनो! आप सभीकी मुझमें महान् भक्ति हो। श्रेष्ठ
मुनियो! ध्यान करनेमात्रसे में आपको अपना सांनिध्य
प्रदान करूँगा॥ १४७--१४९ ॥
इतना कहकर भगवान् सोम (शंकर) वहींपर
अन्तर्धान हो गये। वे शान्त महर्षि भी ब्रह्मचर्यपरायण
होकर, ज्ञानयोग-परायण रहते हुए उस दारुवनमें
शंकरकी पूजा करने लगे। उन ब्रह्मवादी महात्मा
मुनिगणोंने (स्वयं मोहरहित हो जानेके कारण) एकत्रित
होकर अध्यात्मज्ञान-सम्बन्धी बहुतसे सिद्धान्तोंका विस्तार
किया॥ १५०-१५१ ॥
इस जगतूका मूल (कारण) क्या है? (उत्तर--)
हमारी आत्मा ही इस जगत्का मूल है। सभी भाव
पदार्थोका हेतु कौन है? (उत्तर--) ईश्वर ही सभी
भावोंका जनक है। इस प्रकारकी दृढ़ धारणाके साथ
ध्यानमार्गकका अवलम्बन करनेवाले उन महर्षियोंके
समक्ष श्रेष्ठ पर्वत (हिमालय)-की पुत्री महादेवी पार्वती
प्रकट हुईं॥ १५२-१५३॥
करोड़ों सूर्यके समान, ज्वालामालाओं (तेजो-
राशि)-से समावृत वे अपनी विमल प्रभासे
आकाशमण्डलको आपूरित कर रही थीं। हजारों ज्वालाओं
(तेजोमण्डल)-के मध्यमें प्रतिष्ठित, अतुलनीय, अद्ठितीय,
सम्पूर्ण जगत्के ईश (शंकर)-कीौ पत्नी, उन गिरिजाका
दर्शनकर मुनियोंने उन्हें प्रणाम किया। क्योंकि वे जानते
हैं कि ये ही परमेश्वरी परमेश्वर महेश्वरकी मूलशक्ति
(बीज) हैं॥ १५४-१५५॥
* अध्याय ३४७ *
अस्माकमेषा परमेशपत्नी
गतिस्तथात्मा गगनाभिधाना।
पश्यन्त्यथात्मानमिदं च कृत्स्नं
तस्यामथेते मुनयश्च॒ विप्रा:॥ १५६॥
निरीक्षितास्ते परमेशपत्न्या
तदन्न्तरे देवमशेषहेतुम् ।
पश्यन्ति शम्भुं कविमीशितारं
रुद्र बहन्तं पुरुषं पुराणम्॥ १५७॥
आलोक्य देवीमथ देवमीशं
प्रणेमुरानन्दमवापुर ग्रथम् ।
ज्ञानं तदेशं भगवत्प्रसादा-
दाविर्बईभी जन्मविनाशहेतु॥ १५८ ॥
इयं हि सा जगतो योनिरेका
सर्वात्मिका सर्वनियामिका च।
माहे श्वरीशक्तिरनादिसिद्धा
व्योमाभिधाना दिवि राजतीव॥ १५९॥
अस्यां महत्परमेष्ठी परस्ता-
न्महेश्वरर शिव एको5थ रुद्रः।
चकार विश्वं परशत्तिनिष्टां
मायामथारुह्या स॒ देवदेव:॥ १६०॥
एको देवः सर्वभूतेषु गूढो
मायी रुद्रः सकलो निष्कलश्च।
स एवं देवी न च तद्विभिन्न-
मेतज्ज्ञात्वा हामृतत्व॑ ब्रजन्ति॥ १६१॥
अन्तहितो5भूद भगवानथेशो
देव्या भर्गः सह देवादिदेव:।
आराधयन्ति सम तमेव देवं
वनौकसस्ते पुनरेव रुद्रम॥ १६२॥
४५९
अनन्तर उन लोगोंने ऐसी भावना की--ये ही
परमेश-पत्नी हम सबकी गति हैं, आत्मा हैं, इन्हें गगन
(आकाश) नामसे कहा जाता है, (क्योंकि ये महादेवी
वस्तुगत्या निराकार तथा परम व्यापक हैं, अतएव परम
अवकाशस्वरूप सर्वाधिष्ठान होनेसे कथंचित् आकाशके
द्वारा तुलनीय हैं और परब्रह्मका व्योम (आकाश) नाम
है ही तथा इन महादेवी एवं परब्रह्ममें सर्वधा अभेद
है।) समस्त मुनि एवं समस्त विप्र इन्हींमें अपनेको
तथा समस्त प्रपञ्को देखते हैं। (मुनियोंके इस पवित्र
भावसे संतुष्ट होकर) परमेश्वरकी पत्नी (पार्वती)-ने
उन्हें (विशेषरूपसे) देखा। इसी बीच (मुनियोंने)
सभीके मूल कारण, नियामक, पुराण पुरुष, बृहत् एवं
रुद्रात्मक कवि, देव शम्भु (महादेव)-का दर्शन किया।
तदनन्तर देवी (पार्वती) तथा देव (शंकर)-को देखकर
उन्होंने (मुनियोंने) प्रणाम किया, उत्तम आनन्द प्राप्त
किया और उनमें भगवान् (परमेश)-की कृपासे जन्मके
विनाशके हेतुरूप अर्थात् पुनर्जन्म न करानेवाले ईश्वर-
सम्बन्धी ज्ञानका आविर्भाव हुआ॥ १५६-१५८ ॥
(इस ज्ञानके आविर्भावके साथ ही मुनियोंने यह
अनुभव किया) ये ही देवी जगत्की एकमात्र मूल
कारण, सर्वात्मिका, सबका नियन्त्रण करनेवाली तथा
अनादिसिद्ध व्योम नामवाली माहेश्वरी शक्ति हैं, जो चुलोकमें
शोभित होती हुई प्रतीत हो रही हैं। देवाधिदेव महान्
परमेष्ठी, परसे भी पर, अद्वितीय रुद्र महेश्वर शिवने इसी
परम शक्ति (महादेवी)-में अंशरूपसे विद्यमान मायाका
आश्रय ग्रहणकर विश्वकी सृष्टि कौ॥ १५९-१६० ॥
ये देव ही सभी प्राणियोंमें गूढरूपसे प्रतिष्ठित हैं
अर्थात् सर्वत्र सूक्ष्मूरूपसे व्याप्त हैं। वे मायी (मायाके
नियन्ता) रुद्र सकल (साकार) तथा निष्कल (निराकार)
हैं। वे ही देवी (रूप) हैं, उनसे भिन्न (जगत्में और
कुछ भी) नहीं है, ऐसा जानकर अमृतत्वकी प्रासि
होती है। इधर भर्ग (वरेण्य तेजोरूप), देवाधिदेव,
भगवान् परमेश मुनियोंके मोहको दूरकर तथा उन्हें
परमज्ञानसे सम्पन्न कर महादेवीके साथ अन्तरहिंत हो
गये और एकमात्र अरण्यको ही अपना घर माननेवाले
वे परम ज्ञानी मुनि लोग उन परम देव रुद्रकी
आराधनामें दत्तचित्त हो गये॥ १६१-१६२॥
'४डद६्०
एतद् वः कथितं सर्व देवदेवविचेष्टितम्।
हे कूर्मपुराण ः
इस तरह प्राचीन कालमें देवदारु-वनमें घटित
देवदारुवने पूर्व पुराणे यन्मया श्रुतम्॥१६३॥ | देवाधिदेवका जो वृत्तान्त मैंने पुराणमें सुना था, वह
यः पठेच्छुणुयान्नित्यं मुच्यते सर्वपातकै: ।
आप लोगोंको बता दिया। जो नित्य इसका पाठ करेगा
अथवा श्रवण करेगा, वह सभी पातकोंसे मुक्त हो
जायगा अथवा जो शान्त द्विजोंको इसे सुनायेगा, वह
श्रावयेद् वा द्विजान् शान्तान् स याति परमां गतिमू॥। १६४ ॥ | परम गतिको प्राप्त होगा॥ १६३-१६४॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्रधां संहितायामुपरिविभागे सप्तत्रिशोउध्याय: ॥ ३७॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें सैंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३७॥
अड़तीसवाँ अध्याय
तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें मार्कण्डेय-युधिष्टिर-संवादका प्रारम्भ, मार्कण्डेयजीद्वारा
नर्मदा तथा अमरकण्टकतीर्थंके माहात्म्यका प्रतिपादन
सूत उवाच
एषा पुण्यतमा देवी देवगन्धर्वसेविता।
नर्मदा लोकविख्याता तीर्थानामुत्तमा नदी॥ १॥
तस्याः श्रुणुध्व॑ माहात्म्यं मार्कण्डेयेन भाषितम्
युधिष्ठिराय तु शुभं सर्वपापप्रणाशनम्॥ २॥
युधिष्ठिर उवाच
श्रुतास्तु विविधा धर्मास्त्वत्प्रसादान्महामुने ।
माहात्म्यं च प्रयागस्य तीर्थानि विविधानि च॥ ३॥
नर्मदा सर्वतीर्थानां मुख्या हि भवतेरिता।
तस्यास्त्विदानीं माहात्म्यं वकतुमहसि सत्तम | ४॥
मार्कण्डेय उवाच
नर्मदा सरितां श्रेष्ठा रुद्रदेहाद् विनि:सृता।
तारयेत् सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च॥ ५॥
नर्मदायास्तु माहात्म्यं पुराणे यन्मया श्रुतम्।
इदानीं तत् प्रवक्ष्यामि श्रुणुष्वैकमना: शुभम्॥ ६॥
पुण्या कनखले गड् कुरुक्षेत्रे सरस्वती।
ग्रामे वा यदि वारण्ये पुण्या सर्वत्र नर्मदा॥ ७॥
त्रिभि: सारस्वतं तोयं सप्ताहेन तु यामुनम्।
सद्यः पुनाति गाड़ेयं दर्शनादेव नार्मदम्॥ ८॥
सूतजीने कहा--देवताओं तथा गन्धर्वोद्वारा सेवित
ये अत्यन्त पवित्र नर्मदादेवी संसारमें प्रसिद्ध हैं तथा
नदीरूपमें सभी तीर्थोमें उत्तम तीर्थ हैं। इनका वह शुभ
माहात्म्य आप लोग सुनें, जो महर्षि मार्कण्डेयद्वारा
युधिष्ठिरको बताया गया है तथा सभी पापोंका नाशक
होनेके कारण शुभ है॥१-२॥
युथिष्ठिर बोले--महामुने! आपकी कृपासे मैंने
विविध धर्मोको सुना, साथ ही प्रयागका माहात्म्य
और विविध तीर्थोंका भी (माहात्म्य) श्रवण किया।
आपने बतलाया कि सभी तीथ्थोमें नर्मदा मुख्य हैं, अतः
हे सत्तम! इस समय आप उन्हींका माहात्म्य मुझे
बतलायें ॥ ३-४ ॥
मार्कण्डेयने कहा--रुद्रकी देहसे निकली हुई नर्मदा
सभी नदियोंमें श्रेष्ठ हैं। (वे) सभी चर-अचर प्राणियोंको
पार उतारनेवाली हैं। पुराणमें नर्मदाका जो माहात्म्य
मैंने सुना है, उसे अब बतलाता हूँ, आप लोग एकाग्र
होकर सुनें--॥ ५-६॥
गड्डा कनखलमें तथा सरस्वती कुरुक्षेत्रमें पवित्र
(कही गयी) हैं, किंतु ग्राम अथवा अरण्यमें सर्वत्र ही
नर्मदाको पवित्र कहा गया है। सरस्वतीका जल तीन
दिनोंतक, यमुनाका जल सात दिनोंतक तथा गड्भाजल
तत्काल स्नान-पानसे पवित्र करता है, किंतु नर्मदाका
जल तो दर्शनमात्रसे ही पवित्र कर देता है॥७-८॥
* अध्याय ३८ *
कलिड्डदेशपश्चार्थध॑ पर्वतेडमरकण्टके ।
पुण्या च त्रिषु लोकेषु रमणीया मनोरमा॥ ९ ॥
सदेवसुरगन्धर्वा ऋषयश्च॒ तपोधना:।
तपस्तप्त्वा तु राजेन्द्र सिद्धि तु परमां गता:॥ १०॥
तत्र स्नात्वा नरो राजन् नियमस्थो जितेन्द्रिय: ।
उपोष्य रजनीमेकां कुलानां तारयेच्छतम्॥ ११॥
योजनानां शतं साग्र॑ श्रूयते सरिदुत्तमा।
विस्तारेण तु राजेन्द्र योजनद्बयमायता॥ १२॥
षष्टितीर्थसहस्राणि षष्टिकोट्यस्तथेव च।
पर्वतस्य समन्तात् तु तिष्ठन्त्यमरकण्टके ॥ १३॥
ब्रह्मचारी शुचिर्भूत्वा जितक्रोधो जितेन्द्रिय: ।
सर्वहिंसानिवृत्तस्तु सर्वभूतहिते रतः:॥ १४॥
एवं सर्वसमाचारो यस्तु प्राणान् समुत्सूजेत्।
तस्य पुण्यफलं राजन् श्रृणुष्वावहितो नृप॥ १५॥
शतवर्षसहस्त्राणि स्वर्गे मोदति पाण्डव।
अप्सरोगणसंकीर्णो दिव्यस्त्रीपरिवारित: ॥ १६॥
दिव्यगन्धानुलिप्तश्व दिव्यपुष्पोपशोभित: ।
क्रीडते देवलोके तु दैवतैे: सह मोदते॥ १७॥
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टो राजा भवति धार्मिक: ।
गृहं॑ तु लभतेडसौ वे नानारत्नससमन्वितम्॥ १८ ॥
स्तम्भेम॑णिमर्ये्दिव्यैर्वज्वैदूर्यभूषितम् ।
आलेख्यवाहनै: शुश्नेर्दासीदाससमन्वितम्॥ १९॥
राजराजेश्वर: श्रीमान् सर्वस्त्रीजनवल्लभ: |
जीवेद् वर्षशतं साग्रं तत्र भोगसमन्वितः॥ २०॥
अग्निप्रवेशेष्थ जले अथवा5नशने कृते।
अनिवर्तिका गतिस्तस्य पवनस्याम्बरे यथा॥ २१॥
४६१९
कलिंग देशके पश्चार्धमें अमरकण्टक पर्वतपर तीनों
लोकोंमें पवित्र, रमणीय, मनोरम नर्मदाका उद्गम स्थल
है। राजेन्द्र ! वहाँ देवताओंसहित असुरों, गन्धर्वों, ऋषियों
तथा तपस्वियोंने तपस्या कर परम सिद्धि प्राप्त की है।
राजन! मनुष्य वहाँ (नर्मदामें) स्नान करके जितेन्द्रिय
तथा नियम-परायण रहते हुए एक रात्रि उपवास करे
तो अपने सौ पीढ़ियोंको तार देता है॥९--११॥
राजेन्द्र ! सुना जाता है कि वह श्रेष्ठ नदी सौ योजनसे
कुछ अधिक लम्बी तथा दो योजन चोौड़े विस्तारमें
फैली है। अमरकण्टक पर्वतमें चारों ओर साठ करोड़
साठ हजार तीर्थ स्थित हैं। राजन्! जो ब्रह्मचर्यपरायण
है, पवित्र है, क्रोध तथा इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त किया
है, सभी प्रकारकी हिंसाओंसे सर्वथा निवृत्त है, सभी
प्राणियोंक हितमें परायण है तथा ऐसे ही सभी पवित्र
आचारोंसे सम्पन्न है, वह मनुष्य यहाँ प्राणोंका परित्यागकर
जिस पुण्य फलको प्राप्त करता है, उसे आप सावधान
होकर सुनें--॥ १२--१५॥
पाण्डव! वह पुरुष अप्सराओंके समूहोंसे व्याप्त
अर्थात् सेवित तथा चारों ओर दिव्य स्त्रियोंसे आवृत
रहकर स्वर्गमें सौ हजार वर्षोतक आनन्द प्राप्त करता
है। दिव्य गन्ध (चन्दन)-से अनुलिप्त होकर तथा दिव्य
पुष्पोंसे सुशोभित होकर देवलोकमें क्रीडा करता है
और देवताओंके साथ आनन्द प्राप्त करता है। स्वर्गमें
सुख भोगने योग्य पुण्योंके नि:शेष होनेपर वह धार्मिक
राजा होता है और नाना प्रकारके रत्रोंसे समन्वित दिव्य
मणिमय स्तम्भों, हीरे एवं वैदूर्यमणिसे विभूषित, उत्तम
चित्रों तथा वाहनोंसे अलंकृत और दासी-दाससे समन्वित
भवन प्राप्त करता है। वह राजराजेश्वर श्रीसम्पन्न, सभी
स्त्रियोंका प्रियकर तथा भोगोंसे युक्त होकर वहाँ
(पृथ्वीपर) सौ वर्षसे भी अधिक समयतक जीवित
रहता है॥ १६--२० ॥
(इस तीर्थमें) अग्नि अथवा जलमें प्रवेश करने
अथवा अनशन-ब्रत करनेसे वैसी ही पुनरागमनरहित
गति होती है, जैसी कि आकाशमें पवनकी होती है
(इसका आशय यह है कि शास्त्रविहित तपके रूपमें
अग्निप्रवेश आदि तप इस तीर्थमें अक्षय पुण्य देनेवाले
होते हैं)॥ २१॥
'ड८६२
पश्चिमे पर्वततटे सर्वपापविनाशनः |
* कूर्मपुराण *
(अमरकण्टक) पर्वतके पश्चिमी किनारेपर सभी
हृदो जलेश्वरो नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुतः:॥ २२॥
तत्रपिण्डप्रदानेन संध्योपासनकर्मणा।
दशवर्षाणि पितरस्तर्पिता: स्युर्न संशय: ॥ २३॥
दक्षिणे नर्मदाकूले कपिलाख्या महानदी।
सरलार्जुनसंच्छन्ना नातिदूरे व्यवस्थिता॥ २४॥
सातु पुण्या महाभागा त्रिषु लोकेषु विश्रुता |
तत्र कोटिशतं साग्रं तीर्थानां तु युधिष्ठिर॥ २५॥
तस्मिस्तीर्थे तु ये वृक्षा: पतिता: कालपर्ययात्
नर्मदातोयसंस्पृष्टास्ते यान्ति परमां गतिम्॥ २६॥
द्वितीया तु महाभागा विशल्यकरणी शुभा।
तत्र तीर्थ नरः स्नात्वा विशल्यो भवति क्षणात्॥ २७॥
कपिला च विशल्या च श्रूयते राजसत्तम।
ई श्वरेण पुरा प्रोक्ता लोकानां हितकाम्यया॥ २८ ॥
अनाशकं तु यः कुर्यात् तस्मिस्तीर्थे नराधिप ।
सर्वपापविशुद्धात्मा रुद्लोक॑ स गच्छति॥ २९॥
तत्र स्नात्वा नरो राजन्नश्रमेधफलं लभेत्।
ये वसन्त्युत्ते कूले रुद्रलोके वसन्ति ते॥ ३०॥
सरस्वत्यां च गड्रायां नर्मदायां युधिष्टिर।
सम॑ स्नान च दानं च यथा मे शंकरोउब्रवीत्॥ ३१॥
परित्यजति यः प्राणान् पर्वतेडमरकण्टके |
वर्षकोटिशतं साग्र॑ रुद्रलोके महीयते॥ ३२॥
नर्मदायां जलं पुण्यं फेनोमिसमलंकृतम्।
पवित्र॑ शिरसावन्द्य सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ ३३॥
नर्मदा सर्वतः पुण्या ब्रह्महत्यापहारिणी।
अहोरात्रोपवासेन मुच्यते ब्रह्महत्यया॥ ३४॥
जालेश्वरं तीर्थवरं॑ सर्वपापविनाशनम्।
तत्र गत्वा नियमवान् सर्वकामॉल्लभननर: ॥ ३५॥
चन्द्रसू्योपरागे तु गत्वा ह्ममरकण्टकम्।
अश्वमेधाद दशगुणं पुण्यमाप्नोति मानव: ॥ ३६॥
पापोंका नाश करनेवाला और तीनों लोकोंमें विख्यात
जलेश्वर नामका एक हद (तालाब) है। वहाँ पिण्डदान
करने तथा संध्योपासन कर्म करनेसे दस (हजार) वर्षतक
पितर तृप्त रहते हैं, इसमें संदेह नहीं॥२२-२३॥
नर्मदाके दक्षिण तटके समीपमें ही कपिला नामवाली
महानदी स्थित है, जो साल तथा अर्जुनके वृक्षोंसे घिरी
हुई है। वह महाभागा (नदी) पवित्र तथा तीनों लोकोंमें
विख्यात है। युधिष्ठिर! वहाँ सौ करोड़्से भी अधिक
तीर्थ हैं। कालक्रमसे जो वृक्ष उस तीर्थमें गिरते हैं, वे
नर्मदाके जलका स्पर्श प्रात हो जानेके कारण परम
गतिको प्राप्त होते हैं। दूसरी महाभागा शुभ नदी विशल्यकरणी
है, उस तीर्थमें स्नानकर मनुष्य तत्क्षण ही शल्यसे
(सभी प्रकारके पापरूपी काँटोंसे) रहित हो जाता है।
राजश्रेष्ठ ! यह आप्त श्रुति है कि ईश्वरने इन कपिला तथा
विशल्या नामकी दोनों नदियोंको प्राणिमात्रके कल्याण
करनेका आदेश पहलेसे ही दे रखा है। नराधिपति!
उस तीर्थमें जो (शास्त्रीय विधिसे) अनशनब्रत करता
है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर रुद्रलोकमें जाता है।
राजन! वहाँ स्नानकर मनुष्य अश्वमेधका फल प्राप्त करता
है और जो लोग उत्तरी तटपर निवास करते हैं, वे
रुद्रलोकमें निवास करते हैं॥ २४--३० ॥
युधिष्ठिर! शंकरने मुझे जैसा बतलाया था, उसके
अनुसार गड़ा, सरस्वती एवं नर्मदामें किया गया स्रान
और दान समान फलदायक होता है। जो अमरकण्टक
पर्वतपर प्राणोंका परित्याग करता है, वह सौ करोड़
वर्षोसे भी अधिक समयतक रुद्रलोकमें पूजित होता
है। फेन और उर्मियों (तरड्रों)>से अलंकृत नर्मदाके
पवित्र जलको पवित्रतापूर्वक सिरसे वन्दित करनेपर
अर्थात् सिरपर धारण करनेसे मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त
हो जाता है। नर्मदा सभी प्रकारसे पवित्र और ब्रह्महत्याको
दूर करनेवाली है। वहाँ एक अहोरात्र उपवास करनेसे
ब्रह्महत्या (-के पाप)-से मुक्ति हो जाती है। जालेश्वर
नामका श्रेष्ठ तीर्थ सभी पापोंको नष्ट करनेवाला है।
वहाँ जाकर नियमसे रहनेवाला मनुष्य सभी कामनाओंको
प्राप्त कर लेता है। चन्द्र तथा सूर्यग्रहणमें अमरकण्टककी
यात्रा करनेसे मनुष्य अश्वमेध-यज्ञसे दस गुना अधिक
पुण्य प्राप्त करता है॥३१--३६॥
* अध्याय ३९ *
एष पुण्यो गिरिवरो देवगन्धर्वसेवित:।
४६२९
यह पुण्यप्रद श्रेष्ठ पर्वत (अमरकण्टक) देवताओं
नानादुमलताकीर्णों नानापुष्पोपशोभितः॥ ३७॥ | तथा गन्धर्वोद्दार सेवित, नाना प्रकारके वृक्षों और
तत्र संनिहितो राजन् देव्या सह महेश्वर: |
ब्रह्मा विष्णुस्तथा चेन्द्रो विद्याधरगणै: सह ॥ ३८ ॥
प्रदक्षिणं तु यः कुर्यात् पर्वत ह्ममरकण्टकम् |
पौण्डरीकस्य यज्ञस्य फल प्राप्पोति मानव: ॥ ३९॥
कावेरी नाम विपुला नदी कल्मषनाशिनी।
तत्र स्नात्वा महादेवमर्चयेद् वृषभध्वजम्।
लताओंसे परिपूर्ण एवं विविध प्रकारके पुष्पोंसे सुशोभित
है। राजन्! यहाँ देवी (पार्वती)-के साथ महेश्वर और
विद्याधरगणोंके साथ ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र भी स्थित
रहते हैं। जो मानव अमरकण्टक पर्वतकी परिक्रमा
करता है, वह पौण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त करता है।
ऐसे ही कावेरी नामकी एक प्रसिद्ध नदी है। यह
विशाल है तथा कल्मषोंका नाश करनेवाली है। उसमें
सस््नानकर तथा नर्मदाके संगममें स्नान करके वृषभध्वज
महादेवकी आराधना करनेसे रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त
संगमे नर्मदायास्तु रुद्रलोके महीयते॥ ४०॥ | होती है॥३७--४०॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्रधां संहितायामुपरिविभागे अट्वात्रिंशोउडध्याय: ॥ ३८ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें अड़तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३८ ॥
उनतालीसवाँ अध्याय
तीर्थमाहात्म्य-वर्णनके प्रसंगमें नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोका विस्तारसे वर्णन
मार्कण्डेय उवाच
नर्मदा सरितां श्रेष्ठा सर्वपापविनाशिनी।
मुनिश्िि: कथिता पूर्वमीश्रेण स्वयम्भुवा॥ १॥
मुनिभि: संस्तुता होषा नर्मदा प्रवरा नदी।
रुद्रगात्राद् विनिष्क्रान्ता लोकानां हितकाम्यया॥ २॥
सर्वपापहरा नित्यं सर्वदेवनमस्कृता।
संस्तुता देवगन्धर्वैरप्सोभिस्तथेव च॥ ३॥
उत्तरे चैब तत्कूले तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम्।
नाम्ना भद्गेश्वर पुण्यं सर्वपापहरं शुभम्।
तत्र स्नात्वा नरो राजन देवते: सह मोदते॥ ४॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थमाम्रातके श्वरम्।
तन्र स्तात्वा नरो राजन् गोसहसत्रफलं लभेत्॥ ५॥
ततो5ज्ारेश्वर॑ गच्छेन्नियतो नियताशनः।
सर्वपापविशुद्धात्मा रुद्रलोके महीयते॥ ६॥
मार्कण्डेयने कहा--मुनियोंने तथा उनसे पूर्व
स्वयम्भू ईश्वरने नर्मदाका वर्णन सभी पापोंका नाश करनेवाली
सर्वश्रेष्ठ नदीके रूपमें किया है। मुनियोंद्वारा स्तुति करनेपर
यह श्रेष्ठ नर्मदा नदी लोगोंके कल्याणकी कामनासे रुद्रके
शरीरसे निकली है। यह नित्य सभी पापोंको हरनेवाली
है, सभी देवोंद्वारा नमस्कृत है और देवताओं, गन्धवों
तथा अप्सराओंके द्वारा स्तुत्य है॥ १--३॥
इस (नर्मदा) नदीके उत्तरी किनारेपर तीनों लोकोंमें
विख्यात भद्रेश्वरनामका तीर्थ है, जो पवित्र, शुभ तथा
सभी पापोंका हरण करनेवाला है। राजन्! वहाँ स्नान
करके मनुष्य देवताओंके साथ आनन्दित होता है।
राजेन्द्र! वहाँसे आम्रातकेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये।
राजन! वहाँ स्नान करके मनुष्य हजार गौओंके दानका
फल प्राप्त करता है॥४-५॥
तदनन्तर संयमपूर्वक नियत आहार करते हुए
अड्जरेश्वर तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। इससे (तीर्थ-
विधि सम्पन्न करनेसे) सभी पापोंका शोधन होता है
और रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्रात्त होती है॥६॥
४ड८द ४
ततो गच्छेत राजेन्द्र केदारं नाम पुण्यदम्।
तत्र स्नात्वोदक॑ कृत्वा सर्वान् कामानवाप्नुयात्॥ ७ ॥
पिप्पलेशं ततो गच्छेत् सर्वपापविनाशनम्।
तत्र सस््नात्वा महाराज रुद्रलोके महीयते॥ ८ ॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र विमलेश्वरमुत्तमम्।
तत्र प्राणान् परित्यज्य रुद्रलोकमवाप्नुयात्॥ ९ ॥
ततः पुष्करिणीं गच्छेत् स्नान तत्र समाचरेत्।
स्नातमात्रो नरस्तत्र इन्द्रस्यार्धासनं लभेत्॥ १०॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र शूलभेदमिति श्रुतम्।
तत्र स्नात्वार्चयेद देवं गोसहसत्रफलं लभेत्॥ ११॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र बलितीर्थमनुत्तमम्।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् सिंहासनपतिर्भवेत्॥ १२॥
शक्रतीर्थ ततो गच्छेत् कूले चैव तु दक्षिणे।
उपोष्य रजनीमेकां स्नान कृत्वा यथाविधि॥ १३॥
आराधयेन्महायोगं देव॑ नारायणं हरिम्।
गोसहस्त्रफलं प्राप्प विष्णुलोक॑ स गच्छति॥ १४॥
ऋषितीर्थ ततो गत्वा सर्वपापहरं नृणाम्।
स्नातमात्रो नरस्तत्र शिवलोके महीयते॥ १५॥
नारदस्य तु तत्रैव तीर्थ परमशोभनम्।|।
स्नातमात्रो नरस्तत्र गोसहसत्रफल लभेतू्॥ १६॥
यत्र तप्तं तपः पूर्व नारदेन सुरघिणा।
प्रीतस्तस्य ददौ योग देवदेवो महेश्वरः॥ १७॥
ब्रह्मणा निर्मितं लिड़्ं ब्रह्मे श्वरमिति श्रुतम्।
यत्र स्नात्वा नरो राजन् ब्रहालोके महीयते॥ १८ ॥
ऋणताीर्थ ततो गच्छेत् स ऋणान्मुच्यते धुवम्।
महेश्वरं ततो गच्छेत् पर्याप्त जन्मन: फलम्॥ १९॥
हि कूर्मपुराण रू
राजेन्द्र! इसके बाद पुण्य प्रदान करनेवाले केदार
नामक तीर्थमें जाना चाहिये, वहाँ स्नान करके उदकदान
(तर्पण आदि क्रिया) करनेसे सभी कामनाओंकी प्राप्ति
होती है। तदनन्तर सभी पापोंका विनाश करनेवाले
पिप्पलेश (तीर्थ)-में जाना चाहिये। महाराज! वहाँ
स्नान करनेसे रुद्रलोकमें आदर प्राप्त होता है। राजेन्द्र !
तदनन्तर श्रेष्ठ विमलेश्वर (तीर्थ)-में जाना चाहिये। वहाँ
प्राणोंका परित्याग करनेसे रुद्रलोक प्राप्त होता है। इसके
बाद पुष्करिणीमें जाकर वहाँ स्नान करना चाहिये। वहाँ
स्नानमात्र करनेसे मनुष्य इन्द्रका आधा आसन प्राप्त
करता है॥७--१५०॥
राजेन्द्र! ऐसी श्रुति है कि वहाँसे शूलभेद नामके
तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ स्नान करके देवाराधना करनी
चाहिये। इससे हजार गौओंके दानका फल प्राप्त होता
है। राजेन्द्र! तदनन्तर परम उत्तम बलितीर्थमें जाना
चाहिये। राजन्! वहाँ स्नान करके मनुष्य सिंहासनाधिपति
अर्थात् राजा होता है। इसके उपरान्त (बलितीर्थके)
दक्षिणी किनारेपर स्थित शक्रतीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ
एक रात्रि उपवास करके यथाविधि स्नान करना चाहिये
तथा महायोगस्वरूप नारायण हरिकी आराधना करनी
चाहिये। इनसे हजार गौओंके दानका फल प्राप्तकर
मनुष्य विष्णुलोकमें जाता है॥ ११--१४॥
तदनन्तर मनुष्योंके समस्त पापोंको हरनेवाले ऋषितीर्थमें
जाकर वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य शिवलोकमें पूजित
होता है। वहींपर नारदजीका परम शोभन तीर्थ है।
वहाँ स्नानमात्र करके मनुष्य हजार गोदानका फल
प्राप्त करता है। पूर्वकालमें इसी तीर्थमें देवर्षि नारदने
तपस्या की थी और इसी तपस्याके फलस्वरूप
देवाधिदेव महेश्वरने प्रसन्न होकर उन्हें योग प्रदान
किया था। राजन! ब्रह्माके द्वारा स्थापित लिज्ग ब्रह्मेश्वर
नामसे प्रसिद्ध है। इस तीर्थमें स्नान करके मनुष्य
ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा प्रात करता है॥ १५--१८॥
तदनन्तर ऋणतीर्थमें जाना चाहिये, वहाँ जानेवाला
निश्चित ही ऋणसे मुक्त हो जाता है। इसके बाद
महेधर-तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ जाकर तीर्थसेवन
करनेसे जन्मका अन्तिम फल (महेश्वरका दर्शन) प्राप्त
होता है॥ १९॥
* अध्याय ३९ *
भीमेश्वरं ततो गच्छेत् सर्वव्याधिविनाशनम्।
स्नातमात्रो नरस्तत्र सर्वदुःखेः प्रमुच्यते॥ २०॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र पिड्लेश्वरमुत्तमम्।
अहोरात्रोपवासेन त्रिरात्रफलमाप्नुयात्॥ २१॥
तस्मिस्तीर्थ तु राजेन्द्र कपिलां यः प्रयच्छति।
यावन्ति तस्या रोमाणि तत्प्रसूतिकुलेषु च।
तावद वर्षसहस्त्राणि रुद्रलोके महीयते॥ २२॥
यस्तु प्राणपरित्यागं कुर्यात् तत्र नराधिप।
अक्षयं मोदते कालं यावच्चन्द्रदिवाकरो॥ २३॥
नर्मदातटमाश्रित्य तिष्ठन्ते ये तु मानवाः।
ते मृताः स्वर्गमायान्ति सन््तः सुकृतिनो यथा ॥ २४॥
ततो दीप्तेश्वरं गच्छेद व्यासतीर्थ तपोवनम्।
निवर्तिता पुरा तत्र व्यासभीता महानदी।
हुँकारिता तु व्यासेन दक्षिणेन ततो गता॥ २५॥
प्रदक्षिणं तु यः कुर्यात् तस्मिस्तीर्थे युथिष्ठिर।
प्रीतस्तस्य भवेद् व्यासो वाउिछतं लभते फलम्॥ २६॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र इक्षुनद्यास्तु संगमम्।
त्रेलोक्यविश्रुतं पुण्यं तत्र संनिहितः शिव: |
तत्र स्नात्वा नरो राजन् गाणपत्यमवाप्नुयात्॥ २७॥
स्कन्दतीर्थ ततो गच्छेत् सर्वपापप्रणाशनम्
आजन्मनः कृतं पापं स्नातस्तीव्रं व्यपोहति॥ २८ ॥
तत्र देवाः सगन्धर्वा भवात्मजमनुत्तमम्।
उपासते महात्मानं स्कन्दं शक्तिधरं प्रभुम्॥ २९॥
ततो गच्छेदाड्विरसं स्नान तत्र समाचरेत्।
गोसहस्त्रफलं प्राप्य रुद्लोक॑ स गच्छति॥ ३०॥
अड्डिरा यत्र देवेशं ब्रह्मपुत्रो वृषध्वजम्।
तपसाराध्य विश्वेशं लब्धवान् योगमुत्तमम्॥ ३१॥
कुशतीर्थ ततो गच्छेत् सर्वपापप्रणाशनम्।
स्नान तत्र प्रकुर्वीत अश्वमेधफलं लभेत्॥ ३२॥
है
तदुपरान््त सभी व्याधियोंका विनाश करनेवाले
भीमेश्वर-तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ स्नानमात्र करनेसे
मनुष्य सभी दुःखोंसे मुक्त हो जाता है॥२०॥
राजेन्द्र ! तदनन्तर उत्तम पिड्नलेश्वर (तीर्थमें) जाना
चाहिये। वहाँ अहोरात्रका उपवास करनेसे त्रिरात्र (उपवास )-
का फल प्राप्त होता है। राजेन्द्र ! उस तीर्थमें जो कपिला
(गौ)-का दान करता है, वह उस कपिलाके तथा
उसके कुलमें उत्पन्न संतानोंके शरीरोंपर जितने रोम
होते हैं, उतने ही हजार वर्षपर्यन्त रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित
होता है। नराधिप! वहाँ जो प्राणोंका त्याग करता है,
वह जबतक सूर्य-चन्द्रमा हैं, तबतक अक्षय आनन्द
प्राप्त करता है। जो मनुष्य नर्मदाके तटका आश्रयकर
(वहाँ) रहते हैं, वे मरनेपर पुण्यवान् संतोंके समान
स्वर्ग प्रात्त करते हैं॥२१--२४॥
तदनन्तर व्यासतीर्थ नामक तपोवनमें स्थित दीसेश्वर
(तीर्थमें) जाना चाहिये। प्राचीन कालमें वहाँ व्यासजीसे
भयभीत होकर महानदी (नर्मदा) वापस हो गयी थी
और व्यासके द्वारा हुंकार किये जानेपर (अर्थात् रोष
प्रकट करनेपर) वहाँसे दक्षिणती ओर चली गयी।
युधिष्ठिर! उस तीर्थमें जो प्रदक्षिणा करता है, प्रसन्न होकर
व्यासजी उसे अभिलषित फल प्रदान करते हैं॥ २५-२६॥
राजेन्द्र | तदनन्तर तीनों लोकोंमें विख्यात तथा पवित्र
इक्षुनदीके संगमपर जाना चाहिये। वहाँ शिव प्रतिष्ठित
हैं। राजन्! वहाँ मनुष्य स्नानकर (शिवका) गाणपत्य-
पद प्राप्त करता है। इसके बाद सभी पापोंका विनाश
करनेवाले स्कन्दतीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे
जन्मभरका किया हुआ पाप शीघ्र ही दूर हो जाता
है। वहाँ शंकरजीके पुत्र, श्रेष्ठ महात्मा, शक्तिसम्पन्न
प्रभु स्कन्दकी गन्धर्वॉसहित देवता उपासना करते हैं।
तदनन्तर आइ्विरस तीर्थमें जाकर स्नान करना चाहिये।
वहाँ स्नान करनेवाला व्यक्ति हजार गोदानका फल प्राप्त
कर रुद्रलोकमें जाता है॥२७--३० ॥
वहाँ ब्रह्माजीके पुत्र (महर्षि) अद्विराने तपस्याके
द्वारा देवेश वृषध्वज विश्वेश्वकी आराधना कर उत्तम
योग प्राप्त किया था। तदनन्तर समस्त पापोंको नष्ट
करनेवाले कुशतीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे
व्यक्ति अश्वमेधका फल प्राप्त करता है॥३१-३२॥
डंदद
कोटितीर्थ ततो गच्छेत् सर्वपापप्रणाशनम् |
तत्र स्नात्वा नरो राज्यं लभते नात्र संशय: ॥ ३३॥
अन्द्रभागां ततो गच्छेत् स्नान॑ तत्र समाचरेत् ।
स्नातमात्रो नरस्तत्र सोमलोके महीयते॥ ३४॥
नर्मदादक्षिणि कूले संगमेश्वरमुत्तमम्।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् सर्वयज्ञफलं लभेत्॥ ३५॥
नर्मदायोत्ते कूले तीर्थ परमशोभनम्।
आदित्यायतनं रम्यमीश्ररेण तु भाषितम्॥ ३६॥
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र दत्त्वा दानं तु शक्तितः ।
तस्य तीर्थप्रभावेण लभते चाक्षयं फलम्॥ ३७॥
दरिद्रा व्याधिता ये तु ये च दुष्कृतकारिण: ।
मुच्यन्ते सर्वपापेभ्य: सूर्यलोकं॑ प्रयान्ति च॥ ३८ ॥
मार्गेश्वरं ततो गच्छेत् स्नान तत्र समाचरेत्।
स्नातमात्रो नरस्तत्र स्वर्गलोकमवाप्नुयात्॥ ३९॥
ततः पश्चिमतो गच्छेन्मरुदालयमुत्तमम्।
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र शुचिर्भूत्वा प्रयत्नत: ॥ ४० ॥
काञ्जनं तु द्विजो दद्याद यथाविभवविस्तरम् ।
पुष्पकेण विमानेन वायुलोकं॑ स गच्छति॥ ४१॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र अहल्यातीर्थमुत्तमम्।
स्नानमात्रादप्सरोभिमोंदद कालमक्षयम्॥ ४२॥
चैत्रमासे तु सम्प्राप्त शुक्लपक्षे त्रयोदशी।
कामदेवदिने तस्मिननहल्यां यस्तु पूजयेत्॥ ४३॥
यत्र तत्र नरोत्पन्नो वरस्तत्र प्रियो भवेत्।
सत्रीवललभो भवेच्छीमान् कामदेव इवापर: ॥ ४४॥
अयोध्यां तु समासाद्य तीर्थ शक्रस्य विश्रुतम् ।
स्नातमात्रो नरस्तत्र गोसहस्रफलं लभेतू॥ ४५ ॥
सोमतीर्थ ततो गच्छेत् स्नान तत्र समाचरेत् ।
स्नातमात्रो नरस्तत्र सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ ४८६॥
सोमग्रहे तु राजेन्द्र पापक्षयकरं भवेत्।
त्रैलोक्यविश्रुतं राजन् सोमतीर्थ महाफलम्॥ ४७॥
* कूर्मपुराण *
इसके पश्चात् सभी पापोंको नष्ट करनेवाले कोटितीर्थमें
जाना चाहिये। वहाँ सनानकर मनुष्य राज्य प्राप्त कर
लेता है, इसमें कोई संदेह नहीं॥ ३३ ॥
तदुपरान्त चन्द्रभागामें स्नान करना चाहिये। वहाँ
स्नानमात्रसे ही मनुष्य सोमलोकमें आदर प्राप्त करता
है। राजन्! नर्मदाके दक्षिणी किनारेपर उत्तम संगमेश्वर
(तीर्थ) है। वहाँ स्नान करके मनुष्य सभी यज्ञोंका
फल प्राप्त कर लेता है। नर्मदाके उत्तरी किनारेपर
अत्यन्त सुन्दर तीर्थ है। वहाँ आदित्यका रमणीय मन्दिर
है। यह स्वयं ईश्वरने बताया है। राजेन्द्र ! वहाँ स्नानकर
यथाशक्ति दान देनेपर उस तीर्थके प्रभावसे अक्षय फल
प्रात्त होता है तथा जो लोग दरिद्र, व्याधियुक्त और
दुष्कर्म करनेवाले हैं, वे सभी पापोंसे मुक्त होकर
सूर्यलोकको जाते हैं॥ ३४--३८ ॥
तदनन्तर मार्गेश्वर (तीर्थ) जाकर वहाँ स्नान करना
चाहिये। वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य स्वर्गलोक प्राप्त
करता है। इसके पश्चात् पश्चिमकी ओर स्थित श्रेष्ठ
मरुदालयमें (वायुके स्थानमें) जाना चाहिये। राजेन्द्र !
वहाँ स्नान करके प्रयत्रपूर्वक पवित्र होकर अपनी
सम्पत्तिके विस्तारके अनुसार द्विजको स्वर्ण प्रदान करना
चाहिये। ऐसा करनेवाला मनुष्य पुष्पक-विमानके द्वारा
वायुलोक जाता है॥ ३९--४१॥
राजेन्द्र ! तदनन्तर श्रेष्ठ अहल्यातीर्थमें जाना चाहिये।
वहाँ स्नानमात्रसे मनुष्य अक्षय (अनन्त) कालतक
अप्सराओंके साथ आनन्द करता है। चैत्र शुक्ल पक्षकी
त्रयोदशी कामदेवका दिन है। उस दिन इस अहल्यातीर्थमें
जो मनुष्य अहल्याकी पूजा करता है, वह जहाँ-कहीं
भी उत्पन्न होता है, श्रेष्ठ तथा प्रिय होता है और
विशेषरूपसे दूसरे कामदेवके समान हो जानेसे श्री-
शोभासम्पन्न तथा स्त्रीवल्लभ होता है। इन्द्रके प्रसिद्ध
तीर्थ अयोध्यामें आकर स्नानमात्र करनेवाला मनुष्य
हजार गोदानका फल प्राप्त करता है॥४२--४५॥
तदनन्तर सोमतीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करना
चाहिये। वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य सभी पापोंसे
मुक्त हो जाता है। राजन्! तीनों लोकोंमें विख्यात
सोमतीर्थ महान् फल देनेवाला है॥४६-४७॥
* अध्याय ३९ *
४८६७
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यस्तु चान्द्रायणं कुर्यात् तत्र तीर्थे समाहित: ।
सर्वपापविशुद्धात्मा सोमलोकं॑ स गच्छति॥ ४८ ॥
अग्निप्रवेशं यः कुर्यात् सोमतीर्थे नराधिप।
जले चानशनं वापि नासौ मर्त्योडभिजायते ॥ ४९ ॥
स्तम्भतीर्थ ततो गच्छेत् स्नान तत्र समाचरेत्।
स्नातमात्रो नरस्तत्न सोमलोके महीयते॥ ५०॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र विष्णुतीर्थमनुत्तमम्।
योधनीपुरमाख्यातं विष्णो: स्थानमनुत्तमम्॥ ५१॥
असुरा योधितास्तत्र वासुदेवेन कोटिश:।
तत्र तीर्थ समुत्पन्न॑ विष्णुश्रीको भवेदिह।
अहोरात्रोपवासेन ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥ ५२॥
नर्मदादक्षिणे कूले तीर्थ परमशोभनम्।
कामतीर्थमिति ख्यातं यत्र कामो<र्चयद् भवम्॥ ५३ ॥
तस्मिंस्तीर्थे नर: स्नात्वा उपवासपरायण: |
कुसुमायुधरूपेण रुद्रलोके महीयते॥ ५४॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र ब्रह्मतीर्थमनुत्तमम्।
उमाहकमिति ख्यातं तत्र संतर्पयेत् पितृन्॥ ५५॥
पौर्णमास्याममावास्यां श्राद्धं कुर्याद् यथाविधि।
गजरूपा शिला तत्र तोयमध्ये व्यवस्थिता ॥ ५६॥।
तस्मिस्तु दापयेत् पिण्डान् वैशाख्यां तु विशेषत: ।
स््नात्वा समाहितमना दम्भमात्सर्यवर्जित:।
तृप्यन्ति पितरस्तस्य यावत् तिष्ठति मेदिनी॥ ५७॥
सिद्धेश्वर॑ं ततो गच्छेत् स्नान तत्र समाचरेत्।
सस््नातमात्रो नरस्तत्र गाणपत्यपदं लभेत्॥ ५८ ॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र लिड्रो यत्र जनार्दन:।
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र विष्णुलोके महीयते॥ ५९॥
यत्र नारायणो देवो मुनीनां भावितात्मनाम्।
स्वात्मानं दर्शयामास लिड्ढं तत् परमं पदम्॥ ६० ॥
राजेन्द्र ! वहाँ चन्द्रग्रहण (-का स्नान) पापोंका क्षय
करनेवाला होता है। उस तीर्थमें जो एकाग्र-मनसे
चान्द्रायणत्रत करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो
विशुद्ध आत्मावाला होकर सोमलोकको जाता है।
नराधिप! जो सोमतीर्थमें अग्निप्रवेश, जलप्रवेश अथवा
अनशन करता है, वह मनुष्य पुनः उत्पन्न नहीं होता।
तदनन्तर स्तम्भतीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करना चाहिये |
वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य सोमलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त
करता है अर्थात् पूजित होता है॥४८--५० ॥
राजेन्द्र | तदनन्तर परम उत्तम विष्णुतीर्थमें जाना चाहिये,
वहाँ योधनीपुर नामक विष्णुका श्रेष्ठ स्थान है। वहाँ
वासुदेवने करोड़ों असुरोंसे युद्ध किया था। अत: वह
स्थान (वासुदेवकी पवित्र संनिधिके कारण) तीर्थ
(पुण्यमय) हो गया है। जो मनुष्य उस तीर्थका सेवन
करता है, वह विष्णुके समान श्रीसम्पन्न हो जाता है।
वहाँ एक अहोरात्र उपवास करनेसे ब्रह्महत्या दूर हो
जाती है। नर्मदाके दक्षिणी किनारेपर कामतीर्थ नामसे
प्रसिद्ध एक अत्यन्त सुन्दर तीर्थ है। वहाँपर कामदेवने
शंकरकी आराधना की थी। उस तीथर्थमें स्नानकर
उपवासपरायण रहनेवाला मनुष्य कामदेवके समान रूपवाला
होकर रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्रात करता है॥५१--५४ ॥
राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम ब्रह्मतीर्थमें जाना चाहिये।
वह तीर्थ “उमाहक' इस नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ
पितरोंका तर्पण करना चाहिये। पूर्णिमा तथा अमावास्थाको
विधिपूर्वक श्राद्ध करना चाहिये। वहाँ जलके भीतर
हाथीके आकारकी शिला स्थित है। उस शिलापर विशेष
रूपसे वैशाख पूर्णिमाको स्नानके अनन्तर दम्भ तथा
मात्सर्यसे रहित होकर एकाग्रमनसे पिण्डदान करना
चाहिये। इससे पिण्डदाताके पितर जबतक पृथ्वी रहती
है, तबतक तृप्त रहते हैं॥५५--५७॥
इसके बाद सिद्धेश्वर (तीर्थमें) जाकर वहाँ स्नान
करना चाहिये। वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य गाणपत्य-
पद प्राप्त करता है। राजेन्द्र! तदनन्तर जहाँ जनार्दन
लिड्भरूपमें प्रतिष्ठित हैं, वहाँ जाना चाहिये। राजेन्द्र !
वहाँ स्नान करनेसे विष्णुलोकमें आदर प्राप्त होता है।
यही एकमात्र वह स्थान है, जहाँ नारायणदेवने भक्तिपूर्ण
मुनियोंको लिज्ञरूपमें अपना दर्शन कराया था। यह
लिड् विष्णुरूप होनेसे परमपद है॥ ५८--६० ॥
४६८
अड्डोलं तु ततो गच्छेत् सर्वपापविनाशनम्।
स्नान दानं च तत्रेव ब्राह्मणानां च भोजनम् ।
पिण्डप्रदानं चर कृतं प्रेत्यानन्तफलप्रदम्॥ ६१ ॥।
त्रैयम्बकेन तोयेन यश्चरुं श्रपयेत् ततः।
अड्लोलमूले दद्याच्च पिण्डांश्चैव यथाविधि।
तारिताः: पितरस्तेन तृप्यन्त्याचन्द्रतारकम्॥ ६२॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र तापसेश्वरमुत्तमम्।
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र प्राप्दुयात् तपस: फलम्॥ ६३ ॥
शुक्लतीर्थ ततो गच्छेत् सर्वपापविनाशनम्।
नास्ति तेन सम॑ तीर्थ नर्मदायां युधिष्ठिर॥ ६४॥
दर्शनात् स्पर्शनात् तस्य स्नानदानतपोजपात्।
होमाच्चेवोपवासाच्च शुक्लतीर्थे महत् फलम्॥ ६५॥
योजन तत् स्मृतं क्षेत्र॑ देवगन्धर्वसेवितम्।
शुक्लतीर्थमिति ख्यातं सर्वपापविनाशनम्॥ ६६॥
पादपाग्रेण दृष्टेन ब्रह्महत्यां व्यपोहृति।
देव्या सह सदा भर्गस्तत्र तिष्ठति शंकरः॥ ६७॥
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां वैशाखे मासि सुत्रत।
कैलासाच्चाभिनिष्क्रम्य तत्र संनिहितो हर: ॥ ६८ ॥
देवदानवगन्धर्वा: सिद्धविद्याधरास्तथा।
गणाश्चाप्सरसां नागास्तत्र तिष्ठन्ति पुंगव॥ ६९॥
रजकेन यथा वस्त्र शुक्लं भवति वारिणा।
आजन्मनि कृतं पाप॑ं शुक्लतीर्थे व्यपोहति।
स्नान दान॑ तपः श्राद्धमनन्तं तत्र दृश्यते॥ ७०॥
शुक्लतीर्थात् परं तीर्थ न भूतं॑ न भविष्यति।
पूर्व बयसि कर्माणि कृत्वा पापानि मानव: ।
अहोरात्रोपवासेन शुक्लतीर्थे व्यपोहति॥ ७१॥
कार्तिकस्य तु मासस्य कृष्णपक्षे चतुर्दशी ।
घृतेन स्नापयेद् देवमुपोष्य परमेश्वरम्।
एकविंशत्कुलोपेतो न च्यवेदेश्बरात् पदात्॥ ७२॥
तपसा ब्रह्मचर्येण यज्ञदानेन वा पुनः।
न तां गतिमवाप्नोति शुक्लतीर्थ तु यां लभेत्॥ ७३॥
्ः कूर्मपुराण ह
तदनन्तर सभी पापोंको नष्ट करनेवाले अंकोल
तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ किया गया स्नान, दान,
ब्राह्मग-भोजन तथा पिण्डदान परलोकमें अनन्त फल
प्रदान करनेवाला होता है। जो त्रैयम्बक (त्र्यम्बक)
मन्त्रके द्वारा जलसे चरु पकाकर उससे अंकोल (वृक्ष)-
के मूलमें यथाविधि पिण्डदान करता है, उसके द्वारा
तारे गये पितर जबतक चन्द्रमा तथा तारे रहते हैं,
तबतक तृप्त रहते हैं। राजेन्द्र ! तदनन्तर उत्तम तापसेश्वर
(तीर्थमें) जाना चाहिये। राजेन्द्र | वहाँ स्नानमात्र करनेसे
व्यक्ति तपस्याका फल प्राप्त करता है॥६१--६३॥
इसके पश्चात् सभी पापोंका नाश करनेवाले शुक्लतीर्थमें
जाना चाहिये। युधिष्ठिर! नर्मदामें उसके समान कोई
तीर्थ नहीं है। उस शुक्लतीर्थके दर्शन करने, स्पर्श करने
तथा वहाँ स्नान, दान, तप, जप, होम और उपवास
करनेसे महान् फल प्राप्त होता है। देवताओं तथा
गन्धर्वोंसे सेवित वह एक योजनका क्षेत्र शुक्लतीर्थ इस
नामसे विख्यात है। वह समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला
है। (इस तीर्थमें स्थित) वृक्षके अग्रभागको भी देखनेसे
ब्रह्महत्या दूर हो जाती है, वहाँ देवी (पार्वती)-के
साथ भर्ग (तेजोमय) शंकर सदैव निवास करते हैं।
सुब्रत! वैशाख मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको वहाँ
कैलाससे आकर हर (शंकर) स्थित होते हैं। श्रेष्ठ!
वहाँ देवता, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, अप्सराओंके
समूह तथा नाग रहते हैं॥ ६४--६९॥
जिस प्रकार रजक (धोबी)-के द्वारा जलसे (धोनेसे)
वस्त्र स्वच्छ (मलरहित) हो जाता है, उसी प्रकार
शुक्लतीर्थमें स्नानसे जन्मभरका किया हुआ पाप दूर
हो जाता है, वहाँ किया गया स्नान, दान, तप तथा
श्राद्ध अनन्त फलदायक हो जाता है। शुक्लतीर्थ-सा
परम तीर्थ न कोई हुआ न होगा। मनुष्य पूरी
अवस्थाभरमें किये गये पापोंको शुक््लतीर्थमें एक
अहोरात्रके उपवाससे दूर कर देता है। कार्तिक मासमें
कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको उपवासकर परमेश्वर देवको
घृतसे स्नान कराना चाहिये। इससे मनुष्य अपनी
इक्कीस पीढ़ियोंके साथ ईश्वरके लोकमें निवास करता
है। कभी भी वहाँसे च्युत नहीं होता। शुक्लतीर्थमें जो
गति प्राप्त होती है, वह तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ अथवा
दानसे प्राप्त नहीं होती॥७०--७३॥
* अध्याय ३९ «*
शुक्लतीर्थ_ महातीर्थमृषिसिद्धनिषेवितम्
तत्र स्नात्वा नरो राजन् पुनर्जन्म न विन्दति॥ ७४॥
अयने वा चतुर्दश्यां संक्रान्ती विषुवे तथा।
स्नात्वा तु सोपवास: सन् विजितात्मा समाहित: ॥ ७५ ॥
दानं॑ दद्याद यथाशक्त प्रीयेतां हरिशंकरौ |
एतत् तीर्थप्रभावेण सर्व भवति चाक्षयम्॥ ७६॥
अनाथ दुर्गतं विप्र॑ं नाथवन्तमथापि वा।
उद्बाहयति यस्तीर्थे तस्य पुण्यफलं श्रुणु॥ ७७॥
यावत्् तद्रोमसंख्या तु तत्प्रसूतिकुलेषु च।
तावद वर्षसहस्त्राणि रुद्रलोके महीयते॥ ७८ ॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र यमतीर्थमनुत्तमम्।
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां माघमासे युथधिष्टठिर ।
स्नान कृत्वा नक्तभोजी न पश्येद योनिसड्ड्टम्॥ ७९ ॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र एरण्डीतीर्थमुत्तमम्।
संगमे तु नरः स्नायादुपवासपरायण:।
ब्राह्मणं भोजयेदेक॑ कोटिर्भवति भोजिता: ॥ ८०॥
एरण्डीसंगमे स्नात्वा भक्तिभावात् तु रख्ित: ।
मृत्तिकां शिरसि स्थाप्य अवगाहा च तजलम्।
नर्मदोदकसम्मिश्र॑ मुच्यते सर्वकिल्यिषै:॥ ८१॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थ कार्णाटिके श्वरम्।
गड्भावतरते तत्र दिने पुण्ये न संशय:॥ ८२॥
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च दत्त्वा चैव यथाविधि।
सर्वपापविनिर्मुक्तो ब्रहालोके महीयते॥ ८३॥
नन्दितीर्थ ततो गच्छेत् स्नान तत्र समाचरेत्।
प्रीयते तस्य ननन््दीश: सोमलोके महीयते॥ ८४॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थ त्वयनरकं॑ शुभम्।
तत्र स्नात्या नरो राजन् नरकं नैब पश्यति॥ ८५॥
तसिमस्तीर्थे तु राजेन्द्र स्वान्यस्थीनि विनिक्षिपेत्।
रूपवान् जायते लोके धनभोगसमन्वितः॥ ८६॥
४८६९
ऋषियों तथा सिद्धोंसे सेवित शुक्लतीर्थ महान् तीर्थ
है। राजन्! वहाँ स्नान करके मनुष्य पुनर्जन्म नहीं प्राप्त
करता। वहाँ अयन, चतुर्दशी, संक्रान्ति तथा विषुब (योग)-
में सनानोपरान््त उपवास करते हुए विजितात्मा पुरुषको
समाहित होकर यथाशक्ति दान देना चाहिये। इससे विष्णु
तथा शिव प्रसन्न होते हैं। इस तीर्थके प्रभावसे सब
कुछ अक्षय होता है। अनाथ, दुर्गतिको प्राप्त अथवा
सनाथ ब्राह्मणका भी इस तीर्थमें विवाह करानेसे जो
पुण्य-फल प्राप्त होता है, उसे सुनो--उसके (विवाह
सम्पन्न करानेवालेके) शरीरमें तथा उसके कुलकी संतानोंके
शरीरमें जितने रोम होते हैं, उतने हजार वर्षोतक वह
रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है॥७४--७८॥
राजेन्द्र! तदनन्तर परम उत्तम यमतीर्थमें जाना
चाहिये। युधिष्ठिर! माघमासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको
इस यमतीर्थमें स्नान करके रात्रिमें भोजन करनेवालेको
गर्भके संकटका सामना नहीं करना पड़ता। राजेन्द्र !
तदुपरान्त श्रेष्ठ एरण्डी-तीर्थमें जाना चाहिये। व्यक्ति वहाँ
संगममें स्नानकर उपवासपरायण रहते हुए एक ब्राह्मणको
भोजन कराये, इससे करोड़ों (ब्राह्मणों)-को भोजन
करानेका फल मिलता है। एरण्डी-संगममें स्नान करके
भक्तिभावसे परिपूर्ण होकर मस्तकमें वहाँकी मिट्टी
लगानेसे तथा नर्मदाके जलसे मिश्रित उस (एरण्डी-
संगम)-के जलमें स्नान करनेसे मनुष्य सभी पापोंसे
मुक्त हो जाता है॥७९--८१॥
राजेन्द्र! इसके पश्चात् कार्णाटिकेश्वर-तीर्थमें जाना
चाहिये। वहाँ पुण्य (पर्व)-दिनमें निश्चित रूपसे गड्जा
अवतरित होती हैं। वहाँ सनानकर, (जल) पीकर और
विधिपूर्वक दान देनेसे व्यक्ति सभी पापोंसे मुक्त होकर
ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा प्रात करता है। तदनन्तर नन्दितीर्थमें
जाकर स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेसे उसपर
नन्दीश्वर प्रसन्न होते हैं और वह सोमलोकमें आदर
प्रात्त करता है॥८२--८४॥
राजेन्द्र ! तदुपरान््त शुभ अनरक नामक तीथ॑में जाना
चाहिये। राजन्! वहाँ स्नान करके मनुष्य नरकका दर्शन
नहीं करता। राजेन्द्र! उस तीर्थमें अपनी अस्थियोंके
विसर्जनकी प्रेरणा अपने परिजनोंको देनी चाहिये। (वहाँ
जिसकी अस्थि विसर्जित होती है) वह जन्मान्तरमें दिव्य
रूप एवं विविध ऐश्वर्यसे सम्पन्न होता है॥ ८५-८६॥
४90
ततो गच्छेत राजेन्द्र कपिलातीर्थमुत्तमम्।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् गोसहसत्रफलं लभेत्॥ ८७॥
ज्येष्ठमासे तु सम्प्राप्ते चतुर्दश्यां विशेषतः ।
तत्रोपोष्य नरो भकत्या दद्याद् दीपं घृतेन तु॥ ८८ ॥
घृतेन स्नापयेद रुद्रं सघृतं श्रीफलं दहेत्।
घण्टाभरणसंयुक्तां कपिलां बवै प्रदापयेत्॥ ८९॥
सर्वाभरणसंयुक्त:ः सर्वदेवनमस्कृत: ।
शिवतुल्यबलो भूत्वा शिववत् क्रीडते चिरम्॥ ९०॥
अड्भरकदिने प्राप्ते चतुर्थ्या तु विशेषतः।
स्नापयित्वा शिवं दद्याद ब्राह्मणेभ्यस्तु भोजनम्॥ ९१॥
सर्वभोगसमायुक्तो विमाने: सार्वकामिके: ।
गत्वा शक्रस्य भवन शक्रेण सह मोदते।॥ ९२॥
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टो धनवान् भोगवान् भवेत् ।
अड्भारकनवम्यां तु अमावास्यां तथेव च।
स्नापयेत् तत्र यत्नेन रूपवान् सुभगो भवेत्॥ ९३॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र गणेश्वरमनुत्तमम्।
श्रावणे मासि सम्प्राप्ते कृष्णपक्षे चतुर्दशी ॥ ९४॥
स््नातमात्रो नरस्तत्र रुद्रलोके महीयते।
पितृणां तर्पणं कृत्वा मुच्यतेडसावृणत्रयात्॥ ९५॥
गड़ेश्वसमीपे तु गड्जावदनमुत्तमम्।
अकामो वा सकामो वा तत्र स्नात्वा तु मानव: ।
आजन्मजनितै:ः पापैर्मुच्यते नात्र संशय: ॥ ९६॥
तस्य वै पश्चिमे देशे समीपे नातिदूरत:।
दशाश्रमेधिकं तीर्थ त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्॥ ९७॥
उपोष्य रजनीमेकां मासि भाद्रपदे शुभे।
अमावस्यां नरः स्नात्वा पूजयेद वृषभध्वजम्॥ ९८ ॥
* कूर्मपुराण *
राजेन्द्र | तदनन्तर उत्तम कपिलातीर्थमें जाना चाहिये।
राजन्! वहाँ स्नानकर व्यक्ति हजार गोदानका फल प्राप्त
करता है। ज्येष्ठ मासके आनेपर विशेषरूपसे चतुर्दशी
तिथिको वहाँ उपवास कर मनुष्यको भक्तिपूर्वक घृतका
दीप-दान करना चाहिये। घृतसे ही रुद्रका अभिषेक
करना चाहिये, घृतयुक्त श्रीफलका हवन करना चाहिये
और घंटा तथा आभरणोंसे सम्पन्न कपिला गौका दान
करना चाहिये। इससे मनुष्य सभी अलंकारोंसे युक्त,
सभी देवताओंके लिये वन्दनीय और शिवके समान
तुल्य बलवाला होकर चिरकालतक शिवके समान
क्रीडा करता है॥ ८७--९०॥
विशेषरूपसे मंगलके दिन चतुर्थी पड़नेपर (इस
कपिलातीर्थमें) शिवका अभिषेककर ब्राह्मणोंको भोजन
कराना चाहिये। ऐसा करनेवाला मनुष्य सभी भोगोंसे
समन्वित होकर अपनी इच्छाके अनुसार सर्वत्र अप्रतिहतगति
एवं सभी प्रकारकी सुविधाओंसे परिपूर्ण विमानोंके द्वारा
इन्द्रके भवनमें जाकर इन्द्रके साथ आनन्दित होता है।
स्वर्गसे च्युत होनेपर इस लोकमें भी धनवान् और
भोगवान् होता है। अड्भरारक-नवमी (मंगलवारयुक्त
नवमी) तथा अमावास्याको भी वहाँ (कपिलातीर्थमें)
प्रयत्रपूर्वक्क अभिषेक करनेसे व्यक्ति रूपवान् तथा
सौभाग्यशाली होता है॥ ९१--९३॥
राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम गणेश्वर (तीर्थ)-में जाना
चाहिये। श्रावण मास आनेपर कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको
वहाँ स्नानमात्र करनेसे मनुष्य रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता
है और पितरोंका तर्पण करनेसे तीनों ऋणोंसे मुक्त हो
जाता है॥ ९४-९५॥
गणेश्वर (तीर्थ)-के समीप श्रेष्ठ गड़गावदन नामक
तीर्थ है। वहाँ मनुष्य कामनापूर्वक अथवा निष्कामभावसे
स्नान करके जन्मभरके किये गये पापोंसे मुक्त हो जाता
है, इसमें संशय नहीं है॥९६॥
उस (गड्ावदन)-के पश्चिमी भागमें बहुत दूर नहीं
अपितु समीपमें ही तीनों लोकोंमें विख्यात दशाश्रमेधिक
नामक तीर्थ है। वहाँ शुभ भाद्रपद मासकी अमावास्याको
एक राणत्रिका उपवासकर स्लनानपूर्वक वृषभध्वजका
पूजन करना चाहिये॥ ९७-९८॥
* अध्याय ४० * ४9१२
काझनेन विमानेन किड्धिणीजालमालिना। ऐसा करनेसे किंकिणीके समूहसे अलंकृत सोनेके
गत्वा रुद्रपुरं रम्यं रुद्रेण सह मोदते॥ ९९ ॥ | विमानसे रमणीय रुद्रपुरमें पहुँचने तथा वहाँ रुद्रके साथ
आनन्दानुभव करनेका सुअवसर प्राप्त होता है। उस
(दशाश्रमेधिक) तीर्थमें सर्वत्र सभी दिनोंमें स्नान करना
सर्वत्र सर्वदिवसे स्नान तत्र समाचरेत्। चाहिये और पितरोंका तर्पण करना चाहिये, इससे
पितृणां तर्पणं कुर्यादश्वमेधफलं लभेत्॥ १००॥ | अश्वमेधका फल प्राप्त होता है॥९९-१००॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्त्र्यां संहितायामुपरिविभागे एकोनचत्वारिशोउध्याय: ॥ ३९ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें उनतालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ३९॥
चआालीसवाँ अध्याय
तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें नर्मदा तथा उसके समीपवर्ती तीर्थोकी महिमा,
मार्कण्डेय तथा युधिष्ठिरके संवादकी समाप्ति
मार्कण्डेय उवाच
ततो गच्छेत राजेन्द्र भृगुतीर्थमनुत्तमम्।
तत्र देवो भृगुः पूर्व रुद्रमाराधयत् पुरा॥१॥
दर्शनात् तस्य देवस्य सद्यः पापातू् प्रमुच्यते।
एततू क्षेत्र सुविपुल॑ सर्वपापप्रणाशनम्॥ २॥
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्ते5पुनर्भवा: ।
उपानहोस्तथा युग्म॑ देयमन्न॑ सकाझनम्।
भोजनं च यथाशक्ति तदस्याक्षयमुच्यते॥ ३॥
क्षरन्ति सर्वदानानि यज्ञदानं तपः क्रिया।
अक्षयं तत् तपस्तप्तं भुगुतीर्थ युधिष्ठिर॥ ४॥
तस्यैव तपसोग्रेण तुष्टेन त्रिपुरारिणा।
सांनिध्यं तत्र कथितं भृगुतीर्थ युथधिष्ठटिर॥ ५॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र गौतमेश्वरमुत्तमम्।
यत्राराध्य त्रिशूलाडूं गौतम: सिद्धिमाप्नुयात्॥ ६॥
तत्र स्नात्वा नरो राजन् उपवासपरायण:।
काझ्ननेन विमानेन ब्रह्मलोके महीयते॥ ७॥
वृषोत्सर्ग ततो गच्छेच्छाश्वतं पदमाप्नुयात्।
न जानन्ति नरा मूढा विष्णोर्मायाविमोहिता: ॥ ८॥
मार्कण्डेयजीने कहा--राजेन्द्र ! तदन्तर श्रेष्ठ भृगुतीर्थमें
जाना चाहिये। प्राचीन कालमें यहाँ महर्षि भृगुदेवने भगवान्
रुद्रकी आराधना की थी। उन देवके दर्शन करनेसे
तत्काल पापसे मुक्ति हो जाती है। यह क्षेत्र बहुत बड़ा
तथा सभी पापोंको नष्ट करनेवाला है। यहाँ स्नान कर
व्यक्ति स्वर्ग जाते हैं और यहाँ मृत्युको प्राप्त होनेवालोंका
पुनर्जन्म नहीं होता। यहाँ जूतेका जोड़ा तथा सोनेके साथ
अन्नका दान करना चाहिये। यथाशक्ति भोजन भी कराना
चाहिये। यह सब अक्षय (फलवाला) कहा गया है।
युधिष्ठिर! सभी दान, यज्ञ, तप तथा कर्म नष्ट हो जाते
हैं (किंतु) भृगुतीर्थमें किया हुआ तप अक्षय होता है।
युधिष्ठिर! उन्हीं (महर्षि भगु)-की उग्र तपस्यासे प्रसन्न
होकर त्रिपुरारि भगवान् शंकर भृगुतीर्थमें सदैव संनिहित
रहते हैं, यह शास्त्रोंमें कहा गया है॥ १--५॥
राजेन्द्र ! तदनन्तर उत्तम गौतमेश्वर (तीर्थ)-में जाना
चाहिये। जहाँ त्रिशूलका चिह्न धारण करनेवाले त्रिशूली
(भगवान् शंकर)-की आराधनाकर (महर्षि) गौतमने
सिद्धि प्रात्त की थी। राजन्! वहाँ (गौतमेश्वर-तीर्थमें)
स्नानकर उपवासरत व्यक्ति सोनेके विमानद्वारा ब्रह्मलोक
जाता है तथा वहाँ आदर प्राप्त करता है। तदुपरान्त
वृषोत्सर्ग-तीर्थकी यात्रा कर शाश्वत पद प्राप्त करना
चाहिये। विष्णुकी मायासे मोहित मूढ व्यक्ति इस
तीर्थको नहीं जानते॥ ६--८ ॥
४७२
धौतपापं ततो गच्छेद धौतं यत्र वृषेण तु।
नर्मदायां स्थितं राजन् सर्वपातकनाशनम्।
तत्र तीर्थे नरः स्नात्वा ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥ ९ ॥
तन्न तीर्थ तु राजेन्द्र प्राणत्यागं करोति यः |
चतुर्भुजस्त्रिनेत्रश्ष हरतुल्यबलो भवेत्॥ १०॥
बसेत् कल्पायुतं साग्र॑ शिवतुल्यपराक्रम: ।
कालेन महता जात: पृथिव्यामेकराड भवेत्॥ ११॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र हंसतीर्थमनुत्तमम्।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् ब्रहालोके महीयते।॥ १२॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र सिद्धो यत्र जनार्दन:।
वराहतीर्थमाख्यातं विष्णुलोकगतिप्रदम्॥ १३॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र चन्द्रतीर्थमनुत्तमम्।
पौर्णमास्यां विशेषेण स्नान तत्र समाचरेत्।
स्नातमात्रो नरस्तत्र चन्द्रलोके महीयते॥ १४॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र कन्यातीर्थमनुत्तमम्।
शुक्लपक्षे तृतीयायां स्नान तत्र समाचरेत्।
स्नातमात्रो नरस्तत्र पृथिव्यामेकराड भवेत्॥ १५॥
देवतीर्थ ततो गच्छेत् सर्वदेवनमस्कृतम्।
तत्र स्नात्वा च राजेन्द्र देवते: सह मोदते॥ १६॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र शिखितीर्थमनुत्तमम्।
यत् तत्र दीयते दानं सर्व कोटिगुणं भवेत्॥ १७॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थ पैतामहं शुभम्।
यत् तत्र क्रियते श्राद्ध सर्व तदक्षयं भवेत्॥ १८॥
सावित्रीतीर्थमासाद्य यस्तु प्राणान् परित्यजेत्।
विधूय सर्वपापानि ब्रह्मलोके महीयते॥ १९॥
मनोहर तु॒तत्रैव तीर्थ परमशोभनम्।
तत्र स्नात्या नरो राजन् दैवतै: सह मोदते॥ २०॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र मानसं तीर्थमुत्तमम्।
स्तात्या तत्र नरो राजन् रुद्रलोके महीयते॥ २१॥
* कूर्मपुराण *
इसके पश्चात् धौतपाप नामक तीर्थमें जाना चाहिये,
जहाँ स्वयं वृष (अर्थात् भगवान् धर्म)-ने अपना (पाप)
धोया था। राजन्! सभी पातकोंका नाश करनेवाला वह
तीर्थ नर्मदामें स्थित है। उस तीर्थमें सनानकर मनुष्य
ब्रह्महत्यासे मुक्त हो जाता है। राजेन्द्र! उस तीर्थमें जो
प्राणोंका त्याग करता है, वह चार भुजावाला, तीन
नेत्रोंबाला और शंकरके समान बलवाला होता है।
शिवके समान पराक्रमी होकर वह दस हजार कल्पोंसे
भी अधिक समयतक शिवलोकमें निवास करता है
और बहुत समयके बाद वह पृथ्वीपर एकच्छत्र सम्राट्
बनकर उत्पन्न होता है॥९--११॥
राजेन्द्र! उसके बाद श्रेष्ठ हंस-तीर्थमें जाना चाहिये।
राजन! वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त
करता है। राजेन्द्र! वहाँसे विष्णुलोककी गति प्रदान
करनेवाले वराहतीर्थ नामसे प्रसिद्ध तीर्थमें जाना चाहिये,
जहाँ जनार्दनने सिद्धि प्राप्त की थी। राजेन्द्र! तदनन्तर
श्रेष्ठ चन्द्रतीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ विशेषरूपसे पौर्णमासीको
स्नान करना चाहिये। वहाँ स्नानमात्र करनेवाला व्यक्ति
चन्द्रलोकमें प्रतिष्ठा प्रात करता है। राजेन्द्र | इसके पश्चात्
अत्युत्तम कन्यातीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ शुक्लपक्षकी
तृतीया तिथिको स्नान करना चाहिये। वहाँ स्नानमात्र
करनेसे व्यक्ति पृथ्वीमें एकमात्र सम्राट् होता है। तदनन्तर
सभी देवताओंसे वन्दित देवतीर्थमें जाना चाहिये। राजेन्द्र
वहाँ स्नान करनेसे देवताओंके साथ आनन्द (-के
अनुभवका अवसर) प्राप्त होता है॥ १२--१६॥
राजेन्द्र! तदनन्तर श्रेष्ठ शिखितीर्थमें जाना चाहिये।
वहाँ जो कुछ दान दिया जाता है, वह सब करोड़
गुना फलवाला हो जाता है। राजेन्द्र! शुभ पैतामह
तीर्थमें भी जाना चाहिये। वहाँ जो श्राद्ध किया जाता
है, वह अक्षय (फलवाला) हो जाता है। सावित्रीतीर्थमें
पहुँचकर जो प्राणोंका परित्याग करता है, वह सभी
पापोंको धोकर ब्रह्मलोकमें महिमा प्राप्त करता है। वहीँ
मनोहर नामक परम सुन्दर तीर्थ है। राजन्! वहाँ
सस््नानकर मनुष्य देवताओंके साथ आनन्द प्राप्त करता
है। राजेन्द्र ! तदनन्तर उत्तम मानस तीर्थमें जाना चाहिये।
राजन! वहाँ स्नान करके मनुष्य रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त
करता है॥ १७--२१॥
* अध्याय ४0 *
स्वर्गबिन्दुं ततो गच्छेत् तीर्थ देवनमस्कृतम् ।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् दुर्गतिं नेव गच्छति॥ २२॥
अप्सरेशं ततो गच्छेत् स्नानं तत्र समाचरेत्।
क्रीडते नाकलोकस्थो हाप्सरोभि: स मोदते॥ २३॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र भारभूतिमनुत्तमम्।
उपोषितो<र्चयेदीशं रुद्रलोके महीयते।
अस्मिस्तीर्थ मृतो राजन् गाणपत्यमवाप्नुयात्॥ २४॥
कार्तिके मासि देवेशमर्चयेत् पार्वतीपतिम्।
अश्वमेधात् दशगुणं प्रवदन््ति मनीषिण:॥ २५॥
वृषभं य:ः प्रयच्छेत तत्र कुन्देन्दुसप्रभम्।
वृषयुक्तेन यानेन रुद्रलोक॑ स गच्छति॥ २६॥
एतत् तीर्थ समासाद्य यस्तु प्राणान् परित्यजेत् ।
सर्वपापविशुद्धात्मा रुद्लोक॑ स गच्छति॥ २७॥
जलप्रवेशं य: कुर्यात् तस्मिस्तीर्थ नराधिप।
हंसयुक्तेन यानेन स्वर्गलोक॑ स गच्छति॥ २८ ॥
एरण्ड्या नर्मदायास्तु संगमं लोकविश्रुतम्।
तत्र तीर्थ महापुण्यं सर्वपापप्रणाशनम्॥ २९॥
उपवासपरो भूत्वा नित्यं ब्रतपरायण:।
तत्र स्नात्वा तु राजेन्द्र मुच्यते ब्रह्महत्यया।॥| ३०॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र नर्मदोदधिसंगमम्।
जमदग्निरिति ख्यातः सिद्धो यत्र जनार्दन:॥ ३१॥
तत्र स्नात्वा नरो राजन् नर्मदोदधिसंगमे।
त्रिगुणं चाश्वमेधस्य फल ॑ प्राप्नोति मानव: ॥ ३२॥
ततो गच्छेत राजेन्द्र पिड्जलेश्वरमुत्तमम्।
तत्र स्नात्वा नरो राजन् रुद्रलोके महीयते॥ ३३॥
तत्रोपवासं यः कृत्वा पश्येत विमलेश्वरम्।
सप्तजन्मकृतं पापं हित्वा याति शिवालयम्॥ ३४॥
डे
तदुपरान्त देवताओंसे नमस्कृत स्वर्गबिन्दु नामक
तीर्थमें जाना चाहिये। राजन्! वहाँ स्नान करनेसे
मनुष्यकी दुर्गति नहीं होती। इसके बाद अप्सरेश-तीर्थमें
जाकर वहाँ स्नान करना चाहिये। इससे वह स्वर्गलोकमें
निवास करते हुए क्रीड़ा करता है और अप्सराओंके
साथ आनन्दित होता है॥ २२-२३॥
राजेन्द्र! तदनन्तर उत्तम भारभूति नामक तीथर्थमें
जाना चाहिये। वहाँ उपवास करते हुए ईश्वरकी
आराधना करनेसे रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
राजन्! इस तीर्थमें मरनेवाला (शिवलोकमें) गाणपत्य-
पद प्राप्त करता है। (यहाँ) कार्तिक मासमें पार्वतीपति
देवताओंके ईश शंकरकी पूजा करनी चाहिये। इसका
फल मनीषी लोग अश्वमेधके फलसे भी दस गुना
अधिक बताते हैं। जो वहाँ कुन्दपुष्प तथा इन्दु
(चन्द्रमा)-के समान (श्वेत) वर्णवाले वृषभका दान
करता है, वह वृषयुक्त विमानसे रुद्रलोकमें जाता है।
इस तीर्थमें पहुँचकर जो प्राणोंका परित्याग करता है,
वह सभी पापोंसे मुक्त हो विशुद्ध आत्मावाला होकर
रुद्रलोकमें जाता है। नराधिप! इस तीर्थमें जो जलमें
प्रवेश (-कर प्राणत्याग) करता है, वह हंसयुक्त
विमानसे स्वर्गलोक जाता है॥ २४--२८॥
एरण्डी तथा नर्मदाका संगम विख्यात है। वहाँ
सभी पापोंको नष्ट करनेवाला महान पुण्यप्रद तीर्थ
है। राजेन्द्र! वहाँ स्नानकर उपवास करनेवाला तथा
नित्य ब्रतपरायण रहनेवाला व्यक्ति ब्रह्महत्या (-के
पाप)-से मुक्त हो जाता है। राजेन्द्र! तदनन्तर नर्मदा
और सागरके संगम-स्थलमें जाना चाहिये। जहाँ
जमदग्नि नामसे विख्यात जनार्दनको सिद्धि प्राप्त हुई
थी। राजन! वहाँ नर्मदा तथा सागरके संगममें स्नान
करनेसे मनुष्य अश्वमेधके फलका तिगुना फल प्राप्त
करता है॥ २९--३२॥
राजेन्द्र! तदुपरान्त उत्तम पिड्भलेश्वर तीर्थमें जाना
चाहिये। राजन्! वहाँ स्नान करके मनुष्य रुद्रलोकमें
प्रतिष्ठा प्रात करता है। वहाँ उपवास करके जो
विमलेश्वरका दर्शन करता है, वह सात जन्मोंमें किये
पापोंसे मुक्त होकर शिवलोकमें जाता है॥ ३३-३४॥
ड७४ * कूर्मपुराण *
ततो गच्छेत राजेन्द्र आलिकातीर्थमुत्तमम्। राजेन्द्र! वहाँसे उत्तम आलिका-तीर्थमें जाना चाहिये।
उपोष्य रजनीमेकां नियतो नियताशनः। इस तीर्थका माहात्म्य यह है कि यहाँ एक रात्रि उपवास
अस्य तीर्थस्य माहात्प्यान्मुच्यते ब्रह्महत्यया ॥ ३५॥ | करके संयत रहते हुए नियमपूर्वक सात्तिविक आहार करनेसे
ब्रह्महत्या (-के पाप)-से मुक्ति मिल जाती है॥ ३५॥
पाण्डव! संक्षेपमें मैंने प्रधान-प्रधान तीर्थोको
एतानि तब संक्षेपात् प्राधान्यात् कथितानि तु। बतलाया। विस्तारपूर्वक तीर्थोकी संख्याका वर्णन नहीं
नशकया विस्तराद वक्तुं संख्या तीर्थषु पाण्डब॥ ३६॥ | किया जा सकता॥३६॥
यह पवित्र तथा स्वच्छ जलवाली नर्मदा नदी तीनों
एथषा पवित्रा विमला नदी त्रैलोक्यविश्रुता। लोकोंमें विख्यात है। नर्मदा सभी नदियोंमें श्रेष्ठ है और
नर्मदा सरितां श्रेष्ठा महादेवस्थ वललभा॥ ३७॥ | महादेवको अत्यन्त प्रिय है। युधिष्ठिर! जो मनसे भी
नर्मदाका स्मरण करता है, वह सौ चान्द्रायण ब्रतोंसे भी
मनसा संस्मरेद्यस्तु नर्मदां वै युधिष्ठिर। अधिक 20208 न संशय ४ है। 2 लक
चान्द्रायणशतं साग्रं “णाय- यह कहना श्रद्धासे रहित तथा घोर नास्तिकताका
चान्द्रायणशतं साग्रं लभते नात्र संशय: ॥ ३८ ॥ आजम लेनेवाल गहुष- भोज नरक गिरते है इसलिये
ऐसे पुरुषोंको नरकसे बचनेके लिये नर्मदाका दर्शन-
सेवन करना चाहिये) । इसी कारण स्वयं देव महेश्वर
हम लोगोंको प्रेरणा देनेके लिये नित्य नर्मदाका सेवन
नर्मदां आल मर करते हैं, अत: इस पवित्र नदीको ब्रह्महत्या-जैसे पापोंको
नर्मदां सेवते नित्यं स्वयं देवो महेश्वर:। दूर करनेवाली समझना चाहिये (तथा पूर्ण निष्ठाके साथ
तेन पुण्या नदी ज्ञेया ब्रह्महत्यापहारिणी॥ ४०॥ | इसका दर्शन, सेवन अवश्य करना चाहिये) ॥ ३७--४०॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्धां संहितायामुपारिविभागे चत्वारिशोउध्याय: ॥ ४० ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें चालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥४०॥
अश्रद्धधाना: पुरुषा नास्तिक्यं घोरमाश्रिता: ।
पतन्ति नरके घोरे इत्याह परमेश्वर:॥ ३९॥
एकतालीसवाँ अध्याय
तीर्थमाहात्म्य-प्रकरणमें नैमिषारण्य तथा जप्येश्वर-तीर्थकी महिमा, जप्येश्चर-तीर्थमें महर्षि
शिलादके पुत्र नन्दीकी तपस्या तथा उनके गणाधिपति होनेका आख्यान
सूत उवाच सूतजीने कहा--तीनों लोकोंमें विख्यात यह
* औलोक्यबिख्यातं उत्तम नैमिष-तीर्थ महादेवको प्रिय लगनेवाला तथा
ड्दु तीर्थ नैमिशमुत्तमम। महापातकोंको नष्ट करनेवाला है। द्विजोत्तमो! ब्रह्माने
महादेवप्रियकरं महापातकनाशनम्॥ १॥ | _स नैमिष-तीर्थकी संष्टि उन परमेह्ीः (बह्मनिष्ठ)
महादेवं॑ दिदवृक्षूणामृषीणां परमेष्ठिनाम्। ऋषियोंके लिये की है जो महादेवका दर्शन करनेकी
ब्रह्मणा निर्मितं स्थान तपस्तप्तुं द्विजोत्तमा:॥ २॥ | इच्छासे तपस्या करना चाहते हैं॥१-२॥
मरीचयोउत्रयो विप्रा वसिष्ठा: क्रतवस्तथा। ब्राह्मणो ! प्राचीन कालमें मरीचि, अत्रि, वसिष्ठ,
भूगवोउड्लिरसः पूर्वा ब्रह्माणं कमलोद्धवम्॥ ३॥ | ऋतु, भगु तथा अंगिराके वंशमें उत्पन्न ऋषियोंने सभी
प्रकारका वर देनेवाले, कमलसे उत्पन्न चतुर्मूर्ति, चतुर्मुख,
समेत्य सर्ववरदं चतुर्मूर्ति चतुर्मुखम्। अच्युत, विश्वकर्मा ब्रह्मके पास जाकर प्रणामकर उनसे
पृच्छन्ति प्रणिपत्यैनं विश्वकर्माणमच्युतम्॥ ४॥ | पूछा-- ॥ ३-४॥
* अध्याय ४५ *
घट्कुलीया ऊचु:
भगवन् देवमीशानं भर्गमेक॑ कपर्दिनम्।
केनोपायेन पश्यामो ब्रूहि देवनमस्कृतम्॥ ५ ॥
ब्रह्मोवाच
सत्र॑ सहस्त्रमासध्व॑ वाड्मनोदोषवर्जिता: ।
देशं च वः प्रवक्ष्यामि यस्मिन् देशे चरिष्यथ॥ ६ ॥
उक्त्वा मनोमयं चक्र स सृधट्ठा तानुवाच ह।
सक्षिप्तमेतन्मया चक्रमनुत्रजत मा चिरम्।
यत्रास्य नेमि: शीर्येत स देश: पुरुषर्षभा:॥ ७ ॥
ततो मुमोच तच्चक्रं ते च तत्समनुव्रजन्।
तस्य वे ब्रजतः क्षिप्रं यत्र नेमिरशीर्यत।
नेमिशं तत्स्मृतं नाम्ना पुण्यं सर्वत्र पूजितम्॥ ८ ॥
सिद्धचारणसंकीर्ण यक्षगन्धर्वसेवितम्।
स्थान भगवतः शम्भोरेतन्नैमिशमुत्तमम्॥ ९ ॥
अन्न देवा: सगन्धर्वा: सयक्षोरगराक्षसा: |
तपस्तप्त्वा पुरा देवा लेभिरे प्रवरान् वरान्॥ १०॥
इमं देशं समाश्रित्य षघट्कुलीया: समाहिता: ।
सत्रेणाराध्य देवेशं दृष्टवन्तो महेश्वरम्॥ ११॥
अत्र दानं तपस्तप्तं स्नान जप्यादिकं च यत्।
एकेक॑ पावयेत् पापं सप्तजन्मकृतं द्विजा:॥ १२॥
अत्र पूर्व स भगवानृषीणां सत्रमासताम्।
प्रोवाच वायुर्ब्रह्माण्डं पुराणं ब्रह्ाभाषितम्॥ १३॥
अन्न देवो महादेवो रुद्राण्या किल विश्वकृत्।
रमतेउद्यापि भगवान् प्रमथे: परिवारितः॥ १४॥
अन्न प्राणान् परित्यज्य नियमेन द्विजातय: ।
ब्रह्मलोक॑ गमिष्यन्ति यत्र गत्वा न जायते॥ १५॥
४9५७
घट्कुलोत्पन्न ऋषियोंने कहा--- भगवन्! यह बतलायें
कि हम किस उपायसे देवताओंद्वारा नमस्कृत, अद्वितीय
तेजस्वी कपर्दी ईशानदेवका दर्शन करें॥५॥
ब्रह्माजी बोले--आप लोग वाणी तथा मनके
दोषोंसे रहित होकर हजार यज्ञविशेष-सत्र सम्पन्न करें।
मैं वह देश आप लोगोंको बतलाता हूँ, जहाँ आप
यज्ञ करेंगे। ऐसा कहकर उन (ब्रह्मा)-ने एक मनोमय
चक्रका निर्माण करके उन (ऋषियों )-से कहा- मेरे
द्वारा छोड़े गये इस चक्रका आप लोग अनुगमन करें,
विलम्ब न करें। श्रेष्ठ पुरुषों! जहाँ इस (चक्र)-की
नेमि शीर्ण होगी (गिरकर टूटेगी) वही स्थान तपस्या
एवं यज्ञ करनेका शुभ स्थान होगा॥ ६-७॥
तब उन्होंने (ब्रह्माने) उस (मनोमय) चक्रको छोड़ा
और वे ऋषि उस चक्रके पीछे-पीछे चलने लगे।
शीघ्रतापूर्वक जा रहे उस चक्रकी नेमि जहाँ (शीर्ण हुई)
गिरी, वह स्थान नैमिश नामसे प्रसिद्ध हुआ और पवित्र
तथा सर्वत्र पूजित हुआ। सिद्धों तथा चारणोंसे परिपूर्ण,
यक्षों-गन्धवोसे सेवित यह उत्तम नैमिश नामक स्थान
भगवान् शम्भुका स्थान है। प्राचीन कालमें यहाँपर
तपस्या करके देवताओं, गन्धर्वों, यक्षों, नागों और
राक्षसोंने श्रेष्ठ वरोंको प्रात किया था॥८--१०॥
(मरीचि, अत्रि, वसिष्ठ, क्रतु, भुगु तथा अंगिरा--
इन) छ: कुलोंके ऋषियोंने इस देशमें रहते हुए
एकाग्रतापूर्वक यज्ञानुष्ठानद्वारा देवेशकी आराधना कर
महेश्वरका दर्शन किया था। द्विजो! यहाँ किया गया
दान, तप, स्नान तथा जप आदि कोई भी शुभ कर्म
अकेला ही सात जन््मोंमें किये पापको नष्ट कर उसे
पवित्र बना देता है। प्राचीन कालमें इसी तीर्थमें
भगवान् वायुने यज्ञ करनेवाले ऋषियोंको ब्रह्माजीद्वारा
कहे गये ब्रह्माण्डपुराणको सुनाया था। आज भी यहाँ
विश्वकी सृष्टि करनेवाले भगवान् महादेव प्रमथगणोंसे
घिरे रहकर रुद्राणीके साथ रमण करते हैं। (अपनी
अन्तिम अवस्थामें) नियमपूर्वक यहाँ निवासकर
प्राणोंका परित्याग करनेवाले द्विजाति लोग उस
ब्रह्मलोकमें जाते हैं, जहाँ जाकर पुनः जन्म नहीं
लेना पड़ता॥ ११--१५॥
ड७६
अन्यच्च॒तीर्थप्रवरं जाप्येश्वरमिति श्रुतम् ।
जजाप रुद्रमनिशं यत्र नन्दी महागणः:॥ १६॥
प्रीतस्तस्थ महादेवो देव्या सह पिनाकधृक् ।
ददावात्मसमानत्व॑ मृत्युवज्ञममेव च॥ १७॥
अभूदृषि: स धर्मात्मा शिलादो नाम धर्मवित्।
आराधयन्महादेवं पुत्रार्थ वृषभध्वजम्॥ १८॥
तस्य वर्षसहस्त्रान्ते तप्यमानस्य विश्वकृत्।
शर्व: सोमो गणवुतो वरदोउस्मीत्यभाषत॥ १९॥
स वतन्रे वरमीशानं वरेण्यं गिरिजापतिम्।
अयोनिजं मृत्युहीनं देहि पुत्र॑ं त्वया समम्॥ २०॥
तथास्त्वित्याह भगवान् देव्या सह महेश्वर: ।
पश्यतस्तस्य॒विदप्रर्षेरन्तर्धाने गतो हर:॥ २१॥
ततो यियक्षु: स्वां भूमिं शिलादो धर्मवित्तम:।
चकर्ष लाडुलेनोरबवी भित्त्वादश्यत शोभन: ॥ २२॥
संवर्तकानलप्रख्य: कुमार: प्रहसन्निव।
रूपलावण्यसम्पन्नस्तेजसा भासयन् दिश:॥ २३॥
कुमारतुल्यो5प्रतिमो मेघगम्भीरया गिरा।
शिलादं तात तातेति प्राह नन्दी पुनः पुनः ॥ २४॥
तं दृष्टः नन्दनं जातं शिलादः परिषस्वजे।
मुनिभ्यो दर्शयामास ये तदाश्रमवासिन: ॥ २५॥
जातकर्मादिका: सर्वा: क्रियास्तस्य चकार ह।
उपनीय यथाशास्त्रं वेदमध्यापयत् सुतम्॥ २६॥
अधीतवेदो भगवान् ननन््दी मतिमनुत्तमाम्।
चक्रे महेश्वरं द्रष्ट जेष्ये मृत्युमिति प्रभुम्॥ २७॥
स गत्वा सरितं पुण्यामेकाग्रश्रद्धयान्वित: ।
जजाप रुद्रमनिशं महेशासक्तमानसः ॥ २८ ॥
तस्य कोटयां तु पूर्णायां शंकरो भक्तवत्सल: ।
आगत्य साम्ब: सगणो वरदोउस्मीत्युवाच ह॥ २९॥
पु कूर्मपुराण हे
एक दूसरा तीथ्थोमें श्रेष्ठ तीर्थ है, जो जाप्येश्वर नामसे
प्रसिद्ध है। जहाँ महान् गण नन््दीने निरन्तर रुद्रका जप
किया था और पिनाक धारण करनेवाले रुद्र-महादेव
देवीके साथ उनपर प्रसन्न हुए और उन्होंने उन्हें
(नन्दीको) अपनी समानता तथा मृत्युसे बचनेका वर
प्रदान किया था॥ १६-१७॥
(इन नन्दीके प्रादुर्भावकी कथा इस प्रकार है--)
शिलाद नामके एक धर्मज्ञ धर्मात्मा ऋषि हुए, उन्होंने
पुत्रप्राप्तकि लिये वृषभध्वज महादेवकी आराधना को।
तप करते हुए उन्होंने जब हजार वर्षका समय व्यतीत
कर दिया, तब गणोंसे आवृत विश्वकर्ता सोम शर्वने
“मैं बर दूँगा' इस प्रकार कहा। उन्होंने (शिलाद ऋषिने)
वरेण्य गिरिजापति ईशानसे वर माँगा कि मुझे आप मृत्युसे
रहित अपने ही समान अयोनिज पुत्र प्रदान करें। देवीके
साथ भगवान् महेश्वरने--'ऐसा ही हो' कहा और उन
विप्रर्षिके देखते-देखते वे अन्तर्धान हो गये॥ १८--२१॥
तदनन्तर धर्मज्ञ शिलादने अपनी भूमिमें यज्ञ करनेकी
इच्छासे हलद्वारा पृथ्वीको जोता। पृथ्वीका भेदन करनेपर
उन्होंने संवर्तक नामक अग्निके समान, रूप तथा
लावण्यसे सम्पन्न और अपने तेजसे दिशाओंको प्रकाशित
करते हुए, हँसते हुए एक सुन्दर कुमारको देखा। कुमार
(कार्तिकिय)/-के समान उन अतुलनीय नन््दी (नामक
कुमार)-ने मेघ-सदृश गम्भीर वाणीमें शिलादको बार-
बार 'तात' 'तात' इस प्रकारसे कहा। आविर्भूत हुए
उस पुत्रको देखकर शिलादने उसका आलिंगन किया
और उस आमश्रममें रहनेवाले जो मुनि थे, उन्हें भी
उसे दिखाया॥ २२--२५॥
अनन्तर उन्होंने (शिलाद ऋषिने) उन नन्दीके जातकर्म
आदि सभी संस्कार किये और शास्त्रविधिसे उपनयन-
संस्कार कर वेद पढ़ाया। वेदका अध्ययन कर भगवान्
नन्दीने यह श्रेष्ठ विचार किया कि प्रभु महेश्वरका दर्शन
कर मैं मृत्युको जीतूँगा। उन्होंने पवित्र नदीके तटपर जाकर
एकाग्र तथा श्रद्धायुक्त होकर महेश्वरमें अपने मनको
आसक्तकर निरन्तर रुद्रका जप करना प्रारम्भ कर दिया।
उनके द्वारा एक करोड़ जपकी संख्या पूर्ण होनेपर
भक्तवत्सल शंकरने अपने गणों तथा पार्वतीके साथ वहाँ
आकर “मैं वर दूँगा' इस प्रकार कहा॥ २६-२९॥
* अध्याय ४९२ *
स वत्रे पुनरेवाहं जपेयं कोटिमीश्वरम्।
तावदायुर्महादेव देहीति वरमीश्वर॥ ३०॥
एवमस्त्विति सम्प्रोच्य देवो5प्यन्तरधीयत।
जजाप कोटिं भगवान् भूयस्तद्गतमानस: ॥ ३१॥
द्वितीयायां च॒ कोट्यां वै सम्पूर्णायां वृषध्वज: ।
आगत्य वरदोअस्मीति प्राह भूतगणैर्वृत:॥ ३२॥
तृतीयां जप्तुमिच्छामि कोटि भूयो5पि शंकर।
तथास्त्वित्याह विश्वात्मा देवो5प्यन्तधीयत ॥ ३३॥
कोटिबत्रये5थ सम्पूर्णे देव: प्रीतमना भृशम्।
आगत्य वरदोउस्मीति प्राह भूतगणैर्वृत:॥ ३४॥
जपेय॑ कोटिमन्यां वै भूयोडपि तव तेजसा।
इत्युक्ते भगवानाह न जप्तव्यं त्वया पुनः॥ ३५॥
अमरो जरया त्यक्तो मम पाशएवगत: सदा।
महागणपतिर्देव्या: पुत्रो भव महेश्वर:॥ ३६॥
योगीश्वरो योगनेता गणानामीश्वरेश्वर: ।
सर्वलोकाधिप: श्रीमान् सर्वज्ञो मदबलान्वित:॥ ३७॥
ज्ञानं तन््मामकं दिव्यं हस्तामलकवत् तव।
आशभूतसम्प्लवस्थायी ततो यास्यसि मत्यदम्॥ ३८ ॥
एतदुक्त्वा महादेवो गणानाहूय शंकरः।
अभिषेकेण युक्तेन नन्दीश्वरमयोजयत्ू॥ ३९॥
उद्दाहयामास च तं स्वयमेव पिनाकधृक् ।
मरुतां च शुभां कन्यां सुयशेति च विश्रुताम्॥ ४० ॥
एतज्प्येश्वरं स्थानं देवदेवस्थ शूलिन:।
यत्र तत्र मृतो मर्त्यों रुद्रलोके महीयते॥ ४१॥
है.
नन््दीने वर माँगते हुए कहा--ईश्वर ! मैं पुन: ईश्वरका
एक करोड़ जप करना चाहता हूँ, अत: महादेव! आप
मुझे उतनी ही लम्बी आयु प्रदान करें। 'ऐसा ही हो!
यह कहकर वे देव अन्तर्धान हो गये। भगवान् नन््दीने
पुनः उनमें मन लगाते हुए एक करोड़ जप किया।
दो करोड़ जप पूरा होनेपर पुनः भूतगणोंसे आवृत
वृषध्वज (शंकर)-ने आकर “मैं वर प्रदान करूँगा!
ऐसा कहा। (तब नन्दीने कहा--) प्रभु शंकर! मैं पुन:
तीसरी बार एक करोड़ जप करना चाहता हूँ। 'ऐसा
ही हो” कहकर विश्वात्मा देव पुनः अन्तर्धान हो गये।
तीन करोड़ जप पूरा होनेपर भूतगणोंसे आवृत, अत्यन्त
प्रसन्न-मन, देव (शंकर)-ने वहाँ आकर कहा--' मैं वर
प्रदान करूँगा।” (इसपर नन्दीने कहा--) मैं पुन: आपके
तेजसे सम्पन्न होकर करोड़की संख्यामें जप करना
चाहता हूँ। ऐसा कहे जानेपर भगवान्ने कहा--अब तुम्हें
आगे जप नहीं करना है॥३०--३५॥
तुम जरासे (वृद्धावस्थासे) मुक्त और अमर होकर
सदा मेरे समीपमें स्थित रहोगे। तुम देवी (पार्वती)-
के पुत्र, महागणपति (मेरे गणके अधिपति) एवं महेश्वर
होओगे! तुम योगीश्वर, योगनेता, गणोंके ईश्वरोंके भी
ईश्वर, सभी लोकोंके अधिपति, श्रीमान् सर्वज्ञ और
मेरे बलसे सम्पन्न रहोगे। मेरा दिव्य ज्ञान तुम्हें हस्तामलकवत्
प्राप्त रहेगा। तुम महाप्रलयपर्यन्त (गणेश्वर एवं नन्दीके
रूपमें) स्थित रहोगे और उसके बाद मेरे पदको प्राप्त
करोगे ॥ ३६--३८ ॥
ऐसा कहकर महादेव शंकरने गणोंको बुलाकर उन
नन्दीश्वरको गणोंके अधिपतिके पदपर अत्यन्त उपयुक्त
अभिषेक-विधिसे नियुक्त कर दिया। पिनाक धारण
करनेवाले शंकरने स्वयं ही मरुद्गणोंकी शुभ कन्या
जो 'सुयशा' इस नामसे विख्यात थी, उसके साथ इनका
विवाह कर दिया॥ ३९-४० ॥
यह जप्येश्वर नामक स्थान देवाधिदेव शूली शंकरका
स्थान है। यहाँ जहाँ कहीं भी शरीर त्याग करनेवाला
रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्रात करता है॥४१॥
डति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहरत्रणां संहितायामुपरिविभागे एकचत्यारिशोउध्याय: ॥ ४९ ॥
इस प्रकार छः हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें एकतालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ४१॥
४८
* कूर्मपुराण *
बयालीसवाँ अध्याय
विविध शैव-तीर्थोंके माहात्म्यका निरूपण, तीर्थोके अधिकारी
तथा तीर्थ-माहात्म्यका उपसंहार
सूत उवाच
अन्यच्च तीर्थप्रवरं जप्येश्वरसमीपत: ।
नाम्ना पञ्जञनदं पुण्यं सर्वपापप्रणाशनम्॥ १ ॥
त्रिरात्रोपोषितस्तत्र पूजयित्वा महेश्वरम्।
सर्वपापविशुद्धात्मा रुद्रलोके महीयते॥ २ ॥
अन्यच्च तीर्थप्रवर॑ं शंकरस्यामितौजस: ।
महाभेरवमित्युक्ते महापातकनाशनम्॥ ३ ॥
तीर्थानां च परं तीर्थ वितस्ता परमा नदी।
सर्वपापहरा पुण्या स्वयमेव गिरीन्द्रजा॥ ४ ॥
तीर्थ पञ्ञतपं नाम शम्भोरमिततेजस:।
यत्र देवादिदेवेन चक्रार्थ पूजितो भव:॥ ५ ॥
पिण्डदानादिकं तत्र प्रेत्यानन्तफलप्रदम ।
मृतस्तत्रापि नियमाद् ब्रहालोके महीयते॥
कायावरोहणं नाम महादेवालयं शुभम्।
यत्र माहेश्वरा धर्मा मुनिभिः सम्प्रवर्तिता:॥ ७ ॥
श्राद्धं दानं तपो होम उपवासस्तथाक्षय: ।
परित्यजति यः प्राणान् रुद्रलोक॑ स गच्छति॥ ८ ॥
अन्यच्च तीर्थप्रवरं कन्यातीर्थमिति श्रुतम्।
तत्र गत्वा त्यजेत् प्राणॉललोकान् प्राणोति शाश्रतान्॥ ९ ॥
जामदग्न्यस्य तु शुभं रामस्याक्लिष्टकर्मण: ।
तत्र स्तात्वा तीर्थवरे गोसहसत्रफलं लभेत्॥ १०॥
महाकालमिति ख्यातं तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम्।
गत्वा प्राणान् परित्यज्य गाणपत्यमवाप्नुयात्॥ ११॥
गुह्माद् गुह्मतमं तीर्थ नकुलीश्वरमुत्तमम्।
तत्र संनिहित: श्रीमान् भगवान् नकुलीश्वर:॥ १२॥
सूतजीने कहा--जप्येश्वरके समीपमें ही पञ्चनद
नामका एक दूसरा श्रेष्ठ तीर्थ है, जो पवित्र तथा
सभी पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ तीन रात्रिपर्यन्त
उपवासकर महेश्वरकी पूजा करनेसे मनुष्य सभी पापोंसे
मुक्त हो जाता है तथा विशुद्ध आत्मावाला होकर
रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। अमित तेजस्वी शंकरका
एक दूसरा श्रेष्ठ तीर्थ है जो महाभेरव नामसे कहा
गया है, वह महापातकोंका नाश करनेवाला है। वितस्ता
नामक श्रेष्ठ नदी तीर्थोमें परम तीर्थ है, वह सभी
पापोंको हरनेवाली, पवित्र और साक्षात् पार्वतीरूप
ही है॥ १--४॥
अमित तेजस्वी शम्भुका पञ्चतप नामका एक तीर्थ
है, जहाँ देवोंके आदिदेव (विष्णु)-ने चक्र-प्राप्तिके
लिये शंकरकी पूजा की थी। वहाँ (पञ्चनद तीर्थमें)
किया गया पिण्डदान आदि कर्म परलोकमें अनन्त फल
प्रदान करनेवाला होता है। वहाँ संकल्पपूर्वक नियमसे
निवास करते हुए यथासमय प्राण-त्याग करनेवाला
ब्रह्मलोकमें महिमा प्राप्त करता है॥ ५-६॥
कायावरोहण नामक महादेवका एक शुभ स्थान
(तीर्थ) है, जहाँ मुनियोंने माहेश्वर धर्मोका प्रवर्तन
किया था। वहाँ किया गया श्राद्ध , दान, तप, होम
तथा उपवास अक्षय (फल प्रदान करनेवाला) होता
है। वहाँ जो प्राण परित्याग करता है, वह रुद्रलोकमें
जाता है। एक दूसरा श्रेष्ठ तीर्थ है, जो कन्यातीर्थ
इस नामसे विख्यात है। वहाँ जाकर प्राणोंका परित्याग
करनेसे शाश्रत लोकोंकी प्राप्ति होती है। जमदग्निके
पुत्र अक्लिष्टकर्मा परशुरामका भी एक शुभ तीर्थ है।
उस तीर्थ-श्रेष्ठमें स्नान करनेसे हजार गोदानका फल
प्राप्त होता है। महाकाल इस नामसे विख्यात तीर्थ तीनों
लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर प्राणोंका परित्याग
करनेसे गाणपत्य-पद प्राप्त होता है। श्रेष्ठ नकुलीश्वर
तीर्थ गुह्यस्थानोंमें भी अत्यन्त गुह्य है। वहाँ श्रीमान्
भगवान् नकुलीश्वर विराजमान रहते हैं॥७--१२॥
* अध्याय ४२ *
हिमवच्छिखरे रम्ये गड्ढाद्वारे सुशोभने।
देव्या सह महादेवो नित्य शिष्यैश्व संवृतः ॥ १३॥
तत्र स्नात्वा महादेवं पूजयित्वा वृषध्वजम्।
सर्वपापैर्विमुच्येत मृतस्तज्ज्ञानमाप्नुयात्॥ १४॥
अन्यच्च देवदेवस्य स्थान पुण्यतमं शुभम्।
भीमेश्वरमिति ख्यातं गत्वा मुझति पातकम्॥ १५॥
तथान्यच्चण्डवेगाया: सम्भेदः पापनाशन: ।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च मुच्यते ब्रह्महत्यया ॥ १६॥
सर्वेषामपि चैतेषां तीर्थानां परमा पुरी।
नाम्नला वाराणसी दिव्या कोटिकोट्ययुताधिका॥ १७॥
तस्याः पुरस्तान्माहात्म्यं भाषितं वो मया त्विह।
नान्यत्र लभ्यते मुक्तियोगिनाप्येकजन्मना॥ १८ ॥
एते प्राधान्यत: प्रोक्ता देशा: पापहरा नृणाम्।
गत्वा संक्षालयेत् पाप॑ जन्मान्तरशतै: कृतम्॥ १९॥
यः स्वधर्मान् परित्यज्य तीर्थसेवां करोति हि।
न तस्य फलते तीर्थमिह लोके परत्र च॥ २०॥
प्रायश्वित्ती च विधुरस्तथा पापचरो गृही।
प्रकुर्यात् तीर्थसंसेवां ये चान्ये तादूशा जना: ॥ २१॥
सहाग्निर्वा सपत्नीको गच्छेत् तीर्थानि यत्नतः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो यथोक्तां गतिमाप्नुयात्॥ २२॥
ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य कुर्याद वा तीर्थसेवनम् ।
विधाय तवृत्तिं पुत्राणां भार्या तेषु निधाय च॥ २३॥
४७९
हिमालयके रमणीय शिखरपर स्थित अत्यन्त
सुन्दर गड्जाद्वारमें शिष्योंसे घिरे हुए महादेव देवीके
साथ नित्य निवास करते हैं। वहाँ सनानकर वृषध्वज
महादेवकी पूजा करनेसे सभी पापोंसे मुक्ति हो
जाती है और मृत्युके बाद परम ज्ञान प्राप्त होता
है॥ १३-१४॥
देवाधिदेव (शंकर)-का एक दूसरा शुभ तथा
पवित्रतम स्थान है जो भीमेश्वर इस नामसे विख्यात
है। वहाँ जानेसे व्यक्ति पापसे मुक्त हो जाता है।
इसी प्रकार चण्डवेगा नदीका उदगम-स्थान भी
पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करने तथा
जलका पान करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्यासे मुक्त हो
जाता है॥ १५-१६॥
इन सभी तीथोंमें भी श्रेष्ठ तथा दिव्य वाराणसी
नामकी पुरी हजारों कोटिगुना अधिक फलप्रदा है।
पूर्वमें मैंने आप लोगोंसे उसके माहात्म्यका वर्णन
किया था। योगीको भी (वाराणसीके अतिरिक्त) अन्यत्र
एक जन्ममें मुक्ति नहीं मिलती॥ १७-१८॥
मनुष्योंके पापोंको हरनेवाले ये प्रधान-प्रधान देश
(तीर्थ) बतलाये गये हैं। यहाँ जाकर सैकड़ों
जन्मोंमें किये पापोंका प्रक्षालल करना चाहिये। जो
अपने धर्मोंका परित्यागकर तीर्थोका सेवन करता है,
उसके लिये तीर्थ न इस लोकमें फलदायी होते
हैं न परलोकमें॥ १९-२० ॥
प्रायश्चित्ती, पत्नीसे रहित विधुर पुरुष तथा जिनके
द्वारा पाप हो गया है ऐसे गृहस्थ एवं इसी प्रकारके
जो अन्य लोग हैं, उन्हें (पश्चात्तापपूर्वक यथाशास्त्र)
तीर्थोका सेवन करना चाहिये। प्रयलपूर्वक अग्नि*
अथवा पत्नीके साथ तीर्थोमें जाना चाहिये। ऐसा करनेसे
मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त होकर यथोक््त गति (उत्तम
गति) प्राप्त करता है। अथवा तीनों ऋणोंसे मुक्त
होनेके बाद पुत्रोंके लिये जीविका-सम्बन्धी वृत्तिकी
व्यवस्थाकर और अपनी पलीको उन्हें सौंपकर तीर्थका
सेवन करना चाहिये॥ २१--२३॥
* अग्निहोत्री वानप्रस्थ-आश्रम स्वीकारकर अपनी अग्नि तथा धर्मपतललीके साथ तीर्थमें निवास करता है।
४८० * 'कूर्मपुराण *
प्रायश्चित्तप्रसड़ेन तीर्थमाहात्म्यमीरितम् । प्रायश्चित्तके प्रसंगवश तीर्थोंके माहात्म्यका वर्णन
यः पठेच्छुणुयाद वापि मुच्यते सर्वपातकै: ॥ २४ ॥ | किया गया। इसे पढ़नेवाला अथवा सुननेवाला भी सभी
पातकोंसे मुक्त हो जाता है॥ २४॥
ड्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहर्त्रधां संहितायामुपरिविभागे द्विचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४२ ॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें बयालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ ४२॥
तेंतालीसवाँ अध्याय
चतुर्विध प्रलयका प्रतिपादन, नेमित्तिक प्रलयका विशेष वर्णन,
विष्णुद्वारा अपने माहात्म्यका निरूपण
सूत उवाच
एतदाकर्ण्य विज्ञानं नारायणमुखेरितम्।
कूर्मरूपधरं देवं पप्रच्छुरमुनय: प्रभुम॥ १॥
मुनय ऊचु:
कथिता भवता धर्मा मोक्षज्ञानं सविस्तरम्।
लोकानां सर्गविस्तारं वंशमन्वन्ताणि च॥ २॥
प्रतिसर्गमिदानीं नो वक्तुमईहसि माधव।
भूतानां भूतभव्येश यथा पूर्व त्वयोदितम्॥ ३॥
सूत उवाच
श्रुत्वा तेषां तदा वाक््यं भगवान् कूर्मरूपधृक् ।
व्याजहार महायोगी भूतानां प्रतिसंचरम्॥ ४॥
कूर्म उवाच
नित्यो नेमित्तिकश्चेव प्राकृतात्यन्तिकौ तथा।
चतुर्धायं पुराणेउ5स्मिन् प्रोच्यते प्रतिसंचर: ॥ ५॥
योजयं संदृश्यते नित्यं लोके भूतक्षयस्त्विह।
नित्य: संकीरतत्यते नाम्ना मुनिभिः प्रतिसंचर: ॥ ६॥
ब्राह्मो नैमित्तिको नाम कल्पान्ते यो भविष्यति।
त्रैलोक्यस्यास्थ कथित: प्रतिसर्गों मनीषिभि: ॥ ७॥
महदाद्यं विशेषान्तं यदा संयाति संक्षयम्।
प्राकृत: प्रतिसर्गो5यं प्रोच्यते कालचिन्तकै: ॥ ८ ॥
ज्ञानादात्यन्तिकः प्रोक्तो योगिनः परमात्मनि।
प्रलय: प्रतिसगों5रयं कालचिन्तापरेद्विजै: ॥ ९॥
सूतजीने कहा--नारायणके मुखसे कहे गये इस
विशिष्ट ज्ञानको सुनकर मुनियोंने कूर्मरूप धारण करनेवाले
प्रभु देवसे पूछा--॥ १॥
मुनियोंने कहा--(सूतजी!) आपने विस्तारपूर्वक
धर्म, मोक्ष, ज्ञान, लोकोंकी सृष्टिके विस्तार, वंश और
मन्वन्तरोंको हमें बतलाया। माधव! भूतभव्येश! जैसा
आपने पूर्वमें (पुराण-लक्षणके प्रसंगसे प्रतिसर्गके विषयमें)
बतलाया है, तदनुसार अब हमें प्राणियोंके प्रतिसर्गके
विषयमें बतलायें॥ २-३ ॥
सूतजीने कहा--तब उनके उस वचनको सुनकर
कूर्मरूपधारी महायोगी भगवानने भूतोंके प्रतिसंचर अर्थात्
प्रलयका वर्णन किया॥४॥
कूर्म बोले--इस पुराणमें नित्य, नैमित्तिक, प्राकृत
तथा आत्यन्तिक--इस प्रकारसे चार प्रकारका प्रतिसंचर
(प्रलय) कहा गया है। लोकमें यहाँ जो प्राणियोंका
नित्य क्षय दिखलायी देता है, उसे मुनियोंने नित्य-
प्रलयके नामसे कहा है। कल्पान्तमें ब्रह्मा (की निद्रा)-
के निमित्तसे होनेवाले तीनों लोकोंके प्रतिसर्ग--प्रलयको
विद्वानोंने (नैमित्तिक प्रलय) कहा है। महत्तत्त्वसे लेकर
विशेषपर्यन्त समस्त तत्त्वोंका जो क्षय हो जाता है,
उसे कालचिन्तकोंने प्राकृत प्रतिसर्ग कहा है और
ज्ञानद्वारा परमात्मामें होनेवाले योगियोंके आत्यन्तिक
प्रलयको* कालचिन्तक द्विज आत्यन्तिक प्रतिसर्ग (प्रलय)
कहते हैं॥५--९॥
* यहाँ 'प्रलय' का तात्पर्य परमात्मतत्त्के साथ एकरूपतामें है।
* अध्याय ४३ *
आत्यन्तिकश्व कथित: प्रलयोच्तच्र ससाधन: ।
नेमित्तिकमिदानी व: कथयिष्ये समासतः ॥ १०॥
चतुर्यगसहस्त्रान्ते सम्प्राप्ते प्रतिसंचरे।
स्वात्मसंस्था: प्रजा: कर्तु प्रतिपेदे प्रजापति: ॥ ११॥
ततो भवत्यनावृष्टिस्तीत्रा सा शतवार्षिकी।
भूतक्षयकरी घोरा सर्वभूतक्षयंकरी॥ १२॥
ततो यान्यल्पसाराणि सत्त्वानि पृथिवीतले।
तानि चाग्रे प्रलीयन्ते भूमित्वमुपयान्ति च॥ १३॥
सप्तरश्मिरथो भूत्वा समुत्तिष्ठन् दिवाकरः ।
असहारश्मिर्भवति पिबन्नम्भो गर्भस्तिभि: ॥ १४॥
तस्य ते रश्मय: सप्त पिबन्त्यम्बु महार्णवे।
तेनाहारेण ता दीप्ताः सूर्या: सप्त भवन्त्युत॥ १५॥
ततस्ते रएमय: सप्त सूर्या भूत्वा चतुर्दिशम् |
चतुर्लोकमिदं सर्व दहन्ति शिखिनस्तथा॥ १६॥
व्याप्नुवन्तश्न ते विप्रास्तूर्ध्व चाधश्व रश्मिभि: ।
दीप्यन्ते भास्करा: सप्त युगान्ताग्निप्रतापिन: ॥ १७॥
ते सूर्या वारिणा दीप्ता बहुसाहस्त्ररश्मय: ।
खं समावृत्य तिष्ठन्ति निर्दहन्तो वसुंधराम्॥ १८॥
ततस्तेषां प्रतापेन दह्ामाना वसुंधरा।
साद्रिनद्यर्णवद्वीपा निस्नेहा समपद्यत॥ १९॥
दीप्ताभि: संतताभिश्च रश्मिभिवें समन्ततः ।
अधकश्चोर्ध्व॑ च लग्नाभिस्तिर्यक् चैव समावृतम्॥ २० ॥
सूर्याग्निना प्रमृष्टानां संसृष्टानां परस्परम्।
एकत्वमुपयातानामेकज्वालं भवत्युत॥ २१॥
सर्वलोकप्रणाशश्व सोउग्निर्भूत्वा सुकुण्डली।
चतुर्लोकमिदं सर्व निर्दहत्यात्मतेजसा॥ २२॥
४८ ९१
यहाँ साधनसहित आत्यन्तिक प्रलय अर्थात् मोक्षका
वर्णन किया गया है। अब मैं संक्षेपमें आप लोगोंको
नैमित्तिक प्रलयके विषयमें बतलाऊँगा॥ १०॥
एक हजार चतुर्युग (सत्य-त्रेता-द्वाप' तथा
कलियुग)-के अन्तमें प्रलयकाल उपस्थित होनेपर
प्रजापति समस्त प्रजाको आत्मस्थ करनेकी इच्छा करते
हैं। इसके बाद सौ वर्षोतक तीत्र अनावृष्टि होती है,
वह भूतों एवं सभी प्राणियोंका विनाश करनेवाली तथा
अत्यन्त भयंकर होती है। तदनन्तर भूमिपर जो अल्पसार
अर्थात् निर्बल प्राणी होते हैं, सबसे पहले उनका लय
होता है और वे भूमिमें मिल जाते हैं। तब सात
रश्मियोंवाले रथपर आरूढ़ होकर सूर्य उदित होते
हैं। उनकी किरणें असह्य हो जाती हैं, वे अपनी
किरणोंद्वारा जल पीने लगते हैं। उनकी वे सातों रश्मियाँ
महासमुद्रमें स्थित जलको पीती हैं। उस आहारसे उद्दीत्त
होकर वे (सात) रश्मियाँ पुनः सात सूर्य बन जाती
हैं। तदनन्तर सूर्यरूप वे सातों रश्मियाँ चारों दिशाओं
तथा सम्पूर्ण इस चतुर्लोकको अग्निके समान दग्ध
करने लगती हैं॥११--१६॥
ब्राह्मणो! प्रलयकालीन अग्निके तेजसे युक्त वे सातों
सूर्य अपनी-अपनी रश्मियोंके द्वारा ऊर्ध्व तथा अधोभागको
व्यापकर अतिशय उद्दीत्त हो जाते हैं। जलसे प्रदीप्त
अनेक सहस््र रश्मियोंवाले वे सूर्य आकाशको आवृतकर
स्थित रहते हैं और पृथिवीको जलाने लगते हैं। तदनन्तर
उनके तेजसे जलती हुई पृथ्वी पर्वतों, नदियों, समूद्रों
तथा द्वीपोंके साथ स्नेह (द्रवभाव)-से रहित हो जाती
है अर्थात् अत्यन्त सूख जाती है। सतत प्रदीत्त रहनेवाली
वे रश्मियाँ ऊपर-नीचे तथा आड़े-तिरछे सभी ओर
व्याप्त हो जाती हैं॥१७--२०॥
सूर्यरूप अग्निके द्वारा प्रकृष्टरूपसे शोधित और
परस्पर संसृष्ट संसारके समस्त पदार्थ एक ज्वालाके
रूपमें एकाकार हो जाते हैं। सभी लोकोंको नष्ट
करनेवाली वह सूर्यरूप अग्नि एक मण्डलके रूपमें
होकर अपने तेजसे इस सम्पूर्ण चतुलोकको दग्ध करने
लगती है॥२१-२२॥
४८२
ततः प्रलीने सर्वस्मिज्जड्रमे स्थावरे तथा।
निर्वक्षा निस्तृणा भूमिः कूर्मपृष्ठा प्रकाशते॥ २३॥
अम्बरीषमिवाभाति सर्वमापूरितं जगत्।
सर्वमेव तदर्चिर्भि: पूर्ण जाज्वल्यते पुनः॥ २४॥।
पाताले यानि सत्त्वानि महोदधिगतानि च।
ततस्तानि प्रलीयन्ते भूमित्वमुपयान्ति च॥ २५॥
द्वीपांश्व पर्वतांश्चेव वर्षाण्यथ महोदधीन्।
तान् सर्वान् भस्मसात् कृत्वा सप्तात्मा पावक: प्रभु: ॥ २६॥
समुद्रेभ्यो नदीभ्यश्व पातालेभ्यश्व सर्वश:।
'पिबननप: समिद्धोउग्नि: पृथिवीमाश्रितो ज्वलनू ॥ २७॥
ततः संवर्तक: शैलानतिक्रम्य महांस्तथा।
लोकान् दहति दीप्तात्मा रुद्रतेजोविजुम्भित: ॥ २८ ॥
स दग्ध्वा पृथिवीं देवो रसातलमशोषयत््।
अधस्तात् पृथिवीं दग्ध्वा दिवमूर्ध्व दहिष्यति॥ २९ ॥
योजनानां शतानीह सहस्त्राण्ययुतानि च।
उत्तिष्ठन्ति शिखास्तस्य वह्लेः संवर्तकस्य तु॥ ३० ॥
गन्धवर्च पिशाचांश्व सयक्षोरगराक्षसान्।
तदा दहत्यसौ दीप्त: कालरुद्रप्रचोदित: ॥ ३१॥
भूलोंकं च भुवर्लोक॑ स्वर्लोक॑ च तथा मह: ।
दहेदशेषं कालाग्नि: कालो विश्वतनु: स्वयम्॥ ३२॥
व्याप्तेष्वेतेषु लोकेषु तिर्यगूर्ध्यवमथाग्निना ।
तत् तेज: समनुप्राप्य कृत्स्न॑ जगदिदं शने: ।
अयोगुडनिभं सर्व तदा चैकं प्रकाशते॥ ३३॥
ततो गजकुलोन्नादास्तडिद्धि: समलंकृता: ।
उत्तिष्ठन्ति तदा व्योप्लनि घोरा: संवर्तका घना: ॥ ३४॥
* कूर्मपुराण *
तब सम्पूर्ण स्थावर एवं जंगम पदार्थोके लीन हो
जानेपर वृक्षों तथा तृणोंसे रहित भूमि कछुएके पीठके
समान दिखलायी देती है। (किरणोंसे ) व्याप्त समस्त
जगत् अम्बरीष (भड़-भूजेकी कड़ाही)-के सदृश
वर्णवाला दिखलायी देता है। उन ज्वालाओंके द्वारा सभी
कुछ पूर्णरूपसे प्रज्बलित होने लगता है॥ २३-२४॥
तदनन्तर पातालमें तथा महासमुद्रोंमें जो प्राणी
रहते हैं, उनका लय होता है और वे सभी भूमिके
रूपमें परिवर्तित हो जाते हैं। सात (सूर्यो )-के रूपमें
प्रदीतत हो रहे प्रभु पावक (अग्रिदेव) उन सभी ह्वापों,
पर्वतों, वर्षों तथा महासमुद्रोंकों भस्मसात् कर देते
हैं। समुद्रों, नदियों तथा पातालोंके सम्पूर्ण जलका
शोषण करती हुई प्रदीत्त अग्नि (सूर्यकी ज्वाला)
पृथ्वीपर प्रज्जलित होने लगती है अर्थात् पृथ्वीको
जलाने लगती है॥ २५--२७॥
तदनन्तर महान् संवर्तक नामक अग्नि पर्वतोंका
अतिक्रमण करते हुए रुद्रके तेजसे पुष्ट होनेके कारण
दी२्त आत्मावाला होकर लोकोंको जलाने लगती है।
(सम्पूर्ण) पृथ्वीको दग्धकर वे अग्रिदेव रसातलको
शोषित करते हैं। पृथ्वीके नीचेके भागको जलाकर
ऊपरके झुलोकको जलाने लगते हैं। उस संवर्तक
अग्रिकी शिखाएँ सैकड़ों, हजारों तथा दस हजार योजन
ऊपरतक उठने लगती हैं॥२८--३०॥
तब कालरूद्रद्वारा प्रेरित होकर यह उद्दीप्त अग्नि
गन्धर्वों, पिशाचों, यक्षों, नागों तथा राक्षसोंको जलाती
है। कालाग्रिस्वरूप विश्वात्मा स्वयं काल भूलोक,
भुवर्लोक, स्वर्लोक तथा महरलोंकको सम्पूर्णरूपसे जला
देता है। इन लोकोंमें तिरछे तथा ऊँचे सब जगह अग्रिके
द्वारा व्याप्त कर दिये जानेपर यह सम्पूर्ण जगत् उस
तेजसे धीरे-धीरे पूरित होकर (जलते हुए) एक
अय:पिण्ड (लोहपिण्ड)-के समान प्रकाशित होने
लगता है॥ ३१--३३ ॥
तदनन्तर हाथियोंके समूहके समान नाद करनेवाले
विद्युत्से अलंकृत संवर्तक नामक भयंकर मेघ आकाशमें
प्रकट होते हैं॥ ३४॥
* अध्याय ४३ *
केचिन्नीलोत्पलश्यामा: केचित् कुमुदसंनिभा: ।
धूम्रवर्णास्तथा केचित् केचित् पीता: पयोधरा: ॥ ३५॥
केचिद् रासभवर्णास्तु लाक्षारसनिभास्तथा |
शट्डुकुन्दनिभाश्चान्ये जात्यझ्ननिभा: परे॥ ३६॥
मन:शिलाभास्त्वन्ये च कपोतसदूशाः परे।
इन्द्रगोपनिभा: केचिद्धरितालनिभास्तथा।
इन्द्रचापनिभा: केचिदुत्तिप्ठन्ति घना दिवि॥ ३७॥
केचित् पर्वतसंकाशा: केचिद् गजकुलोपमा: ।
कूटाड्ररनिभाश्चान्ये केचिन्मीनकुलोद्वहा: ।
बहुरूपा घोररूपा घोरस्वरनिनादिन: ॥ ३८ ॥
तदा जलधरा: सर्वे पूरयन्ति नभःस्थलम्।
ततस्ते जलदा घोरा राविणो भास्करात्मजा: ।
सप्तधा संवृतात्मानस्तमग्निं शमयन्त्युत॥ ३९॥
ततस्ते जलदा वर्ष मुझ्नन्तीह महौघवत्।
सुघोरमशिवं सर्व नाशयन्ति च पावकम्॥ ४०॥
प्रवृष्टि च तदात्यर्थमम्भसा पूर्यते जगत्।
अद्विस्तेजोउभिभूतत्वात् तदाग्नि: प्रविशत्यप: ॥ ४१॥
नष्टे चाग्नौ वर्षशते: पयोदा: क्षयसम्भवा:।
प्लावयन्तो<थ भुवनं॑ महाजलपरिस्त्रवै: ॥ ४२॥
धाराभि: पूरयन्तीदं चोद्यमाना: स्वयम्भुवा।
अत्यन्तसलिलौघेश्वच वेला इव महोदधि: ॥ ४३॥
साद्रिद्वीपा तथा पृथ्वी जले: संच्छाद्यते शने: ।
आदित्यरश्मिभि: पीतं॑ जलमश्रेषु तिष्ठति।
पुनः पतति तद् भूमौ पूर्यन्ते तेन चार्णवा: ॥ ४४ ॥
ततः समुद्रा: स्वां वेलामतिक्रान्तास्तु कृत्सनश: ।
पर्वताश्च विलीयन्ते मही चाप्सु निमजजति॥ ४५॥
४८३
उन मेघोंमेंसे कुछ नीलकमलके समान श्यामवर्णके,
कुछ कुमुदके समान श्वेत वर्णके, कुछ धूम्रवर्णके, कुछ
पीतवर्णके, कुछ रासभ (धूसर) वर्णके, कुछ लाक्षारसके
समान, कुछ दूसरे शंख तथा कुन्द (पुष्प)-के समान
रंगवाले, कुछ जाती पुष्प (चमेली)-के तथा अझ्जन
(काजल)-के समान, कुछ मन:शिला (मैनसिल)-के
समान रंगवाले और कुछ दूसरे कपोतके समान वर्णवाले,
कुछ इन्द्रगोप (बीरबहूटी कौट)-के समान, कुछ
हरतालके समान और कुछ इन्द्रधनुषके समान वर्णवाले
मेघ आकाशमें प्रकट होते हैं॥ ३५--३७ ॥
कुछ मेघ पर्वतके तुल्य, कुछ हाथियोंके समूहके
समान, कुछ कूटाड्रारकक समान और कुछ मछलियोंके
समूहके आकारके होते हैं। वे मेघ अनेक रूप धारण
करनेवाले, भयंकर आकारवाले तथा घोर गर्जना-जैसी
ध्वनि करनेवाले होते हैं। उस समय वे सभी बादल
आकाशको व्याप्त कर लेते हैं, तदनन्तर भास्करसे उत्पन्न
गर्जनगा करनेवाले वे सात प्रकारके भयंकर बादल
एकत्रित होकर उस अग्रिको शान्त करते हैं॥ ३८-३९ ॥
तदुपरान्त वे मेघ महान् बाढ़के समान जलकी
वर्षा करते हैं और अत्यन्त भयंकर, अकल्याणकारी
उस सम्पूर्ण अग्नरिको नष्ट कर देते हैं। अतिशय वृष्टि
होनेके कारण जगत् जलसे परिपूर्ण हो जाता है। जलके
द्वारा तेज (अग्रनि)-के अभिभूत होनेके कारण उस
समय वह अग्नि जलमें प्रविष्ट हो जाता है॥ ४०-४१॥
इस तरह अग्निके शान्त हो जानेपर स्वयम्भू--
ब्रह्माके द्वारा प्रेरित मेघ अत्यधिक जलके प्रवाहोंसे
समस्त भुवनको आप्लावित करते हुए वैसे ही अपनी
जलधाराओंसे इस भुवनको परिपूर्ण कर देते हैं, जैसे
समुद्र अत्यधिक जलोंके प्रवाहोंसे अपने तटोंको आप्लावित
कर देता है। ये मेघ इतने जलसे भरपूर हैं कि इनका
क्षय दिव्य सैकड़ों वर्षों कदाचित् सम्भव है॥ ४२-४३ ॥
धीरे-धीरे पर्वतों तथा द्वीपोंवाली पृथ्वी जलसे ढक
जाती है और सूर्यकी रश्मियोंद्वारा गृहीत वह जल
बादलोंमें स्थित रहता है। पुन: वह जल पृथ्वीपर गिरता
है और उससे समुद्र इतने आपूरित हो जाते हैं कि
सर्वत्र अपने तटोंका अतिक्रमण कर वे जलमय हो
जाते हैं, पर्वत जलमें विलीन हो जाते हैं और पृथ्वी
भी जलमें डूब जाती है॥४४-४५॥
४८४
* कूर्मपुराण *
तस्मिन्नेकार्णवे घोरे नष्टे स्थावरजड़म्मे।
योगनिद्रां समास्थाय शेते देव: प्रजापति: ॥ ४६॥।
चतुर्युगसहस्त्रान्तं कल्पमाहर्महर्षय: ।
वाराहो वर्तते कल्पो यस्य विस्तार ईरित: ॥ ४७॥
असंख्यातास्तथा कल्पा ब्रह्मविष्णुशिवात्मका: ।
कथिता हि पुराणेषु मुनिभि: कालचिन्तके: ॥ ४८ ॥
सात्त्विकेष्वथ कल्पेषु माहात्म्यमधिकं हरे: ।
तामसेषु हरस्योक्त राजसेषु प्रजापते: ॥ ४९ ॥
यो<यं प्रवर्तते कल्पो वाराह: सात्त्विको मत: ।
अन्ये च सात्त्विका: कल्पा मम तेषु परिग्रह: ॥ ५०॥
ध्यानं तपस्तथा ज्ञान लब्ध्वा तेष्वेव योगिन: ।
आराध्य गिरिशं मां च यान्ति तत् परमं पदम्॥ ५१॥
सो5हं सत्त्वं समास्थाय मायी मायामयीं स्वयम्।
एकार्णवे जगत्यस्मिन् योगनिद्रां त्रजामि तु॥ ५२ ॥
मां पश्यन्ति महात्मान: सुप्तं काल॑ महर्षय: ।
जनलोके वर्तमानास्तपसा योगचक्षुषा॥ ५३॥
अहं पुराणपुरुषो भूर्भुव: प्रभवो विभु:।
सहस्त्रचरण: श्रीमान् सहस्त्रांशु: सहस्त्रदूक्ू ॥ ५४॥
मन्त्रो उग्नित्राह्िणा गाव: कुशाश्व समिधो हाहम्।
प्रोक्षणी च स्रुवश्चैव सोमो घृतमथास्म्यहम्॥ ५५ ॥
संबर्तको महानात्मा पवित्र परमं॑ यशः।
वेदो वेद्यं प्रभुर्गोप्ता गोपति्रह्वणो मुखम्॥ ५६ ॥
अनन्तस्तारको योगी गतिग्तिमतां वरः।
हंस: प्राणो5थ कपिलो विश्वमूर्ति: सनातन: ॥ ५७॥
क्षेत्रज्र: प्रकृति: कालो जगद्बीजमथामृतम् ।
माता पिता महादेवो मत्तो ह्ान्यन्न विद्यते॥ ५८॥
उस भयंकर एकार्णव (महासमुद्र )-में स्थावर-
जंगम सभीके लीन हो जानेपर योगनिद्राका आश्रय
ग्रहणकर देव प्रजापति शयन करते हैं॥ ४६॥
महर्षियोंने एक हजार चतुर्युगीका एक कल्प कहा
है। अभी जिसका विस्तार बतलाया गया है, वह
वाराह कल्प इस समय चल रहा है। ब्रह्मा, विष्णु
तथा शिवात्मक असंख्य कल्प हैं। पुराणोंमें काल-
चिन्तक मुनियोंने उनका वर्णन किया है। सात्त्विक
(सत्त्वप्रधान) कल्पोंमें हरिका अधिक माहात्म्य होता
है। तामस (तम:प्रधान) कल्पोंमें शंकरका और
राजस (रज:-प्रधान) कल्पोंमें प्रजापति ब्रह्माका अधिक
माहात्म्य होता है। इस समय प्रवर्तमान वाराह कल्प
सात्त्तिक कल्प है। अन्य भी सात्त्विक कल्प हें,
उनमें मुझे कूर्मभगवानका आश्रय ग्रहण करना
चाहिये ॥ ४७--५० ॥
उन कलपोंमें योगीजन ध्यान, तप तथा ज्ञान प्राप्तकर
उनके द्वारा शंकरकी तथा मेरी आराधना करके परमपदको
प्रात्त करते हैं। जगत्के एकार्णव हो जानेपर मायाका
अधिष्ठाता मैं सत्त्वका आश्रय ग्रहणकर मायामय योगनिद्रामें
स्थित हो जाता हूँँ। उस समय जनलोकमें विद्यमान
महात्मा, महर्षिगण तपस्या तथा योगरूपी नेत्रोंके द्वारा
निद्रालीन कालस्वरूप मेरा दर्शन करते हैं॥ ५१--५३ ॥
मैं पुराणपुरुष, भूर्भुव:, प्रभव तथा विभु हूँ, मैं
हजारों चरणोंवाला, श्रीसम्पन्न, हजारों किरणोंवाला तथा
हजारों नेत्रोंवाला हूँ। मैं ही मन्त्र, अग्नि, ब्राह्मण, गौ,
कुश एवं समिधा हूँ और प्रोक्षणी, ल्ुव (यज्ञीय पात्र)
सोम तथा घृत भी मैं ही हूँ। मैं ही संवर्तक (अग्नि),
महान् आत्मा, पवित्र तथा परम यश हूँ। वेद-वेद्य
(जिसे जाना जाता है), प्रभु, गोप्ता (रक्षक), गोपति
(इन्द्रियों एवं वाणीके स्वामी) और ब्रह्माका मुख
(आविर्भावसस््थल) भी मैं ही हूँ। मैं अनन्त, तारक,
योगी, गति, गतिशीलोंमें श्रेष्ठ, हंस, प्राण, कपिल,
विश्वमूर्ति, सनातन, क्षेत्रज्ञ, प्रकृति, काल, जगद्वीज और
अमृतस्वरूप हूँ। मैं ही माता, पिता तथा महादेव हूँ.
मुझसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है॥५४--५८॥
* अध्याय ४४8४ *
४८५
आदित्यवर्णो भुवनस्य गोप्ता
नारायण: पुरुषो योगमूर्ति:।
मां पश्यन्ति यतयो योगनिष्ठा
ज्ञात्वात्मानममृतत्वं
मैं आदित्यके समान वर्णवाला, भुवनोंका रक्षक,
नारायण पुरुष तथा योगमूर्ति हूँँ। योगपरायण यतिजन
मेरा दर्शन करते हैं और अपनी आत्माका ज्ञान प्राप्तकर
ब्रजन्ति॥ ५९॥ | अमृतत्व (मोक्ष)-को प्राप्त करते हैं॥५९॥
ज्ति श्रीकूर्मपुराणे पट्साहरत्रशं संहितायामुपारिविभागे त्रिचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४३ ॥
इस प्रकार छः: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें तैंतालीसवाँ अध्याय. समाप्त हुआ॥ ४३॥
चौवालीसवाँ अध्याय
प्राकृत प्रलयका वर्णन, शिवके विविध रूपों और विविध शक्तियोंका वर्णन,
शिवकी आराधनाकी विधि, मुनियोंद्वारा कूर्मसूपधारी विष्णुकी स्तुति, कूर्मपुराणकी
विषयानुक्रमणिकाका वर्णन, कूर्मपुराणकी फलश्रुति तथा इस पुराणकी
वक्त-श्रोतृपरम्पराका प्रतिपादन, महर्षि व्यास तथा नारायणकी
बन्दनाके साथ पुराणकी पूर्णताका कथन
कूर्म उवाच
अतः परं प्रवक्ष्यामि प्रतिसर्गमनुत्तमम्।
प्राकृतं हि समासेन श्रृणुध्वं गदतो मम॥ १॥
गते परार्थद्वितवे कालो लोकप्रकालन:।
कालाग्निर्भस्मसात् कर्तु करोति निखिल मतिम्॥ २॥
स्वात्मन्यात्मानमावेश्य भूत्वा देवो महेश्वर:।
दहेदशेषं॑ ब्रह्माण्ड सदेवासुरमानुषम्॥ ३॥
तमाविश्य महादेवो भगवान्नीललोहित:।
करोति लोकसंहारं भीषणं रूपमाश्रित:॥ ४॥
प्रविश्य मण्डलं सौरं कृत्वासौ बहुधा पुनः।
निर्दह॒त्यखिलं लोक॑ सप्तसप्तिस्वरूपधृक् ॥ ५॥
सदव्ग्ध्वा सकल ॑ सत्त्वमस्त्रं ब्रह्मशिरो महत्।
देवतानां शरीरेषु ॒क्षिपत्यखिलदाहकम्॥ ६॥
दग्धेष्वशेषदेवेष. देवी गिरिवरात्मजा।
एका सा साक्षिणी शम्भोस्तिष्ठत वैदिकी श्रुति॥७॥ | पास स्थित रहती हैं- ऐसी बैग ऑन साक्षिणी शम्भोस्तिष्ठते वैदिकी श्रुति: ॥ ७॥
( भगवान् ) कूर्मने कहा--इसके अनन्तर अब
मैं उत्तम प्राकृत प्रलयका संक्षेपमें वर्णन करूँगा। उसे
आप सब श्रवण करें॥१॥
द्वितीय* परार्ध (अर्थात् ब्रह्माजीकी परमायु--दिव्य
१०० वर्षका समय)-के बीत जानेपर समस्त लोकोंका
लय करनेवाला कालरूप कालाग्रि सम्पूर्ण जगत्को
भस्मसात् करनेका निश्चय करता है। महेश्वर देव अपनी
आत्मामें आत्मा (जीवात्मा)-को आविष्टकर देवताओं,
असुरों तथा मनुष्योंसे युक्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको दग्ध
करते हैं। भगवान् नीललोहित महादेव भीषण रूप
धारणकर उस अग्रिमें प्रविष्ट होकर अर्थात् महाकालरूप
होकर लोकका संहार करते हैं। सौर-मण्डलमें प्रविष्ट
होकर उसे पुनः अनेक रूपवाला बनाकर सात-सात
किरणोंबाले सूर्यरूपधारी वे महेश्वर सम्पूर्ण लोकोंको
दग्ध करते हैं॥२--५॥
समस्त सत्त्व (पदार्थों)-को दग्ध करके वे महेश्वर
देवताओंके शरीरपर सभीको जलानेमें समर्थ ब्रह्मशिर
नामक महान् अस्त्रको छोड़ते हैं। सम्पूर्ण देवताओंके
दग्ध हो जानेपर श्रेष्ठ पर्वत (हिमवान्)-की पुत्री देवी
पार्नती अकेली ही साक्षीके रूपमें उन (शिव) -के
पास (स्थित रहती हैं--ऐसी वैदिकी श्रुति है॥६-७॥
* ब्रह्मकी आयु दिव्य सौ वर्षकी है। इस कालको 'पर' कहते हैं। इसका आधा भाग 'परार्थ' होता है। (कूर्म० पूर्वविभाग
अ० ५) शब्दकल्पद्ठममें उद्धत।
४८६
शिरः:कपालैदेवानां कृतस्त्रग्वरभूषण: |
आदित्यचन्द्रादिगणै: पूरयन् व्योममण्डलम्॥ ८ ॥
सहस्त्नयनो देवः सहस्त्राकृतिरी श्वरः ।
सहस्त्रहस्तचरण:. सहस्त्रार्चि्महाभुज:॥ ९ ॥
दंष्ट्ररालवदन: प्रदीप्तानललोचन:।
त्रिशूली कृत्तिवसनो योगमैश्चरमास्थित:॥| १०॥
पीत्वा तत्परमानन्दं प्रभूतममृतं स्वयम्।
करोति ताण्डवं देवीमालोक्य परमेश्वर:॥ ११॥
पीत्वा नृत्तामृतं देवी भर्तु:ः परममड्रला।
योगमास्थाय देवस्य देहमायाति शूलिन:॥ १२॥
संत्यक्त्वा ताण्डवरसं स्वेच्छयेवर पिनाकधृक् ।
ज्योति: स्वभाव भगवान् दग्ध्वा ब्रह्मण्डमण्डलम्॥ १३॥
संस्थितेष्वथ देवेषु ब्रह्मविष्णुपिनाकिषु।
गुणैरशेषैः पृथिवी विलयं याति वारिषु॥ १४॥
सवारितत्त्व॑ सगुणं ग्रसते हव्यवाहनः।
तेजस्तु गुणसंयुक्त वायौ संयाति संक्षयम्॥ १५॥
आकाशे सगुणो वायु: प्रलयं याति विश्वभृत्।
भूतादी च तथाकाशं लीयते गुणसंयुतम्॥ १६॥
इन्द्रियाणि चर सर्वाणि तैजसे यान्ति संक्षयम्।
वैकारिके देवगणा: प्रलयं यान्ति सत्तमा:॥ १७॥
बैकारिकस्तैजसश्व भूतादिश्चेति सत्तमा:।
त्रिविधोड्यमहंकारो महति प्रलयं ब्रजेत्॥ १८॥
महान्तमेभि: सहितं ब्रह्मणमतितेजसम्।
अव्यक्त जगतो योनि: संहरेदेकमव्ययम्॥ १९॥
एवं संहत्य भूतानि तत्त्वानि च महेश्वरः।
वियोजयति चान्योन्य॑ं प्रधानं पुरुषं परम्॥ २०॥
* कूर्मपुराण *
देवताओंके मस्तकके कपालसे निर्मित मालाको
आभूषणरूपमें धारण करनेवाले, हजारों नेत्रवाले, हजारों
आकृतिवाले, हजारों हाथ-पैरवाले, हजारों किरणवाले,
भीषण दंष्टा (दाढ़)-के कारण भयंकर मुखोंवाले, प्रदीत्त
अग्रिके समान नेत्रोंवाले, त्रिशूली चर्माम्बरधारी वे देव
महेश्वर अनन्त सूर्य एवं चन्द्रके समूहोंसे समस्त
आकाशमण्डलको व्याप्तकर ऐश्वरयोगमें स्थित हो
जाते हैं और भगवती पार्वतीको देखते हुए परमानन्दमय
अमृतका पानकर स्वयं ताण्डव नृत्य करते हैं॥८--११॥
पतिके नृत्यरूपी अमृतका पानकर परम कल्याणरूपिणी
देवी (पार्वती) योगका आश्रय लेते हुए त्रिशूली शिवके
शरीरमें प्रविष्ट हो जाती हैं। ब्रह्माण्डमण्डलको दग्ध
करनेके अनन्तर पिनाक धारण करनेवाले भगवान्
(शिव) अपनी इच्छासे ही ताण्डव (-के आनन्द)-
रसका परित्यागकर ज्योति:स्वरूप अपने भावमें स्थित
हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा पिनाकी शिवके इस
प्रकार स्थित हो जानेपर अपने सम्पूर्ण गुणोंके साथ
पृथ्वी जलमें विलीन हो जाती है। अपने गुणोंसहित
उस जल-तत्त्वको हव्यवाहन अग्नि ग्रहण कर लेता
है और अपने गुणोंसहित वह तेज (अग्नि) बायुमें
विलीन हो जाता है॥ १२--१५॥
विश्वका भरण-पोषण करनेवाला वायु अपने गुणोंके
साथ आकाश (तत्त्व)-में लीन हो जाता है और अपने
गुणसहित वह आकाश भूतादि अर्थात् तामस अहंकारमें
लीन हो जाता है। सत्तमो! सभी इन्द्रियाँ तैजस अर्थात्
राजस अहंकारमें विलीन हो जाती हैं और (इन्द्रियोंके
अधिष्ठाता) देवगण बवैकारिक अर्थात् सात्त्विक अहंकारमें
प्रलीन हो जाते हैं। श्रेष्टो! वैकारिक, तेजस तथा भूतादि
(तामस) नामक तीन प्रकारका अहंकार महत्तत्त्वमें
लीन हो जाता है॥ १६--१८॥
यह महत्तत्त्व पृथ्वीसे अहंकारपर्यन्त समस्त तत्त्वोंका
मूल होनेके कारण एक प्रकारसे अमित तेजस्वी ब्रह्मा
ही हैं। अत: ब्रह्मारूप तथा अपनेमें पृथ्वी आदि समस्त
तत्त्वोंको समाविष्ट कर लेनेवाले इस अद्वितीय महत्तत्त्वका
संहार वह प्रकृति कर देती है, जो अव्यक्त है एवं
समस्त जगत्का मूल कारण है। इस प्रकार (पञ्च)
भूतों तथा तत्त्वोंका संहारकर महेश्वर प्रधान--प्रकृति
और पुरुषको परस्पर वियुक्त कर देते हैं॥ १९-२० ॥
* अध्याय ४४ *
प्रधानपुंसोरजयोरेष संहार ईरितः।
महेश्वरेच्छाजनितो न स्वयं विद्यते लयः॥ २१॥
गुणस्ाम्यं॑ तदव्यक्तं प्रकृति: परिगीयते।
प्रधान जगतो योनिर्मायातत्त्वमचेतनम्॥ २२॥
कूटस्थश्रिन्मयो ह्यात्मा केवल: पञ्चविंशक: ।
गीयते मुनिभि: साक्षी महानेकः पितामह: ॥ २३॥
एवं संहारकरणी शक्तिमहिश्वरी श्रुवा।
प्रधानाद्यं विशेषान्तं दहेद् रुद्र इति श्रुति:॥ २४॥
योगिनामथ सर्वेषां ज्ञानविन्यस्तचेतसाम्।
आत्यन्तिकं चैव लयं विदधातीह शंकर: ॥ २५॥
इत्येष भगवान् रुद्र: संहारं कुरुते वशी।
स्थापिका मोहनी शक्तिर्नारायण इति श्रुति:॥ २६॥
हिरण्यगर्भो भगवान् जगत् सदसदात्मकम् |
सृजेदशेषं प्रकृतेस्तन्मय: पद्चमविंशक: ॥ २७॥
सर्वज्ञा: सर्वगा: शान्ता: स्वात्मन्येव व्यवस्थिता: ।
शक्तयो ब्रह्मविष्णवीशा भुक्तिमुक्तिफलप्रदा: ॥ २८॥
सर्वेश्वरा: सर्ववन्दा: शाश्रतानन्तभोगिन: |
एकमेवाक्षरं तत्त्वं पुंप्रधानेश्वरात्मकम्॥ २९॥
अन्याश्व शकतयो दिव्या: सन्ति तत्र सहस्रशः ।
इज्यन्ते विविधेर्यस्: शक्रादित्यादयो5मरा: ॥ ३० ॥
एकेकस्य सहस््राणि देहानां वे शतानि च।
कथ्यन्ते चैव माहात्म्याच्छक्तिरेकेव निर्गुणा॥ ३१॥
४८७
इस (प्रकृति-पुरुष वियोगको) ही अनादि प्रकृति
और पुरुषका संहार कहा जाता है (क्योंकि सांख्यशास्त्रके
अनुसार इन दोनोंके नित्य होनेसे इनका लय कहीं
नहीं हो सकता) | यह (वियोगरूप) लय भी महेश्वरकी
इच्छासे ही होनेवाला है, स्वयं नहीं हो सकता। गुणोंकी
साम्यावस्था ही प्रकृति है और अव्यक्त है। जगत्का
मूल कारण प्रधान है। वह अचेतन है, इसे मायाके
रूपमें समझना चाहिये॥ २१-२२॥
कूटस्थ, अद्वितीय पचीसवाँ तत्त्वरूप आत्मा चिन्मय-
चेतन होता है। मुनिगण इसे साक्षी, महान् तथा पितामह
कहते हैं। इतनेसे यह स्पष्ट है कि महेश्वरकी शाश्रत
शक्ति ही संहार करती है। श्रुतिका भी यही कथन
है कि रुद्र प्रधान अर्थात् प्रकृतिसे विशेष अर्थात् स्थूल-
भूतपर्यन्त सभी तत्त्वोंको दग्ध करते हैं। ज्ञानपरायण
सभी योगियोंका आत्यन्तिक प्रलय भी शंकर ही करते
हैं॥ २३--२५॥
इस प्रकार सबको अपने वशमें रखनेवाले ये भगवान्
रुद्र ही संहार करते हैं। श्रुतिकि अनुसार (जगत्की)
स्थापना करनेवाली (रुद्रकी) मोहनी शक्तिको ही नारायण
कहते हैं। पचीसवें तत्त्व अर्थात् पुरुषस्वरूप भगवान्
हिरण्यगर्भ प्रकृतिसे तन््मय (संयुक्त) होकर सम्पूर्ण सत्-
असदात्मक जगत्की सृष्टि करते हैं॥ २६-२७॥
अपनी आत्मामें ही व्यवस्थित रहनेवाली (अर्थात्
स्वयंमें ही अधिष्ठित वस्तुत: निरधिष्ठान) ब्रह्मा, विष्णु
तथा ईश (महेश्वर) नामक सर्वज्ञ, सर्वव्यापी तथा शान्त
तीन शक्तियाँ भोग तथा मोक्षरूप फलको देनेवाली हैं।
ये शक्तियाँ सर्वेश्वरस्वरूप, सभीके द्वारा वन्दनीय,
शाश्वत और अनन्त भोगोंसे सम्पन्न हैं। अद्वितीय अक्षर
तत्त्व ही पुरुष, प्रधान और ईश्वररूप है॥ २८-२९॥
उस परमात्मा (अव्यक्त अक्षर-तत्त्व)-में अन्य
भी इन्द्र, सूर्य आदि हजारों दिव्य शक्तियाँ हैं। इनकी
भी विविध यज्ञोंके द्वारा आराधना की जाती है।
इन इन्द्र, सूर्य आदि एक-एक देवका भी ऐसा माहात्म्य
है कि इनके सैकड़ों-हजारों अर्थात् अनन्त शरीर
हैं और इन शरीरोंमें लोक-कल्याणके लिये अनन्त
शक्तियाँ हैं, पर वस्तुत: इन सबका मूल एक ही
निर्गुण शक्ति है--॥३०-३१॥
४८८
तां तां शक्ति समाधाय स्वयं देवो महेश्वर: ।
करोति देहान् विविधान् ग्रसते चैव लीलया॥ ३२॥
इज्यते सर्वयज्ञेषु ब्राह्मणैवेंदवादिभि:।
सर्वकामप्रदो रुद्र इत्येषा वैदिकी श्रुति:॥ ३३॥
सर्वासामेव शकतीनां ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा: ।
प्राधान्येन स्मृता देवा: शक्तय: परमात्मन: ॥ ३४॥
आद्यः परस्ताद् भगवान् परमात्मा सनातन: ।
गीयते सर्वशकत्यात्मा शूलपाणिर्महेश्वर:॥ ३५॥
एनमेके वदन्त्यग्निं नारायणमथापरे।
इन्द्रमेके परे विश्वान् ब्रह्माणमपरे जगु:॥ ३६॥
ब्रह्मविष्णवग्निवरुणा: सर्वे देवास्तथर्षय: ।
एकस्थैवाथ रुद्रस्य भेदास्ते परिकीर्तिता: ॥ ३७॥
यं ये भेदं समाभ्रित्य यजन्ति परमेश्वरम्।
तत् तद् रूप॑ समास्थाय प्रददाति फलं शिव: ॥ ३८ ॥
तस्मादेकतरं भेदं समाभ्रित्यापि शाश्वतम्।
आराधयन्महादेव॑ याति तत्परमं पदम्॥ ३९॥
किन्तु देवं महादेवं सर्वशक्ति सनातनम्।
आराधयेद् वै गिरिशं सगुणं वाथ निर्गुणम्॥ ४० ॥
मया प्रोक्तो हि भवतां योग: प्रागेव निर्गुण: ।
आरुरुक्षुस्तु सगुणं पूजयेत् परमेश्वरम्॥ ४१॥
पिनाकिन् त्रिनयनं जटिलं कृत्तवाससम्।
पद्मासनस्थं रुक्माभं चिन्तयेद वैदिकी श्रुति: ॥ ४२ ॥
* कूर्मपुराण *
अव्यक्त अक्षर अद्वितीय तत्त्व। उन-उन शक्तियोंका
आश्रयण कर महे श्वरदेव स्वयं लीलापूर्वक विविध देहोंकी
सृष्टि करते हैं और उनका संहार भी करते हैं। वेदवादी
(वेदज्ञ) ब्राह्मणोंके द्वारा समस्त यज्ञोंमें उन (महेश्वर)-
का पूजन किया जाता है। ये ही रुद्र हैं तथा सम्पूर्ण
कामनाओंको प्रदान करनेवाले हैं--ऐसा वेदका कथन
है। परमात्माकी सभी शक्तियोंमें ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर-
देव प्रधान शक्तिके रूपमें माने गये हैं॥३२--३४॥
शूलपाणि' महेश्वर (कारणब्रह्म-तुरीय तत्त्व) तो
आद्य, सबसे परे, भगवान्, परमात्मा, सनातन एवं
सर्वशक्त्यात्मा (समस्त शक्तियोंके मूल उद्रम एवं
अधिष्ठान)-के रूपमें वेदोंमें वर्णित हैं। इसलिये कुछ
लोग इन्हें अग्नि तथा कुछ लोग नारायण कहते हैं।
ऐसे ही कोई इन्हें इन्द्र, कोई विश्वेदेव तथा कोई ब्रह्मा
कहते हैं॥ ३५-३६ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, अग्नि, वरुण तथा अन्य सभी देवता
और महर्षिगण एक ही रुद्र (महेश्वर)-के विभिन्न
स्वरूप कहे गये हैं। मनुष्य इन स्वरूपोंमेंसे जिस भेद
(स्वरूप)-का अवलम्बन कर परमेश्वरी आराधना
करते हैं, शिव (महेश्वर) उसी स्वरूपको ग्रहणकर
फल प्रदान करते हैं। अत: इनमेंसे किसी एक भी
भेद (स्वरूप)-का अवलम्बन कर सनातन महादेवकी
आराधना करनेवालेको उस परम (शिव) पदकी प्राप्ति
होती है। निष्कर्ष यह है कि सर्वशक्तिसम्पन्न सनातन,
देव, गिरिश महादेवकी सगुण अथवा निर्गुण किसी
भी रूपमें आराधना अवश्य करनी चाहिये॥ ३७--४० ॥
मैंने आप लोगोंको निर्गुण-योग (निर्बीज समाधि)
पहले ही बता दिया है। सगुणरूप (-की उपासना)-
में आरूढ़ होनेकी इच्छा करनेवालेको भी परमेश्वरकी
पूजा (आराधना) करनी चाहिये। वेदके कथनके अनुसार
पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले, तीन नेत्रवाले,
जटाधारी, चर्माम्बरधारी, पद्मासनमें स्थित तथा स्वर्णिम
आभावाले (शंकर)-का ध्यान करना चाहिये॥ ४१-४२॥
१-महेश्वर कार्यत्रह्म एवं कारणब्रह्म-रूपमें शास्त्रोंमें वर्णित हैं। अव्यक्ततत्त्वकी शक्तिरूपमें जिन महेश्वरकी चर्चा अभी ऊपर
की गयी है, वे कार्यत्रह्म हैं। अव्यक्त अक्षर-तत्त्व कारणब्नह्म महेश्वरको समझना चाहिये। इन्हीं कारणब्रह्मको तुरीय (चतुर्थ) अद्ठैत
या तत्त्व कहा जाता ह।
“निर्बीज समाधि' साधककी वह अवस्था है, जिसमें कोई भी संस्कार शेष नहीं रहता। इसीलिये इस अवस्थामें किसी भी
प्रकारकी चित्तवृत्तिका अस्तित्व नहीं रहता। इसी कारण इस निर्बीज समाधिको कैवल्यावस्था कहते हैं।
* अध्याय ४४ *
एव योग: समुद्दिष्ट: सबीजो मुनिसत्तमाः।
तस्मात् सर्वान् परित्यज्य देवान् ब्रह्मपुरोगमान्।
आराधयेद विरूपाक्षमादिमध्यान्तसंस्थितम्॥ ४३ ॥
भक्तियोगसमायुक्त: स्वधर्मनिरतः शुचि: ।
तादूशं रूपमास्थाय समायात्यन्तिकं शिवम्॥ ४४॥
एप योग: समुद्दिष्ट: सबीजोउत्यन्तभावने।
यथाविधि प्रकुर्वाण: प्राप्नुयादेश्वरं पदम्॥ ४५॥
अत्राप्यशक्तो5थ हरं विष्णु ब्रह्माणमर्चयेत् ।
अथ चेदसमर्थ: स्यात् तत्रापि मुनिपुंगवा: |
ततो वाय्वग्निशक्रादीन् पूजयेद् भक्तिसंयुत: ॥ ४६ ॥
ये चान्ये भावने शुद्धे प्रागुक्ते भवतामिह।
अथापि कथितो योगो निर्बीजश्च सबीजक: ॥ ४७॥
ज्ञानं तदुक्त निर्बीजं पूर्व हि भवतां मया।
विष्णु रुद्रं विरज्षि च सबीज॑ भावयेद बुध: ।
अथवाग्न्यादिकान् देवांस्तत्पर: संयतेन्द्रिय: ॥ ४८ ॥
पूजयेत् पुरुषं विष्णुं चतुर्मूर्तिधरें हरिम्।
अनादिनिधनं देवं वासुदेव॑ सनातनम्॥ ४९॥
नारायणं जगदयोनिमाकाशं परमं पदम्।
तल्लिड्रधारी नियतं तदभक्तस्तदपाश्रय: ।
एप एवं विधिबन्रहि भावने चान्तिके मतः॥ ५०॥
४८९
मुनिश्रेष्ठो! इस प्रकार इस सबीज* योगका वर्णन
किया गया। (इस संक्षिप्त वर्णनसे यह स्पष्ट है कि
महे श्वरतत्त्व ही सर्वस्व, परम ध्येय है) इसलिये ब्रह्मा
आदि प्रधान सभी देवोंको छोड़कर आदि, मध्य तथा
अन्तमें रहनेवाले (शाश्वत तत्त्व) विरूपाक्ष (शंकर)-
की आराधना करनी चाहिये। अपने धर्ममें निरत
रहनेवाला, पवित्र तथा भक्तियोग-परायण व्यक्ति वैसा
ही (शंकरके समान) रूप धारणकर शिवके समीप
आता है। अत्यन्त भावना--ध्येयाकार चित्तवृत्तिवाले इस
सबीज योगका वर्णन किया गया। इसका यथाविधि
अनुष्ठान करता हुआ व्यक्ति ऐश्वर (ईश्वर)-पदको प्राप्त
करता है॥ ४३--४५ ॥
मुनिश्रेष्ठोी! यदि मनुष्य इसमें भी असमर्थ हो तो
उसे हर, विष्णु एवं ब्रह्माकी आराधना करनी चाहिये
और उसमें भी असमर्थ होनेपर भक्तियुक्त होकर
(कार्यब्रहद्मकी शक्ति) वायु, अग्नि तथा इन्द्र आदि
देवताओंकी पूजा करनी चाहिये। पूर्वमें आप लोगोंको
जो दो शुद्ध भावनाएँ बतायी गयी हैं (वे भी कल्याणकर
हैं)। साथ ही निर्बज तथा सबीज योगका भी वर्णन
किया गया है (ये भी परम उपादेय हैं)। मैंने पूर्वमें
भी यह निर्बीज ज्ञान (योग) आप लोगोंको बताया
था। बुद्धिमान् व्यक्तिको सर्वप्रथम सबीज (साकाररूपमें )
ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्रकी भावना करनी चाहिये अथवा
प्रारम्भमें जितेन्द्रिय होकर अग्नि आदि देवताओंकी
तत्परतापूर्वक (इन देवताओंको ही परम ध्येय मानकर)
आराधना करनी चाहिये। विष्णुके भक्त एवं विष्णुपरायण
पुरुषको वैष्णव चिह्न (शंख-चक्रादि) धारणकर नियमपूर्वक
(नारायण, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्धरूप) चार मूर्ति
धारण करनेवाले, अनादिनिधन, जगद्योनि, आकाशरूप,
परमपदरूप सनातन देव वासुदेव पुरुष विष्णुकी पूजा
करनी चाहिये। ब्राह्मी भावना (विष्णुको ही ब्रह्म
माननेकी भावना)-में भी यही विधि श्रीविष्णुका सामीप्य
प्राप्त करनेके लिये मान्य है॥४६--५० ॥
* “सबीज योग” का अर्थ है--सबीज समाधि। वह समाधि सबीज है, जिसमें बीज रहता है। बीजका अर्थ है--ध्येयाकार
चित्तवृत्ति। इसका आशय यह है कि स्वयंसे पृथक् ध्येय तत््वको समझकर उसका अनुसंधान यदि साधक कर रहा है तो ध्येयाकार
चित्तवृत्तिका अस्तित्व रहनेसे साधककी यह समाधि-अवस्था सबीज ही है। (इसे कैवल्यावस्था नहीं कह सकते, क्योंकि चित्तवृत्तिका
पृथक् अस्तित्व रहनेसे साधकमें कैवल्य भाव नहीं है।)
४९७० के कूर्मपुराण ह
इत्येतत् कथितं ज्ञानं भावनासंश्रयं परम्।
इन्द्रद्यज्नाय मुनये कथितं यन्मया पुरा॥ ५१॥
इस प्रकार यह पवित्र भावनापर आश्रित परम ज्ञान
बतलाया गया। प्राचीन कालमें मैंने इस ज्ञानको इन्द्रदयुम्न
अव्यक्तात्मकमेवेदं॑ चेतनाचेतनं जगत्।
तदीएवरः परं ब्रह्म तस्माद ब्रह्ममयं जगत्॥ ५२॥
सूत उवाच
एतावदुक्त्वा भगवान् विरराम जनार्दनः।
तुष्टुवुर्मुन॒यो विष्णुं शक्रेण सह माधवम्॥ ५३॥
मुनय ऊचु:
नमस्ते कूर्मरूपाय विष्णवे परमात्मने।
नारायणाय विश्वाय वासुदेवाय ते नमः॥ ५४॥
नमो नमस्ते कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम: ।
माधवाय नमस्तुभ्यं नमो यज्ञेश्राय च॥ ५५॥
सहस्त्रशिर्से तुभ्यं सहस्त्राक्षाय ते नमः।
नमः सहस्रहस्ताय सहस्नरचरणाय च॥ ५६॥
3» नमो ज्ञानरूपाय परमात्मस्वरूपिणे।
आनन्दाय नमस्तुभ्यं मायातीताय ते नमः ॥ ५७॥
नमो गूढशरीराय निर्गुणाय नमोस्तु ते।
पुरुषाय पुराणाय सत्तामात्रस्वरूपिणे॥ ५८ ॥
नमः सांख्याय योगाय केवलाय नमोउस्तु ते।
धर्मज्ञानाधिगम्याय निष्कलाय नमो नमः॥ ५९॥
नमोस्तु व्योमतत्त्वाय महायोगेश्वराय च।
परावराणां प्रभवे वेदवेद्याय ते नमः॥ ६०॥
नमो बुद्धाय शुद्धाय नमो युक्ताय हेतवे।
नमो नमो नमस्तुभ्यं मायिने वेधसे नमः॥ ६१॥
नमोस्तु ते वराहाय नारसिंहाय ते नमः।
वामनाय नमस्तुभ्यं हषीकेशाय ते नमः॥ ६२॥
नमोस्तु कालरुद्राय कालरूपाय ते नमः।
स्वर्गापवर्गदात्रे च नमो5प्रतिहतात्मने॥ ६३ ॥
मुनिसे कहा था। यह चेतनात्मक एवं अचेतनात्मक
जगत् अव्यक्त (अक्षर अद्वितीय तत्त्व महेश्वर)-स्वरूप
ही है। वह ईश्वर (महेश्वर) ही परम ब्रह्म है, इसलिये
यह जगत् ब्रह्ममय है॥५१-५२॥
सूतजीने कहा--इतना कहकर भगवान् जनार्दन
(कूर्म) चुप हो गये। तब इन्द्रके साथ मुनिगण माधव
विष्णु (कूर्म)-की स्तुति करने लगे--॥ ५३॥
मुनियोंने कहा--कूर्मरूपधारी परमात्मा विष्णुको
नमस्कार है। विश्वरूप नारायण वासुदेव! आपको
नमस्कार है। कृष्णको बार-बार नमस्कार है। गोविन्दको
बारम्बार नमस्कार है। माधव! आपको नमस्कार है।
यज्ञेश्वरको नमस्कार है॥५४-५५॥
हजारों सिरवाले तथा हजारों नेत्रवाले आपको
नमस्कार है। हजारों हाथ तथा हजारों चरणवाले आपको
नमस्कार है। प्रणवस्वरूप-ज्ञानरूप परमात्माको नमस्कार
है। आनन्दरूप आपको नमस्कार है। आप मायातीतको
नमस्कार है। गूढ (रहस्यमय) शरीरवाले आपको
नमस्कार है। आप निर्गुणको नमस्कार है। पुराणपुरुष
तथा सत्तामात्र स्वरूपवाले आपको नमस्कार है। सांख्य
तथा योगरूप आपको नमस्कार है। अद्वितीय (तत्त्वरूप)
आपको नमस्कार है। धर्म तथा ज्ञानद्वारा प्राप्त होनेवाले
आपको तथा निष्कल आपको बार-बार नमस्कार है।
व्योमतत्त्वरूप महायोगेश्ररको नमस्कार है। पर तथा
अवर पदार्थोको उत्पन्न करनेवाले वेदद्वारा वेद्य आपको
नमस्कार है॥ ५६--६० ॥
शुद्ध (निराकारस्वरूप) आपको नमस्कार है, बुद्ध
(ज्ञानस्वरूप) आपको नमस्कार है। योगयुक्त तथा हेतु
(अनन्त प्रपक्कक मूल कारण)-रूपको नमस्कार है।
आपको बार-बार नमस्कार है। मायावी (मायाके नियन्त्रक)
वेधा (विश्व-प्रपञ्ञके स्रष्टा)-को नमस्कार है॥६१॥
वराहरूप आपको नमस्कार है। आप नरसिंह-
रूपधारीको नमस्कार है। वामनरूप आपको नमस्कार
है। आप दृषीकेश (इन्द्रियके ईश)-को नमस्कार है।
कालरुद्रको नमस्कार है। कालरूप आपको नमस्कार
है। स्वर्ग तथा अपवर्ग प्रदान करनेवाले और अप्रतिहत
आत्मा (शाश्रत अद्वितीय)-को नमस्कार है॥ ६२-६३ ॥
* अध्याय ४४ *
नमो योगाधिगम्याय योगिने योगदायिने।
देवानां पतये तुभ्यं देवार्तिशमनाय ते॥ ६४॥
भगवंस्त्वत्प्रसादेन सर्वसंसारनाशनम्।
अस्माभिविंदितं ज्ञानं यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते॥ ६५ ॥
श्रुतास्तु विविधा धर्मा वंशा मन्वन्तराणि च।
सर्गश्न प्रतिसर्गश्च बत्रह्माण्डस्यास्य विस्तर: ॥ ६६॥
त्वं हि सर्वजगत्साक्षी विश्वो नारायण: पर: ।
त्रातुमर्हस्यनन्तात्मंस्त्वमेव शरणं गति:॥ ६७॥
सूत उवाच
एतद् वः कथित विप्रा योगमोक्षप्रदायकम् ।
कौर्म पुराणमखिलं यज्जगाद गदाधरः॥ ६८ ॥
अस्मिन् पुराणे लक्ष्म्यास्तु सम्भव: कथित: पुरा।
मोहायाशेषभूतानां वासुदेवेन योजनम्॥ ६९॥
प्रजापतीनां सर्गस्तु वर्णधर्माश्व वृत्तय:।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यथावल्लक्षणं शुभम्॥ ७०॥
पितामहस्य विष्णोश्व महेशस्य च धीमतः।
एकत्वं च पृथक्त्वं च विशेषश्चोपवर्णित: ॥ ७१॥
भक्तानां लक्षणं प्रोक्तं समाचारए्च शोभन: ।
वर्णाश्रमाणां कथितं यथावदिह लक्षणम्॥ ७२॥
आदिसर्गस्ततः पश्चादण्डावरणसप्तकम्।
हिरण्यगर्भसर्गश्च॒ कीर्तितो मुनिपुंगवा:॥ ७३॥
कालसंख्याप्रकथन माहात्म्यं चेश्वरस्य च।
ब्रह्मण: शयनं चाप्सु नामनिर्वचनं तथा॥ ७४॥
वराहवपुषा भूयो भूमेरुद्धरणं पुनः।
मुख्यादिसर्गकथनं मुनिसर्गस्तथापर: ॥ ७५॥
व्याख्यातो रुद्रसर्गश्ष ऋषिसर्गश्च॒तापस:।
धर्मस्य च प्रजासर्गस्तामसातू पूर्वमेव तु॥ ७६॥
ब्रह्मविष्णुविवाद: स्यथादन्तर्देहप्रवेशनम्।
पद्मोद्धवत्वं देवस्य मोहस्तस्य च धीमत: ॥ ७७॥
दर्शनं च महेशस्य माहात्म्यं विष्णुनेरितम्।
दिव्यदृष्टिप्रदानं॑ च ब्रह्मण: परमेष्ठिन: ॥ ७८ ॥
४९९१
योगाधिगम्य, योगी और योगदाताको नमस्कार है।
देवताओंके स्वामी तथा देवताओंके कष्टका शमन
करनेवाले आपको नमस्कार है॥ ६४॥
भगवन्! आपकी कृपासे समस्त संसार ( भवबन्धन)-
का नाश हो जाता है। हमें आपसे वह ज्ञान प्राप्त हुआ
है, जिसे जानकर अमृतत्वकी प्रासि होती है। हम लोगोंने
विविध धर्म, वंश, मन्वन्तर, सर्ग, प्रतिसर्ग तथा इस
ब्रह्माण्डके विस्तारके विषयमें आपसे सुना। आप ही
सम्पूर्ण जगत्के साक्षी, विश्वरूप और परम नारायण
हैं। अनन्तात्मन्।! आप ही हम लोगोंकी शरण और
गति हैं। आप हमारी रक्षा करें॥ ६५--६७॥
सूतजीने कहा--विप्रो ! योग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले
उस सम्पूर्ण कूर्मपुराणको मैंने आप लोगोंको बतलाया,
जिसे गदाधर (कूर्मभगवान्)-ने कहा था। पहले इस
पुराणमें सम्पूर्ण प्राणयोंको मोहित करनेके लिये लक्ष्मीकी
उत्पत्ति तथा वासुदेवके साथ उनके संयोगका वर्णन किया
गया है। तदनन्तर प्रजापतियोंकी सृष्टि, वर्णोंके धर्मों और
उनकी तृत्तियोंका वर्णन तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षके
शुभ लक्षणोंका यथावत् वर्णन किया गया है। इसमें पितामह
(ब्रह्मा), विष्णु तथा धीमान् महेश्वरके एकत्व, पृथकृत्व
और वैशिष्टयका वर्णन हुआ है। भक्तोंके लक्षण तथा सुन्दर
सदाचारको कहा गया है। साथ ही वर्णों तथा आश्रमोंके
लक्षणोंको शास्त्रानुसार बतलाया गया है ॥ ६८--७२॥
तदनन्तर आदिसर्ग पुन: सात आवरणयुक्त ब्रह्माण्डका
वर्णन हुआ है। मुनिश्रेष्ठो! फिर हिरण्यगर्भसर्ग कहा गया
है। काल-गणनाका विवरण, ईश्वरका माहात्म्य, ब्रह्माका
जलमें शयन तथा भगवानके नामोंकी निरुक्तिका वर्णन
हुआ है। (विष्णुद्वारा) वराह-शरीर धारणकर भूमि (पृथ्वी)-
के उद्धार करनेका भी इसमें वर्णन हुआ है। तदनन्तर
पहले मुख्यसर्ग आदि और पुनः मुनिसर्ग बताया गया है।
(इस पुराणमें) रुद्रसर्ग, ऋषिसर्ग, तापससर्ग और तामससर्गसे
पहले धर्मका प्रजासर्ग बताया गया है॥ ७३--७६ ॥
ब्रह्मा एवं विष्णुके विवाद और (परस्पर) एक-
दूसरेके देहके अन्तर्गत प्रविष्ट होने, ब्रह्मके कमलसे
उत्पन्न होने और धीमान् देव (ब्रह्मा)-के मोहका (इस
पुराणमें) वर्णन हुआ है॥७७॥
तत्पश्चात् (ब्रह्माद्वारा) महेशका दर्शन करने, विष्णु-
द्वारा कहे गये उनके माहात्म्य और परमेष्ठी ब्रह्माको दिव्य
४९२
संस्तवो देवदेवस्थय ब्रह्मणा परमेष्टिना।
प्रसादों गिरिशस्याथ वरदानं तथेव च॥ ७९॥
संवादो विष्णुना सार्थ शंकरस्य महात्मन: ।
वरदान तथापूर्वमन्तर्धानं पिनाकिनः: ॥ ८०॥
वधश्च कथितो विप्रा मधुकेटभयो: पुरा।
अवतारो<थ देवस्य ब्रह्मणो नाभिपड्जडजात्॥ ८१॥
एकीभावश्च देवस्य विष्णुना कथितस्ततः ।
विमोहो ब्रह्मणश्चाथ संज्ञालाभो हरेस्तत: ॥ ८२॥
तपश्चरणमाख्यातं देवदेवस्थ धीमतः।
प्रादुर्भावो महेशस्य ललाटातू कथितस्तत: ॥ ८३॥
रुद्राणां कथिता सृष्टित्रह्णः प्रतिषेधनम।
भूतिश्च देवदेवस्थ वरदानोपदेशकौ॥ ८४॥
अन्तर्धान च रुद्रस्य तपश्चर्याण्डजस्य च।
दर्शोा देवदेवस्थ नरनारीशरीरता॥ ८५॥
देव्या विभागकथनं देवदेवात् पिनाकिनः।
देव्यास्तु पश्चात् कथित दक्षपुत्रीत्वमेव च॥ ८६॥
हिमवददुहितृत्वं च देव्या माहात्म्यमेव च।
दर्शन दिव्यरूपस्य वैश्वरूपस्य दर्शनम्॥ ८७॥
नाम्नां सहरत्रं कथितं पित्रा हिमवता स्वयम्।
उपदेशो महादेव्या वरदानं तथेव च॥८८॥
भृग्वादीनां प्रजासग्गों राज्ञां वंशस्य विस्तर: ।
प्राचेतसत्य॑ दक्षस्थ दक्षयज्ञविमर्दनम॥ ८९॥
द्धीचस्य च दक्षस्य विवाद: कथितस्तदा।
ततश्च शाप: कथितो मुनीनां मुनिपुंगवा:॥ ९०॥
रुद्रागति: प्रसादश्च अन्तर्धान॑ पिनाकिनः |
पितामहस्योपदेश: कीरत्यते रक्षणाय तु॥ ९१॥
दक्षस्य च प्रजासर्ग:ः कश्यपस्य महात्मन: ।
हिरण्यकशिपोर्नाशो हिरण्याक्षवधस्तथा॥ ९२ ॥
ततश्च शाप: कथितो देवदारुवनौकसाम्
निग्रहए्चान्धकस्याथ गाणपत्यमनुत्तमम्॥ ९३ ॥
* कूर्मपुराण *
दृष्टि प्रदान करनेका वर्णन हुआ है। परमेष्ठी ब्रह्माद्वारा देवाधिदेव
(महेश्वर)-की स्तुति, (प्रसन्न होकर) गिरिशद्वारा अनुग्रह
तथा वर प्रदान करनेका भी वर्णन हुआ है। विष्णुके
साथ महात्मा शंकरके संवाद, पिनाकीद्वारा वर प्रदान करने
और उनके अन्तर्धान होनेका वर्णन हुआ है॥ ७८--८०॥
विप्रो! इसमें प्राचीन कालमें हुए मधुकैटभके
वधका तथा देव (विष्णु)-के नाभिकमलसे ब्रह्माके
अवतारका वर्णन हुआ है। तदनन्तर विष्णुसे देव ब्रह्माके
एकीभावको कहा गया है और ब्रह्माका मोहित होना
तदनन्तर हरिसे चेतनाप्राप्तिको बताया गया है॥ ८१-८२॥
तदुपरान्त धीमान् देवाधिदेवकी तपश्चर्याका वर्णन
है और फिर उनके (ब्रह्माके) मस्तकसे महेश्वरके प्रा्टर्भावका
वर्णन किया गया है। रुद्रोंकी सृष्टि करनेपर ब्रह्माके द्वारा
उसके प्रतिषेधका वर्णन हुआ है। देवाधिदेव (शंकर)-
के ऐश्वर्य एवं ब्रह्माको वरदान और उपदेश देनेका वर्णन
हुआ है। इसके पश्चात् रुद्रके अन्तर्धान होने, ब्रह्माकी
तपश्चर्या, देवाधिदेवके दर्शन और उनके नर-नारी-शरीर
धारण करनेका वर्णन किया गया है॥ ८३--८५॥
देवाधिदेव पिनाकीसे देवी (सती )-के अलगावका कथन
हुआ है और फिर देवीका दक्षपुत्रीके रूपमें जन्म लेनेका वर्णन
हुआ है। देवीकी हिमवान्की पुत्री होना और उनके माहात्म्यका
वर्णन किया गया है तथा (उनके) दिव्यरूपके दर्शन और
विश्वरूपके दर्शनका वर्णन हुआ है। तदुपरान्त स्वयं पिता
हिमालयद्वारा कहे गये (देवीके) सहरत्ननाम, महादेवीके द्वारा
प्रदत्त उपदेश और वरदानका भी वर्णन हुआ है॥ ८६--८८॥
भूगु आदि ऋषियोंका प्रजासर्ग, राजाओंके वंशका विस्तार,
दक्षके प्रचेताके पुत्र होने और दक्षयज्ञ-विध्वंसका वर्णन हुआ
है। मुनिश्रेष्ठो! तदनन्तर दधीच और दक्षके विवादको बतलाया
गया है, फिर मुनियोंके शापका वर्णन हुआ है॥ ८९-९०॥
तदुपरान्त रुद्रके आगमन एवं अनुग्रह और उन
पिनाकी रुद्रके अन्तर्धान होने तथा (दक्षकी) रक्षाके
लिये पितामहद्वारा उपदेश करनेका वर्णन हुआ है॥ ९१॥
तदुपरान्त दक्षके तथा महात्मा कश्यपसे होनेवाली
प्रजासृष्टिका वर्णन है। हिरण्यकशिपुके नष्ट होने तथा
हिरण्याक्षके वधका वर्णन हुआ है। इसके बाद देवदारुवनमें
निवास करनेवाले मुनियोंकी शापप्रातिका कथन है,
अन्धकके निग्रट और उसको श्रेष्ठ गाणपत्यपद प्रदान
करनेका वर्णन हुआ है॥९२-९३॥
* अध्याय ४४ +*
प्रह्मदनिग्रहश्चाथ बले: संयमन ततः।
बाणस्य निग्रहश्चाथ प्रसादस्तस्य शूलिन: ॥ ९४ ॥
ऋषीणां वंशविस्तारो राज्ञां वंशा: प्रकीर्तिता: ।
वसुदेवात् ततो विष्णोरुत्पत्ति: स्वेच्छया हरे: ॥ ९५ ॥
दर्शन' चोपमन्योर्वे तपश्चरणमेव च।
वरलाभो महादेव दृष्टा साम्बं त्रिलोचनम्॥ ९६ ॥
केैलासगमनं चाथ निवासस्तत्र शा्ड्रिण: ।
ततश्च कथ्यते भीतिद्द»ारिवत्या निवासिनाम्॥ ९७ ॥
रक्षणं गरुडेनाथ जित्वा शत्रून् महाबलान्।
नारदागमनं चैव यात्रा चैव गरुत्मत:॥ ९८ ॥
ततश्च कृष्णागमनं मुनीनामागतिस्ततः ।
नेत्यकं॑ वासुदेवस्य शिवलिड्डार्चन॑ तथा॥ ९९ ॥
मार्कण्डेयस्य च मुने: प्रश्न: प्रोक्तस्तत: परम्।
लिड्भार्चननिमित्तं च लिड्रस्यापि सलिड्रिन: ॥ १००॥
याथात्म्यकथनं चाथ लिड्राविर्भाव एव च।
ब्रह्मविष्णवोस्तथा मध्ये कीर्तितो मुनिपुंगवा: ॥ १०१॥
मोहस्तयोस्तु कथितो गमन चोर्ध्वतोउ5प्यध: ।
संस्तवो देवदेवस्यथ प्रसाद: परमेष्टिन:॥ १०२॥
अन्तर्धानं च लिड्रस्य साम्बोत्पत्तिस्तत: परम्।
कीर्तिता चानिरुद्धस्य समुत्पत्तिद्विजोत्तमा: ॥ १०३ ॥
कृष्णस्य गमने बुद्धिऋषीणामागतिस्तथा।
अनुशासितं च कृष्णेन वरदानं महात्मन: ॥ १०४॥
गमनं चैव कृष्णस्य पार्थस्यापि च दर्शनम् ।
कृष्णद्वैपायनस्योक्ता युगधर्मा: सनातना: ॥ १०५ ॥
अनुग्रहो5थ पार्थस्य वाराणसीगतिस्तत: ।
पाराशर्यस्य च मुनेर्व्यासस्यादभुतकर्मण: ॥ १०६॥
वाराणस्याश्व माहात्म्यं तीर्थानां चैव वर्णनम्।
तीर्थयात्रा च व्यासस्य देव्याश्चैवाथ दर्शनम्।
उद्वासनं च कथितं वरदान तथेव च॥ १०७॥
४९३३
तदनन्तर प्रह्मदके निग्रह, बलिके बाँधे जाने,
त्रिशूली (शंकर)-द्वारा बाणासुरके निग्रह और फिर
उसपर कृपा करनेका वर्णन हुआ है। इसके पश्चात्
ऋषियोंके वंशका विस्तार तथा राजाओंके वंशका वर्णन
हुआ है और फिर स्वेच्छासे वसुदेवके पुत्रके रूपमें
हरिविष्णुकी उत्पत्तिका वर्णन है॥ ९४-९५॥
उपमन्युका दर्शन करने और तपश्चर्या करनेका वर्णन
है। तत्पश्चात् अम्बासहित त्रिलोचन महादेवका दर्शनकर
वर प्राप्त करनेका वर्णन हुआ है। तदनन्तर शा्ड्ली (कृष्ण)-
का कैलासपर जाने और वहाँ निवास करनेका वर्णन
है फिर द्वारवती-निवासियोंके भयभीत होनेका वर्णन है।
इसके बाद महाबलशाली शत्रुओंको जीतकर गरुडके
द्वारा (द्वारकावासियोंकी) रक्षा करने, नारद-आगमन और
गरुडकी यात्राका वर्णन हुआ है॥ ९६-९८ ॥
तदनन्तर कृष्णके आगमन, मुनियोंके आने और
वासुदेव (विष्णु)-द्वारा नित्य किये जानेवाले शिव-
लिंड्रार्चनका वर्णन है। तदुपरान्त मुनि मार्कण्डेयजीद्वारा
(लिड्रके विषयमें) प्रश्न करने तथा (वासुदेवद्वारा)
लिड्रार्चनके प्रयोजन और लिड्री (शंकर)-के लिड्डके
स्वरूपका निरूपण हुआ है॥९९-१००॥
मुनिश्रेष्ठो ! फिर ब्रह्मा तथा विष्णुके मध्य ज्योतिर्लिड्डके
आविर्भाव तथा उसके वास्तविक स्वरूपका वर्णन हुआ
है। तदुपरान्त उन दोनोंके मोहित होने तथा (लिड्डका
परिमाण जाननेके लिये) ऊर्ध्वलोक एवं अधोलोकमें जाने,
पुनः परमेष्ठी देवाधिदेव (महादेव)-की स्तुति करे और उनके
द्वारा अनुग्रह प्रदान करनेका वर्णन हुआ है॥ १०१-१०२॥
द्विजोत्तमो! तदनन्तर लिज्ञके अन्तर्धान होने और
फिर साम्ब तथा अनिरुद्धकी उत्पत्तिका वर्णन हुआ है।
तदुपरान्त महात्मा कृष्णका (अपने लोक) जानेका निश्चय,
ऋषियोंका (द्वारकामें) आगमन, कृष्णद्वारा उन्हें उपदेश
तथा वरदान देनेका वर्णन किया गया है॥ १०३-१०४॥
इसके अनन्तर कृष्णका (स्वधाम) गमन, अर्जुनद्वारा
कृष्णट्वैपायनका दर्शन एवं उनके द्वारा कहे गये सनातन
युगधर्मोका वर्णन हुआ है। आगे अर्जुनके ऊपर
(व्यासद्वारा) अनुग्रह और पराशरपुत्र अद्धुतकर्मा व्यास
मुनिका वाराणसीमें जानेका वर्णन है॥१५०५-१०६॥
तदुपरान्त वाराणसीका माहात्म्य, तीथौंका वर्णन, व्यासकी
तीर्थयात्रा और देवीके दर्शन करनेका वर्णन है। साथ
४९४
प्रयागस्य च माहात्म्य॑ क्षेत्राणामथ कीर्तनम्।
फलंच विपुलं विप्रा मार्कण्डेयस्य निर्गम: ॥ १०८ ॥
भुवनानां स्वरूपं च ज्योतिषां च निवेशनम्।
कीर्त्यन्ते चेव वर्षाणि नदीनां चैव निर्णय: ॥ १०९॥
पर्वतानां च कथनं स्थानानि च दिवौकसाम्।
द्वीपानां प्रविभागश्व श्वेतद्वीपोपवर्णनम्॥ ११०॥
शयनं केशवस्याथ माहात्म्यं च महात्मनः ।
मन्वन्तराणां कथन विष्णोर्माहात्म्यमेव च॥ १११॥
वेदशाखाप्रणयनं व्यासानां कथन ततः।
अवेदस्य च वेदानां कथनं मुनिपुंगवा:॥ ११२॥
योगेश्वराणां च कथा शिष्याणां चाथ कीर्तनम्।
गीताश्न विविधा गुह्या ईं श्वरस्याथ कीर्तिता: ॥ ११३॥
वर्णाश्रमाणामाचारा: प्रायश्चित्तविधिस्तत: ।
कपालित्वं च रुद्रस्य भिक्षाचरणमेव च॥ ११४॥
पतिक्रतायाश्वाख्यानं तीर्थानां च विनिर्णय: ।
तथा मड्डूणकस्याथ निग्रह: कीर्त्यते द्विजा:॥ ११५॥
वधश्व कथितो विप्रा: कालस्य च समासतः: ।
देवदारुवने शम्भोः प्रवेशों माधवस्य च॥ ११६॥
दर्शन षट्कुलीयानां देवदेवस्यथ धीमतः।
वरदानं च देवस्य नन्दिने तु प्रकीर्तितम्॥ ११७॥
नेमित्तिकस्तु कथित: प्रतिसर्गस्ततः परम्।
प्राकृत: प्रलयश्रोर्ध्व सबीजो योग एव च॥ ११८॥
एवं ज्ञात्वा पुराणस्य संक्षेपं कीर्तयेत् तु यः।
सर्वपापविनिर्मुक्तो ब्रहलोके महीयते॥ ११९॥
एवमुक्त्वा श्रियं देवीमादाय पुरुषोत्तम: ।
संत्यज्य कूर्मसंस्थानं स्वस्थानं च जगाम ह॥ १२०॥
देवाश्च सर्वे मुनयः स्वानि स्थानानि भेजिरे।
प्रणम्य पुरुष विष्णुं गृहीत्वा हामृतं द्विजा:॥ १२१॥
एतत् पुराणं परम भाषितं कूर्मरूपिणा।
साक्षाद देवादिदेवेन विष्णुना विश्वयोनिना॥ १२२॥
न कूर्मपुराण रू
ही (देवीद्वारा वाराणसीसे व्यासके) निष्कासन और वरदान
देनेका वर्णन हुआ है। ब्राह्मणो | तदनन्तर प्रयागका माहात्म्य,
(पुण्य) क्षेत्रोंका वर्णन, (तीथोंका) महान् फल और
मार्कण्डेय मुनिक निगमनका वर्णन है॥ १०७-१०८॥
(इसके पश्चात्) भुवनोंके स्वरूप, ग्रहों तथा नक्षत्रोंकी
स्थिति और वर्षों तथा नदियोंके निर्णयका वर्णन किया
गया है। पर्वतों तथा देवताओंके स्थानों, द्वीपोंके विभाग
तथा श्रेतद्वीपका वर्णन किया गया है॥१०९-११०॥
महात्मा केशवके शयन, उनके माहात्म्य, मन्वन्तरों
और विष्णुके माहात्म्यका निरूपण हुआ है। मुनिश्रेष्ठो !
तदनन्तर वेदकी शाखाओंका प्रणयन, व्यासोंका नाम-
परिंगणन और अवेद (वेदबाह्य सिद्धान्तों) तथा वेदोंका
कथन किया गया है। (इसके अनन्तर) योगेश्वरोंकी
कथा, (उनके) शिष्योंका वर्ण और ईश्वर-सम्बन्धी
अनेक गुद्य गीताओंका उल्लेख हुआ है॥ १११--११३॥
तदनन्तर वर्णों और आश्रमोंके सदाचार, प्रायश्चित्तविधि,
रुद्रके कपाली होने और (उनके) भिक्षा माँगनेका वर्णन
हुआ है। द्विजो! इसके बाद पतिक्रताके आख्यान,
तीर्थोके निर्णण और मझ्कूणक मुनिके निग्रह करनेका
उल्लेख हुआ है॥ ११४-११५॥
ब्राह्मणो! (तदनन्तर) संक्षेपमें कालके वध और
शंकर तथा विष्णुके देवदारुवनमें प्रवेश करनेका उल्लेख
है। छः कुलोंमें उत्पन्न ऋषियोंद्वारा धीमान् देवाधिदेवके
दर्शन करने और महादेवद्वारा नन्दीको वरदान देनेका
वर्णन हुआ है। इसके बाद नैमित्तिक प्रलय कहा गया
है और फिर आगे प्राकृत प्रलय एवं सबीज योग
बतलाया गया है॥ ११६--११८॥
इस प्रकार संक्षेपमें (इस कूर्म) पुराणको जानकर
जो उसका उपदेश करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त
होकर ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठा प्रात करता है॥११९॥
इतना कहकर कूर्मरूपका परित्यागकर देवी लक्ष्मीके
साथ पुरुषोत्तम (विष्णु) अपने धामको चले गये।
द्विजो! सभी देवता तथा मुनिगण भी परम पुरुष विष्णुके
(उपदेशरूपी) अमृतको प्राप्तकर तथा उन्हें प्रणामकर
अपने-अपने स्थानोंको चले गये। यह श्रेष्ठ (कूर्म-)
पुराण कूर्मरूपधारी विश्वयोनि साक्षात् देवोंके आदिदेव
विष्णुद्दार कहा गया है॥ १२०--१२२॥
* अध्याय ४ंड *
यः पठेत् सततं मर्त्यों नियमेन समाहितः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो ब्रहालोके महीयते॥ १२३॥
लिखित्वा चैव यो दद्याद वैशाखे मासि सुत्रतः ।
विप्राय वेदविदुषे तस्य पुण्यं निबोधत॥ १२४॥
सर्वपापविनिर्मुक्त: सर्वेश्चर्यसमन्वित: ।
भुक्त्वा च विपुलान् स्व्गें भोगान् दिव्यान् सुशोभनान्॥ १२५॥
ततः स्वर्गात् परिभ्रष्टो विप्राणां जायते कुले।
पूर्वसंस्कारमाहा त्म्याद ब्रह्मविद्यामवाप्नुयात्॥। १२६॥।
पठित्वाध्यायमेबैकं॑ सर्वपापै: प्रमुच्यते।
यो<र्थ विचारयेत् सम्यक् स प्राप्पोति पर पदम॥ १२७॥
अध्येतव्यमिदं नित्यं विप्रे: पर्वणि पर्वणि।
श्रोतव्यं च द्विजश्रेष्ठा महापातकनाशनम्॥ १२८ ॥
एकतास्तु पुराणानि सेतिहासानि कृत्स्नशः ।
एकत्र चेद॑ परममेतदेवातिरिच्यते॥ १२९॥
धर्मनेपुण्यकामानां ज्ञाननैपुण्यकामिनाम् ।
इदं पुराणं मुक्त्वैकं नास्त्यन्यत् साधनं परम्॥ १३०॥
यथावदत्र भगवान् देवो नारायणो हरिः |
कथ्यते हि यथा विष्णुर्न तथान्येषु सुत्रता: ॥ १३१॥
ब्राह्मी पौराणिकी चेयं संहिता पापनाशिनी।
अन्न तत् परमं ब्रह्म कीर्त्यते हि यथार्थत:॥ १३२॥
तीर्थानां परम तीर्थ तपसां च परं तपः।
ज्ञानानां परम॑ ज्ञानं ब्रतानां परमं व्रतम्॥ १३३॥।
नाध्येतव्यमिदं शास्त्र वृषलस्य च संनिधौ।
यो<5धीते स तु मोहात्मा स याति नरकान् बहुन्॥ १३४॥
श्राद्धे वा दैविके कार्ये श्रावणीयं द्विजातिभि: ।
यज्ञान्ते तु विशेषेण सर्वदोषविशोधनम्॥ १३५॥
मुमुक्षूणामिदं शास्त्रमध्येतव्यं विशेषतः।
श्रोतव्यं चाथ मन्तव्यं वेदार्थपरिबृंहणम्॥ १३६॥
४९५७
जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे नियमपूर्वक इस पुराणको
पढ़ता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर त्रह्मलोकमें
प्रतिष्ठित होता है। जो पुरुष शास्त्रानुसार ब्रतनिष्ठ होते
हुए इस पुराणको लिखकर वैशाखमासमें वेदज्ञ ब्राह्मणको
दान करता है, उसका पुण्य सुनो--वह सभी पापोंसे
रहित और सभी ऐश्वर्योसे सम्पन्न होते हुए (मृत्युके बाद)
स्वर्गमें प्रचुर मात्रामें दिव्य तथा सुन्दर भोगोंका उपभोग
करता है, तत्पश्चात् स्वर्गसे इस लोकमें आकर ब्राह्मणोंके
वंशमें उत्पन्न होता है और पूर्व-संस्कारोंकी महिमाके
कारण ब्रह्मविद्याको प्राप्त कर लेता है॥ १२३--१२६ ॥
इस (पुराण)-के एक ही अध्यायके पाठ करनेसे
सभी पापोंसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है और जो इसके अर्थपर
ठीक-ठीक विचार करता है, वह परमपद प्राप्त करता है।
श्रेष्ठ द्विजो ! ब्राह्मणोंको प्रत्येक पर्वपर महापातकोंका नाश
करनेवाले इस पुराणका नित्य अध्ययन एवं श्रवण करना
चाहिये। एक ओर सभी इतिहास-पुराणोंको (शास्त्रीय
विचारणाकी कसौटीपर) रखा जाय और दूसरी ओर
अकेले इस श्रेष्ठ कूर्मपुराणको रखा जाय तो यही अपेक्षाकृत
अतिशय विशिष्ट सिद्ध होगा। जो व्यक्ति धर्ममें निपुणता
प्रात करना चाहते हों, और जो ज्ञानमें निपुणता प्राप्त करनेके
अभिलाषी हों उनके लिये एकमात्र इस पुराणको छोड़कर
और कोई दूसरा श्रेष्ठ उपाय नहीं है॥ १२७--१३० ॥
सुब्रतो! इस पुराणमें जिस प्रकारसे भगवान् हरि
नारायण देव विष्णुका कीर्तन हुआ है, वैसा अन्यत्र नहीं
है। यह पौराणिकी ब्राह्मीसंहिता पापोंका नाश करनेवाली
है। इसमें परम ब्रह्मका यथार्थरूपमें कीर्तन किया गया
है। यह तीर्थोमें परम तीर्थ, तपोंमें परम तप, ज्ञानोमें
परम ज्ञान और ब्रतोंमें परम व्रत है॥ १३१--१३३॥
इस शास्त्रका अध्ययन वृषल (अधार्मिक व्यक्ति)-
के समीप नहीं करना चाहिये। जो अध्ययन करता है, वह
अज्ञानी है, वह बहुतसे नरकोंको प्राप्त करता है॥ १३४ ॥
द्विजातियोंके श्राद्ध अथवा देवकार्यमें इस ब्राह्मीसंहिता
(कूर्मपुराण)-को सुनाना चाहिये। यज्ञकी पूर्णतापर
विशेषरूपसे (इसका पाठ करनेसे एवं) श्रवण करनेसे
सभी दोषोंसे शुद्धि हो जाती है॥१३५॥
मोक्ष प्राप्त करनेकी इच्छा करनेवालोंको
विशेषरूपसे वेदके अर्थका विस्तार करनेवाले इस
शास्त्रका श्रवण, अध्ययन तथा मनन करना चाहिये।
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ज्ञात्वा यथावद् विप्रेन्ऑान् श्रावयेद् भक्तिसंयुतान्।
सर्वपापविनिर्मक्तो ब्रह्मसायुज्यमाप्नुयात्॥ १३७॥
यो< भश्रदधाने पुरुषे दह्याच्याधार्मिके तथा।
स प्रेत्य गत्वा निरयान् शुनां योनि ब्रजत्यध: ॥ १३८ ॥
नमस्कृत्वा हरि विष्णुं जगदयोनिं सनातनम् |
अध्येतव्यमिदं शास्त्र कृष्णद्वैघधायनं तथा। १३९॥
इत्याज्ञा देवदेवस्य विष्णोरमिततेजसः |
पाराशर्यस्य विप्ररषेव्यासस्यथ च महात्मन: ॥ १४० ॥।
श्रुत्वा नारायणाद् दिव्यां नारदो भगवानृषि: ।
गौतमाय ददौ पूर्व तस्माच्यैव पराशर:॥ १४१॥
पराशरो5डपि भगवान् गड्ढाद्वारे मुनी श्वरा: ।
मुनिभ्य: कथयामास धर्मकामार्थमोक्षदम्॥ १४२॥
ब्रह्मणा कथितं पूर्व सनकाय च धीमते।
सनत्कुमाराय तथा सर्वपापप्रणाशनम्॥ १४३॥
सनकाद् भगवान् साक्षाद् देवलो योगवित्तम: ।
अवाप्तवान् पञ्चशिखो देवलादिदमुत्तमम्॥ १४४॥
सनत्कुमाराद् भगवान् मुनि: सत्यवतीसुत: ।
लेभे पुराणं परमं व्यास: सर्वार्थसंचयम्॥ १४५॥
तस्माद व्यासादहं श्रुत्वा भवतां पापनाशनम्।
ऊचिवान् वे भवद्धिश्न दातव्यं धार्मिके जने।। १४६ ॥
तस्मै व्यासाय गुरवे सर्वज्ञाय महर्षये।
पाराशर्याय शान्ताय नमो नारायणात्मने॥ १४७॥
यस्मात् संजायते कृत्स्न॑ यत्र चेव प्रलीयते।
नमस्तस्मै सुरेशाय विष्णवे कूर्मरूपिणे॥ १४८ ॥
* कूर्मपुराण *
इसका ठीक-ठीक ज्ञान प्रापत्कर भक्तियुक्त श्र्ष्ठ
ब्राह्मणोंको इसे (सबको) सुनाना चाहिये। इससे वह
व्यक्ति सभी पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्म-सायुज्य प्राप्त
करता है। जो (व्यक्ति) श्रद्धारहित तथा अधार्मिक
पुरुषको इसका उपदेश देता है, वह परलोकमें जाकर
नरकोंका भोग भोगकर पुनः मृत्युलोकमें कुत्तेकी योनिमें
जन्म लेता है। 'संसारके मूल कारण सनातन हरि विष्णु
तथा कृष्णद्वेषायन व्यासजीको नमस्कार करके इस
शास्त्र (पुराण)-का अध्ययन करना चाहिये'--अमित
तेजस्वी देवाधिदेव विष्णु और पराशरके पुत्र महात्मा
विप्र्षि व्यासकी ऐसी आज्ञा है॥१३६--१४० ॥
नारायणसे इस दिव्य संहिताको सुनकर भगवान् नारद
ऋषिने पूर्वकालमें गौतमको इसका उपदेश दिया था और
उनसे पराशरको यह (शास्त्र) प्राप्त हुआ। मुनीश्वरो!
भगवान् पराशरने भी गड्ज़ाद्वार (हरिद्वार)-में धर्म, अर्थ,
काम तथा मोक्षरूप चतुर्विध पुरुषार्थकों देनेवाले इस
पुराणको मुनियोंसे कहा। पूर्वकालमें धीमान्ू सनक और
सनत्कुमारको सभी पापोंका नाश करनेवाले इस शास्त्रका
उपेदश ब्रह्माने दिया था। सनकसे योगज्ञानियोंमें श्रेष्ठ
साक्षात् भगवान् देवलने और देवलसे पञ्मशिखने इस
उत्तम शास्त्रको प्राप्त किया। सत्यवतीके पुत्र भगवान् व्यास
मुनिने सभी अर्थोंका संचय करनेवाले इस श्रेष्ठ पुराणको
सनत्कुमारसे प्राप्त किया। १४१--१४५ ॥
उन व्याससे सुनकर मैंने आप लोगोंसे पापोंका नाश
करनेवाले इस पुराणको कहा है। आप लोगोंको भी धार्मिक
व्यक्तिको (इसका उपदेश) प्रदान करना चाहिये॥ १४६॥
पराशरके पुत्र सर्वज्ञ, गुरु, शान्त तथा नारायणस्वरूप
महर्षि व्यासको नमस्कार है। जिनसे सम्पूर्ण संसारकी
उत्पत्ति होती है और जिनमें यह सब लीन हो जाता
है, उन देवताओंके स्वामी कूर्मरूप धारण करनेवाले
भगवान् श्रीविष्णुको नमस्कार है॥ १४७-१४८॥
इति श्रीकूर्मपुराणे षट्साहरत्रयां संहितायामुपरिविभागे चतुश्चत्वारिंशोडध्याय:॥ ४४॥
(उपरिविभाग: समाप्त:)
॥ इति श्रीकूर्मपुराणं समाप्तम्॥
इस प्रकार छ: हजार श्लोकोंवाली श्रीकूर्मपुराणसंहिताके उपरिविभागमें चौवालीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥ '४४ड४॥
(उपरिविभाग समाप्त)
॥ श्रीकूर्मपुराण समाप्त ॥